मंगलवार, 3 जनवरी 2023

किताबें पढ़ना तो चाहते हैं लोग....

किताबों की खुशबू में ही कुछ जादू है जो खींचती हैं मुझे ...एनसीपीए,मुंबई, नवंबर २०२२

कल शाम मैं एक बुक स्टोर में कोई किताब ढूंढ रहा था कि मेरे पास खड़े एक २५-३० बरस के युवक ने मुझ से पूछा कि क्या आप  पढ़ने के लिए मेरे लिए कोई बुक सुजेस्ट कर सकते हैं....पहले तो मैं एक बार चकरा सा गया कि अब यह काम भी मेरे हिस्से में आ गया...क्या मैं इतना पढ़ाकू दिखने लगा हूं ...चलिए, दिखूं या न दिखूं लेकिन मुझे किताबें खरीदने का बहुत शौक है ...बहुत ज़्यादा शौक है ...और एक तरह की नहीं, हर तरह की किताबें ...अपना अपना शौक है, किताब कितनी भी महंगी हो, मुझे नहीं लगती....मुझे यही लगता है कि मान लेंगे १-२ पिज़ा खा लिए या बाहर कहीं खाने चले गए....मन को समझाने की बात है, शुरू शुरु में तो इस तरह से समझाना पड़ता था लेकिन अब उसे भी समझ आ गई है, इसलिए अब यह काम भी नहीं करना पड़ता। 

हां, मैंने उस युवक से पूछा कि वह किस जॉनर की किताब पढ़ना चाहेगा...उसने कहा कि हैरी-पॉटर टाइप कुछ। खैर, वहां पर हैरी पॉटर की कोई किताब नहीं थी ...मैंने उसे कहा कि इस सेक्शन में तो अधिकतर नावल, इंस्पिरेशनल बुक्स, और ज्ञान झाड़ने वाली किताबें हैं...ज्ञान झाड़ने वाली बात पर वह हंसने लगा...मैंने उसे जैफरी आर्चर की कहानियों की किताब की तरफ़ इशारा किया..लेकिन उस ने उसे भारी भरकम देख कर अहमियत न दी....खैर, मैंने वह किताब खरीद ली...और उसने कहा कि मैं तो अभी शुरूआत ही कर रहा हूं कुछ पढ़ने से ...इसलिए उसने एक पतला सा नावल खरीद लिया...


मुझे अच्छा लगता है जब मैं किसी को किताब खरीदते, पढ़ते या डिस्कस करते देखता हूं...पिछले रविवार मुझे एक भव्य समारोह में जाने का मौका मिला...जहां पर बड़े बड़े लेखकों का जमावड़ा लगा हुआ था...वहां पर २-३ घंटे कैसे कट गए पता ही न चला...मौका सा धर्मवीर भारती साहब के ऊपर एक किताब का विमोचन...जिन्होंने भारती जी का नाम न सुना हो, उन के लिए बता दें कि वह धर्मयुग साप्ताहिक के १९६० से १९८७ तक संपादक थे ...उन्होंने धर्मयुग को उन ऊंचाईयों तक पहुंचाया कि एक दौर में उस की चार लाख कापियां छपी थीं...और कईं बार जब कोई अंक खत्म हो जाता था तो टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के बाहर लोग प्रदर्शन करने लगते थे कि कापियां खत्म हैं, हमें नहीं मिलीं, दोबारा छापिए। ऐसा था, लोगों का प्यार धर्मयुग के लिए....

अपने बचपन का साथी ..धर्मयुग 

उस दिन जब उन की श्रीमति जी - पुष्पा भारती जी को सुना तो पता चला कि इस के पीछे जादू क्या था...वह सरल सादा भाषा इस्तेमाल करते थे ...मुझे भी तब समझ में आया कि १९७० के दशक में, अमृतसर शहर में पांचवी छठी कक्षा में पढ़ने वाला मेरे जैसा छात्र और परिवार के सभी लोग धर्मयुग के इतने दीवाने थे कि उस के लिए आंखें बिछाए रहते ...खैर, उस दिन वह किताब भी खरीद ली और उसे पढ़ कर जैसा वह ज़माना फिर से जी रहा हूं आज कल...

मैं तो किताब कब लिखूंगा मुझे नहीं पता ...मां यह कहती कहती चली गई...दो एक प्रकाशक कहते कहते थक गए ...लेकिन मैं पता नहीं किस बात का इंतज़ार कर रहा हूं ...सठिया तो गया ही हूं ...फिर भी अभी तक कुछ नहीं किया ....मैंने बीते साल की ३१ दिसंबर तक एक किताब की पांडुलिपि पूरी करने का संकल्प अपने स्टडी़-रूम में टांग रखा है, और किताब का नाम भी....लेकिन कुछ नहीं हुआ...बीस बरसों से बस प्लॉनिंग ही चालू है ...जब की खूब किताबें देख कर, अगर पढ़ कर नहीं भी तो उन के पन्ने उलट-पलट कर यह तो मन में विश्वास हो चुका है कि मैं किताब तो लिख ही सकता हूं और ठीक ठीक तरह की लिख सकता हूं....हिदी.पंजाबी, इंगलिश और उर्दू की किताबें पढ़ता हूं लेकिन अभी तक यही मन बनाया है कि अगर कभी किताब लिखूंगा तो वह होगी हिंदोस्तानी ज़बान में ही ..जो हम लोगों की बोलचाल की भाषा है ..हिंदी, उर्दू मिक्स...आम जन की समझ में आने वाली मासूम सी बातें....जैसा कि मैं जानबूझ कर अपने इस ब्लॉग में लिखता हूं.......मुझे किताब के लिए विषय ढूंढने में कोई मुश्किल नहीं है, न ही विषयों की कोई कमी है, बस, एक जगह टिक कर कुछ दिन बैठने भर की बात है ...शायद यही कोई आठ दस दिन ... लेकिन वह कब मुमकिन हो पाएगा, मुझे भी नहीं पता। 

दो महीने पहले एन.सी.पी.ए में ...

किताब लिखने के बारे में एक कथन मैंने कुछ महीने पहले एक किताब में यह पढ़ा था कि लेखक को वह किताब लिखनी चाहिए जो वह पढ़ना तो चाहता है लेकिन अभी तक लिखी नहीं गई है। अपना भी मंसूबा तो कुछ ऐसा ही है ..देखते हैं....

तीन बरस पहले जब अमेरिका गए तो वहां एक शाम न्यू-यार्क में एक लाइब्रेरी के सामने से गुज़र रहे थे ...क्या बात थी उस जगह की...मज़ा आ गया था....अंदर तो नही गया लेकिन उस लाइब्रेरी के इर्द-गिर्द फुटपाथ की कारीगरी देख कर ही हमें नज़ारा आ गया था ...अभी आप को भी वहां की फोटो दिखाते हैं...पढ़िएगा ज़रूर , मज़ा आएगा आपको भी ( चाहे ज़ूम ही क्यों न करना पड़े हरेक फोटो को ...)  वहां पर उस फुटपाथ पर क्या क्या लिखा हुआ है ....एक बात जो मुझे हमेशा के लिए याद रह गई कि किताबों को पढ़ना गुज़रों दौर के महान लोगों से मुलाकात करने जैसा शौक है ....जी हां, मैं भी यही मानता हूं...























कभी कभी लोकल ट्रेन में किसी को अखबार पढ़ते या कोई किताब पढ़ते देखता हूं तो अच्छा लगता है ....कोई कोई धार्मिक किताबें भी पढ़ते हैं...कोई मोबाईल में यह काम करते हैं...दो दिन पहले एक सिख युवक मोबाइल में कुछ गुरमुखी में लिखा पढ़ रहा था, जब उसने मोबाइल बंद किया तो मैंने पूछ ही लिया कि क्या वह जपुजी साहब का पाठ कर रहा था। उसने कहा ..हां, और साथ में उसने कुछ और नाम लिया जिसे मैं अब भूल गया हूं...


एक तरफ तो इतना पढ़ने लिखने की बातें , दूसरी तरफ़ ए.बी.सी तक को छोड़ने की इत्लिजा... एक तरफ़ तो बचपन में ऐसे गीत बज रहे होते रेडियो पर और दूसरी तरफ़ हाथ में चंदामामा, नंदन, धर्मयुग और राजन-इकबाल के बाल उपन्यास थामे रहते .... हा हा हा हा .

शनिवार, 31 दिसंबर 2022

आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने ले के आया रे ...

मुंबई के लोकल स्टेशन पर जब आप सीढ़ी से नीचे उतरें और सामने ट्रेन खड़ी हो तो ज़्यादा कुछ सोचने-समझने की गुंजाईश होती नहीं सिवाए इस के कि जो भी डिब्बा सामने दिखे जिसमें चढ़ने भर की जगह हो, बस उस में सवार होने की करो, बाकी ढोने का काम तो भारतीय रेल बखूबी कर ही देगी...


आज सुबह मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ...मैं जिस डिब्बे में चढ़ा वह सामान वाला डिब्बा था ...जहां तक लोग भारी सामान लेकर चढ़ते हैं...वहां बैठने की जगह भी थी ..पांच सात मिनट का सफर था, मैं बैठ गया....इतने में एक रंग बिरंगी बड़ी सी टोकरी लेकर एक आदमी चढ़ा...उसे नीचे टिकाने के बाद वह अपने मोबाइल में मसरूफ हो गया...और मेरा दिमाग यह गुत्थी सुलझाने में लग गया कि यार, यह है क्या, ये खिलौने हैं कैसे.....खैर, एक दो मिनट बीत गए...गुत्थी वुत्थी तो सुलझी नहीं, लेकिन पता नहीं मुझे कहां से बरसों पुराना एक गीत याद आ गया ...आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने ले के आया रे ....मुझे क्या, हमारे वक्त में यह गीत सब को बहुत भाता था..खूब बजा करता था हमारे रेडियो पर ...

लेकिन मेरे से रहा नहीं गया, मेरा स्टेशन आने वाला था और मुझे अभी तक यही पता न चल सका कि इस टोकरे में है क्या...आखिर, मैंने उस टोकरे वाले पर एक सवाल दाग ही दिया...क्या ये खिलौने हैं?..सवाल तो उसने सुन लिया, हल्का सा उसने मेरी तरफ़ देखा भी लेकिन जवाब देनी की ज़रूरत न समझी...शायद, बंबईया तौर तरीके सीख चुका था या कुछ और कारण होगा....मुझे भी बिल्कुल बुरा नहीं लगा...सवाल उछालना अगर मेरा काम है तो उसे पलट कर जवाब के साथ मेरी तरफ़ फैंकने में किसी की क्या विवशता हो सकती है .....बिल्कुल नहीं...

मुझे यह याद नहीं कि मैंने अपने पास बैठे एक युवक से भी वही सवाल पूछा या उसने खुद ही मुझे बता दिया कि यह तो बुढ़िया के बाल हैं। उसने कहा कि जिसे कैंड़ी-फ्लास भी कहते हैं...मैं तुरंत समझ गया कि अच्छा यह तो वही अपने बचपन वाली 'बुड्ढी दा झाता' (बुढ़िया के बालों का गुच्छा है), हमें कैंड़ी-फ्लास का नाम तब कहां आता था, हमने करना भी क्या था नाम वाम पता करके, बस, हमें उस ठंडे-ठंडे, मीठे मीठे झाटे को खाते हुए मज़ा बहुत आता था ..

मुझे भी थोड़ा याद तो आया कि इस तरह से कैंडी-फ्लास बिकते मैंने कुछ अरसा पहले भी दुर्गा पूजा के किसी पंडाल के बाहर देखे थे ...बड़े बड़े लिफाफों में ५०-५० रूपये में बिक रहे थे ...वह युवक कहने लगा कि अब पैकिंग ऐसी होने लगी है कि ज़्यादा से ज़्यादा सेल हो सके...सही कह रहा था वह.....अब मुझे एक और जिज्ञासा हुई कि यह गिलास इतने रंगों के हैं या कैंडी-फ्लास के इतने कलर हैं....वह भी पता चल गया कि ये अलग अलग फ्लेवर हैं, अलग अलग रंग में...


आज तो वह कैंडी-फ्लास बेचने वाला तो कहीं पीछे छूट गया....मैंने चार पांच बार आनंद बख्शी साहब का वह गीत सुन लिया....आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने ले के आया रे ...बख्शी साहब के गीतों की कोई क्या तारीफ़ क्या करें, हर गीत जैसे हमारे जज़्बात की अक्काशी करने वाला ...अच्छा, मज़े की बात यह भी रही कि जैसे ही मुझे उस गीत का ख्याल आया, मैंने यू-ट्यूब पर उसे लगा लिया....मुझे एक मिनट सुनने के बाद यही लगा कि इतने सादे, मीठे, दिल से निकले बोल भी बख्शी साहब की कलम ही से निकले होंगे ...जी हां, जब चेक किया तो मेरा अंदाज़ा बिल्कुल सही निकला.... ज़िंदगी की हर सिचुएशन के लिए फिल्मी गीत हम जैसे लोगों ने दिलो-दिमाग में ऐसे सहेज रखे हैं जैसे लोग मैमोरी-ड्राईव में हज़ारों गीत संजो कर रखते हैं...शायद हम लोगों के दिमाग में भी एक ड्राइव ही अलग से बन चुकी है ...बरसों से इन गीतों को सुनते सुनते, इन का लुत्फ़ उठाते उठाते और इन के बजने पर किसी सपनों की दुनिया में खोते खोते... 

कैंडी़-फ्लास की बात पर लौटते हैं ...इतनी तरह की रंग बिरंगी कैंडी-फ्लास जिस में पता नहीं कौन कौन से कलर और फ्लेवर पड़े हुए  होंगे ...वैसे तो आज कल जो भी बाज़ार में बिक रहा है सब में कलर, फ्लेवर, प्रिज़र्वेटिव तो ठूंसे ही होते हैं ...लेकिन फिर भी हम सब कुछ खाए जा रहे हैं बिना अंजाम की परवाह किए....वैसे, बहुत बार ज्ञान भी खामखां छोटी छोटी खुशियों के आड़े आ जाता है ...शुक्र है जब हम लोग बर्फ के गोले बार बार मीठा रंग डलवा कर खाते थे, उस वक्त इन सब के बारे में कुछ पता न था, वरना ज़िंदगी की उन यादों से भी महरूम ही रह जाते ....

अभी सोचा कि दो महीने पहले दुर्गा पूजा के मेले की कुछ तस्वीरें भी लगा देता हूं...कैंडी-फ्लॉस की 😎.....कैंडी-फ्लास से याद आया कि कहीं बार बार पढ़ता हूं कि कैंडी-क्रश नाम की कोई मोबाईल गेम भी है...उस से दूर रहने को कहते हैं लोग....मैंने भी अभी तक उसे खोल कर नहीं देखा...बस, यूं ही बैठे बैठे कैंडी-फ्लॉस का नाम लेते हुए कैंडी-क्रश का ख्याल आ गया....




सोचने वाली बात है कि ये लोग दरअसल बच्चो की ज़िदंगी में खुशियां घोलने आते हैं ...हमें जब अपना या अपने बच्चों का वक्त याद आता है तो एक अजीब सी खुशी मन में होती है ...जब उस बुज़ुर्ग औरत का ख्याल आता है जो सुबह सवेरे रोज़ बाजा बजाते हुए बेटे को फिरोज़पुर में एक गुबारा देने आती थी.....उसे देखते ही बेटा झूमने लगता था ....और उसे देख कर हम ....ऐसे ही खुशियां बढ़ती हैं....

छोटी छोटी खुशियां थीं....छोटे छोटे खिलौने थे...मां अकसर मंदिर से मेरे लिए एक मिट्टी का तोता लेकर आती थी....मुझे वह सचमुच में एक तोता ही लगता था ...हरा चमकीला रंग, लाल चोंच ...यादों का क्या है, आती हैं तो इन की एक आंधी सी चल पड़ती है ...और खिलौने वाले भी हमें याद आते हैं ...एक तो वह जो हमें बाइस्कोप से सारी दुनिया की सैर करवा जाया करता था ..और इतने सस्ते में ..पांच दस पैसे में ....उस की डुगडुगी की आवाज़ सुनते ही हम लोग भाग कर उस के बाइस्कोप को घेर लेते ... 


हां, बाइस्कोप की बातों से याद आया कि अगर आप न पता हो तो बता दें कि इतवार के दिन दोपहर में २ से ३ बजे तक विविध भारती पर एक प्रोग्राम आता है ..बाइस्कोप की बातें ...जिस में एक फिल्म को लेकर उस की पूरी स्टोरी, डायलाग, गीत सुनाए जाते हैं...बिल्कुल फिल्म देखने जैसा लगता है ...मैं उस प्रोग्राम को कभी मिस नहीं करता ...सब काम छोड़ कर उसे सुनता हूं ...वैसे तो अगले दिन सोमवार सुबह भी वह रिपीट होता है .....क्यों क्या परेशानी है, रेडियो नहीं है ? - उस की कोई ज़रूरत नहीं, मोबाइल पर ही आल इंडिया रेडियो की न्यूज़ ऑन एयर डाउनलोड कर आप दिन भर उस पर विविध भारती के बढ़िया कार्यक्रमों का आनंद ले सकते हैं...पिछले इतवार के दिन मेरा साया फिल्म की स्टोरी सुनी...बहुत बढ़िया ...कल आप भी सुनिएगा... 

गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

वो अटैची का कवर खरीदने वाला दौर ...

मुझे अकसर आस पास के लोग पूछते हैं कि तुम्हें लिखने के आइडिया कैसे आते हैं....उन को मैं सिर्फ एक ही जवाब देता हूं कि यह कोई राकेट साईंस नहीं है...मेरा लिखना तो क्या है, कुछ भी नहीं, लिखने वाले ८-८ मिनट में सुपरहिट गीत लिख गए जो ५० साल बाद भी सुपरहिट हैं...इसलिए यह लिखने विखने का कोई सिलेबस नहीं है, न ही कोई सिखा सकता है...बस इशारा कर सकता है ...मैं तो पिछले ३० बरसों से यही सीखा हूं....१९८८ से २००० तक मुझे यही लगता रहा कि बंदा अपने प्रोफैशन से जुड़ें विषयों पर ही लिख सकता है ...ज्ञान बांट सकता है ...लेकिन २०-२२ बरस पहले मुझे यह पता चला कि लिखने के मौज़ू और भी हैं...दो तीन कोर्सों पर उन दिनों बीस-तीस हज़ार खर्च भी किया...लेकिन कुछ बात समझ में आई नहीं ..

बीस बरस पहले यही लगता था कि मेडीकल विषय पर तो लिखने के लिए २५-३० लेख ही तो हैं, उस के बाद क्या करूंगा....लेकिन आहिस्ता आहिस्ता पांच सात बरस में यह समझ आ गया कि लिखने के बहाने तो अनेकों हैं...विषय भी अपने आस पास बिखरे पड़े हैं, जितने चाहिए उठा लीजिए....बस, उस के लिए एक दो शर्तें हैं...लोगों से जुड़ कर रहना और ज़मीन पर रहना। समझने वाले समझ रहे हैं..। बस, वही आप को लिखने की मौका देते हैं....कईं बार स्टेशनों पर, फुटपाथ पर आते जाते कोई ऐसा शख्स दिख जाता है कि लगता है जैसे यादों की आंधी आ गई हो उसे देखते ही ...

दादर स्टेशन का पुल ... २८ दिसंबर २०२२ 

कल सुबह भी ऐसा ही हुआ...दादर स्टेशन के पुल पर यह शख्स दिखे ...हाथ में कोई ब्रेंडैड अटैची उठाई हुई जिस पर कवर चढ़ा हुआ था, साथ में एक दो थैले ..हां, थैलों का रूप ज़रूर बदल गया है इधर कुछ बरसों से ...सब से पापुलर ये पानमसाले वाले थैले हैं ...एक थैला ८०-१०० रूपये का आ जाता है...जब हमारी बदली होती है तो हमें भी अपनी किताबों-कापियों-रसालों को ढोने के लिए ये चाहिए होते हैं ..एक बार तो ४०-५० के करीब ये थैले हो गए हमारे सामान के साथ ...और हम लोगों ने पैकर-मूवर के आने से पहले इन्हें अपनी बैठक में रख दिया....मुझे उस दिन इतनी हंसी आई और मैंने इन के साथ फोटू भी खिंचवाई ....मुझे यह मज़ाक सूझ रहा था कि ४० बरस हो गए पान मसाले-गुटखे का इस्तेमाल करने वालों को डांटते हुए, उन का इलाज करते हुए..लेकिन कोई पानमसाले के इतने थैले हमारे घर में देख ले तो उसे यही लगे जैसे कि मैं इन कंपनियों का ब्रॉंड अम्बेसेडर हूं......

 डेंटल सर्जन के घर में पान मसाले के इतने थैले (२०२० -लॉक डाउन से पहले) ...यह घोर कलयुग नहीं तो और क्या है ...😂

खैर, उस शख्स की बात हो रही थी जिन को मैंने कल सुबह दादर स्टेशन पर देखा और झट से मोबाइल में सहेज लिया...कहां दिखती हैं अब इस तरह की कवर के साथ अटैचियां ....यह तो कंकरीट के इस जंगल का और पब्लिक के समंदर की वजह से मुकद्दर से कभी कुछ ऐसा दिख जाता है जो हमें यादों की दुनिया में ले जाता है ..हां, मैंने इन अटैचियों पर और यहां तक कि होल्डाल (बैड-रोल) और सुराही लेकर सफ़र करने के दौर पर अपने पंजाबी के ब्लाग में कुछ पोस्टें भी लिखी थीं कुछ बरस पहले ....उन के लिंक लगाता हूं यहां, अगर कोई पढ़ना चाहे तो ...

ਓਏ ਰਬ ਤੁਹਾਡਾ ਭਲਾ ਕਰੇ - ਓਹ ਅਟੈਚੀਆਂ ਸੀ ਕਿ ਵੱਡੇ-ਵੱਡੇ ਅਟੈਚੇ!

जैसा कि उस शख्स की इस तस्वीर में आप देख रहे हैं वह अपने साथ कुछ बेल-बूटे भी लेकर आए हैं या ले कर जा रहे हैं ....किसी सगे-संबंधी के पास आए होंगे ...खैर, यह भी एक चीज़ होती थी जो अकसर हम लोग अपने रिश्तेदारों के पास लेकर जाते थे या वे जब आते थे तो दो चार ऐसी टहनियों हमारे बाग में ज़रूर लेकर आते थे ...अब यह जो महंगे महंगे पौधे हम लोग भेंट में देते हैं, पहले यह सब कुछ नहीं दिखता था, ज़िंदगी बड़ी सीधी-सरल थी ...

कल मैं कुछ लोगों को यह तस्वीर दिखा कर उन से पूछ रहा था कि बताइए इस तस्वीर में किस चीज़ की कमी है ....वे तो बता नहीं पाए, आखिर मुझे ही बताना पड़ा कि पुराने दौर में सामान के साथ जब तक एक पानी की सुराही न होती तो सामान पूरा नहीं होता था...सुराही इसलिए कि गिलास मे पानी आराम से डाला जा सकता है और ट्रेन में अपनी जगह पर टिके रहती थी ...मटके को कोई कहां टिकाए, अपनी गोद में ...नहीं, ऐसा संभव नहीं था, मटका तो नहीं, छोटी सी मटकी लोगों को अपनी गोद में रख कर जाते देखा भी है और खुद हम भी लेकर गये हैं...मटकी में अपनी पापा की अस्थियां जिस पर लाल कपड़ा बंधा हुआ था और हरिद्वार ले जाते समय उस का टिकट भी कटवाया है ...

चलिए, इधर उधर भटकना बंद करें.....वापिस उस अटैची पर आते हैं...इस तरह की अटैचीयों लोग अकसर मिलेट्री कैंटीन से लेने का जुगाड़ कर लेते थे ...कैंटीन की दारू की तरह ...कैंटीन में बहुत सस्ते में मिल जाती थी ...और जुगाड़ भी देखिए कैसे कैसे ...कुछ पैसे बचाने के लिए इतनी मेहनत...खास कर दहेज में बेटियों को इस तरह का सामान देने के लिए लोग मिलेट्री कैंटीन से ही यह सब खरीदने का जुगाड़ कर लेते थे ....हमने भी जुगाड़ से ही ऐसी एक छोटी अटैची वी-आई-पी की खरीदी थी ...हमारे मौसा जी अंबाला में एक बैंक में कुछ मैनेजर टाइप थे ...उन की मिलेट्री कैंटीन में पहचान थी, उन्होंने ही हमें यह खरीदवा कर दी थी ..कम मोल पर ...आम आदमी की खुशियां भी कितनी छोटी छोटी होती हैं...यह १९८० के दशक के शुरूआती बरसों की बात है ...उन्हें बढ़िया बढ़िया दारू भी कैंटीन से लाने का बड़ा क्रेज़ था ...इसलिए रिश्तेदारी में उन्हें लोग बाग मानते थे ...बीस साल की उम्र में परफ्यूम और आफ्टर शेव लगाने का क्रेज़ नया नया होता है ...मुझे भी ओल्ड-स्पाईस की बोतल वहीं से मिली थी ...

हां, यह वह दौर था जब इस तरह के अटैची खरीदने के बाद उन्हें सब से पहले कवर करने का जुगाड़ किया जाता था ...कवर कुछ लोग सिलवाते थे मोटे कपड़े के चैन-वैन लगी होती थी ...और बाद में तो ये कवर जगह जगह अलग अलग क्वालिटी के बिकने भी लगे थे। नहीं, यार, हम लोगों ने कभी खुद को इतना गरीब भी नहीं समझा कि इन अटैचियों पर कवर डालने की नौबत आ गई हो ...हमें तब भी यही लगता और अब भी लगता है कि इन को अगर कवर ही करना है तो इन को खरीदना ही क्यों, वही पहले वाले लोहे के ट्रंक ही चलाते रहिए.......खैर, यह तो एक खामखां की बात है ..हरेक की अपने मन की मौज है ...पता नहीं कोई कितनी तंगहाली या खुशहाली में इस तरह की अटैची का जुगाड़ कर पाता है ..खैर, मुझे स्टेशनों पर और गाड़ी पर किसी को इस तरह की अटैची से कुछ निकालते डालते देख कर बड़ी हंसी सूझती ...कवर की चैन पर लगा हुआ ताला खोल, फिर अटैची का लॉक खोलना, फिर उसमें से बाबू की ऊनी टोपी निकालनी या मुन्ने के बापू का मफलर या मौजे, या बबलू के पापा की चप्पलें या वह फांटावाला पायजामा जो उन्हें सफर में लगेगा ही लगेगा, वरना नींद ही नहीं आएगी .....कितनी मेहनत का काम लगता था यह सब देखना भी ....

मेरे मामा अजमेर से जब हमारे पास पंजाब मे ंआते तो उन्हें दिल्ली में गाड़ी बदलनी होती थी ...पुल पुल थे सीढ़ियों वाले...उन्होंने पास एक ऐसा भारी भरकम अटैची होता था..उम्र हो चली थी उन की भी ...वह हमें हंसते हंसते जब सफ़र के किस्से सुनाते तो हर बार कहते उस अटैची को एक भारी भरकम गाली निकाल कर कि जब इसे लेकर सीढ़ियां चढ़ जाता हूं जैसे तैसे तो पहुंच कर इच्छा होती है कि इसे ज़ोर से ठोकर मार दूं (ठुड्ढा मारां ऐहनूं उत्तों ही ते थल्ले सुट दिआं) ...और वहीं से इसे नीचे गिरा दूं....हम उन की इस बात पर बहुत हंसा करते ...

हां, गाड़ी में उन दिनों इस तरह की महंगी अटैचीयां कईं बार चोरी भी हो जाती थीं...इसलिए लोगों ने इसे सीट के नीचे चैन से बांध कर रखना शुरू कर दिया...मुझे तो उस चैन और ताले से यह बड़ा डर लगता है कि अगर स्टेशन आ जाए और हम लोग उस चेन की चाबी गंवा बैठें तो....खैर, लोगों को गाड़ी के अंदर आकर इस तरह की अटैची को ताले से बांध कर उस की चोरी से निश्चिंत होते देखना भी कम रोचक न था...हम भी कईं बार यह सब करते थे, हम भी तो इसी हिंदोस्तानी मिट्टी में पले-बढ़े हैं... हा हा हा हा हा ...

फिर धीरे धीरे पहियों वाले अटैची आने लगे ....लेकिन अब भी देखता हूं कि चाहे पहियों वाले अटैची बैग आने लगे हैं लेकिन लोग ....लोग क्या, हम सब लोग उन को ऐसे ठूंस देते हैं सामान के साथ कि उन को पहिये के साथ लेकर चलना भी मुश्किल होने लगता है ...और खास कर के अगर सीढ़ीयां चढ़नी पड़ जाएं तो नानी तो क्या, उस की नानी भी याद आ जाए...

मैं गोपाल दास नीरज जी के गीतों का बहुत बड़ा फैन हूं .....वही, शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब ..गीत के रचयिता ...अभी मैं कुछ देख रहा था तो उन की एक वीडियो दिख गई ..लखनऊ रहते हुए उन को कईं बार पास से देखने का मौका मिला...एक बार बात भी हुई ...वह अकसर कहा करते थे ...

जितना कम सामान रहेगा...
उतना सफर आसान रहेगा...
आठ बरस पहले लखनऊ में जब गोपाल दास नीरज जी के जन्म दिवस समारोह में जाने का मौका मिला ..

चलिेए, यही बंद करते हैं अपनी बात ....यह तो टॉपिक ऐसा है कि इस पर एक पोथी लिखी जा सकती है ..वह इसलिए कि हम लोगों ने यह सब जिया है, आंखों देखी बाते हैं, जिन्हें अच्छे से महसूस भी किया है ...और आम बंदे की बिल्कुल छोटी छोटी खुशियों को देखा है .......वैसे ट्रेन-बस के सफर में कितनी भी धक्का-मुक्की सह लेंगे, सब्र कर लेंगे लेकिन मेरी अटैची पर कोई खरोंच नहीं पड़नी चाहिए...इसलिए उसे किसी तरह की झरीट से आहत होने से बचाने के लिए अटैची पर कवर तो चढ़ाना ही पड़ता है, क्या करें मजबूरी है.. 😎😂



कुछ बरस पहले गीतों के दरवेश नीरज जी के जन्मदिवस पर लखनऊ में फिर शिरकत करने को मौका मिला ....