रविवार, 24 अप्रैल 2022

पिंजरे होने ही नहीं चाहिए....

सच में पिंजरे होने ही नहीं चाहिए...जिस का काम ही किसी की उड़ान में खलल डालने का हो, उस का वजूद भी किस काम का। मुझे पिंजरों से सख्त नफ़रत है...आप मन ही मन सोच रहे होंगे कि फिर क्या करें, चिड़िया घर के पिंजरों में कैद खतरनाक जानवरों का क्या करें, खुल्ला छोड़ दें, यह तू सुबह सुबह क्या बात कर रहा है....यही सोच रहे हैं न ...एक बात तो है कि अगर चिडि़या घर के अंदर बंद पिंजरों में कैद जानवरों की बात करें तो मुद्दे बहुत से हैं...इन जानवरों को भी बंद कर के रखना कितना मुनासिब है या नहीं, वह एक बड़ा मुद्दा है ...लेकिन इस वक्त तो मैं इन छोटे पक्षियों को छोटे पिंजरों में बद करने की बात करना चाह रहा हूं...

पिंजरों में बंद तोते बचपन से ही किसी न किसी के घर में देखते रहे हैं...उन के बोल सुन कर हैरानी होती थी, कभी यह सोचने की फुर्सत ही हमें कहां थी कि इस तोते को कैसे लगता होगा...बिना उड़ान के उस का भी तो दम घुटता होगा। बंद कमरों में कैसे हमारी जान पर भी बन आती है ...अभी ख्याल आ रहा है पंजाबी कॉमेडी की कुछ वीडियो का, पंजाबी के कुछ चुटकुलों का जिस में तोता को कुछ पंजाबी की गालियां सिखा दी जाती हैं...और फिर वह जब वह गालियां देता है तो सुनने वालों का पेट हंस हंस कर दुखने लगता है ...यह भी क्या बात हुई, इस वक्त मुझे एक भी ऐसा चुटकुला याद नही ंआ रहा, लेकिन मुझे ऐसे चुटकुलों ने बहुत हंसाया है..

लखनऊ में रहते थे तो वहां एक एरिया है नक्खास ...वहां पर कुछ दुकाने हैं, जहां पर सैंकड़ों रंग बिरंगे पिंजरे और सैंकड़ों रंग-बिरंगे छोेटे, छोटे प्यारे प्यारे परिंदे बिकते देखा करते थे ...मन खराब ही होता था जब लोग ये सब खरीद कर अपनी साईकिल या स्कूटर पर ले कर जाते थे...लखनऊ ही क्यों, अब तो जगह जगह ये सब कुछ बिकता ही है क्योंकि रंग बिरंगे परिंदे लोगों को खुश करते हैं ..

लेकिन यह तो कोई बात न हुई कि अपनी खुशी के लिए हम परिंदों को कैद कर दें...दाना-पानी कितना भी उम्दा हो, क्या फ़र्क पड़ता है, उड़ान भरने से तो उन्हें हमने वंचित कर दिया...कल किसी के ड्राईंग रूम में दो पिंजरे पड़े देखे..छोटे छोटे प्यारे प्यारे परिंदे उन में दिख रहे थे ..चुपचाप उदास से ही दिखे मुझे तो लेकिन उस के घर के बच्चे खुश थे...

रहम करो यार इन नन्हे परिंदों पर ...आज़ाद करो इन्हें 🙏

एक नौटंकी का ख्याल आ रहा है ...पहले तो खूब होती थी , आजकल भी होती होगी पता नहीं..क्योंकि मैं इस तरह की चोंचलेबाज़ी से कोसों दूर रहना पसंद करता हूं ...हम क्या देखते थे कि किसी त्योहार पर, किसी बड़े आयोजन के दौरान या उस से ठीक पहले कोई मुख्य अतिथि विथि टाइप का बंदा सैंकड़ों परिंदों को हवा में रिहा करता दिखता....मुझे यह सब बकवास बात लगती है...पहले इतने पक्षियों को तुम ने कहीं न कहीं से तो पकड़ कर कैद किया ही होगा कि यह बड़ा आदमी उन्हें आयोजन के वक्त रिहा करेगा...हां, बड़े बड़े राष्ट्रीय पर्वों के दौरान जब कैदियों के रिहा होने की बात सुनते हैें तो दिल खुश हो जाता है ...लेकिन ये सैंकड़ों परिंदों को आज़ाद करने वाली हरकत एक दम घटिया सी हरकत लगती है ..उन्हें वैसे ही चुपके से छोड़ दो, जिस जीव की फ़ितरत ही है उड़ान भरना, उसे भला क्या तुम आज़ाद करोगे, पहले तुम अपने पिंजरों से तो बाहर निकलो...

लेकिन हां, जब किसी परिंदे की जान पर बन आती है तो कोई नेक बंदा इन की सहायता कर के उ्न्हें उड़ान भरने में मदद करता है तो मन को जो सुख मिलता है वह ब्यां करना भी मुश्किल है, इन को उस वक्त उड़ान भरते देख कर मन खुशी से झूम उठता है ...पिछले रविवार अपने एक साथी ने गाज़ियाबाद से वॉटसएप पर एक वीडियो भेजी ...आप भी देखिए किस तरह से उसने एक परिंदे को आज़ाद किया जो किसी स्टेडियम में पड़े हुए किसी नेट में फंसा हुआ था...बहुत खुशी हुई उस की परवाज़ देख कर ....आप भी देखिए वह वीडियो ....



और हां, आज लिखते लिखते मुझे मेरे ब्लॉग की एक पांच साल पुरानी पोस्ट का ख्याल आ गया....यह लखनऊ की बात है...मेरी ओपीडी के बाहर लटक रही किसी तार में एक परिंदा उलझ गया...मेरे अटैंडेंट सुरेश ने कैसे उस की मदद की, यह आप ज़रूर पढ़िए...मैं अकसर सुरेश को यह याद दिलाया करता था ...अभी अपनी पोस्टों की लिस्ट में उस पोस्ट को ढूंढने लगा तो मुश्किल हो रही थी, फिर लिखा परिंदा परवाज़ और झट से वह पोस्ट दिख गई ...लेकिन पता नहीं ुकछ तस्वीरें, कुछ वीडियो उस में से गायब हैं...चलिए कोई बात नहीं, आप को तो उसे पढ़ने से मतलब है ...और मुझे तो वह भी नहीं क्योंकि मैं अपना लिखा कुछ भी दूसरी बार पढ़ने से बहुत गुरेज़ ही करता हूं ...क्योंकि हलवाई भी अपनी मिठाई नहीं खाता क्योंकि उसे ही पता रहता है उस की मिठाई में कितनी ख़ामियां हैं ....आप इसे पढ़िए ज़रूर ....

परवाज़ सलामत रहे तेरी ए दोस्त 

काश, जब परिंदों के रिहा होने की बात आती है तो मुझे ट्रकों में ठूंसे हुए मुर्गे-मुर्गियों का भी बहुत ख्याल आता है ..काश, इन ट्रकों के दरवाज़े अपने आप खुल जाया करें बीच बाज़ार में ...और ये परिंदे रिहा हो जाया करें.......लेकिन रिहा होने के बाद भी क्या, ये तो किसी का भी निवाला ही बनेंगे...आज कर वाट्सएप पर एक स्टेटस दिख रहा है कि दुनिया में सब से ज़्यादा मारा जाने वाला प्राणि मुर्गा ही है ..साथ में लिखा है जिसने भी दुनिया को जगाने की कोशिश की है, उसे मौत के घाट पर उतारा ही गया...। स्टेटस विचारोत्तेजक है बेशक। 

अभी मैं इस पोस्ट के लिए परिंदों से जुड़ा कोई गीत ढूंढ रहा था तो एक बहुत ही खूबसूरत गज़ल दिख गई ....मैं हवा हूं कहां वतन मेरा ...दश्त मेरा न यह चमन मेरा ... (इसे भी सुनिए)...दश्त का मतलब का जंगल....

सच में परिंदों का कहां कोई मुल्क है, कहां कोई मज़हब ...वह गीत भी तो है ..पंछी नदिया पवन के झोंके...कोई सरहद इन्हें न रोके ...गीत तो हमें इसी तरह से सुनने भाते हैं लेकिन परिंदे उड़ान भरें भी तो कैसे, उन्हें तो हम ने कैद कर दिया....और शेरो-शायरी भी ऐसी सुनते हैं कि ..इन परिंदो को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन, ये हवा में खुले इन के पंख बोलते हैं.......लेकिन उन के पंख बंद कफ़स में खुलें तो कैसे खुलें...(क़फ़स - पिंजरा) ...परिंदों के मज़हब से जुड़ी एक दो बातें लखनऊ रहने के दौरान एक सत्संग में सुनी थी ...जो थोड़ी थोडी़ याद आ रही है, पूरी तो नहीं ...

परिंदे कभी मस्जिद पर जा बैठते हैं, कभी मंदिर पर ...कभी गुरूद्वारे पर ...उन के लिए सब एक ही है...

हम से तो अच्छी है परिंदों की ज़ात....कभी इधर जा बैठे, कभी उधर जा बैठे....

और एक बात ...

मस्जिद की मीनारें बोलीं, मंदिर के कंगूरों से ... 

हो सके तो देश बचा लो इन मज़हब के लंगूरों से ...

बचपन में मेरे जो साथी हाथों में गुलेल लेकर कबूतर या घुग्गी पर निशाना लगा कर पत्थर से वार करते थे, मुझे बहुत बुरे लगते थे ....मुझे यही लगता कि अभी तो ये पेढ़ों पर खुशी खुशी चहक रहे होते हैं और अगले ही पल ये कमबख्त दोस्त इन्हें मार कर नीचे गिरा देते हैं और सुना है कि कुछ तो बाद में घुग्गियों को पका कर खाते भी थे ...एक बात याद आई, हमें मां बताया करती थीं कि जब वह बहुत छोटी सी थीं तो नाना जी को यरकान (टायफाड) हो गया..तब कोई इलाज वाज तो था नहीं, कईं दिन तक रोज़ एक बटेर की ज़ख़्नी पीते रहे और ठीक हो गए....(ज़ख़्नी का मतलब सूप).....अब पता नहीं उन को क्या था, क्या न था, क्या बटेर किसी बीमारी का इलाज हो सकता है, लेकिन मां-नानी सुनाती थीं तो बड़े होने पर भी चुपचाप सुन लेते थे ...हमें तो नाना जी हमेशा ज़माने से आगे चलने वाले ही दिखे ....आज से पचास साल पहले रीडर-जाइजेस्ट पढ़ना, उर्दू में दूसरों के लिए कहानियां लिखना...जिन्हें हिंदी में अनुवाद कर के लोग कहां के कहां पहुंच गए...और नाना जी 82 साल की उम्र में भी मैथ और इंगलिश की ट्यूशन पढ़ा कर अपने खर्चे-पानी का जुगाड़ करते दिखे, अंबाला के नामचीन मास्टर जी ...उन की पुण्य याद को सादर नमन...कोई कोई बात जैसे दिल में बैठ जाती है...जब भी बचपन में ननिहाल गए...रात में सोते वक्त उन को एक रेडियो के बटनो ं के साथ जद्दोजहद ही करते देखा...कमबख्त वह रेडियो कभी चलते नहीं देखा....पता नहीं दिक्कत सिग्नल में थी या अपने नाना की जेब में ...उस वक्त यह पता नहीं था, आज पता है......लेकिन कहीं न कहीं मन तो दुःखी होता ही था... 

कट टू टॉपिक .... 👇

हां तो जिस पिंजरे वाले घर में हम गए थे ...उस बिल्डिंग से बाहर आने पर मैंने ऐसे ही एक शेयर दाग दिया...कुछ क़फ़स पर ही था कि सोने का हो या लोहे का ..क़फ़स तो आखिर क़फ़स ही है ....इतना सुन कर बेटे ने हमें भी कुछ याद दिला दिया - डैड, यह जो सुबह बस्ता डाल कर काम पर निकल जाते हो और शाम को थके-मांदे घर लौट आते हो ...यह भी तो एक क़फ़स ही है ...कोई ज़रूरत नहीं है न अब इस क़फ़स में बंद रहने की ....और सब हंसने लगे.......उसे लगा कि शायद मुझे कुछ अजीब सा लगा होगा, फिर कहने लगा कि मैं भी जो काम कर रहा हूं ..एक क़फ़स ही में रहने के मानिंद है ...फिर कहने लगा कि हर कोई ख़ुद के क़फ़स में कैद है डैड....लेकिन पहली बात उस की जो उसने मेरे बस्ते और थके-मांदे घर लौटने पर कही थी, वह बिल्कुल सही ठिकाने पर जा लगी थी ...इसलिए सोच रहा हूं ......क्या, .........सोच कर बताऊंगा ...

तोते पर गीत ढूंढने लगा तो कुछ बहुत आम गीत दिखे ...तोता राम कुंवारा रह गया जैसे गीत...फिर अपने बचपन के दिनों का एक बहुत खूबसूरत गीत याद आ गया...बोल रे मेरे तोते .......लेकिन मैं वहां गल्ती कर गया...बोल तो हैं...बोल रे मेरे गुड्डे ...चलिए, उसे ही सुनिए आज....मुझे यह गीत भी बहुत पसंद है ...अपने स्कूल में देखे हुए कठपुतलियों के खेल याद आ जाते हैं ...और ऊपर से इस का संगीत इतना मधुर - कानों में शहद घोलता हुआ...

शनिवार, 23 अप्रैल 2022

बाग-बगीचों की सब से ज़्यादा ज़रूरत किसे?

सुबह सुबह निदा फ़ाज़ली साहब की बहुत सी अच्छी बातों में से एक इस वक्त याद आ रही है ...लगता है आज का दिन अच्छा बीतने वाला है ...

"बाग़ में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं..

किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए..."

बचपन में जहां रहते थे पास ही एक अस्पताल था...जिस के बगीचे में हम लोग अकसर शाम के वक्त कुछ न कुछ खेलने या यूं ही मस्ती करने जा पहुंचते, कुछ और नहीं करने को होता तो तितलियों के ही पीछे भागते रहते, अंधेरा होने पर जुगनूओं का इंतजा़र रहता  ...मज़ा आता होगा तभी तो वहां जाते थे, वरना कौन कहीं जाता है। बस, वहां एक नियम था जो लिखा भी रहता था कि फूल तोड़ना मना है। शायद तब से ही पहले तो डर की वजह से फिर धीरे धीरे जब फूलों-पेड़-पत्तों से मोहब्बत सी हो गई फिर तो तोड़ने का सवाल ही न था...मंदिर जाने से पहले कहींं से फूल तोड़ कर ले जाना या घर में पूजा करते वक्त फूल तोड़ कर प्रभु के सामने रखना, यह कभी हम से हुआ ही नहीं...बस यही अहसास रहा कि प्रभु की नेमत को पेड़ से तोड़ कर उसी के सामने रख देने से क्या हासिल... 



हम 31 मार्च के दिन ही फूल तोड़ते थे ...हमारे घर में फूलों के बहुत से पेड़ थे ...सैंकड़ों फूल लगते थे...किसी फूल को तोड़ने वक्त हमारी जान निकलती थी ...हां, ्र31 मार्च वाले दिन हमारी बड़ी बहन पचास या उस से ज़्यादा फूल तोड़ कर एक चारपाई पर सूई धागा ले कर बैठ जाती हमें साथ बिठा लेती...और हमें गुलाब के फूलों का एक हार गूंथ देती ...और किसी कागज़ में लपेट कर हमें थमा देती कि जब हेडमास्टर साहब तुम्हारा रिज़ल्ट सुनाएं तो उन के पास जा कर उन के गले में इसे डाल देना...और हम चौथी जमात तक यह करते रहे ...उसके बाद तो फूल तोड़ कर या खरीद कर हार बनाना तो बहुत दूर, हम ने तो अभी तक की ज़िंदगी में कभी किसी के लिए एक बुके तक भी नहीं खरीदा और न ही कभी खरीदने की तमन्ना ही है ...

बस, मैं जब लिखने बैठता हूं तो पता नहीं कहीं का कहीं निकल जाता हूं....ये सब बातें भई फिर कभी लिख लेना ...पहले जिस बात को लिखने की इतने अर्से से सोच रहे हो उसे लिख कर बात खत्म करो....बस, यूं ही घुमा फिरा कर बात क्याें करते हो, मेरे दिल से आवाज़ आ रही है...

हां, तो हुआ यूं कि मैं जिस अस्पताल में काम करता हूं वहां का गार्डन बहुत सुंदर है लेकिन वह खुलता साल में दो दिन ही है ...झंडे को जब फहराना होता है। मुझे इस बात का इल्म न था...जब मैं नया नया उस अस्पताल में आया तो एक दिन मैं उस का खुला गेट देख कर अंदर चला गया...लेकिन यह क्या, अभी तो मैंने सुंदर घास से नज़र ही न उठाई थी कि पीछे पीछे कोई सिक्योरिटी वाला आ गया ...आप अंदर नहीं जा सकते, बाहर आ जाइए। ठीक है, उस वक्त मैंने डाक्टरी सफेद चोला नहीं पहना था ...लेकिन इतनी बेरुखी सहने के बाद उस बदतमीज़ से सिक्योरिटी वाले से यह भी कहने की इच्छा नहीं हुई कि मैं वहीं पर काम करता हूं ..वैसे भी मुझे लगता है कि उस से भी वह टस से मस न होता ...और मुझे बाहर आना ही पड़ता...। उस बगीचे पर ताला ही लगा देखा है हमेशा। 

और जब अस्पताल के अंदर घुसते हैं तो मरीज़ और उन के तीमारदारों को यहां वहां बैंचों पर बैठे हुए या किसी कॉरीडोर में लगे बैंच पर लेट कर पीठ सीधी करते वक्त देखते हैं...इतने उदास चेहरे, इतने मायूस बच्चे, इतनी बुझी बुझी सी उम्मीद से बोझिल आंखें एक साथ देख कर कईं बार दिल हिल जाता है ...एक एक उदास चेहरे के लिए दुआएं ही निकलती हैं ...और यही लगता है कि बगीचे की उन को ही सब से ज़्यादा ज़रूरत है ..वे वहां पर लेटें, बैठें, आस का दामन पकड़े रहें ...जो भी दिल करें, वहीं बाग में करें ..क्योंकि रंग-बिरंगे फूल-पत्ते देख कर तनाव तो कम होता ही है बेशक, किसी भी शख्स का अक़ीदा भी पक्का होता है कि कुदरत साथ है तो कुछ भी मुमकिन है, यह अगर इतने अनेकों रंग-बिरंगे फूल पत्ते पैदा कर सकती है तो मरीज़ को टना-टन भी कर सकती है...और अगर मरीज़ भी कुछ वक्त वहां बिताए तो यह यकीनन उस के इलाज के लिए सोने पर सुहागे का काम करती है ...मेडीकल की किताबों में चाहे यह लिखा है या नहीं, मुझे नहीं पता ..लेकिन मैं तो आंखों-देखी और आप बीती ही लिख रहा हूं ...

जितने भी अस्पताल हैं उन के बाग मरीज़ों और तीमारदारों के लिए हर वक्त खुले होने चाहिए....मैं ऐसा सपना देखता हूं ...जब वहां कुदरत की गोद में बैठे बैठे थक जाएं तो उठ कर अपने बिस्तर पर जा कर लेट जाएं...यह भी अच्छा है ख़्वाब देखने में अभी कोई रोक-टोक नहीं है, नहीं तो मेरे जैसे बंदे को तो बहुत दिक्कत हो जाती ...

हम लोगों की उम्र इतनी हो गई है लेकिन जब भी बाग में जाते हैं कुछ न कुछ नया दिखता है, कोई नया फूल या नई बेल देखते ही मन झूम सा उठता है ...बिल्कुल सच बात रहा हूं ....उस दिन हम बाग में टहल रहे थे तो सुंदर सी बोगनविलिया की हैज देख कर बहुत खुसी हुई क्योंकि अकसर हम ने इस के पेड़ ही देखे हैं ...

इस के साथ एक फोटो लेने के लिए इसे राज़ी कर रहा हूं ...

जॉगर्स पार्क का एक नज़ारा 

पेड़-पौधे, पत्ते हरियाली ....यह टॉपिक मेरे लिए ऐसा है कि मैं इस पर हमेशा लिखता रह सकता हूं जैसे वे हमें खुशियां देते नहीं थकते, मैं इन के बारे में लिखते नहीं थकता....साफ साफ कहूं तो यह डैंटिस्ट्री विस्ट्री मुझे कभी करनी ही न थी, मुझे बॉटनी ही पढ़नी थी और अच्छे से पढ़नी थी क्योंकि मुझे फूल-पेड़ शुरू ही से अच्छे लगते थे ..लेकिन वही थ्री -इडिएट्स वाली कहानी की स्क्रिप्ट 40-42 बरस पहले हमारे घर में भी तैयार हो रही थी ..पिता जी को दफ्तर में खन्ना साहब ने बता दिया कि उन का बेटा बीडीएस कर रहा है, और यह कोर्स करने पर नौकरी मिल जाती है ....बस, फिर क्या था, हम भी चुपचाप भर्ती हो गए...

राजेश खन्ना गार्डन, खार (वेस्ट) 

बहुत से बाग बगीचों में प्रवेश शुल्क है ... यह नहीं होना चाहिए, सरकार को कहीं और से टैक्स वगैरा बढ़ा कर यह काम कर लेना चाहिए..बाग बगीचों के अंदर दाखिला तो खुल्लम-खुल्ला होना चाहिए...जब किसी का दिल करे, कोई बोझ महसूस हो...तो इन कुदरती सेहत केन्द्रों पर पहुंच कर उलझे हुए दिल के तार सुलझा ले, ताज़गी महसूस करे, फूल-पत्तियों को देख कर कुदरत की कभी न समझ आने वाली संभावनाओं पर हैरान हो ले, जीने की तमन्ना अच्छे से जगा ले ...और परेशान रूहें वहां जाकर सुकून पा सकें....ये सब किताबी बातें नहीं हैं....ऐसा होता है ..हमें बस लगता ही है कि बड़े बड़े अस्पताल, वहां पर रखे करोड़ों के औज़ार और बड़ी बड़ी डिग्रीयों वाले डाक्टर ही हमें सेहतमंद रख सकते हैं.....कुछ हद तक ही यह ठीक है...वे हमें रास्ता दिखा सकते हैं....उस पर चलना या न चलना तो अपने हाथ ही में है ...


इस लेख के साथ मिलता जुलता एक लेख यह भी रहा ... 

गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

महीनों बाद हुई आज साईकिल की सवारी

सुबह 5 बजे के करीब उठ तो गया...चाय भी पी ली..लेकिन वही भारी सिर ...क्या करे कोई ऐसे सिर का ...वैसे भी ड्यूटी से आने के बाद ऐसे लगता है जैसे बस लेटे ही रहें...पीठ अकड़ी हुई, घुटने टस टस करते ...एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते ऐसे लगता है जैसे 90 बरस तक जी चुके हैं...बिल्कुल ऐसा ही है, और यह हाल तब है जब कि कोई मेहनत का काम नहीं है, खुद को ए.सी कमरों में ठूंसे रखना है ...हां, तो आज सुबह सोचा कि साईकिल पर ही गेड़ी लगाई जाए...लिखे भी कोई कितना लिखे, वैसे भी कौन सा लिख लिख कर पद्म-विभूषण मिल जाना है, अगर मिल भी जाए तो भी क्या!!😎

मैंने किसी राहगीर को कहा कि एक तस्वीर ही खींच दे...पीछे बोर्ड में दिख भी रहा है जुहू तारा रोड़ 

मैंने शायद अपनी किसी पोस्ट में लिखा था कि मैं एक डेढ़ बरस पहले साईकिल रोज़ाना चलाने लगा था ...फिर एक दिन कॉलोनी के और फिर एक दिन वार्डन रोड के कुत्ते पीछे पड़ गए...बस, उस दिन के बाद सुबह सुबह साईकिल पर निकलना बंद सा ही हो गया...और बंबई जगह ऐसी है कि यहां पर इस तरह के शौक साईकिल पर टहलना वहलना अगर मुंह अंधेरे हो जाए तो ठीक, वरना दिन चढ़ते ही जैसे ही बंबई नगरी जाग जाती है तो फिर ये सब काम बेहद जोखिम के लगते हैं...उस के बाद तो सड़कों से डर लगने लगता है ...इसलिए मैं उस के बाद फुटपाथों का रुख कर लेता हूं ..😁

कुत्तों के डर से अपने साथ एक छोटी सी स्टिक रख ली आज...और कोई भी काम इतने दिनों बाद करो तो उसे शुरू करने से पहले ही बोरियत सी तो होती है ...इसलिए जेब में मोबाइल पर रविंद्र जैन के गीत लगा लिए ...उन के गीत सुनना बहुत अच्छा लगता है ...लेकिन एक बात तो है, जैसे वो कहते हैं न कि घर से बाहर निकलने की ही देरी होती है ..तबीयत एक दम हरी होने लगती है ...

इसीलिए मैं हरेक को कहता हूं कि घर से बाहर निकलना बहुत ज़रुरी है ..पैदल, साईकिल पर ...कैसे भी ...बस, बहाना ढूंढिए घर से बाहर जा कर दुनिया का मेला देखिए...मुझे कोई कहता है कि इतना चल नही ंपाते, मैं उन्हें कहता हूं कि जितना चल पाते हैं, उतना चलिए...कोई रेस थोड़े न लगा रहे हैं, बस थोड़ी सी खुशी बटोरने निकले हैं...हंसते-मुस्कुराते चेहरे, रंग बिरंगे फूल, कुछ नेक रूहें जो सुबह सुबह राह पर इंतज़ार करते छोटे जानवरों के खाने के लिए कुछ ले कर आते हैं उन्हें देख कर तो दिल में जो अहसास उमड़ते हैं उन्हें कोई कैसे ब्यां करे...सच में ये जानवर उन का ऐसे इंतज़ार कर रहे होते हैं जैसे बच्चे अपनी मां की रसोई में पक रहे खाने का करते हैं...अभी याद आया कुछ दिन पहले एक ऐसे ही लम्हे को अपने मोबाइल में कैद किया था ...

जो लोग चल ही नहीं पाते, मै उन को लाठी से ही नहीं, वाकर से भी चलते देखा है ...लेकिन वे लोग निकलते ज़रूर हैं घर से ..अगर बिल्कुल ही कुछ नहीं हो सकता, तो दो पहिया चार पहिया पर सवार हो कर जाइए और किसी पार्क में ही जा कर बैठिए...आते जाते दुनिया का तमाशा देखिए...ताज़गी मिल जाएगी...हां, एक बात याद आई कि घूमने से ख्याल आया कि ये जो रेलवे स्टेशन हैं न ये भी एक ऐसी जगह हैं जहां पर सारे हिंदोस्तान के दर्शन आप कर सकते हैं....हर प्र्रांत का बंदा, हर मिज़ाज का शख्स, शरीफ़ से शरीफ़, खुराफाती से खुराफाती,  जेबकतरे, फांदेबाज़, चेन-स्नेचर, फेरी वाले, रईस, फकीर, गायक ......शायद ही कोई तबक हो जो यहां पर हमें नहीं दिखता। मैं तो बहुत बार मज़ाक में कहता हूं कि रेेलवे प्लेटफार्म आना, ट्रेन में सफर करना भी एक फिल्म देखने जैसा ही है, ज़िंदगी की एक किताब पढ़ने जैसा ही है ... 

किशोर कुमार का घर दिख गया, गौरी कुंज ....बस, अपना दिन बन गया...😀😀
सुबह के वक्त की छटा ही निराली होती है ...साईकिल पर चलते चलते मुझे बीस पच्चीस मिनट हो गए तो मैने देखा कि बंबई की सड़कें जाग गई हैं...बस, वहीं से लौटने का मन बना लिया...सामने देखा तो के.के.गांगुली मार्ग लिखा था ....और उस के ठीक सामने किशोर कुमार का बंगला था ..हां, एक बात का ख्याल आ रहा था कि लोग सुबह सुबह धार्मिक जगहों पर जाते हैं, बड़े बड़े ग्रंथ पढ़ते हैं...जो भी कोई करता है मुबारक है ...लेकिन मुझे तो कुछ पुराने गीत ही भजनों जैसे लगते हैं, और अगर मन लगा कर सुनते हैं तो धर्म जो हमें सीख देते हैं ...वही सीख ही इन में भरी होती है बहुत बार ..इसीलिए भई मुझे तो इन महान फ़नकारों के घरों के सामने से जब गुज़रने का मौका भी मिल जाता है ...मैं अकसर कहता हूं कि मुझे यह किसी तीर्थ स्थान से कम नहीं लगता ..

लगता है यह बोर्ड ताज़ा ताज़ा ही लगा है ...साधु वासवानी को सादर नमन🙏

ये लोग कोई आम लोग नहीं थे, सब के सब रब्बी लोग थे ...ये जो कर गए, ये उन्हीं के बस का काम था...जहां रहता हूं, और जहां ड्यूटी के लिए जाता हूं, उन दोनों जगहों में काफी दूरी है ...लगभग दो -ढाई घंटे तो आने जाने में लगते हैं ...लेकिन आते जाते जब कभी नौशाद साहब का घर, गुलजार साहब का घऱ, आनंद बख्रशी के घर की तरफ़ जाती सड़क, रविंद्र जैन चौक, मोहम्मद रफी चौक, आरडीबर्मन चौक, महेन्द्र कपूर चौक जैसी हस्तियों के नाम ही दिख जाते हैं तो आने जाने की परेशानी कितनी तुच्छ लगती है ...ऐसे लगता है कि वे लोग अभी यहीं कहीं है ..किसी दरवाज़े से बाहर निकलते हुए दिख जाएंगे...

निदा फ़ाज़ली साहब फरमाते हैं ...

सब की पूजा एक सी...अलग अलग हर रीत...

मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत ..


मैं आज कल यह किताब पढ़ रहा हूं ..इस के कुछ पन्ने पढ़ कर ही मुझे साईकिल चलाने के लिए बाहर निकलना पड़ा....देखता हूं कितनी दिन इस किताब में लिखी बातों को मान पाता हूं ...एक दम का आलसी बंदा हूं मैं भी ...लेकिन हां, आप यह देख रहे होंगे मैंने इस किताब को उस स्टैंड पर रखा है जिस पर धार्मिक पोथी रखते हैं क्योंकि इस के बारे में मेरा स्टैंड यह है कि जो भी किताब हमें जीने की राह दिखाए, अच्छी ज़िंदगी की तरफ़ इशारा करे ...वे सभी किताबें हमारे लिए धार्मिक ही हैं...जो लोग भी रचनाकार है, सृजन कर रहे हैं ...वे खुद नहीं ये सब कर सकते, ईश्वर ही इन के घट में बैठ कर यह सब लिखवाता है, पेंट करवाता है, सुरों में ढलवाता है ...

मुझे आज सुबह एक ख्याल आया, कैसे आया , यह फिर कभी लिखूंगा ...ख्याल यही आया कि दुनिया में सब से भयंकर क्या चीज़ हैं...तो मुझे लगा कि इस सारी कायनात में सब से डरावनी चीज़ है किसी लाचार, बेसहारा की आंखें....बिना उस के मुंह से कुछ बोले वे सब कुछ ब्यां कर देती हैं..और अगर हमें इन बेबस आंखों से भी डर नहीं लगता तो इस का मतलब साफ है। और ये वही बेसहारा आंखें होती हैं जो किसी तिनके के सहारे की तलाश में होती हैं...बात तो मैं बहुत बड़ी कह गया, लेकिन है यह बिल्कुल प्रामाणिक। कभी फुर्सत में इस के बारे में चर्चा करेंगे। बस, यही इल्तिजा है कि और किसी चीज़ से डरिए या न डरिए, इस तरह की सहमी हुई बेबस आंखों से ज़रूर डरिए...

प्रामाणिक तो और भी बहुत कुछ है...यह होर्डिंग ही देख लीजिए, हमारे घर के पास ही एक बिल्डींग बन रही है, और बिल्डर इतनी ठोस प्रामाणिकता से कह रहा है कि इतने महीने, इतने घंटे और इतने मिनट तक उसे आक्यूपेशन सर्टिफिकेट (ओ.सी) मिल जाएगा...

अब मेैने कंकरीट के जंगल की बातें शुरू कर दीं ..इस का मतलब है अब इस पोस्ट को यहीं पर समेट देने का वक्त है...आइए, जाते जाते रविंद्र जैन के ज्यूक-बॉक्स से एक गीत सुनते हैं .. हिट्स आफ रविंद्र जैन ...ज्यूक-बॉक्स .... हां, मेरा सिर का भारी पन पता ही नहीं कहां चला गया है...ईश्वर की अपार कृपा है, शुक्र है...सब ख़ैरियत से, प्यार-मोहब्बत से रहें....🙏