कल छुट्टी तो ली थी किसी और काम के लिए ..कहीं जाना था, जा नहीं पाए और सारा दिन नीना गुप्ता की ३०० पन्नों की आत्मकथा पढ़ने में लग गया....परसों देर रात पढ़ना शुरू किया था...अभी अभी ही उस पाठ का समापन हुआ है ...
मुझे पढ़ रहा था और मुझे कहा गया कि मैं तो ऐसे पढ़ रहा हूं जैसे कॉलेज के कोर्स की कोई किताब हो...लेकिन मुझे तो पढ़ते पढ़ते लग रहा था कि इतनी लगन से मैंने अपने स्कूल-कॉलेज के दौर में किसी किताब को नहीं पढ़ा....ऐसा क्या था इस में। इतना ही कहना चाहूंगा कि बहुत ईमानदारी से लिखी हुई आत्मकथा है यह ...वरना, मैं तो एक किताब के थोड़े पन्ने उलट-पलट कर, थोड़ा बहुत उसे पढ़ कर दूसरी किताब या मैगज़ीन उठा लेता हूं ...मैं इंगलिश, हिंदी और पंजाबी और उर्दू में लिखा पढ़ता हूं ...उर्दू में बहुत कम क्योंकि अभी उसे पढ़ने में वह रवानी नहीं है, जो किसी भी ज़बान को पढ़ने के लिए ज़रूरी होती है ...
आज सुबह हमारे डाइनिंग पर बिखरी कुछ किताबें-रसाले
नीना गुप्ता की आत्मकथा को पढ़ते पढ़ते मैं यह सोच कर मन ही मन हंस भी रहा था कि जिन किताबों को हमने पूरा पढ़ा उन के नाम मुझे याद हैं...मेरे से नहीं पढ़ी जाती कोई भी किताब पूरी ...स्कूल-कॉलेज के दिनों में भी बीच बीच में, पुराने सालों के प्रश्न-पत्र देख कर अनुमान लगा लिया करता था ..गलत या सही जो भी होता...उतना ही पढ़ कर जाता। लेकिन हां, मुझे बचपन में किराए पर लाए हुए नंदन, चंदामामा और राजन-इकबाल के जासूसी नावल पढ़ना बहुत पंसद थे ...मां को अपने पाठ की किताब को और रामायण को पूरा पढ़ते देखता था ...देर रात तक कईं बार पढ़ती रहती ...सब की मंगल-कामना करतीं।
दो चार बरस पहले मैं एक आत्मकथा और पढ़ी थी ....सुरेंद्रमोहन पाठक ...जिन्होंने ४०० से ज़्यादा नावल लिखे हैं....उन का नावल तो नहीं पढ़ा कोई लेकिन आत्मकथा इतनी रोचक थी - दो भागों में थी....कि दो तीन दिन लगा कर पढ़ लिया था....और एक बार जब किसी साहित्यिक उत्सव में मिले तो उन को यह बताया भी था..
३०० पन्नों में नीना गुप्ता ने क्या लिखा है, मेरे लिए बताना कठिन है, क्योंकि उन्होंने दिल से लिखी है किताब....मैं पढ़ रहा था तो किसी ने कहा कि पता नहीं खुद लिखते हैं या लिखवाते हैं...खैर, यह माने ही नहीं रखता, पढ़ते हुए पाठक को समझ आ जाता है कि कितनी ईमानदारी से लिखा गया है ...हम खामखां जज बन बैठते हैं...जिस की ज़िंदगी है उसने जो लिखा उस के बारे में आराम से उसे पढ़ो, समझो ...और जो भी तुम सोचना चाहो सोचो ....कौन रोक रहा है...
किताबें बहुत सी देखता हूं ..कुछ छूता हूं, कुछ के पन्ने उलट-पलट लेता हूं और बहुत कम को ही पढ़ने का सब्र रखता हूं लेकिन किताबों के बारे में बहुत सी कहावतें याद हैं ..किसी की लिखी किताब को पढ़ना उसे मिलने जैसा है ..पुरानी किताबों को पढ़ना गुज़रे दौर के महान लोगों को मिलने के बराबर है. मैं इसे बिल्कुल सही मानता हूं...
और किसी भी लेखक को , किसी शायर को एक जज की नज़र से देखना बड़ा आसान है......लखनऊ में एक बार किसी प्रोग्राम में था, वहां पर जावेद अख्तर के सामने उन के मामा मजाज लखनवी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में किसी ने कोई टिप्पणी की। उस का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि देखिए, हर इंसान या हर कलाकार एक पैकेज होता है, उस में बहुत सी चीज़ें शामिल होती हैं.....वह पैकेज ही तभी तैयार हो पाता है क्योंकि उसमें बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे समाज सही ठहराता है, कुछ चीज़े समाज को ठीक नहीं लगतीं....लेकिन जब आप उस शख्स का काम देखते हैं तो उसमें वह अपनी छाप छोड़ जाता है और आने वाली पीढ़ियां उस को पढ़ती हैं, और उस को समझने की कोशिश करती हैं और सीख लेती हैं....
नीना गुप्ता की आत्मकथा को पढ़ते हुए भी मुझे ऐसा लग रहा था कि इतना संघर्ष किया इस फ़नकार ने, सारी ज़िंदगी ही जद्दोजहद से भरी पड़ी, इतने तरह के अलग अलग अनुभव हुए....अलग अलग लोग मिले अलग अलग जगहों पर ..और सब से कुछ न कुछ सीखा....कोई भी हो जो इतना तप जाएगा, ज़िंदगी के इतने सार सबक समेट लेगा तो फिर उन का करेगा क्या.........सब कुछ हमें अपने फ़न के या अपनी कलम के ज़रिए लौटा देगा.....ताकि बहुत से लोग उन से सीख ले सकें, प्रेरित हो सकें.......लेकिन एक बात तो है कि लोग दूसरों के तजुर्बों से कम ही सीखते हैं....
बहरहाल, नीना गुप्ता की आत्मकथा ..सच कहूं तो ....मुझे बहुत पसंद आई ....उत्ति उतम ..... बधाई हो ...
जी हां, कुछ दिन पहले शादी में जाना था...नये शूज़ लेने ज़रूरी थे ...हश-पप्पी के लिए....५-६ हज़ार खर्च दिए...वहां शो-रूम में अच्छे से टहल कर भी देख लिया...खुशी हुई कि कहीं काट नहीं रहा, बड़ा नरम नरम है ...बढ़िया है ....
चलिए, ले गए शादी में उसे भी सामान में लाद कर ....क्या है, आज कल वैसे तो हम लोग स्पोर्ट्स शूज़ में ही आराम महसूस करते हैं....एक तो फ्लैट-फुट और ऊपर से अब घुटने भी काम करते वक्त कहा-सुनी करने लगे हैं...कर तो कईं बरसों से रहे हैं ..लेकिन अब कुछ ज़्यादा ही करने लगे हैं ...इसलिए सोच समझ कर पांव रखने पड़ते हैं...जी हां, शादी के तीनों फंक्शनों में पहन लिए हम ने भी नए नए चमकीले शूज़ ...वहां कोई काम तो होता नहीं ज़्यादा चलने फिरने वाला...चाट-पकौड़ी खाओ, दाल-मक्खनी चावल और मूंग के दाल के हलवे की मौज उड़ाओ....रौनक-मेला देखो और वापिस अपने रूम में आ कर पसर जाओ...
हां, हरेक ......को मुड़ बोहड़ के नीचे तो आना ही होता है ....हम भी वापिस पहुंच गए....नए नए शूज़ का शौक तो होता ही है, मुझे भी लगा तो चलिए अब ड्यूटी पर इन को अच्छे से चमका कर पहन कर जाया करेंगे...एक दो दिन पहन गया ..लेकिन यह देखा कि एक दो घंटे के बाद एक पैर का आगे का हिस्सा दब जाता है ...दुःखने लगता है...चलिए, मैंने इस तरह इतना गौर नहीं किया...यही लगा कि १० नंबर है और १० नंबर का जूता लिया है, और शो-रुम में पूरी तसल्ली भी कर ली थी ...तो फिर यह सब मेरा वहम होगा...
लेकिन आज फिर मैंने उसे पहना हुआ था...लौटते वक्त लोकल ट्रेन में खड़े खड़े एक पांव उस शूज़ में दबा जा रहा था ...बस, उसी वक्त मुझे यह सब ख्याल आया कि अगर जूता भी आरामदायक न हो तो इंसान परेशान हो जाता है ...
फिर मुझे १५-२० बरस पहले कहीं पर पढ़ी एक बात याद आ गई कि अगर अपनी ज़िंदगी की परेशानीयां को भूलना चाहते हैं तो तंग जूते पहन लीजिए ...आप दिन भर उन इन तंग, काटने वाले जूतों की वजह से ही इतने परेशान रहेंगे कि आप को कुछ और सोचने की फ़ुर्सत ही न मिलेगी। मैंने उस के साथ यह भी जोड़ दिया कि यही नहीं अगर हम लोग अंडर गार्मैंटस भी तंग डाल लें तो भी हमें ज़िंदगी की दूसरी तकलीफ़ें कुछ भी नहीं लगतीं....यह सब सुनी-सुनाई बातें नही, आपबीती ज़्यादा हैं....दरअसल, खरीदते वक्त नाप का ज़रा ध्यान न रहे, हरेक को खुशफ़हमी रहती है कि उस के अंडरगार्मेंट्स का साईज भी पिछले कईं बरसों से वहीं पर टिका होगा....घर आते हैं, पहन कर देखते हैं, तंग लगता है तो फिर दुकानदार के करिंदों की बातें याद आने लगती हैं कि पहनते, पहनते खुलेगा भी तो ....लेकिन कमबख्त वह नहीं खुलता....और हम सिरदर्द जैसे खरीद लेते हैं...एक बात और, हम लोग कुछ पैसे बचाने के चक्कर में या ऐसे ही बिना किसी कारण के कोई दूसरा ब्रांड ले लें तो उस का इलास्टिक इतना लाइट होता है कि शाम तक ऐसा निशान छोड़ देता है जैसे चाबुक का निशान है ...और मेरी तो एक और परेशानी हो गई है कि अगर अंडरगार्मेंटस तंग हों तो सिर दुखने लगता है ....और अगर अपने साइज़ से ज़्यादा खुले हों तो कोई भी बंदा अपने आप को बीमार समझने लगता है... साफ साफ बात यह है कि मुझे अभी तक यह सब खरीदने की समझ ही नहीं आई....दिक्कत और भी है कि अगर दो-तीन एक बार ले आते हैं तो यही सोच कर लौटाने नहीं जाते कि कौन खामखां मगजमारी करे...और आनलाईन शॉपिंग में दो-तीन किताबों के सिवा अभी तक कुछ खरीदा ही नहीं...बस आलस, हठ, झिझक या बिना किसी वजह से ...
एक बात और भी तो लिखनी है, मैंने एक कारनामा और किया दो चार बरस पहले ...लखनऊ में एक बार चार पांच जंघी (बनियान) ले आया...अच्छे ब्रांड की ...क्या कहते हैं ....याद नहीं आ रहा नाम.....याद आएगा तो लिख देंगे....लेकिन उस से मेरी बेवकूफी कम न हो जाएगी....दरअसल जब वह बनियान ले कर आया और घर आकर पहन कर देखी तो खुली तो इतनी ज़्यादा न थी, थी खुली लेकिन चल सकती थी लेकिन लंबी ज़रुरत से भी कुछ ज़्यादा ही थी...बस, वही आलस की बीमारी, अब कौन जाए इन्हें बदलने...देखते हैं, पहनते पहनते ठीक हो जाएंगी.....यह कैसा तर्क हुआ ...लंबाई कैसे ठीक होगी भाई......हार कर उन सभी बनियानों के पहनने लायक करने के लिए नीचे से कटवा कर हाथ से सिलवाई करवानी पड़ी.......लेकिन फिर भी वे अजीब सी ही लगती हैं....जिस दिन पहनो, उस दिन सारा दिन अजीब सी फीलिंग घेरे रहती है....लेकिन ये बनियान भी ऐसी हैं, पीछे ही नहीं छोड़ रहीं...अगली बार भी साइज ठीक ही आएगा इस का भरोसा नहीं ..... यह भी कोई बड़ी बात नहीं है मुझ जैसे इंसान को इन टेंडर-वेंडर की रती भर भी समझ नहीं है...हो भी कैसे सकती है, जो बंदा साठ साल की उम्र तक कभी ढंग से अपने अंडरगार्मेंटस और जूते ही नहीं खरीद पाया, वह टेंडर क्या खाक समझेगा....
अच्छा, फिर खरीदने की बात याद आई ... जूते खरीदने की बात पर वापिस लौटते हैं क्योंकि कमबख्त ये ही मुझे काटने को दौड़ते हैं...खरीदते हैं जूते, बहुत बार बेटे ऑन-लाइन मंगवा देते हैं ...लेकिन वे अकसर बड़े साइज़ के होते हैं या पहन कर काटने लगते हैं तो दो चार दिन में लौटा दिेए जाते हैं...लेकिन तरह तरह के शूज़, सैंडिल, गुरगाबी, चप्पलें, स्पोर्ट्स शूज़ और चप्पलें फिर भी घर में ऐसे इक्ट्ठे हो रहे हैं जैसे कोई शू-स्टोर हो...डिब्बों का एक अंबार लगा हुआ है ..मेरे ही नहीं हैं, उसमें ....शूज़ की अलमारी खोलते डर लगता है, खोलते ही यह समझ नहीं आती कि इन आराम फरमा रहे जोड़ों को कष्ट दें या छोड़े पुराने जूते ही पहन कर निकल पड़ें.....क्योंकि जूते निकालते वक्त एक दो ऐसे जूतों से भी वास्ता पड़ता है जो गिरने का बहाना ढूंढ रहे होते हैं.....क्या करें, वे भी।
अच्छा, एक बात है, बीसियों शूज़ होने के बावजूद, हम लोग अकसर पहनते अकसर वही एक दो हैं, जो आरामदायक से लगते हैं, जिन्हें पहन कर सुकून मिलता है ......अच्छा, पहले यह जो हम लोग, हम लोग कह कर बात करने की मेरी प्रवृति है न, मुझे उस पर काबू पाना होगा....क्या हम लोग, हम लोग.....मैं अपनी बात कर रहा हूं, क्यों दूसरों को भी साथ मिला लेता हूं ...उन की वे जानें.....क्या मालूम बाकी लोग कितने सलीके से दो चार फुटवियर में ही खुश रह लेते हों....
जब किसी मौज़ू पर लिखने लगते हैं तो पता नहीं कहां कहां से बातें याद आने लगती हैं, घेर लेती हैं एक दम ....पिछले साल की बात है हम लोग मेट्रो शूज़ के शो-रुम में घुस गए..वहां सेल लगी हुई थी ...धड़ाधड़ जूते बिक रहे थे ...इतनी तेज़ी से बिक रहे थे जितनी तेज़ी से पंजाब में भटूरे-छोले की दुकान पर कडाही से भटूरे भी न निकलते होंगे.....मुझे एक रईस दिखने वाली महिला --हां, दिखने वाली, क्योंकि आज कल किसी की असलियत का पता लगता नहीं, अगर ढंग से कोई ड्रेस अप हो, भारी भरकम मेक-अप टिका ले और अपनी भाव-भंगिमा पर थोड़ा काम कर ले, तो सब रईस ही लगेंगे ...हां, उस महिला ने उस दुकान से मेरे ख्याल में बीस-पच्चीस जूते खरीद लिए ....झट से उसने पेमेंट किया और दोनों बड़े बड़े कैरी-बैग उठा कर बाहर निकल कर टैक्सी का इंतज़ार करने लगी ...
एक झलक शू-रैक की....बहुत से जूते सोफों के नीचे, बालकनी में, बेड के नीचे भी धरे-पड़े हैं....मैं कईं बार बहुत हंसता है कि ये सब रईस होने की अलामतें हैं...मतलब निशानीयां हैं... 😎😂
हम लोगों ने भी पांच पांच छः छः जोड़े तो ले ही लिए होंगे ज़रुर ......लेकिन मैंने तो उनमें से पहना एक भी नहीं ...ये सब चीज़ें खरीदना भी एक ओबसेशन जैसा हो जाता है ....शायद आज का बाज़ार बना देता है ऐसा हमें .....शूज़ इतने ज़्यादा हो जाते हैं कि वे पड़े पड़े खराब होते रहते हैं डिब्बों में , अल्मारियों में ...कभी महानों बाद जब उन पर नज़रें इनायत होंगी और अगर ऊपर से चमड़ा भुरता दिखेगा तो उन को डिस्कार्ड कर दिया जाएगा....मां कहती थीं किसी को पुरानी चीज़ नहीं देनी चाहिए...बाहर कहीं कोने में ऱख आती थीं, जिसे ज़रूरत होगी, उठा ले जाएगा......मां का फंडा भी काफी हद तक नेकी की दीवार जैसा ही था...
कल जब लोकल ट्रेन में मुझे मेरे जूते काट रहे थे ..और घुटने भी दुख रहे थे तो मुझे यही विचार आ रहा था कि दुनिया के मेले में करोड़ों लोग हैं, ऐसे कैसे कि यही कोई १०-१२ साईज़ सब को फिट आ जाएं...कहीं तो चुभेगा, कहीं तो कटेगा....यह तो वही बात हुई कि पहले फुटपाथ पर नकली दातों के नए-पुराने सैट बिक रहे होते थे ...अभी भी होते होंगे.....लेकिन वह मंज़र तो हमने अपनी आंखों से देखा है....चश्मे भी इसी तरह से बिकते दिखते हैं, देख ले यार, जिससे तेरे को साफ दिखे, चल पहन ले, ऐश कर...लेकिन, जूता खरीदना भी एक टेढ़ा काम लगा अभी तक तो ...बचपन में जब मां के साथ शूज़ लेने जाते तो उस बेचारी की कोशिश यही होती कि साइज़ से थोड़ा बड़ा ही होना चाहिए ....बच्चा वाधे पिया होया ए (बच्चा बड़ा हो रहा है)......यह न हो कि जल्दी ही छोटे हो जाएँ ....हां, अगर शूज़ थोड़े बड़े आ जाते तो उस में इंसोल (पंजाबी में पतावे कहते हैं) डलवा कर काम चल जाता ....
अमृतसर शहर के पुतलीघर चौक में एक दिन पांचवी-छठी कक्षा के दिनों में मैं मां के साथ गया शूज़ लेने....जिस दुकान पर गया वहां पर मैं मास्टर बलदेव राज को देख कर हैरान हो गया...यह उन की दुकान थी ..वह हमें इंगलिश और रेखा-गणित पढ़ाते थे ... और डिप-पैन (होल्डर) से लिखने की प्रैक्टिस करवाते थे ...ले लिया शूज़, लेेकिन घर आ कर देखा तो इतना तंग कि चलने में जान निकले....मां कहें कि कोई बात नहीं बदलवा लेंगे, मेरी यह सोच कर जान निकले की मास्टर की दुकान पर यह जा कर कहूंगा कि यह काटता है ....खैर, मां ले गईँ अपने साथ अगले दिन ...और मास्टर जी ने आराम से बदल दिए शूज़...
बचपन, जवानी की बातें याद करते हैं तो बहुत कुछ ऐसा है जो हमेशा के लिए याद रह जाता है ....एक बात तो यह कि यही कोई पांचवी छठी की बात होगी, उन दिनों हम लोग सेंडिल पहनते थे ...और अगर नीचे से घिस जाते तो उन के सोल (तलवा) बदलवा लिया जाता था...मुझे अच्छे से याद है एक बार मेरे सेंडिल का तलवा भी बदलवा कर मेरे पिता जी लाए थे ...मैं अकसर उन दिनों को याद करता हूं, बच्चों के साथ शेयर करता हूं उन बातों को तो यह ज़रूर कहता हूं कि जितनी खुशी मुझे उस दिन उन सेंडिलों के नए रूप को देख कर हुई थी, उतनी मुझे कभी हज़ारों रूपये के जूते खरीद कर भी नहीं मिली ....
दूसरी बात ...मैं ग्याहरवी में पढ़ता था, मेरी बड़ी बहन मेरे से १० साल बड़ी है, उन दिनों वह कालेज में लेक्चरार हो गई थीं, मैं उन के साथ बाज़ार गया तो उन्होंने जिद्द की मुझे जूते दिलाने की ....नार्थ स्टार के शूज़ थे, १२५ रूपये के आए थे ....और शायद चार पांच साल तक मैंने उन्हें इतना पहना ....इतना पहना ..कि उन को घिस कर ही दम लिया.....आज भी जब मैं बहन को मिलता हूं तो उन जूतों को ज़रूर याद करता हूं ...हम लोग खूब हंसते हैं ...पहले हम लोगों के पास चीज़े ंकम थीं, लेकिन हम लोग उन की कद्र करते थे ...अब हम चीज़ों की तो क्या, लोगों की कद्र नहीं करते ....हम बहुत आगे आ चुके हैं...
एक याद और ...ज़्यादा से ज़्यादा हमारे पास दो शूज़ होते थे...एक काले रंग के, एक कोई कैन्वस के ...और एक हवाई चप्पल ...वह भी ज़्यादातर बाटा की ही होती....और सुबह टहलते वक्त अधिकतर लोगों ने फांटां वाला पायजामा, पैर में बाटा की या कोरोना की हवाई चप्पल - चलते वक्त ठप्प ठप्प करने वाली ....वह भी अकसर नीचे से घिसी होती, नहीं तो उस के स्ट्रैप इतनी ढीले हो जाते कि बिना वजह नाराज़ हो कर बाहर निकले रहते ......फिर उन को बीच सड़क पे अंदर डालते फिरो ....कईं बार तो मोची छोटी सी टाकी लगा कर उस की बीमारी का इलाज कर देता .....लेेकिन फिर एक वक्त यह भी आ जाता कि स्ट्रैप बदलवाने की नौबत आ जाती ....और यह एक मेजर डिसीज़न हुआ करता था कि स्ट्रैप बदलवाने हैं या चप्पल ही नईँ ले ली जाए.....नया स्ट्रैप दो-तीन रूपये में आ जाता था जहां तक मुझे याद है, और चप्पल १०-१२ रूपये की...खैर, नया स्ट्रैप लगवा कर भी मज़ा आ जाता था, एकदम कसा हुआ...हमारी तो चाल ही बदल जाती थी ... 😎😎😎😎😎
अच्छा, एक और मज़ेदार बात ....उन दिनों हम एक दूसरे के पहने हुए शूज़ पहन भी लेते थे ...हमें उसमें कोई शर्म नहीं महसूस होती थी ...जब मैं बडा़ हो गया तो मेरे जूतों का साइज मेरे चाचा जितना हो गया...तो जब हम मिलते तो चाची बड़े प्यार से हमारे सामने चाचा के कुछ बहुत अच्छे शूज़ रख देतीं कि देखो, जो तुम्हें पसंद हो, पहन लो ...और हम पहन लेते...हमें बहुत अच्छा भी लगता।
अब, न तो कैंची, हवाई चप्पलों में वह ताकत और न ही जूतों में ..कमबख्त ऐसे घिसते हैं जैसे दो कौड़ी की पैंसिल ...चलिए, घिसें ..कोई बात नहीं ..लेकिन जब कभी अचानक आदमी इन घिसी-पिसी चप्पलों की वजह से फिसलते फिसलते बचता है तो बड़ी राहत महसूस करता है ... अब चप्पलें शुरूआत से ही घिसी पिटी लगती हैं मुझे ...पहले ऐसा न था, बहुत लंबे अरसे तक पहनने पर ही वह घिसने लगती थीं, जैसे हम लोगों की ज़िंदगी में दूसरे पहले डिल्यूट हुए हैं, यह भी होना ही था, जूतों की वजह से स्लिप होना भी एक आम सी बात हो गई है....
पहले जब बूट खरीद कर लाते तो घर आ कर पैरों मे छाले हो जाते.....फिर उस पर सरसों का तेल लगाया जाता, अंदर रूईं रखी जाती ...बाद में ये जो बैंड-एड आ गईं उन को लगाना पड़ता ....बडे प्रपंच करने पड़ते भाई..फिर भी वह कहां काटना बंद करता ...फितरत हो जिस की काटने की ...फिर कभी कभी कोई कील चुभने लगती तो मोची के पास जा कर उस की ठुकाई करवानी पड़ती ... अभी लिखते लिखते यह भी याद आया कि पहले हम लोग शूज़ के नीचे बडे़ बड़े मोटे कील भी ठुकवा लिया करते थे ताकि जूते कम घिसें ...और कुछ जूतों पर तो अलग से चमड़े या रबर का सोल भी लगवा लेते ताकि जूते हिफ़ाज़त से रहे ...
कभी कभी बच्चे कहते हैं दिखाओ, जो शूज़ पहने हैं, दिखाओ.....नीचे से कैसे हैं, देखते हैं, फिर नाराज़ होते हैं ....फिर कहते हैं कि कितना बार कहते हैं कि मत पहना करो इन को अब....लेकिन आप को क्या है, आप तो रेंबो हो....फिर नये शूज़ आ जाते हैं शाम को ...लेकिन वह हमें पसंद नहीं आते या उन का साईज ठीक नहीं होता ..फिर वापिस हो जाते हैं....बस ऐसे ही ज़िंदगी चलती रहती है ...लेकिन मैंने एक बात ऊपर लिखी है न कि पहले जो मज़ा जूतों के तलवे (सोल) बदलवा कर आता था वह अब हज़ारों रुपयों के जूते खरीद कर भी नहीं आता....पहले घर में एक चप्पल भी आती थी तो सब को पता चलता था ...जैसे एक ख़त घर में आता था तो वह सब के लिए होता था, सब पढ़ते थे उसे बार बार ......अब हज़ारों रूपये के जूते आ भी जाएं तो जिस के लिए आए हों, उसे ही अकसर खोलने की फ़ुर्सत नहीं होती, तो वह आगे किस को दिखाए ......
हां, पहले एक शूज़ होता था ....उसे पालिश किया जाता था, मेरे पिता जी अपने जूते रोज़ सुबह खुद पालिश किया करते थे और हमें कहते कहते परलोक सिधार गए कि जूते रोज़ाना पालिश किए पहनने चाहिए क्योंकि जो तुम लोगों का दुश्मन होता है वह पहले तुम्हारे जूतों की तरफ़ देखता है ....पिता जी की यह बात तो कुछ खास समझ आई नहीं अब तक, लेकिन इतनी बात पक्की है जब शूज़ को अच्छे से पालिश किया हो तो बंदा सारा दिन सातवें आसमां पर टिका रहता है ...ज़रूरी नहीं तो किसी के पास दस शूज़ ही हों, लेेकिन बहुत से लोगों को मैने देखा है कि शूज़ चाहे एक हो लेकिन उसे अच्छे से रोज़ पालिश कर के पहनते हैं ....मस्त रहते हैं....समझदार लोग...
लिखते लिखते बातें याद आती रहेंगी....मेरा क्या है, लिखता रहूंगा ... लेकिन दुनिया में दूसरे काम भी तो हैं....चलिए, सुबह सुबह यह सुंदर गीत सुनिए....मुझे बहुत पसंद है यह गीत, इस की संगीत और इस के बोल ....
दो दिन पहले शाम को यहां मुंबई के षणमुखानंद हाल में रविंद्र जैन की याद में एक म्यूज़िक कंसर्ट था...यह ६.३० बजे शुरू होना था...लेकिन मुझे ड्यूटी पर कुछ ऐसा काम था कि मुझे फ़ारिग होते होते साढ़े सात बज गए ...मुझे यही लगा कि कुछ भी कर लूं, सवा आठ बजे तक ही पहुंच पाऊंगा ....वही हुआ वहां पहुंचते पहुंचते साढ़े आठ तो बज ही चुके थे ...
आर जे अकादमी- रविंद्र जैन अकादमी
जल्दी से हाल में घुस गया...लेकिन यह क्या, २०-३० लोग तो चाय, वडा और समोसे का लुत्फ उठा रहे थे ...मैंने किसी से पूछा कि इंटर्वल हो गया क्या। कैंटीन वाले ने कहा कि नहीं, बस होने ही वाला है ..। मैंने समोसा खरीदते वक्त ऐसे ही पूछा कि इतने लोग बाहर कैसे हैं....तो किसी दूसरे ने कहा कि हरेक की अपनी पसंद है। चलिए, मैंने भी सोचा कि अब इतना लेट तो हो ही चुका हूं, एक समोसा मैं भी खा ही लूं.....मैं भी बिल्कुल ढीठ प्राणी हूं ...मुझे अमृतसर के इलावा हिंंदोस्तान की किसी भी जगह का समोसा पसंद नहीं है, थोड़ा बहुत फिरोज़पुर का भी ठीक ठाक था..लेकिन अमृतसर की हर खाने की तरह वहां का समोसा भी एकदम दा-बेस्ट(मेरी व्यक्तिगत राय है यह)....मुझे किसी भी दूसरी जगह का समोसा पसंद नहीं है, लेकिन फिर भी खा लेता हूं और फिर अपनी तबीयत खराब कर लेता हूं ..क्योंकि यह जो कच्चा कच्चा मैदा दिखता है न समोसे में ....यह मेरी जान का दुश्मन है....हर बार खा कर तौबा करता हूं लेकिन फिर कुछ दिनों बाद भूल जाता हूं...
चलिए, मैं हाल में अंदर जा कर बैठ गया....बहुत सी सीटें खाली थीं, तो मैंने जो खाली देखी वहीं बैठ गया....जैसा कि टिकट से ही पता चलता है वहां पर सुरेश वाडेकर और अनूप जलोटा भी आने वाले थे...हाल में पहुंचते ही सुरेश वाडेकर गीत गाते दिखे ....हुस्न पहाड़ों का ...क्या कहने कि बारह महीने...मौसम जाड़ों का .... उस के बाद सब को सम्मानित करने का सिलसिला शुरू हो गया....
एक बहुत बड़ी गायिका वहां स्टेज पर उपस्थित थीं....बेगम अख्तर के साथ रह चुकी हैं...और भी बहुत से बडे़ बड़े उस्तादों से सीख चुकी हैं....लोगों ने कुछ गाने की फरमाईश की तो देखिए और सुनिए उन्होंने कैसे बिना किसी साज़ के फ़ौरन समां बांध दिया ......यह होता है टेलेंट ...प्रतिभा....रियाज़ का कमाल........
श्रीमति दिव्या रविंद्र जैन
श्रीमति रविंद्र जैन, सुरेश वाडेकर की दीदी को सम्मानित करते हुए, इस तस्वीर में सूरज बड़जात्या के बड़े भाई --नाम भूल गया मैं (शाल ओढ़े हुए) और उन के साथ उन की श्रीमति भी नज़र आ रही हैं...ये सब पुराने लोग आपस में बडे़ अच्छे से संपर्क में हैं....
अभिषेक रविंद्र जैन, रविंद्र जैन के सुपुत्र सुरेश वाडेकर के साथ खड़े हैं
जब मैं हाल के अंदर पहुंचा तो वहां पर सुरेश वाडेकर राम तेरी गंगा मैली का वह गीत गा रहे थे ...हुस्न पहाड़ों का ...
अब देखिए मेरे वहां पहुंचने के १०-१५ मिनट के बाद ही इंटरवल हो गया....मैं तो पहले ही वह कच्चा-पक्का समोसा खा कर तंग हो रहा था..इसलिए मैंने तो कहां बाहर जाना था, बैठा रहा वहीं पर .....😂
रविंद्र जैन के बारे में कुछ बरसों तक ज़्यादा जानकारी थी नहीं....लेकिन जब टीवी पर उन के कईं इंटरव्यू देखे तो समझ में आने लगा कि स्कूल कालेज के जमाने से जिन गीतों पर मैंं फिदा था उन में से बहुत से तो रविंद्र जैन के संगीत से सजे हुए थे ...
१९७८-७९ के दिन याद - ४०-४५ बरस पहले वाले दिन याद करूं ..अपने कालेज के नये नये दिन ....एक रेडियो होता था...जिसे ठंडी़ के दिनों में रात के वक्त आड़ा तिरछा घुमाते रहने से कईं बार दो चार मिनट के लिए विविध भारती लग जाया करता था ...उसी दौरान विविध भारती पर इस तरह के गीत सुनते थे ......सुनयना का सुनयना., सुनयना.....आज इन नज़ारों को तुम देखो और मैं तुम्हें देखते हुए देखूं....विकीपीडिया पर देखा तो पता चला कि इस से पहले भी जो गीत चितचोर फिल्म के, गीत गाता चल आदि के सुनते आ रहे थे ...उन के संगीत से लुत्फ़अंदोज़ हुए रहते थे उन में भी दादू का ही संगीत था...रविंद्र जैन मोहब्बत करने वाले उन्हें दादू कहते हैं...
दिव्या जैन की माता जी निर्मला जैन भी एक महान् लेखिका थीं। प्रोग्राम के दौरान दादू का रामायण सीरियल में जो अहम् योगदान था, उस के बारे में भी बातें हुईं....उस धारावाहिक में जैन साहब ने बहुत से गीत, भजन गाए...एक कलाकार ने आकर उन का यह गीत सुनाया.....सुनो रे राम कहानी ...अभी मैं इस गीत के नीचे लिखे क्रेड्टस देख रहा था तो पता चला कि इस के बोल, संगीत और आवाज़ सब कुछ उन का ही है ...रामायण सीरियल के बाद उन्हें फिल्मों में पार्श्व गायन के भी बहुत से अवसर मिलने लगे ...और वह गीत, शेरो शायरी, गज़लें, नज़्में भी लिखा करते थे ....हिदी, उर्दू, अवधी, भोजपुरी में भी लिखते थे ...सुरेश वाडेकर भी उन के साथ जुड़ी अपनी यादें साझा कर रहे थे कि किस तरह से लगभग रोज़ाना ही उन के साथ बैठना होता था ....
इस के बाद दूसरे गायकों ने कुछ गीत प्रस्तुत किए जिन में भी रविंद्र जैन ने संगीत दिया था....
पहेली फिल्म का गीत ...सोना करे झिल मिल...यह फिल्म १९७६ की है ...और इसे हम लोग ४५ साल से सुनते चले आ रहे हैं....लेकिन अभी तो जब कहीं बजता है तो सब काम छोड़ कर बैठ जाते हैं....
हिना फिल्म का यह गीत...जाने वाले ओ जाने वाले ....
छोड़ेंगे न हम तेरा साथ ओ साथी मरते दम तक ....(मरते दम तक- १९८७)
ले तो आए हो तुम सपनों के गांव में ...(दुल्हन वही जो पिया मन भाए)
अभी मैंने देखा मैंने यह गीत यू-ट्यूब पर लगाया तो अपने आप ही कुछ गीत बाद में चलने लगे.....एक था ...अंखियों के झरोखों से ...मैंने देखा जो सांवरे ....मुझे जिज्ञासा हुई कि देखा जाए यह किस का गीत है ....नीचे लिखा था, गीतकार रविंद्र जैन...जितने भी उस दौर के सुपर-डुपर गीत हुए.....उन में से बहुत से गीतों का संगीत दादू का रहा, या उन के लिखे हुए थे .....और बाद में तो वह पार्श्व गायन भी करने लगे...
सुनो तो गंगा यह क्या सुनाए.....कि मेरे तट पर वो लोग आए ...(सुरेश वाडेकर)
इस तरह के प्रोग्राम में शिरकत इसलिए नहीं करते लोग कि गीत सुन लेंगे...गीत तो सुनेंगे ही ....वो तो अब मोबाइल पर कभी भी सुन सकते हैं ...इस तरह के आयोजनों के दौरान इन अज़ीम शख्सियतों के आस पास रहे लोगों से उन के बारे में जानने का मौका मिलता है ...अनूप जलोटा बता रहे थे कि मैं जब भी उन्हें मिलता तो कहते - यार, वो वाला भजन सुनाओ....ऐसी लागी लगन....मीरा हो गई मगन ..अनूप जलोटा ने वह भजन भी सुनाया...इस से पहले उन्होंने शुरुआत अपने उस भजन से की ..श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम....अनूप जलोटा का एक प्रोग्राम हमें लखनऊ में भी देखने का सुअवसर मिला था ...क्या लंबी आवाज़ खींचते हैं......वाह......
श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम.....
ऐसी लागी लगन ....मीरा हो गई मगन ....
भजन को बीच ही में रोक के कहने लगे कि यह लंबी लंबी जो आवाज़ निकलती है यह बाबा रामदेव के प्राणायाम का कमाल है ......एक किस्सा सुनाने लगे......एक व्यक्ति जो निरंतर प्राणाायाम किया करता था ...बहुुत लंबी उम्र भोग कर जब ९४-९५ की उम्र में स्वर्गधाम पहुंचा तो मुख्य द्वार पर एक सुंदरी ने उसे वेलकेम ड्रिंक दिया...उसे बहुत खुशी हुई.....वह अभी थोड़ा आगे पहुंचा तो एक दूसरी सुंदरी ने उन के गले में गुलाब के फूलों की एक माला पहनाई .....वह बहुत खुश .......आगे गया तो एक सुंदरी ने उन के समक्ष एक नृत्य की प्रस्तुति दी.....वह बंदा वहां बैठा बैठा यह सोचने लगा कि बेकार में बाबा रामदेव के प्राणायाम के चक्कर में बहुत देरी हो गई यहां आने में ... 😎 दो भजन गाने के बाद अनूप जलोटा ने वह गीत सुनाया ....घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं ....जाते जाते कहने लगे कि यह उन के अपने घर का प्रोग्राम होता है ...यहां वह लोगों से मिलने आते हैं, दादू की याद में पुष्पांजलि देेने आते हैं....
२८ फरवरी को रविंद्र जैन का जन्म दिवस है ....
एक बात और लिख दूं....कहीं भूल न जाऊं...मैं अकसर रेडियो ही सुनता हूं....कल रेडियो पर नौशाद साहब के संगीत के बारे में एक फिल्म लेखक कहने लगा कि फिल्म में उन का संगीत ऐसा होता था जैसे कोई किसी गांव से हो आया हो .....अभी मुझे लिखते हुए याद आया .....तो यह लगा कि बिल्कुल ठीक बात है ...और रविंद्र जैन साहब का संगीत सुन कर ऐसे लगता है जैसे अपने घर पर चारपाई पर नहीं बैठ कर किसी गांव-छोटे कसबे के मेले में घूमते हुए खुशियां मना रहे हैं......सोचिए कोई भी फिलम जिस में इन का संगीत था...चितचोर, अंखियों के झरोखों से ...गीत गाता चल ... क्या क्या गिनाएं .....अपने पास तो इतना भी सब्र नहीं है कि इन महान् हस्तियों के बारे में लिखते हुए घड़ी की तरफ़ देखने लगते हैं.... हां, भाई लोगो, रविंद्र जैन की एक किताब भी छपी हुई है ....देखिए यहां इस की जानकारी- दिल की नज़र से।
लीजिए, प्रोग्राम के अंत में जब किसी गायिका ने यह गीत गाया .......फकीरा फिल्म का ...दिल में तुझे बिठा के ...कर लूंगी मैं वंदना ....मुझे नहीं पता था कि इस का संगीत भी रविंद्र जैन का ही था......१९७६ की फिल्म का वह सुपर डुपर गीत ...४७ साल पहले अमृतसर के किसी थियेटर में देखी थी ....वह गीत हमेशा के लिए याद रह गया....
प्रोग्राम के आखिर में दादू का संगीतमय किया हुआ वह गीत पेश किया गया.....जोगी जी धीरे धीरे....(फिल्म -नदिया के पार) ..होली के दिन चल रहे हैं तो इस गीत पर धमाल तो होनी ही थी...यह गीत बजते ही लोग मस्ती में आकर नाचने लगे ....
प्रोग्राम संपन्न हुआ ......लेकिन मेरे लिए अभी कुछ बाकी था शायद .....मैं जिस दरवाज़े से बाहर आ रहा था, उस के सामने अनूप जलोटा का हार्मोनियम उठाए जब उन का एक सहायक दिखा तो मैंने ऐसे ही पूछ लिया.....जलोटा साहब निकल गए....उसने तुरंत कहा, आप के पीछे ही तो खड़े हैं......मैंने अनूप जी को उन के भजनों के बारे में जो कहना था कहा ....कि हमारी तो दिन की शुरूआत ही उन के भजनों से होती है ...वह खुल कर हंसने लगे ...मैंने कहा कि आप के भजन सुन कर बहुत अच्छा लगता है ...कईं बार तो रात को सोते वक्त भी रेडियो पर उन के भजन सुनते सुनते ही निंदिया मैया के आंचल में पहुंच जाते हैं....मुस्कुराते मुस्कुराते एक शेल्फी हुई ....यह सब अचानक हुआ तो लगा कि जिस चीज़ की हम दिल से तमन्ना करते हैं, कुदरत हमें वह चीज़ दिलाने की जी-जां से कोशिश करने लगती है ...
इतनी राम कथा सुना दी मैंने अब एक बात और सुनिए....मैं अकसर रविंद्र जैन चौक से होकर गुज़रता हूं ..पिछले दो चार दिन में उत्सुकता वश आसपास के दुकानदारों से पूछ चुका हूं कि रविंद्र जैन कहां रहते थे .....या कहां है उन का निवास.....मेरा सवाल सुन कर वे गुम सुम से हो जाते हैं ...जैसे मैंने पता नहीं क्या पूछ लिया हो उन से .....उन्हें नहीं पता कुछ भी ....मैं सोचता हूं कि मेरी उम्र का ही कोई पुराना बंदा ही उन के निवास के बारे में बता पाएगा......लेकिन इस बात की मुझे यकीं है कि उन के लिखे हुए, उन के गाए हुए और जिन गीतों को उन्होंने संगीत दिया ......उन सब गीतों का यह गीतों का भरपूर आनंद लेती होगी......बिना यह जाने की उन के सामने लगे चौक पर जिस हस्ती के नाम का बोर्ड लगा है वही है इन गीतों का जादूगर ......खैर, चलिए, कलाकार अपने फ़न के ज़रिए तब तक ज़िंदा रहते हैं जब तक ये सूरज चांद सितारे दिपायमान रहेंगे .....हम में प्राणशक्ति का संचार करते रहेंगे.....