मुझे याद है कि हमारे घर के आस पास तीन चार घरों में मेरा स्कूल से लौटने का इंतज़ार हुआ करता था...उन घरों में रहने वाले अपने हमउम्र साथियों के साथ खेलने-कूदने के लिए भी और उन के यहां आई चिट्ठी को पढ़ने के लिए भी .. दो बार चिट्ठी पढ़वाई जाती थी ..
और फिर शाम को मेरे को उस का जवाब लिखने के लिए बुक कर लिया जाता था...
ये सब छठी-सातवीं-आठवीं कक्षा की बातें हैं...मेरे लिए इतनी ही गुदगुगी काफी थी शायद कि इतनी लाइमलाईट मिल रही है ..जब मैं उन का खत लिखने जाता हूं तो मेरे को आराम से बैठने के लिए कुर्सी दी जाती है ...और बाकी सब चारपाईयों पर बैठ कर अपनी अपनी बात मेरे तक पहुंचाने लगते...
अच्छा, मोहल्ले में चिट्ठे लिखने में डिमांड मेरी ही ज़्यादा थी .. इस का कारण था कि मैं कभी भी इस काम में जल्दबाजी नहीं करता था, कभी नहीं...कि किसी ने बुलाया है और इस का जैसा तैसा खत लिख कर पीछा छुडा़ना है..कभी ऐसा करना तो क्या, ध्यान भी नहीं आया, इत्मीनान से बैठ कर लिखता था...
आप किसी के घर की दो चार चिट्ठीयां पढ़ लो और इतनी ही चिट्ठीयों का जवाब लिख दो तो आप को उस घर की थोड़ी बहुत जन्मपत्री समझ आने लगती है ...लेकिन उस समय में बालमन को इन सब से क्या लेना देना, बस इतना हो जाता था कि मुझे उन के सगे संबंधियों के नाम-पते और किस को नमस्कार और किस को प्यार-दुलार भेजना है ...यब सब याद हो जाता था...क्योंकि हिंदोस्तानी चिट्ठीयाें में भूमिका और उपसंहार में तो यह सब ही ठूंसना होता है ...
हां, एक बात और ...मुझे कैसे पता चलता था कि मैं यह चिट्ठाकारी का काम अच्छे से कर रहा हूं कि नहीं...यह भी एक राज़ की बात है ..
मेरी नानी जो अंबाला रहती थीं..वह भी हमें पोस्टकार्ड भिजवाती थीं लेकिन पड़ोस के बच्चों के लिखवा कर ... उन खत़ों को पढ़ कर मुझे झट से समझ आ जाता था कि इन्हें पढ़ कर कुछ मज़ा आया नहीं...ख़त को थोड़ा चटपटा भी हो बनाना चाहिए...पहली तो बात है जैसी भी आप की लिखावट है, उसी से ही अगर हम इत्मीनान से लिखें तो खुशख़त तो बन ही जाएगा..लेकिन अगर घसीटे मारने की ही ठान ली है तो कोई किसी का क्या कर लेगा!
और हां, इन खतों को पढ़ कर मेरी मां भी अकसर कहती उस लड़की का नाम लेकर कि यह पता नहीं कैसे लिखती है... और जब नानी से मिलना होता तो पता चलता कि उन्हें उन चंद लाइनें लिखवाने के लिए भी कितनी खुशामद करनी पड़ती ..
तो ये सब बातें मेरी समझ में छठी सातवीं कक्षा से ही आने लगी कि कोई अगर यह काम कहे तो अपने सब काम छोड़ कर पहले उस का यह काम निपटा आना चाहिए...क्योंकि यह भी एक तरह की एमरजैंसी ही हुआ करती थी ... और जिन के खत़ मेैं लिखा करता उन के रिश्तेदारों की भी मिलने-जुलने पर उन से यही फरमाईश हुआ करती कि जिस ने वह वाला ख़त भेजा था, उसी से ही लिखवाया करो ...
अभी मुझे कुछ ध्यान आया ...मैंने अपने इसी ब्लॉग पर कुछ ढूंढना था...गूगल सर्च किया ...वह कुछ तो नहीं मिला जो मैं ढूंढ रहा था लेकिन दादी की याद मिल गई एक पोस्ट कार्ड पर लिखी हुई ..अभी आप से साझा किए दे रहे हैं.. और अपनी एक फोटू भी दिख गई ...गूगल पर पड़ी हुई...ऐसे ही नहीं कहते कि इंटरनेट पर जो कुछ भी करते हैं, सब जमा हो रहा है ....net footprints के बारे में सचेत रहने की ज़रूरत है .. आज कल तो कईं जॉब्स के लिए वे ये सब भी पहले देखते हैं..
खत कैसे इत्मीनान से लिखा जाता है इस की ट्रेनिंग मुझे अपने माता पिता से भी मिली ..विशेषकर पिता जी से ...वह सच में बहुत ही बढ़िया इंगिलश और उर्दू में ख़त लिखा करते थे...और किसी का भी खत आए, उस का जवाब उन्होंने अच्छे से देना ही होता था ... और बहुत साफ़ लिखते थे ...
मैं अकसर यही सोचता हूं कि चिट्ठी वह होती है जो दिल को दिल से जोड़ने का काम करती है ...यह छोटा मोटा काम तब नहीं होता जब यह काम आप किसी के लिए यह कर रहे होते हो, यह आप पर है कि आप उसे नीरस बना दें और आप चाहें तो उस में ऐसे रंग भर दें कि ठिकाने पर पहुंच कर वह कागज़ का टुकड़ा सारे माहौल को खुशगवार बना दे.....दुनिया में सब जादू शब्दों का ही है, बोले हुए, लिखे हुए और जो कभी न कहते हुए भी आंखें कह गई ....उन शब्दों का भी ... ये जो तीसरी क्षेणी वाला संप्रेष्ण है इस की अहमियत को हम कम आंक लेते हैं ...लेकिन ऐसा है नहीं...
कौन सी चिट्ठी ऐसी होती है जो अपना प्रभाव छोड़ देती है ...उस को कैसे लिखना चाहिए...इस का एक नमूना मुझे छठी सातवीं कक्षा में लिखने का मौका मिला....मेरेे पिता जी का एक अफसर लोगों को बहुत तंग किया करता था ..मुझे एक दिन पिता जी ने कहा कि हिंदी में एक चिट्ठी लिखो....मुझे याद है मैं वही छठी-सातवीं कक्षा में था, वे बोलते गये, मैं लिखता गया...तीन चारे बडे़ पन्ने भर गये ....बीच बीच में पिता जी कुछ संशोधन करने को कह देते ...ऐसे में मैंने वह चिट्ठी फिर से साफ़-साफ़ लिख कर तैयार कर दी ...अब फोटोस्टैट वैट तो होती नहीं थी उन दिनों... मैंने दो तीन कापियां भी बना दीं उन के कहने पर, जहां तक मुझे अब याद है ...और उस चिट्ठी का असर भी हुआ.....मुझे यह भी पता चला...
उस चिट्ठी के बहाने मुझे कईं नईं शब्द सीखने का मौका भी मिला....एक शब्द जिसे मैं आज भी याद करता हूं तो हंसने लगता हूं ...उस चिट्ठी में पिता जी ने उस अधिकारी द्वारा गुलछर्रे उड़ाने की बातें भी लिखवाई थीं...अब मुझे लग रहा है कि मैंने ज़रूर गुलछर्रे को गुलछरे ही लिखा होगा ...
बस, बात को बंद करता हूं यहीं ...खत लिखते रहना चाहिए...आदत बनी रहती है ...यह बहुत जरूरी है ...पहले हमें साधारण डाक पर भरोसा होता था ....अब धीरे धीरे वह खत्म होता जा रहा है ...बड़ी बहन ने जयपुर से एक साधारण चिट्ठी भेजी है कुछ कागज़ भेजे हैं...तीन चार बार पूछ चुकी हैं पिछले पांच सात दिनों में ...लेकिन अभी तक यहां लखनऊ में नहीं पहुंची ....कल तो कहने ही लगीं...साधारण डाक का यही पचड़ा होता है! ..... लेकिन हम सब लोग उसी साधारण पोस्ट-कार्ड- अंतर्देेशीय ख़त को लिखते-पढ़ते मानवीय संवेदनाओं को समझने की कोशिश करते करते ही बड़े हुए हैं.....
वैसे अब हम लोग अपने नाते-रिश्तेदारों को खत लिखते ही कहां है, ये सोशल मीडिया पर ही दो चार शब्द लिख कर हॉय-हैलो हो जाता है, मिठाई भी वाट्सएप पर आ जाती है, शगुन भी, और होली के रंग और दीवाली के पटाखे भी सब कुछ इसी पर आ जाता है ...परिभाषाएं बदल गई हैं बहुत सी ......काश, हम पुरानी परिभाषाओं को भी कभी कभी याद रखा करें... उन में ज़मीन की सौंधी खुशबू है ....आज के नये मीडिया से यह सब गायब है .. यकीन नहीं होता? ...चलिए, फिर राजेश खन्ना साहब को सुनते हैं.....
और फिर शाम को मेरे को उस का जवाब लिखने के लिए बुक कर लिया जाता था...
ये सब छठी-सातवीं-आठवीं कक्षा की बातें हैं...मेरे लिए इतनी ही गुदगुगी काफी थी शायद कि इतनी लाइमलाईट मिल रही है ..जब मैं उन का खत लिखने जाता हूं तो मेरे को आराम से बैठने के लिए कुर्सी दी जाती है ...और बाकी सब चारपाईयों पर बैठ कर अपनी अपनी बात मेरे तक पहुंचाने लगते...
अच्छा, मोहल्ले में चिट्ठे लिखने में डिमांड मेरी ही ज़्यादा थी .. इस का कारण था कि मैं कभी भी इस काम में जल्दबाजी नहीं करता था, कभी नहीं...कि किसी ने बुलाया है और इस का जैसा तैसा खत लिख कर पीछा छुडा़ना है..कभी ऐसा करना तो क्या, ध्यान भी नहीं आया, इत्मीनान से बैठ कर लिखता था...
आप किसी के घर की दो चार चिट्ठीयां पढ़ लो और इतनी ही चिट्ठीयों का जवाब लिख दो तो आप को उस घर की थोड़ी बहुत जन्मपत्री समझ आने लगती है ...लेकिन उस समय में बालमन को इन सब से क्या लेना देना, बस इतना हो जाता था कि मुझे उन के सगे संबंधियों के नाम-पते और किस को नमस्कार और किस को प्यार-दुलार भेजना है ...यब सब याद हो जाता था...क्योंकि हिंदोस्तानी चिट्ठीयाें में भूमिका और उपसंहार में तो यह सब ही ठूंसना होता है ...
हां, एक बात और ...मुझे कैसे पता चलता था कि मैं यह चिट्ठाकारी का काम अच्छे से कर रहा हूं कि नहीं...यह भी एक राज़ की बात है ..
मेरी नानी जो अंबाला रहती थीं..वह भी हमें पोस्टकार्ड भिजवाती थीं लेकिन पड़ोस के बच्चों के लिखवा कर ... उन खत़ों को पढ़ कर मुझे झट से समझ आ जाता था कि इन्हें पढ़ कर कुछ मज़ा आया नहीं...ख़त को थोड़ा चटपटा भी हो बनाना चाहिए...पहली तो बात है जैसी भी आप की लिखावट है, उसी से ही अगर हम इत्मीनान से लिखें तो खुशख़त तो बन ही जाएगा..लेकिन अगर घसीटे मारने की ही ठान ली है तो कोई किसी का क्या कर लेगा!
और हां, इन खतों को पढ़ कर मेरी मां भी अकसर कहती उस लड़की का नाम लेकर कि यह पता नहीं कैसे लिखती है... और जब नानी से मिलना होता तो पता चलता कि उन्हें उन चंद लाइनें लिखवाने के लिए भी कितनी खुशामद करनी पड़ती ..
तो ये सब बातें मेरी समझ में छठी सातवीं कक्षा से ही आने लगी कि कोई अगर यह काम कहे तो अपने सब काम छोड़ कर पहले उस का यह काम निपटा आना चाहिए...क्योंकि यह भी एक तरह की एमरजैंसी ही हुआ करती थी ... और जिन के खत़ मेैं लिखा करता उन के रिश्तेदारों की भी मिलने-जुलने पर उन से यही फरमाईश हुआ करती कि जिस ने वह वाला ख़त भेजा था, उसी से ही लिखवाया करो ...
अभी मुझे कुछ ध्यान आया ...मैंने अपने इसी ब्लॉग पर कुछ ढूंढना था...गूगल सर्च किया ...वह कुछ तो नहीं मिला जो मैं ढूंढ रहा था लेकिन दादी की याद मिल गई एक पोस्ट कार्ड पर लिखी हुई ..अभी आप से साझा किए दे रहे हैं.. और अपनी एक फोटू भी दिख गई ...गूगल पर पड़ी हुई...ऐसे ही नहीं कहते कि इंटरनेट पर जो कुछ भी करते हैं, सब जमा हो रहा है ....net footprints के बारे में सचेत रहने की ज़रूरत है .. आज कल तो कईं जॉब्स के लिए वे ये सब भी पहले देखते हैं..
खत कैसे इत्मीनान से लिखा जाता है इस की ट्रेनिंग मुझे अपने माता पिता से भी मिली ..विशेषकर पिता जी से ...वह सच में बहुत ही बढ़िया इंगिलश और उर्दू में ख़त लिखा करते थे...और किसी का भी खत आए, उस का जवाब उन्होंने अच्छे से देना ही होता था ... और बहुत साफ़ लिखते थे ...
मैं अकसर यही सोचता हूं कि चिट्ठी वह होती है जो दिल को दिल से जोड़ने का काम करती है ...यह छोटा मोटा काम तब नहीं होता जब यह काम आप किसी के लिए यह कर रहे होते हो, यह आप पर है कि आप उसे नीरस बना दें और आप चाहें तो उस में ऐसे रंग भर दें कि ठिकाने पर पहुंच कर वह कागज़ का टुकड़ा सारे माहौल को खुशगवार बना दे.....दुनिया में सब जादू शब्दों का ही है, बोले हुए, लिखे हुए और जो कभी न कहते हुए भी आंखें कह गई ....उन शब्दों का भी ... ये जो तीसरी क्षेणी वाला संप्रेष्ण है इस की अहमियत को हम कम आंक लेते हैं ...लेकिन ऐसा है नहीं...
कौन सी चिट्ठी ऐसी होती है जो अपना प्रभाव छोड़ देती है ...उस को कैसे लिखना चाहिए...इस का एक नमूना मुझे छठी सातवीं कक्षा में लिखने का मौका मिला....मेरेे पिता जी का एक अफसर लोगों को बहुत तंग किया करता था ..मुझे एक दिन पिता जी ने कहा कि हिंदी में एक चिट्ठी लिखो....मुझे याद है मैं वही छठी-सातवीं कक्षा में था, वे बोलते गये, मैं लिखता गया...तीन चारे बडे़ पन्ने भर गये ....बीच बीच में पिता जी कुछ संशोधन करने को कह देते ...ऐसे में मैंने वह चिट्ठी फिर से साफ़-साफ़ लिख कर तैयार कर दी ...अब फोटोस्टैट वैट तो होती नहीं थी उन दिनों... मैंने दो तीन कापियां भी बना दीं उन के कहने पर, जहां तक मुझे अब याद है ...और उस चिट्ठी का असर भी हुआ.....मुझे यह भी पता चला...
उस चिट्ठी के बहाने मुझे कईं नईं शब्द सीखने का मौका भी मिला....एक शब्द जिसे मैं आज भी याद करता हूं तो हंसने लगता हूं ...उस चिट्ठी में पिता जी ने उस अधिकारी द्वारा गुलछर्रे उड़ाने की बातें भी लिखवाई थीं...अब मुझे लग रहा है कि मैंने ज़रूर गुलछर्रे को गुलछरे ही लिखा होगा ...
बस, बात को बंद करता हूं यहीं ...खत लिखते रहना चाहिए...आदत बनी रहती है ...यह बहुत जरूरी है ...पहले हमें साधारण डाक पर भरोसा होता था ....अब धीरे धीरे वह खत्म होता जा रहा है ...बड़ी बहन ने जयपुर से एक साधारण चिट्ठी भेजी है कुछ कागज़ भेजे हैं...तीन चार बार पूछ चुकी हैं पिछले पांच सात दिनों में ...लेकिन अभी तक यहां लखनऊ में नहीं पहुंची ....कल तो कहने ही लगीं...साधारण डाक का यही पचड़ा होता है! ..... लेकिन हम सब लोग उसी साधारण पोस्ट-कार्ड- अंतर्देेशीय ख़त को लिखते-पढ़ते मानवीय संवेदनाओं को समझने की कोशिश करते करते ही बड़े हुए हैं.....
वैसे अब हम लोग अपने नाते-रिश्तेदारों को खत लिखते ही कहां है, ये सोशल मीडिया पर ही दो चार शब्द लिख कर हॉय-हैलो हो जाता है, मिठाई भी वाट्सएप पर आ जाती है, शगुन भी, और होली के रंग और दीवाली के पटाखे भी सब कुछ इसी पर आ जाता है ...परिभाषाएं बदल गई हैं बहुत सी ......काश, हम पुरानी परिभाषाओं को भी कभी कभी याद रखा करें... उन में ज़मीन की सौंधी खुशबू है ....आज के नये मीडिया से यह सब गायब है .. यकीन नहीं होता? ...चलिए, फिर राजेश खन्ना साहब को सुनते हैं.....
निदा फाज़ली साब के वे अल्फ़ाज याद आ गये ...
सीधा सादा डाकिया जादू करे महान्
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान
मनाली में खींची यह फोटो भी आज गूगल सर्च से ही मिली ... |
इस ब्लॉगिंग को चिट्ठाकारी भी कहते हैं....ब्लॉगिंग तो फिरंगी शब्द है .. और मैं तो बहुत बार मज़ाक में कहता हूं कि मुझे इस तरह का ही काम पसंद है जहां पर मुझे लोगों के लिए सभी तरह की चिट्ठीयां लिखने का काम मिले ... फ्री में ....पास एक दान-पत्र रख दिया जाए....जिस की जो श्रद्धा हो उस में डाल जाए, नहीं तो कोई बात नहीं.. (जो दे उस का भी भला, जो न दे उस का भी भला...) इस दान-पात्र वाली बात पर मेरे दोस्त बड़े ठहाके लगाते हैं ....मुझे लगता है कि ज़िंदगी के किसी न किसी पढ़ाव पर यह काम भी कर के ही रहूंगा ... आमीन!