ToI 8.11.21 |
कल का अख़बार अभी देख रहा था तो टाइम्स ऑफ इंडिया की इस ख़बर पर नज़र पड़ गईं...हैरानी यह हुई कि पेज़ थ्री पर नहीं, टाइम्स जैसे अख़बार ने पेज़ दो पर इसे छाप दिया...हैं कुछ लोग जो जानवरों से भी इंसानों की तरह ही मुहब्बत करते हैं, वरना यह कायनात चल न पाती। यहां पर हरामी से हरामी और मेहरबान से मेहरबान लोग भरे पड़े हैं...
जानवरों से प्यार से पेश आने वाली बात पर मुझे यह बात याद आ गई कि जब हम लोगों को इंसानों से ही पेश आने की तहज़ीब नहीं है तो जानवर किस खेत की मूली हैं...मैंने जितनी भी पढ़ाई की या नहीं है, जितनी भी किताबों में टक्करें मारी हैं या नहीं मारी हैं, जितने भी सत्संगों में जाकर पाखंड भोरे हैं ...(मेरा मन कभी भी सत्संग में न तो लगता था, न ही कभी लगता है ...बस, मैं अपनी मां की खुशी के लिए उन के साथ रविवार के दिन ज़रूर जाता था...और मन ही मन कुढ़ता भी रहता था कि यार, इस काम के चक्कर में सारी छुट्टी .....लग गई (फिल इन दॉ ब्लैंक्स कर लीजिए, जो पंजाबी जानते हैं😎)....कईं बार मां को कह भी देता कि बीजी, मेरा दिल नहीं करता, बस, चला जाता हूं क्योंकि आप को वहां ले कर जाने वाला कोई नहीं है....वह भी संजीदा हो कर कह देती कि बिल्ले, दिल नहीं करदा जेकर, तू न जाया कर, मैं तां घर बैठ के वी रब दा ना लै लैनी हां...!!) लेकिन जब तक मां की सेहत ठीक थी, हम दोनों सत्संग चले ही जाते थे...(मेरा मन बिल्कुल भी न होते हुए...).
क्यों चिढ़ है मुझे इन पाखंडों से, बाहरी दिखावे से, अपने आप को दूसरे से बेहतर समझने की आदत से, ऐवें ही भोरी च रहन ते....क्योंकि सब बातों का सार तो एक ही है कि हम किसी को पैसा नहीं भी दे सकते न दें, और किसी की कोई सहायता करने में सक्षम नहीं हैं तो न करें, कोई जबरदस्ती नहीं चल सकती ....लेकिन ज़िंदगी का केवल एक फंड़ा होना चाहिए कि हर बंदे के साथ बातचीत ऐसे करें जैसे कि मेरे मां-बाप कहा करते थे और वे ऐसे ही थे कि जैसे बात करते करते किसी के पेट में घुस जाए बंदा...इतनी सादगी, इतनी विनम्रता, इतनी झुकाव हो ..सामने वाले बंदे के बौद्धिक स्तर को देख कर उस तक पहुंच कर बात की जाए...उसे किसी भी तरह से उस की कमज़ोर या विषम परिस्थिति का अहसास होने देना ही कम्यूनिकेशन की एक बहुत बड़ी त्रासदी है ...मैं ऐसा समझता हूं ...अमूमन मैं किसी के साथ आपा नहीं खोता....ड्यूटी पर कभी किसी के साथ ऊंची आवाज़ में बात हो भी जाए तो मैं जब तक उस के खेद प्रकट न कर दूं ..मुझे चैन नहीं आता...
मैंने कहीं यह भी पढ़ा था कि किसी जेंटलमेन की निशानी क्या है ...(कहीं मैं भी तो अपने आप को कोई जेंटलमेन नहीं समझ रहा (नहीं, नहीं, मुझे अपनी औकात पता है)। उस में लिखा था कि कोई इंसान जेंटलमेन है या नहीं, इस का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जो जेंटलमेन होगा वह उस व्यक्ति से भी बहुत अच्छे तरीके से पेश आएगा जिस के साथ उस का कोई वास्ता नहीं है और जो किसी भी तरह से उसे नुकसान पहुंचाने के क़ाबिल नहीं है.....मुझे यह बात बेहद पसंद आई...फिर मैंने देखा कि हम डरते हैं उन लोगों से जो हमें नुकसान पहुंचाने की स्थिति में हैं, उन से तो पेश आते हैं, कमबख्त इतना झुक जाते हैं जैसे रब ने रीड़ दी ही नहीं, बातों में इतनी मिठास घोल देते हैं कि सुनने वाले को सुन कर ही डॉयबीटीज़ हो जाए... लेकिन जो लोग हमें लगता है, हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, हम उन के साथ ठीक से पेश भी नहीं आते...अमूमन मैंने ऐसा देखा है, शायद मेरे देखने में नुक्स हो (वैसे आंखों की जांच कुछ महीने करवाई तो थी) ..लेकिन जो दिखता है वही लिखता हूं ...और यह भी यहां जोड़ दूं कि उस लिहाज से मैं भी कोई जेंटलमेन कतई नहीं हूं....लेकिन हां, मुझे अपने अल्फ़ाज़ का पूरा ख़्याल रहता है, कभी ये इधर हो जाएं तो फ़ौरन इन्हें सुधार लेता हूं ...और बहुत बार माफ़ी मांगने से भी गुरेज़ नहीं करता ...(उन से भी जो किसी तरह से मेरा नुकसान कर पाने की स्थिति में नहीं हैं...) ...तो क्या ये बातें मुझे जेंटलमैन की श्रेणी में ले आती हैं?...नहीं भाई नहीं..)
यहां पर हम लोग इंसानों से ढंग से पेश आने की बात कर रहे हैं, दुनिया में लोग परे से परे पड़े हैं....एक पंजाबी गीत का ख्याल आ गया है, उसे नीचे लगा दूंगा..पंजाबी तो वैसे सब ही समझ लेते हैं, नहीं समझ सकते तो भी लगा दूंगा ..क्योंकि मैं उसे एक ज़रूरी खुराक की तरह सुन लेता हूं जब भी मुझे कुलदीप मानक की याद आती है ...वह इस गीत में कहते हैं कि दुनिया में लोग परे से परे पड़े हैं, बेवकूफ इंसान तू किस भ्रम में जी रहा है ...)....मुझे भी यह बहुत ज़रूरी लगता है कि किताबी ज्ञान के साथ साथ झुकना, विनम्रता होना भी बेहद....बेहद...बेहद ज़रूरी है ...मैं जब भी कभी ऐसे लोगों से बात करता हूं मुझे लगता है मैं फरिश्तों से बात कर रहा हूं...
पंजाबी में एक बड़ी पापुलर कहावत है जो बचपन से हम लोग घर में अकसर सुना करते थे ...हमारी ज़ुबान ही है जो हमें हम चाहें तो हमें राजा बना दे, और यही ज़ुबान हम अगर ख़्याल न करें तो छित्तर भी पड़वा सकती है...बिल्कुल सही बात है ...बस, सारा लफ़्ज़ों का ही फेर है ....सब के पास वही हैं, किन को कहां इस्तेमाल करना है, और कैसे इस्तेमाल करना है...ज़िदंगी का यही फ़लसफ़ा है ...क्यों होता है कि कुछ लोगों के साथ आप का बार बार बात करने को दिल करता है और कुछ लोगों को आप एवॉयड करते हो ....सोचने वाली बात है...
इंसान तो इंसान , कुछ लोगों को जब रास्ते पर चल रहे जानवरों से भी इतनी मुहब्बत करते हैं तो मेरी आंखें टपके न भी सही, भीग तो जाती ही हैं और जब मैं ऐसे लोगों को देखता हूं मुझे लगता है मैंने कोई फरिश्ता देख लिया हो....मैं एक ऐसी ही महिला की बात कर रहा हूं ...उस की उम्र यही कोई ६० के करीब होगी...सुबह अकसर देखता हूं वह अपने कंधों पर कैट-फूड (बिल्लीयों का खाना) और पानी लेकर निकलती है ...और जगह जगह उस की इंतज़ार में बैठी बिल्लीयों को छोटी छोटी कटोरियों में ऐसे खाना परोसती हैं जितना आज के मशीनी दौर में कुछ औरतें भी अपने बच्चों को न दे पाती होंगी ...(नौकरी के चक्कर में या अनेकों और व्यस्तताओं के रहते ) ....फिर जब वे उस खाने को खा रही होती हैं तो उन दस-पंद्रह बिल्लीयों को सहला कर प्यार करती है, बिना किसी जल्दबाजी के उन का खाना फ़िनिश होने का इंतज़ार करती है....इस महिला को दूर से तकना ही मुझे किसी देवी को तकने जैसा लगता है ...मैं फोटो खींचने का शैदाई तो हूं लेकिन मैंने कभी इन के इन ख़ुशनुमा पलों को कैमरे में कैद करने की बेवकूफ़ी नहीं की....मुझे लगता है कि यह अगर करूंगा तो बहुत घटिया काम हो जाएगा....या तो यह कांसिएस हो जाएंगी, शायद बिल्लीयों के खाने में ही खलल पड़ जाए...बस, इस तरह की बातें सोच कर मैं यह गुस्ताखी नहीं करता ....एक साल पहले जब यह दो तीन बिल्लीयों को खाना खिला रही थीं, और इन की पीठ मेरी तरफ़ थी, उस दिन एक फोटो ज़रूर खींची थी...एक रिमाइंडर के तौर पर कि ऐसे लोग भी हैं....)
इसी बात पर मुझे निदा फ़ाज़ली साहब की नसीहत याद आ गई....
बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं...
फूलों से तितलियों को न उड़ाया जाए...!!
मैंने ज़िंदगी को बंद कमरों में नहीं, बाहर निकल कर जिया है, देखा है...इसलिेए मेरे पास इस तरह के बहुत से वाक्यात हैं बताने के लिए...लेकिन बहुत बार कुछ लिखने का मन ही नहीं होता...क्या करें..इस पोस्ट को शुरू तो कर लिया है लेकिन लगता है बेकार की बातें लिख दी हैं, लेकिन जो लिख दिया है, अपनी ही डॉयरी से उसे डिलीट क्या करना...पड़ा रहने देते हैं...
कम्यूनिकेशन इतना बड़ा मौज़ू है मुझे नहीं पता था...१९९२ में मैं टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेस में जब हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन की पढ़ाई कर रहा था तो हमारा एक विषय था कम्यूनिकेशन....जो हमें एक साल तक पढ़ाया गया...तीस साल की उम्र थी मेरी और मुझे यह अफ़सोस हुआ कि यह सब हम लोगों ने स्कूल में ही क्यों नहीं पढ़ा....कम्यूनिकेशन बस लिखा हुआ या बोला जाने वाला शब्द ही नहीं है, इस के साथ बहुत सी और बातें जुड़ी हैं जो यह बात तय करती हैं कि हम किसी के साथ क़ायदे से पेश आ भी रहे हैं या नहीं.....कभी इस के बारे में और भी बहुत सी बातें करेंगे .