परसों से यह निबंध लिखना शुरू किया है ..लेकिन भूमिका ही इतनी लंबी हो गई कि वहीं छोड़ दिया ...यह गुस्ताखी इसलिए कर पाया कि अब हिंदी के मास्टर साहब की ठुकाई का डर नहीं है ना इसीलिए...वरना विशंभर नाथ मास्टर जी मुंह से कुछ कहते नहीं थे, भरी क्लास में अपने पास बुला कर कमबख्त कान ऐसे मरोड़ देते थे कि मुझे तो नानी याद आ जाती थी ...लेकिन यह जो आप मेरा जितना भी थोडा़-बहुत हिंदी का ज्ञान देखते हैं न, यह उन से डरने का ही नतीजा है ...तो हम लोगों की ज़िंदगी में डर की इतनी अहमियत हुआ करती थी...
परसों सुबह निबंध की भूमिका लिख डाली...शाम को बहुत थका हुआ था ..पता नहीं क्यों, रात 10 बजे के करीब निबंध की अगली किश्त लिखने लगा तो भी थका थका सा था, जम्हाईयां आ रही थी ..अपने आप से कहा, क्या यार, लिखना ही है, लिख लेना, ब्लॉगिंग से तुम्हें हासिल ही क्या हो रहा है ...इस वक्त लिखने का मन नहीं है, सो जाओ चुपचाप चादर ओढ़ कर ..जो तुम ने लिख कर झंडे गाढ़ने हैं, तड़के गाढ़ लेना...
लेकिन कल सुबह भी उठा तो एसिडिटी सी लग रही थी ...मुझे एसिडिटी से इतना डर नहीं लगता क्योंकि मेैं कभी भी ऐसा वैसा कुछ खाता ही नहीं हूं ..लेेकिन फिर भी जो एसिडिटी के साथ सिर दर्द होने लगता है न, यह मेरा सारा दिन खराब कर देता है ..तो मैंने सोचा कि जैसा कि मेेरे साथ होता है, मैं जब आधा-पौन घंटा टहल आता हूं तो अच्छा लगने लगता है ...कल भी टहलने निकल गया..जॉगर्स पार्क की तरफ़....बहुत अच्छा लगने लगा ...मैंने एक बेंच पर बैठ कर सोचा कि मेडिटेट करता हूं ...अभी 10 मिनट ही हुए होंगे कि टांग के साथ कोई जानवर आ टकराया, आंखें खुल गईं ....लेकिन अचानक इस तरह मेडिटेशन होते हुए आंखें खोलना बहुत कष्टदायी होता है ...देखा तो एक छोटी सी, प्यारी सी बिल्ली मौसी थीं ...लेकिन मेरा तो सिर फिर से वैसे का वैसा हो गया...बची खुची कसर दो बुज़ुर्गों को पार्किंग में लडाई नुमा बहस करते देख कर पूरी हो गई ..सिर फिर वैसे का वैसा ..हार कर घर आने कर, डिस्प्रिन की एक गोली पानी में घोल कर लेनी ही पड़ी ...कुछ वक्त बाद सोचा कि आज नाश्ता माटुंगा(मध्य रेल) स्टेशन के बाहर उस सब से पुरानी, मशहूर और लाजवाब दुकान पर ही किया जाए....वहां जा कर इडली, साबूदाना वड़ा और बढ़िया सी कॉफी पी तो जैसे जान में जान आई...
ये ऊपर के तीन पैराग्राफ हम ने खामखां लिख दिए...चलिए, मुद्दे पर आते हैं...मुझे आज फ्रिज के घर आने से पहले वाले दौर से जुड़ी यादों को इस निबंध में समेटना है ...
सच सच बताऊं तो आठ-नौ साल की उम्र तक तो हमें पता ही नहीं था कि फ्रिज होता क्या है...सच में ..लेकिन धुंधली धुंधली यही याद है कि जब कभी गर्मी के मौसम में शाम के वक्त मां ने रूह अफ़ज़ा, शिकंजी, सत्तू, दूध में डाल कर बंटे वाली बोतल का सोडा (जो दूध को गुलाबी कर देती थी) या स्कवैश हमारे लिए तैयार करनी होती तो शायद 20-25 पैसे की बर्फ मंगवाई जाती ...आठ-नौ साल पहले की बातें भी याद कहां रहती हैं...यह नहीं पता कि बर्फ लाता कौन ता, लेकिन वही लिखते लिखते इतना तो याद आ ही रहा है कि दफ्तर से लौटते वक्त पापा जी साईकिल के कैरियर पर बर्फ ऱख के लाते थे ... बस, उस बर्फ को तोड़ा जाता, अच्छा सा कोई भी कोल्ड-ड्रिंक तैयार किया जाता ..सब पीते...और फिर बर्फ का नामोनिशां ही खत्म हो जाता ...
बस, यही वक्त था ...पता नहीं तब गर्मी का ही प्रकोप इतना ज़्यादा न था या हम ने कभी फ्रिज व्रिज के बारे में कुछ सुना-सोचा ही न था, बस जैसे तैसे चल रही थी...हां, कभी कभार दिल्ली-बंबई भूआ, चाचा लोगों के पास जाते तो फ्रिज के दर्शन होते ...और उस के अंदर से जब फलों की एक बेहद खुशनुमा महक आती तो मज़ा आ जाता ...उस मज़े को दोगुना हमारी प्यारी बुआ जी, या चाचीयां कर देतीं जब वहां से निकाल कर एक सेब हमारे हाथ में दे देतीं या चाची एक बहुत मीठा आम हमें बड़े ्प्यार से थमा देतीं...बेहद नेक और खुलूस से भरी हुई हमारी भुआ और चाचीयां ....Love them all...पता नहीं इतना प्यार, इतना इख़लाक लाती कहां से थीं..
हमारे यहां तो अमृतसर में कोई फ्रिज न था...यह 1970-71 की बातें लिख रहा हूं जब मैं 8-9 साल का था...मुझे यह अच्छे से याद है कि 1971 में मेरे पिता जी और मेरा भाई रोहतक के मेडीकल कालेज में भाई का भगंदर का आप्रेशन करवाने गये हुए थे ...उन के लौटने की चिट्ठी आ पहुंची थी कि वे फलां फलां दिन आने वाले हैं...डीलक्स गाड़ी से ..जिसे अब पश्चिम एक्सप्रैस कहते हैं ..यह शाम के 7.30 के करीब अमृतसर पहुंचती थी ...उन्हें आने पर पानी ठंड़ा मिले, मुझे बहुत अच्छे से याद है कि मैं एक एल्यूमिनियम का ढोल (जिस में दूध लाते थे) ...घर ही के पास जोशी जी के घर के बाहर लगे हैंड-पंप से पानी लेने गया था ...क्योंकि जोशी जी के हैंड-पंप से पानी खूब ठंडा निकलता था...मैं ही नहीं, बहुत से और लोग भी वहां पानी लेते आते थे ...
उन्हीं दिनों की बात है..यह ठंडा पानी लेने आते जाते वक्त अकसर यह गीत बहुत सुनते थे ..फिल्म दुश्मन 1971
वैसे तो हम अपने घर रखे पानी वाले मटके से ही मुतमईन होते थे ...उसमें ठंडा पानी हमें बहुत सुख देता था ..मीठी मीठी, सोंधी सोंधी मिट्टी की खुश्बू से लबरेज़...
हर घटके में मटके हुी हुआ करते थे ...और गर्मी के मौसम की शुरुआत में हर घर में नये मटके और हाथ से चलाने वाले दो-तीन पंखे(क्या क्हते हैं उन्हें पक्खियां) भी ज़ूरूर लाने होते थे ...मटके की कईं किस्में होती थीं, कुछ तो सुराही की शक्ल में हुआ करती थीं, कुछ मटके की शक्ल में ..कुछ बड़े, कुछ छोटे हुआ करते ..कुछ सुराहीयां तो इतनी छोटी होती थीं कि वे हमें खिलौना ही लगती थीं...बिल्कुल छोटी, नन्ही मुन्नी...जिन्हें मैं कभी कभी भर कर खुले आंगन में सोते वक्त अपने खटोले (बच्चों के लिए छोटी खटिया) के नीचे रख लिया करता था ...और सच में उस दिन अपने आप को महाराजा पटियाला से कम नहीं समझता था ...और फिर दूसरी तीसरी कक्षा में एक दौर वह भी आया कि उन छोटी छोटी सुराहियों को हम लोगों ने पानी से भर कर स्कूल भी लेकर जाना शुरू कर दिया...लेकिन यह काम तो भई मुझे टेढ़ी खीर लगता होगा..क्योंकि जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है, यह काम हम लोगों ने दो-तीन बार ही किया होगा...बड़ा झंझट होता उसे उठाए2 स्कूल तक की पैदल यात्रा करना ...
हां तो बर्फ की बातें चल रही थीं..ठंडे पानी की बातें हो रही थीं....फिर एक दौर ऐसा भी आया कि हमारे घर के बिल्कुल पास ही एक रेलवे का अस्पताल था जहां उन दिनों नया नया वाटर कूलर लगा था ..लोग शाम के वक्त वहां से जा कर ठंडा पानी भर लाते थे ..दो चार बार मेरी भी यह ड्यूटी लगाई गई ..लेकिन पता नहीं मैंने दो-तीन बार इस काम के लिए जाने के बाद बगावत कर दी या मुझे किसी ने वहां से ठंडा पानी लाने के लिए कहा ही नहीं...बगावत-वावत तो मैंने क्या करनी थी, हम लोग वैसे ही इतने प्यार से रहते थे घर में..शायद किसी ने कभी कहा ही नहीं मुझे वहां से ठंडा पानी लाने के लिए...
हां, तो बर्फ तो 25-50 पैसे की मुझे भी अकसर लानी होती थी साईकिल पर जा कर ....अकसर मैं थैला ले कर जाता था ..जिसे साईकिल पर टांग लेता था...बहुत बार पीछे वाले कैरियर पर बर्फ को दबा देता था ..जिस तरह से मैं अपने पिता जी को बर्फ लाते देखा करता था .. लेकिन तब होती जब मैं कभी ऐसा कोई साईकिल ले जाता था ...जिस पर कैरियर न होता और अगर उस दिन मेैं शौकीनी में आकर थैला लेकर जाना भी भूल गया होता तो भई मेरी तो आफत हो जाती ...तब तक साईकिल चलाना भी आ गया था ...लेकिन दुकानदार तो बर्फ को किसी अखबार के टुकड़े में लपेट कर हमें थमा देता ..हमारी तो तब से लेकर घर पहुंचने तक आफ़त हो जाती ...अखबार से क्या कोई बर्फ के प्रकोप से बच सकता है...मेरे हाथ ठंडे-ठार हो कर लाल हो जाते, दुखने लगते ..उसे फिर मैं दूसरे हाथ मे ं पकड़ने की कोशिश करता कि एक हाथ को थोड़ा सुकून तो मिले ..कहीं खडे़ हो कर हाथों को आराम देने की सोच भी नही ंसकते थे ..क्योंकि ऐसा करने पर आधी बर्फ तो पिघल जायेगी, यह फ़िक्र भी कम थोडे़ न थी ...लेकिन यह बर्फ लाने का काम वैसे तो अकसर होता ही था शाम को ... लेकिन दिन में कभी भी मेहमानों की मेहमानवाज़ी के वक्त भी बर्फ लानी ज़रूरी हुआ करती थी ..उन्हें रूह-अफ़ज़ा या स्कवैश पिलाने के लिए....हां, उस वक्त बर्फ लेने से पहले हम लोग समोसे, बर्फी ले लेते थे...इतनी समझ तो उस वक्त भी थी ही ...
हां, उस वक्त फिर घर घर में एक ट्रेंड चल निकला ....1970-71 की बात रही होगी..घर घर में बोरी में बर्फ लपेट कर ऱखने का सिलसिला चल निकला...सुबह बर्फ वाला आता ..उस से 50 पैसे या एक रूपये की बर्फ ली जाती ...उस बोरी में लपेट कर रख दिया जाता ...उसके साथ दो एक ककड़ीयां या एक पानी भी बोतल रख दी जाती ठंडी होने के लिए...। बीच बीच में उसे देखते जैसे जैसे बर्फ कम होती दिखती उसी अनुपात में उसे देखने वाले को दिल भी डूबता जाता ....
हां, फिर उन्हीं दिनों टीन के आईसब्राक्स बाज़ार में आ गए ...जिस में बर्फ रख दी जाती ...सुबह सुबह 1-2 रूपये की बर्फ का बडा़ सा टुकड़ा उसमें स्थापित कर दिया जाता ..वही बोरी में लपेट कर ....उस के ऊपर पानी की बोतलें कांच की टिका दी जातीं ठंडी होेने के लिए...पास ही ककड़ीयां या आम, आलूबुखारे भी रख दिए जाते ...मज़े से दिन कट रहे थे ...यह दौर 1975 तक चलता रहा ...फिर अचानक 1976 में क्या हुआ...इस की चर्चा बाद में करेंगे ..लेकिन हां, उस आईस-बॉक्स की बर्फ भी शाम तक पूरी पिघल चुकी होती ..जिसे देख कर हमें अफसोस होता ...फिर यह भी कहा जाता कि यह बर्फ वाला कच्ची बर्फ दे जाता है ..पक्की बर्फ इतनी जल्दी नहीं पिघलती ..अगर कच्ची-पक्की बर्फ़ का अंतर आप को पता ही नहीं है तो यह अब आप के लिए जानना ज़रूरी भी नहीं है, और अगर पता है तो आप मेरी बात से इत्तेफाक रखते ही होंगे ...
और हां, गर्मी के दिनों में हमारी दिलोदिमाग की गर्मी को कम करने के लिेए कभी कुल्फी वाले, कभी बर्फ के गोले वाले और शाम के वक्त हरे हरे बोहड़ के पत्ते पर आईसक्रीम लेकर कुछ फेरी वाले आ जाते ...जिसे हम बड़े चाव से खाते ....बहुत मज़े से उस का लुत्फ उठाते ...और कभी कभी फैंटा, कोका कोला जो हमें नसीब होती वह तो हमें दुकान में रखे आईस-बाक्स से ही निकली हुई ही मिलती ..
अपने बारे में लिखना अपना पेट नंंगा करने जैसा काम है ..लेकिन लिखने वाले कहां इस सब की परवाह करते हैं क्योंकि अगर वे सब कुछ अगर ईमानदारी से नहीं लिखते तो उन का सिर दुखता है ...यह मैं बिल्कुल सच कह रहा हूं ....और हां, एक बात जाते जाते यह भी सोच रहा हूं मेरे जैसे जिन लोगों का बचपन इतने संघर्ष में बीता हो ...मेरा क्या, सब का ही ऐसा ही होता है ...हां, कुछ लोग रईसी का नाटक कर लेते हैं, हमने वह नहीं सीखा ..जो कुछ हमारे साथ बीता, वही लिख देते हैं...हां, तो मेरे जैसे लोग जिन्होंने साईकिल पर हाथ में थाम कर बर्फ उठा कर लाने वाले दिन देख लिए...उन का किसी भी तरह की ईगो, अहम् क्या बिगाड़ लेगा.... क्या वह किसे बहस करेंगे, क्या किसी से उलझेंगे ...क्या किसी को नीचे दिखाने की कोशिश करेंगे ..हर कोई उन्हें अपना ही ऩज़र आएगा...फिर भी कुछ लोग आप की हवा खराब करने में हर जगह जुट जाते हैं....क्योंकि यह भी देखता हूं अकसर कि लोग किसी को खुश देख कर भी दुखी रहते हैं ...मुझे सब पता चलता रहता है ...समझते हम सब कुछ हैं, हां, बोलते ही कम हैं...उलझते नहीं हैं....फिर भी कईं बार ऐसा हुआ कि कुछ लोग बार बार कहते हैं कि लोग तो आप से बड़ा डरते हैं ...लेकिन आप तो बिल्कुल अलग ही हैं उस तस्वीर से जो लोगों ने आप की बनाई हई थी ...
जो भी लोग ऐसी बाते ं करते हैं ना, सच में मेरी तबीयत होती है कि उन्हें एक करारा तमाचा जड़ दूं (मन ही मन में तो जड़ ही देता हं, मैं क्या कम हूं किसी से!) और कहूं कि मेरे बाते में कुछ जानते ही नहीं हो, और जान भी नहीं पाओगे(क्योंकि अभी तो मैं खुद को समझ नहीं पाया कि मैं हूं क्या)....कोशिश भी मत करो, लेकिन मैं हर तरह से एक ऐसा प्राणी हूं जिस से किसी को कोई डर नहीं है ..किसी का बुरा कभी किया नहीं और आगे भी क्या कर लूंगा ...लेकिन हां, जो लोग यह सब कह कर किसी की हवा खराब करते हैं मेरा दिल करता है, और मेरे मुंह पर आई बात रूक जाती है कि भाई लोगो, मेरी फिक्र मत करो....तुम लोग अपने अपने गिरेबान में झांका करो, मेरा ख्याल छोड़ो ...क्योंकि मैं तुम लोगों को भी उतना जानता हूं जितना तुम भी खुद को नही जानते... 😎
बंद कर भाई अब इस पोस्ट को...यह तो बहस करने लगा तूं ...और वैसे तो तू किसी से भी उलझता नहीं कभी भी ..बस, जैसा है वैसे ही बने रहना...दुनिया की ऐसी की तैसी .... हा हा हा हा हा ...