अपने ऊपर ही गुस्सा आता है जब कभी कैमरा धोखा दे देता है ...अकसर हम लोगों को कोई लम्हा ही कैद करना होता है ...अगर ऐन उसी वक्त कैमरा ही नाटक कर जाए तो खुद पर गुस्सा तो आएगा ही ...क्यों नहीं मैंने मोबाईल की यादाश्त का ख्याल रखा..
आज ईद है ...बंबई के बाज़ारों में, स्टेशनों पर खूब रौनकें लगी हुई हैं...लोग नए नए कपड़े पहने बाहर निकले हुए हैं....मुझे अकसर ईद के दिन लखनऊ की होली याद आ जाती है जब लोग वहां पर नए कपड़े होली खेलने के लिए ही सिलवाते हैं...नए नए कपड़े पहन पर होली खेलते हैं....
आज जब मैंने बहुत से लोगों को नए कपड़े पहने देखा तो अच्छा लगा...लेकिन अचानक नज़र पड़ गई दो बंदों पर जिन्होंने पैंट-शर्ट एक ही कपड़े से तैयार हुई पहनी थी...मुझे नहीं याद आज यह नज़ारा मैंने कितने बरसों बाद देखा होगा...मैं थोड़ा सा पीछे हटा...और मोबाईल का कैमरा ऑन करने लगा तो स्क्रीन पर आ गया कि स्टोरेज फुल है, मैनेज करो...क्या मैनेज करो यार, बीच रास्ते में इतनी गर्मी के मौसम में क्या डिलीट करो, क्या रखे रहो...और यह सब भी बीच रास्ते में खड़े होकर ...अपने ऊपर ही खीज गया....वे दोनों तो फ़ौरन आंखों से ओझल हो गए...
मेरे चेहरे पर एक मुस्कान ज़रूर बिखेर गए लेकिन ....
अपने ऊपर आये गुस्से का वक्त जब निकल गया तो यह जो मुस्कान मेेरे चेहरे पर आ गई उस का कारण था....मुझे बीते दौर की कुछ बातें याद आ गईं....बचपन में देखा करते थे कभी कभी मां-बाप थोड़ी बचत करने के लिए दो बेटों को एक ही तरह की निक्कर और शर्ट सिलवा देते थे...एक जैसा कपड़ा....उन्हें देख कर बड़ा मज़ा आता था, शरारतें सूझने लगती थीं, लोग हंसने लगते थे ......एक बात साफ़ कर दूं कि पहले हम लोगों की हंसी में वह मक्कारी नहीं थी जो आज अकसर देखने को मिलती है ...हम अगर ऐसे दो छोटे बच्चों पर हंसते भी थे या कोई फि़करा कस देते थे तो उसमें कुछ भी नहीं होता था...हल्के फुल्के मज़ाक के सिवा.....लेकिन अब हम लोगों की खिल्ली उड़ाने लगे हैं....हमें लगता है कि बस हम ही हम हैं, और कुछ नहीं....उस दिन मैं कालोनी में किसी महिला को किसी अन्य कामकाजी महिला (गृह-सेविका) से ऊंची आवाज़ में बातें करता देख रहा था तो मैंने सुना वह उसे कह रही थी ....तुम्हें पता नहीं तुम बात किस से कर रही हो.....बड़ा अजीब लगा उस दिन। खैर, हम मज़ाक की बात कर रहे थे ....मज़ाक उसे करने का हक है जो दूसरों का मज़ाक सह भी ले ..हमारे ज़माने में यह जज़्बा था ही ...हम भी मज़ाक की बातों को हंसते खेलते हंसी हंसी में उडा़ दिया करते थे ...शायद इसलिए लोगों के चेहरे भी खिले रहते थे ...
अच्छा, एक बात और ....कईं बार ज़रुरी नहीं कि किसी घर के दो बेटे ही दिखते थे एक तरह के कपड़े के ....कईं बार तो भाई ने जिस कपड़े की शर्ट पहनी होती थी, उस की बहन ने उसी कपड़े का फ्रॉक पहना होता था ...कईं बार बड़े लड़के भी एक ही तरह के कपड़े की शर्ट में दिख जाते थे ...लेकिन आज तो 45-50 बरस के दो बंदों को एक ही कपड़े की शर्ट और पतलून में देख कर मज़ा आ गया....कैमरे में कैद करना चाह रहा था क्योंकि ऐसा संयोग बीसियों बरसों में एक बार होता है इस तरह का मंज़र दिखता है ...खैर, कोई बात नहीं, फोटो न सही लेकिन इस पोस्ट के ज़रिए तो मैंने उस लम्हे को अपनी यादों में संजोने की कोशिश कर ली....
मैं फुटपाथ पर चलता चलता यह भी सोच रहा था जब छोेटे छोटे बच्चों को नए नए कपड़ों में आते जाते देख रहा था कि हमारे महान लेखकों ने भी क्या क्या लिख दिया है हमारे लिए ...उस महान लेखक मुंशी प्रेम चंद की कहानी ईदगाह याद आ गई ....वाह, क्या कहानी थी, एक बार सुन तो कभी दिल से न निकले ....इकबाल था शायद उस छोटे का नाम, अपनी बुज़ुर्ग दादी के साथ रहता था...दादी ने ईद के दिन उसे कुछ पैसे दिए कि दोस्तों के साथ ईद के मेले पर जा रहे हो, कुछ खा पी लेना, कुछ खरीद लेना....उस बालक ने अपने ऊपर बड़ा कंट्रोल रखा ...कुछ न खाया, कुछ न पिया, न ही कुछ खरीदा....एक चिमटा खरीद लाया अपनी दादी के लिए ....और मेले से लौट कर उसे कहता है कि दादी, यह इसलिए लाया हूं क्योंकि चूल्हे पर रोटी सेंकते हुए तुम्हारे हाथ अकसर जल जाते हैं....दादी ने उसे गले से लगा लिया.....
एक बात और यह भी मुझे रास्ते में याद आ रही थी कि 12-15 बरस पहले जब मैं ऑन-लाइन कंटैंट तैयार करने के बारे में एक वर्कशाप में भाग ले रहा था तो एक साथी ने एक्सपर्ट से पूछा कि कैमरा कौन सा अच्छा है, उस के बारे में बता दीजिए....उसने कहा कि जो भी जिस वक्त आपने फोटो खींंचनी है, उस वक्त आप के पास जो भी कैमरा है, वह सब से बढ़िया कैमरा होता है।
यह बात समझते समझते हमे ंबरस लग गए...हम लोग लाखों रूपये के कैमरे खरीदते रहे ....हज़ारों रूपयों के लैंस खरीदते रहे ....पता नहीं कहां धूल चाट रहे होगे .......लेकिन हमेशा साथ निभाया हमारी जेब में पड़े मोबाईल के कैमरे ने .......चूंकि हम चलते फिरते फोटोग्राफर हैॆ, हमें स्टिल फोटोग्राफी तो करनी नही, हमें तो कुछ लम्हों को कैद करना होता है जो अपने आप में एक दास्तां ब्यां कर रहे होते हैं....बस एक दो पलों का हेर फेर होता है, कुछ प्लॉनिंग का वक्त नहीं मिलता....कुछ सोचने विचारने का वक्त नहीं होता, ...टार्गेट हमारे सामने होता है और हमें केवल एक बटन दबाना होता है जल्दी से भी जल्दी ...फ़ौरन ....बहुत बार ऐसा होता है कि जेब से फोन निकालते निकालते वह शॉट गुम हो जाता है, मलाल तो होता ही है, क्या करें, इंसान ही तो हैं ....अच्छा, कईं बार ऐसा भी होता है कि मोबाइल तो हाथ में था, लेकिन उसे ऑन करने के चक्कर में वह तस्वीर न ली पाए ....कईं बार कैमरा आन भी हो जाता है और उसे साईलेंट मोड करते करते बहुत देर हो जाती है .......और बहुत बार तो यही होता है जो आज हुआ....स्टोरेज नहीं है...इसलिए, मैं हमेशा कहता हूं कि मोबाइल हाथ में भी हो और कैमरा भी ऑन हो, और फुर्ती से जिसे आप कैमरे में कैद करना चाहते हैं, कर लीजिए...चुपचाप...बिना किसी तरह का भी शोर किए हुए...
लिखते लिखते बातें खुद-ब-खुद सामने आने लगती हैं....याद आ रहा है कि शायद बचपन में कभी जुड़वा बच्चे दिखते थे तो उन को भी मां-बाप एक जैसे कपड़े पहनाया करते थे...और कईं बार बाप-बेटे या मां-बेटी के कपड़े भी एक जैसे होते थे...अभी मुझे उत्सुकता हुई कि देखूं तो सही कि नेट पर ही कोई ऐसी तस्वीर दिख जाए ...मैंने 'kids with same clothes' लिख कर गूगल सर्च किया तो बहुत सी तस्वीरें दिख गईँ लेकिन जो मैं आप को दिखाता अगर आज दोपहर में मेरा कैमरा ऐन वक्त पर मुझे धोखा न दे जाता ....वह तो अलग ही तस्वीर होती....हां, यह कारण भी हो सकता है कि जो गूगल पर मुझे सर्च-रिज़ल्ट मिले वे सब खाते-पीते अमीर लोगों के थे लेकिन मैंने इस पोस्ट में उन लोगों के बारे में ही लिखा जिन को मैंने देखा कि कुछ बचत करने के लिए दो बेटों के कपड़े एक साथ एक ही जैसे कपड़े के सिलवा दिए ...इत्यादि इत्यादि ....अगर बाप ने शर्ट सिलवाई और कपड़ा बच गया तो छोटे बच्चे की कमीज़ उस में से ही निकलवा ली....जो रईस लोग इस तरह के शौक पालते हैं शौकिया, वह अलग बात है ...बि्लकुल वैसे ही जिस तरह की कटी-फटी जीनें हम लोग रईस लोगों को पहने देखते हैं तो लोग समझते हैं कि यही रिवाज़ है, यही ट्रेंड है.. ..लेकिन किसी भिखारी के असली फटे हुए कपड़ों से हम नाम-मुंह सिकोड़ कर अपना रास्ता लेते हैं...
खैर, ये हुई कैमरे की बातें, यादें....लम्हों को कैद कर लेने की फ़िराक में रहना, उन का रिकार्ड रख लेना ...लेकिन ऐसा लगता है कि दुनिया में बहुत से अहम् फ़ैसले तो ऐसे ही चलते चलते हो जाते हैं....किसी रिकार्ड में उन का ज़िक्र तक नहीं होता (ऑफ दा रिकार्ड)....किसने पेड़ कटवाने का हुक्म दिया, किसने खिड़कियों को हमेशा के लिए दीवार बना कर बंद कर देने का फ़रमान जारी किया, कौन किस के हिस्से की धूप छांव हरियाली हड़प गया, किसी को अंदाज़ा हो ही नहीं सकता...बस, चलते चलते फ़ैसले हुए और तुरंत लागू हो गए....जिन को धूप-छांव-हरियाली, रोशनी से फ़र्क पड़ने वाला है, वे किस के आगे दुखडा रोएं, हर कोई हड़बड़ी में है ..पता नहीं कहां जाना है, कहां पहुंचना है ....क्या हो जाएगा अगर कहीं पहुंच भी गए....क्या न पहुंचेंगे तो क्या रह जाएगा.......कुछ पता नहीं......लेकिन हम दौड़े जा रहे हैं ...आखिर इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है...
कुछ वक्त के बाद जब मैं दादर पहुंचा तो प्लेटफार्म नंबर एक पर हवा का ऐसा झोंका आया कि मज़ा आ गया....समंदर एक डेढ़ किलोमीटर ही होगा वहां से ....मैंने फोन हाथ में लिया, वाटसएप से बहुत कुछ उड़ाया, मोबाईल को जगह मिल गई कुछ और फोटो ठूंसने के लिए .....और मैंने दादर स्टेशन पर खड़े खड़े बाहर की तस्वीर खींची.....इस की वजह से मुझे एक गाड़ी भी मिस करनी पड़ी , लेकिन इस की परवाह कौन करे जब फोटो लेने का भूत सवार हुआ हो ... हा हा हा हा ...