गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

कम्फर्ट ज़ोन से बाहर ही ज़िंदगी है ...

दो दिन पहले एक दिन के लिए गाज़ियाबाद जाना हुआ...बाज़ार में टहल रहे थे ...इतने में आंच पर सिक रही लिट्टी की तरफ़ ध्यान गया...इतनी सर्दी के मौसम में जहां पर भी अंगीठी जल रही होती है ... वहीं पर थोड़ा रुक जाने की इच्छा तो होती ही है ...और ऊपर से इस रेहड़ी पर लिट्टी-चोखा तैयार करने वाला बड़े उत्साह से, साफ़-सफ़ाई से अपने काम में मस्त था....


हम भी रूक गए...उसने कहा कि एक प्लेट सादी 25 रूपये की है और शुद्ध घी वाली 35 रूपये की है ...हमारे पूछने पर उसने घी का ब्रांड भी बता दिया... मैं पहले भी दो एक बार लिट्टी चोखा खाया था ...एक दो बार तो लखनऊ में और एक बार घर ही में तैयार हुआ था..लेकिन इतना मज़ा नहीं आया ..उस दिन ब्रह्म देव जी के ख़ालिस-घी की लिट्टी-चोखे की बात ही अलग थी...

खाते समय थोड़ी बहुत बात होती रही ..समस्तीपुर से हैं, 13-14 साल से यहीं गाज़ियाबाद में यह काम कर रहे हैं, यहां पर अकेले ही रहते हैं...18-20 घंटे डट कर मेहनत करते हैं...लिट्टी चोखा तो शाम को 5 से रात 9 बजे तक ही बेचते हैं...लेकिन सारा दिन इस की तैयारी में कट जाता है। सुबह 6 बजे उठ कर सब्जी खरीदने जाते हैं...फिर उस की धुलाई, कटाई, और तरह तरह की चटनी की तैयारी में शाम हो जाती है ...और कहने लगे कि बीच में अपने लिए खाना भी तैयार करना होता है।

वहां रेहड़ी पर खाने वाले तो हम जैसे इक्का-दुक्का ही थे...अधिकतर लोग मोटर-कार में आकर अपना आर्डर दे रहे थे ...एक युवती ने कार से ही आवाज़ दी - लिट्टी वाले अंकल, दो प्लेट दीजिए...एक चटपटा, एक सादा। हमारी मिसिज़ ने उस युवती से कहा कि आप तो इन के रेगुलर कस्टमर लगते हो ...वह हंसने लगी। लिट्टी-चोखा खाते वक्त हमारी मिसिज़ ने भी उन से चटनी और सत्तू के बारे में दो एक टिप्स ले ही लीं..

उन का लिट्टी-चोखा देसी घी में डुबोई हुई लिट्टी के साथ इतना उम्दा था कि हमने एक एक प्लेट और ली। उन्हें देख कर, अपने पेशे के प्रति उन का समर्पण देख कर और सब से बड़ी बात उन का उत्साह देख कर यही लग रहा था कि उम्र कुछ भी हो, अगर कुछ करने का जज़्बा कायम-दायम है ...और सब से अहम् बात यह कि अगर अपने कम्फर्ट-ज़ोन से बाहर निकलने के लिए कोई निकलना जानता है तो ज़िंदगी बड़ी ख़ुशग़वार है ...नहीं तो सब कुछ बड़ा नीरस सा, घिसा-पिटा लगने लगता है...

अब ब्रह्म देव भी चाहते तो अपने गृह-नगर में ही रहते ....वहां से बाहर निकले, एक नया आकाश बांहें फैलाए उन की इंतज़ार कर रहा था ...अच्छा लगा उन से मिल कर ...आते आते मैं भी अपनी आदत से मजबूर ...ब्रह्म देव जी आप को हम 10 में से 10 नंबर देकर जा रहे हैं..यह सुनते ही उन के दूसरे ग्राहक भी हंसने लगे जैसे हमारी कही बात की हामी भर रहे हों...हमने उनसे वायदा किया कि जब भी यहां आया करेंगे, आप के पास ज़रूर आएंगे। 

हम जैसे लोगों के लिए भी लिट्टी-चोखा खाना अपने कम्फर्ट-जो़न से बाहर निकलने जैसा ही है ...क्योंकि ये भटूरे, चने जैसे हमारे डी. एन.ए में ही शामिल हो चुके हैं ...ब्रह्म देव की रेहड़ी पर खड़े एक युवक ने कहा कि यह तो बिहार का बहुत ही पसंदीदा पकवान है ...मैंने कहा कि जैसे देश के इस भाग में भटूरे-चने ...इस पर ब्रह्म देव जी ने कहा कि लिट्टी चोखे में तो कोई भी ऐसी चीज़ नहीं है जिस का नुकसान हो ...मैंने उन की बात में हामी भर दी..। मुझे उस दिन पता चला कि चोखे में बैंगन के साथ आलू भी डाला होता है ...और एक चटनी नारियल और सरसों की भी उन के यहां जो खाई, वह भी लाजवाब थी। 

कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलने पर लिखने का मन पता नहीं आज कैसे कर गया....बहुत विशाल विषय है ... जितना भी लिखना चाहें, लिखते चले जाएं...ख़ैर, मैं अकसर कहता हूं शहर, कस्बा, देश कोई भी हो, उसे अच्छे से देखने, फील करने के लिए भी हमें कम्फर्ट-ज़ोन से बाहर निकलना बहुत ज़रूरी है ...मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि शहर तो वहां से शुरू होते हैं जहां से उन में हमारी मोटर-गाड़ीयां घुसनी बंद होती हैं....या यह भी कह सकते हैं जब हम अपनी मोटर-गाड़ी से उतर कर अपने पैरों को ज़ेहमत देने लगते हैं, उसी घड़ी से मान लीजिए हम उस गली, मोहल्ले, उस कसबे को जैसे टटोलने लगते हैं....कहीं पर कोई कदीमी दुकान दिख जाती है, किसी दूसरी नुक्कड़ पर कोई बहुत बुज़ुर्ग कारीगर अपने फ़न की इबादत करता दिख जाएगा....कही ं पर कोई ऐसी दुकान जिस पर ऐसा सामान बिक रहा होता है जो हमारे बचपन में ही बिकता हुआ दिखता था .... नए नए लोग दिखते हैं, उन से कभी थोड़ी ग़ुफ्तगू भी हो जाती है ... इस का मतलब नहीं कि हम लोगों ने उस शहर से अगला चुनाव जीतना है ...लेकिन बस ऐसे ही जहां पर रहते हैं वहां के बारे में पता हो तो ज़िंदगी थोड़ी ज़िंदगी जैसी लगती है ....नहीं तो वही रोबोट की तरह, जहां भी जाएं वहां पर पार्किंग की टेंशन करते करते ही थक हार कर अपने घर लौट आते हैं...है कि नहीं...कार में जब घूमने निकलते हैं तो यही तो होता है। मुझे और किसी का पता नहीं, मुझे तो बिल्कुल मज़ा नहीं आता....शहरों-कस्बों के ऐसे हवाई दौरों से ....ये हवाई-सर्वेक्षण जैसा काम नहीं है, यहां तो भई शहर-कस्बे की नब्ज टटोलने के लिए उस की रफ़्तार के साथ ही चलना पड़ता है..।

इसलिए मुझे टू-व्हीलर पर घूमना और उस से कहीं ज़्यादा साईकिल पर या पैदल चल कर सड़कों को नापना बहुत भाता है ... हर दिन हमें कुछ नया दिखता है ...कुछ ऐसा पता चलता है जो कल पता नहीं था, बस इन्हीं छोटी छोटी खुशियों से ही तो ज़िंदगी में थोड़ी ऊर्जा आती है ... साईकिल पर चलने वालों के, पैदल टहलने वालों के मेेरे पास सैंकड़ों किस्से हैं....अब क्या क्या लिखें, क्या क्या सुनाएं...शायद वह भी कम्फर्ट ज़ोन में अटके होने वाली बात है मेरे लिए...जिस दिन ठान लूंगा कि नहीं यह सब भी लिख कर शेयर करना ही है, करने लगूंगा। 

इस तस्वीर का किस्सा फिर कभी .

कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलने के बारे में दो-चार अहम् बातें अगली पोस्ट में करूंगा... जाते जाते अपने बचपन के दौर का 50 साल पुराना अपना एक बेहद पसंदीदा गीत ही लगा दूं....इस लिंक पर क्लिक करिए... अगर नीचे यू-ट्यूब वीडियो नहीं चले तो ...

रविवार, 20 दिसंबर 2020

कुछ चेहरों पर ख़ुदा जैसे ख़ुद सुकून खुदवा देता है ...

कुछ लोगों को देख कर बिल्कुल ऐसा ही लगता है ...उन के सुकून को देख कर हमें भी सुकून पर भरोसा होने लगता है...कुछ अरसा पहले हम लोग एक हिल-स्टेशन पर गये हुए थे ...थोड़ी थोड़ी बूंदाबादी हो रही थी ..हम लोग ऐसे ही टहल रहे थे ..एक छोटी सी दुकान पर रूक गए...थोड़ी भूख लगी हुई थी ...हम लोगों ने यह जानना चाहा कि उस छोटी सी दुकान में खाने में मिलेगा क्या… उस दुकान के काउंटर और शेल्फ़ों को देखते ही लगा कि ज़्यादा कुछ जानने का झंझट नहीं करना होगा ...क्योंकि उस अधेड़ उम्र की महिला दुकानदार के पास एक तो बीस-तीस ग्लूकोज़ बिस्कुट के पांच-पांच रूपये वाले पैकेट रखे हुए थे ...और शायद दो चार रोज़मर्रा की चीज़ें ….साबुन, आलू, प्याज़, नमक, हल्दी इत्यादि। 

हम लोगों ने बिस्कुट के कुछ पैकेट खरीदे ...दुकान छोटी थी ...बेशक….लेकिन उस महिला दुकानदार के चेहरे पर सुकून का क़ुदरती मेक-अप लाजवाब था … उस के चेहरे से सब्र-संतोख झलक रहा था ...ये वो लोग होते हैं जिन के पास खड़े होकर दो बातें करने की इच्छा सी होती है … हम लोग वहां से चल पड़े...उन बिस्कुटों को खाते यही टोटल लगा रहे थे कि इस महिला के पास कुल कितनी राशि का राशन भरा होगा ...यही दो-चार सौ रूपये ...लेकिन फिर भी वह गुमटी लगा कर अपना फ़र्ज़ निभा रही है ..अब ऐसी दुकान से वह कितनी बिक्री कर लेती होगी और उस में से कितना मुनाफ़ा कमा लेती होगी...पहले ही से मेरे पास ऐसे अनेकों सवाल हैं, उस में एक और जुड़ गया….जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है ...दुकान छोटी सी बिल्कुल लेकिन उस महिला का संतोष पहाड़ जैसा था…यह मुझे कैसे पता चला? …. यह जानने के लिए किसी विशेष योग्यता की ज़रूरत नहीं होती ...हमारा चेहरा हमारे दिल का आइना होता है ...सब कुछ लिखा रहता है वहां पर ….बस चेहरों को पढ़ने की फ़ुर्सत, थोड़ा बहुत गु़ज़ारे लायक हुनर और थोड़ी बहुत परवाह भी होनी चाहिेए…. 

मैं अकसर जब भी इस तरह के छोटे छोटे दुकानदार को देखता हूं उन के शांत चेहरे देखता हूं तो यही सोचता हूं कि शुक्र है कि यह जो सब्र, संतोष, सुकून किसी मॉलं-वॉल में नहीं बिकता ...नहीं तो इस के बंटवारे में भी गड़बड़ हो जाती...सच में धन्ना-सेठ इस की भी होर्डिंग कर लेते ...आने वाली कईं पु्श्तों के लिए भी … कुछ दिन पहले की बात है मैं एक चौक पर एक बैंच पर बैठा हुआ सींग-दाना खा रहा था ...अचानक मेरी नज़र अधेड़ उम्र की महिला पर पड़ी जो सड़क पर कुछ भाजी-तरकारी बेच रही थीं ...उसे भी दूर ही से देख कर लग रहा था कि यह भी अपने आप से सुकून में है….कोई हड़बड़ाहट नहीं ...चेहरे पर कोई शिकन नहीं ...ग्राहक ने जब आना होगा तो आ ही जाएगा….शहरों के आसपास सटे हुए गांवों से जो लोग अपने खेतों से भाजी-तरकारी लाकर बेचते हैं उन का पता चल जाता है ….उन के पास सब्जी कम होती है लेकिन होती बिल्कुल ताज़ा है .. मैं दस-पंद्रह मिनट उधर बैठा रहा ...कुछ रिटायर्ड लोग भी वहां पर बैठ कर गप्पबाजी में मशगूल वक्त को धकेल रहे थे ...

मैंने देखा उस दौरान उस महिला के पास कोई सब्जी खरीदने तो नहीं आया...लेकिन साईकिल पर थर्मल लेकर एक चाय बेचने वाला उधर ज़रूर आया….उस ने एक कप चाय खरीदी और इत्मीनान से पी….और वहां से आते वक्त मैंने भी उस से मूली-मेथी खरीद ली...मुझे बड़े बड़े स्टोर या मॉल से भाजी-तरकारी या फल-फ्रूट खरीदना समझ में नहीं आता….छोटे दुकानदारों को हमारे प्रोत्साहन की ज़रूरत होती है, एक तरह से ये लोग हमारे ऊपर अहसान ही कर रहे होते हैं इतनी बढ़िया भाजी-तरकारी हम लोगों तक पहुंचा कर  ...उन के लिेए एक-एक ग्राहक मायने रखता है। 

दो दिन बाद सबब ऐसा बना कि एक बार फिर उस चौक की तरफ़ जाने का सबब हुआ...मेरी मिसिज़ मेरे साथ थीं...मैंने उन्हें भी उस उम्रदराज़ महिला के चेहरे का सुकून पढ़ने को कहा ...उन्होंने भी यही कहा ...बिल्कुल, इन को यह ईश्वरीय वरदान हासिल होती है...उस दिन के बाद भी जब भी उस तरफ़ से गुज़रता हूं तो उस ख़ातून को इत्मीनान से बैठे हुए पाता हूं ..जैसे उसने सब कुछ ईश्वर पर छोड़ रखा हो ...हम लोग अकसर उस से कुछ न कुछ खरीदते भी ज़रूर हैं....और हां, एक बात तो मैं बतानी भूल गया कि उस का कुल सामान १००-१५० से ज़्यादा का नहीं होता होगा…..लेकिन सुकून ऐसा जो पूंजीपतियों के पास भी शायद ही होता हो, उन के चेहरों पर तो हवाईयां ही उड़ती दिखती हैं… 

यह तो बस एक दो मिसालें थीं जो हाल ही में मेरी नज़रों में आ गईं…..लेकिन जब हम अपने इर्द-गिर्द नज़र दौडातें हैं तो ऐसे लोग हमें हर तरफ़ दिखते हैं ...जो सुकून के नज़रिए से हम लोगों से बहुत रईस दिखते हैं…..उन के पास टोटल मारने के लिए कुछ ज़्यादा होता नहीं और हम लोग सारा दिन केलकुलेशन के चक्कर में रातों की नींद गंवा बैठते हैं....जिसके पास जितनी दौलत है वह उतना ही अनस्कयोर और जिस के पास जितनी पावर है वह भी उतना ही खौफ़ज़दा….दोनों को दौलत और पावर खो जाने का डर ढंग से जीने ही नहीं देता .. कल हमारी श्रीमति जी ने एक बहुत सुंदर वाट्सएप संदेश हमें भेजा कि एक दिन ऐसा आता है जब यह बातें बिल्कुल मायने नहीं रखतीं कि कौन कितना शक्तिशाली हो, कितना स्मार्ट है या कितना दौलतमंद है…..बात एक ही मायने रखती है कि क्या आप ख़ुश हैं या नहीं।
 


मुझे यह मैसेज बहुत भाया.... सोचने वाली बात यह भी है कि हम लोग दिन में कितनी बार इतना खुल कर हंसते हैं ...आप भी ख़ुद से पूछिए...मैं भी अपने आप से पूछता हूं ...हां, एक बात की तरफ़ आप का भी ध्यान गया होगा कि ये जो छोटे-मझोले दुकानदार हैं ये सब आपस में भी सुकून ही से रहते हैं...एक साथ हंसते भी हैं, एक दूसरे के दुःख सुख में साथ खड़े भी होते हैं ...लेकिन जब हम लोग ज़रूरत से ज़्यादा पढ़-लिख जाते हैं, ज़रूरत से ज़्यादा पॉवर हथिया लेते हैं या दौलत जमा कर लेते हैं तो किसी दूसरे को हम कुछ भी नहीं समझते … लेकिन अपने आप से फिर भी ख़फ़ा ही रहते हैं…साथियों के साथ सभी काम एक औपचारिकता की तरह वाट्रसएप पर ही निपटा कर फ़ारिग हो लेते हैं…

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

अख़बार के किसी कोने में दुबक कर रह जाना

जब भी अख़बार के किसी कोने में (क्योंकि मैं टी.वी तो देखता नहीं) किसी बड़ी शख्शियत के मरने की ख़बर पढ़ता हूं तो हैरत में पड़ जाता हूं कि बस, क्या इतनी सी बात है ...यह बंदा तो किसी को कुछ समझता ही नहीं था...लेकिन आज इसे अख़बार ने 2 बॉय 2 सैटीमीटर के कॉलम में समेट दिया...

मुझे यह बात हैरत में डालती है बेशक ....दुःख होता है या नहीं, इस के बारे में कुछ ज़्यादा नहीं कहूंगा क्योंकि दुनिया में वैसे भी हम लोग किसी के रुखस्त होने पर उस इंसान के लिए कहां रोते हैं, हमारा स्वार्थ हमें रूलाता है ....थोड़ा, बहुत या घड़ियाली भी ...चलिए, छोड़िए इस को ....मुझे इन छोटी छोटी ख़बरों की मार्फ़त इस फ़ानी दुनिया का एक रिमांइडर ज़रूर पहुंच जाता है ...

जब हम लोग सही सलामत होते हैं तो हम यही सोचते हैं कि ऊपर अल्ला,ईश्वर, ़गॉड है और नीचे हम इस दुनिया को चला रहे हैं...हम लोग तरह तरह की चालें चलते हैं...अपना स्वार्थ देख कर ही सामने वाले से बात करते हैं...किसी को नीचा गिराने में कसर नहीं छोड़ते और किसी की चाकरी, चापलूसी करते नहीं थकते ....सोचने वाली बात है यह सब किस लिए...

राज्य सभा का एक यू-ट्यूब चैनल है ....उस पर गुफ्तगू नाम से सीरीज़ है ... जहां तक मुझे ख़्याल है उस में अभी तक चार-पांच सौ बड़े लोगों के साथ इंटरव्यू सहेजे पड़े हैं...और इस गिनती में इज़ाफ़ा होता रहता है ...मैं अकसर इन लोगों की बातें ज़रूर सुनता हूं ...मुझे अच्छा लगता है ...इस इंटरव्यू की अवधि 30-40 मिनट से लेकर 60 मिनट तक होती है ...बहुत ही उम्दा प्रोग्राम है यह ....और यह मैंने नोटिस किया है कि मैं उन लोगों की ही इंटरव्यू देखता हूं जिन के बारे में कुछ न कुछ सुन रखा है, जिन के बारे में थोड़ी ख़बर है ....लेकिन उस लिस्ट में शायद 80 से 90 प्रतिशत शख्शियतें मेरे लिए अनजान ही हैं ... लेकिन यह मेरी कमी ही होगी....चैनल वालों के सिलेक्शन पर कोई सवाल नहीं उठा सकता ...क्योंकि अब तक जिन शख्शियतों के बारे में मैं जानता हूं उन को तो सुन ही चुका हूं ...लेकिन उस फ़ेहरिस्त में जिन 80 प्रतिशत लोगों के बारे में कुछ नहीं जानता, नाम ही पहली बार पढ़ता हूं कईं बार तो ....लेकिन जब उन की बातें सुनने लगता हूं तो समझ में आता है कि वह कितना बड़ा फ़नकार है, अदीब है...निर्देशक है, संगीतकार है ...सामाजिक कार्यकर्ता है ...वगैरह वगैरह ...लेकिन फिर भी ज़मीन से जुड़ा हुआ ही लग रहा है ...ऐसे ही बिना वजह हवा में उड़ता नहीं दिख रहा ...हैरानी मुझे इस बात की होती है कि यह शख़्स पिछले 50 सालों से अपने काम में इतना सक्रिय था और मुझे इस के बारे में इल्म तक न था। 

खैर, यह बात तो हुई बड़ी शख़्शियतों की ....लेकिन मेेरा विश्वास यह है कि अगर सड़क के किनारे चल रहे किसी भी इंसान की हम लोग आपबीती सुनने लगेंगे --उस के संघर्ष, उस के सपने, उस की शक्ति, उस की कमज़ोरी के बारे में सुनने लगेंगे तो हमें आभास होगा कि यार इस इंसान पर तो फ़िल्म बन सकती है ...यह तो अपने आप में एक नावल है ... और मैं तो अकसर कहता हूं कि इस दुनिया में हर इंसान अपने अंदर कम से कम एक नावल का कंटैंट तो दबाए बैठा ही है ...लेकिन यहां सुनने की परवाह किसे हैं...कोई सुनना नहीं चाहता, कोई सुनाना नहीं चाहता ....हम सब अपने अपने स्वार्थ के कीचड़ की दलदल में निरंतर धंसे चले जा रहे हैं....जब तक कि कोई अखबार वाला हमें भी दो बॉय दो सेंटीमीटर के कॉलम में नहीं धकेल देगा ...लेकिन वहां तक भी तो वहीं पहुंच पाएंगे जो " कुछ कर जाएंगे "....वरना 99.99 प्रतिशत लोगों के तो आने-जाने का कुछ पता ही नहीं चलता ..

कईं बार लगता है कि हम लोग अपनी ज़िंदगी जी ही नहीं पाते सही ढंग से .... एक बार कहीं पर पढ़ा था कि स्टेज पर कोई ड्रामा हम देखते हैं तो उस में हर किरदार का अपना वक्त है...जब तक स्टेज पर ड्रामा चल रहा है ...वह किरदार सजीव है..लेकिन अगर अगले दिन बाज़ार में आपको वही किरदार अपनी वही ड्रेस में दिखे, वैसे ही वह संवाद करे ...और बाजा़र में घूमता हुआ भी वह खुद को वही किरदार ही समझे तो इस का क्या अंजाम होगा, मेरे कहने की ज़रूरत नहीं है। शायद हम लोगों की भी यही समस्या है ....

जब हम लोग कुर्सी पर बैठे होते हैं (छोटी या बड़ी कोई भी--कुर्सी तो कुर्सी है, जनाब) ...तो यह पॉवर का नशा बहुत से लोगों के दिमाग़ पर चढ़ जाता है .....(शुक्र है कि इस लेख को पढ़ने वालों में से कोई भी ऐसा नहीं है, मुझे पता है) ...हम अजीब अजीब हरकते ं करते हैं....अपने आप को बड़ा सम्राट समझने की बेवकूफ़ी करने लगते हैं...किसी से मिलते नहीं, किसी का काम नहीं करते , किसी से सीधे-मुंह बात नहीं करते ....किसी बाहरी प्रेशर के कारण हम लोग गलत काम भी कर देंगे ...लेकिन विनय-अनुनय की भाषा हमें समझ ही नहीं जाती .... बाहरी तौर पर तो हम अपने आसपास के तीन-चार चाटुकारों को पॉवर-सेंटर लग रहे होंगे ....लेकिन अंदर ही अंदर वह "सम्राट" सोचता है कि वह कितना खोखला है, कितना डरा-सहमा हुआ ...क्योंकि न ही तो वह अपने स्तर पर कोई निर्णय ही ले पा रहा है और बिना किसी तगड़े प्रेशर के वह कुछ करता ही नहीं है ... 

शर्मा जी बहुत नामचीन लेखक हैं....उस दिन उन्होंने तो एक स्वीपिंग स्टेटमैंट ही दे डाली ...कहने लगे कि बिना किसी स्वार्थ के या डर के कोई किसी का काम करता ही नहीं...मैंने पूछा कि क्यों फिर आप यहां-वहां चक्कर लगाते फिरते हो....

उन का जवाब सुन कर मुझे बड़ी हंसी आई ...

कहने लगे ....काम-वाम तो किसी ने कुछ करना नहीं, मैं तो तमाशा देखने जाता हूं...कुर्सी पर बैठे लोगों की लाचारी पढ़ता हूं, उन के हाव-भाव पढ़ता हूं, उन की नौटंकी देखता हूं....उन के मौन को पढ़ता हूं , उन के खालीपन को टटोलता हूं ....उन की एक्टिंग देखने जाता हूं ....

लेकिन इस से आप को मिलता क्या है ...मैंने बीच ही में टोक दिया....

यार, तुम ने भी कैसे अनाडी़ जैसे बात कर दी ....यही तो मेरा रॉ-मेटीरियल है लिखने का ...मुझे यही सब बातें तो फिर अपने लेखन
में गूंथनी होती है ..

और इस के साथ ही वे ठहाके लगाने लगे.....

वाह, शर्मा जी, वाह ...आप का भी कोई जवाब नहीं....

शर्मा जी ने एक नसीहत पिला दी उस दिन - देखो, भाई, हम लोग जितने भी तीसमार खां बन जाएं कम से कम दूसरों के साथ एक इंसान की तरह बर्ताव करना न भूलें - अगर हम ऐसा नहीं कर पाते और हम तरह तरह की मैनीपुलेशन गेम्स खेलने लगते हैं...तो यह भी एक मानसिक समस्या ही है .... और इस का सही निदान कुर्सी पर उतरने के बाद या छिनने के बाद ही होता है ....लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ...

शर्मा जी ने चाय की आखिरी चुस्की लेते हुए कहा कि कुछ भी हो, भाई, कुछ भी बन जाओ.....सारी दुनिया को भले ही जेब में रखने के क़ाबिल बन जाओ....लेकिन हमेशा ज़मीन के साथ जुड़े रहो, ज़मीन पर ही रहो और ज़मीन पर रहने वाले लोगों के साथ बहुत अच्छे से पेश आओ....उस को सुनो.....क्योंकि ये जो सब कुर्सीयां-वुर्सीयां हैं ये सब थोड़े वक्त के लिए हुआ करती हैं....बाद में तो कोई पहचानेगा भी नहीं..!!

सोच रहा हूं शर्मा जी का बात में दम तो था! काश, हम भी शर्मा जी के बताए रास्ते पर चल पाएं!!

संसार की हर शै का इतना ही फ़साना है ...इक धुंध में आना है, इक धुंध में जाना है ...