सुबह अखबार देखा तो एक पूरी फेहरिस्त भी दिखी थी कि आज के दिन विश्व जल दिवस के मौके पर कौन कौन से प्रोग्राम कहां कहां होने जा रहे हैं...मैं आज के दिन के बारे में शायद भूल ही गया होगा अगर आज सुबह छोटी सी साईकिल यात्रा के दौरान मुझे खास देखा न होता...
ऐसा भी क्या खास देख लिया मैंने? -- आपने देखा होगा कि कुछ घरों के बाहर बहुत सारा पानी इक्ट्ठा हो जाता है ... पानी गंदा होता है, काई जमी होती है ...जानवर भी वहां पर पानी नहीं पीते, बिल्कुल बदबूदार, बीमारीयां परोसने वाला और मच्छरों की कॉलोनी होता है यह पानी ...आप ने ज़रूर देखे ही होंगे ऐसे मंज़र...इसे आप छप्पड़ से कंफ्यूज़ नहीं कर सकते ...
छप्पड़ क्या होते हैं...पहली बात तो यह है कि शायद यह पंजाबी का लफ़्ज है ...हिंदी में पोखर, तालाब कहते होंगे ...अकसर ये बरसाती पानी से गांव में या शहरों की खाली जगहों पर बन जाते थे ...बचपन में हम देखते थे हमारे साथी लोग उन छप्पड़ों में कूद कूद कर मज़ा किया करते थे और हम बस किनारे पर बैठ कर उन की हिम्मत की दाद दिया करते, शायद थोड़ी जलन भी होती लेकिन बस वहां किनारे पर मन ममोस कर बैठे ही आते ....उन छप्पड़ों में गाय, भैंस भी तैरने का आनंद ले रही होतीं...वे भी क्या दिन थे!
एक तो मैं बात को खींचने बड़ा लगा हूं... सीधी सी बात है कि आज सुबह मैंने देखा कि ऐसे ही एक गंदे पानी के तालाब के पास एक धोबी मैले कपड़ों की गठरियां खोलने में मशगूल था .. दोष उस का भी नहीं है, अब धोबीघाट तो पुरानी फिल्मों में ही दिखते हैं...उसने भी पूरी रिसर्च कर ही रखी होगी...वह भी अपना काम करे तो आखिर करे कहां...पापी पेट का सवाल है ...और सब से बड़ी बात जब ग्राहक को कोई शिकायत नहीं है तो आप और हम कौन होते हैं टांग अड़ाने वाले ....बस, ध्यान यही आ रहा था कि ऐसे पानी से धुले कपड़ों की साफ़-सफ़ाई का क्या म्यार होता होगा! यह एक लखनऊ की नहीं, सारे देश की समस्या होगी शायद!
मैंने अपने अनुभव और आबज़र्वेशन के आधार पर कह सकता हूं कि पर्यावरण की जितनी सेवा ऐसे लोग करते हैं जिन्हें हम कम पढ़ा लिखा, कम अवेयर कहते हैं या वे लोग जो कम साधन-संप्पन होते हैं ... वही लोग पेड़ों को काटने से गुरेज करते हैं... कम पानी में अपना निर्वाह करना जानते हैं... मजबूरी वश ही शायद, लेकिन वे लोग सीमित में भी खुश रहते हैं....पहाड़ों का ही देखिए, वहां के लोग तो प्राकृतिक संसाधनों को सहेज कर रखते हैं ...लेकिन पूंजीपति ही वहां जा कर कंकरीट के जंगल तैयार कर के पर्यावरण संतुलन में गड़बड़ कर देते हैं...
इसलिए मुझे हमेशा लगता है कि तरह तरह के दिन मनाने के नाम पर जो लोग या संस्थाएं पेज-थ्री जैसे आयोजन करती हैं ...वे सिर्फ़ पब्लिसिटी बटोरने का काम करते हैं ..अधिकतर ....(जेन्यून भी हैं बहुत से लोग) ... मुझे बड़ी चिढ़ होती है ऐसे प्रोग्रामों के नाम से ...मैं जानता हूं कुछ प्रभावशाली लोगों ने इन मौकों को नेटवर्किंग का बहाना बनाया हुआ है ...फंड्स मिलते हैं, मशहूरी होती है....रसूखदार लोगों के साथ उठना-बैठना होता है ...अखबारों में फोटो छपती हैं...बस...
लेकिन मेरा यकीन है कि सारा काम तो ज़मीन से जुड़ा हुआ आदमी ही करता है ...पेड़ अधिक लगाता है, मोह करता है उनसे, पानी का संरक्षण भी करता है ... शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में यकीन भी ज़्यादा रखता है ... एक तरह से पर्यावरण का संतुलन जितना भी बचा हुआ है उसी के भरोसे बचा हुआ है ...मुझे इस समय उस महान पर्यावरण संरक्षक सुंदर लाल बहुगुणा की याद आ रही है जो पहाड़ी क्षेत्रों में जब कोई पेड़ काटने पहुंचता था तो वह पेड़ों से चिपक जाता था कि पहले मुझे पर कुल्हाड़ी चलाओ, फिर पेड़ पर चलाना! ..अनगिनत ऐसे उदाहरण पड़े हुए हैं...
दरअसल पानी दिवस की बात होगी तो और भी बहुत सी बातें होंगी, सब कुछ आपस में गुंथा हुआ है ... पानी के बचाव की बात होगी, संरक्षण की बात भी ज़रूरी है और पानी अधिक से अधिक बरसे, इस का भी मंथन होगा...पेड़ों के संरक्षण की बातें होंगीं, नदियों को सुरक्षित रखने की चर्चा होगी, प्रदूषण कम करने की बात भी जुड़ेगी....कार्बन ईमिशन कम करने की चर्चा, पेट्रोल का कम इस्तेमाल, ए.सी आदि का कम से कम उपयोग.....सब मुद्दे इतने जुड़े से हैं कि इन के जुड़ाव का सम्मान करना और इन के बारे में सचेत रहना भी पर्यावरण की सेवा ही है ...
शहरी लोग तो शेव और ब्रुश करते समय पानी की टूटी ही बंद रखें, कार और बागीचे में अगर रिसाईक्लड पानी से काम चला लिया करें तो यह भी एक सेवा ही है ... बड़ी बड़ी बातें बड़े लोगों के बड़े बड़े वादों पर छोड़ते हैं.. कुछ पता नहीं लगता कौन जेन्यून है और कौन जुमलेबाजी में माहिर है बस ...जैसे कईं बार हम असली नकली में फ़र्क पता नहीं कर पाते ...आज सुबह मैं घर के बाहर गया तो यह फूल देखा ....मुझे लगा कि इस बहार के मौसम में कितने रंग-बिरंगे रंग रंग के फूल खिल रहे हैं... लेकिन मैंने उठाया तो मुझे तब पता चला कि यार, यह तो नकली है!
इसी बात पर यह गीत याद आ गया, इसे सुनने लगा हूं...लेख-वेख को यही छोड़ते हैं... जितना कह दिया उतना ही काफ़ी है !!...
ऐसा भी क्या खास देख लिया मैंने? -- आपने देखा होगा कि कुछ घरों के बाहर बहुत सारा पानी इक्ट्ठा हो जाता है ... पानी गंदा होता है, काई जमी होती है ...जानवर भी वहां पर पानी नहीं पीते, बिल्कुल बदबूदार, बीमारीयां परोसने वाला और मच्छरों की कॉलोनी होता है यह पानी ...आप ने ज़रूर देखे ही होंगे ऐसे मंज़र...इसे आप छप्पड़ से कंफ्यूज़ नहीं कर सकते ...
छप्पड़ क्या होते हैं...पहली बात तो यह है कि शायद यह पंजाबी का लफ़्ज है ...हिंदी में पोखर, तालाब कहते होंगे ...अकसर ये बरसाती पानी से गांव में या शहरों की खाली जगहों पर बन जाते थे ...बचपन में हम देखते थे हमारे साथी लोग उन छप्पड़ों में कूद कूद कर मज़ा किया करते थे और हम बस किनारे पर बैठ कर उन की हिम्मत की दाद दिया करते, शायद थोड़ी जलन भी होती लेकिन बस वहां किनारे पर मन ममोस कर बैठे ही आते ....उन छप्पड़ों में गाय, भैंस भी तैरने का आनंद ले रही होतीं...वे भी क्या दिन थे!
एक तो मैं बात को खींचने बड़ा लगा हूं... सीधी सी बात है कि आज सुबह मैंने देखा कि ऐसे ही एक गंदे पानी के तालाब के पास एक धोबी मैले कपड़ों की गठरियां खोलने में मशगूल था .. दोष उस का भी नहीं है, अब धोबीघाट तो पुरानी फिल्मों में ही दिखते हैं...उसने भी पूरी रिसर्च कर ही रखी होगी...वह भी अपना काम करे तो आखिर करे कहां...पापी पेट का सवाल है ...और सब से बड़ी बात जब ग्राहक को कोई शिकायत नहीं है तो आप और हम कौन होते हैं टांग अड़ाने वाले ....बस, ध्यान यही आ रहा था कि ऐसे पानी से धुले कपड़ों की साफ़-सफ़ाई का क्या म्यार होता होगा! यह एक लखनऊ की नहीं, सारे देश की समस्या होगी शायद!
मैंने अपने अनुभव और आबज़र्वेशन के आधार पर कह सकता हूं कि पर्यावरण की जितनी सेवा ऐसे लोग करते हैं जिन्हें हम कम पढ़ा लिखा, कम अवेयर कहते हैं या वे लोग जो कम साधन-संप्पन होते हैं ... वही लोग पेड़ों को काटने से गुरेज करते हैं... कम पानी में अपना निर्वाह करना जानते हैं... मजबूरी वश ही शायद, लेकिन वे लोग सीमित में भी खुश रहते हैं....पहाड़ों का ही देखिए, वहां के लोग तो प्राकृतिक संसाधनों को सहेज कर रखते हैं ...लेकिन पूंजीपति ही वहां जा कर कंकरीट के जंगल तैयार कर के पर्यावरण संतुलन में गड़बड़ कर देते हैं...
इसलिए मुझे हमेशा लगता है कि तरह तरह के दिन मनाने के नाम पर जो लोग या संस्थाएं पेज-थ्री जैसे आयोजन करती हैं ...वे सिर्फ़ पब्लिसिटी बटोरने का काम करते हैं ..अधिकतर ....(जेन्यून भी हैं बहुत से लोग) ... मुझे बड़ी चिढ़ होती है ऐसे प्रोग्रामों के नाम से ...मैं जानता हूं कुछ प्रभावशाली लोगों ने इन मौकों को नेटवर्किंग का बहाना बनाया हुआ है ...फंड्स मिलते हैं, मशहूरी होती है....रसूखदार लोगों के साथ उठना-बैठना होता है ...अखबारों में फोटो छपती हैं...बस...
लेकिन मेरा यकीन है कि सारा काम तो ज़मीन से जुड़ा हुआ आदमी ही करता है ...पेड़ अधिक लगाता है, मोह करता है उनसे, पानी का संरक्षण भी करता है ... शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में यकीन भी ज़्यादा रखता है ... एक तरह से पर्यावरण का संतुलन जितना भी बचा हुआ है उसी के भरोसे बचा हुआ है ...मुझे इस समय उस महान पर्यावरण संरक्षक सुंदर लाल बहुगुणा की याद आ रही है जो पहाड़ी क्षेत्रों में जब कोई पेड़ काटने पहुंचता था तो वह पेड़ों से चिपक जाता था कि पहले मुझे पर कुल्हाड़ी चलाओ, फिर पेड़ पर चलाना! ..अनगिनत ऐसे उदाहरण पड़े हुए हैं...
दरअसल पानी दिवस की बात होगी तो और भी बहुत सी बातें होंगी, सब कुछ आपस में गुंथा हुआ है ... पानी के बचाव की बात होगी, संरक्षण की बात भी ज़रूरी है और पानी अधिक से अधिक बरसे, इस का भी मंथन होगा...पेड़ों के संरक्षण की बातें होंगीं, नदियों को सुरक्षित रखने की चर्चा होगी, प्रदूषण कम करने की बात भी जुड़ेगी....कार्बन ईमिशन कम करने की चर्चा, पेट्रोल का कम इस्तेमाल, ए.सी आदि का कम से कम उपयोग.....सब मुद्दे इतने जुड़े से हैं कि इन के जुड़ाव का सम्मान करना और इन के बारे में सचेत रहना भी पर्यावरण की सेवा ही है ...
शहरी लोग तो शेव और ब्रुश करते समय पानी की टूटी ही बंद रखें, कार और बागीचे में अगर रिसाईक्लड पानी से काम चला लिया करें तो यह भी एक सेवा ही है ... बड़ी बड़ी बातें बड़े लोगों के बड़े बड़े वादों पर छोड़ते हैं.. कुछ पता नहीं लगता कौन जेन्यून है और कौन जुमलेबाजी में माहिर है बस ...जैसे कईं बार हम असली नकली में फ़र्क पता नहीं कर पाते ...आज सुबह मैं घर के बाहर गया तो यह फूल देखा ....मुझे लगा कि इस बहार के मौसम में कितने रंग-बिरंगे रंग रंग के फूल खिल रहे हैं... लेकिन मैंने उठाया तो मुझे तब पता चला कि यार, यह तो नकली है!
इसी बात पर यह गीत याद आ गया, इसे सुनने लगा हूं...लेख-वेख को यही छोड़ते हैं... जितना कह दिया उतना ही काफ़ी है !!...