शनिवार, 22 अप्रैल 2023

आज फिर दे दिया न धोखा कैमरे ने ...


अपने ऊपर ही गुस्सा आता है जब कभी कैमरा धोखा दे देता है ...अकसर हम लोगों को कोई लम्हा ही कैद करना होता है ...अगर ऐन उसी वक्त कैमरा ही नाटक कर जाए तो खुद पर गुस्सा तो आएगा ही ...क्यों नहीं मैंने मोबाईल की यादाश्त का ख्याल रखा..

आज ईद है ...बंबई के बाज़ारों में, स्टेशनों पर खूब रौनकें लगी हुई हैं...लोग नए नए कपड़े पहने बाहर निकले हुए हैं....मुझे अकसर ईद के दिन लखनऊ की होली याद आ जाती है जब लोग वहां पर नए कपड़े होली खेलने के लिए ही सिलवाते हैं...नए नए कपड़े पहन पर होली खेलते हैं....

आज जब मैंने बहुत से लोगों को नए कपड़े पहने देखा तो अच्छा लगा...लेकिन अचानक नज़र पड़ गई दो बंदों पर जिन्होंने पैंट-शर्ट एक ही कपड़े से तैयार हुई पहनी थी...मुझे नहीं याद आज यह नज़ारा मैंने कितने बरसों बाद देखा होगा...मैं थोड़ा सा पीछे हटा...और मोबाईल का कैमरा ऑन करने लगा तो स्क्रीन पर आ गया कि स्टोरेज फुल है, मैनेज करो...क्या मैनेज करो यार, बीच रास्ते में इतनी गर्मी के मौसम में क्या डिलीट करो, क्या रखे रहो...और यह सब भी बीच रास्ते में खड़े होकर ...अपने ऊपर ही खीज गया....वे दोनों तो फ़ौरन आंखों से ओझल हो गए...

मेरे चेहरे पर एक मुस्कान ज़रूर बिखेर गए लेकिन ....

अपने ऊपर आये गुस्से का वक्त जब निकल गया तो यह जो मुस्कान मेेरे चेहरे पर आ गई उस का कारण था....मुझे बीते दौर की कुछ बातें याद आ गईं....बचपन में देखा करते थे कभी कभी मां-बाप थोड़ी बचत करने के लिए दो बेटों को एक ही तरह की निक्कर और शर्ट सिलवा देते थे...एक जैसा कपड़ा....उन्हें देख कर बड़ा मज़ा आता था, शरारतें सूझने लगती थीं, लोग हंसने लगते थे ......एक बात साफ़ कर दूं कि पहले हम लोगों की हंसी में वह मक्कारी नहीं थी जो आज अकसर देखने को मिलती है ...हम अगर ऐसे दो छोटे बच्चों पर हंसते भी थे या कोई फि़करा कस देते थे तो उसमें कुछ भी नहीं होता था...हल्के फुल्के मज़ाक के सिवा.....लेकिन अब हम लोगों की खिल्ली उड़ाने लगे हैं....हमें लगता है कि बस हम ही हम हैं, और कुछ नहीं....उस दिन मैं कालोनी में किसी महिला को किसी अन्य कामकाजी महिला (गृह-सेविका) से ऊंची आवाज़ में बातें करता देख रहा था तो मैंने सुना वह उसे कह रही थी ....तुम्हें पता नहीं तुम बात किस से कर रही हो.....बड़ा अजीब लगा उस दिन। खैर, हम मज़ाक की बात कर रहे थे ....मज़ाक उसे करने का हक है जो दूसरों का मज़ाक सह भी ले ..हमारे ज़माने में यह जज़्बा था ही ...हम भी मज़ाक की बातों को हंसते खेलते हंसी हंसी में उडा़ दिया करते थे ...शायद इसलिए लोगों के चेहरे भी खिले रहते थे ...

अच्छा, एक बात और ....कईं बार ज़रुरी नहीं कि किसी घर के दो बेटे ही दिखते थे एक तरह के कपड़े के ....कईं बार तो भाई ने जिस कपड़े की शर्ट पहनी होती थी, उस की बहन ने उसी कपड़े का फ्रॉक पहना होता था ...कईं बार बड़े लड़के भी एक ही तरह के कपड़े की शर्ट में दिख जाते थे ...लेकिन आज तो 45-50 बरस के दो बंदों को एक ही कपड़े की शर्ट और पतलून में देख कर मज़ा आ गया....कैमरे में कैद करना चाह रहा था क्योंकि ऐसा संयोग बीसियों बरसों में एक बार होता है इस तरह का मंज़र दिखता है ...खैर, कोई बात नहीं, फोटो न सही लेकिन इस पोस्ट के ज़रिए तो मैंने उस लम्हे को अपनी यादों में संजोने की कोशिश कर ली....

मैं फुटपाथ पर चलता चलता यह भी सोच रहा था जब छोेटे छोटे बच्चों को नए नए कपड़ों में आते जाते देख रहा था कि हमारे महान लेखकों ने भी क्या क्या लिख दिया है हमारे लिए ...उस महान लेखक मुंशी प्रेम चंद की कहानी ईदगाह याद आ गई ....वाह, क्या कहानी थी, एक बार सुन तो कभी दिल से न निकले ....इकबाल था शायद उस छोटे का नाम, अपनी बुज़ुर्ग दादी के साथ रहता था...दादी ने ईद के दिन उसे कुछ पैसे दिए कि दोस्तों के साथ ईद के मेले पर जा रहे हो, कुछ खा पी लेना, कुछ खरीद लेना....उस बालक ने अपने ऊपर बड़ा कंट्रोल रखा ...कुछ न खाया, कुछ न पिया, न ही कुछ खरीदा....एक चिमटा खरीद लाया अपनी दादी के लिए ....और मेले से लौट कर उसे कहता है कि दादी, यह इसलिए लाया हूं क्योंकि चूल्हे पर रोटी सेंकते हुए तुम्हारे हाथ अकसर जल जाते हैं....दादी ने उसे गले से लगा लिया.....

एक बात और यह भी मुझे रास्ते में याद आ रही थी कि 12-15 बरस पहले जब मैं ऑन-लाइन कंटैंट तैयार करने के बारे में एक वर्कशाप में भाग ले रहा था तो एक साथी ने एक्सपर्ट से पूछा कि कैमरा कौन सा अच्छा है, उस के बारे में बता दीजिए....उसने कहा कि जो भी जिस वक्त आपने फोटो खींंचनी है, उस वक्त आप के पास जो भी कैमरा है, वह सब से बढ़िया कैमरा होता है। 

यह बात समझते समझते हमे ंबरस लग गए...हम लोग लाखों रूपये के कैमरे खरीदते रहे ....हज़ारों रूपयों के लैंस खरीदते रहे ....पता नहीं कहां धूल चाट रहे होगे .......लेकिन हमेशा साथ निभाया हमारी जेब में पड़े मोबाईल के कैमरे ने .......चूंकि हम चलते फिरते फोटोग्राफर हैॆ, हमें स्टिल फोटोग्राफी तो करनी नही, हमें तो कुछ लम्हों को कैद करना होता है जो अपने आप में एक दास्तां ब्यां कर रहे होते हैं....बस एक दो पलों का हेर फेर होता है, कुछ प्लॉनिंग का वक्त नहीं मिलता....कुछ सोचने विचारने का वक्त नहीं होता, ...टार्गेट हमारे सामने होता है और हमें केवल एक बटन दबाना होता है जल्दी से भी जल्दी ...फ़ौरन ....बहुत बार ऐसा होता है कि जेब से फोन निकालते निकालते वह शॉट गुम हो जाता है, मलाल तो होता ही है, क्या करें, इंसान ही तो हैं ....अच्छा, कईं बार ऐसा भी होता है कि मोबाइल तो हाथ में था, लेकिन उसे ऑन करने के चक्कर में वह तस्वीर न ली पाए ....कईं बार कैमरा आन भी हो जाता है और उसे साईलेंट मोड करते करते बहुत देर हो जाती है .......और बहुत बार तो यही होता है जो आज हुआ....स्टोरेज नहीं है...इसलिए, मैं हमेशा कहता हूं कि मोबाइल हाथ में भी हो और कैमरा भी ऑन हो, और फुर्ती से जिसे आप कैमरे में कैद करना चाहते हैं, कर लीजिए...चुपचाप...बिना किसी तरह का भी शोर किए हुए...

लिखते लिखते बातें खुद-ब-खुद सामने आने लगती हैं....याद आ रहा है कि शायद बचपन में कभी जुड़वा बच्चे दिखते थे तो उन को भी मां-बाप एक जैसे कपड़े पहनाया करते थे...और कईं बार बाप-बेटे या मां-बेटी के कपड़े भी एक जैसे होते थे...अभी मुझे उत्सुकता हुई कि देखूं तो सही कि नेट पर ही कोई ऐसी तस्वीर दिख जाए ...मैंने 'kids with same clothes' लिख कर गूगल सर्च किया तो बहुत सी तस्वीरें दिख गईँ लेकिन जो मैं आप को दिखाता अगर आज दोपहर में मेरा कैमरा ऐन वक्त पर मुझे धोखा न दे जाता ....वह तो अलग ही तस्वीर होती....हां, यह कारण भी हो सकता है कि जो गूगल पर मुझे सर्च-रिज़ल्ट मिले वे सब खाते-पीते अमीर लोगों के थे लेकिन मैंने इस पोस्ट में उन लोगों के बारे में ही लिखा जिन को मैंने देखा कि कुछ बचत करने के लिए दो बेटों के कपड़े एक साथ एक ही जैसे कपड़े के सिलवा दिए ...इत्यादि इत्यादि ....अगर बाप ने शर्ट सिलवाई और कपड़ा बच गया तो छोटे बच्चे की कमीज़ उस में से ही निकलवा ली....जो रईस लोग इस तरह के शौक पालते हैं शौकिया, वह अलग बात है ...बि्लकुल वैसे ही जिस तरह की कटी-फटी जीनें हम लोग रईस लोगों को पहने देखते हैं तो लोग समझते हैं कि यही रिवाज़ है, यही ट्रेंड है.. ..लेकिन किसी भिखारी के असली फटे हुए कपड़ों से हम नाम-मुंह सिकोड़ कर अपना रास्ता लेते हैं...

खैर, ये हुई कैमरे की बातें, यादें....लम्हों को कैद कर लेने की फ़िराक में रहना, उन का रिकार्ड रख लेना ...लेकिन ऐसा लगता है कि दुनिया में बहुत से अहम् फ़ैसले तो ऐसे ही चलते चलते हो जाते हैं....किसी रिकार्ड में उन का ज़िक्र तक नहीं होता (ऑफ दा रिकार्ड)....किसने पेड़ कटवाने का हुक्म दिया, किसने खिड़कियों को हमेशा के लिए दीवार बना कर बंद कर देने का फ़रमान जारी किया, कौन किस के हिस्से की धूप छांव हरियाली हड़प गया, किसी को अंदाज़ा हो ही नहीं सकता...बस, चलते चलते फ़ैसले हुए और तुरंत लागू हो गए....जिन को धूप-छांव-हरियाली, रोशनी से फ़र्क पड़ने वाला है, वे किस के आगे दुखडा रोएं, हर कोई हड़बड़ी में है ..पता नहीं कहां जाना है, कहां पहुंचना है ....क्या हो जाएगा अगर कहीं पहुंच भी गए....क्या न पहुंचेंगे तो क्या रह जाएगा.......कुछ पता नहीं......लेकिन हम दौड़े जा रहे हैं ...आखिर इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है...

दादर स्टेशन के लोकल प्लेटफार्म से बाहर का ऐसा मंज़र दिख जाए, बहुत कम ही ऐसा होता है ....दोपहर के दो बजे थे और गर्मी बहुत ज़्यादा होने की वजह से दादर की मार्कीट में लोग ज़्यादा न रहे होंगे या ईद मनाने के लिए उन्होंने कहीं और का रुख किया होगा....इस जगह पर हवा के तूफ़ानी झोंके आ रहे थे ...😎

कुछ वक्त के बाद जब मैं दादर पहुंचा तो प्लेटफार्म नंबर एक पर हवा का ऐसा झोंका आया कि मज़ा आ गया....समंदर एक डेढ़ किलोमीटर ही होगा वहां से ....मैंने फोन हाथ में लिया, वाटसएप से बहुत कुछ उड़ाया, मोबाईल को जगह मिल गई कुछ और फोटो ठूंसने के लिए .....और मैंने दादर स्टेशन पर खड़े खड़े बाहर की तस्वीर खींची.....इस की वजह से मुझे एक गाड़ी भी मिस करनी पड़ी , लेकिन इस की परवाह कौन करे जब फोटो लेने का भूत सवार हुआ हो ... हा हा हा हा ...

बुधवार, 12 अप्रैल 2023

निकल बेवजह ....

हम लोगों ने कहीं भी जाना होता है तो हम लोग कितनी प्लॉनिंग करते हैं...सब कुछ तय हो जाता है तभी चलते हैं, है कि नहीं...मुझे आज याद आ रहा था कि बचपन में स्कूल आते जाते वक्त भी मुझे एक ही रास्ते से जाना पसंद न था...तब तो कुछ पता नहीं था कि यह नये रास्तों को नापने की इतनी खुजली क्यों है, लेकिन अब इस उम्र में भी जब यह शौक बरकरार है तो सोच में पड़ जाता हूं कि ऐसा इसलिए होता होगा कि मुझे नए रास्तों से गुज़रना भाता है, नये लोग नये मंज़र देखने अच्छे लगते हैं इसीलिए होगा यह शौक भी ....

उस दिन भी हमारे एक दोस्त जब भायखला से निकलने लगे तो मेरा भी मन हुआ कि चलिए, आज नया रास्ता ही देख लेते हैं...उन की गाड़ी में बैठ गया, यही सोचा कि रास्ते में कहीं उतर कर ..वापिस दादर की तरफ़ आ जाऊंगा...उन्हें तो रास्ते का पता था कि चेम्बूर से पहले तो कोई ऐसी जगह नहीं है जहां किसी को ऐसे छोड़ा जा सकता है। 



इस्टर्न एक्सप्रैस हाईवे पर --- चेम्बूर की तरफ़ आते हुए 

खैर, हम लोग भायखला स्टेशन से होते हुए, सेंट मेरी स्कूल, मझगांव से होते हुए मझगांव डॉक्स की तरफ से निकल कर ईस्ट्रन एक्सप्रे हाइवे पर चढ़ गए। उन्होंने कहा कि अभी पंद्रह बीस मिनट में आ जाएगा चेम्बूर ....हम लोग चेम्बूर के एक चौक पर जब पहुंच गए तो मुझे याद आ गया कि यहां से तो मानखुर्द का रास्ता निकलता है ...वहीं मैंने उतरना था...

वहां उतर कर पुलिस कांस्टेबल से पूछा कि पास में स्टेशन कौन सा है, अगर दो मिनट मैं सोच लेता तो मुझे भी याद आ जाता लेकिन इस तेज़-तर्रार ज़माने में इतना सब्र किस के पास है। उस के बताए अनुसार मैं रिक्शा लेकर गोवंडी लोकल स्टेशन पहुंच गया....उस रिक्शे में बैठे बैठे उन 10 मिनटों में आज से 30 बरस पहले के दिन याद आ गए ...जब मैं इसी इलाके में रोज़ाना शाम के वक्त पांच बजे से नौ बजे तक टीआईएसएस में क्लासें अटैंड करने आता था .... चार बजे बंबई सेंट्रल से चलता था....एक डेढ़ घंटे के बाद देवनार में टीआईएसएस पहुंचता था.... गोवंड़ी स्टेशन से आटो में आ जाता था...कभी पैदल चलने की इच्छा होती थी और वक्त होता था तो पैदल मार्च कर लेता था ...ज़्यादा दूर नहीं है गोवंडी से टीआईएसएस ...मैंने वहां एक बरस के लिए हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन में डिप्लोमा किया था....बहुत कुछ सीखा था उन दिनों वहां से ....

खैर, मुझे गोवंडी स्टेशन की सीढ़ियां चढ़़ते चढ़ते यही लग रहा था कि शायद मैं इन पर 30 बरसों के बाद चढ़ रहा हूं ..लेकिन वह स्टेशन नहीं बदला....वहां से कुछ स्नेक्स का पैकेट लिया, और सीएसटी जाने वाली गाडी़ में बैठ गया। आठ दस मिनट में कुर्ला स्टेशन आ गया...

जानवरों को भी जहां अपनापन दिखता है वही अड्डा बना लेते हैं....फूलों को सजाने की तैयारी चल रही थी स्टेशन पर...मुंबई में हर जगह मुझे तो संघर्ष ही दिखता है ....अच्छा खासा संघर्ष ...मुझे यह हर जगह, हर गली-नुक्कड़ पर दिखता है यहां 

वहां से मुझे दादर जाने के लिए लोकल ट्रेन लेनी थी .. फॉस्ट ट्रेन ..जो सीधा दादर ही रुकती है ...एसी लोकल मिल गई ...लेकिन अंदर तो स्पेशल चैकिंग चल रही थी .... खूब रसीदें काटी जा रही थीं दो महिला टिकट चैकर थीं...लेकिन मेरे पास मेरी आई.डी तक नहीं थी....जब एक टीटी मेरे पास आईं तो मैंने अपना परिचय दिया तो उन्होंने कहा कि सर, कोई आई.डी दिखा दीजिए। इतने में मेरा ध्यान मेरे एक मरीज़ की तरफ़ गया जिसने दूर से मेरा अभिवादन किया था सीट पर बैठते ही ...मैं भी पहचान गया था...मैंने उस टीटीई को कहा कि यह जेंटलमेन मुझे जानते हैं ...(वह शायद किसी स्टेशन के स्टेशन अधीक्षक हैं)...मुझे इतना कहते जब उन्होंने सुना तो उन्होंने तुंरत टीटीई को मेरी पहचान बता दी....


सोच रहा हूं कि कभी भी कहीं भी जाने से पहले जेब में आई डी तो लेकर ही चलना चाहिए....चलिए, इसी बहाने तीस बरस पुरानी यादें कुछ कालेज की और कुछ व्यक्तिगत यादें ताज़ा हो गईं ..चेम्बूर में भी हमारा उन दिनों अकसर आना जाना होता था ....उस के लिए हम कुर्ला स्टेशन पर ही उतरते थे...वहां से कभी बस मिल जाती थी, कभी रिक्शा ले लेते थे ...

यादें भी क्या हैं, इंसान के साथ रहती हैं हमेशा ....यादों से जुड़े लोग कहां से कहां चले जाते हैं लेकिन यादें हम लोग अपने सीने से लगाए रहते हैं ....मैं अकसर कहता हूं कि किसी भी शहर के हरेक गली-कूचे, बाज़ारों, दुकानों, मंदिरों-गुरूदारों के साथ हमारी यादें जुड़ी होती हैं ....और बड़ी मीठी और गूढ़ी यादें अमूमन, एक दो खट्टी याद को मारो गोली....इसलिए भी कभी कभी बेवजह उन रास्तों पर निकल जाना चाहिए ....इतनी गारंटी मैं देता हूं कि हर बार जब आप घर से बाहर निकलेंगे, पैदल चलेंगे तो ज़रूर कुछ न कुछ ऐसा अपनी आंखों में कैद कर के लौटेंगे जिसे आपने पहली बार देखा उस दिन टहलते हुए ....

निकल बेवजह का टाइटल इसलिए कि हमारे एक ब्लॉगर मित्र के बेटे ने यह गीत लिखा है...कुछ दिन पहले उन्होंने शेयर किया था, हमें अच्छा लगा था ...


मैं तो चला जिधर चले रस्ता ......

रविवार, 26 मार्च 2023

टीनोपाल, नील, स्टार्च .....और आगे इस्त्री की सिरदर्दी


कल मुझे ४७ बरस पहले की फैमिना का एक अंक मिला ...उस के ऊपर उस का दाम ५५ पैसे लिखा हुआ है। इस तरह के मैगज़ीन एक तरह से प्राप्स हैं जो मुझे लिखने में मदद करते हैं...इन में जो विज्ञापन होते हैं उन पर एक ब्लॉग तो क्या पूरी एक किताब लिखी जा सकती है। कोई कोई विज्ञापन आप को उठा कर गुज़रे दौर के दिनों की यादों की बारात में ले जाता है....अच्छा, इस बात का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि फैमिना के इस अंक में ८०-९० विज्ञापन होंगे और हर विज्ञापन में महिला माडल ही दिखीं....एक दो विज्ञापनों में ही पुरूष माडल दिखे ..खैर, मैं तो टीनोपाल के इश्तिहार को देख कर रुक गया....

कईं दिनों से राइटर ब्लॉक से जूझ रहे को जैसे एक बहाना मिल गया ....फिर से लिखने का ...मेरे साथ ऐसा ही है, मुझे ये सब बहुत कुछ याद दिलाते हैं और लिखने के तैयार करते हैं। टीनोपाल ....वाह .....मुझे अच्छे से याद है उस छोटी सी एल्यूमीनियम की टीनोपाल की डिब्बी का हमारे गुसलखाने की शेल्फ पर क्या स्थान था। टीनोपाल हो या नील (इंडिगो) ...इंडिगो तो कार्डबोर्ड की डिब्बी में ही पड़ा होता ...लेेकिन इन दोनों चीज़ों को बड़ी एहतियात से रखा जाता। 

टीनोपाल की यादें यह हैं कि इस को मेरे पिताजी की सूती पतलून और शर्ट और मां की सूती साडि़यों और ब्लाउज़ में अच्छी चमक पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था....कपडे़ धुलने के बाद उन को फिर से एक बाल्टी में डाला जाता था जिसमें थोड़ा से टीनोपाल का घोल पहले से रहता था। कईं बार अगर घर में टीनोपाल या नील खत्म होता और मां को कपड़े धोते हुए याद आ जाता तो मैं हमें एक-दो रूपये थमा कर पास ही के एक खोखे से उसे लाने का फ़रमान जारी कर देतीं..और हम पांच मिनट में ये सब चीज़ें लेकर हाज़िर हो जाते....हां, कईं बार ५० या १०० ग्राम की रेड-लेबल चाय, एक पाव किलो चीनी और दो सेरीडॉन की गोलियां भी उस लिस्ट में शामिल हो जाती थीं...टीनोपाल की डिब्बी तो एक रूपये से कम ही में आती थी...मुझे कल रात में याद आ रहा था कि ये घर में बार बार सेरीडॉन की गोलियां क्यों आती थीं...फिर यही ख्याल आया कि महीने के आखिरी दिनों में जब वैसे ही कड़की के बादल छाने लगें और ऊपर से यह सब टीनोपाल, नील, मांड और इस्त्री की सिरदर्दी और ऊपर से हम जैसे खुराफाती बच्चे हों तो सेरीडॉन के बिना उन का काम कैसे चलता...मां तो इन सब से फ़ारिग हो कर सिर पर दुपट्टा कस के लेट जाती ..चाय की एक प्याली पी कर। 

अच्छा, टीनोपाल तो लग गया....एक नील लगाने की प्रोसैस भी होती थी.....अब भी वह होती है पसीने से खराब हो रहे कपड़ों को सफेद करने के लिए....लेकिन यह भी एक फ़न होता है दोस्तो, नील लगाना भी ....कईं बार नील के धब्बे इतने पड़ जाते हैं कि फिर उन को छुड़ाने के लिए भी एक सेरीडॉन की गोली की ज़रूरत पड़ सकती है। और, अब आती है बारी माया की ...जिसे स्टार्च कहते हैं....मुझे अभी यह लिखते हुए याद आ रहा है कि पहले यह स्टार्च-वार्च कोई खरीदता नहीं था (शायद हम ही न खरीदते होंगे ...या टीनोपाल नील तक ही बजट जवाब दे देता होगा...) ...धुंधली धुंधली याद तो है कि कभी एक पैकेट में स्टार्च आती तो थी घर में ...लेकिन कईं बार देखा कि जब स्टार्च चाहिए होती तो उस दिन साथ में अंगीठी पर चावल भी पक रहे होते....उस में से मांड (पंजाबी हमें उसे कहते हैं चावल की पिच्छ) निकाल कर धुले हुए लेकिन गीले सूती कपड़ों को उस में चंद मिनटों के लिए भिगो दिया जाता ..बस स्टार्च लग गई और बस अब सुखाने का काम रह जाता। 

सूखने के बाद उस इस्त्रीकरने वाले भैय्ये की सिरदर्दी शुरु हो जाती ..यह भी याद है कि स्टार्च लगे कपड़ों को इस्त्री करने का रेट डबल होता ...क्या करे...मुझे तो उस कोयले वाली प्रैस से कपड़े प्रैस होते देखना ही इतना अच्छा लगता कि मैं कईं बार और कुछ करने को न होता तो यही देखने लग जाता ...और फिर कुछ कुछ वक्त के बाद उस का उस बड़ी लोहे की प्रैस से राख को निकालना, इधर उधर देख कर मुंह में रखने पान को बदलना, उस से पहले एक दो हंसी मज़ाक की बात करना, मुझे उस की भाषा अच्छी लगती, क्योंकि उस के और हमारे हिंदी के मास्टर के अलावा अमृतसर शहर में हमारा हिंदी से कोई दूर-दराज़ का नाता न था ....यह सब भी कितना रोमांचक लगता था उम्र के उस दौर में ..

खैर, मैं देखता कि उन स्टार्च लगे कपड़ों को इस्त्री करने में उस के पसीने छूट जाते ...वे कपड़े --जैसे कि साड़ी ही हो, वह आपस में स्टार्च की वजह से इतनी ज्यादा चिपकी होती ...उलझी होती कि पहले तो वह इत्मीनान से उस उलझन को सुलझाता ...फिर उस के ऊपर पानी छिड़क कर दो मिनट के लिए छोड़ देता...फिर इस्त्री करने की बारी आती ....मुझे यह बड़ी सिरदर्दी लगती। 

लेकिन साठ सत्तर बरस पुरानी मां और पिता जी की जो तस्वीरें देखता हूं तो मज़ा आ जाता है ...मैं बड़े फ़ख्र से बताया करती कि तुम्हारे पापा को उन दिनों इसी तरह से कपड़ों को पहनने का शौक था...साथ में कभी कभी कह देती हल्के से कि फिर आगे जैसे जैसे जिम्मेदारियां बढ़ती गईं ......(कुछ बातें बिना कहे ही समझने वाली होती हैं...ज़रूरी नहीं हर बार को पूरा कहा जाए) ...

बीस पच्चीस साल पहले हमें भी यह स्टार्च लगवा कर कपड़े पहनने का शौक सवार हो गया...तब तक एक रिवाईव नाम का पावडर आ गया था ...उस में भिगोने से धुले हुए सूती कपड़े एक दम कड़क हो जाते थे ....कड़क ही तो चाहिए थे तो न कपड़े, कड़क चाय की तरह ...लेकिन कुछ ही अरसे के बाद हमें अपने लिए तो यह ज्ञान हो गया कि यार, इतनी सिरदर्दी क्यों ....क्या हो जाएगा कड़क दिखने से, कड़क कपड़े पहनने से ....(हां, कडक चाय से मूड सही हो जाता है, वह पक्का है) ..इसलिए हमने तो मना कर दिया कि हमारे कपड़ों को कड़क मत किया जाए.....(लिखते लिखते याद आ रहा है कि गुज़रे हुए कड़की के दौर में लोगों ने कपड़े कड़क पहनने का शौक जारी रखा, हिम्मत की बात है ..) 

अब मैं लोकल स्टेशनों पर युवा वर्ग के लोगों को - युवकों को, महिलाओं को बिना इस्त्री किए हुए कपडे़ पहने देखता हूं तो मुझे अच्छा लगता है ...क्योंकि मैं भी यही करना चाहता हूं ...अभी नौकरी कर रहा हूं, एक ढंग से कपडे़ पहनना मजबूरी है ...उस से फ़ारिग होते ही अपने मोबाइल से और इस्त्री किए हुए कपड़ों से परहेज़ रखूंगा ...मिल गए तो ठीक नहीं, न मिले तो भी ठीक..वैसे भी जिस तरह के कपड़े पहनना मेरे दिल के बहुत करीब है ..केज़ुएल वियर ...उन में इस्त्री चाहिए नहीं होती..

इस्त्री करने से एक बात याद आ गई और ...चलिए, लिखते हैं उसे भी ...मेरी बड़ी बहन को भी अच्छे कपडे़, प्रैस किए ही पहनने अच्छे लगते थे...अच्छा, होते सब के पास यही चार पांच जोड़े ही थे, जोडे़ का मतलब सलवार-कमीज़, पतलून-कमीज़ या निक्कर-बुशर्ट ...किसी शादी-ब्याह में जाने से पहले एक जोड़ा सिलवा लेते थे ...हां, तो जब छुट्टियों में या वैसे किसी पारिवारिक समारोह में बाहर कहीं जाना होता तो बहन तो अपने तीन चार जोड़े अच्छे से इस्त्री कर के उन्हें अपने लोहे के ट्रंक में करीने से रख लेती ....और हम भी जैसे जैसे .....हां, हमारे पास भी लोहे की एक छोटी सी प्रैस थी और बहन को कपड़े इस्त्री करने का आलस कभी न था....मैं बहन को ये सब बातें याद दिलाता हूं तो हम बहुत हंसते हैं...

अभी यह पोस्ट लिख ही रहा था कि एक मित्र का वाट्सएप मैसेज आया कि क्या हुआ, तुम्हारे ब्लॉग सूख गये हैं....और ऐसे तो मेरी पढ़ने की आदत भी छूट जाएगी...😂😎...अच्छा लगता है जब ऐसे संदेश आते हैं....मैंने लिखा कि लिख रहा हूं, अभी भिजवाता हूं ...मुझे पता है कि मेरे अनुभवों से मिलते जुलते और बहुत मुमकिन हैं इन से भी कभी लज़ीज़ अनुभव आप के पास हैं...लेकिन बहुत से लोग लिखते हुए झिझकते हैंं, पता नहीं क्या हो जाएगा....कुछ नहीं होगा, दोस्तो, इत्मीनान रखिए...बस लिखते लिखते लिखने वाला हल्का जरूर हो जाएगा....और कुछ हो न हो....इसलिए जो भी मन में हो, लिखने की आदत डालिए....ब्लॉग लिखते हुए अभी झिझक रहे हैं तो कोई बात नहीं, कुछ दिन डॉयरी लिखिए...उसे पढ़िए, मज़ा आएगा....वह झिझक भी दूर हो जाएगी...