रविवार, 25 सितंबर 2022

गुलज़ार साहब के गीतों की झमाझम बरसात ...

 मुंबई 

25.9.22 (रविवार) 


परसों शुक्रवार शाम रविन्द्र नाट्य मंदिर में गुलज़ार साहब के गीतों की झमाझम बरसात हुई...अवसर था सिद्धार्थ एंटरटेनर्ज़ द्वारा आयोजित एक प्रोग्राम....इतने बरस हो गए मुंबई में रहते हुए लेकिन पिछले तीस सालों से बस आते जाते रविन्द्र नाट्य मंदिर के सामने से गुज़रते वक्त इस की तरफ़ हसरत भरी निगाहों से तकता ही रह गया...कभी मौका ही नहीं मिला...इस जगह की अहमियत से तो अच्छे से वाकिफ़ था ही ...यह मराठी नाट्य जगत में बहुत ऊंचा स्थान रखता है ...कईं बार तो आते जाते वक्त दर्शकों को भी इस के आंगन में खड़े देखा ...कल एक बोर्ड देखा तो पता चला कि 2003 में इस का रिनोवेशन हुआ था ...



Compered by Ms Mangala Khadilkar 

खैर, मैं भी कैसी भूमिका बांधने के चक्कर में पड़ गया...सब से पहले तो यहां यह दर्ज करना चाहूंगा कि इस प्रोग्राम की कंपियर थीं - मंगला खादिलकर ..और एक बात...मैंने लखनऊ में रहते हुए और यहां मुंबई में ऐसे ही सुरमयी संगीत से सरोबार प्रोग्राम काफी देखे हैं लेकिन मंगला खादिलकर जैसी कंपियरिंग अभी तक नहीं देखी....जैसे सारे सभागार को मंत्रमुग्ध कर देने का फ़न होता है कुछ कंपियर्ज़ के पास ...यही बात थी उन की कंपियरिंग में भी ...हर बात सधी हुई, संगीत का, रागों का, गीतों की परदे के पीछे की बातें ..क्या कहें...वह गीतो ं के बीच जब बात करती थीं तो ऐसे लगता था कि जैसे किसी संगीत की यूनिवर्सिटी की प्रोफैसर आज बहुत चुटीले अंदाज़ में सब कुछ कह रही हों....कुछ लोगों की बोलचाल और विषय पर पकड़ ही ऐसी रहती है कि सामने बैठे लोगों को लगता है कि हो न हो यह तो संगीत कला में पीचीएड तो होंगी ही ......और अगर नहीं भी हों तो कोई बात नहीं, ऐसे महान् लोगों को तो मानद उपाधि दे देनी चाहिए..। क्या कोई सुन रहा है मेरी बात....










कोरस में गाने वाले कलाकारों ने भी अपने फ़न को बेहतरीन ढंग से पेश किया ... 
और इन गायकों एवं 35 संगीतकारों की तो तारीफ़ क्या करें (एक से बढ़ कर एक धुरंधर), पूरा एक दिन चाहिए उसे लिखने के लिए भी और अल्फ़ाज़ भी तो चुन चुन इस्तेमाल करने होंगे 👏🙏 ...

इस पोस्ट में जितने भी गीतों के लिंक लगे हुए आप को मिलेंगे ये सभी गुलज़ार साहब ने ही लिखे हुए हैं...बीच में एक बात याद आ गई...सोचा वह भी लिख दूं...एक बहुत मशहूर किताब है ...परस्यूट ऑफ हैपीनेस ...इस किताब पर फिल्म भी बन चुकी है ...उस में लेखक दो एक वाक्या लिखता है जिन्होंने उस की ज़िंदगी बदल दी ...उस के बारे में बाद में कभी बात करेंगे...मैंने परसों ही उसे पढ़ना शुरू किया है .. वैसे भी हम सब जानते हैं कि हम दिनों को भूल जाते हैं, लम्हों को संजो कर रख लेते हैं...ऐसा ही एक लम्हा था कुछ महीने पहले जब मैं गुलज़ार साहब के बंगले के सामने से गुज़र रहा था तो मैं तो आते जाते वक्त उन की बालकनी की तरफ़ अनायास देख ही लेता हूं ...उस दिन गुलज़ार साहब बॉलकनी में खड़े थे...मैंने दूर ही से उन्हें प्रणाम किया जिस का उन्होंने बड़ी अच्छी तरह से जवाब दिया....

अच्छा, एक बात जो मुझे वहां प्रोग्राम में जा कर बहुत अखर रही थी वह यही थी कि इतने सारे जिन गीतों का मैं दीवाना तो था लेकिन मुझे यही न पता था कि ये गुलज़ार साहब ने लिखे हुए हैं....सच में मुझे सारे प्रोग्राम के वक्त यह बात बहुत चुभती रही कि यह कैसे मुमिकन है कि मेरे जैसा बंदा जो फिल्मी गीतों का अपने आप को बहुत बड़ा दीवाना कहता हो, वह यह ही न जानता हो कि वह जो गीत सुन रहा है बरसों से वह गुलज़ार साहब की कलम की देन है...मंगला जी ने सही कहा कि गुलज़ार साहब के लिखे अल्फ़ाज़ के चक्कर में उलझने की कोशिश न करिेेए...क्योंकि वह तो खुद कहते हैं कि मैं तो अहसास लिखता हूं ...और वह लिखते भी कैसा कोमल हैं जैसे तितली के पंखों को छू रहे हों...


आने वाला पल ...जाने वाला है ..हो सके तो इस में ज़िंदगी बिता दो ..पल जो यह जाने वाला है ...
हर गीत के साथ हमारी कुछ न कुछ यादें जुड़ी होती हैं....आज के प्रोग्राम में गुलज़ार साहब के लिखे 30 गीत पेश किए गए ...इन में से यह एक भी था...मेरा बहुत ही मनपसंद गीत ...चालीस बरस से सुनते सुनते भी अगर किसी की भूख-प्यास शांत न हो तो लेखक भी क्या करे ...कोरोना से पहले लखनऊ में एक मेडीकल कांफ्रेंस थी ...वहां पर एक प्रोग्राम था कि संगीत बजेगा किसी गीत का ...और गीत शुरू होने से पहले यह बताना था कि कौन सा गीत है ....मैंने तो शायद इस का म्यूज़िक शुरु होने के 2-4 सैकेंड के अंदर ही बता दिया इस का ठीक जवाब और मुझे इनाम में एक लैदर का हैट टाइप मिला था ...अच्छा हुआ याद आ गया...उसे भी मुझे ढूंढना है कहां रखा होगा ...उसे पहन कर मुझे फोटो खिंचवाना अच्छा तो लगता है लेकिन बाहर कहीं उसे पहन कर जाने में बड़ी हिचक होती है ..करते हैं इस हिचकिचाहट का भी कुछ इलाज ...
एक काम करता हूं ...गुलज़ार साहब के जिन गीतों की बरसात उस नाट्य मंदिर में हुई उस की एक फेहरिस्त ही आप तक पहुंचा दूं तो कैसा रहेगा ......कैसा क्या, बहुत बढ़िया रहेगा ...वैसे भी यह काम करने के पीछे मेरा भी एक स्वार्थ है कि मुझे भी एक लिस्ट मिल जाएगी और मैं आगे कभी ऐसी बेवकूफ़ी वाली बात न करूंगा कि मुझे यही न पता था कि अच्छा, यह सुपरहिट गीत भी गुलज़ार साहब के अल्फ़ाज़ में पिरोया हुआ है ... खैर..!!
  • मुसाफिर हूं यारो, न घर है न ठिकाना ...(फिल्म परिचय, 1972) 
  • तेरे बिना जिया जाए न...बिन तेरे तेरे बिन साजना सांस में सांस आए न ...(फिल्म - घर) 
  • हुज़ूर इस कद्र भी न इतरा के चलिए...(फिल्म मासूम-1983)
  • आप की आंखों में महके हुए से राज़ हैं...(फिल्म घर)
  • इक चांद की कश्ती पे (गुरू 2007)
  • ओ माझी रे ... साहिलों पे बहने वालो कभी सुना तो होगा कहीं ..
  • ओ बबुआ...यह क्या हुआ... (फिल्म - सदमा- 1983)
  • चल छैयां छैयां ...चल छैयां छैयां ..(फिल्म- दिल से - 1998)
  • ऐ ज़िंदगी गले लगा ले ... (फिल्म- सदमा)
  • दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन .. (फिल्म- आंधी)
  • ए वतन, मेरे वतन ..आबाद रहे तू (फिल्म राज़ी) 
  • तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं ..(फिल्म आंधी) 
  • वो शाम कुछ अजीब थी ... (फिल्म- खामोशी) 
  • जिहाल ए मस्कीं मकुन ब रंजिश...बहाल ए हिजरा बेचारा दिल है ...(फिल्म - गुलामी)
  • हम ने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू (खामोशी) 
  • छोड़ आए हम वो गलियां (माचिस) 
  • बीड़ी जलाई ले जिगर से पिया ..जिगर मा बड़ी आग है (ओंकारा)
  • चप्पा चप्पा चरखा चले ...चप्पा चप्पा चरखा चले (माचिस) 
इन गीतों के बाद हो गया था ...इंटरवल....बढ़िया बढ़िया एक दम गर्मागर्म बटाटा वड़ा, समोसा, सैंडविच के साथ चाय पीने के लिए ... 😎
जैसे आज से पचास बरस पहले इंटरवल खत्म होने के बाद सिनेमा घरों में लंबी सी घंटी बजा करती थी, जब यहां भी यह घंटी बजी तो लोग भागे अंदर ....
  • थोड़ा है थोड़े की ज़रूरत है ..ज़िंदगी यहां कितनी खूबसूरत है ...(फिल्म- खट्टा मीठा) 
  • आने वाला पल ...जाने वाला है ...हो सके तो इस में ज़िंदगी बिता दो, पल जो यह जाने वाला है ..(गोलमाल)
  • तुझ से नाराज़ नहीं ज़िंदगी हैरान हूं मैं.... (फिल्म- मासूम) 
  • तू ही तू सतरंगी रे ...मनरंगी रे ...
  • मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है .... (इजाज़त)
  • दो दीवाने शहर में (फिल्म- घरौंदा) 
  • कोई होता जिस को अपना कह लेते यारो (फिल्म -मेरे अपने) 
  • नाम गुम जाएगा, चेहरा यह बदल जाएगा..मेरा आवाज़ ही पहचान है ..गर याद रहे ...(किनारा) 
  • कजरारे कजरारे ..तेरे नैनां (फिल्म- बंटी बबली) 
  • धागे तोड़़ लाऊं चांदनी से नूर के ...घूंघट ही बना लो रोशनी से नूर के .. बोल न हल्के हल्के ... 
  • कोरी है ...कुंवारी है ... कुड़ी मेरी सपने में मिलती है ... (फिल्म- सत्या) 

प्रोग्राम के आखिर में गुलज़ार साहब का लिखा हुआ यह गीत ....जय हो ...जय हो ...पेश किया गया..खूब तालियां बजीं ..और इस तरह यह प्रोग्राम भी अपने अंजाम तक पहुंच गया ...उस के हमें कलाकारों के साथ, म्यूज़िशियन्ज़ के साथ शेल्फी लेने का मौका भी मिल गया...क्या करें कहीं भी चले जाएं यह हमारा शेल्फी लेने का फितूर पीछा ही नहीं छोड़ता ...पहले हम लोग ऑटोग्राफ लेने की फ़िराक में रहते थे ..अब शेल्फी का ट्रेंड है ....चलिए, बहुत अच्छा है, कुछ सुनहरे पल दिल में संजो कर रखने के साथ साथ मोबाइल में भी ठूंस देने चाहिए...दोस्तों के साथ शेयर करने के बहुत काम आता है ! 

इतवार के दिन सुबह सुबह गुलज़ार साहब के बारे में और कितनी बातें करें.... इतनी बातें हैं कि लिखते लिखते बंदे का दम निकल जाए लेकिन वे बातें खत्म न होंगी...लेकिन जो डिप्रेशन मुझे पिछले दो दिनों से है वह अभी भी जस की तस है कि मैं गुलजार साहब की गीतों के प्रोग्राम में गया और मुझे वहां जा कर पता चला कि अच्छा, यह सुपर हिट गीत, और हां, यह मेरा बेहद पसंदीदा गीत, और हां, यह गीत जो मेरे दिल के बहुत करीब है ये सब गुलज़ार साहब के ही कलमबद्ध किए हुए हैं...और मैं सोचता रहा गुलज़ार साहब की कुछ किताबें खरीद कर कि मैं उन्हें ठीक ठाक पढ़ लिया है ...नहीं, अभी तक मैं खुद को ही न पढ़ सका, गुलज़ार साहब जैसी हस्ती को क्या पढ़ पाऊंगा....



लेकिन आज सुबह सुबह मैंने एक काम किया ...मैंने उन पर लिखी एक किताब उठा ली ...और देखा कि उस किताब में उन के द्वारा लिखे गए दो ही गीत दर्ज हैं....दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन और दूसरा ... इस मोड़ से जाते हैं ..कुछ सुस्त -क़दम रस्ते, कुछ तेज़-कदम राहें ... और फिर मैंने यही सोचा कि गुलज़ार साहब ने फिल्मी गीतों के अलावा भी इतना कुछ लिखा है, इसलिए मेरे जैसे लोग उन के लिखे गीतों से लुत्फ़अंदोज़ ही होते रहे ...बिना सोचे समझे कि ये किस ने लिखे हैं....लेकिन गुलज़ार का लिखा कुछ भी पढ़ कर बहुत अच्छा लगता है ... सब से पहले मैंने 20-22 बरस पहले या इस से भी पहले उन की एक किताब पढ़ी थी ..बोस्की...यह बच्चों के लिए लिखी एक किताब थी जो उन्होंने अपनी बेटी के लिए लिखी थी .. फिर तो अकसर कुछ न कुछ उन का लिखा हुआ पढ़ने का मौका मिलता ही रहा ... और अब वाट्सएप से तो जैसे कंटैंट की बहार ही आ गई हो ...बस, यही संशय कईं बार मन में रहता है कि यह किसी लेखक का ही लिखा हुआ है या मेरे जैसे किसी नौसीखिया लिक्खाड़ ने तो उन के नाम से कुछ नहीं छाप दिया ..आज की तारीख में कुछ भी मुमकिन है ... अच्छा जी, कुछ बातें रह गई हैं, फिर जब कभी मौका मिलेगा, साझा करेंगे .. 

अगर लगता है कि कुछ छूट गया है तो इंडियन आयडल की इस बेहतरीन पेशकश को भी देख लीजिए....इस मनमोहक गीत के रचनाकार भी गुलज़ार साहब ही हैं …

रविवार, 18 सितंबर 2022

कुमार शानू लाइव शो में शिरकत कर पाना ही एक सुनहरे सपने जैसा ....

 दुनिया में हमारे प्रगट होने से भी पहले की फिल्म के गीतों का पेम्फलेट ..1960 में छपा होगा ..

फिल्मी गीतों की याद करते हैं तो हमें वो दिन याद आते हैं जब किसी फुटपाथ पर हमें 25-50 पैसे के पेम्फलेट पर हमें किसी फिल्म के गीत छपे हुए मिल जाते थे ...हम उसे देख-पढ़ कर खुश हो जाया करते थे ...पता नहीं मैं इन पेम्फलेटों को कैसे भूल गया था ...कुछ महीने पहले जब ऐसा ही एक पेम्फलेट एक विंटेज शॉप से 500 रूपये में खरीदा तो सभी यादें ताज़ा हो आईं...हा हा हा ....पांच सौ रूपये खर्च दिए इत्ती सी बेफ़िज़ूल चीज़ के लिए ....😂 हां, खर्च दिए यह सोच कर हमेशा की तरह कि जैसे एक पिज़्ज़ा खा लिया (अगर मैं यह न सोचूं तो इतनी फ़िज़ूलखर्ची करते वक्त मेरी तो भई जान ही निकल जाए...)  ...क्योंकि ऐसी ची़ज़ के फिर से दिखने के कोई चांस नहीं होते और हमारे जैसे लोगों के लिए ...ख़ास कर जो थोड़ा बहुत लिखना भी सीख रहे हों, उन के लिए तो ऐसा एक पेम्फ्लेट भी अपने साथ पुरानी खुशगवार यादों का तूफ़ान ले उमड़ता है ...

और एक बात, अभी इन पेम्फलेट्स से फुर्सत मिली ही थी कि मेरी उम्र के लोगों ने फिर गीतों की छोटी छोटी किताबें फुटपाथ से खरीद कर इक्ट्ठा करना शुरू कर दीं... तब तो ये हमें दो-तीन रूपये में मिल जाती थीं ...अब मैंने कितने में खरीदी हैं ये लता जी और किशोर दा की पुरानी किताबें, वह मत पूछिए....कभी खुद देखिएगा ट्राई कर के .. पता चल जाएगा.. 😂

खऱीदने का कारण .... कारण यही कि फिर ये किताबें कहीं नज़र आएं, न आएं ...कौन जाने...इसलिए खरीद लो जिस भी दाम पर मिलें, ऐसा सोच कर संग्रह कर लिया ...

पुरानी कैसटों का भी तो यही हाल होता था...जेब में सौ-पचास रूपये होते हुए भी 20-25 रूपये की कैसेट खरीद ही लेते थे ...दुकान पर चाहे दस मिनट सोचने में लगा देते कि लें या रहने दें..गाने तो इसमें अपनी पसंद के दो ही हैं....लेकिन फिर दिल पर दिमाग हावी पड़ता और उसे खरीद ही लेते। अपने एक दोस्त ने पिछले महीनों ढेरों कैसटें रद्दीवाले को दे दीं....हमें पता चला तो इतना दुःख हुआ ..हमने कहा कि हमें बताते, हम उठा लाते और सहेज कर रखते ....अब उन्हें जब भी हम यह बात याद दिलाते हैं वह भी उदास हो जाते है ं....हां, अपने पास भी कुछ बहुत पुरानी कैसटों का ज़ख़ीरा रखा पड़ा है ...यादों की पिटारियां हैं यार, इन्हें कैसे फेंक सकते हैं...अब कोई टेप-रिकार्ड इस लायक तो है नहीं कि उन पर इन्हें सुना जा सके ...और अगर कभी टू-इन-वन की तबीयत किसी दिन ठीक मिलती भी है तो उस दिन कैसेट का चलने का मूड ही नहीं होता....

खैर, इस तरह की बातें तो हमारे पास ऐसी हैं कि किताबें लिख मारें अगर चाहें तो ...लेकिन अभी तो कुमार शानू के लाइव शो की बात करते हैं...एतवार के दिन  बंबई की टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ एक सप्लीमैंट होता है ..मुंबई मिरर ....उस से पता चल जाता है कौन सा शो कब और कहां होने वाला है ....जब कुमार शानू के शो का पता चला तो मन बना लिया कि वहां कर हो कर आएंगे ही ...


परसों 16 सितंबर 2022 शाम 6.45 बजे यह शो शुरू होना था ...मैं लगभग साढ़े सात बजे वहां पहुंचा ...षणमुखानंद हाल है ...किंग्ज़ सर्कल में ...वह हाल ही है कि मैं उस दिन अपने एक साथी को कह रहा था कि वहां जा कर ही ऐसे लगता है जैसे कि मंदिर में ही आ गए हैं...उस की आब-ओ-हवा में ही कुछ ऐसा है ...। 

खैर, जब मैं वहां पहुंचा तो वहां कोई नयी गायिका रचना चोपड़ा कोई गीत गा रही थी ..लोग बेसब्री से कुमार शानू का इंतज़ार कर रहे थे ...शोर मचा रहे थे ..वे किसी दूसरे को सुनना नहीं चाहते थे ...ठीक है, जिन लोगों ने हज़ारों रूपये की टिकट खरीदी हो वे कब किसी की सुनें ..शो कम्पियर करने वाला कह रहा था कि दादा पहुंच चुके हैं...बस, अभी आने ही वाले हैं ...खैर, उन्हें स्टेज पर आते आते आठ तो बज ही गए...



कुमार शानू का स्टेज पर आने पर बहुत स्वागत हुआ ...उन्हें देखना ही सब को एक सपने का साकार होने जैसा लग रहा था...खचाखच भरे हाल में और दोनों बालकनियों में लोग इस प्रोग्राम का आनंद ले रहे थे....कम्पियर ने जब कहा कि दादा ने 30 हज़ार से ज़्यादा गीत अलग अलग ज़ुबानों में गाए हैं तो शानू ने कहा कि नहीं, यह गलत कह रहा है ...ऐसा एक रिवाज हो गया है कि फलां फलां ने 50 हज़ार गाए ..उसने 40 हज़ार गाए...उन्होंने कहा कि जब से यह फिल्म इंडस्ट्री बनी है तब से कुल 72000 गीत बने हैं ...उन्होंने 21 हज़ार से ज़्यादा गीत गाए हैं...

शानू ने कहा कि आप सब लोग हो जिसने कुमार शानू को बनाया है ..मुझे इतनी मोहब्बत दी है ..एक गीत के दौरान जब सब लोग साथ में वह गीत गुनगुना रहे थे तो कुमार ने कहा कि ऐसे खुशकिस्मत कितने गायक होंगे ...उन्होंने कहा कि मैं जीते जी आप को कभी धोखा नहीं दूंगा ...जैसा भी बन पडे़गा, गाता रहूंगा ... जेन्यून काम किया है हमारे दौर के गायकों ने ...अब लोग जब मुझे कहते हैं कि वैसा दौर वापिस कब लौटेगा....तो मैं कहता हूं वह दौर अब कैसे लौट सकता है ...कहां से लाऊंगा मैं वे लिरिसिस्ट, वे संगीतकार ...और वे प्ले-बैक सिंगर जिनके लिए काम एक जुनून था ...इसलिए जब तक हम हैं, हम से ही काम चलाओ...

उन्होंने पब्लिक की फरमाईश पर बहुत से गीत सुनाए ... अब मैं कैसे वह लिस्ट आप तक पहुंचाऊं ...एक के बढ़ कर एक गीत ... कुमार ने कहा कि 1990 का दौर ही रोमांस का दौर था...किसी ने कहा कि इन के गीत गुनगुना गुनगुना कर ही बहुत सी लव-स्टोरी परवान चढ़ी ...बहुत ही शादियां हो पाई इन गीतों की वजह से ही ...तो कुमार ने कहा कि हां, शादीयां तो हुईं मेरे गीतों की वजह से उपजी प्रेम-कहानियों की वजह से....लेकिन आगे किसी के साथ जो भी हुआ ..उस के लिए मैं कतई ज़िम्मेदार नहीं हूं...😂 तुम लोगों ने मेरे गीतों के नाम पर पता नहीं कितने कांड़ कर डाले होंगे ... 

लाइव -शो के दौरान लोगों को उन का बड़ी सहजता से बात करना ..बिना किसी लाग-लपेट के ...अच्छा लगा ..उन्होंने लोगों की फरमाईश पर एक गीत बंगला गीत भी सुनाया .. जिस में धरती मां की पूजा करने की बात थी ...

जब कुमार ने वह गीत गाया जब कोई बात बिगड़ जाए .... तो उन के कहने पर तीनों फ्लोर पर सभी ने अपने मोबाइल फोन की फ्लैश ऑन कर के उन का साथ दिया....बहुत खूबसूरत नज़ारा था ...वह भी अपने गीतों के लिए इतना प्यार उमड़ता देख कर भावुक हो गए... 



बिल्कुल सच बात है कि हिंदी फिल्मी गीतों के साथ हमारी यादें जुड़ी हुई हैं...हम सब की ...जाने अनजाने में ही सही ..लेकिन यह बात तो है ही ....कुछ दिन पहले हमने एक साथी से सुना वह गीत.....ज़िंदगी आ रहा हूं मैं (गीत का लिंक है यह) ..दो दिन पहले मैंने उसे कहा कि वह गीत हमें भी बहुत अच्छा लगता है ...तब अचानक उसके मुंह से निकला कि तुम्हें पता है कि 30-35 बरस पहले मैं और मेरे साथी एक ट्रेनिग करने के बाद बस में वापिस अपने शहर की तरफ जब लौट रहे थे तो हम लोग मिल कर बहुत यही गीत गा रहे थे .... बताते बताते वह बंदा भावुक हो गया...और हमें भी अपनी यादों की ओस में थोड़ा तो भिगा ही गया... 

खैर, हम सब के साथ यही है ...मुझे आज तक याद है बचपन में जब स्कूल पैदल जाते थे तो रास्ते में जो गीत बहुत बजा करता था...रास्ते में पड़ने वाली दुकानों के रेडियो सेट पर ...शर्मीली ...ओ...मेरी शर्मीली ...(गीत का लिंक है यह), बस यह गीत हमेशा के लिए याद रह गया...जब कभी भी इसे सुनते हैं बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं...ऐसी कम से कम सैंकड़ों यादें अभी भी ताज़ा हैं....क्या क्या लिखें, ..किसे दर्ज करें, किसे छोड़ दें, नाइंसाफी लगती है ....1990 में जब शादी के बाद मंसूरी में गये तो वहां पर सारी मंसूरी में आशिकी फिल्म के एक गीत ने जैसे धूम ही मचा रखी थी ... सांसों की ज़रूरत है जैसे ज़िंदगी के लिए..(गीत का लिंक यह है, इसे भी कुमार शानू ने गाया है) .बस, इक सनम चाहिए.... 


हां, तो मैं यह बात यहां लिखना चाह रहा हूं कि गीतों के साथ हमारी यादें तो जुड़ी होती ही हैं...लेकिन जो लोग इस तरह का क्रिएटिव करिश्मा कर गुज़रते हैं उन की भी बहुत सी यादें इन के साथ जुड़ी होती हैं...चाहे वह इन गीतों को लिखने वाले, चाहे इन के संगीतकार या गायक हों, या वो फिल्मी किरदार जिन पर ये फिल्माए जाते हैं...यादें सब की जुड़ी होती हैं...गीतकार अंजान, गीतकार गोपाल दास नीरज से ये सब बातें सुन चुका हूं ...लखनऊ में कुछ प्रोग्राम के दौरान...आनंद बख्शी के बेटे राकेश बेटे और हसरत जयुपरी की बेटी से नगमों के पीछे के किस्से आए दिन हम सुनते रहते हैं....और इसी तरह से गायकों की भी अपनी यादें होती हैं.... कुमार शानू ने बताया कि यह जो गीत आप सुनते हो ....कुछ न कहो, कुछ भी न कहो ...(गीत का लिंक) ..दरअसल यह उन का रिहर्सल टेक है..जिसे पंचम दा ने ओ के कर दिया....और मुझे बाहर आने के लिए कह दिया.... जब शानू ने कहा कि मुझे तो अभी फाइनल गीत गाना है ...तब पंचम दा ने कहा ... नहीं, उस की ज़रूरत नही ंहै, मुझे जो चाहिए था मुझे मिल गया है ... 

इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ... जैसे ... जैसे ....जैसे ...शानू ने कहा कि पंचम दा ने कहा कि इस गाने में जैसे ....जैसे ...जैसे ...बहुत बार आया है ...बस, अगर तुम ने हर जैसे को अलग तरह से निभा लिया तो मेरा गीत समझो सुपर-डुपर हिट हो गया....। उन्होने इस की एक झलक पेश भी की ....

एक बुज़ुर्ग महिला जब शानू को मिलने स्टेज पर आईं तो उन्होंने नसीब फिल्म (1997) के उस गीत की फरमाईश कर दी ...शिकवा नहीं किसी से, किसी से  गिला नहीं, नसीब में नहीं था जो हमें मिला नहीं.... य़ह रहा इस गीत का लिंक ... 

सोच रहा हूं बहुत लिख दिया है ....शायद ज़रूरत से ज़्यादा ही ...अब फुल-स्टॉप लगाता हूं इस पोस्ट को .... जाते अलविदा लेते हुए कुमार शानू ने अपना यह गीत सुनाया .... 


और यह गीत भी कुमार शानू का ही है ... 


हां, एक काम और करना बाकी है ..जिस हाल में यह प्रोग्राम था, वहां की कुछ तस्वीरें ली थीं....वह शेयर कर रहा हूं....





यह हाल किसी साउथ इंडियन सोसायटी द्वारा चलाया जा रहा है, इसलिए आप समझ सकते हैं कि वहां की साफ-सफाई, वहां की एम्बिएंस...और सारा वातावरण ही कितना संगीतमय, सुरमयी और सब को सुकून देने वाला होगा....कुछ महीने पहले भी मैंने लता जी के याद में एक प्रोगाम वहां अटेंड किया था ... उस में भी मैंने इस हाल की खूब तस्वीरें शेयर की थीं....अगर आप ने न देखी हों तो देखिएगा, कभी फुर्सत के पलों मे ं.... यह रहा उस का लिंक .... 

एक महीने पहले मो. रफी साहब की याद में भी वहां पर एक बहुत खूबसूरत प्रोग्राम में शिरकत करने का मौका मिला था...बस, अपनी डायरी स्वरूप अपने इस ब्लॉग में दर्ज करने से चूक गया....आलस किया दो तीन दिया....फिर बस लिखने से चूक ही गया...इसलिए सोचा कि आज पहले कुमार शानू वाले होम-वर्क को निपटाया जाए ...कहीं यह भी छूट न जाए....मेरे जैसे आलसी बंदों का क्या भरोसा... जो लोग वहां नहीं थे, उन तक कुछ तो ज़ायका पहुंचा दें... 😀

Take care.... enjoy ever green, immortal melodies! 
Praveen Chopra 

गुरुवार, 15 सितंबर 2022

लौकी का रस और वह भी कड़वा !

इसे भी पढ़ लो यार, यह वाट्सएप की पोस्ट नहीं है ...क्वालीफाईड डाक्टरों की सीख है जिसे दोहराने का मन हो रहा है ...मुझे भी यह पता तो था लेकिन इस पर मोहर आज कुछ बहुत अनुभवी, भले एवं अपने काम में माहिर चिकित्सकों की लगी तो मुझे लगा कि इस पर ही बात करते हैं...

जितना आप की समझ में आए समझ लीजिए, बाकी की बातें गूगल से पूछ लीजिए...हां तो दोस्तो, मैंने भी कितनी बार सुना होगी यह बात कि लौकी का कड़वा रस बीमार कर देता है, सेहत के लिए ठीक नहीं होता...और इस सोशल-मीडिया की भरमार में और हमारे अपने बचपन एवं जवानी के अनुभवों के आधार पर हमें कभी यह लगा नहीं कि यह इतनी खराब चीज़ हो सकती है..क्योंकि हम उस दौर की पैदावार हैं जिस दौरान घर में तरह तरह की सब्जीयां बनती थीं, दालें भी अलग अलग तरह की ....और मिक्स दालें भी ...और बात यही होती थी कि जो भी घर में बना है सभी को वही खाना है, कोई ज़ोमैटो न था, किसी स्विग्गी न थी...बस, जो रसोई में तैयार हुए व्यंजन हैं, उन्हें ही सभी खुशी खुशी खा लेते थे ...फिर भी मैं पता नहीं क्यों करेले से हमेशा नफ़रत ही करता रह गया...और आज तक यह नफरत बरकरार है ...करेले अपने अलग अलग अंदाज़ में पके हुए, धागा बांध कर तले हुए ....जितने मेरी मां और नानी को पसंद थे, मुझे उन से उतनी ही घृणा थीं...मैं जब उन को करेले की सब्जी की तैयारी करते देखता, कईं बार धागे बांध कर .....मैं यही सोचा करता कि यार, यह कर क्या रही हैं, इन्हें अब करेला ही मिला था बनाने को ....खैर, फिर बहुत बार हम लोग अपनी मां से सुनते कि करेले का कड़वा जूस बहुत सी बीमारियों से बचाए रखता था ...यह दरअसल बाबे राम देव वाला दौर था जो तड़के सारे हिंदोस्तान को टीवी में प्रगट होकर योग करवाया करता था ..

तस्वीर देख कर आप को भी मज़ाक सूझ रहा होगा ..कि इन सब को छोड़ दें तो फिर खाएं क्या....जनाब, छोड़ने को कौन कहता है, बस काटने से पहले थोड़ा चख लें, कड़वी निकले तो मत पकाइए, और कड़वा जूस क्या कर सकता है, वह तो आप इस पोस्ट में पढ़ ही लेंगे ..🙏

खैर, क्योंकि मैं करेले साल में दो या तीन ही खा पाता हूं ....इसलिए मुझे नहीं पता कि इस करेले का रस क्या खुद ही से कड़वा होता है या यह भी किसी लफड़े की निशानी है ...जैसा कि आज हम लोग लौकी के बारे में जानते हैं....

खीरे को भी बचपन में खाने से पहले एक सिरे से काट कर झाग निकाल कर काटना कितना पकाने वाला काम लगता था ...ऐसे लगता था जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं...लेकिन उसमें भी तो ज़रूर कोई वैज्ञानिक रहस्य ही छुपा होगा ..आज कल के खीरे भी कभी कभी कड़वे निकल आते हैं ...,शायद अब हमने वह उस का सिरा काट कर झाग निकालने के बाद ही खाने वाली प्रक्रिया से अपने आप को मुक्त कर लिया है ....क्योंकि हम अपने से ज़्यादा किसी को अक्लमंद समझते ही नहीं....तो जनाब सुनिए, अगर आपने भी यह शॉटकट अपना लिया है तो वापिस उस पुरानी रिवायत जिसमें खीरे का एक सिरा काट कर, उसे बाकी के खीरे पर रगड़ कर झाग निकालने के बाद ही खाने का उसूल था, उसे फिर से अपना लीजिए। इस कारण यह है कि कड़वी लौकी ही विलेन नहीं है, लौकी के परिवार की सैंकड़ों सब्जियां हैं जो अगर कड़वी निकलती हैं तो समझिए उन्हें खाना जोखिम का काम है...



अब सवाल यह है कि जिस तरह से इंसान की पहचान देखने से नहीं होती, सब्जियों की कहां से होगी कि कौन सी मीठी है, कौन फीकी और कौन कड़वी....इसलिए सब से अच्छी आदत यह है कि जिन सब्जियों की अभी आपने ऊपर तस्वीर देखी है उन को काटते वक्त ही थोड़ा चख लीजिए...अगर कोई तोरई, कोई करेला, खीरा, लौकी मुई कड़वी निकल आए तो उसे फैंक दीजिए.......और हां, बेचारे पुशुओं के खाने के लिए उसे मत छोड दीजिए....सोचने वाली बात है जो चीज हमारे लिए ठीक नहीं है, वह हमारे पशुओं के लिए कैसे ठीक हो सकती है ...इसलिए कभी भी फ्रिज से कुछ भी पुराना निकालिए तो उसे कचरे की पेटी में ही फैंकिए...

खैर, आगे चलें ...मैंने देश के बड़े बड़े शहरों में देखा कि लगभग सभी पार्कों के बाहर किसी पुरानी मारूति मैटाडोर में (जिसे पुरानी मसाला फिल्मों में हीरोईऩ को अगवा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था...) बीस तीस स्टील के बर्तनों में रखे हुए तरह तरह के सब्जियों के, फलों के या कोई भी हर्बल जूस बिक रहे होते हैं ...(मैंने इन स्टालों से कभी भी कुछ लेकर नहीं पिया...)...इस का फैसला खुद आप को ही लेना है कि आप इन के बारे में क्या सोचते हैं...इन को तैयार हुए कितना समय हो गया, आप को कुछ भी तो पता नहीं इन के बारे में ...फिर आप कैसे कहीं भी इन्हें खरीद कर पीना शुरू कर सकते हैं...बचे रहिए और बचाते रहिए...मैं आपको दिल्ली की एक घटना सुनाऊंगा अभी जिसे सुन कर आप फिर कभी इन चक्करों में पड़ेंगे ही नहीं....वैसे भी आज हमारे एक साथी बता रहे थे कि उन्होंने भी दो तीन ऐसी घटनाएं देखी हैं...जहां लोग घर से दूर हरे-भरे मैदानों में टहलने गए...और वहीं आस पास इसी तरह के जूस पी लिए और उस के बाद उन की हालत ऐसी बिगड़ी कि वे लोग घर आने से पहले ही खत्म हो गए...

खैर, आप को भी कहीं यह तो नहीं लग रहा कि आज यह क्या अजीब2 सी बातें कर रहा है ...न सिर न पैर....सच में मुझे भी नहीं पता होता लिखते वक्त कईं बार कि मैं क्या लिख रहा हूं ...जो दिल कहता है, हाथ लिखते रहते हैं, मैं बीच से हट जाता हूं और इबारत तैयार हो जाती है...आज भी कुछ ऐसा ही काम हो रहा है, क्योंकि मुझे आप सब को और अपने आप को भी एक बहुत अहम् संदेश देना है ....हां, तो लोगों की सिगरेट, बीड़ी, तंबाकू, नसवार छुड़ाते छुड़ाते 30-40 बरस तो हो ही गए हैं...ज़्यादा ही पीछे पड़ जाओ किसी के तो उसे भी यही लगता है कि अपना तो दादू, नाना, काका ...90 की उम्र तलक फेफड़े सेंकता रहा, पान-तम्बाकू चबाता रहा  ...उस का तो कुछ न हुआ...हां, अगर आप ये सब तर्क लेकर खड़े हैं तो मुझे आप से कोई गिला नहीं है, न ही मुझे कुछ आप से कहना है ...। 

अच्छा हम तो लौकी के कड़वे जूस की बात कर रहे थे ... कानपुर के दो माईयों ने इसे पिया ...दोनों ने एक एक गिलास ...तबीयत दोनों की बिगड़ी ..वही उल्टियां दस्त पेट दर्द ....दोनों को अस्पताल में दाखिल करना पड़ा, बडा़ इलाज विलाज हुआ....नाना प्रकार की जटिलताएं पैदा हुईं इलाज के दौरान लेकिन एक बच गया ... और दूसरा स्वर्ग-सिधार गया....बहुत बड़े बिजनेसमेन थे ...और संयोग भी यह रहा कि उन दोनों ने उस दिन लौकी का जूस पहली बार ही पिया था ...ये सब सुनी सुनाई राजन-इकबाल नावल के अफ़साने नहीं है, पूरी की पूरी सच्चाई है ..

अच्छा, एक बात बताऊं...जब मैंने दिल्ली और कानपुर की ये घटनाएं सुनीं तो मैने गूगल पर भी कुछ ढूढना चाहा ...मिला भी मुझे लेकिन मुझे इतना यकीं हुआ नहीं ...लेकिन कुछ दिन पहले बहुत पढ़े-लिखे, अनुभवी एवं नामचीन फ़िज़िशियन के मुंह से ये सब बातें सुनीं तो वे सब मन में ऐसी बैठीं कि मैं उसे आगे भी आप सब के दिलों में बैठाने निकल पड़ा ...

लौकी के बारे में बात करने से पहले मैं अपनी वनस्पति विज्ञान से मोहब्बत की बात बताता चलूं ..दोस्तो, मेरा कोई डैंटिस्ट-वैंटिस्ट बनने का कोई ख्याल न था....वह तो मेरे पिता जी के दफ्तर में उन के एक साथी का बेटा बीडीएस कर रहा था और उन्होंने मेरे पिता जी को बता दिया कि बीडीएस करने के बाद नौकरी मिल जाती है ...बस, हमें भी दाखिला दिला दिया गया.....और एक बार दाखिला जब ले लिया तो मैडलो ंकी बौछार ऐसी हुई कि एमडीएस में दाखिला भी मिल गया और नौकरीयों की जैसे झड़ी लग गई ...(इसे कहते हैं अपने मियां मिट्ठू बनना...अब कहते हैं तो कहते फिरें, दूसरे तो तारीफ़ करने से रहे, अपनी ही पीठ कभी भी थपथपा लेनी चाहिए, अच्छा लगता है ...😎) लेकिन हम अपने पहले प्यार "बॉटनी की पढ़ाई" से हमेशा के लिए महरूम हो गए...बस, पेड़ों को, हरियाली को निहारते निहारते ही 60 के हो गए.... 

हां, तो यह लौकी कुकरबिटेसी फैमली से है ...जिसमें सैंकड़ों सब्जियां आती हैं ..इस श्रेणी की जो सब्जियां आप को अपने आस पास दिखती हैं उन की तो यह रही तस्वीर जो आपने देखी...बाकी, अलग अलग जगहों पर, अलग अलग देशों में, वातावरण के मुताबिक उगती होंगी ...उनमें से कितनी खाने योग्य हैं, कितनी नहीं हैं...यह हम नहीं जानते ....हमारा तो सब्जियों के बारे में इल्म ऐसा है कि हमें नहीं याद कि जब हम लखनऊ में सब्जी लेने गए हों और हमने कोई नईं सब्जी न देखी हो ...इतनी विविधता है ....जिससे हम अंजान है ... खैर, होता यह है कि लौकी जैसी सब्जियां कीट पतंगों से एवं शाकाहारी पशुओं इत्यादि से बचने के लिए एक कड़वा पदार्थ पैदा करती हैं ....जिस की महक से कह लीजिए....ये सब कीट पतंगे एवं शाकाहारी पशु इन के पास नहीं फटकते ....

अब होता यह है कि अगर ये सब्जियां बहुत सी ज़्यादा गर्म या सर्द वातावरण में लगी हुई हैं या ज़मीन की उर्वरकता में ही कुछ झोल है या फिर उन्हें पानी ही पूरा नहीं मिल पाता तो होता यह है कि इन में उस नुकसानदायक कैमीकल की मात्रा बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है ...कि इन के सेवन से शरीर को बहुत नुकसान हो सकता है ... और कईं बार इन का जूस वूस पी लेने से तो कोई इंसान जान भी गंवा बैठता है । 

ऐसा भी सुना है (मैं प्रामाणिक तौर पर नहीं कह सकता हूं) कि जो इस तरह की कड़वी सब्जियों की पकी हुई सब्जी खा ले अगर तो वह बीमार तो हो सकता है लेकिन अमूमन उस की जान पर तो आफ़त नहीं आन पड़ती  ... लेकिन अगर जूस पी लिया जाए ... तो 50 से लेकर 300 मिलीलीटर तक जूस भी किसी की जान ले सकता है ...अब यह भी कोई नहीं कह सकता कि किस की जान चली जाएगी, किस की बच जाएगी, यह तो बड़े से बड़े चिकित्सक भी नहीं बता पाएंगे....साथियो, यह कोई एक्सपेरीमेंट थोडे़ न है कि ऐसा कर के देखा जाए....सीधी सीधी बात है मेडीकल वैज्ञानिक जैसा कह रहे हैं कि इस तरह की कड़वी सब्जियों के जूस से तो बचिए ही, उन को पका कर तैयार की गई सब्जियों से भी बचिए...

अब बंद कर रहा हूं पोस्ट ...कुछ इंगलिश में तस्वीरें लगा दूंगा ...देखिएगा.........और कुछ पूछना चाहें तो गूगल डाक्टर है ही, वरना मुझे भी कमैंट में लिखेंगे तो मैं ज़रूर आप के सवाल का जवाब दूंगा ...चाहे मुझे स्पेशलिस्ट से पूछ कर ही क्यों न आप को बताना पड़े...

अभी मैं पोस्ट का शीर्षक देख रहा था तो मुझे एक कहावत की याद आ गई......एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा। अच्छा भई, अपना ख्याल रखिए...देख भाल कर खाया करें, फ्रिज में रखी पकी हुई चीज़ों का,  गूंथे हुए आटे का भी अंधाधुंध इस्तेमाल करने से बचें....नहीं, यह मैंने किसी से नहीं पूछा, यह मेरा ख़ुद का अनुभव है ... गूंथे हुए आटे को, एक दो दिन पुरानी दाल-सब्जी को फ्रिज में देख कर ही मेरा दिल कच्चा होने लगता है, और कईं बार तो आधे सिर का दर्द ही ट्रिगर हो जाता है, उसे भी बहाना चाहिए होता है मुझे तंग करने का ... ...क्या करें, अब जो आदते जैसी हैं सो हैं, अब 60 की उम्र में इस का कुछ नहीं हो सकता...आदतें पक चुकी हैं..