राधा देवी भरे पूरे परिवार में जिस में उन के पति, उन का बेटा, बहू और उन से बहुत प्यार करने वाले उन के पोते-पोतियां हैं, माटुंगा में रहती हैं... खुशी खुशी दिन कट रहे थे ...फिर धीरे धीरे 70 साल की उम्र तक पहुंचते पहुंचते राधा देवी की यादाश्त कम होने लगी ...वह कुछ ज़्यादा ही भूलने लगीें...
उन का बेटा दीपक जो माटुंगा के ही एक कॉलेज में प्रोफैसर है, उन्हें लेकर एक सामान्य चिकित्सक के पास गया...डाक्टर साहब पुराने पढ़े हुए थे ...बिना कोई महंगी जांचें किए ही उन की समझ में आ गया कि यह महिला तो एल्ज़ीमर्ज़ (यादाश्त ख़त्म हो जाने की बीमारी) की तरफ़ बढ़ रही है ...डाक्टर ने दीपक को सारी बातें अच्छे से समझा दीं ...और ज़रूरी एहतियात रखने के लिए भी बता दिया कि आने वाले समय में किस तरह से उन की मां के लिए तकलीफ़े बढ़ने वाली हैं, इसलिए घर में सब को बता दें कि इन्हें घर से बाहर अकेले न निकलने दें...और इन के खाने-पीने का भी ख़ुद ही ख्याल रखना होगा...इन्होंने कब खाया है और क्या खाया है?
धीरे धीरे दीपक को समझ में आने लगा कि मां का तो घर के बाहर कहीं अकेले जाना भी सुरक्षित नहीं है ...दीपक अपनी बिल्डिंग के पहले माले पर रहता था, एक दिन मां नीचे बिल्डींग के बागीचे में दीपक के बेटे के साथ गई ...बेटे तो चंद मिनटों में वापिस लौट आया लेकिन मां बहुत देर तक जब न आई तो दीपक भाग कर नीचे गया और वहां गुमसुम बैठी मां को अपने साथ ऊपर ले आया...उस दिन के बाद उन्होंने मां को कभी भी अकेले कहीं जाने भी नहीं दिया और घर में भी उन्हें कभी अकेले नहीं छोड़ा...
जैसे तैसे ईश्वरीय इच्छा के समक्ष नतमस्तक हो कर पूरा परिवार खुशी से रह रहा था। दीपक की बहन ने नया घर लिया था दहिसर में ...उसने कहा कि गृह-प्रवेश के समारोह में सभी को आना है ....दीपक का पूरा परिवार और मां सब बड़ी चाव से गृह-प्रवेश वाले दिन बहन के घर बधाई देने पहुंच गए...मां को तो कुछ समझता नहीं था, वह तो बस दीपक को ही पहचानती थी और दीपक ही से खाना खाती थी..। दीपक को कईं बार लगता कि हम कहावतें तो सुन लेते हैं कि बुज़ुर्ग लोग बिल्कुल बच्चों के जैसे हो जाते हैं ...और अब वह इस बात को अपनी ज़िंदगी में अनुभव कर रहा था ...वह कईं बार कहता कि अब उसे अपनी मां बिल्कुल प्यारी नन्हीं मुन्नी बेटी जैसी ही लगती है ..और यह कहता कहता वह अकसर भावुक हो जाया करता....
हां, तो उस दिन बहन के घर में बहुत से रिश्तेदार भी आए हुए थे ..बहन ने जो नया घर लिया था वह आठवीं मंज़िल पर था .. सब लोग मिलने-जुलने में मसरूफ़ थे, कईं रिश्तेदार तो कितने लंबे अरसे बाद दिख रहे थे, सारे वहीं थे, इसलिए मां की किसी को ख़ास चिंता करने की कोई ज़रूरत महसूस न हुई क्योंकि सभी घर के लोग ही तो थे। अचानक दीपक के बेटे ने पूछा कि दादी, कहां है। बस, दीपक के तो चेहरे का रंग उड़ गया...सारी जगह खोज हुई, आठवीं मंज़िल के दूसरे फ्लैटों में भी देख लिया...टैरेस पर भी हो आए...दीपक बदहवास हुआ पड़ा लिफ्टवाले से भी कईं बार पूछ बैठा कि मां नीचे तो नहीं गई...लिफ्ट वाले ने कहा कि मैं तो साहब अभी आया हूं ....पता नहीं...।
दीपक का पूरा परिवार और बहन का पूरा कुनबा मां की तलाश में लग गए...लेकिन मां कहीं हो तो पता चले....नीचे जा कर सोसायटी का बागीचा, उस के साथ सटे हुए मंदिर में भी देख आए..लेकिन कहीं कोई अता-पता नहीं...घर के आस पास तो हर जगह देख लिया...दीपक का रेलवे में भी रसूख था, इसलिए किसी को कहलवाने से वह स्टेशन पर जाकर सीसीटीवी कैमरों की फुटेज भी देखने लगा ..लेकिन कुछ सुराग नहीं लग रहा था ...सब को लगने लगा कि मां को क्या धरती निगल गई....देखते देखते शाम हो गई...दूसरे स्टेशनों के सीसीटीवी कैमरे के फुटेज से भी कुछ पता नहीं चला....सुबह से शाम हो गई ....सारे परिवार का दिल डूबता जा रहा था ...मां को सिर्फ दीपक के पिता का नाम और माटुंगा याद था, लेकिन इससे होता ही क्या है, ऐसे तो तूड़ी (चारा) के बड़े ढेर में सूईं ढूंढने वाली बात थी, जिस शहर में लोग आंखों से काजल चुरा लेते हैं, ऐसे में मां आठ घंटे से गायब है ..गले में सोने की चैन और हाथों में सोने की चार चूड़ीयां पहन रखी थीं मां ने ... सब मना कर रहे थे कि अब मां की जान की हिफ़ाज़त के लिए यह सब पहनना मुनासिब नहीं ..लेकिन दीपक और उस की बहन जानते थे कि मां को सोने के गहने पहनना कितना पसंद है..इसलिए वह हमेशा गहने तो पहने ही रहती ..वैसे भी दीपक को लगता कि मां को कहीं भी अकेले तो हम भेजते नहीं, ऐसे में कोई ख़तरा नहीं...
दीपक तो बदहवास सा दहिसर की सड़कों की खाक छान रहा था ...बहन अपने पति के साथ दहिसर स्टेशन की जीआरपी चौकी पर रिपोर्ट लिखवाने चली गई...वहां बैठा दारोगा बार बार एक ही बात पूछे जा रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता है कि इतनी बुज़ुर्ग औरत अपने आप आठवीं मंज़िल से नीचे भी आ गई और फिर यहां स्टेशन पर भी आ गई ....बहन ने यही कहा कि स्टेशन का तो हमें नहीं पता, हम लोग आसपास तो सब जगह देख ही चुके हैं ...इसीलिए हम अब हार कर स्टेशन पर आये हैं ....खैर, इंस्पैक्टर ने पूछना शुरू किया कि मां ने पहना क्या था, साड़ी का रंग क्या था, मां का ढील-ढौल कैसा है, कद-काठी कैसी है...पैरों में क्या पहन रखा था.... बहन सब कुछ बता रही थी और वह लिख रहा था .....तभी अचानक क्या हुआ? ...जैसे ही उसने अपना सिर ऊपर उठाया और उस के कमरे के दरवाज़े की तरफ़ उस की नज़र गईं तो वह एक लम्हे के लिए ठिठक सा गया .....अरे!!!!!......और उसने दीपक की बहन की कहा कि पीछे मुड़ के वह देख ले, उस की मां लौट आई है ...
बहन ने पीछे मुड़ कर देखा, एक सिपाही उस का हाथ पकड़ कर उसे इंस्पैक्टर की मेज़ की तरफ़ लेकर आ रहा था ....बेटी मां को गले लगा कर बिलख बिलख कर रोने लगी... लेकिन बेचारी मां को तो कुछ समझ हो, कुछ याद हो तो वह कुछ कहे ...वह वैसे ही गुमसुम सी खड़ी रही, फिर इंस्पैक्टर ने बैठा कर चाय-नाश्ता करवाया और खुशी खुशी विदा किया ....
इस के बाद परिवार में फिर से खुशियां लौट आईं ....सब राजी खुशी रहने लगे ...मां को और भी ख़्याल रखा जाने लगा ..
एक बरस बाद ....
दीपक की बहन और उसकी बेटी स्वाति दहिसर के एक सिनेमा घर में फिल्म देखने गई हुई थीं...सिनेमा ख़त्म होने के बाद जब वे खड़े हुए तो कुछ सीटें छोड़ कर स्वाति की नज़र एक मोबाइल फोन पर पड़ी...उसने उसे उठा लिया ... और मां से कहने लगी कि इसे गेट-कीपर को दे देते हैं....मां के मन में पता नहीं क्या ख्याल आया कि उसने कहा कि नहीं, अपने साथ रख ले, जिस का होगा, उस का फोन आएगा और आकर ले जाएगा....
और वे मोबाइल को लेकर घर लौट आए...तुरंत ही उस फोन पर घंटी बजी...स्वाति ने उठाया ...दूसरी तरफ़ से बात करने वाले इंसान ने अपने खोए हुए फोन के बारे में और कहां पर खोया सब कुछ बताया ....तो स्वाति ने कहा कि हां, वह हमारे पास ही है, आप कभी भी आ कर ले जाइएगा....और उसने अपना पता भी उस कॉल करने वाले को बता दिया। अगले दिन सुबह सुबह जैसे ही एक युवक अपना मोबाइल लेने आया तो दीपक की बहन ने उसे पहचान लिया ...और कहने लगी कि अरे, आप तो वही हैं जो दहिसर चौकी में काम करते हैं...उस युवक ने पूछा कि आपने मुझे पहचान कैसे लिया..
दीपक की बहन ने कहा ...कैसे न पहचानूंगी उस फरिश्ते को जिस की वजह से एक बरस पहले मुझे मेरी खोई हुई मां मिल गई थी, आप ही वह युवक थे जो मां का हाथ पकड़ कर मेरे हाथ में थमा गये थे ...मेरा तो सारा परिवार आप के एहसान के नीचे दबा हुआ है, आप का कर्ज़ मेरे ऊपर उधार है बहुत....और यह कहते कहते उसने मोबाइल उस युवक को लौटा दिया..तब तक स्वाति उस नेक इंसान के लिए चाय-नाश्ता भी लेकर आ चुकी थी...
चाय पीते उस युवक ने इतना तो कह ही दिया ... ताई, आप जिस कर्ज़ की बात कर रही हैं, वह तो आपने चुका दिया मुझे यह मेरा फोन लौटा कर..।
दीपक की बहन से रहा नहीं गया....आँखें भरी हुई, गला रूंधा हुआ ...और कहने लगी...बेटा, जो तुम्हारा कर्ज़ है वह तो मैं कभी ज़िंदगी भर न चुकता कर पाऊंगी, वह तो बहुत भारी कर्ज़ है, इस फोन का क्या है, अगर, बेटा, तुम्हें एक दिन और न मिलता तो तुम दूसरा कहीं से भी राह चलते चलते खरीद लेते ...लेकिन अगर उस दिन तुम ने अपनी ड्यूटी अच्छे से न की होती, एक बदहवास बुज़ुर्ग औरत को प्लेटफार्म पर बैठे हुए अगर तुम्हारी पैनी निगाहें न देख पातीं तो मैं दूसरी मां को कहां से लाती!!
बस, इस के आगे कोई कुछ बोल न सका....सब की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी ....उस युवक के प्रति कृतज्ञता प्रगट करने वाले आंखों से निकलते मोती ....और वह ताई के पांव छू कर चल दिया ....और ताई इसी कर्ज़ के बारे में सोचने लगी जो कभी चुक न पाएगा। कुछ कर्ज़ ऐसे ही रहने ज़रूरी भी होते हैं शायद.....😢
(सच्ची घटनाओं पर आधारित .... नाम बदल दिए हैं...)