शनिवार, 5 मार्च 2022

बस यूं ही ....यादें, किताबें, शिकार की बातें

लिखना भी एक अजीब शौक है ...शुरूआती बरसों में जब लिखना शुरू करते हैं तो ऐसे लगता है कि 30-40 लेखों के अलावा तो कोई मजमून ही नहीं जिस पर लिख पाएंगे...मेरे साथ भी ऐसा ही था ...जब बीस साल पहले मेरे लेख हिंदी की अख़बारों में छपने लगे तो मुझे यही चिंता अकसर सताए रहती कि चालीस पचास लेखों के बाद लिखूंगा क्या...

लेकिन फिर जैसे जैसे आप अपने दिलोदिमाग मे बनने वाली तस्वीरों को  कागज़ पर उकेरने लगते हैं तो फिर यह समझ आने लगती है कि जिन विषयों पर आप लिखना चाह रहे हैं ...वे तो ताउम्र खत्म न होंगे ...बस, उस के लिए निरंतर लिखते-पढ़ते रहना होगा...और इस तरह की रुचि लिखने वाले के साथ मिलते जुलते रहना चाहिए...बातें छोटी सी होती हैं, लेकिन कभी किसी दूसरे के मुंह से निकलती है तो एक बार तो यही अहसास होता है कि यार, इतनी सी बात का हमें ख्याल नहीं आया..

खैर, कुछ दिन पहले की बात है मैं एक लेखक से बात कर रहा था कि मुझे रिटायर होने के बाद अपनी यादें एक किताब में समेटनी हैं...मेरे पास बिंदास लिखने को बहुत कुछ है ...पिछले 30-35 बरसों में नौकरी के दौरान जो महंगे सबक सीखे...सब कुछ लिख देना है मुझे ...नाम वाम तो मैंने क्या लेने हैं किसी के ..लेकिन लिखूंगा मैं पूरी इमानदारी के साथ ...वरना फायदा ही क्या...। नौकरी करते करते कुछ रब्बी लोग भी मिले, कुछ विलेन भी मिले ... कुछ के लिए हम रब थे, कुछ के लिए हम विलेन...लेकिन यह सब अब दिल के किसी कोने में दबा के रखा हुआ है ...जब उस कोठरी को खोलेंगे तो आप को भी बताएंगे ... हा हा हा हा हा ...

हां, तो जब मैं ये बातें कर रहा था तो उसने इतना ही कहा कि लिखना तो अभी शुरु कर दो. छपवा रिटायरमेंट के बाद लीजिएगा...मुझे यह ख्याल पहले कभी क्यों न आया, मैं हैरान हूं...मेरे दिमाग की बत्ती जल गई...

किताबें ..किताबें ...किताबें ...बहुत अच्छी दोस्त होती हैं...मैं इतनी किताबें खरीदता हूं कि क्या कहूं....मेरी मां सब को बड़े चाव से बताया करती थीं कि प्रवीण को पढ़ने का बहुत शौक है और इसके पास ढ़ेरों किताबें हैं...मां को यही लगता कि किताबों पर इतना पैसा खर्च करने के लिए बडा़ दिल होना चाहिए...लेकिन मैं बहुत बार यही कहता कि मैं अपने मन को यह कह कर समझा लेता हूं कि बच्चे तो जितना एक-दो-तीन पिज़्ज़ा मंगवाने पर खर्च करते हैं ...उतना ही तो खर्च आता है किसी किताब को खरीदने में। आज भी कोई भी किताब खरीदते वक्त मेरा ध्यान उस की पांच छः सौ रूपये की कीमत पर नहीं जाता ...बल्कि मैं यही सोच लेता हूं कि मैं किसी बढ़िया सी दुकान से पिज़्ज़ा मंगवा रहा हूं ...या बाहर कहीं जाकर नॉन-दाल मखनी मंगवा रहा हूं ..जो कि मैं अकसर मंगवाता नहीं हूं ...इसलिए किताबों पर किया गया खर्च मुझे कभी भी नहीं चुभता...

मेरे कमरे में हर तरफ़ किताबें बिखरी पड़ी होती हैं...क्योंकि कभी मैं कोई उठा कर पढऩे लगता हूं तो कभी कोई और...कुछ दिन पहले तो मेरे बेड़ पर इतनी किताबें थीं कि मुझ से करवट ही नहीं लेते बन पा रहा था ... खैर, जो भी है...बड़ा बेटा क्रिएटिव फील्ड से है, डाक्यूमैंटरीज़ बनाता है .. वह समझता है, फाउंटेन पैनों की, मेरी किताबों की कलेक्शन को देख कर खूब हंसता है ..डैड, यू आर के क्यूरेटर...। 

मैं आज सोच रहा था कि किताबें दोस्त होती हैं ..बेशक होती हैं दोस्त...इन के साथ रहना अच्छा लगता है ...सुबह-शाम थोड़ा वक्त इन के बीच बिताने से मन हल्का हो जाता है ...मुझे भी वक्त तो थोड़ा ही मिलता है पढ़ने का ...लेकिन सोच मैं यह भी रहा था कि लोग कहते हैं न कि उन्होंने फलां फलां किताब पढ़ी, जिसे पढ़ कर उन का ज़िंदगी बदल गई...मुझे यही मलाल है कि यार, मुझे क्यों नहीं कैसे कोई किताब मिली अब तक जिसे पढ़ कर मेरी ज़िंदगी भी बदल जाए...बेहतर हो जाए..लेकिन असलियत यह है कि शायद ही कोई किताब ऐसी होगी जिसे मैंने शुरू से अंत तक पढ़ा हो ...हां, बचपन की बात करता हूं तो याद आती है ..आठवीं जमात में पढ़ी एक किताब ...शायद उस का नाम था ...आगे बढ़ो - यह किताब मुझे मेरे जीजा जी ने भिजवाई थी ...नेशनल बुक ट्रस्ट से छपी थी...उसमें प्रेरणात्मक प्रसंग थे, जिन्हें मैं बार बार पढ़ता रहता और मेरी मन में भी वैसा ही बनने की हसरत होती...और हां, स्कूल में भी जब वार्षिक समारोह होता तो हर साल मुझे भी कुछ ईनाम मिलते ....और वे किताबों की शक्ल में ही होते ...भगत सिंह, लाला लाजपत राय, यशपाल का उपन्यास-अधूरा सच....मैं उन्हें भी बड़े चाव से पढ़ता ..लेकिन याद नहीं, पूरा पढ़ा हो ..बीच बीच में से पढ़ता था...

अभी मैं हिंदोस्तान की किसी राजकुमारी की यादें (मिमॉयर्ज़) पढ़ रहा था ...अचानक मुझे लगा कि हमें जितना हो सके पुराने नामचीन लोगों की जीवनियां, मिमायर्ज़ (यादें), ज़रूर पढ़नी चाहिए...बहुत कुछ सिखा देती हैं ये किताबें ....आदमी एक अलग संसार ही में पहुंच जाता है ...हां, तो उस राजकुमारी की यादों से भरी किताबें के पन्ने उलट रहा था तो दो तस्वीरों पर निगाह रूक गई ...पहली में तो उसके पति की 12 बरस की तस्वीर है जिसमें वह एक शिकार किए हुए शेर के साथ बंदूक लेकर खड़ा है...और कुछ सफ़ों के बाद उस के बेटे की फोटो है जो 11 साल की उम्र में अपने पहले शेर के शिकार के साथ बंदूक लिए खड़ा है...लगभग पचास साल पहले यह किताब पहली बार प्रकाशित हुई थी ...जो भी हो, अभी राजकुमारी की बातें तो आराम से, इत्मीनान से पढूंगा ...लेकिन वे तस्वीरें मुझे भद्दी लगीं...तुम ताकतवर हो गए ..ताकत इतनी बढ़ गई कि शेर को ही मार गिराया...उस बेचारे का क्या कसूर....उसे भी जीने देते ....यह भी खौफ़नाक क्रूरता नहीं तो क्या है...। पहले हम लोग फिल्मों में भी देखा करता थे कि कुछ लोग शिकार पर जा रहे हैं...शायद उस बालपन में इतना सोचते नहीं थे ..लेकिन आज सोचते हैं तो घिन्न आती है ..पहले आप जंगल में शिकार करते हैं, फिर उन जीवों को आग कर भून कर खा जाते हैं...यह तो कोई मर्दानगी न हुई...

शुक्र है कि धीरे धीरे कानून इतने सख्त हो गए कि ये शिकारियों विकारियों की बातें कम से कम हम तक पहुंचनी तो कम हुई ..लेकिन शिकार तो होते ही हैं अभी भी ...हां, कभी कोई बड़ा बंदा जब शिकार करते पकड़ा जाता है तो उसे कानून के पंजे से छूटने में बरसों लग जाते हैं ...छूट तो लोग जाते ही हैं ..

आज मैं ड्यूटी पर जा रहा था तो मैंने बांद्रा में एक जगह एक युवक को स्कूटर पर दोनों तरफ़ रस्सी से बांध कर उल्टे टंगे हुए मुर्गे देखे ...मेरा मुूड बहुत खराब हुआ...बड़ी बड़ी गाडियों में तो छोटे छोटे पिजन-होल्स में दुबके, डरे-सहमे पड़े मुर्गे-मुर्गियां तो हम रोज़ देखते ही हैं...कृपया इसे बिना किसी मज़हब का चश्मा लगाए पढ़िए...वैसे भी यह मेरा काम नहीं है, यह जिन लोगों का काम वे अच्छे से करना जानते हैं....और न ही यह किसी को कुछ खाने या ना खाने की नसीहत है ...लेकिन जो बात मुझे कचोटती है नित दिन वही लिख रहा हूं...हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं...बस तस्वीर बदलनी चाहिए...😎....एक साल पहले मैंने बांद्रा इलाके में ही एक युवक को सुबह सुबह अपने दोनों कंधों पर 10-10-20-20 मुर्गे उल्टा लटकाए देखा ...मुझे बेहद दुःख हुआ....मैंने फोटो खींच तो ली...लेकिन वह तस्वीर ऐसी थी कि लोग उसे देख लें तो एनिमल एक्टिविस्ट सड़कों पर उतर आते ...जानवरों के साथ इतनी दरिंदगी... इसलिए उसे अपने इंस्टाग्राम अकाउंट से फ़ौरन डिलीट कर दिया...क्या है ना, यहां कुछ पता नहीं लगता, आप का लिखा या आप की शेयर की हुई तस्वीरें लोग कौन सा चश्मा लगा कर देख-पढ़ रहे हैं....हंगामा खड़ा करने का बहाना चाहिए होता है जैसे...

बाकी खाने-पीने की आदते हैं सब की अपनी अपनी ..पर्सनल च्वाईस..लेकिन जिस तरह से इन मुर्गे मुर्गियोंक एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाया जाता है वह बेहद दर्दनाक दृश्य होता है ...अच्छा, एक बात और ...जिस ट्रक में भी ये मुर्गे लदे होते हैं..डरे, सहमे, सिमटे, दुबके ...किसी मुर्गे बेचने वाले की दुकान पर खड़ा करते ही उस पर एक तराजू लटका दी जाती है ...बस, फिर चार पांच ज़िंदा (कहने को ही ज़िंदा...) मुर्गे उस तराजू पर झूल जाते हैं...और फिर उन्हें वहां से उतार कर दुकान के दड़बे में कैद कर दिया जाता है ...जब तक कोई ताकतवार ग़िज़ा ढूंढते हुए ग्राहक वहां तक नहीं पहुंचता...सोच रहा हूं कि कितने खौफ़ में जीते होंगे ये मुर्गे लोग भी ...और ये क्या ताकत दे देते होंगे खाने वालों को ...अपने आप ही से सवाल कर लेता हूं अकसर...!!

फिल्मों में दिखाते हैंं न कि अपराधियों से भरी गाड़ियों को बीच राह में रोक कर उन्हें उन के गिरोह के लोग छुड़वा ले जाते हैं ..वे रिहा हो जाते हैं...मैं सोचता हूं कि इन मुर्गों से भरे ट्रकों में से इन मुर्गों को आज़ाद करवाने कोई नहीं आता ... ये बातें निरर्थक हैं, सोचना भी ..मुझे पता है ..लेकिन मेरा दिल इन मुर्गे-मुर्गियों को इस हालात में देख कर दुःख बेहद होता है ....काश! .........................(Censored!) 😠😠

अच्छा, मुझे अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि मैंने ऊपर लिखा कि मैंने शायद ही कोई किताब हो जो शुरू से लेकर अंत तक पूरी पड़ी हो ..लेकिन दो साल पहले जब सुरेंद्र मोहन पाठक ने अपनी जीवनी लिखी- दो किताबों की शक्ल में ...वह मैंने ऐसे पढ़ी चार पांच दिन में पढ़ डाली...मुझे याद है उन दिनों मुझे रोटी खाने की भी सुध न थी......कौन है ये सुरेंद्र मोहन पाठक....जनाब, ये देश के एक बहुत बड़े नावलकार हैं...300 से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं...इसलिए मुझे बहुत जिज्ञासा थी कि यार, जिस बंदे ने इतने नावल लिख दिए...उस की खुद की ज़िंदगी का नावल भी पढूं तो सही ...इसलिए जब वह मुझे दो साल पहले ..लाकडाउन से दो तीन महीने पहले दिल्ली में एक साहित्यिक सम्मेलन पर मिले तो मैंने उन्हें यह सब बताया...वे खूब हंसे...उन की लिखी.एक और किताब वहां से लेेकर उस पर उन के आटोग्राफ भी लिए....मज़ा आया उन से मिल कर ...उन को सुन कर वहां उस दिन...पढने का उन्हें इतना शौक रहा है कि वे जिस लिफाफे में मूंगफली खरीदते, मूंगफली खत्म होने पर उसे फैंकने से पहले फाड़ कर पढ़ ज़रूर लेते ..

सुरेन्द्र मोहन पाठक के साथ लेखक ..नवंबर 2019

और हां, मैंने नावल कभी नहीं पढ़े, इतना सब्र ही नहीं है मुझ में ....शायद बच्चों के नावल ज़रूर पढ़े थे जो किराए पर मिलते थे हमारे दौर में ...जिस में कोई सिक्रेट एजैंट किसी चोर-डाकू-तस्कर के पीछे पड़ जाता है ...मज़ा आता था उन्हें भी पढ़ कर ...वैसे भी जिस लिखावट को पढ़ने में दिमाग पर ज़ोर लगे, मुझे वह पढ़ना नहीं भाता... अपनी अपनी पसंद है...मुझे तो  हल्का-फुल्का लिखा ही पसंद है... जिस पर दिमाग पर ज़ोर भी न पड़े और लिखने वाला हम तक अपनी बात भी पहुंचा दे ...

सुरेन्द्र मोहक पाठक साहब की स्वःजीवनी 

लिखता क्यों है कोई बंदा..........किसी लेखक से यह पूछने बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई यह पूछे कि भूख लगने पर हम रोटी क्यों खाते हैं...कोई मक़सद नहीं होता, कोई पढ़े न पढ़े, कोई फ़र्क नहीं पड़ता...तालियां बजें न बजें...लिखने वाले परवाह नहीं करते ..बस उन्हें लिख कर एक अजीब सा सुकून मिलता है, राहत का एहसास होता है ...और जिन चंद लोगों को हम बहुत चाहते हैं उन्हें जब अपना कुछ लिखा भेजते हैं तो ऐसे लगता है जैसे आज की चिट्ठी विहीन दुनिया में उन्हें चिट्ठी ही लिख रहे हैं....अभी इस पोस्ट को लिखते लिखते देखा कि बड़ी बहन का मैसेज आया है ..तुम्हारी पोस्ट की इंतज़ार हो रही है..मैंने जवाब लिख दिया...लिख रहा हूं, भेजता हूं अभी .. 😃😃


क्या आप को लगता है कि इस फिल्मी नगमे से बड़ी भी कोई इबादत हो सकती है...मुझे तो कभी नहीं लगता...न आदमी की आदमी झेले गुलामियां....न आदमी से आदमी मांगे सलामीयां ......🙏

शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

यह उन दिनों की बात है ...2. जब ट्यूशन लगवाना बाइसे फ़ख्र न था...

साल 1974 - चलिए आज मेरे साथ पचास साल पहले वक्त की गलियों में टहलने चलिए...मैं आज बाहर टहलने नहीं जा रहा हूं..सोच रहा हूं यहीं पर ही टहल लूं..जी हां, उन दिनों मैं अमृतसर के डी.ए.वी स्कूल में छठी जमात में पढ़ता था। 

तो जनाब हुआ ऐसे कि मुझे शुरु ही से पढ़ने लिखने का शौक तो था ही ...छुट्टी वुट्टी नहीं करता था ..मास्टरों की बात को अच्छे से सुनना और मानना मेरी आदतों मे शामिल था ..और वक्त पर स्कूल जाना भी होता था ..कुछ साल पैदल, बाद में साईकिल पर...

लेकिन छठी कक्षा में पढ़ते पढ़ते जैसे ही बीज-गणित (एलजेब्रा) पढ़ना शुरू किया तो मुझे कुछ मुश्किल सी महसूस हुई कुछ दिन... मेरे साथ बैटने वाले दोस्त मनीष से मैं पूछ लेता, वह बड़ा नेक बंदा था ...एलजेब्रा के सवाल हल करने मेंं खुशी खुशी मेरी मदद कर देता ...लेकिन फिर भी मुझे एलजेब्रा कुछ अजीब सा ही लग रहा था...

मैं एक दिन स्कूल से घर लौटने पर रोने लग गया...मेरे पापा ने पूछा ...मैं साफ़ साफ़ कह दिया कि पापा जी, मुझे हिसाब का सब्जैक्ट अच्छे से समझ नहीं आ रहा ...बस, फिर क्या था...पापा जी ने पूछा कि क्या वह मास्टर जी ट्यूशन पढ़ाते हैं...मुझे जो पता था वह मैंने बता दिया जो मुझे पता था क्योंकि ट्यूशन पढ़ने वालों पांच छः क्लास के साथियों से यह तो पता चल ही गया था कि वे स्कूल की छुट्टी होने के बाद शाम चार से पांच बजे मास्टर जी से ट्यूशन के लिए रुकते थे...महीने में कितने पैसे ट्यूशन के लगते हैं जितना इस के बारे में भी मुझे जितना पता था वह भी मैंने पापा जी को बता दिया...

पापा ने मेरी कापी का एक पन्ना फाड़ा ...उस पर चिट्ठी लिखी जिन्हें वह वैसे भी वह बड़े चाव से, इत्मीनान से लिखा करते थे ...चिट्ठी लिख कर उन्होंने उसे एक बार फिर से पढ़ा और उसे मेरे हवाले करते हुए कहा कि इस ख़त को कल मास्टर जी को दे देना...मैंने वैसा ही किया ...मुझे पता नहीं आज तक कि पापा ने उस चिट्ठी में ऐसा क्या लिखा था - यार, पूरा पन्ना भरा हुआ था...खैर, उस दिन मास्टर जी ने स्कूल की आखरी घंटी के बाद मुझे भी अपनी उस ट्यूशन की क्लास में ही बैठने को कह दिया...बस, फिर क्या था, यकीन मानिए, मुझे दो चार दिन में ही एलजेब्रा बहुत अच्छे से समझ में आने लगा...और मैं खुश..


चाक एन डस्टर फिल्म देख कर पता चला कि एलजेब्रा कितना आसान है ...अभी इस गाने में ज़रीना बहाव को देखा तो उन से हुई मुलाकात याद आ गई....
चार पांच बरस पहले ज़रीना जी से लखनऊ में मुलाकात हुई तो बहुत अच्छा लगा...मैंने उन्हें यह भी कहा कि मैंने उन की सभी फिल्में देखी हैं बार बार ...चितचोर, घरौंदा...वह बहुत खुश हुई ...

खुशी मुझे भी बहुत हुई थी उस दिन...क्या है ना, पहले हमारा इस तरह के अज़ीम कलाकारों के साथ एक रिश्ता जुड जाता था जैसे...कोई हमें बड़ी बहन दिखती तो किसी की ममता में हमें अपनी मां की तस्वीर नज़र आती ...

ट्यूशन का एक महीना पूरा होने का था....पता चला कि महीने के 25 रूपये ट्यूशन की फीस है ...छठी क्लास के बाकी के जितने भी महीने रहते थे वह ट्यूशन जारी रही ...और पापा मुझे महीना पूरा होते ही एक सफेद लिफाफे में 25 रूपये के कड़कड़ाते नोट डाल कर देते कि मास्टर साहब को दे देना..और उन पैसों को लेकर स्कूल जाते वक्त मेरी तो भई जान ही निकली रहती जैसे कि मैं पता नहीं कितना बड़ा खजाना लेकर स्कूल की तरफ़ पैदल मार्च करने का कोई जोखिम उठा रहा हूं ...लेकिन मेरे बाल मन को इतना अहसास तो था कि यह रकम भी इन के लिए बडी़ ही है, कईं बरसों बाद यह लगता था कि पता नहीं कौन से खर्चे कम के उस वक्त उस ट्यूशन की इस फीस का जुगाड़ करते होंगे ...चलिए...मैं सारा दिन उस लिफाफे को अपने बस्ते में पड़े रहने देता...बार बार कईं बार चेक कर लेता ...लेकिन पता नहीं उन दिनों भी इतनी अक्ल कहां से थी कि देता मैं मास्टर साहब को ट्यूशन के पीरियड में ही था....

चलिए जी, यह तो थी अपनी पहली और आखरी ट्यूशन की दास्तां.....उस के बाद कभी भी ट्यूशन नहीं रखी ....कभी ख्याल मन में आया भी तो उस वक्त में तो जो ट्यूशन के रेट चल रहे थे उन दिनों, उस के बारे में मालूम पड़ता तो घर में आकर पापा से कहने की हिम्मत ही नहीं होती क्योंकि पहले बच्चे बोलते कम थे लेकिन मां-बाप की जेब के बारे में बिना किसी के कुछ कहे-सुने बहुत कुछ जान लेते थे ...

खैर, वह ज़िंदगी में मेरा ट्यूशन का तजुर्बा बहुत अच्छा रहा ...वह मास्टर जी ऐसे नेक कि कभी किसी भी छात्र को मजबूर नहीं किया कि उनसे ट्यूशन पढ़नी ही है। और हां, वह लिफाफे में 25 रूपये डाल कर मास्टर जी के भिजवाने वाली बात ..मैं बहुत बरसों बाद जब उस बात को याद करता तो मुझे यह अहसास होता कि मेरे पापा भी ज़माने के हिसाब से बहुत आगे थे कि उन्हें यह भी लगता कि मास्टर को पैसे देते वक्त भी तहज़ीब से देने होते हैं...

दो दूनी चार का यह दृश्य देख कर आप भी ऱोये थे न....मुझे पता है...क्योंकि मेरे साथ भी हर बार ऐसा होता है...

और यही प्रथा फिर आगे मैंने बच्चों की ट्यूशन के मास्टरों को उन की फीस भिजवाते वक्त भी चलाए रखी...हमेशा लिफाफे में डाल कर बड़ी इज़्ज़त से ही यह फीस दी जाती ... क्योंकि भाई हम भाजी मार्कीट से धनिया-पुदीना नहीं खरीद रहे ...और अगर फुटपाथ पर हम कुछ खऱीद कर पैसे उन के हाथ में इज़्ज़त से थमाने की बजाए उन के आगे किसी फलों के ढेर पर या भाजी के ढेर पर रख कर आगे भढ़ने लगते हैं तो मुझे तो बहुत बार किसी बुज़ुर्ग दुकानदार महिला ने कईं बार दम भर है कि यह तरीका नहीं होता..पैसे देने का ..मराठी में कहती हैं लेकिन मैं समझ लेता हूं ...कहती हैं कि पैसे हाथ में सलीके से पकड़ाने होते हैं...दो चार बार इन औरतों से डांट खाने के बाद अब मैं सुधर गया हूं ...किसी को भी पैसे थमाने वक्त पूरा ख़्याल रखता हूं.. 

अच्छा, जैसे जैसे वक्त आगे बढ़ता चला गया ..ट्य़ूशनों का चस्का मास्टरों को भी लगने लगा शायद लेकिन मां-बाप को तो ज़रूर लगने ही लगा ..मास्टरों के बारे में यह सुना जाने लगा कि वे बच्चों को उन के पास ट्यूशन पढ़ने के लिए मजबूर करते हैं ...लेकिन हमें तो कभी किसी ने ट्यूशन पढ़ने के लिए नही ंकहा ..जो सच है वह ज़रूर दर्ज कर देना चाहिए...ऐसे ही सुनी सुनाई बातों पर यकीं नहीं करना चाहिए। 

लेकिन फिर भी ट्यूशन इस कद्र पढ़ी-पढ़ानी वाली चीज़ हो गई जैसे कोई फैक्ट्री चल रही हो ...हमारी कालोनी में हमारे स्कूल से साईंस टीचर रहते थे ..सुबह एक बैच स्कूल खुलने से पहले ..और शाम के वक्त छुट्टी होने के बाद तीन चार या दो तीन बैच पढ़ाते थे .. 1977-78 के दिनों की बातें हैं..हमारे नवीं-दसवीं के दिन ... उन के घर के बाहर बीसियों साईकिल खड़े रहते थे ...और मोहल्ले वाले खामखां टोटल मार मार के अपनी हालत खराब करते रहते कि इतने साईकिल दिन भर में खड़े रहते हैं ..अगर एक स्टूडेंट से इतने पैसे भी लेते होंगे तो इस का मतलब इतना तो कमा ही लेते होंगे...खैर, बहुत काबिल और नेक थे ...हमें स्कूल में ही अच्छे से पढ़ा देते थे और मुझे याद है नवीं कक्षा में जब साईंस के पेपर में मेरे 40 में से 38 अंक आए थे तो उन्होंने मेरे पेपर का एक एक पेज सारी क्लास को दिखा कर कहा कि पेपर में कैसे लिखा जाता है, यह देखो...और मैं बैठे बिठाए क्लास का हीरो नं 1 बन जाता....

अच्छा, एक बात और भी है कि उन दिनों लोगों के मन में यह भी था कहीं न कहीं कि ट्यूशन से होता हवाता कुछ नहीं ...बस, फेल होने वाले को पास करवा देती है....और वैसे भी जो पढ़ाकू किस्म के बच्चे होते थे ..वे कम ही दिखाई देते थे ऐसी ट्यूशन की महफिलों से...शेल्फ-स्टड़ी का सबक हमें घर ही से मिलता रहता था...भाई-बहन को पढ़ते देख कर। 

खैर, यह वह दौर था ...पचास साल पहले ... जब ट्यूशन पढ़ाने वाले मास्टर जिन्हें घर बुलाया जाता था उन का अपनी शिष्या को बीजगणित-रेखागणित पढ़ाते पढ़ाते कुछ ऐसा समीकरण बैठ जाता था कि बात शादी करने करवाने तक पहुंच जाया करती थी ..दो किस्से हमारी कॉलोनी में हो गये थे ..दसवीं क्लास की छात्राएं थीं और मास्टर जी से फिर उन की शादी हो गई ...मुझे अभी उन दोनों मास्टरों के चेहरे और उन छात्राओं के चेहरे भी याद हैं....और शादीयां सफल ही रहीं ...लेकिन उस दौर में लोग उस तरह के रोमांस की चर्चा करते वक्त किसी रूमानी नावल पढ़ने जैसा मज़ा लेते...सच कह रहा हूं...हमें भी उड़ती उड़ती बाते सुन कर कुछ कुछ होता तो था लेकिन यह पता न था कि यह है क्या ...


अब लगता है इस पोस्ट को बंद करूं ...अभी ट्यूशन की बातें बहुत सी बची हैं..कभी मूड हुआ...जैसे आज सुबह मूड बन गया तो इतना कुछ बिना किसी शर्म-संकोच के लिख दिया...कुछ तो अभी लिखने को बाकी है ...देखता हूं.....और हां, जाते जाते एक बात ज़रूर कहना चाहूंगा कि ये जो ट्यूशन पढ़ाने वाले मास्टर घरों में आते थे उन की छवि बड़ी रोमांटिक बनाने में हमारी हिंदी फिल्मों ने भी बड़ी भूमिका निभाई है ..बेशक...पुरानी से पुरानी फिल्में देख लीजिए...जब भी कोई मास्टर किसी के घर में घुसा...उसने वहां जा कर कुछ पढ़ाया वढ़ाया या नहीं, लेकिन उन का नैन-मटक्का ज़रूर चल निकला...इसलिए जैसे ही फिल्मों में ट्यूशन लगाने की बात ही चलती अपने तो कान फौरन खड़े हो जाते ...कि अब चलेगी फिल्म सही ...

लिखते लिखते मुझे ख्याल आ गया कि आज की पोस्ट लिखते लिखते तो टीचर याद आ गये....ज़रूर टीचरों को याद रखना चाहिए...यह मिट्टी से सोना बनाने वाले कलाकार हैं....बीस-बाईस साल पुरानी बात है ...मैं फिरोजपुर में नौकरी कर रहा था...वहां तो अमृतसर का रास्ता बस में दो घंटे का ही है ...मैं कईं बार पुराने गली-कूचों को बिना वजह देखने, पुरानी यादों को ताज़ा करने चला जाता ..एक बार मैं पूछते पूछते अपने एक टीचर के घर पहुंच गया...संयुक्त परिवार में रह रहे थे ..मैं उनके लिए बर्फी का डिब्बा लेकर भी गया था ...क्योंकि मुझे लग रहा था कि मैं किसी मंदिर में भगवान के दर्शन करने जा रहा हूं ... मैंने उन का आशीर्वाद लिया...लेकिन वह अपनी यादाश्त लगभग खो चुके थे ...कड़ाके की ठंड थी उन दिनों ..एक पुराना, घिसा हुआ कंबल उन्होंने लपेटा हुआ था ...पेंशन नहीं होती प्राइवेट स्कूलो में ...बच्चे नौकरियां कर रहे थे ..मैं उन के साथ और उन के परिवार के साथ संपर्क में था...उन्होंने मुझे बंबई चिट्ठी भी लिखी थी...25 साल पहले ..मेरे पास अभी भी पड़ी हुई है ...उस दिन मुझे मिलने पर यही लगता रहा कि यह वह बंदा है जिस के पास एक ही गर्म सूट था, एक ही शूज़ थे ..लेकिन उन का सलीके से उन्हें रोज़ चमका कर पहनना और सूट को अच्छे से साफ़ रखना ..हमें उन की पर्सनेलिटि अच्छी लगती थी ...उस दिन मुझे लगा कि इन्हें जेब-खर्च तो यार अब भेजना बनता है ...उस के बाद मैं उन को हर महीने 500 रूपये का मनीआर्डर करता रहा ...जब तक वह जीवित रहे ...मैंने एक बार मनीआर्डर के साथ जो संदेश लिख भेजते हैं उस में लिख भी दिया था कि यह मास्टर साहब का जेब-खर्च है, उन के खाने-पीने का ख्याल रखिए... उन के जाने के बाद गुरू मां को भी मनीआर्डर भिजवाता था .....लेेकिन जब वह भी चल बसीं तो वह नाता भी टूट गया....

ये सब बातें लिखना मुझे बहुत अजीब सा लग रहा था कि मैं बर्फी का डिब्बा ले कर गया ...500 रूपये का मनीआर्डर हर महीने करवाता था ..जो लोग मुझे अच्छे से जानते हैं वे जानते हैं, दूसरे इस लिखने को किस अंदाज़ में लेंगे मुझे रती भर भी फ़र्क नही पड़ता ..और हां, मेरी मां को जब मैंने यह मनीआर्डर वाली बात बताई थी तो उन्हें इतना अच्छा लगा था कि मैं क्या लिखूं...कहने लगी थीं कि बहुत ही अच्छा करते हो... शायद हमें अपने मां-बाप से, हमारे समाज से जो मिलता है, सारी उम्र हम वही लौटाते हैं ...आप को क्या लगता है। यह जेब-खर्च वाली बात इसलिए लिख दी क्योंकि पता नहीं हमे ंकहां से प्रेरणा मिल गई ...इसे पढ़ कर शायद किसी दूसरे को भी कुछ आइडिया आ जाए...इसलिए दिल की बातें शेयर कर देनी चाहिए...

पोस्ट को पढ़ कर थोड़ा इमोशनल हो जाएं तो हो जाने दीजिए...मैं ही इसे लिखते लिखते कितनी बार हुआ...चलिए, अब खुशी की वजह से जो आंखें नम हो गई हैं, उन्हें पोंछने के लिए आप को एक बढ़िया गीत सुनाते हैं... सुनिएगा ज़रूर ....पुराने रोमांटिक गीतों को जब मैं देखता हूं, सुनता हूं तो सोच पड़ जाता हूं कि कह तो तब भी सब कुछ देते ही थे लेकिन कहने का एक नफ़ीस सलीका था.😂😄😎 (उस दौर के गीतकारों की याद को सादर नमन) ...अब तो वेबसीरीज़ में ...गालीयां चेप देना ही कूलनैस का द्योतक हो गया हो जैसे...

 

कोई कोई पो्स्ट लिखने लगो तो सच में प्रसव पीडा़ को सहने जैसा काम होता है ...यह पीड़ा सही तो नहीं है लेकिन सुना बहुत है ..जब तक बात पूरी नहीं लिखी जाती, दर्द चैन से बैठने नहीं देता.....आज तो वैसे भी ऐसे लग रहा है जैसे कोई चित्रहार ही पेश कर रहा हूं 😎😎 - 

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

यह उन दिनों की बात है ...1. भाई बहनों की गुफ़्तगू

मैं अकसर गुज़रे दौर की बातें करता रहता हूं ...इस विधा को हिंदी साहित्य में संस्मरण लेखन कहते हैं...हर कोई अपनी अपनी समझ से आप के लेखन को देखता है ...लेखन कोई इतनी बड़ी तोप भी नहीं ...बस, अपना दिल खोल के सब के सामने रख देने की एक कोशिश है ...धीरे धीरे जैसे जैसे दिल खुलता जाता है, यह काम ख़ासा आसां लगने लगता है...हां, मुझे एक बार मेरे एक कालेज के साथी ने लिखा कि चोपड़े, यार तुम पुरानी बातें याद करते रहते हो...। और बात आई गई हो गई...लेकिन मैं तो वैसे ही अपने दिल की बातें लिख कर हल्कापन महसूस करने का कायल हूं और इस में बहुत सहजता महसूस करता हूं...शायद आज से बीस साल पहले उतनी नहीं करता था जितनी आज करता हूं...

लेकिन कुछ दिन पहले मुझे पंजाबी की एक किताब मिली ...रंग बिरंगीयां...जिसे मेरे स्कूल-कालेज के एक साथी के पिता ने लिखा है ..वह साथी पंजाब का बहुत बड़ा नामचीन सर्जन है ...उस के पापा पंजाबी में लिखते हैं...93 बरस की उम्र में भी लिखते हैं, पेंटिंग करते हैं...वह साथी जब फेसबुक पर अपने पापा की लिखी पोस्टें डालता तो मुझे उन्हें पढ़ने में बड़ा लुत्फ़ आता ...हार कर उस के पापा ने मुझे अपनी लिखी दो किताबें ही भिजवा दीं...शुरू के पन्नों में लेखक ने लिखा है ....उस का हिंदी अनुवाद मैं यहां लिख रहा हूं...

"बेशक यादें मेरी निजी हैं और आप पढ़े-लिखे विद्वान और बुद्धिमान हो, फिर भी शायद कुछ अच्छी लगें, कुछ सिखा जाएं, कुछ ज्ञान में इज़ाफ़ा कर दें , सोचने पर मजबूर करें, हैरान ही कर दें और शायद होटों पर मुस्कान ही ले आएं, आप दूसरों को भी सुनाएं और आप को इन्हें पढ़ते पढ़ते आपकी अपनी पुरानी यादें हरी हो जाएं शायद..."

जब से मैंने उन बुज़ुर्गों की यह बात पढ़ी है, मुझे यह लगने लगा है कि यादों को सहेज कर रखना भी कोई इतनी बुरी बात नहीं है...

उसी सिलसिले में मैं आज कुछ और सहेजने की फ़िराक़ में हूं ...किस तरह से एक छत के नीचे रहते हुए उस दौर के भाई बहन आपस में किस क़द्र जुड़े हुए थे ...उस दौर में भाई बहन आपस में बातें करते थे ...बहुत सी कभी खत्म न होने वाली बातें ...भाई बहन की ज़िंदगी में जो भी चल रहा होता, वे आपस में बात कर लेते ...और मज़े की बात यह है कि भाई बहन की उम्र में काफ़ी फ़र्क होेते हुए भी यह मुमकिन था ...मैं घर में सब से छोटा था, बहन 10 साल बड़ी, भाई 8 साल बड़ा...

यह टीवी मोबाइल न होने की वजह से घर मे सब के पास सब के लिए वक्त ही वक्त था ... और भी कोई मनोरंजन का साधन खास न था...एक दो मैगज़ीन रहतीं जिस के पन्ने उलट लीजिए...और रेडियो जो किसी कमरे के किसी मेज़ पर सजा कर रखा होता...उस की मेहरबानी होती तो हम कोई फिल्मी गीत सुन लेते ...लेकिन अगर उस का मूड ही खराब है, गले में उसे भी खिचखिच होती तो हम परेशान होकर उसे भी आराम करने देते ...यह सोच कर कि सुबह उठ कर छत पर ईंट के नीचे दबी ऐंटीना की तार को हिला-ढुला के देखेंगे ...शायद चल पड़े ..लेकिन अगली दिन वही स्टोरी फिर से दोहराई जाती ...जिन लोगों ने वे सब दिन देखे हुए हैं, उन के लिए लेखक, शायर ...कुछ भी बनना कहां मुश्किल है ...लेख, आलेख खुद ही दिल से बाहर निकलते हैं...

हां, तो घर में भाई-बहनों की बात हो रही थी ...घर में आकर वे अपने स्कूल-कालेज की बातें करते ..बड़े आदर से अपने प्रोफैसरों के बारे में बताते कि वह कितना अच्छा पढ़ाते हैं...कईं बार अपने लिखे हुए नोट्स भी दिखाते कि देखो, आज सर ने कितना पढ़ा दिया...लिखते लिखते हाथ थक गए...मैं छठी-सातवीं में था और बड़ी बहन एम ए में थीं...यह 1973-74 की बातें हैं ...वह बहुत ज़्यादा मेहनत करती थीं...रोज़ का रोज़ पढ़ना और मेरे लिखे इंगलिश के निबंध भी चेक करना ...और मेरी खबर लेते रहना ...खबर लेने का मतलब पिटाई करना नहीं ...वह तो हमें पता भी नहीं था किसे कहते हैं ...हमें घर में किसी ने कभी गुस्से से छुआ तक नहीं.. ...पिटाई तो दूर की बात है ..मां को हम लोग आखिर तक छेड़ते थे कि बीजी, आप भी कैसी मां हो, किसी बच्चे को मारना नहीं, कभी डांटा नहीं, कभी आंखें नहीं दिखाई ...बस, वह हंस देती ...अब जिन बच्चों का बचपन ऐसा बीता हो, उन्हें बड़े होने पर कैसे सब लोग अपने न लगेंगे...

हमें अपने भाई-बहन के कालेज के प्रोफैसरों तक के नाम याद हो जाते थे ...इतनी बार उन के बारे में सुन रखा होता था...ये सब छठी सातवीं कक्षा की बाते हैं...घर के हर बाशिंदे को यह पता होता था कि कौन सा बंदा कहां गया है, कैसे गया है, कब तक आ जाएगा...और सब का इतना सकारात्मक रवैया कि जो भी घर से बाहर गया है वह लौट कर घर ही आ ही जाएगा...आज की तरह नहीं, मिनट मिनट की खबर देना-लेना कमबख्त इतना सिर दुखा देता है कि क्या कहें...

याद नहीं कभी भाई-बहनों ने आपस में कहा हो किसी को कि साईकिल ध्यान से चलाना, संभल कर जाना, वक्त पर आ जाना, स्कूल से सीधा घर ही आना, फ़िज़ूल की चीज़ें न खाना......कोई कुछ नहीं कहता था किसी को, सब अपना ख्याल खुद ही रखते थे ...सातवीं आठवीं कक्षा की बात होगी ..मैंने साईकिल पर नया नया जाना शुरू किया था ..अमृतसर गोल बाग के पास मुझे एक ट्रक आता दिखा तो मैंने अपनी साईकिल वहीं सड़क के बीच ही फैंक दी और खुद पीछे हट गया....साईकिल किसी स्कूटर वूटर के नीचे आ गई ...टेढ़ी सी हो गई ...मैं रिक्शे पर उसे रख कर घर लौट आया...मुझे अडो़स पड़ोस की सभी औरतें ऐसे देखने आईं जैसे मैं कोई जंग फतेह कर के आया हूं ...लेकिन कोई बात नहीं, शाम तक साईकिल को ठीक करवा लिया गया...और अगले दिन से फिर वही साईकिल यात्रा शुरु ---शायद किसी ने बिल्कुल नरमी से घर में यह कह दिया हो कि ट्रक, ट्राली का ख्याल रखा करो....

भाई-बहनों को एक दूसरे के एग्ज़ाम की डेटशीट, उन के सब्जैक्टस के नाम...कौन सा पेपर कैसा हुआ है, कौन सा खराब हुआ है...सब की जानकारी आपस में बांटते थे ...किस ने कहां नौकरी के लिए अप्लाई किया है, किस के रिश्ते की बात कहां चल रही है, बहन ने आज मां के साथ फोटो खिंचवाने जाने से पहले अच्छी सी साड़ी क्यों पहनी है...क्योंकि अब बहन की शादी की बातें घर में होने लगी हैं...मुझे यह बात बहुत उदास कर जाती थी ...अकसर ..कि बहनें बडी़ हो कर ऐसे कैसे दूर चली जाती हैं.......बाल मन की बातें थीं, फिर धीरे धीरे समझ आने लगी ...दिलोदिमाग में ठूंस ठूंस कर भर दिया गया हो जैसे कि बहनें, बेटियां तो पराया धन होता है .......ओह मॉय गॉड...

हां, अब मुद्दे की बात ...क्योंकि मैं भी अमृतसर के उसी कालेज में पढ़ा हूं जिस में बड़े बहन-भाई पढ़ते थे ...कुछ दिन पहले मैंने एक प्रोफैसर साहब का नाम देखा...याद आया कि यह तो बहन को पढ़ाते थे ...उन्हें प्रिंसीपल हो कर रिटायर हुए अरसा हो गया...मैं कल रात फेसबुक पर उन्हें फ्रेंड-रिक्वेस्ट भेज दी ...उन्होंने तुंरत स्वीकार कर ली.....अब सोच रहा हूं आगे की प्लानिंग ...उन का नंबर लेकर बहन को दूंगा ...उन्हें अच्छा लगेगा कि उन की पढ़ाई हुई एक छात्रा भी यूनिवर्सिटी से प्रोफैसर हो कर रिटायर हो गई है..लेकिन यूनिवर्सिटी वाले अभी भी उन्हें छोड़ने को राज़ी नहीं हैं....बहन है, इसलिए नहीं कह रहा हूं ...वह एक बहुत अच्छी टीचर हैं, हमेशा क्लास में जाने से पहले पढ़ कर जाती हैं, यूनिवर्सिटी से जो कापियां जांचने के लिए आती हैं, उन्हें पूरा पढ़ कर जांचती हैं सुबह उठ कर ....जैसे इबादत कर रही हों..कहती हैं हर एक का सही मूल्यांकन ज़रूरी है...

और हां, मेरी मां के जाने के बाद मेरे ब्लॉग की नियमित पाठक हैं, मेरी हौंसलाफ़जाई करती रहती हैं कि नियमित लिखते रहा करो, तुम बहुत अच्छा लिखते हो ...ख़ुदा करे उन की यह गलतफ़हमी बरकरार रहे और मुझे शाबाशी मिलती रहे ...😃

लेकिन ये सब उन दिनों की बात है जब मोबाइल, टीवी, वीसीआर....कोई झंझट नहीं था, हम सब लोग आपस में खूब बातें करते थे ...अंगीठी के दौर में उस के आसपास बैठ कर मूंगफली-रेवड़ी खाते खाते खूब हंसते थे ...खूब ठहाके लगाते थे..फिर भी हम सब 9 बजे तक सो ही जाते थे ...आज की तरह नहीं जैसे हम उल्लू बने होते हैं ..रात 12-1 बजे तक ..बिल्कुल दीवानों की तरह  पर वाट्सएप पर टंगे रहते हैं...फिर वही पकाने वाली बातें की पता नहीं नींद नहीं आती, नींद पूरी नहीं होती, नींद गहरी नहीं होती.....काश, नींद की भी कोेई एप ही आ जाए उसे स्विच करते ही नींद भी आ जाए .....

परसों देर शाम मैं कफ-परेड प्रेज़ीडेंट हाटेल के पास एक बाग की तरफ़ से निकल रहा था ..मैंने देखा बहुत से बेंचों पर चार चार लड़के बैठे हैं..पेड़-पौधों को निहार नहीं रहे, खेल-कूद नहीं कर रहे ...भाग-दौड़ नहीं रहे .....लेकिन अपने मोबाइल पर सब के साथ खेल रहे हैं......बड़ा अजीबोगरीब नज़ारा लगा मुझे वह उस दिन ....

यह कहां आ गए हम!!