शुक्रवार, 11 मार्च 2022

फ्रिज के नफ़े-नुकसान - 1. घर में फ्रिज आने से पहले वाला दौर

परसों से यह निबंध लिखना शुरू किया है ..लेकिन भूमिका ही इतनी लंबी हो गई कि वहीं छोड़ दिया ...यह गुस्ताखी इसलिए कर पाया कि अब हिंदी के मास्टर साहब की ठुकाई का डर नहीं है ना इसीलिए...वरना विशंभर नाथ मास्टर जी मुंह से कुछ कहते नहीं थे, भरी क्लास में अपने पास बुला कर कमबख्त कान ऐसे मरोड़ देते थे कि मुझे तो नानी याद आ जाती थी ...लेकिन यह जो आप मेरा जितना भी थोडा़-बहुत हिंदी का ज्ञान देखते हैं न, यह उन से डरने का ही नतीजा है ...तो हम लोगों की ज़िंदगी में डर की इतनी अहमियत हुआ करती थी...

परसों सुबह निबंध की भूमिका लिख डाली...शाम को बहुत थका हुआ था ..पता नहीं क्यों, रात 10 बजे के करीब निबंध की अगली किश्त लिखने लगा तो भी थका थका सा था, जम्हाईयां आ रही थी ..अपने आप से कहा, क्या यार, लिखना ही है, लिख लेना, ब्लॉगिंग से तुम्हें हासिल ही क्या हो रहा है ...इस वक्त लिखने का मन नहीं है, सो जाओ चुपचाप चादर ओढ़ कर ..जो तुम ने लिख कर झंडे गाढ़ने हैं, तड़के गाढ़ लेना...

लेकिन कल सुबह भी उठा तो एसिडिटी सी लग रही थी ...मुझे एसिडिटी से इतना डर नहीं लगता क्योंकि मेैं कभी भी ऐसा वैसा कुछ खाता ही नहीं हूं ..लेेकिन फिर भी जो एसिडिटी के साथ सिर दर्द होने लगता है न, यह मेरा सारा दिन खराब कर देता है ..तो मैंने सोचा कि जैसा कि मेेरे साथ होता है, मैं जब आधा-पौन घंटा टहल आता हूं तो अच्छा लगने लगता है ...कल भी टहलने निकल गया..जॉगर्स पार्क की तरफ़....बहुत अच्छा लगने लगा ...मैंने एक बेंच पर बैठ कर सोचा कि मेडिटेट करता हूं ...अभी 10 मिनट ही हुए होंगे कि टांग के साथ कोई जानवर आ टकराया, आंखें खुल गईं ....लेकिन अचानक इस तरह मेडिटेशन होते हुए आंखें खोलना बहुत कष्टदायी होता है ...देखा तो एक छोटी सी, प्यारी सी बिल्ली मौसी थीं ...लेकिन मेरा तो सिर फिर से वैसे का वैसा हो गया...बची खुची कसर दो बुज़ुर्गों को पार्किंग में लडाई नुमा बहस करते देख कर पूरी हो गई ..सिर फिर वैसे का वैसा ..हार कर घर आने कर, डिस्प्रिन की एक गोली पानी में घोल कर लेनी ही पड़ी ...कुछ वक्त बाद सोचा कि आज नाश्ता माटुंगा(मध्य रेल) स्टेशन के बाहर उस सब से पुरानी, मशहूर और लाजवाब दुकान पर ही किया जाए....वहां जा कर इडली, साबूदाना वड़ा और बढ़िया सी कॉफी पी तो जैसे जान में जान आई...

ये ऊपर के तीन पैराग्राफ हम ने खामखां लिख दिए...चलिए, मुद्दे पर आते हैं...मुझे आज फ्रिज के घर आने से पहले वाले दौर से जुड़ी यादों को इस निबंध में समेटना है ...

सच सच बताऊं तो आठ-नौ साल की उम्र तक तो हमें पता ही नहीं था कि फ्रिज होता क्या है...सच में ..लेकिन धुंधली धुंधली यही याद है कि जब कभी गर्मी के मौसम में शाम के वक्त मां ने रूह अफ़ज़ा, शिकंजी, सत्तू, दूध में डाल कर बंटे वाली बोतल का सोडा (जो दूध को गुलाबी कर देती थी) या स्कवैश हमारे लिए तैयार करनी होती तो शायद 20-25 पैसे की बर्फ मंगवाई जाती ...आठ-नौ साल पहले की बातें भी याद कहां रहती हैं...यह नहीं पता कि बर्फ लाता कौन ता, लेकिन वही लिखते लिखते इतना तो याद आ ही रहा है कि दफ्तर से लौटते वक्त पापा जी साईकिल के कैरियर पर बर्फ ऱख के लाते थे ... बस, उस बर्फ को तोड़ा जाता, अच्छा सा कोई भी कोल्ड-ड्रिंक तैयार किया जाता ..सब पीते...और फिर बर्फ का नामोनिशां ही खत्म हो जाता ...

बस, यही वक्त था ...पता नहीं तब गर्मी का ही प्रकोप इतना ज़्यादा न था या हम ने कभी फ्रिज व्रिज के बारे में कुछ सुना-सोचा ही न था, बस जैसे तैसे चल रही थी...हां, कभी कभार दिल्ली-बंबई भूआ, चाचा लोगों के पास जाते तो फ्रिज के दर्शन होते ...और उस के अंदर से जब फलों की एक बेहद खुशनुमा महक आती तो मज़ा आ जाता ...उस मज़े को दोगुना हमारी प्यारी बुआ जी, या  चाचीयां  कर देतीं जब वहां से निकाल कर एक सेब हमारे हाथ में दे देतीं या चाची एक बहुत मीठा आम हमें बड़े ्प्यार से थमा देतीं...बेहद नेक और खुलूस से भरी हुई हमारी भुआ और चाचीयां ....Love them all...पता नहीं इतना प्यार, इतना इख़लाक लाती कहां से थीं..

हमारे यहां तो अमृतसर में कोई फ्रिज न था...यह 1970-71 की बातें लिख रहा हूं जब मैं 8-9 साल का था...मुझे यह अच्छे से याद है कि 1971 में मेरे पिता जी और मेरा भाई रोहतक के मेडीकल कालेज में भाई का भगंदर का आप्रेशन करवाने गये हुए थे ...उन के लौटने की चिट्ठी आ पहुंची थी कि वे फलां फलां दिन आने वाले हैं...डीलक्स गाड़ी से ..जिसे अब पश्चिम एक्सप्रैस कहते हैं ..यह शाम के 7.30 के करीब अमृतसर पहुंचती थी ...उन्हें आने पर पानी ठंड़ा मिले, मुझे बहुत अच्छे से याद है कि मैं एक एल्यूमिनियम का ढोल (जिस में दूध लाते थे) ...घर ही के पास जोशी जी के घर के बाहर लगे हैंड-पंप से पानी लेने गया था ...क्योंकि जोशी जी के हैंड-पंप से पानी खूब ठंडा निकलता था...मैं ही नहीं, बहुत से और लोग भी वहां पानी लेते आते थे ...

 

उन्हीं दिनों की बात है..यह ठंडा पानी लेने आते जाते वक्त अकसर यह गीत बहुत सुनते थे ..फिल्म दुश्मन 1971 

वैसे तो हम अपने घर रखे पानी वाले मटके से ही मुतमईन होते थे ...उसमें ठंडा पानी हमें बहुत सुख देता था ..मीठी मीठी, सोंधी सोंधी मिट्टी की खुश्बू से लबरेज़... 

हर घटके में मटके हुी हुआ करते थे ...और गर्मी के मौसम की शुरुआत में हर घर में नये मटके और हाथ से चलाने वाले दो-तीन पंखे(क्या क्हते हैं उन्हें पक्खियां) भी ज़ूरूर लाने होते थे ...मटके की कईं किस्में होती थीं, कुछ तो सुराही की शक्ल में हुआ करती थीं, कुछ मटके की शक्ल में ..कुछ बड़े, कुछ छोटे हुआ करते ..कुछ सुराहीयां तो इतनी छोटी होती थीं कि वे हमें खिलौना ही लगती थीं...बिल्कुल छोटी, नन्ही मुन्नी...जिन्हें मैं कभी कभी भर कर खुले आंगन में सोते वक्त अपने खटोले (बच्चों के लिए छोटी खटिया) के नीचे रख लिया करता था ...और सच में उस दिन अपने आप को महाराजा पटियाला से कम नहीं समझता था ...और फिर दूसरी तीसरी कक्षा में एक दौर वह भी आया कि उन छोटी छोटी सुराहियों को हम लोगों ने पानी से भर कर स्कूल भी लेकर जाना शुरू कर दिया...लेकिन यह काम तो भई मुझे टेढ़ी खीर लगता होगा..क्योंकि जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है, यह काम हम लोगों ने दो-तीन बार ही किया होगा...बड़ा झंझट होता उसे उठाए2 स्कूल तक की पैदल यात्रा करना ...

हां तो बर्फ की बातें चल रही थीं..ठंडे पानी की बातें हो रही थीं....फिर एक दौर ऐसा भी आया कि हमारे घर के बिल्कुल पास ही एक रेलवे का अस्पताल था जहां उन दिनों नया नया वाटर कूलर लगा था ..लोग शाम के वक्त वहां से जा कर ठंडा पानी भर लाते थे ..दो चार बार मेरी भी यह ड्यूटी लगाई गई ..लेकिन पता नहीं मैंने दो-तीन बार इस काम के लिए जाने के बाद बगावत कर दी या मुझे किसी ने वहां से ठंडा पानी लाने के लिए कहा ही नहीं...बगावत-वावत तो मैंने क्या करनी थी, हम लोग वैसे ही इतने प्यार से रहते थे घर में..शायद किसी ने कभी कहा ही नहीं मुझे वहां से ठंडा पानी लाने के लिए...

हां, तो बर्फ तो 25-50 पैसे की मुझे भी अकसर लानी होती थी साईकिल पर जा कर ....अकसर मैं थैला ले कर जाता था ..जिसे साईकिल पर टांग लेता था...बहुत बार पीछे वाले कैरियर पर बर्फ को दबा देता था ..जिस तरह से मैं अपने पिता जी को बर्फ लाते देखा करता था .. लेकिन तब होती जब मैं कभी ऐसा कोई साईकिल ले जाता था ...जिस पर कैरियर न होता और अगर उस दिन मेैं शौकीनी में आकर थैला लेकर जाना भी भूल गया होता तो भई मेरी तो आफत हो जाती ...तब तक साईकिल चलाना भी आ गया था ...लेकिन दुकानदार तो बर्फ को किसी अखबार के टुकड़े में लपेट कर हमें थमा देता ..हमारी तो तब से लेकर घर पहुंचने तक आफ़त हो जाती ...अखबार से क्या कोई बर्फ के प्रकोप से बच सकता है...मेरे हाथ ठंडे-ठार हो कर लाल हो जाते, दुखने लगते ..उसे फिर मैं दूसरे हाथ मे ं पकड़ने की कोशिश करता कि एक हाथ को थोड़ा सुकून तो मिले ..कहीं खडे़ हो कर हाथों को आराम देने की सोच भी नही ंसकते थे ..क्योंकि ऐसा करने पर आधी बर्फ तो पिघल जायेगी, यह फ़िक्र भी कम थोडे़ न थी ...लेकिन यह बर्फ लाने का काम वैसे तो अकसर होता ही था शाम को ... लेकिन दिन में कभी भी मेहमानों की मेहमानवाज़ी के वक्त भी बर्फ लानी ज़रूरी हुआ करती थी ..उन्हें रूह-अफ़ज़ा या स्कवैश पिलाने के लिए....हां, उस वक्त बर्फ लेने से पहले हम लोग समोसे, बर्फी ले लेते थे...इतनी समझ तो उस वक्त भी थी ही ...

हां, उस वक्त फिर घर घर में एक ट्रेंड चल निकला ....1970-71 की बात रही होगी..घर घर में बोरी में बर्फ लपेट कर ऱखने का सिलसिला चल निकला...सुबह बर्फ वाला आता ..उस से 50 पैसे या एक रूपये की बर्फ ली जाती ...उस बोरी में लपेट कर रख दिया जाता ...उसके साथ दो एक ककड़ीयां या एक पानी भी बोतल रख दी जाती ठंडी होने के लिए...। बीच बीच में उसे देखते जैसे जैसे बर्फ कम होती दिखती उसी अनुपात में उसे देखने वाले को दिल भी डूबता जाता ....

हां, फिर उन्हीं दिनों टीन के आईसब्राक्स बाज़ार में आ गए ...जिस में बर्फ रख दी जाती ...सुबह सुबह 1-2 रूपये की बर्फ का बडा़ सा टुकड़ा उसमें स्थापित कर दिया जाता ..वही बोरी में लपेट कर ....उस के ऊपर पानी की बोतलें कांच की टिका दी जातीं ठंडी होेने के लिए...पास ही ककड़ीयां या आम, आलूबुखारे भी रख दिए जाते ...मज़े से दिन कट रहे थे ...यह दौर 1975 तक चलता रहा ...फिर अचानक 1976 में क्या हुआ...इस की चर्चा बाद में करेंगे ..लेकिन हां, उस आईस-बॉक्स की बर्फ भी शाम तक पूरी पिघल चुकी होती ..जिसे देख कर हमें अफसोस होता ...फिर यह भी कहा जाता कि यह बर्फ वाला कच्ची बर्फ दे जाता है ..पक्की बर्फ इतनी जल्दी नहीं पिघलती ..अगर कच्ची-पक्की बर्फ़ का अंतर आप को पता ही नहीं है तो यह अब आप के लिए जानना ज़रूरी भी नहीं है, और अगर पता है तो आप मेरी बात से इत्तेफाक रखते ही होंगे ...

और हां, गर्मी के दिनों में हमारी दिलोदिमाग की गर्मी को कम करने के लिेए कभी कुल्फी वाले, कभी बर्फ के गोले वाले और शाम के वक्त हरे हरे बोहड़ के पत्ते पर आईसक्रीम लेकर कुछ फेरी वाले आ जाते ...जिसे हम बड़े चाव से खाते ....बहुत मज़े से उस का लुत्फ उठाते ...और कभी कभी फैंटा, कोका कोला जो हमें नसीब होती वह तो हमें दुकान में रखे आईस-बाक्स से ही निकली हुई ही मिलती ..

अपने बारे में लिखना अपना पेट नंंगा करने जैसा काम है ..लेकिन लिखने वाले कहां इस सब की परवाह करते हैं क्योंकि अगर वे सब कुछ अगर ईमानदारी से नहीं लिखते तो उन का सिर दुखता है ...यह मैं बिल्कुल सच कह रहा हूं ....और हां, एक बात जाते जाते यह भी सोच रहा हूं मेरे जैसे जिन लोगों का बचपन इतने संघर्ष में बीता हो ...मेरा क्या, सब का ही ऐसा ही होता है ...हां, कुछ लोग रईसी का नाटक कर लेते हैं, हमने वह नहीं सीखा ..जो कुछ हमारे साथ बीता, वही लिख देते हैं...हां, तो मेरे जैसे लोग जिन्होंने साईकिल पर हाथ में थाम कर बर्फ उठा कर लाने वाले दिन देख लिए...उन का किसी भी तरह की ईगो, अहम् क्या बिगाड़ लेगा.... क्या वह किसे बहस करेंगे, क्या किसी से उलझेंगे ...क्या किसी को नीचे दिखाने की कोशिश करेंगे ..हर कोई उन्हें अपना ही ऩज़र आएगा...फिर भी कुछ लोग आप की हवा खराब करने में हर जगह जुट जाते हैं....क्योंकि यह भी देखता हूं अकसर कि लोग किसी को खुश देख कर भी दुखी रहते हैं ...मुझे सब पता चलता रहता है ...समझते हम सब कुछ हैं, हां, बोलते ही कम हैं...उलझते नहीं हैं....फिर भी कईं बार ऐसा हुआ कि कुछ लोग बार बार कहते हैं कि लोग तो आप से बड़ा डरते हैं ...लेकिन आप तो बिल्कुल अलग ही हैं उस तस्वीर से जो लोगों ने आप की बनाई हई थी ...

जो भी लोग ऐसी बाते ं करते हैं ना, सच में मेरी तबीयत होती है कि उन्हें एक करारा तमाचा जड़ दूं (मन ही मन में तो जड़ ही देता हं, मैं क्या कम हूं किसी से!) और कहूं कि मेरे बाते में कुछ जानते ही नहीं हो, और जान भी नहीं पाओगे(क्योंकि अभी तो मैं खुद को समझ नहीं पाया कि मैं हूं क्या)....कोशिश भी मत करो, लेकिन मैं हर तरह से एक ऐसा प्राणी हूं जिस से किसी को कोई डर नहीं है ..किसी का बुरा कभी किया नहीं और आगे भी क्या कर लूंगा ...लेकिन हां, जो लोग यह सब कह कर किसी की हवा खराब करते हैं मेरा दिल करता है, और मेरे मुंह पर आई बात रूक जाती है कि भाई लोगो, मेरी फिक्र मत करो....तुम लोग अपने अपने गिरेबान में झांका करो, मेरा ख्याल छोड़ो ...क्योंकि मैं तुम लोगों को भी उतना जानता हूं जितना तुम भी खुद को नही जानते... 😎

बंद कर भाई अब इस पोस्ट को...यह तो बहस करने लगा तूं ...और वैसे तो तू किसी से भी उलझता नहीं कभी भी ..बस, जैसा है वैसे ही बने रहना...दुनिया की ऐसी की तैसी .... हा हा हा हा हा ...

बुधवार, 9 मार्च 2022

फ्रिज के लाभ-हानि ....

इसी तरह के ही निबंध हम लोगों के मास्टर साहब हम लोगों को लिख कर लाने को कहते थे...आज किसी ने कुछ नहीं कहा है ...अभी अभी उठा ही हूं...मेरे पास विकल्प हैं ..या तो बाहर निकल कर टहलने के बहाने समंदर से आने वाले बढ़िया हवा के झोंकों का लुत्फ़ ले आऊं..और या बेड पर ही बैठे अपनी यादों की अल्मारी में पड़े कबाड़ को ही थोड़ा देख लूं...मैं यादों की अल्मारी को सलीके से खोल कर उसमें पड़ी चीज़ों को देखने का फैसला किया है ...मुझे लगता है इस काम में वक्त लगेगा...लेकिन कोई बात नहीं, लगेगा तो लगेगा...अगर ज़रूरत हुई तो अपनी बात को दो किश्तों में समेट लेंगे..

फ्रिज के बारे में सोचता हूं तो मुझे वह पुराने दिन बहुत याद आते हैं ...मैं 13-14 बरस का रहा होऊंगा जब हमारे यहां पर फ्रिज आया था ...देखिए, अभी मैंने लिखना शुरू ही किया है कि मेरे दिलोदिमाग में मिट्टी के मटके आ कर कहने लगे हैं कि हमें मत भूलना...नहीं बाबा, नहीं, तुम तो मेरे खुशनुमा साथी रहे हो, कैसे भूल सकता हूं तुम को...लिखूंगा...लिखूंगा, तुम्हारे बारे में भी लिखूंगा ..यार, थोड़ा सब्र तो रखो...

मुझे नहीं लगता आज यह निबंध एक किश्त में हो पाएगा...चलिए, किसे जल्दी है! स्कूल में तो शास्त्री जी मास्टर से ठुकाई को डर की वजह से रोज़ का काम रोज़ हो जाता था, अब हम आज़ाद हैं, दो क्या, बेटा, निबंध तीन किश्तों में भी लिख दिया तो भी चलेगा...

अच्छा, बच्चों को फ्रिज में रखी किसी चीज़- दाल-सब्जी, फल, फ्रूट से कुछ फर्क नहीं पड़ता ...उन का तो स्विगी, ज़ोमैटो ज़िंदाबाद जो दस मिनट में ही काके दे ढाबे से या जय जवान रेस्टरां से उन की दाल मक्खनी या शाही पनीर उन को थमा जाता है...हां, उस दाल या पनीर के कुछ चम्मच भी बच जाते हैं तो अगले दिन या उस के भी अगले दिन निकालने के लिए ही वह फ्रिज खोलते हैं...या फ्रिज में रखे रेडीमेड परांठे के पैकेट से परांठे निकालने के लिए ...और मैं फ्रिज अमूमन फ्रिज में रखी चीज़ों को निकाल कर डस्टबिन में फैंकने के लिए तो फ्रिज खोलता हूं और फ्रूट, दूध, दही, छाछ आदि निकालने के लिए ...हमारे यहां फ्रिज में अकसर इतनी भीड़ होती है कि कहीं का भी गुस्सा फ्रिज में रखी चीज़ों पर ही निकलता है ...यार, यह कढ़ी अभी तक पड़ी है, ये राजमाह..ये क्या कर रहे हैं अभी तक ...मैं तुरंत इन्हें निकाल कर डस्टबिन में फैंक देता हूं ..क्योंकि मुझे यही डर रहता है कि श्रीमति जी इन चीज़ों को निकाल कर गर्म कर के खा लेंगी ...और तबीयत बिगाड़ लेंगी खामखां....और जैसा कि मैंने बताया कि बच्चों को कुछ भी फर्क नहीं पड़ता कि वहां क्या पड़ा है...लेकिन मैंने उन के दिमाग में भी ठूंस दिया है बार बार कह कह कर ..कि खाने पीने की पुरानी चीज़ों को देखते ही डस्टबिन में फैंक दिया करिए... वे व्यस्त लोग हैं, कभी कभी यह नेक काम करते हैं, वरना मैं ही कभी कभी देख लेता हूं ...क्योंकि श्रीमति जी बाहर दूसरे शहर में रहती हैं और दस-पंद्रह दिन में एक दो दिन के लिए ही आती हैं...

मैं दुनियावी ज्ञान बटोरने में कितना भी पीछे रह गया होऊं, दुनियादारी के रंग-ढंग से वाकिफ़ होऊं या न होऊं...लेकिन हमारी मां ने हमारे दिलोदिमाग में बचपन से यह ठूंस दिया था कि फ्रिज तो बीमारी का घर है ....इस में रखी दाल-सब्जी और आटा तो ज़हर हो जाता है वहां पड़ा पड़ा ...इसलिए जब भी कभी हमें गैस चढ़ जाती, सिर दुखने लगता, दिल कच्चा होने लगता तो मां तहकीकात में लग जाती ...इस बात की तह में जाने लगतीं कि इसने घर में ऐसा खाया क्या है ....अगर उन्हें पता चला कि फ्रिज में रखे गूंथे हुए आटे की रोटी  खाई थी इसने ...तो बस, अगली बार से इस बार को सुनिश्चित करती कि हमें मिलने वाली रोटी ताज़े गूंथे हुए आटे की ही हो ...

बीजी ते बीजी दे हत्थां दीयां बनीयां रोटियां- वेख के ही खुश हो लईदै हुन...

मुझे भी फ्रिज में रखी दाल, सब्जी, चावल, खिचड़ी, हलवा... जैसी चीज़ों से सख्त नफ़रत है ....मां नहीं रही ...लेकिन उस की यह नसीहत याद है ...फिर बार बार हम खुद भी पढ़ते रहते हैं कि दाल-सब्जी का ज़ायका तो ताज़ी ताज़ी तैयार की हुई का, दो तीन घंटे तक ही कायम रहता है... एक हद देखते रहे हैं बचपन से कि दोपहर की बची दाल-सब्जी रात को भी खा लेते थे ...या रात की बनी दाल-सब्ज़ी सुबह परांठे के साथ खा लेते हैं....या उस दाल वाले परांठे ही बन जाते हैं अकसर ...लेकिन इस के आगे तो बचे-खुचे खाने को खाना तो बहुत ज़्यादा रिस्क वाला काम माना जाना है हमारे यहां ....क्या करें, जो आदतें पड़ जाती हैं वे ताउम्र साथ रहती हैं...आज की पीढ़ी को अगर फ्रिज में रखे आर.डी के परांठे ही पसंद हैं तो यह उनकी पसंद है ...अच्छा, एक बात याद आ गई, बीस-पच्चीस साल पहले की बात है ...बीजी की एक कज़िन उनसे मिलने आईं...हम लोग बंबई सेंट्रल मे रहते थे ...श्यामा आंटी ...उन के साथ दुबई में रहने वाली उन की बेटी भी थी ...मां की और उन की कज़िन की खूब बनती थी...बोलते-बतियाते खूब हंसा करतीं ...बचपन के दिनों को और उस दौर के किरदारों को याद करते करते ..लेकिन उस दिन उन्हें वापिस जाने की जल्दी थी...कारण यह था कि अगले दिन उन की बेटी जो दुबई में रहती हैं, उसने वापिस लौटना है ..और अभी जाकर 100-150 चपातियां सेंकनी हैं उन्हें ...जब हमें पता चला हमारी तो सांस ऊपर की ूऊपर अटकते अटकते बची। हमे ंयह बताया गया कि वे दोनों मियां-बीबी नौकरी करते हैं, ्वक्त नहीं मिलता ... इसलिए जब भी यहां आते हैं तो रोटियां ले जाते हैं, फ्रिज में रख देते हैं...कईं कईं दिन चल जाती हैं, सेंक कर खाते रहते हैं...

चलिए, अब बाकी की बातें अगली पोस्ट में करूंगा...दरअसल हमारे मास्टरों के डर से हम लोग उस दौर में निबंध लिखते वक्त यहां वहां की यबलीयां नहीं मार पाते थे...जैसे कि आज कल करने लगे हैं ...आप खुद देखिए कि फ्रिज के लाभ-हानियों पर निबंध लिखने बैठा हूं सुबह सुबह और अभी तक मुश्किल से भूमिका ही बांध पाया हूं ...चलिए, इतना तो बता ही दूं कि मुझे इस में लिखना क्या है ...जनाब, मुझे निबंध के ज़रिए उस दौर के ज़ायके को आप तक पहुंचाना है जब हमारे घर में फ्रिज नहीं होता था ...और फिर कैसे फ्रिज के आने से हमारे साथ साथ हमारे पड़़ोसीयों की ज़िंदगी भी बदल गई ..कुछ बातें दिल खोल कर लिखनी होती हैं...परवाह नहीं कितना वक्त लग जायेगा...देखा जाएगा...मुझे भी सारी बात लिख कर ही चैन आयेगा. वरना बार बार मुझे साईकिल पर जा कर हाथ में पकड़ कर बर्फ लेकर आने वाले दिनों की याद सताती रहेगी.......एक बार लिख दूंगा तो यह बार बार उस पुरानी यादों की संदूकची में झांकने से निजात तो मिलेगी ...

आज के लिए इतना ही ...कहना तो बहुत कुछ था..अभी नहीं लिखा ..चलिए, भूमिका तो बंध गई...अगर कोई कसर रह गई होगी तो धर्मेंद्र और सायरा बानो पर फिल्माया यह खूबसूरत गीत भी तो कुछ काम करेगा...


रविवार, 6 मार्च 2022

आदमी मुसाफिर है ...आता है ...जाता है ...

यह गीत मेरे स्कूल कालेज के दिनों में रे़डियो पर तो खूब बजता ही था..फिर जब हम लोगों ने टीवी लेिया 1980 में ...तो फिर आए दिन चित्रहार पर यह बहुत ही सुंदर गीत सुनने को मिला करता...बहुत पसंद है यह गीत ...जैसे ज़िंदगी के फलसफे को आनंद बख्शी साहब ने गीत में पिरो कर रख दिया हो ...आदमी मुसाफिर है, आता है जाता है ...आते जाते रस्ते में ...यादें छोड़ जाता है...

सही बात है ..हम यादें छोड़ जाते हैं ...अच्छा, हम लोग गुज़रे दौर में देखा करते थे कि जब लोग ट्रेन के सैकेंड क्लास में सफर कर रहे होते तो जैसे ही कोई स्टेशन आता तो कुछ महिलाएं ऐसे ही ज़रूरत से ज़्यादा चौड़े हो कर बैठने की फिराक में रहतीं, बच्चा अगर खिड़की से चिपका हुआ बाहर का नज़ारा लूट रहा है, तो उसे पास की सीट पर लेट जाने को कहतीं, और नहीं तो सिर पर दुपट्टा कस कर बांध कर खुद ही लेट जाती ...और भी बहुत तरह के जुगत करते हम देखते लोगों को ...मकसद सिर्फ इतना तो कोई और सवारी उन के पास आ कर बैठ न पाए... सब से ज़्यादा तो मुझे यह देखना बड़ा रोचक लगता था कि ठीक ठाक आराम से बैठे हुए लोग टांगे ज़्यादा से ज़्यादा फैलाने की कोशिश करते दिखते ...और फिर भी अगर कोई ढीठ बंदा या बीबी आ ही गई ...कि थोडा़ आगे हो जाओ, हमें भी बैठना है तो वही चिक चिक शुरू हो जाती ...चाहे होती वह दो एक मिनट के लिए ही लेकिन उस से भी खुशनुमा माहौल में खामखां की टेंशन सी आ जाती...

हमने यह भी देखा कि बहुत से लोग बहुत अच्छे से बातचीत करते करते सफर कर लेते...हमारी बीजी भी ऐसी ही थीं, झट से पास बैठी अनजान औरते के साथ बातचीत शुरू हो जाती...घर का पता, बच्चे क्या करते हैं, कहां जा रही हैं...ये सब बातें महिलाएं आपस में करने लगतीं....और आधे एक घंटे में ऐसा नज़ारा दिखने लगता जैसे कि पूल-लंच हो रहा है..किसी की आलू की सब्जी, किसी के मटर, किसी के पकौड़े, और हां, किसी का आम का आचार..किसी की पूरीयां, किसी के परांठे, और किसी की रोटियां ...सब ऐसे मिल कर खाने लगते ....बहन जी, आप यह तो ले ही नहीं रही, ये देखिए गाजर-शलगम का आचार....घर के पुरूष लोग और मेरे जैसे संकोची बच्चे चाहे दूसरी तरफ़ देखते रहते ...लेकिन महिलाओं की तो जैसे किट्टी पार्टी चल रही होती ....अच्छा, खाना होने के बाद, फिर नया टापिक ... अकसर सारी औरतें जो स्वैटरें बुन रही होतीं, वह निकाल कर बुनने लगतीं और बड़े चाव से एक दूसरे का नमूना (डिज़ाईन) समझने लगतीं.....क्या मज़ेदार दिन थे लोगों में बहुत अपनापन था ...चलिए, इस बात को यहीं छोडते हैं... 

तीस बरस पहले की बात है मैं यहां मुंबई में जिस सत्संग में जाया करता था ..उसमें एक बात चल निकली कि जब आप ट्रेन या बस में सफर करते हैं तो जो भी महिला या पुरूष आप के पास बैठा हुआ है ...ज़रा यह सोचिए कि क्या कोई चांस है कि वह ज़िंदगी में फिर कभी आप को सफर के दौरान ऐसे मिलेगा...अगर चांस है तो कितना चांस है...ज़ाहिर सी बात है कि चांस न के बराबर है.....समझने वालों को इशारा ही काफी होता है .....उस दिन वह यही समझाने की कोशिश कर रहे थे कि कहीं भी, कभी भी ..हर किसी से बहुत अच्छे से पेश आया करिए......नदी नाम संयोगी मेले .....पता नहीं फिर उसने आप से कभी ज़िंदगी मे कभी मिलना भी है कि नहीं...

हर इंसान अपनी अपनी यात्रा पर निकला हुआ है ...और अपने अपने स्टेशन पर सब उतरते चले जाएंगे ...बाबा बुल्ले शाह ने भी कितनी सुंदर बात कही है ...


बाबा बुल्ले शाह फरमाते हैं कि यहां पर सब मुसाफिर हैं, किसी ने यहां टिके नहीं रहना, सब को अपना अपना सफर तय करने के बाद लौटना ही है ....

बात है तो छोटी सी ..लेकिन कहते हैं न ...छोटी छोटी बातों की हैं यादें बड़ी ...हमें हमारा अहम् बड़ा तंग किेेए रहता है ...हमारे सिर चढ़ा होता है ...लेकिन बहुत से लोगों को देखता हूं ...देखता हूं कहां, यही अखबार में जब उन की मौत की या क्रिया-कर्म की ख़बर छपती है तो मैं अकसर सोचने पर मजबूर हो जाता हूं कि यह बंदा तो बड़ी शांति से अपना वक्त निकाल गया...कहीं पर बेवजह की लाइम-लाइट नहीं....बस, सहजता से जिया और यह गया ...वो गया....

कुछ कुछ आदते पड़ जाती हैं ....मुझे भी टाइम्स आफ इंडिया के उस पेज को पढ़ने की आदत है जिस में शोक-समाचार होते हैं ...


क्या है ना, उस पेज़ में भी कई स्टोरियां छुपी पड़ी होती हैं...घर परिवार वाले जितने भी मुस्कुराते चेहरों की तस्वीरें छपवाने के लिए दे दें...उस से क्लॉक भी फर्क नहीं पड़ता ...असल बात है जो हम लोग जीते जी किसी के साथ कैसे पेश आते हैं ...उसे खुश रख पाते हैं या नहीं ...यही बात अहम् है...बाकी दुनिया से किसी के चले जाने के बाद उस के लिए कुछ भी करने-कराने से हमारा अपराध-बोध (कि हम किसी के साथ अच्छे से पेश नहीं आए...) तो शायद कम हो भी जाए , दिल को एक झूठी तसल्ली देने के लिए ..बाकी, जाने वाले को इन सब चीज़ों से क्या हासिल ...इसलिए जीते जी अगर किसी के साथ हम हंस खेल लेते हैं तो बाद में घड़ियाली आंसू बहाने की भी नौबत नहीं आती ...या दिखावे के लिए कुछ भी करने की ज़रूरत पड़ती नहीं अकसर...

मैंने आज एक शख्स की प्रार्थना सभा की सूचना पढ़ी अख़बार में ... नाम जाना पहचाना लगा...90 साल की उम्र में बंदा चल बसा है...चार साल चीफ ऑफ आर्मी स्टॉफ रहा, और सात-आठ साल पंजाब का गवर्नर....यह भी मुझे उस विज्ञापन से ही पता चला... पंजाब के गवर्ऩर इस नाम से कोई था, इस का ख्याल भी उन का नाम पढ़ कर ही आया...जो बात मैं कहना चाह रहा हूं कि कुछ लोग कितनी शांति से अपनी जीवन-यात्रा पूरी कर लेने का फ़न रखते हैं...पिछले दस-बारह सालों में कभी इन के बारे में कुछ सुना नहीं, कुछ पढ़ा नहीं...हम यही क्यास लगा सकते हैं कि एक शांत ज़िंदगी गोवा में रह कर बिता कर चले गये। ऐसे महान् लोगों की पुण्य याद को सादर नमन...

बडे़ बडे़ महान कलाकारों, नेताओं, वैज्ञानिकों की जीवनीयां देखता-पढ़ता हूं जब भी, यू-ट्यूब पर इन के इतने इतने ज़िंदादिल वीडियो देखता हूं तो सोच में पड़ जाता हूं ....कुछ दिन पहले एक उच्चाधिकारी ने अपनी इनकुंबैंसी बोर्ड की फोटो शेयर की मेरे साथ ..पिछले 90-92 साल में उस जगह पर लगभग पचास लोग काम कर चुके हैं.....कौन कहां, कब गया,..पीछे क्या छोड़ गया, क्या साथ ले गया...पीछे कोई नाम लेने वाला भी है कि नहीं अब ...किसी को कोई पता नहीं ....लेकिन वही बात है जब हम लोग किसी कुर्सी पर बिराजमान होते हैं तो अकसर हम ज़िंदगी की कड़वी सच्चाईयां याद नहीं रख पाते...हमें यही लगने लगता है कि ऊपर खुदा है और नीचे मैं हूं..बाकी और कुछ नहीं...बस, इसी बात को याद रखने की ज़रूरत है कि हर बंदे का एक वक्त है ...किस्मत उसे झूला झुला कर एक बार नीचे ले कर जाती है, फिर वापिस नीचे तो आना ही है ......लेकिन एक कहावत है कि जब आदमी ऊंचाई की सीढ़ियां चढ़ रहा होता है तो उसे रास्ते में मिलने वालों से अच्छे से पेश आना चाहिए..क्योंकि जब वह सीढ़ियां नीचे उतरने लगेगा तो उन्हीं लोगों से उसे फिर मिलना होगा ... 

मैं भी आज क्या लिखने बैठ गया...यही वजह है कि मैं एक बार लिखने के बाद अपना लिखा कुछ नहीं पड़ता ...बिल्कुल हलवाई की तरह जो अपनी तैयार की हुई मिठाई नहीं खाता...क्योंकि उसे पता होता है कि उसने क्या घाला-माला किया है ...उसी तरह मुझे भी पता होता है कि मैंने भी बस गिल्ला-पीन ही पाया है .. और कुछ नहीं किया ...इसी आदत के चलते मेरे से कोई मेरी किसी भी पुरानी पोस्ट की बात करता है तो मैं झेंप जाता हूं क्योंकि मुझे सच में पता नहीं होता कि मैंने उस में क्या लिख दिया होगा...कईं बार असहज भी लगता है ..दो तीन दिन पहले मुझे एक मित्र मिलने आए...कहने लगे कि आप की डालड़ा घी वाली पोस्ट बड़ी मज़ेदार थी ...मैं उस वक्त सोच में पड़ गया कि ऐसा क्या मैंने लिख दिया होगा उस में ..क्योंकि डालडे का मतलब मुझे दो ही बातें याद हैं ...एक तो बीजी के हाथ के बने डालडा घी के अंगीठी पर बने परांठों की दिव्य महक ...आम के अचार के साथ और दूसरी बात यह कि डालडा़ के डिब्बे के खाली होने का मुझे इंतज़ार रहता था क्योंकि मुझे उस में अपने ढेरों कंचे भरने होते थे ... 😄😄...मैं यही सोचने लगा कि बातें तो मेरे पल्ले ये दो ही थीं, डालडे के बारे में ...और यह लेख की बात कर रहे हैं ...इसलिए उन के जाते ही मैंने सब से पहले अपने उस लेख को ढूंढ कर पढ़ा .....तो मुझे चैन आया ...आप भी पढ़ना चाहें तो यह रहा लिंक ... डालडे दा वी कोई जवाब नहीं..