रविवार, 1 अक्तूबर 2023

आज अचानक स्टोव याद आ गया...

15.9.23


आज शाम मैं पैदल स्टेशन की तरफ़ जा रहा था तो मेरी निगाह अचानक मेरे आगे चल रहे एक शख्स पर पडी जिसने स्टोव उठा रखा था....मुझे याद नहीं इस तरह से स्टोव को हाथ में उठाए मैंने आखिरी बार कब देखा था...वह भी स्कूल और कभी कालेज के दिनों में ही ...मैंने झट से इस मंज़र की एक-दो तस्वीरें खींच लीं....क्योंकि एक दो पिछले साल एक एंटीक शॉप में ही देखा था इस तरह का स्टोव...बाकी तो यह सब अब कहां दिखता है...

इंसान भी कितना जिज्ञासु जीव है ...फोटो खींच लेने के बाद मुझे यह चाह होने लगी कि किसी तरह इस शख्स से दो बातें भी हो जाएं...बस फिर क्या था, मैं दो चार कदम तेज़ चला और उस के पास पहुंच कर मुस्कुराते हुए कहने लगा कि आज मुद्दतों के बाद इस स्टोव के दर्शन हुए ....मेरी बात सुन कर वह भी हंसने लगा ...बस, फिर बात चल निकली। 

उस ने बताया कि यह स्टोव उस के पड़ोस में अकेले रहने वाली एक बुढ़िया काकी का है ....उन का पति सरकारी नौकरी करता था, रिटायर होने के बाद अब वह परलोक सिधार चुके हैं, महिला को पेंशन आती है, आराम से बैठ कर खाती है...फ्लैट अपना है उस काकी का ...दो बेड-रूम वाला ....एक लड़की है जिस की शादी हो चुकी है और वह इंगलैड में रहती है। काकी कहीं आती जाती नहीं, और अगर कहीं जाना भी हुआ तो टैक्सी में ही जाती है, मैं उस की मदद के लिए साथ चला जाता हूं। 

वह अपने आप ही कहने लगा कि घर का सामान, सब्जी-फल सब वह ही लाता है..दस बीस रूपये दे देती है ..चाय पिला देती है ...वह कहने लगा कि वैसे तो मदद करने के एवज़ में किसी से कुछ लेना नहीं चाहिए...मैंने कहा, ऐसी क्या बात है, वह खुशी से ही तो देती है तु्म्हें अपना समझ कर। हां. हां --वह कहने लगा कि यह तो है और अगर कभी उस की चाय न पियो तो नाराज़ हो जाती है, गुस्सा करती है कि तुम मेरी चाय भी नहीं पीते। कहने लगा कि आधार कार्ड दिखा रही थी मुझे कुछ दिन पहले 1931 का जन्म है उस काकी है। 

1.10.23

मैंने अभी देखा मैंने इस पोस्ट को लिखना तो दो सप्ताह पहले शुरू किया था ...लेकिन याद है कि अचानक लिखते लिखते नींद आ गई...सो गया...और फिर कभी इसे पूरा करने की इच्छा ही न हुई। 

अब देखता हूं लिखते लिखते क्या बातें उस दिन की याद हैं ..बची खुची। लिखना ज़रुरी है ...कुछ भी जो मन में आए लिखते रहा करें...कुछ भी ...बरसों बाद यही साहित्य कहा जाएगा..। हां, मैंने पूछा कि कहां से इस स्टोव को मुरम्मत करवा लाए। उसने जगह का नाम बताया ....और यह भी बताया कि मुरम्मत पर 50 रूपए खर्च हुए हैं...

चलते चलते मुझे ख्याल आया कि मिट्टी का तेल (घासलेट, केरोसीन) तो आज कल मिलता नहीं है....उसने बताया कि सब मिलता है ..लेकिन अब सफेद रंग में मिलता है और 100 रुपए लिटर मिलता है। वह उस काकी के लिए खरीद के लाता है। रास्ता अभी पड़ा था...और मैंने उस से यह भी पूछ ही लिया कि जैसे एक स्टोव खराब हो गया तो जब तक वह ठीक नहीं हो जाता तब तक उस वृद्धा का खाने-पकाने का काम कैसे चलता है। उसने बताया कि काकी बहुत होशियार है, उसने दो स्टोव रखे हुए हैं, चकाचक हालात में हैं दोनों...एक खराब हुआ तो दूसरे स्टोव से उस का काम चल जाता है। 

मैंने उस से कहा कि आज के ज़माने में भी स्टोव का इस्तेमाल करना ...कुछ हैरान सा करता है। कुकिंग गैस का कनेक्शन क्यों नहीं ले लेतीं वह ...यह सुन कर उसने बताया कि ले सकती हैं, ज़रूर ले सकती हैं लेकिन उसे गैस के चूल्हे से आग लग जाने का डर लगता है ....

मुझे उस की यह बात सुन कर यह ख्याल आया कि यह जलने-जलाने का सिलसिला तो स्टोव के दिनों में भी होता रहा ....मुझे याद है हम छोटे छोटे थे, मां जब स्टोव को जलाने के लिए संघर्ष कर रही होती बार बार पिन मार मार कर और अगर हम साथ ही बैठे होते तो हमें झट से परे कर देती कि दूर रहो, यह अचानक कईं बार धधक पड़ता है ....हम दूर हो जाते ..वह लगी रहती। 

मुझे याद है वर्ष 1972 दिसंबर के आखरी हफ्ते में हमारे यहां अमृतसर में कुकिंग गैस आई थी, कुल खर्च दो सौ रुपए से कम आया था ...सिलेंडर उन दिनों 21 रूपये का होता था.(इस की रसीद बरसों पहले मुझे मेरे पिता जी की लोहे की संदूकची में पड़ी मिली थीं जिस में वह ज़रूरी कागज़ रखते थे) ....दूसरा सिलेंडर उन दिनों नहीं मिलता तो, कईं कईं दिन बुकिंग करवाने के बाद इंतज़ार करना होता था, वेटिंग लिस्ट हुआ करती थी, काला बाज़ारी ज़रूर होती होगी, सुनते थे ...लेकिन अपने पास ये सब साधन नहीं थे, इसलिए इत्मीनान से मां अपनी पुरानी अंगीठी और स्टोव का रुख कर लेती। 

जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है ....गैस सिलेंडर खत्म होने पर या घर में कुकिंग गैस आने से पहले घर में अंगीठी का ही ज़्यादा इस्तेमाल होता था... स्टोव कभी कभी एमरजेंसी में जलाया जाता था क्योंकि मिट्टी का तेल भी उन दिनों राशन की दुकान से ही मिलता था ...यही कोई पांच लिटर महीने का ...और वह राशन की दुकान वाला बड़ा धूर्त था ...कितने चक्कर लगवाता था, बड़ी बहन के लेडी-साईकिल के कैरियर के पीछे पांच लिटर की पीपी लेकर वहां जाना याद है ....और पांच लिटर की उस की क्षमता होते हुए भी वह उसमें पांच लिटर तेल जब डाल देता तो भी वह ऊपर तक न दिखता ....घर आने पर जब मां देखती कि कितना कम है, तो वह भी उसे कोसने लगती....खैर, दिन बढ़िया चल रहे थे ....मिट्टी का तेल तो शायद दूसरी दुकानों से भी मिल ही जाता होगा और कभी हम लोग ले भी आते होंगे ...एमरजैेंसी में ....लेकिन यह सब ब्लैक में कैरोसीन हो या सिनेमा की टिकटें खरीदना ....यह अपने लिए कभी सिरदर्दी न रहा क्योंकि हम लोग हैंथ टू माउथ जीने वाले लोगों की श्रेणी में आते थे ...अब तो कईं फेशुनेबल लफ़्ज़ आ गए हैं ...शू-स्ट्रिंग बजट पर जीना .....इत्यादि इत्यादि ....सही मायने वही लोग जानते हैं जो उस वक्त के साक्षी रहे हैं...

हां, तो अंगीठी तो तभी जलाई जाती थी जब सारा खाना उस पर पकाया जाना होता...लेकिन ऐसे ही चाय वाय उबालने के लिए, दूध गर्म करने के लिए स्टोव ही जला लिया जाता...गैस आने के बाद अंगीठी और चूल्हा दूर होते गए, लेकिन तब भी बढ़िया सी दाल और सरसों का साग इस की आंच पर ही पकता....गैस पर पके हुए सरसों का साग हमे बकबका लगता, दाल भी फीकी लगती ....हा हा हा हा हा ......यह तो हम थे, उन दिनों लोग यह भी शिकायत करने लगे थे अड़ोस-पड़ोस में कि जब से गैस आई है उन के तो पेट मे गैस बनने लगती है ...😎😀 ...वैसे तो जब नए नए स्टील के बर्तन 1970 के आस पास चलने लगे तो यह अफवाह आम थी कि इन के इस्तेमाल से कैंसर हो जाता है ...😇

पीतल का स्टोव मुझे अच्छे से याद है जिस को बार बार मुरम्मत के लिए ले जाना पड़ता था कभी उस का कुछ खराब हो जाता तो कभी कुछ ...लिखते लिखते बातें याद आ जाती है...उन दिनों हमने यह भी सुना था कि कईं बार कोई स्टोव फट गया ....किसी का चेहरा जल गया...मां को इसलिए भी स्टोव से बड़ा खौफ़ लगता था ....उसे एकदम चालू हालत में रखती थीं...मुझे इतना याद है कि जब बहुत छोटे थे तो हमें पांच पैसे की स्टोव की पिन लेकर आनी होती थी ...पांच पैसे की पांच ...जिस से स्टोव को जलाने में मदद मिल जाती थी ...कईं बार दो तीन पिन बार बार स्टोव के सुराख में जब वह न जलता तो मैं परेशान हो जाती ....थक भी जाती होंगी, झुंझलाती भी होंगी ...लेकिन नहीं खाना तो पकना ही होती, चाय और परांठे भी तैयार होने होते  ...इसलिए झट से अंगीठी जलाने की तैयारी करने लगती ....कईं बार सोचता हूं तो लगता है कि मेरी उम्र के अधिकतर लोगों ने भी बहुत से दौर देखे हैं, हम बदलते वक्त के गवाह रहे हैं...और हां, स्टोव जलाने के लिेए एक कॉक भी तो हुआ करता था जिसे मिट्टी के तेल के छोटे से डिब्बे में डुबो कर रखा जाता था ...यह भी स्टोव जलाने में मददगार होता था ...

हां, जब गैस आ गई तो धीरे धीरे जागरूकता के चलते अंगीठी तो रसोई के बाहर ही रखी जाती और स्टोव भी ....उन दिनों हम लोग बहुत डरते थे गैस से ...दिन में जितनी बार गैस को जलाना, उतनी बार बुझा कर, नीचे से उस की नॉब को घुमा कर बंद भी करना ...कस कर ....इतना कस कर कईं बार कि अगली बार मां से वह खुल ही न पाए या कईं बार तो उस गैस की नॉब की चूड़ीयां ही घिल जाती होंगी ....(एक आध बार ऐसा हुआ भी ....पता नहीं क्यों)....

घर में 1972 के आखरी दिनों में गैस आने की बात याद आती है तो उस दिन पहली बार बनी चाय की भी याद आती है ....दो मिनट में चाय तैयार ....करिश्मा लग रहा था। गैस घर में पहुंचने के कुछ दिन पहले पता चल जाता था ...गैस एजैंसी के चक्कर काट काट के जूते घिसवाने के बाद, फिर रसोई में सीमेंट की एक स्लैब का प्रबंध किया गया....उस सरकारी मिस्तरी के लिए भी यह काम नया था ....उसने तो पक्की मजबूत स्लैब जब तैयार कर दी बिल्कुल लेंटर जैसी ....लेकिन जब तक गैस आ गई और उसे उस स्लैब पर रखा गया तो पता चला कि वह तो बहुत ऊची बन गई है ...उस पर काम करने के लिए मां को नीचे दो तीन ईंटे रखनी पड़तीं... परेशान हो गई मां ....फिर उस सरकारी मिस्तरी ने एक दूसरी स्लैब बनाई ....दूसरी दीवार पर ....पहले वाली से एक फुट के करीब नीचे ....फिर वह गैस की जगह बदल गई और पहली स्लैब पर बर्तन सजाए जाने लगे ....हा हा हा ....कुछ दिन पहले मैं और मेरी बड़ी बहन ये सब बातें याद कर खूब हंस रहे थे ....कुछ यादें होती ही ऐसी हैं....

लगता है बंद करूं अब इस पोस्ट को ....बहुत हो गया....गैस की लंबी प्रतीक्षा सूची और कनेक्शन मिल जाने के बाद भी किल्लत, मिट्टी के तेल की काला बाज़ारी.....ये सब बातें मेरी उम्र के लोग भुगत ही चुके होंगे ...लेकिन एक बार की बात है बचपन में जब गैस नहीं आई थी, तेल भी नहीं मिल रहा था और कोयला भी न मिल रहा था ...मुझे एक ही ऐसा वाक्या याद है कि मां ने चूल्हे पर रोटी बनाने के लिए लकड़ी के टॉल (लकड़ी की आरा मशीन) से लकड़ी के डक्क (पंजाबी लफ़्ज़ है लकड़ी के छोटे टुकड़ों के लिए) मंगवाए थे ...मुझे याद है मेरा बडा़ भाई उन को बोरे में ला रहा था ....मैं उस के साथ कुछ दूरी पर पैदल चल रहा हूं....

हम बहुत आधुनिक हो गए हैं....अब ज़माना है दाल सब्जी रोटी परांठे (रेडीमेड) का, रेडी़ टू इट, रेडी टू कुक ....गर्म करने का झंंझट नहीं, एक मिनट दाल को गर्म करने पर माइक्रोवेव में वह मुंह जला देती है ....लेकिन हम भी क्या करें, हमें अंधी दौड़ में पीछे न रह जाने की फ़िक्र है ....हम भाग रहे हैं....हमें अपने खाने-पीने से अब कुछ खास मतलब नहीं रहा ....पेट भर लेते हैं....और उस के नतीजे जो देश समाज के सामने आ रहे हैं, उस के बारे में भी हम सब जानते हैं.....

उस स्टोव वाले बंदे ने आज मेरी यादों के मकड़जाल को छेड़ दिया हो जैसे.....कुछ फिल्मी गाने भी अपने से लगते हैं, गुज़रे ज़माने के परिवेश से मिलते जुलते हैं.....याद दिलाते हैं उन्हीं दिनों की ....मां की भी .... 



शनिवार, 8 जुलाई 2023

चूहेदानी से आप को भी कुछ तो याद आएगा....


कुछ दिनों पहले की बात है घर से कबाड़ निकाला जा रहा था ...मुझे तो ऐसे लगने लगा है कि जिन घरों में भी ज़रुरत से ज़्यादा सामान होता है वे कबाड़ी की दुकान जैसे ही लगने लगते हैं ..लेकिन यह भी एक तरह की बीमारी है जो बस लग जाती है , समय रहते इसका इलाज भी ज़रूरी है...खैर, जैसे ही मुझे यह चूहेदानी दिखी तो मुझे तो गुज़रा ज़माना याद आ गया और मैंने इस की फोटो खींच ली...

मैं यही सोचने लगा कि पहले दिनों में कैसे चूहों से निजात पाई जाती थी ...सब से पहले तो मुझे मेरे स्कूल के पांचवी कक्षा के गुरुजी याद आए ...जिन्होंने हमें उन दिनों यह बताया कि अनाज के भंडारण को कैसे किया जाए कि उसके अंदर चूहे दाखिल न हो पाएं...सच में मुझे उन की एक ही बात याद रह गई ...अनाज के भंडारण के लिए वह भड़ोली आदि की बातें कर रहे थे ...यह एक पंजाबी लफ़्ज़ है मेरे ख्याल है ...दरअसल आज से 50-55 बरस पहले क्या होता था कि गांव-कसबे में अनाज के भंडारण के लिए घरों में मिट्टी की बनी भड़ोली का इस्तेमाल होता था ...फिर धीरे धीरे लोहे की बड़ी बड़ी 5-6-8-10 फुट (ज़रूरत के मुताबिक) पेटियों में घरेलू इस्तेमाल के लिए अनाज रखा जाने लगा....

हां, मुद्दा तो आज का चूहेदानी है ....बचपन की याद है मुझे बस इतनी कि पूरे गली-मोहल्ले में दो तीन घरों में ही लकड़ी की चूहेदानी होती थी, वह कभी खराब न होती थी, कभी धोखा न देती थी ...यह भी एक स्टेटस-सिंबल से कम बात न थी कि सोढी के घर में या कपूर के घर में चूहेदानी है। पहले हम लोग घरों में तरह तरह का कबाड़ खाने-पीने-पहनने का .....इक्ट्ठा ही कहां होने देते थे ...साफ़ सफ़ाई टनाटन हुआ करती थी ...और अगर कभी रसोई में चूहा दिख गया तो बस, फिर किसी के घर से वह लकड़ी की चूहेदानी लानी होती थी। और रात में खाने के वक्त चूहा पकड़ने की साज़िश होती थी कि आज चूहेदानी में रोटी लगा के सोना है ...और मां सोने से पहले रोटी का एक टुकड़ा उस के अंदर किल्ली में फँसा कर ही सोती ...सुबह उठते ही अगर तो चूहा उसमें फंसा हुआ मिलता तो सब की खुशी का पारावार कुछ इस तरह का होता जैसा किसी बहुत बड़े पहाड़ पर विजय हासिल कर ली हो...और अगर उसमें रोटी गायब होती और लेकिन चूहेदानी का मुंह खुले का खुला होता तो ऐसे लगता जैसे पता नहीं कौन सी जंग हार गए हैं, पल भर की मायूसी और फिर ठहाकों का दौर ...कि चूहा पिंजरे से भी बच कर निकल गया....रोटी उड़ा कर ले गया....देखा जाए तो उस दौर के सीखे हुए ये सबक थे ...जाको राखे साईंयां मार सके न कोए....

कल मुंबई की बरसात में भी यह साईकिल सवार दिखा ..एक हाथ से साईकिल चला रहा था, दूसरे से छाता थामे हुए था ...

और जिस घर में चूहा चूहेदानी में फंसा मिलता तो आसपास दो चार लोगों को (खासकर हमारे जैसे शरारती बच्चों को) तो यह पता चल ही जाता और हम आगे की प्रक्रिया सोच कर रोमांचित होते ....मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है कि हमारे घर से चार पांच घर छोड़ कर ही एक शाम लाल नाम के अंकल जी रहते थे ..उन के घर में हर सप्ताह महिलाओं का कीर्तन हुआ करता था दोपहर में ...और एक बात उन के बड़े बेटे को मैंने इतनी बार साईकिल पर चूहेदान को पीछे कैरियर पर रख कर जाते देखा कि मुझे जब भी वह बंदा दिखता तो मुझे यही लगता जैसे वह इसी काम के लिए जा रहा है ....अब हर किसी के साईकिल के पीछे कैरियर तो नहीं होता था ..इसलिए कुछ जां बाज़ लोग एक हाथ में चूहेदानी और एक हाथ से साईकिल चलाते हुए अपनी मंज़िल की तरफ़ निकल पड़ते।

हां, तो यह मंज़िल क्या होती थी, हम को अच्छे से पता होता था ...इसलिए जो भी बच्चे किसी को इस तरह चूहेदानी को थामे या साईकिल के पीछे रखे हुए देख लेते, अपने सभी खेल, कंचे, गुल्ली-डंडा .....सब कुछ छोड़-छाड़ कर हम उस साईकिल वाले के पीछे हो लेते ...कोई ज़्यादा दूर नहीं जाना होता था चूहे को उस की मंज़िल तक पहुंचाने के लिए .....यही कोई चार पांच सौ मीटर पर ही उस की मंज़िल होती थी ...यह दो तरह की होती थी ..एक तो कोई खुला सा बड़ा सा नाला ...या पास में ही मौजूद कोई बडा़ सा खेल का मैदान ...यह उस साईकिल सवार की डिस्क्रिशन होती थी ....अपने आसपास पांच सात बच्चों का जमावड़ा देख कर वह भी अपने आप पर, अपनी बहादुरी पर अंदर ही अंदर इतराता तो ज़रूर होगा...

हमारे लिए वह पल रोमांच से भरा होता था जब चूहेदानी का किवाड़ खुलते ही जनाब चूहा जी फुदक कर बाहर निकलते ...लेकिन अकसर नाली में गिरने की बजाए वह उस के किनारे पर लैंड कर के सरपट दौड कर देखते ही देखते आंखों से ओझिल हो जाता.(हम लोगों के बिंदास ठहाके शुरु हो जाते) ..और उस साईकिल वाले बहादुर का मुंह उतर सा जाता कि अगर फिर से यह उसी के घर में आ गया तो ....लेकिन नाले में गिरने से कौन सा गारंटी होती कि वह वापिस न आएगा....आज सोचता हूं तो यही लगता है कि यह सारी प्रक्रिया बस उतने तक महदूद थी कि इस बला को अपने घर से तो निकालो....वापिस लौट कर कहीं भी जाए....

अभी लिखते लिखते याद आया कि कईं बार ऐसा होता था कि घर में कोई चूहेदानी के साथ साईकिल या पैदल यात्रा करने के लिए राज़ी न होता तो उस चूहेदानी के घर के दरवाजे के बाहर ही खोल दिया जाता ....वह नज़ारा हमें इतना रोमांचक न लगता ..लेकिन कभी कभी उस में भी रोमांच का तड़का लग ही जाता जब चूहा पिंजरे से निकल कर मोहल्ले में किसी दूसरे के घर में घुस जाता और अगर उस घर का कोई सदस्य भी यह देख रहा होता तो खामखां एक तकरार सी हो जाती कि यह क्या बात हुई ....अपने घर से निकाल कर इधर भेज दिया...खैर, वह भी बस थोड़े वक्त के लिए ...(कईं बार तो चूहा वापिस अपने पैतृक घर में ही वापिस लौट जाता) ...

बाद में चूहेदानीयां लोहे से तैयार हुई भी मिलने लगीं  और कईं बार तो चूहा रोटी ले कर निकल जाता लेकिन उसमें फंस न पाता ...लेकिन कईं बार बहुत मोटा चूहा अगर उस में फंस जाता तो यह साजिश रचने वाले को उतनी ही ज़्यादा खुशी मिलती। फिर कुछ चूहे मारने की दवाई तो आने लगी जिसे रोटी की जगह उस पिजरे में रखा जाने लगा, जिससे वह मर कर उसी में कैद हो जाता  ...हमेें यह देख कर बहुत बुरा लगता कि यह मारने वारने का क्या चक्कर हुआ ...यह तो बहुत बुरी बात है ...हर किसी को जीने का हक है...


बस, पुरानी यादें तो यहीं तक थीं ....फिर धीरे धीरे पता नहीं चूहे के ज़हर के नाम पर क्या क्या आने लगा ....बेचारे चूहों को शर्तिया मारने की बातें होने लगीं.. ....अब तो बाज़ार में आते जाते देखते हैं कि कुछ ऐसे उत्पाद भी आ गये हैं इसी काम के लिए जिनसे हर्बल गैस निकलती है और वह इन चूहों का सफाया कर देती है ...अकसर बाज़ार में ड़ों आते जाते इस तरह के व्यापारी दिख जाते हैं ....लेकिन मैं इन सब खतरनाक जुगाड़ों का हिमायती नहीं हूं बिल्कुल भी ....

आज दोपहर की बात है ...बंबई के फुटपाथ पर एक बंदा आठ दस छोटे छोटे पाउच रखे बैठा था ..उन पर लिखा था ...रैट-प्वाईज़न ....100% प्वाईज़न---फोटो ले लेता अगर उस वक्त मैं बंबई की उमस की वजह से पसीने से लथपथ न होता ...मैं उसे देख कर यह सोचते हुए आगे बढ़ गया कि क्या ज़माना आ गया, ज़हर के लिए भी सौ-फ़ीसदी की शुद्धता की गारंटी देनी पड़ती है ....व्यापारी भी क्या करें, हर तरफ़ मिलावटखोरी का बोलबाला जो है ....

चलिए, मेरा एक काम तो पूरा हुआ....मैं कईं बार लिखता हूं न कि कुछ पुरानी आइट्म, बातें, यादें मुझे लिखने के लिए प्रॉप्स का काम करती हैं, जैसे डॉंसर प्रॉप्स इस्तेमाल करते हैं, कुछ कुछ शायद उसी तरह से ...वैसे चूहेदानी की पुरानी बातों से आप को कुछ तो अपने दिन भी याद आए ही होंगे, अगर ऐसा है तो लिख दीजिए इस ब्लॉग के नीचे कमैंट्स में ...अगर अनानीमस (बेनामी) टिप्पणी भी लिखना चाहें तो लिख दीजिए....दिल को हल्का कर लीजिए...

बुधवार, 24 मई 2023

बिनाका गीत माला - कुछ यादें , कुछ बातें !

अभी मैं अपने रूम की थोड़ी साफ़ सफ़ाई कर रहा था तो अल्मारी के एक कोने में एक छोटी सी किताब दिख गई ...करीब ५० साल पुरानी है ...नाम है हिट फिल्मी गीत -बिनाका गीतमाला-३ (१९७०-१९७६)- मेरे पास तो यह दो तीन बरसों से ही है, यही बंबई से इसे खरीदा था ...उस दिन यह लग रहा था कि काश, इस के सभी अंक कहीं से भी मिल जाएं तो ले लूं...अमीन सयानी की जादुई आवाज़ भी याद है हम सब को ...

खैर, मुझे उन दिनों की याद करने के लिए ऐसी पुरानी चीज़ें लगती हैं...यह उन दिनों की बात है जब बिनाका गीत माला ही दिसंबर महीने की हमारी सब से बड़ी दिल्लगी हुआ करती थी ...हमें बस यही फ़िक्र रहती थी कि ईश्वर कृपा करें शाम को इस प्रोग्राम के दौरान हमारा रेडियो चलता रहे ....रेडियो भी उन दिनों बड़े नखरे करता था ....कईं पापड़ बेलने पड़ते थे उस की स्पष्ट आवाज़ सुनने के लिए...खैर, कभी आप को अपने रेडियो से जुड़े ब्लॉग का लिंक दूंगा ..जिसमें मैंने रेडियो के बारे में सभी बातें लिख डाली हैं....रेडियो लाईसैंस फीस देने वाले दिनों की बातें भी ..

खैर, मैं इस वक्त जब यह लिख रहा हूं सच में मुझे याद नहीं आ रहा कि क्या मनोरंजन के नाम पर हमारी ज़िंदगी मेे उन दिनों बिनाका गीतमाला के अलावा कुछ था ....अपने आप से पूछता हूं तो पक्का जवाब मिलता है ...नहीं, बिल्कुल नहींं। यह हमारे लिए ऐसे था जैसे आज की पीढ़ी के लिए बिग-बॉस...या कुछ और ...मुझे तो आज के टीवी के प्रोग्रामों के नाम भी नहीं आते ...आठ दस साल से देखा ही नहीं, ऑउट ऑफ टच....😂

हमारे बचपन का सच्चा साथी...मरफी का यह रेडियो ...आज भी देश के किसी कोने में यह हिफ़ाज़त से रखा हुआ है ...धरोहर है अपनी..

और जो इकलौता रेडियो घर में होता था हम उस के रहमोकरम पर रहते थे ...मेरे भाई को भी रेडियो सुनने का बड़ा शौक था...वह तो उस की आवाज़ साफ़ साफ़ सुनने के लिए थपथपाता ऱहता था उस को ...यह जो मैं तस्वीर यहां लगा रहा हूं यह हमारे घर के मरफी रेडियो की तस्वीर है जिस के साथ अनेकों यादें जुड़ी हुई हैं, दबी पड़ी हैं....उन में से कुछ लिख कर हल्कापन महसूस कर लेते हैं...


यह भी इसी किताब का ही एक पन्ना है ...

दिक्कत उन दिनों की यह भी थी कि रेडियो सुनना भी लगभग एक ऐब ही माना जाता था ....पढ़ाई के वक्त तो रेडियो डर डर के सुनते थे और हमारी कोशिश होती थी कि शाम के वक्त पिता जी के दफ्तर से लौटने से पहले सब गाने वाले सुन सना के उसे बंद कर दें और अपनी कोई कापी किताब उठा लें..(आठवीं क्लास में किताब में रख कर एक नावल भी पढ़ा था, बस एक बात ..उस के बाद पढ़ाई से ही कभी फुर्सत न मिली...लेकिन वह अपराध बोध उम्र भर के लिए साथ रह गया) ...रात के वक्त भी सुनने की इतना छूट न थी ...हमारा रेडियो पहले तो गर्म होने में वक्त लेता था ....ये सब बातें १९७० के दशक के शुरूआती बरसों की हैं...फिर तो १९७५ में हमने बुश का एक ट्रांजिस्टर ले लिया था ..बंबई आए हुए थे ...हमारे ताऊ जी का दामाद बुश कंपनी में बड़े ओहदे पर था ...उसने छूट दिलवा दी थी ....और मुझे याद है हम लोग उस ट्रांजिस्टर को शुरू शुरू में बहुत संभाल कर रखते थे ..अभी भी याद है शाम के वक्त आंगन में चारपाईयां बिछी हुई हैं, पंखे लगे हुए हैं, दो तीन अड़ोसी-पड़ोसी बैठे हुए हैं.....उस पर गीत बज रहे हैं, खबरें आ रही हैं, बीबीसी से भी...वह सैलों से भी चलता था और बिजली से भी ...जहां तक मुझे ख्याल है हम उसे बिजली पर ही चलाते थे ...

अगर पढ़ने में दिक्कत हो तो इस इमेज पर क्लिक कर के आसानी से पढ़ सकते हैं..


कहां यार मैं भी किधर निकल गया ....बिनाका गीतमाला की किताब है सामने और मैं कहां चारपाईयों पर उछल कूद करने लगा (उन दिनों हमें यह काम भी करना बहुत पसंद था, चारपाई के टूटने पर अपनी हड्डियों के टूटने की रती भर भी फिक्र न होती थी) ...डायमंड कामिक्स की इस किताब का दाम ३ रूपये लिखा हुआ है जो मुझे लगभग १०० गुणा दाम चुकाने पर मिली ....खरीदने की कोई जबरदस्ती नहीं थी...लेकिन मुझे चाहिए थी...इसे देखते ही मज़ा आ गया था ..

 आज की पीढ़ी को यकीं दिलाने के लिए कि रेडियो सुनने के लिए सालाना १५ रूपये की फीस डाकखाने में जा कर भरनी होती थी ...मैंने भी भरी हुई है ..(यह भी खरीदी हुई कॉपी है)..

ऊपर वाली रेडियो लाईसेंस बुक का एक पन्ना ....

१९७० से १९७६ के दिन अपने भी इन गीतों में डूबे रहने वाले दिन थे ...इस किताब में भी इन सात सालों की लिस्ट लंबी है ..जो बिनाका गीत माला की हिट परेड में शामिल किए गए ..इतनी लंबी लिस्ट कहां लिखता फिरूं....हर साल के पहले नंबर पर आने वाले गीत का नाम यहां लिखता हूं ...

१९७०- बिंदिया चमकेगी चूड़ी खनकेगी...

१९७१- ज़िंदगी इक सफर है सुहाना 

१९७२- दम मारो दम, मिट जाए गम 

१९७३-यारी है इमान मेरा यार, मेरी ज़िदगी 

१९७४- मेरा जीवन कोरा कागज़ कोरा ही रह गया...

१९७५- बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई ..

१९७६- कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ...

अभी मैंने यह सोचा कि अगर मुझे इस पोस्ट के नीचे इन सात बरसों में जो गीत पहले नंबर पर रहे....उन में से एक चुनना होगा तो मैं किसे चुनूंगा ....तो मेरी पसंद बिल्कुल स्पष्ट थी ....और उस वक्त १९७१ में मेरी उम्र थी महज़ ९ साल की ...इतना सुना इस गीत को रेडियो पर, मोहल्ले में लगने वाले लाउड-स्पीकरों पर, सर्कस के मैदानों में.....कि ९-१० साल की उम्र में भी इस गीत का फलसफा शोखी की वजह से हमारे दिलो-दिमाग में कैद तो हो गया, .लेकिन इस की समझ बहुत बरसों बाद आई...😎😁


एक तरफ़ देखिए हमारी पीढ़ी को इन गीतों को सुनने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती थी और दूसरी तरफ़ आज ही की मुंबई की तस्वीर देखिए...मोबाइल पर कुछ भी सुनने का जुगाड़ फुटपाथ पर बैठे बैठे भी हो जाता है....👍 

मुंबई - २४.५.२३