उत्तर रेलवे मंडल चिकित्सालय के 275-बेड का इंडोर अस्पताल पूर्णतयः कोविड मरीज़ों के लिए समर्पित है - इसमें रोज़ाना कोरोना के नये मरीज़ दाखिल हो रहे हैं और रोज़ाना तंदरूस्त होकर मरीज़ यहां से डिस्चार्ज हो रहे हैं...
इसी क्रम में आज लखनऊ के किशोर-सुधार गृह के 51 तरूण आज इंडोर अस्पताल से डिस्चार्ज हुए...दरअसल 14 दिन पहले किशोर-गृह में रहने वाले 55 बच्चों को कोरोना-पॉज़िटिव पाया गया...उन सब को लखनऊ स्थानीय प्रशासन द्वारा यहां दाखिल करवाया गया...चिकित्सा विभाग की मेहनत रंग लाई ...इन की पूर्ण सेवा-सुश्रुषा की गई ... कल टेस्ट हुआ तो 51 बच्चे कोरोना निगेटिव हो चुके थे ...आज इन को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई।
आज इन बच्चों को यहां से डिस्चार्ज होने वाला इवेंट भी जैसे इंडोर अस्पताल के इतिहास में एक छोटा-मोटा सुनहरे पन्ने की तरह जुड़ गया...अगर देखा जाए तो किशोर-गृह से बच्चे आए...तंदरुस्त हो गये ...छुट्टी हो गई ...बात ख़त्म। ड्यूटी पूरी हुई। लेकिन नहीं, इस में भी कुछ भावुक क्षण जुड़ गए..।
श्रीमति अपर्णा त्रिपाठी -अध्यक्षा, उरे महिला कल्याण संगठन, लखनऊ (बाएं से तीसरी), सीएमएस उ रे डा. सिन्हा को किशोर-गृह के बच्चों के लिए उपहार सौंपती हुईं
उत्तर रेलवे महिला स्वास्थ्य संगठन की अध्यक्षा श्रीमति अपर्णा त्रिपाठी ने इन सभी बच्चों को डिस्चार्ज किए जाने के समय एक एक टी-शर्ट और एक कैप देने का बेहद सराहनीय कदम उठाया...और तो और, जाते वक्त अस्पताल की मुख्य चिकित्सा अधीक्षक, डा वी एम सिन्हा ने इस बच्चों को इतनी आत्मीयता और वात्सल्य-भाव से संबोधित किया जैसे हम लोग अपने बच्चों को दूसरे शहर में भेजने से पहले थोड़ा समझाते हैं ...थोड़ा आगाह करते हैं।
सभी बच्चों को एक स्मृति-चिन्ह की तरह उपहार दे कर भेजना और सीएमएस का स्वयं इन से इस तरह बातें करना किसी के भी मन को छू-जाए। इसे कहते हैं अपनी ड्यूटी से भी परे जा कर किसी काम को अंजाम देना.....श्रीमति अपर्णा त्रिपाठी और डा वी एम सिन्हा को बहुत बहुत साधुवाद। इन बच्चों को इस कदम से यह अवश्य लगा होगा कि हम भी समाज का एक सामान्य हिस्सा जो कि वे बेशक हैं...कोई पता नहीं कौन सी घड़ी, कौन सी घटना किस इंसान की ज़िंदगी बदल देती है.
बच्चों को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे किसी नामचीन स्कूल में सुबह की असेंबली चल रही है और वे सब अनुशासन में रह कर अपनी बातें साझा कर रहे हैं ...डा सिन्हा ने उन्हें कहा कि आपने देखा कि किस तरह से सारे मेडीकल स्टाफ ने आप सब की सेवा की ...अब आप को भी अच्छा नागरिक बन कर देश का नाम रोशन करना है ...ऐसी पहल पहली बार देखने को मिली और सब को छू गई। 👏
इंडोर अस्पताल में कोरोना की टेस्टिंग का सिलसिला निरंतर चालू है ...और मरीज़ों की सूचना के लिए हर तरह की जानकारी उपलब्ध करवाई जा रही है ताकि आने वाले लोगों को असुविधा से बचाया जा सके...।
लखनऊ के संजय गांधी पीजीआई मेडीकल इंस्टीच्यूट से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर है एपेक्स ट्रामा सेंटर (यह भी पीजीआई संस्थान का ही हिस्सा है) ... एक महीने से भी कुछ ज़्यादा ही समय हो गया होगा...मैं उस ट्रामा सेंटर के पास से गुज़र रहा था...अचानक अस्पताल के बोर्ड पर नज़र पड़ी - राजधानी कोरोना अस्पताल....एक बार तो ख्याल आया कि शायद यह कोई नया अस्पताल तैयार हुआ होगा ...लेकिन फिर ध्यान से देखा तो समझ में आया कि यह तो वही एपेक्स ट्रामा सेंटर ही है जिस का नाम बदल कर राजधानी कोरोना अस्पताल रख दिया गया है ...
इसी कोरोना अस्पताल का साइड-व्यू
आज पीजीआई के पास से गुज़र रहा था तो संस्थान के बाहर ही एक बहुत बढ़िया नोटिस लगा हुआ था ...आप भी इसे पढ़िए...मुझे यही ख्याल आया कि सभी अस्पतालों में इस तरह के नोटिस तैयार करवा कर बाहर ही लगवा देने चाहिए...विशेषकर जिन अस्पतालों में कोविड के मरीज़ों का इलाज चल रहा है वहां तो इस तरह की सूचनाएं या इस से भी आगे - जैसी भी अस्पताल प्रशासन ज़रूरी समझे (कस्टम-मेड टॉइप) ...सब कुछ लिखित में बाहर टंगा होना ज़रूरी है ...
इस फोटो पर क्लिक कर के आप इसे अच्छे से पढ़ सकते हैं...
जितनी सूचना कोविड के मरीज़ों और उन के तीमारदारों तक सहज पहुंच जाएगी ...उतनी ही शरारती तत्वों द्वारा उपद्रव करने-करवाने की संभावनाएं कम हो जाएंगी...दरअसल बात यह है कि कोविड-संक्रमित मरीज़ों को ज़िला प्रशासन द्वारा जो भी अस्पताल अलॉट किया जाता है ...ज़ाहिर सी बात है वह जगह उन के लिए नई होती है ...वे उस अस्पताल के बारे में, वहां के प्रशासन के बारे में कुछ नहीं जानते ...वैसे कुछ सुन रहे थे कि अब तो ऐसे अस्पताल में दाखिल होने वाले मरीज़ों को स्मार्ट-फोन भी अपने पास रखने की सहूलियत दी जा रही है ..इसलिए अस्पताल के बारे में, मरीज़ों के बारे में ...उन के खान-पान के बारे में जितना ज़रूरी हो बाहर लिख कर टंगा होना चाहिए....ऐसे ही जैसे पीजीआई संस्थान के बाहर आप यह नोटिस लगा हुआ देख रहे हैं ..मेरे विचार में यह ज़रूरी कदम है...
अब आप सोचिए इस तरह का कंटेंट वाट्सएप पर वॉयरल हो रहा है ...
सूचना जितनी इन लोगों तक पहुंचेगी उतनी ही गलतफ़हमीयां दूर होंगी...बेवजह की नाराज़गी कम होगी ...सोशल-डिस्टेंसिंग का पालन होगा ...वरना अकसर सुनते हैं कि अस्पतालों के बाहर कोविड मरीज़ों के तीमारदारों का तांता लगा रहता है ...एक दो बार तो मैंने भी देखा तो मुझे भी किसी प्रतियोगी परीक्षा जैसा दृश्य ही लगा ....यह किसी के भी हित में नहीं है...
हिन्दुस्तान - 22 अगस्त 2020 (लखनऊ)
हां तो जब से मैंने पीजीआई के एपेक्स ट्रामा सेंटर का नाम बदला हुआ - राजधानी कोरोना अस्पताल देखा है, मुझे रह रह कर यही ख़्याल आता है कि कोरोना इतनी जल्दी हम लोगों की ज़िंदगी से जाने वाला नहीं ...लेकिन अफसोस की बात यह है मैं जब भी बाहर निकलता हूं मुझे तो कहीं पर भी सोशल डिस्टेंसिंग (सामाजिक दूरी) का पालन होता नहीं दिखा ...सिर्फ़ नाक के नीचे एक मैला-कुचैला फेस-मास्क टांग लेने से क्या होगा........कुछ भी तो नहीं।
कुछ महीने पहले वाट्सएप पर एक चुटकुला आ रहा था ..यही कोरोना के बारे में कि जब टीवी लगाते हैं तो लगता है बस, हर तरफ़ कोरोना ही कोरोना है .....लेकिन जब बाहर जाकर बाज़ार में रौनकें देखते हैं तो ऐसे लगता है कुछ भी नहीं है। टीवी मैं कभी देखता नहीं इसलिए ख़बरें कम ही पता चलती हैं मुझे लेकिन जब मैं घर से बाहर कहीं भी जाता हूं तो हर तरफ़ लापरवाही का नाच ही देखता हूं .. आंकड़े भी तो खौफ़नाक हैं!
चलिए, अपना और अपनों का ख्याल रखिए...और जो भी सूचना हो सही स्रोत से ही प्राप्त करिए...वाट्सएप पर ज़्यादा भरोसा मत करिए ..आज एक अजीब सी वीडियो मिली वाट्सएप पर ---ऊपर लगाई है, देखिए उसे ....लेकिन इन बातों पर भरोसा मत करिए..
गणेश चतुर्थी की आप सब को बहुत बहुत बधाईयां ...गणपति बप्पा सारी दुनिया को खुश रखें..🙏
"शर्मा जी, आप की फिटनेस का राज़ अब समझ में आया.."- पिछले हफ्ते मैंने बैंक के एक अधिकारी को यह कहा तो उन की तो बांछें खिल गईं...उन्हें समझ ही में नहीं आ रहा था कि चुप रहें, बात को आगे बढ़ाएं या खुशी को पान की पीक के साथ ही निगल जाएं....
मुझे नहीं पता कि उन्होंने अपने मुंह के अंदर भरी पीक को कैसे मैनेज किया ....लेकिन तुरंत बोल उठे---"डाक्टर साब, कहां देखा आपने मुझे?"
"वहीं पराग डेयरी वाली रोड़ पर ...आपको बड़ी मस्ती से टहलते देखता हूं..."
शर्मा जी हंसने लगे ...और बोले - "3-4 किलोमीटर टहलना भी हो जाता है, और साथ में फूल भी ले आता हूं..."
टहलने वाली बात तो मुझे भा गई ..लेकिन फूल वाली बात पर मैं अटक गया..."शर्मा जी, फूल!"
हंसते हंसते कहने लगे- "इसी बहाने पूजा के लिए फूल भी तोड़ लाता हूं.."
एक बात तो तबीयत हुई कि कह दूं शर्मा जी क्या ही अच्छा हो, अगर आप थोड़ा वक्त और सो लिया करें ...कम से कम फूलों की आफत तो न आएगी। सुबह सवेरे टहलने के बहाने डेयरी से दूध लाने वाली बात तो हम लोग बचपन से सुनते-देखते रहे हैं लेकिन सुबह टहलने के बहाने फूलों को इक्ट्ठा करने वाली बात अजीब सी लगी ....
जिन पेड़ों को हम ने रोपा नहीं, पानी दिया नहीं , परवरिश की नहीं, परवाह की नहीं ....उन के फूलों पर हमारा हक कैसे हुआ !!
फिर मुझे ध्यान आया कि यहां लखनऊ में अकसर देखता हूं कि जो लोग सुबह टहलने निकलते हैं उन में से कुछ के हाथ में एक पन्नी होती है जिस में वे लोग यहां-वहां से फूल तोड़ तोड़ कर ठूंसते रहते हैं....मुझे यह देख कर बहुत अफसोस होता है ...मैं मन ही मन सोचता हूं कि ईश्वर, इन्हें इस समय इन खूबसूरत फ़िज़ाओं में भेजा ही क्यों, प्रभु, आप तो सर्वशक्तिमान हो, इन्हें एक-दो घंटे सोए ही रहने दिया करो...
जी हां, मुझे फूल तोड़ने वालों से बहुत बड़ी शिकायत है ....और वह भी सड़क पर लगे और पार्कों में खुशियां लुटाते, मुस्कुराहटें बिखेरते खूबसूरत फूल लोग ऐसे तोड़ तोड़ कर इक्ट्ठा करने लगते हैं...
सुबह सुबह पता नहीं कितने उदास चेहरों पर इन फूलों को देखते ही खुशी लौट आती है ...फूलों की फितरत ही ऐसी है ...जोश मलीहाबादी याद आ गए ...वे फरमाते हैं ....
गुंचे, तेरी ज़िंदगी पे जी हिलता है.... बस, एक तबस्सुम के लिए खिलता है ... गुंचे ने कहा ... इस चमन में बाबा, एक तबस्सुम भी किसे मिलता है...
जहां तक मुझे याद है बचपन में कभी कभी चोरी-चुपके फूल तोड़ते थे ...लेकिन जैसी ही थोड़ी बहुत समझ आई तो आस पास की सार्वजनिक जगहों पर बोर्ड लगा देखते थे ...फूल तोड़ना मना है। बस, हमारे मन में बैठ गया कि फूल तोड़ेंगे तो माली पकड़ लेगा और पिटाई भी करेगा ..इसलिए इस आदत से बच गए.
मुझे यह भी याद है घर में सैंकड़ों गुलाब के फूल लगे रहते थे ..बड़े बड़े गुच्छे... लेकिन वे अपने आप ही नीचे गिरते थे ...इतने ज़्यादा फूल देख कर हमारे आस पास की महिलाएं मेरी मां को कहा करती थीं कि आप तो गुलकंद तैयार कर लिया करो....मां को भी फूल तोड़ने में कोई खास रूचि न थी, कभी एक दो बार गुलकंद तैयार भी हुआ ...और हां, मेरी बड़ी बहन 31 मार्च के दिन सुबह 40-50 गुलाब के फूल तोड़ कर मुझे चारपाई पर साथ बैठा कर सूईं-धागा लेकर बडे़ चाव से एक फूलों की माला ज़रूर तैयार कर के मुझे अखबार में लपेट कर दे देती कि जैसे ही स्कूल के मास्टर साब तुम्हारा रिज़ल्ट बोलेंगे ....तुम ने उन के पास जाकर उन्हें फूलों का हार पहनाना है ..यह सिलसिला पांचवी कक्षा तक चलता रहा ....और वे लम्हे मेरी यादों का खज़ाना है ...
कालेज पहुंचे ...एक दिन बॉटनी का पीरियड चल रहा था ...प्रोफैसर कंवल साहब ने एक छात्र को क्लास के बाहर लगे एक पेड़ की तरफ इशारा किया और कहा कि उस का एक पत्ता लेकर आओ....वह झट से गया....उसने एक झटके से पूरी की पूरी टहनी ही खींच लाया....उसे नहीं पता था कि प्रोफैसर साहब उसे देख रहे हैं....जैसे ही लौटा ....उन्होंने उसे ऐसे घूरा और कहा ....अगर तुम्हें कोई ऐसे खींचे.....मैंने तो एक पत्ता लाने के लिेए कहा था....
बस, वह घटना भी 16-17 साल की उम्र में दिमाग में ऐसे दर्ज हुई कि कभी भूली नहीं ....जैसे फूलों पर फिल्माए गए वे सब हिंदी फिल्मी गीत जिन्हें कईं दशकों से सैंकड़ों बार देख-सुन चुके हैं लेकिन मन ही नहीं भरता....दिलो-दिमाग की हार्ड-ड्राईव में ऐसे स्टोर हो चुके हैं कि क्या कहें....जब भी उन्हें सुनते हैं, कहीं खो जाते हैं...
हां, तो बात हो रही थी सुबह सवेरे फूल तोड़ने वाले गिरोह की ...अच्छा एक बात और भी है, उन सब को यह आभास होता है कि वे कुछ गलत कर रहे हैं....लेकिन फिर भी आदत से मजबूर ....चार महिलाएं टहल रही होती हैं कईं बार तो हरेक के साथ में अलग से एक फूलों से भरी पन्नी होती है ...
घर में बहुत बढ़िया फूलदान हैं....बहुत ही खूबसूरत- मैटल के, सिरामिक के, पीतल के ....बहुत से एंटीक पीस भी ...लेकिन उन को ऐसे ही कभी कभी देख लेते हैं...फूल तोड़ कर उन में ठूंसने का कोई शौक नहीं है ...लेकिन कभी कभी जो फूल नीचे ज़मीन पर गिरे होते हैं मैं उन्हें ज़रूर उठा लेता हूं...क्योंकि मुझे लगता है कि हम उन्हें ही उठाने के हकदार है ...हंसते-खेलते, खिलखिलाते फूलों को तोड़ कर घर या ऑफिस की साज-सज्जा के लिए या उस प्रभु को अर्पण करना भी कहां तक जायज़ है जो स्वयं इस सारी रचना का कर्त्ता-धर्ता है ....और घर-दफ्तर में आए चार लोग झूठी तारीफ़ कर भी दें कि क्या फूल हैं...लाजवाब, उस के भी क्या हासिल!
फूल तो भई अपने पते पर - अपनी डाल पर ही लगे --खिलखिलाते, खुशियां बिखरते ही अच्छे लगते हैं....अगर फूलदानों का शौक है तो उस में प्लास्टिक के फूल आज कल बहुत बढ़िया मिलने लगे हैं, उन्हें ठूंस दीजिए गुलदानों में ...
इतना लिखने के बाद यह ख्याल आ रहा है कि यह भी कोई टापिक हुआ ...फूल तोड़ना मना है ....फिर ध्यान आया बचपन में घर में आनी वाली हिंदी मैगज़ीन सरिता का ....मेरी मां को पढ़ने का बहुत शौक था ...वे उसे ज़रूर पढ़ा करती थीं....और हम भी तीसरी-चौथी कक्षा में उस मैगज़ीन को हाथ में पकड़ते ही चुटकुलों, कार्टून के अलावा उस पन्ने को ढूंढने लगते जिस का शीर्षक होता था....मुझे शिकायत है....इस में साथ में लिखा होता था कि आप सार्वजनिक स्थानों पर इस की कतरन ज़रूर चिपका दीजिए......ये मैं 45-50 साल की बातें कह रहा हूं...जैसे किसी पाठक ने अपनी शिकायत में यह लिखा होता कि उसे शिकायत है उन लोगों से जो ट्रेन में टायलेट इस्तेमाल करने के बाद फ्लश नहीं चलाते, गंदगी फैलाते हैं.....और मैगजीन की तरफ से यह लिखा होता कि इस कतरन को संबंधित जगह पर चिपका दीजिए....हमारी भी इच्छा तो होती तो हम भी यह काम करें ....लेकिन कभी किया नहीं ...बस, पढ़ कर ही मज़ा ले लिया करते थे...
आज सुविधाएं हैं, नेट है, थोड़ा बहुत अपने मन की बात कहना भी जानने लगेे हैं...इसलिए इस तरह की हम सब से जुड़ी शिकायतें अपने ब्लॉग पर ही डाल दें....इसे देख कर अगर किसी ने भी सुबह टहलते रास्तों पर सजे हुए बेइंतहा खूबसूरत फूलों को तोड़ने से गुरेज कर लिया तो मेरी मेहनत सफल हो गई ....और मैं आप से कुछ मांग थोड़े ही न रहा हूं..!!