मंगलवार, 27 मार्च 2018

बाहर के खाने से अब डर लगता है ...

मैं मीट, मछली, अंडा नहीं खाता, इस का बिल्कुल भी धार्मिक कारण नहीं है ...एक तो मुझे अच्छा नहीं लगता और दूसरा मुझे मैडीकल/वैज्ञानिक नजरिये से भी (इस को भी आप अधिकतर पर्सनल ही समझिए) ठीक नहीं लगता ....जिसे ठीक लगता हो, वह खाये, पिए...हर एक की अपनी मरजी है .. क्या ख्याल है? लेकिन मुझे यह सब खाने वालों से रती भर का कोई परहेज नहीं है ... परिवार में ही कुछ खाते हैं, कुछ नहीं खाते ...पर्सनल च्वाईस..!!

उसी तरह से मैं बाहर कुछ भी खाना पसंद नहीं करता हूं जाहिर सी बात है इस का भी कोई ऐसा-वैसा कारण नहीं है.....बिल्कुल भी नहीं है, खूब खाते ही रहे हैं....लेकिन मुझे पता है कुछ लोग धर्म-जाति के फ़िज़ूल के चक्कर में भी बाहर नहीं खाते .. लेकिन मैं यह जानता हूं कि कारण कुछ भी हो, जो लोग बाहर नहीं खाते वे बड़े बुद्धिमान होते हैं ....यह मैं ५५ साल की उम्र में कह रहा हूं....सौ  चूहे खाकर बिल्ली हज को जाती है जैसे, बिल्कुल वैसे ही ....इतनी उम्र हो गई बाहर से बहुत कुछ खाया ..लेकिन अब विभिन्न कारणों की वजह से बाहर का कुछ भी अच्छा नहीं लगता... कुछ अहम् कारण तो ये हैं .. मिलावटखोरी, गंदा घी, नकली घी, मिलावटी तेल, नकली दूध....लालच और इस के साथ साथ हमारी लगातार गिरती हुई सोच ...मुझे मुनाफ़ा चाहिए, किसी की सेहत का मैंने ठेका नहीं ले रखा ...

मुझे अपने पेशे की वजह से बहुत से लोगों के साथ उन के खाने-पीने के बारे में बात करने का मौका मिलता है .. कुछ तो इतने कट्टर मिलते हैं ..विशेषकर पुराने लोग ...जो बाहर चाय भी नहीं पीते ...मैं इस की छानबीन कभी नहीं करता कि उन का बाहर न खाने का क्या कारण है ...कारण कुछ भी हो, लेकिन मेरी नज़र में वे सब लोग बहुत समझदार होते हैं...

नये नये नौकरी पर लगे युवक आते हैं....सारे बताते हैं कि वे स्वयं खाना बनाते हैं, जो लोग मिल कर रहते हैं वे मिल जुल खाना बना लेते हैं...दरअसल आज की तारीख में यह दकियानूसी सोच की रोटी बनाना औरतों का ही काम है, इसलिए बेटों को यह सब सीखने-करने की कोई ज़रूरत नहीं है, यह बिल्कुल सड़ी-गली सोच है, इस से हम लोग भविष्य में होने वाली दुश्वारियों के चलते लाड़लों की सेहत ही खराब करते हैं .. ऐसी भी दर्जनों उदाहरणें देखी हुई हैं मैंने ..

बाहर कुछ ढंग का नहीं मिल सकता ...घर में साधारण खाना भी पौष्टिकता से भरपूर होता है और बाहर का दो दिन पुराना शाही पनीर भी बीमारी का कारण!

दो दिन पहले यादव जी आए ...६५ के करीब की उम्र थी ..रिटायर्ड थे ...अच्छे हृष्ट-पुष्ट थे...मैंने उन के पूछने पर बताया कि मैं अमृतसर से हूं ...कहने लगे कि मैं भी १९७० के दशक के आसपास वहां रहा था .. क्या गजब की जगह है, बताने लगे कि रिश्तेदार अभी भी वहीं हैं...बता रहे थे कि बाहर से कुछ भी नहीं खाता, लईया-चना-सत्तू ही लेकर चलता हूं सफर में भी ...एक रोचक बात बताई उन्होंने जो विरले लोगों के लिए प्रैक्टीकल हो सकती है ..बताने लगे कि ड्यूटी पर बाहर भी जाता था ..दिल्ली विल्ली कभी ...तो मेरे बैग में थोड़े से चावल, दाल, नमक, मिर्च, हल्दी....एक प्याज, एक दो आलू, धनिया..होता ही है..किसी भी बाग-बगीचे के चौकीदार से पतीली मांग कर वहीं पर तहरी तैयार कर लेता हूं ..उसी समय उसे पतीली लौटा देता हूं....मैंने कहा कि आग का क्या जुगाड़ ?.....हंस के कहने लगा कि लकड़ीयों की क्या कमी है साहब यहां पर, यहां वहां से उठा कर काम चल जाता था।

ऐसा अनुभव मैंने पहली बार सुना था ...और ऐसे ही मेरे मुंह से निकल गया ...और अगर अमृतसर में कुछ खाना हो तो ... तो वह उछल पडा़ ...साहब, वहां की तो बात ही कुछ और है ...वहां की तो मुझे मिट्टी मिले तो मैं वह भी खा जाऊं...

अमृतसर की मिट्टी से इतना लगाव देख कर मैं भी भाव-विभोर हो गया ...मैंने कहा कि यह तो मेरे जैसी सोच है ...मैं भी बाहर कुछ नहीं खाता...लेकिन अमृतसर में जा कर मैं कुछ भी खा सकता हूं..

यहां लखनऊ में हम लोग आए तो शुरू शुरू में दो तीन बहुत बड़े रेस्टरां में गये .. एक बार खाने में एक कीड़ा निकला और दूसरी बार एक छोटा सा कॉकरोच ...मसाला डोसा खाते वक्त यह हुआ....उस दिन के बाद मैंने तो तौबा कर ली ...फिर दूसरी चीज़ें तो खाते-पीते ही रहे ...बस, खाना ही नहीं खाते थे ...लेकिन इधर कुछ समय से मिलावट के ऐसे ऐसे किस्से सुन लिेये हैं कि अब तो खौफ़ लगता है कुछ भी बाहर खाने से ...और फूड-हैंडलिंग की बात न ही करें तो ठीक है!

जब भी बाहर खाया...अच्छे से अच्छे रेस्टरां में भी , हर बार तबीयत खराब ही करवाई ...कईं बार अगले दिन सुधर गई और कईं बार हार कर चार पांच दिन दवाईयां खाने की सिरदर्दी पल्ले पड़ गई ...

और लोगों को भी यह सब समझाते रहते हैं...लेकिन हमारे कहने से लोग गुटखा-पान मसाला नहीं छोड़ते तो बाहर से खाना कैसे छोड़ सकते हैं!!


मेरे ख्याल में बंद करूं इस बात को यहीं पर ....ऐसे ही आज इस पर लिखने लग गया ....दरअसल अपने अमृतसर के स्कूल वाले ग्रुप में हमारे एक साथी ने अमृतसर के एक नामचीन रेस्टरां में पूड़ी-छोले की प्लेट की वीडियो भेजी जिसे मैं यहां एम्बेड कर रहा हूं... आप भी देखिए ....इस तरह का बाहर खाते-पीते हमारा ध्यान कभी आचार की तरफ़ तो जाता ही नहीं है, क्या ख्याल है, हम इस तरह के कीड़े वीड़े तो अमरूदों में ढूंढते फिरते हैं ...किस तरह से आचार में कीड़े पड़े हुए थे....इस वीडियो को सहेज कर रख लिया है ....अगली बार यादव जी आए तो उन के संज्ञान में भी लाना ज़रूरी है .... वे भी गल्तफहमी से बाहर निकलें ....और मैं तो इस गल्तफहमी से बिलकुल बाहर आ गया कि अमृतसर में तो मैं कहीं से भी कुछ भी खा-पी सकता हूं ...


शुक्रिया, सुनील भाई, इस वीडियो के लिए .. और हां, जब मुझे यह वीडियो मिली तो मुझ से खुली नहीं, नेटवर्क नहीं था शायद, वीडियो से पहले सुनील का संदेश दिखा कि फलां फलां रेस्टरां के पूडी़-छोले छके जा रहे हैं....मैंने कोशिश की कि उसे वह वीडियो भेजूं ...कि खाओ, पियो, ऐश करो मितरो, दिल पर किसे दा दुखायो ना...शुक्र है यह वीडियो मैंने उसे भेज नहीं दी ...क्योंकि असली माजरा तो उस की पूड़ी-छोले वाली वीडियो और गाजर का अचार देख कर ही समझ में आया...

और मुझे यहां यह भी बताना ज़रूरी लगता है कि मैं जब एक दो दिन कहीं बाहर होता हूं तो क्या करता हूं....फ्रूट चाट बनाता हूं, सलाद बना लेता हूं ... और सूखी भेल, और कोई ब्रांडेड चिवड़ा खा लेता हूं...मिष्ठी दही लेता हूं ...चाय बना लेता हूं, खिचड़ी भी बना लेता हूं ...घर में ...भगवान का शुक्र है कि यादव जी जैसा जुगाड़ करने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ी ....रब्बा वे, तेरा लख लख शुकर है ....


अब इस पोस्ट के मूड के साथ मिलता जुलता गाना लगा दें ?



सोमवार, 26 मार्च 2018

बॉम्बे रोजनामचा..

आज सुबह मेरे पास यहां लिखने के कुछ खास है नहीं...बस, अपने उस्ताद की बात याद आ गई..

दरअसल आज से १६-१७ साल पहले मैं केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा आयोजित एक नवलेखक शिविर में शामिल होने आसाम के जोरहाट में गया हुआ था ..पंद्रह दिन तक चला था यह शिविर...

उस दौरान लिखने-पढ़ने की बहुत सी बारीकियां सीखने का मौका भी मिला ... एक बहुत बडे़ लेखक ने उन दिनों हमें बताया कि उन के दादा जी पुराने ज़माने में एक कागज़ पर चीनी,घी, आटा, चावल, दाल आदि खाने-पीने वाली वस्तुओं के दाम लिखते रहते थे .. बस, सौ साल बाद वह एक विश्वसनीय दस्तावेज़ बन गया ...यह भी साहित्य ही है ...वे हमें समझाते थे कि रोज़ लिखो, अपनी मातृ-भाषा में भी लिखो और जो मन में आए अपनी डॉयरी में दर्ज करते जाइए... अब यही मशविरा मैं नये लेखकों को देता हूं ...रोज़ डॉयरी में एक सफ़ा भी लिखेंगे तो साल में हो गये ३६५ सफ़े....यकीं मानिए इन में ५०-६० तो कहीं छपने लायक भी ज़रूर होंगे ...बस, रोज़ाना कुछ भी लिखना लाज़मी है ..

डायरी वायरी में तो कुछ साल सब कुछ दर्ज किया ..फिर २००७ से जो कुछ भी कहना होता है अपने आप से या दूसरों से इसी ब्लॉग में ही सहेज लेने की फ़िराक में रहता हूं...

आज की इस पोस्ट में भी आप को चंद तस्वीरों और कुछ रेट-लिस्टों के अलावा कुछ नहीं दिखने वाला .. बंबई में आज घर कितने में मिलता है, क्या रेट है, कूरियर के क्या रेट हैं, मैडीकल जांच करवाने के लिए कैसे तैयार किया जा रहा है ...इन तस्वीरों पर नज़र फेर कर आप जान पाएंगे ...जान तो क्या पाएंगे, आप सब तो सुधि पाठक हैं, पहले ही से बहुत कुछ जानते हैं, बस मेरे कैमरे में बंद कुछ तस्वीरें देख लेंगे ....और हां, कुछ तस्वीरें बोलती तो हैं ही ...

कल मैंने बांद्रा एरिया की एक चर्च के बाहर यह बात पढ़ी.....मैंने इस का मतलब समझने की बहुत कोशिश की ..लेकिन मेरी समझ में अभी तक तो यह बात आई नहीं....मुझे चर्च के बाहर इस तरह के मैसेज पढ़ना बहुत अच्छा लगता है, इन में ज़िंदगी को जी लेने की कला छिपी होती है .. पता नहीं, इस गधे वाले शख्स की बात मेरे पल्ले क्यों नहीं पड़ रही ...

अगर आप को इस बात का मतलब पता हो तो कमैंट में लिखिएगा... 
आज सुबह टहलने निकले तो अपनी बिल्डिंग में हर तरफ़ बसंत ऋतु का नज़ारा देखने लायक था ...हरे भरे वृक्ष और फूलों से लदे हुए जैसे कुदरत मौसम के मिजाज का लुत्फ उठा रही हो ..


अभी बिल्डिंग से बाहर निकले ही थे तो बाहर इस तरह से पेड़ पर पहली बार कटहल लगे हुए देखा ....जर्नल-नालेज कमज़ोर ही है मेरा भी ...मैं बिल्कुल भूल गया था कि कटहल भी पेड़ पर ही उगते हैं...सोच कर हैरानी भी होती है कि जितने बड़े बड़े कटहल बाज़ार में बिकते हैं वे कैसे पेड़ पर टिके रहते होंगे ...



आगे बढ़े तो देखा कि किडनी स्टोन और प्रोस्टेट ग्लैंड की जांच का एक इश्तिहार टंगा हुआ है जगह जगह ....३५०० रूपये के टैस्ट फोकट में करने की बात पची तो नहीं .. लेकिन फिर भी एक फोटो खींच ही ली... यहां चसपा करने के लिए ...


अभी थोडा़ आगे बढ़े थे कि किसी मकान बिकाऊ का एक इश्तिहार दिख गया ... पास जा कर देखा तो यह किसी बैंक के द्वारा किया गया किसी नीलामी का नोटिस था किसी फ्लैट का .. आप भी देखिए और इसे इत्मीनान से पढ़िए...यह जानने के लिए मुंबई में पाली हिल इलाके में इन दिनों प्रापर्टी का रेट क्या चल रहा है..


आगे चलते हैं ...एक छोटे से दुकानदरा की क्रिएटिविटी कुछ ऐसी दिखी ....मैंने फोटो खींची तो वह हंसने लगा ...कहने लगा कि इस के दो फ़ायदे हैं, एक तो बैठने की जगह मिल गई और दूसरा आते जाते हुए वाहन मेरे स्टाल के दरवाजे से टकरा कर उसे बंद नहीं कर पाते अब ... सही ही कहते हैं ..Necessity is the mother of invention!



उसी स्टाल पर ही एक कूरियर कंपनी का इश्तिहार पड़ा हुआ था ...उत्सुकता हुई मुझे देखने की ...क्योंकि मैं कूरियर के मामले में अभी भी बीस साल पहले के रेटों में ही कहीं अटका पड़ा हूं...जब कभी कोई चिट्ठी कूरियर करवाने जाता हूं और वह सौ रूपये मांग लेता है तो मेरे शरीर में एक हल्का सा करंट दौड़ पड़ता है ... फिर ध्यान आता है कि अब बीस-तीस रूपये वाली बात भी तो बीस साल पुरानी हो गई है ....इसलिए इस कूरियर की रेट-लिस्ट की भी फोटो खींच ली ..ताकि भविष्य में मुझे कूरियर रेट सुन कर लगने वाले हल्के करंट का प्रभाव कुछ कम हो सके ....यकीं मानिए, इसे पढ़ कर मुझे नहीं लगता कि मुझे भविष्य में ऐसी कोई तकलीफ़ कभी होगी...



आते वक्त इस पेड़ पर जब नज़र पड़ी तो हमेशा की तरह बचपन में बडे़-बुज़ुर्गों द्वारा घुट्टी की तरह पिलाई गई बात याद आ गई कि इस तरह के पेड़ों के इन खाली "खुड्डों" में सांप छिपे होते हैं...हा हा हा हा हा .....😀😁😂....अब तो मैं दांत निकाल रहा हूं लेकिन बचपन में ऐसी बात सुन कर ही हम लोग सहम जाया करते थे..


अच्छा, आज के दिन के लिए गप्पबाजी इतनी ही काफ़ी है ... सोच तो आप भी यही रहे होंगे कि तुम टहलने गये थे या तस्वीरें खींचने....मैं अपने आप से भी यही पूछ रहा हूं ...जब कि मैं भी जानता हूं कि मेरा टहलना तो बस फोटो खींचने का एक बहाना होता है ...वरना .. टहलना!!


अब मैं वापिस अपनी किताब की तरफ़ लौट रहा हूं ...मैं आजकल इसे पढ़ रहा हूं ...यह रूपा पब्लिकेशन की किताब है ...बहुत ही बढ़िया है ..

जाते जाते सोच रहा हूं कि रामनवमी के उपलक्ष्य में आज के दिन एक भक्तिगीत लगा दूं....यह गीत मुझे बेहद पसंद है ....शायद मैंने १९७३-७४ के आसपास जब अमृतसर में दूरदर्शन आया ही था....तब इसे टीवी पर ही देखा था ...बाद में तो कईं बार देखा ..और गली-मोहल्लों में लाउड-स्पीकरों पर तो यह गीत उस दौर में अकसर बजता ही रहता था .. राम चंदर कह गये सिया से ...ऐसा कलयुग आयेगा  !! .....आयेगा क्या भईया, आ चुका है..!!


शनिवार, 24 मार्च 2018

नकली दांतों के असली किस्से

नकली दांतों की बात करता हूं तो बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं अकसर ...जब हम लोग ननिहाल में गये होते ...नाना जी खाना खाने के बाद हैंडपंप के पास पहुंचते और बच्चों में से किसी को एक इशारा ही मिल जाता कि अब नाना जी कुल्ला करेंगे ...हैंडपंप को गेड़ना है दो मिनट के लिए हमें...मुझे अभी भी याद है अच्छे से कि किस तरह से वह हर खाने के बाद कुल्ला करने से पहले नकली दांतों का पूरा सैट मुंह से निकाल कर उसे भी हैंडपंप के पानी से जल्दी से धोते और खटाक से मुंह के अंदर बिठा लेते और हमारा कौतूहल भांप कर मुस्कुराते हुए कोई उर्दू की किताब पढ़ने में मशगूल हो जाते .. वे एक उर्दू अखबार के संपादक भी थे ...

समय का चक्का आगे चला ...नकली दांतों के बारे में पढ़ने, समझने, तैयार करने और उन्हें मरीज़ के मुंह में फिट करने का प्रोफैशन मिल गया ...इस दौरान तमाम तजुर्बात हुए ..हर तरह के .... कुछ दिन पहले नकली दांतों के पांच सैट वाला एक शख्स मिला तो सोचा कि चलिए, इस पर ही कुछ कहते हैं।

जब हम लोग डैंटिस्ट्री करते हैं तो पढ़ते हुए भी हमें मरीज़ों के नकली दांतों के सैट -शायद दस मरीज़ों के -- तैयार करने होते हैं...अब, इतनी प्रैक्टिस तो उस समय होती नहीं है ...ऐसे ही जल्दबाजी में कोटा पूरा करने के चक्कर में लगे रहते थे ... सरकारी कॉलेज था, फिर को मरीज़ों को नकली दांत लगवाने के लिए शायद १००-२०० रूपये जमा तो करने ही पड़ते थे ...अस्सी के दशक में भाई यह रकम भी काफी होती थी ..

किसी को दांत फिट नहीं हुए, किसी को चुभ रहे हैं, किसी का मुंह अजीब सा हो गया है ...ये सब आम समस्याएं होती हैं नये दांतों के साथ ... एक किस्सा जो मुझे ताउम्र याद रहेगा कि हमारी एक सीनियर थी...उसने एक बुज़ुर्ग महिला का डेंचर तैयार किया ...उसे फिट नहीं आ रहा था ...बार बार आ रही थी, वैसे भी नकली दांतों का सैट लगवाने के लिए मरीज़ को पांच छः बार तो आना ही होता था, वह हमारी सीनियर जब भी उसे दूर से देखती तो उस के पसीने छूटने लगते ...उस दिन भी जैसे ही बेबे आई ...उसने कहा कि यह दांत किसी काम के नहीं हैं....लेकिन सीनियर ने अपनी दलील दी कि हो जाएंगे रवां होते होते ... इतने में बेबे ने ज़ोर से उन दांतों को वहीं कमरे में पटका और ज़ोर से कहा ...लै रख ऐन्ना नूं वी, मेरे तो किसे कम दे नहीं, मैं समझांगी १०० रूपये दी सवा तेरे सिर च पा दित्ती..." (यह ले रख ले इन दांतों को, मेरे लिए तो किसी काम के हैं नहीं, मैं तो यही समझूंगी कि मैंने तेरे सिर पर १०० रूपये की राख डाल दी.).....और बुदबुदाते हुए वह बेबे चली गईँ....

इतने सालों में हर तरह के मरीज़ के साथ पाला पड़ा और पड़ भी रहा है ...कुछ एक दम ज़िंदगी से संतुष्ट ...कुछ ऐसे जो सब कुछ होते हुए भी हर समय शिकायत की मोड में दिखे .. कुछ बिना दांतों के भी या दो चार दांतों के साथ भी एकदम खुशी से लबरेज दिखे ...जब उन्हें दांत लगवाने के लिए कहा भी गया तो उन का जवाब यही था कि क्या करने हैं, अपना काम चल रहा है, कोई दिक्कत नहीं है ...दांत नहीं हैं तो क्या है, चने तक भी मैं इन इन चंद दांतों और टूटी फूटी दांत की जड़ों से चबा लेता हूं...कुछ कहते हैं कि अब क्या करना है, कितने दिन बचे हैं ज़िदगी में ...ऐसे ही गुजर-बसर हो जायेगी, चल रहा है अपना काम...उस दिन एक बुज़ुर्ग महिला मेरे पास अकेले आई थी जिसने कहा कि बेटा कहता है अब नकली दांतों पर इतना खर्च करोगी, तुम रहने ही कितने दिन वाली हो....उस की बात सुन कर मुझे बहुत दुःख हुआ।

ऐसे ऐसे मरीज़ दिखे जिन के नकली दांत देखने में ही लगता था कि यार, इन में को बहुत गड़बड़ है, इन्हें बनाते समय किसी से कुछ चूक हो गई है, लेकिन नहीं, वे मज़े में दिखे, सब कुछ खा पी रहे थे उन दांतों से ... (उन्हें कभी उन दांतों की कमियां गिनाने की हिमाकत कभी नहीं की मैंने)...और कुछ ऐसे नकली दांतों वाले जिन के दांत एकदम परफैक्ट हैं, लेकिन उन्हें उन से बीसियों शिकायते हैं ... इस के पीछे दांतों की कुछ कमी तो हो सकती है लेकिन बुज़ुर्ग लोगों की कुछ अन्य समस्याएं भी होती हैं...जैसे एक उम्र के बाद मुंह में लार का बनना कम हो जाना ...आदि आदि ... लेकिन कुछ यह सब हैरतअंगेज़ तरीके से स्वीकार कर लेते हैं .. और कुछ (बहुत कम) शिकायत ही करते रहते हैं .. जब हम लोग पढ़ते थे तो ऐसे मरीज़ों को साईकिक कह देते थे जब डाक्टर हम लोग आपस में बात करते थे ...व्यक्तिगत तौर पर मुझे किसी के लिए यह शब्द कहने में गुरेज़ ही रहा है ...दांतों से कोई संतुष्ट नहीं है , बार बार आ रहा है तो हम उसे कह दें कि वह तो पगला गया है....नहीं, नहीं, ऐसा नहीं होता, कुछ तो दुश्वारियां उस की भी होंगी!!

अपने आस पास भी देखा .. नानी पहनती थीं डेंचर, मेरे पापा भी पहनते थे ...लेकिन याद नहीं कभी इन्होंने ने कोई शिकायत की हो, इन दांतों के बारे में ... मेरे कहने का आशय यही है कि अगर कोई खुश है अपने नकली दांतों से या नाखुश है तो इस के पीछे बहुत से अन्य कारण होते हैं.... which are beyond the scope of this light article! But, yes, there are many such reasons like his/her mental make-up, their personal life, self-esteem, social life ...  ये सब बातें तय करती हैं कि कोई अपने नकली दांतों से ही क्या, ज़िंदगी से भी खुश है या वक्त को धक्का ही दिया जा रहा है बस!!

यह तो कोई मैडीकल पोस्ट नहीं लग रही है, किस्सागोई जैसा मामला लग रहा है ...हां, तो बहुत से किस्से ऐसे भी नज़रों में आए कि रात को बिल्ली, चूहा नकली दांत खाट के पास पडे़ हुए ले कर चला गया, नहाते समय दांत नीचे गिरे और सैट टूट गया, किसी ने चलती बस में थोड़ा मुंह बाहर निकाल कर खांसा तो डेंचर गायब.....ये सब किस्से अपने मरीज़ों को भी सुनाने पड़ते हैं उन्हें आगाह करने के लिए....

पंजाबी में एक कहावत है ...जब पैसा ज़्यादा होता है तो लड़ने लगता है ...लड़ने लगता है का मतलब कि उसे यहां-वहां-कहां भी खर्च करने की खुजली होने लगती है ... किसी ने नकली दांतों का सैट लगवाया हुआ है ..खुश है...लेकिन किसी रिश्तेदार ने जबड़े में फिक्स दांतों का सैट डेढ़-दो लाख रूपये खर्च कर लगवा लिया है ...इसलिए अब उसे भी वैसा ही पक्का काम करना है ....अपनी तरफ़ से तो समझा देते हैं ऐसे लोगों को भी ....शायद समझ भी जाते होंगे!


कुछ दिन पहले एक बुज़ुर्ग से मुलाकात हुई ... पिछले दस सालों से नकली दांतों का सैट पहन रहे हैं... दस साल पहले जो सैट लगवाया था वह जब थोडा़ घिस सा गया तो नया सैट बनवा लिया ... चंद साल पहले ... वैसे बता रहे थे कि उन नकली दांतों से शिकायत कुछ भी नहीं है अभी तक ...बस, फिर लखनऊ के किसी दूसरे इलाक में जा कर नया सैट बनवा लिया ... इतने में किसी ने कहा कि मेडीकल कालेज से बनवा लो ... उस के बारे में कहते हैं कि उन्होंने बहुत दौड़ाया लेकिन वह सैट किसी काम का नहीं है, एक दिन भी नहीं पहना ... इतने सालों से वह सैट न. २ ही पहन रहे थे कि उन्हें लगा कि नया सैट ही बनवा लिया जाए ... तो उन्होंने एक सैट और बनवा लिया ... और फिर उसमें कुछ प्राबल्म सी लगी (बताता हूं अभी उस के बारे में भी, थोड़ा सब्र रखिए जनाब) तो उसी डाक्टर से एक और सैट लगवा लिया ... लेकिन उस से भी मज़ा नहीं आया....मज़ा उन्हें नहीं आया कि किसी और को नहीं आया, अभी सुनाएंगे आप को पूरा किस्सा ...

 इन में से एक सैट इन के मुंह में था, और दो जेब में 

इतना तो आप समझ ही गये होंगे कि इन बुज़ुर्ग साहब के पास कुल मिला कर नकली दांतों के पांच सैट हैं...जिन में तीन तो वे मुझे दिखाने लाये थे .. अभी पिछले कुछ महीनों में इन तीन सैटों पर बाईस हज़ार के करीब खर्च कर चुके हैं,...रिटायर सरकारी मुलाजिम हैं, उम्र ७५ के करीब. लेकिन नकली दांतों से अभी भी खुश नहीं हैं..

मुझे इन की बातचीत से लगा कि इन्हें इन सब नकली दांतों के सैट से कोई विशेष शिकायत नहीं है शायद.... लेकिन इन के बच्चों को है...शिकायत यह है कि एस सैट तो ऐसा बन गया है कि मुंह में लगाते पता ही नहीं चलता कि लगाया भी हुआ है या नहीं, और दूसरा सैट ऐसा है कि वह लगाते ही इन का ऊपर वाला होंठ थोड़ा सा ऊपर उठ जाता है, नकली दांत थोड़े बाहर की तरफ़ हैं... इन के बच्चे ऐसा मानते हैं .... मैंने पांच मिनट लगा कर यह सैट की वजह से होंठ ऊपर उठने वाली समस्या तो सुलटा दी .... खुश हो गये, लेकिन मुझे पता है कि वह समस्या अधिकतर मानसिक/काल्पनिक ही थी ...

उस दिन मैं एक ऐसे शख्स से पहली बार मिला था जिस के पास नकली दांतों के पांच सैट थे .. लेकिन वह फिर भी नाखुश था ... उस से बात करते वक्त मैं यही सोच रहा था कि खुशी भी कितनी सब्जैक्टिव है, हर बंदे के अपने अपने मयार हैं खुशी को मापने-नापने के ...मुझे उस दिन वह भी याद आ रहा था कि हम लोगों ने वह भी मंज़र देखे हैं जब लोग फुटपाथ पर नकली दांतों के सैट रख कर बेचा करते थे .. जो जिसके नाप का हो, डाल कर देखे और ले जाए ...(इस का मैं चश्मदीद गवाह हूं) ...बेशक, यह एक गलत ही नहीं बेहद खतरनाक प्रैक्टिस रही है ... दांत एक दूसरे के फिट नहीं आ सकते .. और इन में रेडीमेड वाला कोई कंसेप्ट नहीं हो सकता ...और मैंने तो कईं बार देखा है लोग चश्मे भी ऐसे ही पुराने खरीद कर चढ़ा लेते हैं...जी हां, नज़र के चश्मे ...यह तो अभी भी होता देखा है मैंने कईं बार ...

यह भी एक अलग तरह की खाई है ...किसी के पास नकली दांतों के पांच पांच सैट और फिर भी पैसा लड़ रहा है ...मन मचल रहा है कि कुछ इस से भी उम्दा हो तो वही करवा लें और दूसरी तरफ़ ऐसे लोग जो एक सैट के लिए तरसते हुए इस दुनिया से रूख्सत हो जाते हैं ...और कुछ को बच्चे यह कह कर टाल देते हैं कि अब तुम्हारी बची ही कितनी है,  और कितना जिओगे!!

चलिए, बहुत हो गई किस्सागोई, अब अपनी पसंद का एक गीत लगा रहा हूं, शायद यह आप की भी पसंद हो ...just check this out!