सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

स्वर कोकिला लता जी की याद में ....

परसों शनिवार बाद दोपहर मैं कैंप्स कॉर्नर से हाजी अली की तरफ़ जा रहा था...कैंप्स कॉर्नर से पैडर रोड़ लेने लेने की बजाए मैंने बहुत अरसे के बाद वार्डन रोड वाली रोड ली...ब्रीच कैंड़ी अस्पताल के गेट के बाहर 40-50 लोग खड़े थे ...इन्हें देख कर हैरानी हुई क्योंकि इस अस्पताल के बाहर कभी कोई भीड़ इस तरह से जुटी नहीं दिखी...आगे आने पर सोचा कि ये शायद टैक्सी-ऑटो वाले होंगे ...लेकिन ख़्याल लता दीदी का भी आया क्योंकि वह भी तो यहीं पर भर्ती हो कर कोरोना से जंग लड़ रही हैं ...फिर यही लगा कि उन की हालत में तो लगातार सुधार हो रहा है ...मन किया कि वहां रुक कर पता करना चाहिए था...इसी उधेड़बुन में ही हाजी अली चौक आ गया...

कल ऐतवार सुबह जैसे ही उठा तो फोन उठाने ही पता चल गया कि लता दीदी की सेहत खराब है और वे वेंटीलेटर पर चल रही हैं, फ़िक्र हुई ...कुछ ही वक्त बाद वाट्सएप से खबर मिली की लता दीदी तो चल बसीं...देश के करोड़ों लोगों की तरह हमें भी बहुत दुख हुआ ...एक बार तो इच्छा हुई कि उसी वक्त पैडर रोड पहुंच जाएं ...उन के दर्शन कर के आएँ....लेकिन तब तक सूचना भी मिल गई कि उन का पार्थिव शरीर जनता के दर्शन हेतु शिवा जी पार्क में रखा जाएगा और शाम 6.30 बजे उन का अंतिम संस्कार कर दिया जाएगा..

सुबह ही से लता जी के गाए हुए गीत ही रेडियो के विभिन्न चैनलों पर बजते रहे ...और वे अपने साथ यादों के सैलाब लेकर आते रहे ...खैर, पैडर रोड जाऊं या सीधा शिवाजी पार्क यह सोचते सोचते ही दोपहर हो गई ...तब तक पहले पैडर रोड जाने वाली ऑप्शन तो खत्म हो गई ...शाम साढ़े पांच पौने छः बजे के करीब मैं शिवा जी पार्क के लिए निकला...साढ़े छः बजे पहुंच भी गया वहां पर ....लेकिन पता ही नहीं लग रहा था कि अंदर जाने का रास्ता कहां से है ...पुलिस का पूरा कड़क बंदोबस्त था ...किसी ने कहा कि व्ही.आई.पी गेट से ही अंदर जा सकते हैं...वैसे तो मैं किसी भी तरह के VIP कल्चर का घोर विरोधी हूं लेकिन उस गेट की तरफ़ निकल गया ...वैसे तो किसी को भी उस वक्त अंदर नहीं ले रहे थे, सभी लोग बाहर ही खड़े थे ..मैं भी उधर ही खड़ा हो कर उन्हीं लोगों के बीच इंतज़ार करने लगा...यह पता नहीं किस चीज़ का ...वहां से शिवा जी पार्क के अंदर का मंज़र कुछ भी तो नहीं दिख रहा था..




20-30 मिनट हो गये तो कोई ऐसे ही किसी से बात कर रहा था कि किसी दूसरे गेट से लोग अंदर जा रहे हैं...मैं भी उधर तरफ़ निकल गया ..लेकिन मेरे पास अपना आइडेंटिटी कार्ड भी न था, वैसे तो वहां पूछ भी नहीं रहे थे...अंदर जाने से पहले मेटल-डिटेक्टर से सब की जांच हो रही थी...मैं भी कुछ वक्त लाइन में इंतज़ार करने के बाद लता दीदी के पार्थिव शरीर के पास पहुंच गया ...उस वक्त उन्हें राजकीय सम्मान दिया जा रहा था ...

सुबह से ही मेरी इच्छा थी कि स्वर कोकिला लता जी को ऋदांजलि देने तो कैसे भी जाना ही चाहिए ...जिस देवी के गीत सुनते सुनते हम लोग बूढ़े हो गए ...जिन को सुनते सुनते हमारे मां-बाप वाली पीढ़ी तो इस जहां से कूच ही कर गई, और अब तीसरी पीढ़ी उन को सुनते सुनते हैरान होती है कि जब इन का गाया कोई गीत सुनते हैं तो ऐसे लगता है कि उन्हें किसी म्यूज़िक की ज़रूरत ही नहीं है, इतना सुरीला कोयल जैसा स्वर ..गले में सरस्वती मां ने वास ही कर लिया हो जैसे...

डूबते सूरज के साथ आज सुर का एक सूरज भी डूबने वाला था...लेकिन वह अपने गीतों की वजह से अमर हो चुका है ...

दादर स्टेशन के बाहर पहले जैसे भीड़-भड़क्का 

और खरीदारी करने वालों का हुजूम भी वैसा ही ...

दादर(पश्चिम) से जाते वक्त रास्ते में यह प्रतिमा भी दिखाई दी ...🙏

अच्छा, एक बात और भी शेयर करनी है ...जब मैं दादर की तरफ जा रहा था तो रास्ते में देख रहा था कि हर तरफ़ काम पहले की ही तरह चल रहा है ...लोग बीच पर वैसे ही इक्ट्ठे हुए हैं, अड्डेबाजी वैसे ही चल रही है, दादर स्टेशन के बाहर पहले जैसे भीड़-भड़क्का है ..सब कुछ पहले जैसा चल रहा है ...इतनी बड़ी हस्ती आज हमारे बीच में से उठ गई जिस का हमारे ज़िंदा रहने को ज़िंदगी बनाने में इतना बड़ा योगदान है ...

यह बात इस बात का रिमांइडर भी है कि जाना तो सब ने है ...कोई आगे कोई पीछे...हम हैं कि दुनियावी चीज़ों के चक्कर में अपना दिमाग खराब किए रहते हैं...किसी से ढंग से पेश नहीं आते, हमारा व्यवहार कईं बार ऐसा होता है कि अगर किसी को कोई काम न हो हम से तो कोई हम से बात ही न करना चाहे, चेहरों पर भद्दी त्योरियां चढ़ी हुई हर वक्त, लोगों के साथ गेम खेलते हैं, किसी को नीचा किसी को ऊंचा दिखाने के चक्कर में अपनी ज़िंदगी रोल देते हैं, चापलूसी, चुगलखोरी, ईर्ष्या, नफ़रत, घमंड, अहम्....अभी तो इतना कुछ ही याद आ रहा है, बाकी का फिर कभी याद कर के लिख लेंगे ...इतनी भी क्या जल्दी, जब जीना है बरसों... ऐसे मौके पर हाज़िर होकर इंसान को अपने अंदर भी झांकने को एक मौका मिलता है कि अगर हश्र सभी का यही है तो क्या जो यह इतने हम रोज़ खेल खेलते हैं उन से क्या हासिल!!

ऐसे वक्त पर हमें अपने नश्वर होने का आभास होता है ..इतने इतने नामचीन, महान हस्तियां हमारे बीच में से उठ गईं ...जाना सब को है...लेकिन वह सफ़र कैसा है, यही बात अहम् है...क्या हम खुश रह पाए और दूसरों को खुशियां बांट पाए....लता जी ने तो ज़िंदगी भर खुशियां ही बांटी ...मेरी मां की उम्र थीं लता जी ...मुझे पक्के से याद है जब लता जी के 75 साल के होने के जश्न की खबर आ रही थीं तो मेरी मां ने उन्हें देख कर कहा था ...देख, प्रवीण, लता मंगेश्कर अभी भी कितनी अच्छी लगती हैं....इतनी उम्र की होने के बाद भी। मैंने कहा था कि बीजी, आप भी बहुत अच्छी लगती हैं ...और फिर हम हंसने लगे थे ..मां चार साल पहले छोड़ गई थीं, लता जी भी कल चली गईं ...

जब इस देवी की चिता चल रही थी तो यह गीत बज रहा था ...बेहद भावुक 

शेष अगली पोस्ट में .....🙏

शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

रूत आ गई रे ...रूत छा गई रे ...

अब तो ऐसा लगता है त्योहार फिल्मी गीतों तक ही सिमट कर रह गये हों जैसे ...इस बार ही क्या, हर बार ही ऐसा ही होने लगा है ...13 जनवरी को लोहड़ी थी, उत्तर भारत का ख़ास त्योहार ..उस दिन भी किसी के वाट्सएप मैसेज आ गये ...वही ...सुंदर मुंदरीए...तेरा कौन ग्वाचा...., एक गीत जो बच्चे समूह में गाते हैं किसी के घर में जाकर और लोहड़ी लेकर आते हैं ...लोहड़ी मिलने का मतलब आज से 40 साल पहले ही खाने की अच्छी अच्छी चीज़ें मिलना खत्म हो गया था..बच्चे भी मूंगफली, रेवड़ी, भुना हुआ मक्का मिलने पर नाक मुंह बनाने लगे थे ...बस, तब से ही लोहड़ी का मतलब पैेसे देना-लेना हो गया...वक्त वक्त की बात है, वे भी क्या करें..हर कोई अपनी जगह पर ठीक है ...

मुझे याद है हम लोग स्कूल में भी थे तो भी लोहड़ी के दिन अकसर छुट्टी तो नहीं होती थी ..लेकिन मास्टर साहब मूंगफली-रेवड़ीयां मंगवा लेते थे जिन्हें हम सब मिल कर खाते थे...फिर कालेज में भी यही होता था ...बड़े हो गये थे तो बड़ी बड़ी लकड़ियों को आग भी लगाई जाती थी ...जिसे लोहड़ी जलाना कहते हैं...साथ में वही गाना बजाना और उछल कूद नाच चलता था पंजाबी गीतों पर ...उसी दौर का एक गीत मुझे बडे अच्छे से याद आ रहा है, अभी ढूंढता हूं और आप तक पहुंचाता हूं ...😄 

इस में एक मुटियार अपने चाहने वाले गभरू को कह रही है कि मेरे पीछे आते वक्त मेरा लौंग ढूंढते हुए आना...जो गुम हो गया है ..(महिलाएं नाक में जो छोटा सा चमकने वाला नोज़-पिन पहनती हैं उसे पंजाबी में लौंग कहते हैं...😎)

घरों में भी वैसे ही लकड़ीयों और उपलों का ढेर लगा कर उन में आग लगाई जाती, मूंगफली रेवड़ी उस आग में भी डाली जातीं ...और बस हो गई पूजा...फिर मोहल्ले में जिन घरों में नई बहू आई होती या जिस घर में किसी शिशु की किलकारीयां पिछली लोहड़ी के बाद गूंजी होतीं...उन के घर विशेष रूप से यह लोहड़ी का जश्न मनाया जाता ...प्रीति भोज भी होता..और वही खाना-बजाना...लिखते लिखते मुझे लोहड़ी के मौसम की एक खास सौगात याद आ गई ...वह अमृतसर में कईं दिनों तक बिकती रहती है सर्दी के मौसम में ...खोये से बनी हुई बेहतरीन मिठाई उस में किशमिश पड़ी रहती थी ...हमें भी अच्छी लगती थी लेकिन मेरी बड़ी बहन तो भुग्गे की दीवानी हैं ...इसलिए मेरे पिता जी उन दिनों खास तौर पर भुग्गे को लाना कभी न भूलते ....यादें भी क्या हैं ..कहां से कहां ले जाती हैं....

हां जी, अगर लोहडी का पर्व मुकम्मल हो गया हो तो आगे बसंत की तरफ़ चलें...उसे भी मना कर छुट्टी करें ....

बचपन में बसंत ऋतु से जुड़ी यादें भी कम हैं क्या, पीले कपड़े पहनो जहां तक हो सके, पीले रंग के मीठे चाव खाते थे ...पतंगबाजी देखते थे क्योंकि मुझे मेरी तमाम कोशिशों के बाद पतंग उड़ाना आया ही नहीं, मैं बताने लगूंगा तो गिनते गिनते थक जाएंगे...मैं बहुत से मामलों में बहुत फिसड्डी रहा हूं और आज भी हूं ...यह तो वही बात है कि पढ़ने में बहुत अच्छा रहा ...इसलिए नौकरी मिल गई ...बहुत सी बातें ढंक गई उस से ..ताश मुझे नहीं आती पत्ते पर पत्ते वाली गेम के सिवाए....देखिए, अब मैं गिनाने लगा तो मुझे कुछ भी लिखने के लिए समझ ही नहीं आ रहा .... समझ गए न आप!! 

कोई कोई बात जैसे हम लोगों की यादें के शिलालेख पर खुद ही जाती हैं ...लोहड़ी पर कड़ाके की ठंड होती थी, ठिठुरते ठिठुरते जब उस अलाव के आस पास बैठे होते तो मां यह बात ज़रूर छेड देती ...बस, हुन तो ठंड थोडेयां दिनां दी ए...बस लोहड़ी गई ते बसंत आई ...बस, आई बसंत ते पाला हडंत .... (बस, अब सर्दी के दिन गिने-चुने ही हैं, लोहड़ी गई तो बसंत भी आई समझो ...और बस, बसंत आई तो समझो सर्दीयां चली गईं...) हमें सुनते सुनते लगता था कि अपनी बीजी कोई जादूगरनी तो नहीं, कितनी आसानी से मौसम खुशनुमा होने की आस बंधा देती हैं...हमारे बालमन को उस वक्त लगता जैसे ठंडी उसी वक्त कम हो गई है ...शायद मां की गर्म बातों का असर होगा ...पसीना सा आने लगता ...बहुत दिलेर थी मां, पाज़िटिविटी की चट्टान, ऐसे ही हरेक को ढाढस बंधाए रहतीं.. 

खैर, फिर मैं कहीं भटक गया ...त्योहार के मौसम में ...हां जी, एक फिल्म आई थी ..Earth 1947 ...उस का एक गीत पतंगबाजी करते वक्त फिल्माया गया है, मुझे सारी फिल्म से कहीं ज़्यादा वह गीत और उस का म्यूजिक पसंद है ....पतंगबाजी हम देखते ज़रूर ...आई बो ...आई बो ....(मतलब पेचा लगाते लगाते किसी कूी पतंग कट गई ) की आवाजें ....शोरगुल, ह्ल्ला-गुल्ला, सब छत पर चडे हुए ,.छत के बन्ने हैं या नहीं, बच्चों को कोई परवाह नहीं, इसलिए बहुत बार बच्चे छत से गिर भी जाते ...फिर कुछ हादसे चाईनीज़ डोर की वजह से भी होने लगे ....किसी का मुंह कट रहा है, और किसी का गला ...पर अभी भी इस पर कोई रोक नहीं है, लोग घायल होते रहते हैं लेकिन जो इस्तेमाल करते हैं वो ही नहीं, राह चलते दो पहिया वाहनों वाले भी जिन के मुंह के साथ कटी हुई पतंग की डोर उलझ गई और काट दिया चेहरा .....इलाज करवाते रहो, रंग में डल गया भंग...

लिखते लिखते कछ ख्याल आ जाते हैं बहुत अरसे के बाद ...अभी मैंने डोर लिखा तो मुझे डोर फिल्म का एक बेहद सुंदर गीत याद आ गया जिसे मैं किसी ज़माने में बार बार सुना करता था...आज भी बसंत पंचमी के दिन ज़रूर सुनना चाहिए...

मुझे यह फिल्म डोर और इस का यह गीत बहुत ज़्यादा पसंद है...फिल्म की कहानी बड़ी भी बडी मासूम सी थी और विचारोत्तेजक भी...सोचने पर मजबूर करने वाली ..कभी मौका मिला तो देखिएगा ज़रूर ... 

बड़ी बहन के आशीर्वाद की पाती ...

चलिए जी, हो गई अब बसंत भी ...एक और बसंत गुज़र गया ढींग मारने के लिए, अपनी बात का सिक्का मनवाने के लिए ...कि हम ने तो भई इतने बसंत देखे हैं ,...तुम ने तो अभी देखा ही क्या है । असल बात यह है कि मुझे तो इस बात का पता ही न चलता कि आज बसंत है अगर मेरी बहन का मुझे यह संदेश न पुहंचा होता ...बहुत बहुत शुक्रिया विनोद दीदी आप का...वैसे मेरे जैसे बंदे के लिए जो बंबई में रह रहा हो उस के लिए बसंत का इतना ही मतलब है कि आप सब के साथ पुरानी यादें हरी भरी कर लीं फिर से ...और अभी जो बसंत रूत का जो गीत सुनाऊंगा वह सुन कर आप भी मस्त हो जाएंगे ... एक बात और, आज हमारे एक साथी ने, डा पाल साहब (निहायत नेक इंसान हैं ...) ने बसंती रंग की बहुत अच्छी लिनिन की कमीज़ पहनी हुई थी ...उन की कमीज़ देख कर भी मेरी ट्यबलाईट की बत्ती न जली तो अपने आप को क्या कहूं ...

चलिए, कोई बात नहीं ...जैसा देश वैसा भेष,,,,कहने का मतलब यही है कि मुंबई जैसे महानगरों में कहां लोग जलाएं लोहड़ी , और कहां करें पतंगबाजी....और वैसे भी लोहड़ी जलाने के लिए वैसी हाड़ तोड़ने वाली सर्दी भी तो चाहिए...लेकिन एक बात बताऊं इस बार पिछले दिनों बंबई में बहुत ठंड पड़ी ....मैं भी रात में रज़ाई लेकर, मोजे पहन कर ...और सिर पर मंकी-कैप डाल कर सोया कुछ दिन तो ...क्या करूं, मेरे सिर को थोड़ी भी ठंड लगती है तो दुखने लगता है ... लेकिन एक बात है बंबई की कि लोग यहां अपने हिस्से से भी ज़्यादा जीना जानते हैं ..त्यौहार तो इलाकों के हिसाब से होते हैं ..कुछ उत्तर भारत के, कुछ दक्खन के, कुछ पूरब के और कुछ पश्चिम में .....देश की यह  विविधता ही सब से बड़ी खूबी है ...है कि नहीं........और वैसे बंबई वाले के लिए त्यौहार ? --- यहां तो भई हर रोज़ त्योहार है, किसी भी माल में, किसी भी बीच पर चले जाइए.....हर तरफ़ मेले लगे हुए लगते हैं ....बुरी नज़र न लगे इन मेलों को ...लगभग दो साल के बाद दो तीन दिन से लोग खुल कर बाहर निकल कर जश्न मना रहे हैं ....यहां हर दिन एक जश्न है ...सारा दिन मेहनत-मशक्कत करने के बाद, काम धंधा जमा कर, जब कोई बंदा घर सही सलामत लौट आया हो तो यह भी एक परिवार के लिए जश्न जैसी बात ही है, दोस्तो .... 

Earth 1947 का यह गीत बहुत पापुलर हुआ ...और नंदिता दास के अभिनय के तो क्या कहने! लाजवाब...👍

पैकेजिंग, मार्केटिंग पर ही हम फ़िदा हुए पड़े हैं..

कल रात आलू के परांठे खाने की इच्छा हुई तो दो बहुत ही मशहूर दुकानों से ये मंगवाए गए ..क्योंकि एक दुकानदार दही के साथ देता है और दूसरा चने के साथ ...लेकिन इतने बेकार, कच्चे-पक्के परांठे मैंने ज़िंदगी में कभी नहीं खाए...( कल रात इन्हें जैसे तैसे खा लिया क्योंकि मुझे पता है ये बहुत महंगी जगह से मंगवाए गये थे 😂-) दो तीन बार जब मैंने बाहर खाने की कोशिश की तो काट छांट के ही खाए होंगे ..लेकिन वह भी परेशान हो हो कर ..क्योंकि पता नहीं हमें हमारी मां (सब की मां खाने-पिलाने में एक जैसी होती हैं) ने बचपन से इतना बढ़िया खिलाया सब कुछ ...अंगीठी और स्टोव वाले दौर में भी ...पसीने से तरबतर होते हुए भी ....और बीच बीच में कभी कभी बड़ी बहन ने भी ऐसा खाना खिला दिया है कि उस स्तर तक हमारी श्रीमति जी ही पहुंच पाती हैं अकसर ....मां तो एक एक परांठे को पूरा वक्त लगा कर ..दबा दबा कर ऐसा अच्छे से सेंक कर देती कि रूह खुश हो जाती ...पता नहीं इतना सब्र कहां से ले आती थी ...मां कहीं भी जाती दो दिन से ज़्यादा न टिकती ...कल ही मेरी बहन फोन पर याद कर रही थी कि बिल्ले, बीजी मेरे पास यहां अगर आ भी जाते तो दो दिन ही सही से टिकते, फिर वही रट लगाने लगते कि विनोद, मेरी वापिसी की सीट करवा दे ..मेरा मन उदास हो रहा है ...😎😂 साथ में हंस भी रही थी यह बात सुनाते सुनाते ....

चलिए, मांएं तो ऐसी ही होती हैं...कुलदीप मानक का यह गीत पंजाब का सुपर-डुपर गीत है भाईयो....इसे सुनने से मन हल्का हो जाता है ..आंखे भी भीग जाएं तो भीग जाने दो....कभी कभी आंखों की इस तरह की सफ़ाई भी ठीक होती है ...इसे सुनने समझने के लिए आप को पंजाबी भाषा का ज्ञान होना कतई ज़रूरी नहीं है, वह इतने दिल से गा रहे हैं कि आप सब कुछ समझ जाएंगे...

हां, तो आलू के जिन परांठों का मैंने ज़िक्र किया जिन को मैंने खाया ...उन को खाने के बाद मुझे डर ही लगा रहा कि कहीं गैस की वजह से मेरा सिर ही न दुखने लग जाए ...मैं इस बीमारी से बड़ा डरता हूं ...लेकिन, नहीं, भगवान की कृपा रही ...रात में दो-तीन बार उठना पड़ा लेकिन वह तो मच्छरों की वजह से ...लेकिन जिस तरह से उन परांठों की, दही और चने की पैकिंग थी ...उस के क्या कहने...पैकिंग देखते ही किसी बंदे के पेट में चूहे जॉगिंग करने लगें ....खैर, मैंने तो बता दिया कि मैं तो कईं बार किसी हाटेल में आलू के परांठे आने पर उस का एक निवाला चखने पर भी उसे छोड़ देता हूं ..नहीं खाया जाता, क्योंकि मां ऩे और अमृतसर ने इतना बढि़या खिला दिया है कि अब श्रीमति जी और कभी कभी मिलने पर बड़ी बहन के परांठे ही मन भाते हैं...ईश्वर इन्हें सलामत रखे ...इतनी मेहनत करती हैं खाना बनाने में कि खाने वाले को शर्म आने लगे ...सच में 😂....जब कुछ समय के लिए मैं अमृतसर होस्टल में रहा तो भी हमारा एक पहाड़ी मेस मैनेजर बहुत बढ़िया आलू के परांठे बनवाता था ...कोई सिरदर्दी नहीं कि यह यहां से कच्चा है, यह वहां से अधपका है ...चलिए, परांठों को यहां छोड़े ....आगे चलते हैं...बस, ऐसे ही आज कल तो ऊंची दुकान, फीका पकवान वाली बात मालूम पड़ती है ...

सुबह सुबह चाय के साथ ही इसे खा-फुट लिया है, बाद में डिप्रेशन होने लगती है ...

आज लेट उठा ..चाय पीते वक्त पास ही एक अमूल का कोकोनट कुकीज़ का पैकेट दिख गया ... सुबह चाय के साथ दो बिस्कुट ही लेता हूं ... इस से ज़्यादा कहां इच्छा ही होती है ...लेकिन यह कैसी पैकिंग थी इस बिस्कुट के पैकेट की ...खोलते ही इस का तो पूरा ही लंगार ही खुल गया ...अब क्या करे कोई ....कितनी बार क्या, अनगिनत बार होता है खास कर जब कभी टैव्लिंग कर रहे होते हैं कि कुछ खाने-पीने की चीज़ खरीद लेते हैं , और उसे खोलते ही वह ऐसे खुलती है कि फिर लगता है कि इस को खत्म कर के ही सांस लें....कहां इसे संभालते फिरेंगे ...आज जो कोकोनुट कुकीज़ का पैकेट खोला तो न चाहते हुए भी वे 6-7 बिस्कुट जबरदस्ती चाय में डुबो डुबो कर हड़प लिए ....लेकिन बाद में मन खराब तो होता ही है कि मैं अपनी सेहत के साथ क्यों यह सब खिलवाड़ कर रहा हूं ...इस चक्कर में कि बिस्कुट का पैकेट खुल गया है, इसे संभालना मुश्किल है, कहीं भी रखो, नमी पकड़ लेते हैं ...चलो, पेट में ही डाल कर इस नमी वाली टेंशन से तो फारिग हो लें....

कंपनी सफल रही, अपनी पैकेजिंग की वजह से ...यह तो एक अदद उदाहरण थी ...दिन भर में अनेकों मिसालें दिख जाएंगी हम को ...मैं कईं बार हंसता यह याद कर के कि बचपन में कालगेट कैसे एक लोहे की ट्यूब में आती थी और उस के साथ एक लोहे की चाबी सी भी आती थी ..जो उस के एक तरफ़ लगा कर सलीके से ट्यूब निकालते थे ...वह चाबी कभी इस्तेमाल की तो नहीं..लेकिन हां, जब ट्यूब खत्म होने की कगार पर होती तो उस के एक सिरे को उस चाबी की मदद से मरोड़ना पड़ता था, और कईं बार तो उस पर पत्थर मार पर भी टूयब निकालना याद है ..क्योंकि तब आज जैसा व्यवस्था और सुविधा नहीं थी कि राशन चाहे रोज़ मंगवाओ, चाहे दिन में चार बार मंगवाओ...अभी कही ंसे सर्फ आ रहा है, कहीं से चाय पत्ती ....पहले तो महीने की शुरुआत में घर में जो राशन आता था ...उस का मतलब सारा महीना उसी से काम चलाना होता था ...क्योंकि उस के अलावा राशन का कुछ अलग से बजट न होता था ..ऐसे में 29 या तीस तारीख को कालगेट खत्म होने पर या तो नमक-तेल इस्तेमाल करो....या फिर वही पत्थर उठा कर, पेस्ट को ईंट पर रख कर ...निकाल तो अगर थोड़ी बहुत निकलती है तो ..और बाद में शायद घर के सामने से जो पतीसे वाला निकलता था वह उस टूटी-मुड़ी हुई टूयब को लेकर कुछ पतीसा भी दे देता था ...मैंने यह सब आपबीती - आपबीती भी नहीं, लगभग सब लोगों का हाल तो यही था, लेकिन कुछ लोग मुंह नहीं खोलते, चलिए, नहीं खोलते तो न खोलें, उन की चुप्पी उन्हें मुबारक.....लेकिन आज की टुथपेस्टों की पैकेजिंग देखिए....बस उन से ब्लू-टुथ से ही पेस्ट निकलने की कमी है...वरना उन को हाथ लगाते ही पेस्ट जैसे अपने आप बाहर निकलने लगती है और ऊपर से इन पेस्टों का नोज़ल इतना बड़ा करते जा रहे हैं कि कंपनी चाहती है कि कमबख्तो, छोड़ो अब इस की जान निकालोगे ...जल्दी जल्दी टूयब भी नईं ले लिया करो...तुम लोगों ने कौन सा अब बाज़ार जा कर किराने की दुकान पर इंतज़ार करना है, मैसेज करना है और सामान हाजिर हो जाएगा...

पेस्ट ही क्यों, बॉथरूम में पडी 15-20 शीशीयों की तरफ़ नज़र दौडाता हूं तो हर तरफ़ मार्केटिंग के जलवे दिखाई देते हैं, हमारे वक्त में गुसलखानों में एक देसी, एक अंग्रज़ी और सरसों के तेल की एक कुप्पी और झांवा होता था, पैर रगड़ने के लिए...लेकिन अब तो समझ में ही नहीं आता...हर तरफ तरह के वॉश, कंडीशनर, शैंपू...कईं बार लगता है कि हम भी वक्त से पहले ही इस संसार में आ गए...आज के दौर में आते तो बात ही कुछ और होती ..हम लोगों ने तो लाइफब्वाउ और रेक्सोना के आगे कभी कुछ सोचा ही न था...सीकरी की वजह से कभी घर में टाटा का शैंपू आ भी जाता तो पड़ोसियों तक को खबर होती कि इन के यहां तो शैंपू इस्तेमाल होता है ...हां, तो बात लंबी खिंच गई ....बात यही है कि ये गुसलखाने में अनेकों चीज़े धरी पड़ी होती हैं इन की पैकेजिंग भी ऐसी होती हैं कि इन्हें जल्द से जल्द खत्म करो ...और आगे बढ़ो और हर रोज़ कुछ नया ले कर आओ ...और इन गुसलखानों की शोभा बढाओ....वैसलीन तक जो कि हमें उंगली टेढ़ी कर के निकालनी पड़ती थी, वह भी लोशन की शक्ल में आने लगी है ...दो बूंद चाहिए होती है और लेकिन बोतल को दबाते ही चम्मच भर बाहर आ जाती है ....उस वक्त माथा पीटने की इच्छा होती है कि अब इस का करें तो क्या करें, टोस्ट पर लगा लें क्या ....😎

हर तरफ मार्केटिंग का बोलबाला है ...पैकेजिंग पर जो़र है ...इतना ज़्यादा कि खामखां की शोशेबाजी में सब रमे हुए हैं ...लेकिन कोई फायदा नहीं इन चोंचलों का ....Keep it short and sweet, stupid ...वाली बात अकसर याद आ जाती है .... दवाईयों के मामले में भी इतनी गंदगी है और मैं पिछले 20 साल से .(.जब से यह जैनरिक और ब्रांडे़ड की नौटंकी शुरू हुुई है) ..मैंने इन विषयों पर खूब लिखा ..लेकिन मुझे आज तक यह समझ नहीं आई कि कैमिस्ट की दुकान पर जो हमें दवाई बिक रही है ..वह ब्रेंडेड है या जैनरिक ..क्योंकि इन दोनों में ज़मीन आसमान का फर्क है ...कुछ दवाईयों पर दाम अगर लिखा है 100 रूपये है तो वह अपने किसी खास को 17 रूपये की दे देगा ...और गरीब मज़दूर उसी दवाई को पूरे 100 रुपये में लेकर जाएगा....इन दवाईयों में भी बहुत गोरखधंधा है ...इतना बडा धंधा है कि लिखते हुए भी डर लगता है क्योंकि यह इतना बड़ा माफिया है कि इन के लिए किसी भी ज़्यादा बोलने वाले का मुंह हमेशा के लिए बंद करना कोई बड़ी बात नहीं है ....ठीक है, सरकार ने जन औषधि केन्द्र खोल रखे हैं...लेकिन वहां तक अकसर ज़रूरतमंद पहुंच ही नहीं पाते ...एक तो अनपढ़ता इतनी है, ऊपर से दूसरे तरह के दबाव.....जिन के बारे में आप मुझ से बेहतर जानते हैं....ऐसे ही अनजान बनने का नाटक मत करिए....मैं काफ़ी कुछ चेहरों से भांप लेता हूं .. 😎... बंद चिट्ठी में लिखी बात पढ़ लेता हूं ...ओह, मैं भी सुबह सुबह कैसी कैसी ढींग मारने लग गया ...इसलिए अभी इसी वक्त यह पोस्ट बंद करने का वक्त है ... 

दुनिया से जाने वाले ...जाने चले जाते हैं कहां ...स्मिता पाटिल एक बेहतरीन अदाकारा, नेक इंसान...इन के चले जाने का हमें बहुत दुःख हुआ था ...इन की स्मृति को सादर नमन ....कुछ लोग हर तरफ़ से तारीफ़ें ही बटोरते हैं, स्मिता पाटिल भी ऐसी ही थीं...