मंगलवार, 29 नवंबर 2022

ग्रूमिंग-शूमिंग ...

दो चार दिन पहले टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर खबर थी कि एयर-इंडिया ने अपने क्र्यू को ग्रूमिंग के बारे में कुछ हिदायत दी है ...जिन के बाल बहुत कम हैं, उन्हें सिर के सारे बाल मुंडवाने होंगे ...जिन के बाल सफेद हो रहे हैं, उन्हें नियमित नेचुरल हेयर कलर का इस्तेमाल करना होगा...और जिन के बाल वाल कायम हैं, उन्हें हेयर-जेल से उन्हें कायदे से बिठा कर रखना होगा...

कोई हैरानी की बात नहीं है...नौकरी क्या और नखरा क्या, मालिक जैसा भी चाहेगा, करना होगा अगर नौकरी करनी है तो ...मुझे इस में कुछ भी अजीब न लगा। इतनी बड़ी कंपनी है, सोच समझ कर ही ऐसे फ़ैसले लिए जाते हैं....सभी देशों से इन के ग्राहक होते हैं, इन सब चीज़ों की तरफ इन्हें ध्यान देना ही होता है...मुझे यह सोच कर हंसी आ रही थी कि अगर मेरे जैसा सफेद बालों वाला कोई क्रयू मैंबर हो तो ग्राहक मुझे तो बुलाए ही न, कि इसे तकलीफ क्यों दें, अगर प्यास भी लगी है तो भी घंटी न बजाएं कि जाने दो, यार, बाहर जा कर पी लेंगे ...इसे क्यों इतनी ज़हमत दें...

जो लिख रहा हूं ...उस के बारे में मेरे खुद के ख्याल ये हैं कि बाल होना या कम होना, सफेद होना, या और भी नयन-नक्ष ये सब कुदरत की दी हुई चीज़ें हैं, हम लोग इन सब चीज़ों पर ध्यान लगा कर किसी का मज़ाक उड़ाने का तस्सवुर भी नहीं कर सकते ...लेकिन मेरे जैसों का क्या, जो खुद अपने आप पर भी हंसने से नहीं चूकते ...इसलिए मेरे जैसों को तो थोड़ी बहुत छूट दी भी जा सकती है...

आज शाम भी हुआ यह कि लोकल ट्रेन में मेरे सामने की सीट पर एक शख्स बैठा हुआ था...यही ५५-६० साल के करीब का होगा...सरसरी निगाह से जैसे हम किसी को देखते हैं, देखा....लेकिन फिर दूसरी बार मैंने उस के घने बालों को देखा...और तीसरी बार बडे़ बालों से बने एक बडे़ पफ को देखा ..पफ को वो लोग जानते हैं जो अब ५०-६० साल के हैं क्योंकि आज से चालीस साल बरस पहले बालों पर तेल (अकसर सरसों का ही) लगा कर एक बड़ा सा पफ बनाने का एक रिवाज था...मुझे नहीं पता कि तेल से चुपड़े बालों को पफ बनाना कूल समझा जाता था या हॉट, हमें तो ये अल्फ़ाज़ ५०-५५ बरस की उम्र में ही पता चले...खैर, १६-१७ बरस वाले दिनों में हम ने कोशिश तो कईं बार थी पफ बनाने की ....लेकिन बाल हैं ही इतने पतले की एक जगह जब ये टिक ही नहीं पाते तो पफ के लिए क्या उठेंगे ...

खैर, हमारे स्कूल में एक मास्टर था जो बहुत बड़ा पफ बनाया करता था और पिटाई भी बड़ी करता था ...इसलिए हमें तो पफ से उनी दिनों से बड़ी नफ़रत है ...दूसरा एक प्रोफैसर था मेडीकल कालेज में जो हमें पहले फ़िज़ियोलॉजी पढ़ाता था, वह भी पफ का पक्का शौकीन ....इतना बड़ा पफ बना के आता था कि हम दोस्त लोग उस के पफ को याद कर के हंसते हंसते लोटपोट हो जाया करते थे ..लेकिन एक बात है, वह पढ़ाता भी बहुत अच्छा था ...सब कुछ झट से समझ में आ जाता था...

लेकिन मैं तो आज गाड़ी में मिले शख्स के पफ की बात कर रहा था ...मैंने बताया न कि तीन बार तो मैंने देख लिया...फिर उस के बाद मेरा स्टेशन आने में दस मिनट थे..फिर मेरे मन में हलचल चलती रही कि यार इतनी उम्र में इतने घने बाल और इतने करीने से सैट हुए हुए ....मेरे मन में शक का बीज पड़ चुका था कि हो न हो यार यह तो विग ही होगी ...मैंने उस की तरफ देखा, वह सो रहा था, मैंने उस के बालों की तरफ देखना शुरू ही किया था कि वह जाग गया...अब यह कोई ऐसी एमरजैंसी भी न थी कि मुझे यह पता लगाना है ..खैर, मैंने मौका मिलते ही दो तीन बार सरसरी निगाहों से उस के पफ को देखा और यह फैसला हो गया कि बंदे ने विग ही लगाई हुई है ...

और बेशक यह विग बहुत महंगी होगी ....मुझे मेरे एक दोस्त ने कुछ महीने पहले बताया था कि विग भी हज़ारों रूपयों की भी मिलती हैं..इस की विग तो पकड़ में इसलिए आ गई क्योंकि इसने कुछ ओवर हो गया विग खरीदते वक्त ....अगर सीधी सादी विग होती तो किसी को भी पता नहीं चल पाता ..पर मैं होता कौन हूं किसी के पर्सनल मामले में दखल देने वाला ...जो उस के मन की मौज थी, उसने लगा ली ...मैं क्या खामखां अपने दिमाग पर लोड ले रहा हूं....अभी यह सोचा ही था कि मेरा स्टेशन आ गया और मैंने नीचे उतरते उतरते उस खूबसूरत विग को अपने कैमरे में कैद करने की एक कोशिश भी कर डाली .... 


अब इतनी बात लिख देने के बाद यह सोच रहा हूं को हो सकता है कि उस के बाल अपने ही हों....हम भी कैसे कितनी आसानी से फैसले कर लेते हैं...कुछ भी, कहीं से, किसी के भी, कैसे भी, कभी भी ...कितनी जल्दबाजी में ....कितनी फुर्ती से, कितने उतावलेपन से ...कितनी अंधाधुंध स्पीड से ...

हां, जाते जाते इन की भी बात पर गौर करिएगा....ये बाल- काले, सफेद, कम ज़्यादा, विग, काला-गोरा रंग .....इससे कुछ भी फ़र्क नहीं पड़ता...फ़र्क बस इस बात से पड़ता है कि आप दूसरों के साथ, अनजान लोगों के साथ भी, किस तरह से पेश आते हैं ....सीधे मुंह बात कर भी पाते हैं या नहीं... यह गीत भी कुछ कुछ तो ऐसा ही समझा रहा है ... गोरों की न कालों की, दुनिया है दिल वालों की ...

सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

दूसरों के कोट्स भी बेगाने ही होते हैं....

किसी इंसान पर जो बीती, ज़िंदगी ने ज़माने ने जैसा उस के साथ बर्ताव किया, उस का क्या तजुर्बा रहा, उसने इन बातों को कोट्स की शक्ल में लिख दिया...किस ज़माने में लिखा, किन हालात में लिखा, उस बंदे की ख़ुद की कितनी जद्दोजहद से भरी थी, हमें कुछ भी तो नहीं पता...लेकिन फिर भी मेरे जैसे लोग यहाँ वहाँ से कोट्स की किताबें इकट्ठा करने में लगे रहते हैं और जब इस तरह की पूरा एक ज़ख़ीरा जमा हो जाता है, इन सब को थोड़ा उलट-पलट कर देख भी लेते हैं कभी कभी ......फिर यह ख़्याल आता है कि यार, ये तो इन के अनुभव थे..शायद इन्हें पढ़ना तो ठीक है, लेकिन ये कोट्स दूसरों की क्या मदद कर पाएँगे....

जी हाँ, मेरा यही ख़्याल है कि इस कायनात में हर इंसान के अपने कोट्स होते हैं ...उस के अनुभवों से, उस ने जो सीखा ज़िंदगी से (अक्ल बादाम खाने से नहीं, ठोकरें खाने से आती है....) वह उन्हें काग़ज़ पर पहले तो उकेरता ही नहीं, शायद वह लिखना नहीं जानता और अगर जानता भी है तो उसे अपने ख़्याल इतने घटिया क़िस्म के लगते हैं कि उन्हें लिख कर सहेज लेने की उसे नहीं पड़ी। ऊपर से हम जैसे ज़रूरत से ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग ...हमें अपने से ऊपर कोई दिखता ही नहीं....इसलिए हमें कोट्स भी वही सही लगते हैं जो महँगी किताबों में फ़िरंगियों ने लिखे होते हैं ...कुछ समझ में आते हैं, कुछ नहीं भी आते ...चलिए, दफ़ा करो जो समझ नहीं आते, न आएँ. हम ने कौन सा इन को पेपर देना है....

पहले कोट्स हमें बहुत कम ही दिखते थे ..फुटपाथ पर जो ५-१०-१५ रूपये में जो पोस्टर मिलते थे ...उन्हें हम ऐसे ही अपने कमरों की दीवारों पर चिपका लेते थे और कईं बार दिल बड़ा कर के फ़्रेम भी करवा लेते थे ...ऐसा ही एक फ़्रेम लेकर मैं ३५-३६ बरस पहले मैं अपने होस्टल के गेट से अंदर आ रहा था तो हमारे होस्टल के सुपरिन्टेंडेंट डा चोपड़ा साहब (वह हमारे प्रोफैसर भी थे) मिले...बात हुई ...उन्हें पोस्टर दिखाया....देख कर खुश हुए...उसमें एक बहुत सुंदर घाटी की तस्वीर थी और साथ में बड़े बड़े हरियाली से ढके हुए पहाड़ ...और उस पर लिखा हुआ था ...Prayers Go up, Blessings Come Down!  Seek the Will of God, Nothing more, nothing less, nothing else. मैंने उसे अपने रूम में टांग रखा था, जब भी उस तरफ़ देखता तो मज़ा आ जाता था ...और अभी भी कहीं तो अपने घर की किसी भी शहर की किसी ब्रांच में ज़रूर पड़ा ही होगा...ऐसे ही मैंने यही कोई बीस साल पहले एक फूल को फ्रेम करवा के उस पर कुछ तो लिखवाया था ...वह भी घर की दिल्ली ब्रांच में टंगा हुआ है ...लेकिन देखिए मुझे इस वक्त यही याद नहीं आ रहा कि उस पर लिखवाया क्या था...उस फूल को देखते ही किसी भी बंदे में उसी की तरह खिलने की तमन्ना पैदा हो जाए। 

खैर, कोट्स पढ़ना. ढूँढना मुझे बहुत अच्छा लगता है ..तभी तो मैंने ढेरों किताबें जमा कर रखी हैं.....लेकिन उन सब को देखने- या महसूस करने के बाद मैंने नतीजा यही निकाला है कि हर इंसान की ज़िंदगी अलग है, उसके कोट्स भी अलग होने चाहिए...ठीक है, पढ़ लेते हैं, लेकिन दूसरों पर आश्रित रहने का कोई फ़ायदा नहीं है ...अपने अलग कोट्स बनाइए.....जो कुछ ज़िंदगी से मिला है, जो रह गया, उस की पेस्ट बना कर ....अपनी नोटबुक को कलर कीजिए....

कोट्स ज़रूरी नहीं कि भारी भरकम फ़्रेमों में ही मिलते हैं...ख़ुद भी अगर कोई तस्वीर आप के दिल के बहुत क़रीब है ...तो उस के नीचे कहीं पढ़ी हुई बात लिख सकते हैं....मैंने भी २० बरस पहले ऐसा किया था....जब लगभग ५० साल पुरानी एक तस्वीर दिखी जिसमें घर के सभी लोग थे...एक बहुत ही क़ीमती फ़ोटो....उस के नीचे मैंने लिख दिया....Enjoy the little things in life, someday you will realise those were the big things!! बहुत अच्छा लगा था, और सब को वह फोटो की एक कापी भिजवा दी थी...बड़ी बहन ने तो अभी भी शेल्फ पर उसे सजा रखा है ..

हमारी दिक़्क़त यही है कि हम अपने से ऊपर वाले किसी बंदे की सुन लेते हैं और कम से कम अपने लेवल के बंदे की ही सुनते हैं...दूसरों को हम समझते हैं कि इन्हें कुछ नहीं पता ...यही सब से बड़ी भूल है ...अगर हम सब के साथ अच्छे से बात करते हैं....यह नक़ली तरह से नहीं हो पाता, नकलीपन नक़ली हंसी की तरह दो मिनट में उजागर हो जाता है ...हाँ, अगर सब के साथ खुल कर बात करने से मुझे यही एहसास हुआ कि सभी लोगों की ज़िंदगी कम से कम एक नावल जैसी है ...कम से कम....सच में, वैसे तो कईं नावल लिखे जा सकते हैं..लेकिन नहीं, हम किसी की सुनते नहीं और अगर किसी की बात बुरी लगे तो उस के सिर पर सवार हो जाते हैं.....कल रात की ही बात है ....यही कोई रात दस-साढ़े दस बजे का वक़्त होगा...महालक्ष्मी स्टेशन ...मैं लोकल ट्रेन से नीचे उतरा ...और चिप्स लेकर खाने लगा ...इतने में ज़ोर ज़ोर से आवाज़ें  आ रही थीं एक स्टाल से ...एक लंबा-चौड़ा ४०-४५ बरस का आदमी रेलवे स्टाल के एक कर्मचारी के पीछे पड़ा हुआ था ..उसे गालीयाँ निकाल रहा था कि ऐ ......, तूने मेरी औक़ात निकालने की कोशिश की ......यह ले १०० रूपया रख, यह ले एक और १०० रूपया रख......। बात इतनी हुई कि वह बंदा अपने किसी दोस्त के साथ था, उन्होंने एक समोसा आर्डर किया...उस वर्कर के मुँह से निकल गया कि क्या, आप दोनों एक ही समोसा लेंगे? .....बस, यही सुन कर वह बंदा पागल की तरह उस वर्कर से पेश आने लगा ..गालीयाँ ...उँगली दिखाना....वह वर्कर उस से माफ़ी माँग चुका था....कोई भी अगर बीच बचाव करने लगे तो कह रहा था कि तुम को वकील बनने की ज़रूरत नहीं ......मैंने भी इतना ही कहना चाहा कि उसने माफ़ी तो माँग ली है, माफ़ करो उसे अब ......लेकिन बीच में ही उस पागल ने मुझे भी रोक दिया.....अं...क...ल....., तुम्हें कुछ नहीं पता ...बीच में मत पड़ो।.....मेरी गाड़ी आई और मैं चढ़ गया .....यही सोचते सोचते की अंकल को तो क्या तेरे जैसे समझदार के तो बाप को भी कुछ पता न होगा..............बस, अगर हम लोग इस तरह से दूसरों के साथ पेश आते हैं तो हम कहां किसी की भी बात सुन कर राज़ी हैं......किसी से सीख लेना तो बहुत दूर की बात हो गई। 

हाँ, पहले मैं एक बात जल्दी से दर्ज कर दूँ .....मुझे घमंडी लोगों से बेइंतहा नफ़रत है ....हमारा इतना बड़ा ख़ानदान है, लेकिन घमंड किसी में भी नहीं है ...मैं बड़ा साफ़ साफ़ लिखने वाला हूँ...अगर होता तो लिख देता...सब लोग बडे़ अच्छे से दूसरों के साथ बात करने वाले ..दो एक लोगों में था, मेरे एक कज़िन की पत्नी थी, वह बहुत घमंडी थी यार.....वह दूसरों की तरफ़ ऐसी हिक़ारत भरी निगाहों से देखती थी कि क्या कहें .......और अपनी शेखी बघारने वाली बात भी नहीं है लेकिन जो है, वह है .....मैं भी बिल्कुल भी घमंडी नहीं हूँ ...क्योंकि घमंडी लोग मुझे पता नहीं क्यों पागल जैसे लगने लगते हैं....मेरी बनती भी उन लोगों से ही है जिन में इस पागलपन का कोई अंश न हो.... यह बात पत्थर पर लकीर की तरह है कि हम लोग जिस भी इंसान से मिलते हैं वह हमें कुछ ऐसा सिखाने की क़ाबिलियत रखता है जो हम पहले से नहीं जानते ....लेकिन उस के लिए उसे सुनना तो पडे़गा..

कल मैं एक किताब पढ़ रहा था जिस की फ़ोटो अभी आप को दिखाऊँगा.....दुनिया भर के १०९ लोगों की प्रेरणादायी बातें उस में संकलित हैं.....दो चार पन्ने उलटने के बाद मुझे ख़्याल आया कि यार, देखूँ तो इसमें हिंदोस्तानी कितने हैं...एक ही था....मुझे बहुत अजीब सा लगा ...मैं किताब पीछे हटाई, और चुपचाप सो गया .........सुबह उठा हूँ अभी तो लगा कि जो विचार रात में आ रहे थे उन्हें लिख कर छुट्टी करूँ...


एक बात और ...कोट्स लिखने वाले या कुछ लेखक बडे़ सुपरफिशियल से लगते हैं ....बहुत से इंगलिश लेखक भी या मोटीवेशनल लेखक, मैनेजमेंट गुरू भी बंदे को बाहर बाहर से बदलने की बातें ंकरते हैं......लेकिन मेरा इस में एक प्रतिशत भी भरोसा नहीं है ....मेरा विश्वास है कि किसी को भी मैनेजमेंट तकनीकें रटा कर, कुछ थ्यूरी रटा कर आप नहीं बदल सकते, उसे एक प्रभावशाली मैनेजर में ज़रूर बदल सकते हैं...लेकिन किसी भी बंदे को अंदर से बदलने के लिए कुछ अलग लगता है .....सूफ़ी, संतों की वाणी लगती है, उन की कही बातें लगती हैं जिन्होंने सारी कायनात के भले की बात की...सरबत के भले की बात की ... इसलिए मुझे इन सूफ़ी-संतों की बातें बहुत भाती हैं......

आप के मन में उभर रहा एक सवाल.......इस का मतलब मैं तो अंदर से बदल चुका हूँगा ........उस का मेरा जवाब है ......सवाह से मिट्टी (पंजाबी में हम राख और मिट्टी को ऐसे ही कहते हैं...) 

कोट्स हैं क्या, हमारे तजुर्बे ....किसी से बाँटने हैं तो भी ठीक है, नहीं भी शेयर करने तो अपने लिए ही लिखते रहना चाहिए....मैंने भी ८-१० साल पहले लिखने शुरू किए थे, ५०-१०० लिखे भी थे, फिर उसमें मज़ा आना बंद हो गया...छोड़ दिया....और हाँ, जीवन की कुछ सीख अपनी डॉयरी में अपने लिए भी लिखनी होती हैं और कुछ सीख ऐसी भी होती है जिसे लूज़ पर लिख कर तुरंत अच्छे से फाड़ कर नाली में बहाना होता है .........हा हा हा हा .....

मुझे एक बात और याद आ रही है कि मुझे भी कोट्स-वोट्स यहाँ वहाँ से देखने अच्छे तो लगते हैं.....लेकिन हज़ारों में से एक ही कहीं ऐसा दिखता है जिसे अपनी डॉयरी में कहीं लिख कर सहेज लेता हूँ ...इस का मतलब यह नहीं कि मैं अपनी औक़ात भूल गया हूँ.....नहीं, बिल्कुल नहीं, वह कैसे हो सकता है .....उस हिसाब से मेरे पाँव बिल्कुल ज़मीं पर ही हैं.....लेकिन फिर भी अपने तजुर्बों को कोट्स में लिखते रहना चाहता हूँ .....किसी के लिए नहीं, कोई पढ़े न पढ़े, सीख ले या न ले, लेकिन मेरे ख़ुद के लिए मैं लिखते रहना चाहता हूँ....😀

दीवाली मुबारक ....

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

बच्चों के डाक्टर भी सैंटा-क्लॉज़, फरिश्ते, प्रभु रूप...ऑल-इन-वन !

ओपीडी में एक दिन इस हाथ को थामने भर से ही फरिश्ते से रू-ब-रू होने का अहसास हुआ था... 

किसी भी डाक्टर का मूड एकदम अच्छा रहना चाहिए... क्या ऐसा मुमकिन है ...मुझे नहीं पता क्योंकि डाक्टर लोग भी तो हम सब में से ही हैं...लोगों को प्यार है कि वे उन्हें भगवान पुकारते हैं...सच में हैं भी वे सब ...लेकिन यथार्थ के धरातल पर देखा जाए तो हर इंसान की एक व्यक्तिगत ज़िंदगी भी होती है ...इन डाक्टर लोगों की भी होती है ...इसलिए कोई भी डाक्टर जब उदास सा, बुझा हुआ मुझे कभी दिखता है तो मेरा दिल दुःखी होता है ...इसलिए मैं अकसर यही दुआ करता हूं कि सभी डाक्टर प्रसन्नचित रहें...क्योंकि इन की एक हल्की सी मुस्कान मरीज़ों के दिलो-दिमाग पर क्या असर करती है, इसे महसूस किया जा सकता है, लिखने-विखने की चीज़ नहीं है यह...

अस्पताल में काम करने वाले सभी लोग हाउस-कीपर से लेकर अस्पताल के मुखिया तक सभी लोग बड़े स्पैशल होते हैं...लेकिन इस वक्त तो हम बात कर रहे हैं ..डाक्टरों की और विशेषकर शिशु-रोग विशेषज्ञों की ...बस, यूं ही हमें कल रात सोते वक्त अपने ज़माने के कुछ डाक्टर याद आने लगे ..सुबह उठे तो लगा कि लिख लेते हैं उन के बारे में ही अपनी डॉयरी में...

मैं अकसर आते जाते कहीं भी देखता हूं कि छोटे छोटे बच्चों ने हाथ में बिस्कुट, कुरकुरों, चिप्स चटाका, पटाका, और भी पता नहीं क्या क्या, इन का पूरा पैकेट पकड़ा होता है ...और मां-बाप कहते हैं कि इसे भूख नहीं लगती है ...अगर बच्चा इस तरह का इतना जंक फूड खा लेगा तो उस के बाद और क्या खाएगा, राक्षस थोड़े न है वो...जंक फूड की बीमारी भयंकर है ...क्या कहें, किसे कहें, कोई सुन कर राज़ी नही, सब कुछ लोग खुद जानते हैं इसलिए किसी को सुनने को कोई तैयार ही नहीं...यहां तक कि बच्चों की तबीयत थोड़ी सी भी इधर उधर हुई नहीं कि उन को डाक्टर से पूछे बिना स्ट्रांग दवाईयां देना एक आम सी बात हो चली है ....बच्चों के डाक्टर समझा समझा कर थक जाते हैं लेकिन नहीं, असर कम ही दिखता है ..

शिशु रोग विशेषज्ञों की बात करें तो इंसान की ज़िंदगी में उन की अहमियत बच्चे के जन्म के वक्त से ही नुमाया होने लगती है....प्रसव के दौरान जब तक शिशु की रोने की आवाज़ नहीं सुन लेते, इन की खुद की सांसें थमी रहती हैं ...फिर उस के बाद बच्चों के स्तन-पान की बातें, टीकाकरण...वक्त वक्त पर उन के माइल-स्टोन देखना....इतने सारे काम और सभी जिम्मेदारी वाले ...शिशु अपनी तकलीफ़ बताना नहीं जानता, रोना ही जानता है ...लेकिन इन माहिर डाक्टरों की पैनी निगाहें और सधे-हुए हाथ सब कुछ देख कर, टटोल कर जान लेते हैं...

कल हम लोग ऐसे ही अपने वक्त के शिशु रोग विशेषज्ञों को और हमारे बच्चों के ज़माने के बच्चों के डाक्टरों को याद कर रहे थे ...अंबाला के पास एक जगह है जगाधरी ..वहां पर एक एम डी शिशु रोग चिकित्सक थे ..(अब पता नहीं कि कहां हैं...) डा शाम लाल...उन की फीस थी दस रूपये। पास के किसी गांव से साईकिल से आते थे ...ये ज़्यादा पुरानी बातें नहीं हैं...पहले आकर अपने क्लीनिक की साफ सफाई करते थे, फिर काम शुरू करते थे ...सुबह ही से उन के क्लीनिक के बाहर बच्चों और उन के मां-बाप की लंबी कतार लग जाती थी...उन का सिर्फ नाम ही न था, उन का फ़न भी लाजवाब था ...शहर के डाक्टर को भी बच्चों के मामलों में जब कुछ नहीं सूझता था तो वे उन्हें डा शाम लाल के पास भेज देते थे ...

बहुत सी चीज़ें ऐसी भी हैं जिन्हें दुनिया की दौलत भी नहीं खरीद सकती ...

मम्मी, तुम्हें तो बस गाड़ी की चिंता है, मेरी कुल्फी चाहे पिघल जाए...


आज से पचास बरस पहले मुझे लगता है कि यह शिशु रोग विशेषज्ञ का कोई इतना बडा़ मुद्दा था नहीं....डाक्टर लोग सभी अच्छे पढ़े-गुढ़े हुए होते थे ...मुझे अकसर याद आता है कि गला खराब होने पर या बुखार होने पर जब मां घर ही के पास अमृतसर में एक सरकारी अस्पताल में लेकर जाती है ...तो वह डाक्टर मरीज़ों की तरफ देखे बिना ही दवाई की पर्ची पर घसीटे मार देता और हमारे बाहर निकलते निकलते अगले मरीज़ के लिए दवाई की पर्ची थाम लेता ...बालपन भी स्याही-चूस की तरह होता है....सब कुछ सोखता रहता है भीतर ही भीतर ...अच्छा, उस अस्पताल के सभी के सभी डाक्टर ऐसे नहीं थे...डा वनमाला थीं, अकसर मां को अपनी सहेलियों के साथ बैठ कर उस की तारीफ़ों के पुल बांधते देखता था ...और उस की सब से बड़ी खासियत यही थी कि वह डाक्टर खुश-मिज़ाज थीं और सब के साथ अच्छे से बात करती थीं...

वे दिन भी क्या दिन थे ....जब हम भी खुद को छोटा-मोटा रॉक-स्टार समझने की गफ़लत करते थे ...


खैर, मां को पता रहता था कि यह छोटा-मोटा खांसी जुकाम है ...यह तो ठीक हो जाएगा...मुलैठी से, नमक वाले गुनगुने पानी के गरारों से ...लेकिन जैसे ही उन्हें लगता कि बडे़ डाक्टर को ही दिखाना चाहिए...तो रिक्शा में बिठा कर हमें अमृतसर के मशहूर डाक्टर कपूर के क्लीनिक पर ले जाती ...वहां हम एक दो घंटे इंतज़ार करते ..लेकिन डाक्टर को देखते ही मरीज़ आधा ठीक तो वैसे ही हो जाते ...और आधा मर्ज़ उन की दवा से चला जाता ...जो उन का कंपाउंडर किसी शीशी में डाल कर, और कुछ पूडियां बना कर हमें थमा देता ...50 बरस पहले 15-20 रुपये फीस भी काफी होती थी ...हम ने अपने मां-बाप को तो कभी किसी डाक्टर के पास जाते देखा नहीं, लेकिन बच्चों के लिए डाक्टर की फीस-वीस की कभी परवाह न करते थे ... हमारे वक्त में डाक्टर कपूर के आगे कुछ न था, हमारा भरोसा उस फरिश्ते पर ऐसा था कि बस, आप के पास आ गए हैं, अब तो हम तंदरुस्त हो ही जाएंगे....

सुबह सुबह कईं बार लिखने बैठ तो जाता हूं लेकिन दिल बिल्कुल नहीं करता ...जी तो करता है बाहर खली हवाओं में जा कर टहलने का ..देखता हूं अभी थोड़ी बाद ...हां, तो मैं अकसर डा आर के आनंद की बात ज़रूर करता हूं ...यह भी एक शिशु रोग विशेषज्ञ हैं... 1990 के दशक मे ंयाद है इन के पास जाना बहुत बार ...बच्चों की नियमित जांच के लिए ...जांच करने के बाद, वज़न करने के बाद, शिशु के साथ दो बातें उस की जुबान में करने के बाद....नुस्खे पर लिखते थे ...नो-मैडीसन (कोई दवा नहीं..), और एक दो महीने के शिशु के पर्चे पर लिखते थे ...पानी नहीं पिलाना ...शायद तीन-चार महीने तक पानी नहीं पिलाने की सलाह देते थे और सिर्फ और सिर्फ स्तन-पान करवाने की हिदायत देते थे ....

और हां, उन्होंने बच्चों की देखभाल के ऊपर एक बहुत प्रसिद्द किताब भी लिखी है ...याद आ रहा है उन की इसी किताब का विमोचन था शायद 1998 में ..हम लोग भी महालक्ष्मी मंदिर के पास क्रॉस-व्लर्ड में लांच के लिए गए थे ...मशहूर लेखिका फैमिना की एडिटर विमला गुप्ता मुख्य अतिथि थीं...हमारे पास अभी भी उन की साईन्ड कापी कहीं पड़ी हुई है...उस दौर में सब कुछ इंटरनेट पर न था, हम लोग उन की किताब पढ़ कर ही कुछ फैसले कर लिया करते थे ..सब कुछ सरल भाषा में लिखा था उन्होंने .... कुछ भी तो छूटा न था ...और इस किताब का हिंदी और पंजाबी में अनुवाद करना मेरी विश-लिस्ट में तो है लेकिन यह लिस्ट है ही इतनी बड़ी ....😂 
यहां तक कि उन्होंने स्तन-पान विषय पर भी एक किताब लिखी थी, प्रसव के तुरंत बाद माताओं को स्तन-पान में जो तकलीफ़ें आती हैं, उन का ज़िक्र और समाधान ....यह जो डिब्बा बंद दूध बच्चों के लिए बंद हुआ, बच्चों के दूध की बोतलों का बोलबाला बंद हुआ, इस के पीछे इन महान शिशु रोग विशेषज्ञों की तपस्या है ....इतनी बड़ी मिल्क-पॉवडर और सप्लीमैंट्स की लॉबी से जूझने ऐसे ही दिग्गजों के बस की बात थी ...यहां तक कि वह हर बरस स्तन-पान सप्ताह के दौरान महिलाओं के विश्वविद्यालय में कुछ प्रोग्राम करते जिस में वह छोटे शिशुओं को उन की माताओं के साथ निमंत्रित करते जो केवल स्तन-पान पर ही पल रहे होते ...और उस प्रोग्राम में वह उन माताओं को अपने अनुभव बांटने को कहते जब कि उन के सेहतमंद बच्चे की किलकारियों से हाल गूंज रहा होता...अकसर डाक्टर आनंद भी उन बच्चों को उठा कर एक फ़ख़्र का अनुभव करते ... मुझे यह सब कैसे पता है ...क्योंकि हमारी श्रीमति जी को भी एक ऐसे प्रोग्राम में हमारे बेटे के साथ एसएनडीटी यूनिवर्सिटी में उन्होंने बुलाया था ...वे कामकाज़ी महिलाओं को भी बुलाते, जो लोग घर में रहती हैं उन को भी बुलाते और सभी के साथ उन के अनुभव साझा करते ... ज़ाहिर सी बात है महिला विश्वविद्यालय जैसी जगह में इस तरह के प्रोग्राम का कितना प्रभाव पड़ता होगा ...कन्याओं पर, भावी माताओं पर ...

कुछ दिन पहले हमारे एक साथी भी कुछ ऐसी ही बात शेयर कर थे ...बता रहे थे कि जब भी वह अपनी एक-डेढ़ साल की बच्ची को इस शिकायत के साथ शिशु रोग विशेषज्ञ के पास लेकर जाते कि यह अपनी उम्र के मुताबिक खाती नहीं है तो वह बाल-रोग तज्ञ चिकित्सक उस बच्ची का परीक्षण करने के बाद कह देता...इसे कोई दवा नहीं चाहिए...इसे हवा-पानी पर ही पलने दीजिए, एक चींटी को भी पता रहता है कि उसे कितना खाना है। साथ में वह कह रहे थे कि पुराने ज़माने के चिकित्सक कोई भी गैर-ज़रुरी दवाई न लिकते थे ...बस मां-बाप को अच्छे से समझा-बुझा देते थे और हासिल हुई समजाईश पर अमल करने पर बच्चे एकदम भले-चंगे तंदरूस्त हो भी जाते थे ..

अब पोस्ट को बंद करता हूं ...लिखने को तो बहुत कुछ है ... फिर कभी...