मैं कईं बार सोचता हूं कि आज के दौर में हम लोगों के पास मैसेज पर पूरे का पूरा कंट्रोल है...सोशल मीडिया पर या यूं कह लें वॉटसएप पर कोई पोस्ट दिखी...हमें लगता है कि उस के ऊपर कुछ तो उसी वक्त टिप्पणी लिखना बनता है ...और हम लोग दस मिनट लगा कर सोच समझ कर कुछ लिख भी लेते हैं, लेकिन पूरा लिखने के बाद ख़्याल आता है कि यार, यह तो एक पंगा लेने वाली बात हो जाएगी...
जिस वाट्सएप ग्रुप के मैंबरों के आगे बंदे को हीरो बनने की तमन्ना होती है, उन में से ज़्यादातर का ऑफलाइन तो क्या ऑनलाइन भी हमारे साथ कोई लिंक नहीं होता...ऐसे में कोई क्या दिल से निकला कोई कमैंट लिखे...हम किसी भी ग्रुप के सदस्यों से अच्छे से वाकिफ़ भी नहीं होते ...उतना ही होते हैं अकसर जितना उन की डी.पी से वे हमें दिखाई पड़ते हैं...ऐसे में किसी भी पोस्ट पर जान मार कर कमेैंट लिखना ही बिलकुल बेवकूफ़ी सी लगती है..क्योंकि किसी ने कोई रिस्पांस नहीं देना होता...जिन लोगों से अपनी कामकाजी रिश्ते हैं उन की तो बात ही क्या करें, सब अपने आप में मस्त होते हैं, बहुत अच्छी बात है...लेकिन स्कूल के एक ग्रुप की मैं मिसाल देता हूं ...हम लोग जो 1973 से 1978 तक पांचवी से दसवीं कक्षा तक ...और जिन में कुछ हैं जो 1980 तक यानि... प्री-मैडीकल तक साथ थे, हमारा 30-35 लड़कों का एक वाट्सएप ग्रुप है, उस ग्रुप से जुड़ना बहुत अच्छा लगता है .....लेकिन उस में भी कुछ रब के बंदे ऐसे हैं जो सब कुछ देखते हैं, पढ़ते हैं ...लेकिन कभी भी कुछ नहीं बोलते...जैसे कसम खा रखी हो कुछ न कहने की..
हां, तो अपनी बात हो रही थी किसी वाट्सएप पोस्ट पर कोई रिमार्क्स लिखने की ...मेरे साथ कितनी बार ऐसा हुआ है कि मैं भावावेश में (पंजाबी में कहें तो गर्मी खा के, तैश च आ के ..) कुछ लिख तो देता हूं ...फिर उसे फट्टी की तरह पोच देता हूं ...बचपन में फट्टी पोचने में या स्लेट साफ करने में कुछ तो मेहनत लगती थी..लेकिन यहां तो उतनी भी नहीं लगती....और हमने मैसेज भिजवाने से पहले ही पोंछ देिया। कईं बार भिजवाने के तुरंत बाद - एक दो मिनट में ही यह महसूस होता है कि नहीं, इस मैसेज या कमैंट को ग्रुप में या वन-टू-वन चैट में भी पोस्ट करना ठीक नहीं....ठीक है जनाब जैसा आप कहें, दिल से आवाज़ आती है ...और अगर ग्रुप में पोस्ट किया है तो उसे सब के लिए डिलीट कर देने से पहले बस यह थोड़ा सा देख लिया जाता है कि कितने लोगों ने और किस किस ने उसे देख लिया है ...चलिए, कोई बात नहीं, देख लिया तो देख लिया...हम ने कौन सा कोई गुनाह कर दिया है। और फिर उसे डिलीट कर दिया..। लेकिन कभी कभी बंदा इसी ऊहापोह में रहता है कि मैसेज डिलीट करूं या रहने दूं ...इसी चक्कर में जब तक वह अपना मन बनाता है डिलीट करने के लिए ..तब तक वाट्सएप की उसे डिलीट करने की टाइम-लिमिट ही ख़त्म हो चुकी होती है ...बस, फिर उसे मन ममोस कर बैठना पड़ता है और दिल को तसल्ली देनी पड़ती है कि कोई बात नहीं, एक कमैटं ही तो है...😎
लिखते लिखते उस एक बहुत मशहूर गीत का भी ख़्याल आ गया है...अभी सुनवाऊंगा भी आप को ...घबराइए नहीं, गा कर नहीं, यू-टयूब की मदद लेकर ...मुझे तो लगता है कि हम लोग जहां ज़रूरत नहीं होती, वहां बोल देते हैं कुछ भी ...कैसे भी ...लेकिन जहां ज़रूरत होती, बहुत ज़रूरत होती है, वहां मौन साध लेते हैं....जैसे मुंह में ज़ुबान ही न हो....क्योंकि हमें लगता है कि यह पंगा लेने वाली बात हो जाएगी...आदमी वैसे ही घिसते घिसते पहले ही कईं तरह पंगे सुलटा कर दुनिया को समझने लगता है कि कोई किसी के साथ नहीं है, सब की अपनी अपनी जंग है ....जो ज़्यादा मुंह खोलता है, वही सिंगल-ऑउट हो जाता है, यही ज़माने का चलन रहा है...वही आस पास के बीस-तीस लोगों की आंखों में किरकरी की तरह चुभने लगता है .......ब्लॉगिंग की बात अलग है, आप अपनी डॉयरी में लिख रहे हैं, जो मन की मौज हो, लिखते रहिए...आप किसी को कुछ नहीं कह रहे, किसी सोए हुए शेर को जगा नहीं रहे ....बस, अपने मन की बातें वेब-लॉग (ब्लॉग) में दर्ज कर रहे हैं....करते रहिए...कहीं टिप्पणी नहीं भी करनी, बहुत बड़े मुद्दे पर तो न करिए...मस्ती से गीत सुनिए..
लो जी, मसखरी तो हो गई....इसी बहाने मैंने हमेशा की तरह सुबह सुबह अपना पसंदीदा गीत भी दो चार बार सुन लिया...मुझे सच में याद है मेरी नानी को भी यह गीत बहुत पसंद था...जब कभी वह हमारे पास आतीं और रेडियो पर यह टीवी गीत बजता तो उस का मंद मंद मुस्कुराना मुझे याद है आज भी....
लेकिन एक बात है जब हम लोग ज़रूरत के वक्त भी नहीं बोलते न - यह सोच कर कि हम क्यों बुरे बनें....यह अपने आप में एक बहुत बुरी बात है ....इसी बात पर मुझे पंजाबी के एक महान क्रांतिकारी लेखक की कविता का ख़्याल आ रहा है..लीजिए, आप भी पढ़िए, अगर चाहें .....
अभी मैं अपने डाक्टर साथियों के ग्रुप में टाइम्स ऑफ इंडिया में आज छपी कुछ ख़बरें शेयर कर रहा था..कुछ काम करते हुए मज़ा सा आता है...बस, ऐसा नहीं है कि वे साथी अख़बार नहीं पढ़ते या उन्हें इस के बारे में पता न होगा..होगा, ज़रूर होगा..लेकिन यह जो मैंने कहा न ऐसी बातें शेयर करना एक ज़िम्मेदारी सी लगती है कभी कभी मुझे ...इस की भी कहानी है...सातवीं क्लास से लेकर शायद नवीं-दसवीं क्लास तक मुझे स्कूल में एक ड्यूटी मिली हुई थी...लाईब्रेरी पीरियड में सुबह सुबह लाइब्रेरी में जाना है ...पांच सात ख़बरों के हैडिंग चुनने हैं जिन्हें स्कूल के प्लेग्राउंड के सामने वाले एक ब्लैकबोर्ड पर लिखना होता था मुझे गीले चाक ...मुझे बडा़ अच्छा लगता था जब रिसेस के दौरान स्कूल के बहुत से साथी उन ब्लैक-बोर्डों के आस पास खड़े उन ख़बरों को पढ़ते थे...मुझे कहीं न कहीं मन में इस बात का कुछ तो फ़ख्र भी होता ही था कि यार, जो मैं चाहूं ...जिन ख़बरों को मैं चुनूं, साथी उन को ही पढ़ते हैं...दसवीं तक पहुंचते पहुंचते तो मुझे स्कूल के मैगज़ीन का स्टूडेंट एडिटर बना दिया गया था...अब वह बॉसी वाली बासी फीलिंग नहीं है, अब तो यह है कि काम की चीज़ें हैं वे हरेक तक पहुंचें ..कोई बात नहीं, पहले अगर पहुंच भी चुकी हैं तो रिमांइडर ही सही...वह भी तो ज़रूरी है...
ऐसी काम की चीज़ों की बात करते हैं तो मुझे मेरे ताऊ जी की चिट्ठीयां याद आ जाती हैं... दो एक बार वे एन्वेल्प में मुझे यही बंबई टाइम्स आफ इंडिया की दांतों से जुड़ी कोई आर्टिकल भेज देते थे ..वे यहीं खार में रहते थे...यह 1982-83 की बातें हैं, जब मैं बीडीएस कर रहा था..लेकिन मैं उन्हें अच्छे से पढ़ कर संभाल कर रखता था...मुझे अच्छा भी लगता था।
ख़तो-किताबत के लिए कबूतरों का इस्तेमाल होता था....हमने सुना ही है ...लेकिन डाक के ज़रिए आने वाली चिट्ठीयों का दौर तो हम ने देखा है....तारें- टेलीग्राम आती देखी हैं...जिन में होता था कोई जश्न का पैगाम या रोने-धोने की ख़बर....हमने यह सब देखा...याद है हमें ....किस तरह से डाकिया जब टेलीग्राम की आवाज़ ही देता था तो जैसे सारे कुनबे की जान ही निकल जाती थी...अच्छा, एक बात और....जो भी जाता, कांपते हाथों से साइन करता करता पूछता डाकिये से कि क्या है इसमें....अब मुमकिन हो सकता है डाकिये को पता भी न होता हो कि खबर अच्छी है या बुरी ...लेकिन अगर कोई पढ़ने को कहता तो वह पढ़ भी देता। हां, मुझे याद है जब तक डाकिये की आवाज़ से लेकर डाकिये से टेलीग्राम हासिल कर के घर के किसी पढ़े-लिखे सदस्य को वह टेलीग्राम थमा न दी जाती और वह उसे खोल कर पढ़ न लेता, घर के सारे लोगों के चेहरों की हवाईयां उड़ी रहतीं...और दिल धक धक ऐसे किया करता हम बच्चों का भी, जैसे उछल कर बाहर आ जाएगा। कोई बे-फिज़ूल की तारें वारें भी देने भेजने लगे थे ....उन दिनों ...जन्मदिन की, बधाई की ...और भी ...और उन के चार्जेज फिक्स हुआ करते थे ...यही कोई साढ़े तीन रूपये ...लेकिन इस तरह की तार जब मिलती तो घर में खुशी से कहीं ज़्यादा उसे खोल कर राहत ज़रूर मिलती......बीजी तो अकसर कह ही देतीं.....सच्ची, तार सुन के ही जान निकल जांदी ए...(सच में तार का नाम सुन कर जैसे जान ही निकल जाती है...) ...
जब मैं इस पोस्ट को लिखने बैठा था तो मेरे मन में कुछ और चल रहा था, लेकिन लिखते हुए इन तारों के तार ऐसे जुड़ने लगे कि लगता है आज इन के बारे में ही बातें कर लूं...बाकी की फिर कभी कर लेंगे ...
तारें ख़ुशी-गमी की तो आती ही थीं, अगर कहीं आप का दाखिला हो गया है तो भी तार ही आती थी....मुझे याद है 1985 में जब मेरा एमडीएस में एडमिशन हुआ...तब मेरिट लिस्ट के आधार पर ही होता था...तो मुझे भी तार ही मिली थी। ऐसे ही जब कहीं नौकरी लगती थी तो उस की भी ख़बर बुहत बार टेलीग्राम से भी आती थी और हां, इंटरव्यू का बुलावा भी तो कईं बार टेलीग्राम से ही आया करता था। और सरकारी मुलाज़िम अगर घर गया है तो उसे किसी कारण अपनी छु्ट्टी बढ़वानी है तो भी तार भी भिजवा देता था ...और वह भी एक्सप्रेस तार। और कईं बार तो ऐसा भी सुना कि कुछ सरकारी मुलाज़िम ( फ़ौजी, पैरामिलिट्री फोर्स ेके लोग भी कभी कभी ...इसे स्टेटमेंट के तौर पर मत लें...लेकिन होता रहा है ऐसा भी ...सही गलत की बात नहीं कर रहा हूं, जो देखा-सुना, उसे दर्ज कर रहा हूं..हरेक की अपनी मजबूरियां भी होती हैं...) अपने घर वालों को कह कर किसी के बीमार होने की टेलीग्राम ख़ुद को भिजवाने की ताक़ीद करते और वह तार मिलने पर अकसर उन को छुट्टी मिल भी जाया करती।
मैं अभी सोच रहा था कि स्कूल की पढ़ाई में एक काम होता था प्रैसी लिखने का ... Precise writing--- किसी एक पैराग्राफ को छोटा कर के लिखना ..और एक तिहाई शब्दों में ...यह अंग्रेज़ी का एक प्रश्न भी होता था...शर्त यही होती थी कि सारी बात कह भी दी जाए लेकिन एक तिहाई जगह में...जब कभी तार देने टैलीग्राम ऑफिस जाते थे तो जैसे वह अपना प्रैसी लिखने का एक छोटा-मोटा परचा ही हुआ करता था...हाथ में होते तो थे, 10-15 रूपये ज़रूर लेकिन मेरी कोशिश यही रहती थी कि यार, यह काम अगर साढ़े तीन रूपये से ज़्यादा होता है तो इस का मतलब हम ने इंगलिश ठीक से पढ़ी ही नहीं...
लीजिए, हम ने टैलीग्राम का फार्म भर कर बाबू को दे दिया...उसने कंटैंट के अल्फ़ाज़ गिने और हमें बता दिया - साढ़े पांच रूपये दीजिए...हमने उसे फार्म लौटाने को कहा और उस में से दो चार लफ़ज़ या तो उस एड्रेस से कांट-छांट दिए या अपना लिखे की ही कुछ छंटनी कर दी....फिर उसने बताया कि हां, चार रूपये दीजिए...हम उस डेढ़ रूपये को बचा कर बहुत खुश होते...और वह रसीद काटने से पहले यह भी ज़रूर पूछता कि आर्डेनरी भिजवानी है या एक्सप्रेस....एक्सप्रेस का रेट डबल होता था...हमने तो हमेशा आर्डनही तारें ही भिजवाईं हैं...हमें यह फ़िज़ूलखर्ची भी लगती थी, पैसे भी चाहे होते थे लेकिन इन कामों के लिए नहीं होते थे...हमें हमेशा यही लगता था कि तार तो तार है, उस में क्या आर्डेनरी और क्या एक्सप्रेस ...एक ही मशीन से भिजवा रहे हैं....लेकिन यह तो थी मज़ाक की बात ...हमने देखा फ़र्क कुछ तो होता था ...वह यह कि तार बाबू अपनी मशीन पर टिकटिक कर जब तार भिजवा रहा होता तो उस के पास तारों के फार्म का पुलिंदा लगा रहता ...और जो तारें एक्सप्रेस बुक होतीं उन्हें वह पहले टिक-टिक कर के आगे भिजवा देता था ...अब यह मुझे नहीं पता, न ही किसी से कभी पता ही चला कि पहुंचने वाली जगह पर क्या एक्सप्रेस तार को किसी के घर पहुंचाने के लिए हर वक्त कोई डाकिया साईकिल की गद्दी पर बैठ कर हर वक्त तैयार रहता था या नहीं...
लिखते लिखते एक बात यह भी याद आ गई कि पहले लोग किसी को कोई गलत-शलट चिट्ठी तो लिख ही देते थे....कमबख्त इतने भोले थे कि यह भी नहीं समझते थे कि लिखावट से तो पकड़े जाएंगे...जैसे मुझे याद है मैं पांच सात का रहा हूंगा ..हमारे घर में एक पोस्टकार्ड आया जिस पर रंग भी लगा हुआ था ...वह भी कुछ कलर-कोडिंग तो हुआ ही करती थी उस दौर में... किसी की मृत्यु की खबर लिखी थी उसमें...दो चार मिनट की छानबीन हुई , शक हुआ तो उस पर लगी स्टैंप का पोस्टमार्टम हुआ...बड़ी बहन ने लिखावट का विश्लेषण किया तो पड़ोस में रहने वाले मुंशीए के किसी बच्चे की यह कारस्तानी थी...(मुंशी लाल तो उस बंदे का नाम था, लेकिन जैसे तब रिवाज़ था, मुंशीआ, मुंशीए, मुंशीए दी वोटी, मुंशीए दी कुड़ी..)....नहीं, कोई लड़ाई झगड़ा नहीं हुआ, किसी को जब पता चल जाए कि उस की करतूत सामने आ गई है तो वह भी एक सज़ा ही होती है...मोहल्ले में नाम तो खराब हो ही जाता है..! इसी तरह लोग तारें भी किसी दूसरे के नाम से भिजवा दिया करते थे...
मुझे याद है इन तारों वारों में उलझते, बचते बचाते हम लोग कब 1990 के दशक तक पहुंच गए ...पता ही नहीं चला...लेकिन यह याद है मुझे जब 1992 जनवरी में रेलवे स्टॉफ कालेज से ख़बर मिली कि आप को मैडीकल इंडक्शन में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए पदक लेने के बडो़दा आना है, मुझे बहुत खुशी हुई....इतनी खुशी हुई कि मैं बाम्बे सेंट्रल से ग्रांट रोड स्टेशन के पास ही स्थित एक टेलीग्राम आफिस चला गया शाम के वक्त अपने घर इस खबर को तार के ज़रिए भिजवाने के लिए....और उस दिन मेैने दिल खोल कर मैटर लिखा था....शब्दों की परवाह किए बिना ...😎और शायद उसी साल जब हम एक शादी में चंडीगढ़ गये हुए थे तो वहां मेरे बेटे ने कुछ ऐसा खा लिया कि उस के गले के अंदर सूजन सी हृो गई..पीजीआई में दाखिल किया गया उसे .. यही एक सवा साल का ही था तब वह ...वहां से छुट्टी बढ़ाने के लिए तार भिजवाई थी...
यही तीस साल से तार भिजवाने का या कहीं से हासिल करने का कोई अनुभव नहीं है ...वैसे तो बीस साल ही कहना चाहिए...क्योंकि 2012 या 2013 की बात है जब मीडिया में यह एक तारीख अनाउँस हो गई कि इस दिन से डाक तार विभाग तार विभाग पर ताला लगाने जा रहा था ...याद है मैं और मेरा छोटा बेटा उसदिन से एक दिन पहले शायद लखनऊ के बडे़ डाकखाने में गए...मैं तो अपनी याद ताज़ा करने के लिए ..और छोटू यह देखने के लिए कि यह तार-वार होते क्या हैं....और हमने बंगलौर में रहते बेटे को एक टेलीग्राम भिजवाई ......उसने वह संभाल कर रखी है ...लेकिन उसमें वह पहले दौर वाला चार्म गायब था, सब कुछ टाइप किया हुआ था..पहले तो लंबी लंबी पट्टियों पर जैसे कुछ प्रिंट हुआ रहता था जिन्हें तार विभाग वाले काट कर कागज़ पर चिपका कर सही पते पर भिजवा दिया करते थे...
मैंने ऊपर लिखा न कि कुछ स्टैंडर्ड बीस-तीस संदेश हुआ करते थे जिन्हेंभकंशेशनल रेट पर भिजवा दिया जाता था ...जैसे खुशी, गमी, किसी के पास होने की बधाई, शादी का लड्डू खाने की बधाई...कुछ भी ...बस, बाबू को यही बताना पड़ता बड़े ख्याल से कि पंद्रह नंबर मैसेज भिजवाना है ...
और एक बात ...जहां पर आप कोई ख़त अगर भेज रहे हैं तो अगर आप चाह रहे हैं कि आप की लिखी बात पर फ़ौरन काम हो जाए...जिसे चिट्ठी भिजवायी है, वह तुरंत घऱ लौट आए, कुछ पैसे भिजवा दे, कोई और काम कर दे जो उसे करना है तो कुछ लोग ख़त के नीचे यह लाइन ज़रूर लिखवा दिया करते थे कि इस ख़त को तार समझ कर इसे पढ़ते ही घर आ जाओ, पिता जी की तबीयत ठीक नहीं चल रही। उस एक मशहूर गीत में एक लाइन भी तो है ...मेरी मजबूरी समझो...कागज़ को तार....
और एक बात, टेलीग्राम आफिस में कुछ लोग ऐसे भी हमेशा होते थे जो तार तो देने आ गये होते...लेकिन उन्हें फार्म भरना न आता....लेकिन वहां खड़े हम आखिर किस मर्ज़ की बीमारी थे अगर हम इतना सा काम न कर पाते....हम खुशी खुशी उन का काम पूरे दिल के साथ करते ...अपनी प्रैसी लिखने की कला को मांजने का ऐसा मौका हम कैसे जाने देते...😎😎...रिटायरमेंटी के बाद जो लोग डाकखाने और बैंक में जाकर लोगों की तरह तरह से लिखने-पढ़ने के कामों में निष्काम सेवा करते हैं, मुझे वे बहुत भले लगते हैं..
पल्ले विच अग दे अंगारे नहीं लुकदे ......होठों पर लगा ले चाहे ताले कोई चुप्प के ..
कभी कभी हमें जब पुराने दौर के लोग यकायक याद आते हैं तो उन के साथ एक ज़माना याद आ जाता है ....
कुछ दिन पहले मुझे किसी ने कहा कि उनके यहां जो डाक्टर है न ..दिल्ली में ... उसने अपने सारे कमरे को अपनी डिग्रीयों, प्रशंसा पत्रों और यहां तक कि जितनी कांफ्रेंसों में वह जा चुका है वहां से मिले सर्टिफिकेटों को सजा रखा है? ....मुझे उस बंदे का बात सुनते ही बड़ी हैरानी सी हुई, मन ही मन मैंने सोचा कि इसे सजा रखा कहते हैं....मेरे नज़र में तो इसे कहेंगे बेचारे ने अपना जीना ही दूभर कर रखा है..
ऐसे ही मुझे याद आया कि कुछ साल पहले - यही कोई चार पांच साल पहले की बात होगी- तब हम लोग टीवी देखा करते थे...एक बार किसी बहुत बड़े आर्मी के डाक्टर की कोई ब्रीफ सी इंटरव्यू दिखी - इंटरव्यू में उसने क्या कहा, उस तरफ़ तो कुछ ध्यान नहीं गया, ट्राफियों, शील्डों से खचाखच भरे उस के कमरे को तकते ही सिर दुखने लगा था...कोई कोना ऐसा न था जिसे बंदे ने छोड़ दिया हो ...हर तरफ़ यही सब फ्रेमों में लटका रखा था...शेल्फों पे सजा रखा था...
1997 की बात है ...छोटे बेटे का जन्म अभी न हुआ था... यही कुछ दो चार दिन ही बाकी थे...महिला रोग विशेषज्ञ को कुछ संदेह हुआ होगा...उन्होंने ग्रांट रोड में एक अल्ट्रासाउंड क्लिनिक में भेजा...ज़ाहिर सी बात है हम बहुत टेंशन में थे...होता ही है...लेकिन आज भी याद है कि जब उस के क्लिनिक के वेटिंग एरिया मे एक पोस्टर को देखा तो जैसे कहते हैं न मन ठहर सा गया...मन की सुकून मिल गया...मैंने तो उसे बार बार पढ़ा...मिसिज़ तो अंदर चली गईं...लेेकिन मैं जितनी बार भी उसे पढ़ रहा था मुझे अच्छा लग रहा था, उस में लिखे अल्फ़ाज़ हमेशा मेरे साथ रह गए....वहां टंगे एक साधारण से पोस्टर पर (जो पहले कागज़ के न आते थे, जिन्हें फ्रेम करवा लिया जाता था...) यह लिखा था...Seek the will of God, nothing more, nothing less, nothing else!
उस दिन पढ़ी यह बात कहीं न कहीं हमारी मोटी बुद्धि में भी घर कर ही गई 😎
बात है भी तो कितनी बढ़िया, होता तो वही है मंज़ूरेख़ुदा होता है ....बाकी तो हम जितना मर्ज़ी हाथ पांव मार लेते हैं...ये बातें हमने प्रत्यक्ष रूप से देखी हैं अनेकों बार...यह क्या मैंंने एक उर्दू लफ़्ज़ लिख दिया..मंज़ूरेख़ुदा- कोई बवाल न उठ जाए...ये जो नया फितूर हम लोगों के दिलो-दिमाग पर चढ़ गया है न ...उर्दू लिखने से हिंदुत्व कम न हो जाए, इस के बारे में भी बहुत से विचार आ रहे हैं जब से फैबइंडिया ने अपनी फेस्टिवल रेंज को लॉंच करते वक्त लिख दिया जश्ने-रिवाज़ ....एक दम ट्विटर पर तो जैसे बवाल उठ गया कि ये क्या है। इस वक्त इस मज़मून के बारे में लिखना मुनासिब नहीं है, इस पर बाद में बात करेंगे कभी..लेकिन करेंगे ज़रूर...
मैं जब किसी डाक्टर के कमरे मे जाता हूं और अगर वहां पर किसी तरह की न तो फोटो ही होती है...हमारे लाखों-करोड़ों देवी-देवताओं में से भी किसी की नहीं, और न ही कोई शील्डें, ट्राफीयां.....बस, डाक्टर का मुस्कुराता हुआ चेहरा ही दिखता है ...तो मुझे बहुत अच्छा लगता है...सोचने वाली बात है कि जब कोई मरीज़ भी किसी डाक्टर के पास जाता है तो उसे इस के अलावा चाहिए भी क्या! बिल्कुल कुछ नहीं...
लिखते लिखते ख़्याल आया है कि कहीं पढ़ने वाले यही न सोच लें कि मैं यह सब इसलिए तो नहीं लिख रहा हूं कि मेरे पास कमरे में टांगने के लिए कुछ न होगा...चलिए, छोटा मुंह और बड़ी बात कर ही लेते हैं थोड़ी सी ..हमें भी 60 बरस तक पहुंचते पहुंचते इतना कुछ तो हासिल हो ही गया है कि पूरा कमरा हम भी आसानी से भर सकते हैं...डिग्रीयां ही इतनी हैं, अवार्ड इतने हैं (जिन के बारे में हमने किसी को बताया भी नहीं कभी)...यह काम हम भी कर सकते हैं...लेकिन हमें इन सब का डिस्पले करने में बहुत लज्जा आती है...(मेरे जैसे इंसान को आनी तो नहीं चाहिए, लेकिन यह बीमारी पता नहीं कहां से लग गई ....) इसलिए सब कुछ एक अल्मारी के किसी कोने में छिपा कर रखते हैं...कईं बार चोरी भी हो जाती है ...1989 में मुझे यहीं बंबई में हाटेल पाम-ग्रोव में फेडरेशन ऑफ आप्रेटिव डेंटिस्ट्री ऑफ इंडिया की काँफ्रेस में बेस्ट-पेपर अवार्ड मिला था...पहली बार ...बहुत बड़ा कप था..लेकिन वह कप ही कोई चुरा कर ले गया....बाद में मुझे हंसी भी आती है जब सोचता हूं कि शायद उसे भी पता होगा कि मुझे इन सब चीज़ों को सजाने का कोई शौक नहीं है, इसलिए वह मेरा भार हल्का कर गया....एक मज़ेदार बात बताऊं...वह कप बहुत बड़ा था, मुझे लगा चांदी का है, होगा कई हज़ारों का...मैं कुछ दिनों बाद उसे एक ज्यूलर-शाप में दिखाने भी गया (बेचने नहीं, बस दिखाने ही 😎)- वहां पता चला कि यह चांदी-वांदी कुछ नहीं है ...लेकिन उन दिनों मेरे लिए इसे हासिल करना ही बहुत बड़ा सम्मान था, अखबारों में ख़बर भी आई थी...
अपना राग अलापना कुछ ज़्यादा ही न हो जाए....लेकिन अपने बारे में इतना ही कहूंगा कि थोथा चना बाजे घना...इस के आगे कुछ नहीं...सोचने वाली बात यह भी है कि अगर हम सच में तीस मार खां हैं, डाक्टरी की बहुत सी किताबें पढ़ी हैं, मरीज़ों को ठीक किया है, तो यह समझ लीजिए कि मरीज़ भी इतने अनाड़ी नहीं हैं, वे यह सब कुछ सुन कर ही आ रहे हैं हमारे पास....अगर हमारे पास हुनर है तो हमें अपने कमरों में, अपने वेटिंग रूम में इतना कुछ डिस्पले करने की कुछ भी ज़रूरत नहीं है, और अगर मेरे जैसे बंदे के पल्ले कुछ भी नहीं है तो मेरी सैंकड़ों, ट्राफियों की पोल मरीज़ के सामने चार दिन में खुल जाएगी...यकीन मानिए, यही होता है ...लेकिन हम समझते नहीं, हमारी दिक्कत यही है कि हम समझते हैं कि हम अपने आप को ही स्मार्ट समझते हैं, मरीज़ को कुछ नहीं पता ऐसा लगता है हमें, लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, अनपढ़ मरीज़ भी दुनिया की पढ़ाई अच्छे से किया हुआ है...वह ऐसे ही अपना शरीर डाक्टर के सुपुर्द नहीं कर रहा ...ज़्यादातर तो वह सोच-विचार कर के ही आप तक पहुंचता है...
हां, कुछ एक्सेपशन्ज़ हैं. जैसे बच्चे के डाक्टरों के यहां कुछ ऐसा रखा हो, कुछ ऐसा टंगा हो...जैसा भी शिशुरोग विशेषज्ञ चाहें, तो बच्चों का मन लगा रहता है, उन को बिंदास और खुश देखकर साथ उन के मां-बाप भी बच्चे की तकलीफ़ तो भूल ही जाते हैं, कुछ ही समय के लिए ही सही तो भी काफ़ी है ....क्योंकि बाकी तकलीफ़ अंदर बैठा कोई डाक्टर आर के आनंद जैसा शिशु रोग विशेषज्ञ दूर कर देगा। जी हां, हमें 23-24 साल पहले की इस डाक्टर की बड़ी ख़ुशनुमा यादे हैं...मैं किसी से भी बहुत कम इंप्रेस होता हूं..इसे नखरा कहें या कुछ कहें ..लेकिन एक बार होता हूं तो फिर ताउम्र उस का कायल रहता हूं...हम छोटे बेटे को इन के पास लेकर जाते रहे ...नियमित जांच के लिए ...वह कहते हैं न कुछ कुछ महीने बाद बच्चों के डाक्टर के पास शिशु के लेकर जाना चाहिए..इन का क्लिनिक इतना शांत और ये डाक्टर साहब और इन की मैडम डबल शांत....बच्चा तो बच्चा, उस के मां-बाप भी उस की बीमारी भूल जाएं...इतनी चोटी का डाक्टर होते हुए भी इतनी हलीमी, आंखों से झलकता कंसर्न....क्या कहें, कुछ लोग होते ही ऐसे हैं....लेकिन जो बात मैं कहना चाह रहा हूं वह यही कि पूरे क्लिनिक में एक भी पोस्टर नहीं, एक भी बाबा-फाबा की कोई तस्वीर नहीं ....कहीं किसी डिग्री या किसी अवार्ड की कोई नुमाइश नहीं....बस, इन के बारे में फिर कभी डिटेल में बात करूंगा...अभी डा आनंद को इस वक्त थैंक-यू-फॉर एवरीथिंग कह कर इन से रूख्सत होते हैं...
अब आप को लेकर चलते हैं पंजाब में एक जगह ...शहर नहीं बताऊंगा ...न ही डाक्टर कौन था....वैसे पता मुझे भी नहीं, बिलकुल सुनी सुनाई बाते हैं, कहीं से सुन ही रखा होगा...रिटायरमैंट के बाद कुछ रह गए हिसाब चुकता करने हैं, तब इन बातों को ठीक से पता करूंगा ...तो सुनिए जनाब बीस साल पहले एक डाक्टर के बारे में सुना करते थे जिसने अपने कमरे में दुनिया भर के देवी-देवताओं की तस्वीरें, अपने दोनों हाथों की दसों उंगलियों में दस तरह के नगीने, नग, स्टोन (जो भी आप कहें, मुझे में कभी इन में कोई रूचि रही नहीं) ...हमें तो एक अंगूठी पहनना भी गले की फांस जैसा लगता है...और हां, यही नहीं, हाथों पर तरह तरह के धागे, माथे पर टीका..सुनते हैं कमबख़्त घोर पाखंडी था या है, कमरे में धूप, ज्योति, अगरबत्ती....लेकिन उस का काम करने का तरीका था एकदम शर्मनाक..बिना पैसा लिए किसी का कोई भी काम न करता था...एक तरह से बिकाऊ था, यही कहना मुझे मुनासिब लगता है...सुबह सुबह निगेटिव लोगों से न तो बात करना चाहिए और न ही इन का ख़्याल ही करना चाहिए, सारे दिन की वाट लग जाती है....रिटायरमेंटी के बाद फ़ुर्सत में लिखने के लिए मोमायर्ज़ के लिए भी तो कुछ मसाला और किरदार चाहिए...उस दौरान भी तो टाइम-पास का कोई ज़रिया चाहिए, वरना तो पगला जाने के पूरे चांस हैं, क्योंकि दिमाग में ठूंस ही इतना कुछ रखा है 😎...लेकिन मैं इतना ज़रूर कहता हूं कि मैं लिखूं चाहे कितना भी खराब, व्याकरण के नज़रिए से या लिटरेचर के तयशुदा मापदंडों के नज़रिए से भी , लेकिन लिखता मैं हमेशा सच ही हूं....वरना झूठ बात कहने से जो आत्मग्लानि होती है, वह मेरा सिर दुखा देती है ...जो फिर सारा दिन ठीक नहीं होता, बिना डिस्प्रिन की एक गोली खाए।
एक ज़माना बीत गया ...हरियाणा में एक महिला रोग विशेषज्ञ के अस्पताल में दो-तीन बार जाने का मौका मिला ...लेकिन यह क्या, यह तो यार मेडीकल कालेज के अनॉटमी डिपार्टमैंट का म्यूज़ियम दिखाई पड़ रहा था, हर तरफ़ बड़े बड़े मर्तबानों में बड़ी बडी़ रसौलियों, ट्यूमरों आदि के स्पैसीमेन और साथ में टंगी हुई ऐसी ही ख़तरनाक तस्वीरें....आसपास बैठे बीसियों मरीज़, वे भी ज़्यादातर आस पास के गांव वाले...सोचने वाली बात यह है कि इन सब को देख कर उन सब के मन में क्या ख्याल आते होंगे...अनुमान लगाइए....वैसे तो अनुमान भी क्या लगाना है, बात तय है कि इन्हें देख कर उन के मन में डर, खौफ़ का भाव ही पैदा होता होगा....और क्या...। एक बार मैं अपने आप को रोक नहीं पाया ...वो कहते हैं न मुझे खामखां की तरह दूसरों के झमेलों में पड़ने की पुरानी आदत है ...मैने उस डाक्टर साहिबा को बेहद शालीनता से, विनम्रता से अपने मन की बात कह दी ....मैम ने सुन तो ली, पता नहीं उस का कुछ असर हुआ भी कि नहीं।
जिस सामाजिक परिवेश में लोग ़डाक्टर के सफेद कोट को देख कर अपना ब्लड-प्रैशर 10-20 प्वाईंट बढ़ा लेते हों, उन्हें क्या इतने बड़े बडे़ मर्तबान मानसिक तौर पर प्रताडि़त न करते होंगे...ज़रूर करते होंगे...
अधिकतर मरीज़ हमारे पास हमेशा नहीं आते....कुछ तो चंद मिनट के लिए आते हैं, फिर कभी उन का आना हो ही नहीं पाता...विभिन्न कारणों की वजह से ...लेकिन वे अपनी यादें तो छोड़ ही जाते हैं...हमारा बहुत कुछ भी साथ ले कर चले जाते हैं.....हमारे कमरे का माहौल, हमारे स्टॉफ का बर्ताव, हमारी बोलचाल, हमारा दोस्ताना रवैया....और हां, हमारा नुस्खा भी .....(दर्द से बेहाल, परेशान, फटेहाल उसे हमारी उपलब्धियों को निहारने की फ़ुर्सत कहां...) ....मुझे इस पोस्ट के अंत तक पहुंचते पहुंचते यही लगने लगा है कि मैने कुछ ज़्यादा ही आईडियल चीज़ें लिख दी हैं...लेकिन वह भी ठीक है, कम से कम हम उन की तरफ़ ताकते रह सकते हैं जैसे हम एक अरसा पहला उस अल्ट्रा-साउंड के माहिर डाक्टर के वेटिंग रूम में बैठे एक साधारण सी बात को ताकते-पढ़ते रह गए थे और वह बात हमारे अंदर भी कहीं न कहीं घर कर गई...
जाते जाते एक मशविरा और...डाक्टर एक से एक बढ़ कर हैं, कोई किसी से कम नहीं...लेकिन फिर भी इस वाट्सएपिया दौर में मरीज़ों की प्राईव्हेसी और देखने वालों के मानसिक स्तर को देखते हुए तस्वीरें वही शेयर करें जिन्हें देखने वाले झेल पाएं.....बहुत बार सुना है कि डाक्टर अपने मरीज़ों को भी अपने सर्जीकल कारनामों की फोटो फारवर्ड कर देते हैं.....लेकिन क्या यह इमेज बिल्डिंग है, या मरीज़ों की मोरल-बूस्टिंग है......नहीं, यार, कुछ नहीं है यह, सिवाए उसे डराने के।
अब इतनी सारी भारी-भरकम बोरिंग बातें कर के, इतना फालतू ज्ञान बांटने के बाद मेरे लिए अगला मुद्दा है ...अपने माइंड को फ्रेश करने का ....जिसके लिए मुझे इस वक्त मेरे दौर के इस गीत के अलावा कुछ नहीं सूझ रहा ....जिसे मैं अब कईं बार सुन कर ही दम लूंगा....आप भी सुन लीजिए, गुज़रे दिनों की यादों के समंदर में गोते लगाने का थोड़ा तो लुत्फ़ लीजिए...
मेरे ख़्याल में डाक्टर का कमरे की दीवारें बिल्कुल खाली होनी चाहिएं...अगर किसी हंसते-खिलखिलाते बच्चे या किसी खूबसूरत कुदरती नज़ारे की तस्वीर हो तो टांग दें...हंसते खिलखिलाते बच्चों की तस्वीरें सब से बढ़िया स्ट्रैस-बस्टर होती हैं...अब वह दौर भी गुज़र गया जब एक नर्स की फोटो वेटिंग एरिया में डाक्टर टांग देते थे जिस में उसने अपने मुंह पर उंगली रखी हुई है और ऩीचे लिखा हुआ है...बातचीत मत करें। मरीज़ों बेचारों की तो वैसे ही बोलती बंद हुई होती है, उन्हें इस तरह के रिमांइडर देना भी मुझे तो मुनासिब नहीं लगता...बाकी देश आज़ाद है, सब का अपना अपना नज़रिया और उसे ज़ाहिर करने का भी सब को पूरा पूरा हक़ है, जिस का मैंने अभी अभी इस्तेमाल किया 😄