मंगलवार, 9 नवंबर 2021

इंसान तो इंसान, जानवरों से भी इतना प्यार...

ToI 8.11.21

 कल का अख़बार अभी देख रहा था तो टाइम्स ऑफ इंडिया की इस ख़बर पर नज़र पड़ गईं...हैरानी यह हुई कि पेज़ थ्री पर नहीं, टाइम्स जैसे अख़बार ने पेज़ दो पर इसे छाप दिया...हैं कुछ लोग जो जानवरों से भी इंसानों की तरह ही मुहब्बत करते हैं, वरना यह कायनात चल न पाती। यहां पर हरामी से हरामी और मेहरबान से मेहरबान लोग भरे पड़े हैं...

जानवरों से प्यार से पेश आने वाली बात पर मुझे यह बात याद आ गई कि जब हम लोगों को इंसानों से ही पेश आने की तहज़ीब नहीं है तो जानवर किस खेत की मूली हैं...मैंने जितनी भी पढ़ाई की या नहीं है, जितनी भी किताबों में टक्करें मारी हैं या नहीं मारी हैं, जितने भी सत्संगों में जाकर पाखंड भोरे हैं ...(मेरा मन कभी भी सत्संग में न तो लगता था, न ही कभी लगता है ...बस, मैं अपनी मां की खुशी के लिए उन के साथ रविवार के दिन ज़रूर जाता था...और मन ही मन कुढ़ता भी रहता था कि यार, इस काम के चक्कर में सारी छुट्टी .....लग गई (फिल इन दॉ ब्लैंक्स कर लीजिए, जो पंजाबी जानते हैं😎)....कईं बार मां को कह भी देता कि बीजी, मेरा दिल नहीं करता, बस, चला जाता हूं क्योंकि आप को वहां ले कर जाने वाला कोई नहीं है....वह भी संजीदा हो कर कह देती कि बिल्ले, दिल नहीं करदा जेकर, तू न जाया कर, मैं तां घर बैठ के वी रब दा ना लै लैनी हां...!!) लेकिन जब तक मां की सेहत ठीक थी, हम दोनों सत्संग चले ही जाते थे...(मेरा मन बिल्कुल भी न होते हुए...). 

क्यों चिढ़ है मुझे इन पाखंडों से, बाहरी दिखावे से, अपने आप को दूसरे से बेहतर समझने की आदत से, ऐवें ही भोरी च रहन ते....क्योंकि सब बातों का सार तो एक ही है कि हम किसी को पैसा नहीं भी दे सकते न दें, और किसी की कोई सहायता करने में सक्षम नहीं हैं तो न करें, कोई जबरदस्ती नहीं चल सकती ....लेकिन ज़िंदगी का केवल एक फंड़ा होना चाहिए कि हर बंदे के साथ बातचीत ऐसे करें जैसे कि मेरे मां-बाप कहा करते थे और वे ऐसे ही थे कि जैसे बात करते करते किसी के पेट में घुस जाए बंदा...इतनी सादगी, इतनी विनम्रता, इतनी झुकाव हो ..सामने वाले बंदे के बौद्धिक स्तर को देख कर उस तक पहुंच कर बात की जाए...उसे किसी भी तरह से उस की कमज़ोर या विषम परिस्थिति का अहसास होने देना ही कम्यूनिकेशन की एक बहुत बड़ी त्रासदी है ...मैं ऐसा समझता हूं ...अमूमन मैं किसी के साथ आपा नहीं खोता....ड्यूटी पर कभी किसी के साथ ऊंची आवाज़ में बात हो भी जाए तो मैं जब तक उस के खेद प्रकट न कर दूं ..मुझे चैन नहीं आता...

मैंने कहीं यह भी पढ़ा था कि किसी जेंटलमेन की निशानी क्या है ...(कहीं मैं भी तो अपने आप को कोई जेंटलमेन नहीं समझ रहा (नहीं, नहीं, मुझे अपनी औकात पता है)। उस में लिखा था कि कोई इंसान जेंटलमेन है या नहीं, इस का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जो जेंटलमेन होगा वह उस व्यक्ति से भी बहुत अच्छे तरीके से पेश आएगा जिस के साथ उस का कोई वास्ता नहीं है और जो किसी भी तरह से उसे नुकसान पहुंचाने के क़ाबिल नहीं है.....मुझे यह बात बेहद पसंद आई...फिर मैंने देखा कि हम डरते हैं उन लोगों से जो हमें नुकसान पहुंचाने की स्थिति में हैं, उन से तो पेश आते हैं, कमबख्त इतना झुक जाते हैं जैसे रब ने रीड़ दी ही नहीं, बातों में इतनी मिठास घोल देते हैं कि सुनने वाले को सुन कर ही डॉयबीटीज़ हो जाए... लेकिन जो लोग हमें लगता है, हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, हम उन के साथ ठीक से पेश भी नहीं आते...अमूमन मैंने ऐसा देखा है, शायद मेरे देखने में नुक्स हो (वैसे आंखों की जांच कुछ महीने करवाई तो थी) ..लेकिन जो दिखता है वही लिखता हूं ...और यह भी यहां जोड़ दूं कि उस लिहाज से मैं भी कोई जेंटलमेन कतई नहीं हूं....लेकिन हां, मुझे अपने अल्फ़ाज़ का पूरा ख़्याल रहता है, कभी ये इधर हो जाएं तो फ़ौरन इन्हें सुधार लेता हूं ...और बहुत बार माफ़ी मांगने से भी गुरेज़ नहीं करता ...(उन से भी जो किसी तरह से मेरा नुकसान कर पाने की स्थिति में नहीं हैं...) ...तो क्या ये बातें मुझे जेंटलमैन की श्रेणी में ले आती हैं?...नहीं भाई नहीं..)

यहां पर हम लोग इंसानों से ढंग से पेश आने की बात कर रहे हैं, दुनिया में लोग परे से परे पड़े हैं....एक पंजाबी गीत का ख्याल आ गया है, उसे नीचे लगा दूंगा..पंजाबी तो वैसे सब ही समझ लेते हैं, नहीं समझ सकते तो भी लगा दूंगा ..क्योंकि मैं उसे एक ज़रूरी खुराक की तरह सुन लेता हूं जब भी मुझे कुलदीप मानक  की याद आती है ...वह इस गीत में कहते हैं कि दुनिया में लोग परे से परे पड़े हैं, बेवकूफ इंसान तू किस भ्रम में जी रहा है ...)....मुझे भी यह बहुत ज़रूरी लगता है कि किताबी ज्ञान के साथ साथ झुकना, विनम्रता होना भी बेहद....बेहद...बेहद ज़रूरी है ...मैं जब भी कभी ऐसे लोगों से बात करता हूं मुझे लगता है मैं फरिश्तों से बात कर रहा हूं...

पंजाबी में एक बड़ी पापुलर कहावत है जो बचपन से हम लोग घर में अकसर सुना करते थे ...हमारी ज़ुबान ही है जो हमें हम चाहें तो हमें राजा बना दे, और यही ज़ुबान हम अगर ख़्याल न करें तो छित्तर भी पड़वा सकती है...बिल्कुल सही बात है ...बस, सारा लफ़्ज़ों का ही फेर है ....सब के पास वही हैं, किन को कहां इस्तेमाल करना है, और कैसे इस्तेमाल करना है...ज़िदंगी का यही फ़लसफ़ा है ...क्यों होता है कि कुछ लोगों के साथ आप का बार बार बात करने को दिल करता है और कुछ लोगों को आप एवॉयड करते हो ....सोचने वाली बात है...

इंसान तो इंसान , कुछ लोगों को जब रास्ते पर चल रहे जानवरों से भी इतनी मुहब्बत करते हैं तो मेरी आंखें टपके न भी सही, भीग तो जाती ही हैं और जब मैं ऐसे लोगों को देखता हूं मुझे लगता है मैंने कोई फरिश्ता देख लिया हो....मैं एक ऐसी ही महिला की बात कर रहा हूं ...उस की उम्र यही कोई ६० के करीब होगी...सुबह अकसर देखता हूं वह अपने कंधों पर कैट-फूड (बिल्लीयों का खाना) और पानी लेकर निकलती है ...और जगह जगह उस की इंतज़ार में बैठी बिल्लीयों को छोटी छोटी कटोरियों में ऐसे खाना परोसती हैं जितना आज के मशीनी दौर में कुछ औरतें भी अपने बच्चों को न दे पाती होंगी ...(नौकरी के चक्कर में या अनेकों और व्यस्तताओं के रहते ) ....फिर जब वे उस खाने को खा रही होती हैं तो उन दस-पंद्रह बिल्लीयों को सहला कर प्यार करती है, बिना किसी जल्दबाजी के उन का खाना फ़िनिश होने का इंतज़ार करती है....इस महिला को दूर से तकना ही मुझे किसी देवी को तकने जैसा लगता है ...मैं फोटो खींचने का शैदाई तो हूं लेकिन मैंने कभी इन के इन ख़ुशनुमा पलों को कैमरे में कैद करने की बेवकूफ़ी नहीं की....मुझे लगता है कि यह अगर करूंगा तो बहुत घटिया काम हो जाएगा....या तो यह कांसिएस हो जाएंगी, शायद बिल्लीयों के खाने में ही खलल पड़ जाए...बस, इस तरह की बातें सोच कर मैं यह गुस्ताखी नहीं करता ....एक साल पहले जब यह दो तीन बिल्लीयों को खाना खिला रही थीं, और इन की पीठ मेरी तरफ़ थी, उस दिन एक फोटो ज़रूर खींची थी...एक रिमाइंडर के तौर पर कि ऐसे लोग भी हैं....) 

इसी बात पर मुझे निदा फ़ाज़ली साहब की नसीहत याद आ गई....

बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं...

फूलों से तितलियों को न उड़ाया जाए...!!

मैंने ज़िंदगी को बंद कमरों में नहीं, बाहर निकल कर जिया है, देखा है...इसलिेए मेरे पास इस तरह के बहुत से वाक्यात हैं बताने के लिए...लेकिन बहुत बार कुछ लिखने का मन ही नहीं होता...क्या करें..इस पोस्ट को शुरू तो कर लिया है लेकिन लगता है बेकार की बातें लिख दी हैं, लेकिन जो लिख दिया है, अपनी ही डॉयरी से उसे डिलीट क्या करना...पड़ा रहने देते हैं...

कम्यूनिकेशन इतना बड़ा मौज़ू है मुझे नहीं पता था...१९९२ में मैं टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेस में जब हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन की पढ़ाई कर रहा था तो हमारा एक विषय था कम्यूनिकेशन....जो हमें एक साल तक पढ़ाया गया...तीस साल की उम्र थी मेरी और मुझे यह अफ़सोस हुआ कि यह सब हम लोगों ने स्कूल में ही क्यों नहीं पढ़ा....कम्यूनिकेशन बस लिखा हुआ या बोला जाने वाला शब्द ही नहीं है, इस के साथ बहुत सी और बातें जुड़ी हैं जो यह बात तय करती हैं कि हम किसी के साथ क़ायदे से पेश आ भी रहे हैं या नहीं.....कभी इस के बारे में और भी बहुत सी बातें करेंगे .


ज़िंदगी की सच्चाई यह है, बाकी सब बकवास है .....हमें ज़्यादा उड़ने-उछलने की ज़रूरत कतई नहीं है! 

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

जब टूटी चप्पलें सिलवा लेते थे...

एक बात बताऊं...बहुत बार ऐसा होता है कि जब भी मैं कुछ लिखने लगता हूं तो मुझे यही लगता है कि मैं अपनी मां-बोली (मादरी-ज़बान) पंजाबी में ही लिखूं...फिर मुझे लगता है कि नहीं, पंजाबी आज कल लोग बोलने से परहेज़ करते हैं, पढ़ने वाले कहां मिलते हैं...इसलिए मैं पंजाबी में लिखने की अपने दिल की हसरत को दिल ही में रहने देता हूं और हिंदी में लिखने लगता हूं ...अंग्रेज़ी में भी लिख सकता हूं ..लेकिन अपनी बात को ठीक उस तरह से रख नहीं पाता जिस तरह से वह दिल में चल रही होती है...इसलिए मुझे फिर हिंदी की तरफ़ ही मुड़ना पड़ता है ...दरअसल जिस ज़ुबान में मैं लिखता हूं वह हिंदी की बजाए हिंदोस्तानी ज़्यादा है ...

दोस्त ने ग्रुप में यह तस्वीर साझा की और इसी बहाने हमें अपनी औकात याद आ गई...😎

कल अपने एक दोस्त ने कॉलेज के साथियों वाले वाट्सएप ग्रुप में एक टूटी हुई हवाई चप्पल की तस्वीर पोस्ट की ...जिसको एक सेफ्टी पिन से जोड़ने का जुगाड़ कर रखा था ...और साथ में एक सवाल था कि क्या आपने कभी ऐसा किया है..? मैंने उसी वक्त सोचा कि यार, किया तो है ......लेकिन यही नहीं किया, जूतों, चप्पलों, गुरगाबियों से बहुत कुछ किया है ....इतनी यादें जुड़ी हुई हैं ..दोस्तो, अब पता नहीं मैं थका हुआ हूं या मुझे जम्हाईयां आ रही हैं, इस बार को आगे लिखने की मेरी इच्छा नहीं है...ठीक है, शुभ-रात्रि ..कल सुबह उठ के देखते हैं ...सुबह की ताज़गी किन किन यादों को दिल के कुएं से निकाल बाहर करेगी...😄सो जाइए अब आप भी और मीठे सपने लीजिए। 

प्रवीण ३.११.२१ - रात २३.२० बजे 

लो जी, सुबह हो गई है, जहां पर हम रहते हैं वहां पर बाहर कौवों की आवाज़े आना शुरू हो गई हैं...हां, तो अपनी बात कल शुरू ही की थी कि हमें नींद आ गई। अभी बात को पूरा करने की कोशिश करते हैं...जी हां, बिल्कुल कोशिश ही कर सकते हैं, क्योंकि यादों के पिटारे में से जितना भी निकाल कर यहां सजाने की कोशिश करेंगे, फिर भी बहुत कुछ तो रह ही जाएगा...चलिए, जितना बन पड़े उतना ही सही। 

जी हां, हम तो जो बातें करेंगे ५०-६० पुरानी ही करेंगे क्योंकि हम उस दौर के गवाह रहे हैं...यह वह दौर था जब हम जैसे मिडल-क्लास घरों के लोगों के पास बाहर-अंदर पहनने के लिए एक जोड़ी ढंग का फुटवेयर होता था और अकसर घर के सभी लोगों के पास अपनी अपनी एक हवाई चप्पल भी हुआ करती थी...हवाई चप्पल कह लें, या कैंची चप्पल ...जहां तक मुझे याद है बाटा कंपनी की आती थी या कोरोना कंपनी की ...लोग तरजीह बाटा कंपनी की हवाई चप्पल को ही दिया करते थे...और यकीं मानिए, इतनी मज़बूत कि रोज़ पहनने पर भी कईं साल न भी सही (अच्छे से याद नही) लेकिन कईं कईं महीनों तक चलती थी, आज कल की हवाई चप्पलों की तरह घिसती बहुत कम थी, उस ज़माने में चप्पल की क्वालिटी का यह भी एक मापदंड (इंडीकेटर) होता था...

बहुत बार तो पहनते पहनते हम ऊब जाया करते थे लेकिन उस की सेहत जस-की-तस बनी रहती थी..टनाटन...उन दिनों हम लोग इतने रईस भी न हुए थे कि उन्हें बॉथरूम चप्पल कह कर उन का अपमान करते ...और करते भी कैसे, हम लोग अकसर उसे ही पहन कर बाज़ार भी हो आते, मेहमान के आने पर साईकिल पर चढ़ कर बर्फी, समोसा भी ले आते ...और सुबह टहलने निकलते तो उसे ही पहन कर हो आते ....क्योंकि ये जो आज कल कईं कईं हज़ार में वाकिंग, रनिंग, जॉगिंग शूज़ मिलते हैं, इन सब की तो हम कभी कल्पना करने की ज़ुर्रत ही न करते थे...

अच्छा, हवाई चप्पल भी खरीदना किसी जश्न से कम न होता था...यही कोई ४-५ रूपये की आती होगी...कईं दिन तक प्रोग्राम बनता कि घर के फलां फलां बंदे के लिए नई हवाई चप्पल लेनी है, उस की चप्पल बिल्कुल घिस गई है, या इतनी बार मोची से उस की तुपाई हो चुकी है कि अब न हो पाएगी...अकसर मां के ही साथ जाते बाज़ार --अमृतसर के पुतलीघर बाज़ार में ...मां किसी दुकान से चप्पल हमारे लिए चप्पल खरीद देतीं...और हमें वहीं दुकान पर पहन कर उसी १० बॉय १० फुट की दुकान में माडल की तरह रैंप-वॉक कर के यह भी मुतमईन होना पड़ता था कि कहीं यह छोटी तो नहीं ...या बड़ी तो नहीं....लेकिन यह काम मैं अकसर अपने एक मास्टर की दुकान पर न कर पाता......कारण?- वही कारण कि यहां तो रैंप-वॉक कर लूंगा, स्कूल में जब उस का ख़मियाज़ा भुगतना पड़ेगा, उस का क्या। हमारे स्कूल के एक मास्टर साब थे, हमें पढ़ाते भी थे, उन की भी जूतों की एक दुकान थी...अगर कभी उन की दुकान पर जाना होता तो मेरी कोशिश रहती कि यार, जो मास्टर जी दे रहे हैं न वही तेरे पैरों के लिए भी और तेरी सलामती के लिए मुबारक है, ज़्यादा दिमाग़ मत लगा...बीजी को कह दे कि हां, बीजी, यही ठीक है। यहां तक कि मास्टर की दुकान से खरीदी चप्पल में अगर कुछ खराबी भी दिखती, जिस का घर आने पर ही पता चलता तो मैं उसे जा कर एक्सचेंज करवाने की भी कभी सोचता तक नहीं था। 

और हां, मैं यह कैसे लिखना भूल गया कि पहले अगर घर में एक कैंची चप्पल भी आती थी तो घर के सभी को बताया जाता था...जैसे जैसे घर के अफ़राद के साईकिल खड़े होने लगते, हम उसी वक्त उन चप्पलों को पहन कर, उन के पानी पीते पीते उन के आगे पीछे हो कर आज की उस खरीद के बारे में इत्ला कर देते ..

जब भी कोई नई चप्पल, नया जूता घर में लेकर आता और पहन कर दिखाता तो न्यू-पिंच के चोंचले बाज़ी मां न करती, जूतों पर तो वैसे भी कोई क्या न्यू-पिंच दे,,,,लेकिन मां इतना ज़रूर कहतीं कि ...बड़े चंगे ने, सुख हंडावने होन...(बहुत अच्छे हैं, इन्हें पहन कर सारे सुख तुम्हारे नसीब में आ जाएं) ....यह आशीष हमारे लिए बहुत बड़ी बात थी, और मां की दुआएं तो लगती भी ज़रूर हैं...😄

चलिए जी हवाई चप्पल इतनी पहन ली कि उस का स्ट्रैप टूट गया...कोई बात नहीं, मोची के पास इलाज के लिए ले गए...उन की फीस रहती थी पांच पैसे या दस पैसे ....अगर तो सीधा सीधा उन्होंने स्ट्रैप को टांक ही दिया तो पांच पैसे लेकिन यह काम कितना पुख्ता है, उस की कोई गारंटी न होती थी, लेकिन अगर वे छोटे से चमड़े के टुकड़े के साथ उस टूटी हवाई चप्पल को रिपेयर करते थे तो १० पैसे लेते थे और समझिए कि एक गारंटी जैसी सुविधा भी उस के साथ संलग्न रहती थी...लिखते लिखते सोच रहा हूं कि यार, बस पंजे-दस्से में उस मोची की और क्या जान ले लेते!!

अकसर सफेदपोश लोग चमड़े का टुकड़ा लगे टॉकी वाली चप्पल पहनना पसंद न करते थे ...बस, फिर उसे घर ही में, बाथरूम के लिए रख लिया जाता था और बाहर-अंदर जाने के लिए हैसियत मुताबिक एक और हवाई चप्पल आ जाया करती थी...और हां, जब कोई चप्पल के स्ट्रैप बार बार टूटने लगते तो फिर उस के स्ट्रैप बाज़ार से लाकर ख़ुद ही घर में बदल लिए जाते ...पूरी ज़ोर-अजमाईश करने के बाद कईं बार तो यह काम हो जाता और कईं बार मोची के पास चप्पल ले जाकर पुराने की जगह नए स्ट्रैप लगवा लिये जाते। ये नए स्ट्रैप यही कोई डेढ़-दो रूपये में शायद बिकते थे....मुझे यह इतना अच्छे से याद नहीं है, अब जितना याद कर पा रहा हूं, उसी का आनंद लीजिए 😎...फ़ोकट में।

लिखने बैठे तो कहां से पुरानी पुरानी यादें उमड़-घुमड़ कर आने लगती हैं ...जब तक उन को लिख न दो, कमबख़्त पीछा नहीं छोड़तीं, हां, तो पुरानी हवाई चप्पल को डिस्कार्ड करने का एक और भी क्राईटीरिया हुआ करता था...बहुत बार ऐसा भी होता था कि चप्पल लंबे अरसे से पहने जा रहे हैं लेकिन अभी तक वह मोची की वर्कशाप में नहीं गई ....लेकिन नीचे से वह इतना घिस चुकी है कि गुसलखाने में या आंगन में चलते चलते बंदा स्लिप होने लगे तो भी नई चप्पल की सैंक्शन समझिए मिल ही जाती थी...

जब हवाई चप्पल खरीदने जाते तो उस के रंग का भी ख्याल रखा जाता कि नीले रंग की तो बहुत बार पहन कर पक चुके हैं, इस बार भूरी चप्पल लेते हैं..हा हा हा हा ...सच में हम लोगों ने भी ज़िंदगी भरपूर जी है। कईं बार जब बाज़ार से नए स्ट्रैप लेकर आते तो कईं बार उन का साइज़ बड़ा-छोटा होता तो वह अगले दिन जा कर बदल कर आ जाते ...कईं बार नए स्ट्रैप खरीदते वक्त घर के उस सदस्य की चप्पल के कलर का ख़्याल न आता...न कैसे आता...खरीदारी करने गये साथ किसी तीसरे मैंबर को तो ख़्याल आ ही जाता कि पपू दीयां चप्पलां दा तो रंग नीला ए (पपू की चप्पलों का रंग तो नीला है)...तो उसी रंग का स्ट्रैप खऱीदा जाता ...नहीं, तो अगले दिन जा कर बदल लिया जाता ...

एक चप्पल का स्ट्रैप खरीद कर जब घर में आता तो वह भी बड़ी घटना न सही, लेकिन लगभग सारे घर को खबर हो जाती कि आज फलां फलां बंदे की चप्पलों के नए स्ट्रैप आए हैं, उस की तो मौज हो जाएगी...मुझे अब यह याद नहीं आ रहा कि नए स्ट्रैप तो घर पर नहीं तो मोची के पास जा कर लगवा लिेए, लेकिन उस पुराने खस्ताहाल स्ट्रैप का क्या करते थे, कुछ न करते थे भाई....जहां तक याद है उन की हालत के ऊपर यह निर्भर करता था कि उस पुराने स्ट्रैप को भी वापिस घर हमारे साथ चलना है या नहीं...अगर भविष्य में कभी उस के काम आने की कोई गुंजाइश होती, एमरजेंसी में ही सही, तो उसे मोची से लेकर वापिस घर ले कर आया जाता...फिर उसे कभी इस्तेमाल होते देखा तो नहीं, यही कहीं कचरे-वचरे में डाल दी जाती होगी...

हां, कभी कभी ऐसा भी देखा ...एमरजैंसी है, मोची के पास जाने का वक्त नहीं है, तो जैसे उस दोस्त ने कैंची चप्पल की फोटी भेजी है न ...उसे सेफ्टी पिन से चलने लायक करने की कोशिश भी की जाती थी...लेकिन यह काम दो चार मिनट में अकसर फेल हो जाया करता...मैंने कईं बार लोगों को देखता जिन ने अपनी हवाई चप्पल के स्ट्रैप को एक कपड़े की कतरन (लीर) से बांधा होता ...ईश्वर की अपार कृपा रही हम पर कि कभी इतनी ज़्यादा कड़की के बादल भी हमारे घर पर न मंडराए कि हम मोची का मेहनताना भी बचा लेने के चक्कर में उन्हें घर पर ही मुरम्मत करने लगें...

और एक बात यह हवाई चप्पलें गुस्सा आने पर मार-कुटाई करने का काम भी करती थीं....हमारे घर में तो नहीं हुआ कभी ऐसे, लेकिन मैंने कईं बार लड़ाई झगड़ों में इन हवाई चप्पलों के इस्तेमाल का चश्मदीद गवाह रहा हूं...😎

इस से पहले कि मां एक बात भूल जाऊं इन चप्पलों, वप्पलों, ब्रॉंडेड शूज़ से कुछ नहीं होता....असल बात होती है काबलियत ....मेरे फूफा जी का घर मेरी मां की नानी के गांव में था, हमारी नानी अकसर उन के बारे में बताया करती थीं कि बचपन में उन का बाप चल बसा...उन्होंने इतनी तंगी देखी उस दौर में कि हमारे फूफा जी की मां के पास उन्हें चप्पल दिलाने के लिए पैसे न होते थे, स्कूल दूर था, और दिन गर्मी के, पैरों को जलने से तो बचाना ही था, उन की मां उन के पैरों पर बरगद (बौहड़) के पेड़ के खूब सारे पत्ते मोटी सूतली से बांध कर उन्हें स्कूल भेज देतीं......ऐसी मां को, ऐसे बेटे की याद को सादर नमन....पढ़ाई लिखाई में इतने अच्छे ..कि बाद में देश आज़ाद होने पर जब बंंबई आए तो कालेज में पढ़ाने लगे ....इक्नॉमिक्स में उन का नाम था, कालेज के वाईस-प्रिंसीपल रिटायर हुए ..और कईं किताबें उन्होंने लिखीं...

इस का मतलब तो यही हुआ कि सिर्फ़ कीमती शूज़ से कुछ नही ंहोता, कुछ कर गुज़रने के लिए और भी बहुत असला चाहिए होता है ...दिल में आग, जुनून, उमंग और जोश से भरा जज़्बा....

बहुत बहुत शुक्रिया, बेदी साब, आप की भेजी चप्पल ने तो हमें यादों के समंदर में डुबो दिया....और यह जो हम कभी कभी उड़ने लगते हैं न ...हमारी ऐसी लूत-परेड कर दी कि क्या कहें..😄😄...इसलिए कहते हैं कि पुराने दौर के दोस्तों की बातें भी सुनते रहना चाहिए..

चप्पलों के बारे में बाकी बातें कभी अगली पोस्ट में ....अगर आप की भी कुछ यादें हों तो नीेचे कमैंट में क्यों नहीं लिखते आप। कोई नाराज़गी है क्या!

बुधवार, 3 नवंबर 2021

चलती है लहरा के पवन ..कि सांस सभी की चलती रहे!

अगर हमारे दौर के फिल्मी गीतकारों को जिनको स्वर्गवासी हुए भी ज़माना गुज़र गया, यह पता चले कि उन के लिखे अल्फ़ाज़ के लोग इतने बरसों बाद भी इतने दीवाने हैं और अगर वे फ़रियाद करें (वहीं स्वर्ग में अगर कोई पिटिशन डालने की व्यवस्था होती) कि उन्हें फिर से पुराना चोले में हिंदोस्तान रवाना कर दिया जाए ..तो ख़ुदा भी उन की यह फ़रमाईश मान लेता। 

सांसें....कितना ख़ूबसूरत लफ़्ज़ है न , है कि नहीं! सब से पहले तो मुझे इस बात का ख़्याल आ रहा है कि यह जो हिंदी-उर्दू का विवाद खड़ा किए रहते हैं न ....यह सांसें भी उर्दू का ही लफ़्ज़ है, इस का क्या करें, इसे बोलना बंद कर दें या इन लेना ही बंद कर दें, क्या आप और हम इन के बिना रह पाएंगे...बिल्कुल ऐसे ही हिंदोस्तानी ज़बान न तो हिंदी है न ही उर्दू है ...वह मिली-जुली हिंदी-उर्दू की एक गंगा-जमुनी दरिया की तरह हिंदोस्तान के हर कोने में बह रही है ...ज़बान किसी धर्म की, मज़हब की नहीं होती, यह किसी की मिल्कियत भी नहीं होती, ज़बान तो इलाकों की होती है...अगर यह बात किसी की समझ में आ जाए तो ठीक है, यह उसी की ज़िंदगी आसान कर देगा...वरना जो है सो है। मुझे भी इतनी सी बात ५५ साल की उम्र में उर्दू की पहली जमात में पता चली थी...

सांसें....बेहद खूबसूरत लफ़्ज़, जो देखा जाए तो हर पल हमारी ज़िंदगी के साथ रहता है पल..पल...हर पल। जब हम लोग किसी बाबा-वाबा को सत्संग में सुना करते और वह सांसों की अहमियत पर बोलते थे तो हमें कहां समझ में आता था यह सब...हमें तो बस जम्हाईयां आती रहती थीं कि बहुत हो गया यार, अभी भी भोग पड़ने में बीस मिनट लगेंगे, तब कहीं प्रसाद लेकर यहां से निकलेंगे...

कितनी बार सुन चुके हैं, पढ़ चुके हैं कि ज़िंदगी से ज़्यादा गिले-शिकवे करने का कोई मतलब है नहीं, बात बस इतनी सी है कि अगर बाहर गई एक सांस लौट कर वापिस आ रही है न, इस का मतलब सब ठीक है...कुछ साल पहले की बात है, बड़ा बेटा जब बाली गया था तो उसने समंदर के नीचे स्वीमिंग की थी, जिसे स्कूबा-डाईविंग कहते हैं...उसने भी वहां से वापिस लौटना पर यही ज्ञान दिया था कि बाप, जब तक बंदे की सांसें चल रही हैं न, सब ठीक है....इस के आगे कुछ टेंशन करने का मतलब है भी तो नहीं। 

बात है भी कितने पते की है! सांसे ये जो हमारी चल रही हैं, मैं अकसर सोचता हूं कि क्या यह किसी करिश्मे से कम हैं...सारे शरीर में लाखों-करोड़ों रासायनिक प्रक्रियाएं निरंतर चल रही हैं ....चौबीस घंटे, सातों दिन ...एसिड-बेलेंस मेन्टेन हो रहा है, शरीर में इलैक्ट्रोलाइट बेलेंस भी हो रहा है, अनेकों तरह की पदार्थ हमारी ग्रंथियों से निकल रहे हैं जो विभिन्न क्रियाओं को कंट्रोल कर रहे हैं...अब क्या क्या लिखें, ईश्वर की दी गई नेमतों की फेहरिस्त बनाने लगें....है कि नहीं बेवकूफ़ी वाली बात ........बात तो सिर्फ़ इतनी सी है जो जितनी जल्दी समझ आ जाए उतना ही अच्छा है ...कि हमें हर सांस के साथ ईश्वर को याद करना है, हर पल, हर श्वास के साथ प्रभु का शुक्रिया अदा करना है ...कि आप की अपार कृपा से सांसें चल रही हैं, वरना शु्क्रिया करने की बजाए, इन सांसों को अपनी अकल से समझने की कोशिश करेंगे तो हाथ कुछ नहीं आएगा....यह सब रेहमत की बातें हैं, जैसे जैसे हमारी लिखाई-पढ़ाई बढ़ने लगती है, हम ख़ुद को कुछ समझने लगते हैं ये रब्बी बातें हमारी समझ में आना कम हो जाती हैं ...हम समझते हैं कि हम धन-दौलत के बलबूते सब कुछ अपने कंट्रोल में रखेंगे .....लेकिन ऐसा होता कहां है! इत्मीनान से पलों के साथ जिएं...ज़्यादा टेंशन से, ज़्यादा सोच-विचार से कुछ मिलने वाला नहीं, जो हाथ में है वह भी सरक जाएगा। 

सांसें ...इतना ख़ूबसूरत लफ़्ज़ और बातें मैं इस के बारे में इतनी पकाने वाली लिखता जा रहा हूं ...इतने खूबसूरत शब्द के बारे में बातें भी  ख़ुशगवार ही होना चाहिए...वैसे यह काम हमारे फिल्मी गीतकार बख़ूबी कर गये हैंं....मैं जब भी फिल्मी दुनिया के दिलकश गीतों को याद करता हूं तो मुझे सांसें लफ़्ज़ का ख्याल आते ही दो तीन गीत याद आ जाते हैं....एक तो वही है ...मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है ......चलती है लहरा के पवन ..कि सांस सभी की चलती रहे। यह गीत मेरे मन के बहुत करीब है ...इतने बरसों से इसे देखते सुनते यह मन में पक्का घऱ बना चुका है...

सांसों की जब बात चली तो कल बड़े भाई ने ३१ साल पुराना यह गीत भी याद दिला दिया....सांसों की ज़रूरत है जैसे ज़िंदगी के लिए ..यह भी बहुत खूबसूरत गीत है। हिंदी फिल्मों के नगमों के साथ अकसर हमारें ढ़ेरों यादें जुड़ी होती हैं...१९९० के जुलाई माह में हम लोग शादी के बाद मसूरी घूमने गए थे ...वहां पर जुलाई में मौसम बड़ा ख़ुशग़वार था ...हल्की हल्की बारिश की फुहार चलती ही रहती थी, बादलों की आंख-मिचौली भी चलती रहती ...मुझे याद है हम लोगों को वहां की सड़कों पर टहलते हुए दुकानदारों के टेपरिकार्डरों पर चलता यह गीत बहुत बार सुनाई पड़ता ....'आशिकी' फिल्म का यह बेहद सुपरहिट गीत है ...यह पिक्चर उन्हीं दिनों रिलीज़ हुई थी...


सांसों पर लिखे बहुत से गीत और भी याद आ रहे हैं ...

सांसों पर लिखते लिखते अब बोर सा होने लगा हूं ...सोच रहा हूं फिर से थोड़ा सो ही जाऊं..लेकिन यह बात है कि सांसों पर बहुत से नग्मे हैं ...जिन्हें हम नेट पर तलाश कर सकते हैं...सांसों को जिस भी नज़रिए से देखा जाए, शोखी की निगाह से, रूहानियत की निगाह से, ज़िंदगी के फ़लसफ़े की निगाह से .......गीतकार अपनी बात लिख कर हमें दे गए हैं....हम उन्हें सुनें न, उन से सबक न लें तो कसूर किसका है😎