गुरुवार, 13 नवंबर 2008

दांत में लवंग-तेल (clove oil) लगाने से मुंह में होने वाले घाव ?

सुनने में तो यह बहुत छोटी सी ही बात लगती है लेकिन अकसर दंत चिकित्सकों के पास ऐसे मरीज़ आते ही रहते हैं जो आकर बतलाते हैं कि दुखते दांत की कैविटी के अंदर लवंग-तेल ( clove oil) लगाने से सारे मुंह में छाले हो गये।

जब ये डैंटिस्ट के पास आते हैं तो अकसर दांत के दर्द से ज्यादा मुंह में मौजूद घावों से ज़्यादा परेशान होते हैं। और उन घावों का ट्रीटमैंट भी साथ साथ करना पड़ता है।

इस का कारण ? – अधिकांश लोगों का दुखते दांत में लवंग-तेल लगाने का तरीका यह है कि छोटा सा रूई का टुकड़ा लिया और उसे लवंग तेल में भिगो कर तुरंत दांत की कैविटि में ठूंस दिया ---यही सारी गड़बड़ हो जाती है---यह लवंग-तेल एक कैमिकल ही है और इस तरह से इस्तेमाल करने से यह आस-पास के मसूड़ों, मुंह के अंदर की चमड़ी (oral mucous membrane) पर लीक कर जाता है और इन जगहों पर दर्दनाक घाव पैदा कर देता है।

तो, हमारे लिये यह बहुत ज़रूरी है कि हम सब लोग अच्छी तरह से लवंग तेल के इस्तेमाल को सीख लें----बात बिल्कुल छोटी सी है ---जिस रूईं को आपने लवंग-तेल में भिगो लिया है, उसे मुंह में लगाने से पहले किसी दूसरे सूखे हुये रूईं के टुकड़े पर दो-तीन बार टच करें, डैब करें ----ताकि लवंग तेल वाली रूईँ में मौजूद ज़्यादा लवंग-तेल सूखी हुई रूईं द्वारा सोख लिया जाये और यह लवंग तेल से भीगी हुई रूईं भी आप को देखने में सूखी सी ही लगने लगेगी। इसे आप अपनी कैविटि में लगा सकते हैं ----आप को तुरंत दर्द में राहत मिलेगा और आसपास की किसी जगह पर घाव भी नहीं होंगे।

यह तो हो गई लवंग-तेल की बात ---एक दूसरी बात भी करनी ज़रूरी है ---एसप्रिन बर्न--- अर्थात् एसप्रिन की गोली से मुंह का जलना और घाव हो जाना। होता यूं है कि कुछ लोग अज्ञानता-वश दांत के दर्द के लिये एसप्रिन की टीकिया पीस कर दुखते दांत की जगह पर मल लेते हैं ---मल क्या लेते हैं, आफत ही मोल ले लेते हैं ----एसप्रिन को टैबलेट भी एक कैमिकल ही है ---एसीटाइलसैलीस्लिक एसिड ( acetylsalicylic acid) ---और अगर इसे खाने की बजाये मुंह में पीस कर रगड़ लिया जाता है तो परिणाम आपने सुन ही लिये हैं ----यह मुंह को जला देती है !!

कुछ लोग दांत के दर्द से निजात पाने के लिये उस जगह पर तंबाकू, नसवार ( creamy snuff) रगड़ लेते हैं ----इस से तो बस नशा ही होता है लेकिन कुछ ही समय बाद लोग इस नशे के इतने आदि हो जाते हैं कि इस व्यसन का चस्का उन्हें लग जाता है। दांत के दर्द से राहत की रैसिपी तो यह तंबाकू कतई है नहीं , लेकिन मुंह के कैंसर को तो खुला न्यौता है ही है। एक बात ध्यान आई कि बहुत से मंजन और पेस्ट बाज़ार में इस तरह के हैं जिन में तंबाकू पीस कर मिला हुआ है ---इस से बच कर रहियेगा------ यह केवल आग है जो सब कुछ जला देगी !!

जो लोग तंबाकू के इस्तेमाल के आदि हो जाते हैं उन में से ऐसे लोगों का प्रतिशत भी अच्छा खासा ज़्यादा है जिन्होंने की तंबाकू से पहले मुलाकात ही दांत के दर्द के बहाने हुई ----किसी दोस्त अथवा सगे-संबंधी के कहने पर दांतों अथवा मसूड़ों की तकलीफ़ के लिये एक बार इस तंबाकू का इस्तेमाल क्या शुरू किया कि बस फिर इस लत को लात मार ही न पाये और बहुत से लोग मुंह के कैंसर की आफत को मोल ले बैठे !!

रोज़ाना मरीज़ अपने अनुभव बतलाते हैं ----कुछ लोगों से पता चला कि वे दांत के दर्द के लिये उस के ऊपर नेल-पालिश लगा लेते हैं । यह काम भी करना ठीक नहीं है। कुछ कहते हैं कि वे झाड़-फूंक करवा लेते हैं ----यह बात भी गले से नीचे ही नहीं उतरती।

बात जो भी है – दांत का दर्द परेशानी और जहां तक हो सके इस से बचा जाये और उस का एक उपाय है कि हर छः महीने बाद अपने क्वालीफाईड डैंटिस्ट से अपने दांतों का चैक-अप ज़रूर करवा लिया करें।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

आज टुथब्रुश के बारे में बात करें !!

यह टापिक मैंने आज इसलिये चुना है क्योंकि आज मेरे पास एक लगभग 18-20 वर्ष की युवती आई मुंह की किसी तकलीफ़ के कारण ----अभी मैं उस को एक्ज़ामिन कर ही रहा था तो उस का पिता बीच में ही बोल पड़ा---इन को मैंने बहुत बार मना किया है कि घर में एक दूसरे का ब्रुश न इस्तेमाल किया करो। मेरा माथा ठनका---क्योंकि ऐसी बात मैं कैरियर में पहली बार सुन रहा था।

इस से पहले कईं साल पहले मुझे मेरे ही एक मरीज़ ने बताया था कि उस के घर के सारे सदस्य एक ही ब्रुश का इस्तेमाल करते हैं---उस बात से भी मुझे शॉक लगा था।

यह जो आज युवती से बात पता चली कि वे घर में एक दूसरे का टुथब्रुश इस्तेमाल करने से हिचकते नहीं हैं- जो भी जल्दी जल्दी में हाथ लगता है, उसी से ही दांत मांज लेते हैं। वह युवती बतला रही थी कि यह सब कॉलेज जाने की जल्दबाजी में होता है और इस के लिये वह सारा दोष अपने भाई के सिर पर मढ़ रही थी।

खैर, इन दोनों केसों के बारे में आप को बतलाना ज़रूरी समझा इसलिये बतला दिया। लेकिन यह जो बात युवती ने बताई, क्या आप को नहीं लगता कि यह बात तो हमारे घर में भी कभी कभार हो चुकी है---जब हमें किसी बच्चे से पता चलता है कि आज तो उस ने बड़े भैया का ब्रुश इस्तेमाल कर लिया।

अच्छा तो क्या करें ? ---इस तरह के बिहेवियर के लिये कौन दोषी है? ---मुझे लगता है कि इस के लिये सब से ज़्यादा दोषी है ---लोगों की इस के बारे में अज्ञानता कि टुथब्रुश के ऊपर जो कीटाणु होते हैं वे एक दूसरे का ब्रुश इस्तेमाल करने से एक से दूसरे में ट्रांसफर हो जाते हैं-----ठीक है, बहुत से लोग अभी भी टुथब्रुश को शू-ब्रुश जैसे ही इस्तेमाल करते हैं लेकिन इस से टुथब्रुश शू-ब्रुश तो नहीं बन गया !!

अच्छा आप एक बात की तरफ़ ध्यान दें----अधिकांश लोगों के पास छोटे छोटे से गुसलखाने ( नाम ही कितना हिंदोस्तानी और ग्रैंड लगता है--- नाम सुनते ही नहाने की इच्छा एक बार फिर से हो जाये) होते हैं ---पांच-सात मैंबर तो हर घर में होते ही हैं ---अब एक प्लास्टिक के किसी डिब्बे जैसे जुगाड़ में सात ब्रुश पड़े हुये हैं और जो तीन-चार ज़्यादा ही हैल्थ-कांशियस टाइप के बशिंदे हैं उन की जुबान साफ़ करने वाली पत्तियां भी उसी में पड़ी हुई हैं तो भला कभी कभार गलती लगनी क्या बहुत बड़ी बात है ? --- हमारे ज़माने में तो किसी रिश्तेदार के यहां जाने पर या किसी ब्याह-शादी में जाने पर अपना( ( ब्रुश, अपनी शेविंग किट भी मेजबान के गुसलखाने में ही टिका दी जाती थी। हां, तो मैं बार बार गुसलखाना इसलिये लिख रहा हूं कि पहले गुसलखाने ही हुआ करते थे और इन्हें बुलाया भी इसी नाम से ही जाता था और अच्छा भी यही नाम लगता था ----शायद नाम में कुछ इस तरह की बात है कि लगता है कि जैसे किसी बादशाह के नहाने का स्थान है...गुसल..खाना !! लेकिन होता तो अकसर यह बिलकुल बुनियादी किस्म का एक जुगाड़ ही था---एक टब, एक लोहे की प्राचीन बाल्टी और एक एल्यूमीनियम का बिना हैंडल वाली डिब्बा----और साथ में एक बहुत हवादार खिड़की ----हां, तो खिड़की में एक सरसों के तेल की शीशी ज़रूर पड़ी रहती थी और फर्श पर एक टूटी हुई एतिहासिक साबुनदानी में एक देसी साबुन की और एक अंग्रेज़ी साबुन की चाकी भी ज़रूर हुआ करती थी ( पंजाबी में साबुन की टिकिया को चाकी कहते हैं) -----लेकिन पता नहीं कब ये गुसलखाने बाथ-रूम में बदल गये ----हर बशिंदे के कमरे के साथ ही सटक गये.....साथ ही क्या, उस के अंदर ही सटक गये और साथ में ले आये ---तरह के शैंपू की शीशियां, पाउच, पीठ साफ करने वाला जुगाड़, एडी साफ करने वाला कुछ खास जुगाड़ और ......सारी, मैं अपने टापिक से भटक गया था।

हां, तो बात हो रही थी कि आज कल के छोटे-छोटे बाथरूमों की ---एक दूसरे का ब्रुश इस्तेमाल करने की इस तरह की गल्तियां यदा कदा होनी स्वाभाविक ही हैं । डैंटिस्ट हूं ----इसलिये इस विषय पर बहुत सोच विचार के इसी निष्कर्ष पर ही पुहंचा हूं कि इस से बचने का केवल एक ही उपाय है कि हम लोग अपने टुथब्रुश को और अपनी जीभी (जुबान साफ़ करने वाली पत्ती ) को एक बिल्कुल छोटे से गिलास में अलग से ही रखें। और जहां तक कोशिश हो, अगर बाथ-रूम छोटा है तो इस गिलास को उधर न ही छोड़े। इस के पीछे की एक वजह मैं अभी थोड़े समय में आप को सुनाऊंगा।

अतिथि देवो भवः -----मेहमान भगवान का रूप होता है लेकिन अगर यही भगवान आप से टावल, कंघी, या रेज़र की मांग कर बैठता है तो इतनी कोफ्त आती है कि क्या करें, पायजामे का जिक्र जानबूझ कर नहीं किया क्योंकि आज कल मेजबान से इसे मांगने का पता नहीं इतना रिवाज रहा नहीं है। एक बिलकुल सच्चा किस्सा सुना रहा हूं कि एक बंदे के यहां कईं बार मेहमान आ कर टुथब्रुश की मांग कर बैठते थे ----उस ने एक युक्ति लगाई ---उस ने एक टुथब्रुश खरीद लिया और उस के कवर को भी संभाल कर रख लिया ---जो भी मेहमान आये वह वही ब्रुश उस के आगे कर देता था ----मेहमान खुश हो जाता था --- और इस महानुभाव ने उस ब्रुश का नाम ही पंचायती ब्रुश डाल दिया । किस्सा तो यह बिल्कुल सच्चा है लेकिन मैं विभिन्न कारणों की वजह से इस की बेहद निंदा करता हूं।

हां, तो बात हो रही थी अपने टुथब्रुश एवं रेज़र आदि को अलग से ही रखने की। एक और किस्सा सुनाता हूं ---10-12 साल पुरानी बात है –एक लेडी ऑफीसर के कमरे में जाने का मौका मिला---वह अपने बंगला-चपरासी को फटकार लगा रही थी कि उस ने ही उस के मिस्टर की शेविंग किट यूज़ की है----पता नहीं उन का क्या फैसला हुआ लेकिन पता नहीं मेरे सबकोंशियस में एक बात ज़रूर बैठ गई और पता नहीं कब मैंने अपने टुथब्रुश और शेविंग किट को बाथरूम से बाहर किसी सेफ़ सी जगह रखना शुरू कर दिया---मेरे विचार में इस तरह इन को अलग रखने के कुछ फायदे तो हैं ही ----बाथरूम में किसी को गलती लगने का कोई स्कोप ही नहीं, और आप को किसी पर शक करने की कोई ज़रूरत ही नहीं कि उस ने कहीं आप की किट विट इस्तेमाल न कर ली हो, बात तो चाहे छोटी सी लगती है लेकिन इस से सुकून बहुत ज़्यादा मिलता है।

मेरे पास कईं मरीज़ आते हैं जब मैं उन से पूछता है कि आप लोग अपने अपने टंग-क्लीनर का कैसे ख्याल रखते हो----तो मुझे इस का कुछ संतोषजनक जवाब मिलता नहीं। कुछ लोग कह तो देते हैं कि हम लोग ब्रुश और टंग-क्लीनर को बांध कर ऱखते हैं लेकिन मुझे यकीन है कि यह कोई प्रैक्टीकल हल नहीं है। तो, मेरे विचार में तो एक छोटे से गिलास में अपनी यह एसैसरीज़ अलग ही रखने की आदत डाल लेनी चाहिये।

बस, दो बातें टुथब्रुश के बारे में कर के पोस्ट खत्म करता हूं । एक तो यह कि एक दूसरे का ब्रुश इस्तेमाल करने से कुछ तरह की इंफैक्शनज़ ट्रांसमिट होने का डर बना रहता है। विकसित देशों में तो इस बात की बहुत चर्चा है कि ब्रुश करने से पहले फलां सोल्यूशन में और फलां लिक्विड में भिगो लिया जाये---कीटाणुरहित किया जाये ----चूंकि ये चौंचलेबाजीयां हम लोगों ने ही आज तक नहीं कीं, इसलिये किसी को भी इन की सिफारिश भी नहीं की -----अपने यहां तो ब्रुश करने के लिये साफ पानी मिल जाये उसे ही एक वरदान समझ लेना काफ़ी है---- इसलिये ब्रुश को एंटीसैप्टिक से वॉश करने वाली बात हमारे लिये तो एक शोशा ही है -----शोशा इसलिये कह रहा हूं कि वैज्ञानिक होते हुये भी हम लोगों के लिये प्रैक्टीकल बिलकुल नहीं है।

जाते जाते नन्हे-मुन्नों के लिये जो ब्रुश इस्तेमाल किया जा रहा है उस के बारे में एक बात कर के की-पैड से अगुंलियां उठाता हूं । बात यह है कि जिस बेबी ब्रुश से मातायें अपने नन्हे-मुन्नों के दांत साफ करती हैं....वह झट से उन्हें छीन लेता है और हफ्ते दस दिन में ही चबा चबा कर उस ब्रुश का हाल बेहाल कर देता है ---उस का हल यही है कि आप दो ब्रुश रखें----एक से तो उस के दांत साफ कर के सुरक्षित रख दें और जब वह उसे छीनने की कोशिश करे तो उसे दूसरे वाला ब्रुश पकड़ा दें---जिस से साथ वह दो-मिनट खेल कर वापिस लौटा देगा-------वह भी खुश और आप भी !!

सोच रहा हूं कि आज सुबह उस युवती की बात ने भी मुझे क्या क्या लिखने के लिये उकसा दिया ----यकीनन हमारे मरीज़ ही हमें कुछ लिखने के लिये, अपने पुराने से पुराने अनुभव बांटने के लिये उकसाते हैं।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

बच्चों की डायबिटिज़ को लेकर आजकल क्यों है इतना हो-हल्ला ?

जब भी बच्चों की बीमारियों की चर्चा होती है तो अकसर डायबिटिज़ का जिक्र कम ही होता है क्योंकि अकसर हम लोग आज भी यही सोचते हैं कि डायबिटिज़ का रोग तो भारी-भरकम शरीर वाले अधेड़ उम्र के रइसों में ही होता है लेकिन अब इस सोच को बदलने का समय आ गया है। डायबिटिज़ के प्रकोप से अब कोई भी उम्र बची हुई नहीं है और मध्यम वर्ग एवं निम्न-वेतन वर्ग के नौजवान लोगों में भी यह बहुत तेज़ी से फैल रही है।

जहां तक बच्चों की डायबिटिज़ की बात है, बच्चों की डायबिटिज़ के बारे में तो हम लोग बरसों से सुनते आ रहे हैं ----इसे टाइप-1 अथवा इंसूलिन-डिपैंडैंट डायबिटिज़ कहते हैं। अच्छा तो पहले इस टाइप-1 और टाइप-2 डायबिटिज़ की बिलकुल थोड़ी सी चर्चा कर लेते हैं।

टाइप-1 डायबिटिज़ अथवा इंसूलिन-डिपैंडैंट डायबिटिज़ में पैनक्रियाज़ ग्लैंड ( pancreas) की इंसूलिन-पैदा करने वाली कोशिकायें नष्ट हो जाती हैं जिस की वजह से वह उपर्युक्त मात्रा में इंसूलिन पैदा नहीं कर पाता जिस की वजह से उस के शरीर में ब्लड-शूगर का सामान्य स्तर कायम नहीं रखा जा सकता। अगर इस अवस्था का इलाज नहीं किया जाता तो यह जानलेवा हो सकती है। अगर ठीक तरह से इस का इलाज न किया जाये तो इस बीमारी से ग्रस्त बच्चों में आंखों की बीमारी, हार्ट-डिसीज़ तथा गुर्दे रोग जैसी जटिलतायें पैदा हो जाती हैं। इस बीमारी के इलाज के लिये सारी उम्र खाने-पीने में परहेज़ और जीवन-शैली में बदलाव ज़रूरी होते हैं जिनकी बदौलत ही मरीज़ लगभग सामान्य जीवन जी पा सकते हैं और कंप्लीकेशन्ज़ से बच सकते हैं।

सौभाग्यवश यह टाइप-1 डायबिटिज़ की बीमारी बहुत रेयर है ---बहुत ही कम लोगों को होती है और पिछले कईं दशकों से यह रेयर ही चल रही है।

लेकिन चिंता का विषय यह है कि एक दूसरी तरह की डायबिटिज़ – टाइप 2 डायबिटिज़ बहुत भयानक तरीके से फैल रही है। और इस के सब से ज़्यादा मरीज़ हमारे देश में ही हैं जिस की वजह से ही हमें विश्व की डायबिटिज़ राजधानी का कुख्यात खिताब हासिल है।

इस टाइप -2 डायबिटिज़ की सब से परेशान करने वाली बात यही है कि इस बीमारी ने अब कम उम्र के लोगों को अपने चपेट में लेना शुरु कर दिया है ----अब क्या कहूं ----कहना तो यह चाहिये की कम उम्र के ज़्यादा ज़्यादा लोग इस की गिरफ्त में रहे हैं। आज से लगभग 10 साल पहले किसी 20 वर्ष के नवयुवक को यह टाइप-2 डायबिटिज़ होना एक रेयर सी बात हुआ करती थी लेकिन अब चिंता की बात यह है कि अब तो लोगों को किशोरावस्था में ही यह तकलीफ़ होने लगी है। यही कारण है कि आज कल बच्चों की डायबिटिज़ ने इतना हो-हल्ला मचाया हुआ है।

ठीक है , बच्चों में इतनी कम उम्र में होने वाली तकलीफ़ के लिये कुछ हद तक हैरेडेटी ( heredity) का रोल हो सकता है ---लेकिन इस का सब से महत्वपूर्ण कारण यही है कि बच्चों की जीवन-शैली में बहुत बदलाव आये हैं ----घर से बाहर खेलने के निकलते नहीं, सारा दिन कंप्यूटर या टीवी के साथ चिपके रहते हैं ---और सोफे पर लेटे लेटे जंक-फूड खाते रहते हैं --- इन सब कारणों की वजह से ही बच्चों में टाइप-टू डायबिटिज़ अपने पैर पसार रही है। और यह बेहद खौफ़नाक और विचलित करने वाली बात है। मद्रास के एक हास्पीटल में पिछले बीस सालों में बच्चों में टाइप-2 डायबिटिज़ के केसों में 10गुणा वृद्धि हुई है।

लेकिन खुशखबरी यह है कि टाइप-2 डायबिटिज़ से रोकथाम संभव है---अगर जीवन-शैली में उचित बदलाव कर लिये जायें, खान-पान ठीक कर लिया जाये तो इस टाइप-2 से अव्वल तो बचा ही जा सकता है वरना इस को काफी सालों तक टाला तो जा ही सकता है। तो, बच्चों शुरू हो जाओ आज से ही रोज़ाना एक घंटे घर से बाहर जा कर खेलना-कूदना और अब तक जितना जंक फूड खा लिया, उसे भूल जाओ---अब समय है उस से छुटकारा लेने का ----जंक फूड में क्या क्य़ा शामिल है ?----उस के बारे में आप पहले से सब कुछ जानते हैं

सोमवार, 10 नवंबर 2008

क्या आप प्री-डायबिटिज़ के बारे में जानते हैं ?

डायबिटिज़ की पूर्व-अवस्था है.....प्री-डायबिटिज़ -----

अकसर देखा गया है कि लोग अपने आप कभी-कभार शूगर की जांच करवा लेते हैं और इस की रिपोर्ट ठीक होने पर आश्वस्त से हो कर अपने पुराने खाने-पीने में मशगूल हो जाते हैं। जब हम लोग छोटे छोटे थे तो सुनते थे कि यह शूगर की जांच यूरिन से ही होती है। लेकिन बहुत सालों के बाद पता चला कि इस की जांच ब्लड-टैस्ट से भी होती है।
मैं अकसर देखता हूं कि लोग कुछ वर्षों बाद अपनी ब्लड-शूगर की जांच करवा लेते हैं और रिपोर्ट ठीक होने पर इत्मीनान कर लेते हैं कि सब कुछ ठीक ठाक है।

मैं अकसर सोचा करता था कि यह बार-बार ब्लड-शूगर टैस्ट करवाई तो जाती है और अगर रिपोर्ट ठीक आती है तो बंदा खाने-पीने में आगे से भी एहतियात एवं कुछ परहेज़ करने की बजाये और भी बेफिक्र सा हो जाता है कि चलो, मैं तो अब सब कुछ खा-पी सकता हूं क्योंकि मेरी ब्लड-शूगर रिपोर्ट तो ठीक ही है। ऐसा देख कर यही लगता है कि इन लोगों के द्वारा तो बस ब्लड-शूगर का टैस्ट गड़बड़ आने की इंतज़ार ही हो रही है।

लेकिन अब यह सोच बदलने का टाइम गया है विश्व भर के सभी मैडीकल एक्सपर्टज़ के अनुसार डायबिटिज़ से पहले एक अवस्था प्री-डायबिटिज़ भी होती है। प्री-डायबिटिज़ का मतलब है कि किसी व्यक्ति में ब्लड-शूगर का स्तर सामान्य से अधिक तो है लेकिन इतना भी बढ़ा हुया नहीं है कि उसे डायबिटिज़ का श्रेणी में शामिल किया जाये लेकिन फिर भी ये प्री-डायबिटिज़ वाले लोगों में टाइप-2 डायबिटिज़, हार्ट-डिसीज़ और दिमाग की नस फटने का रिस्क बढ़ जाता है। लेकिन इत्मीनान की बात यही है कि जीवन-शैली में किये गये परिवर्तन जैसे कि खान-पान में सावधानी एवं शारीरिक परिश्रम करने से प्री-डायबिटिज़ वाले व्यक्तियों को भी या तो डायबिटीज़ होने से ही बचाया जा सकता है, अथवा डायबिटीज़ डिवेल्प होने को एवं उस से पैदा होने वाली जटिलताओं को काफी समय तक टाला जा सकता है।

Pre-diabetes is a condition in which blood glucose levels are higher than normal but not high enough to be classified as diabetes – but these individuals are at an increased risk for developing type2 diabetes, heart disease and stroke. However, life-style changes such as diet and exercise can prevent or delay development of diabetes and its complications.

तो अब अगला प्रश्न यह है कि इस प्री-डायबिटिज़ का पता कैसे चले ? – इस प्री-डायबिटिज़ का पता जिन टैस्टों के द्वारा चलता है उन्हें कहते हैं ----Fasting Plasma Glucose( Fasting blood sugar) ----फास्टिंग ब्लड-शूगर टैस्ट तथा Oral glucose tolerance test ---ओरल ग्लूकोज़ टालरैंस टैस्ट।

फास्टिंग ब्लड-शूगर चैक करने से पहले जैसा कि आप जानते ही हैं कि 12 से 14 घंटे तक कुछ भी नहीं खाया-पिया नहीं जाता, और इस की नार्मल रेंज है 100 मिलीलिटर में 100मिलीग्राम जिसे मैडीकल भाषा में 100mg% ( one hundred milligram percent ) बोल दिया जाता है और लिखने में 100mg/dl लिख दिया जाता है ---dl का मतलब है डैकालिटर यानि 100मिलीलिटर। अगर इस फास्टिंग ब्लड शूगर की रीडिंग 100 से 125 के बीच आती है तो यह प्री-डायबिटीज़ की अवस्था कहलाती है( इसे इंपेयरड फास्टिंग ग्लूकोज़ भी कह दिया जाता है यानि कि फास्टिंग ब्लड-शूगर टैस्ट में गड़बड़ी है) और 126mg% से ज़्यादा की रीडिंग का मतलब है डायबिटिज़।


अब आते हैं दूसरे टैस्ट की तरफ़ --- ओरल ग्लुकोज़ टालरैंस टैस्ट ----Oral glucose tolerance test - इस टैस्ट में व्यक्ति का ब्लड-शूगर रात भर से कुछ भी बिना कुछ खाये पिये तो किया ही जाता है ( overnight fast) और 75 ग्राम ग्लूकोज़ को पानी में घोल कर पिलाने के दो घंटे के बाद भी ब्लड-शूगर टैस्ट की जाती है। इस की रीडिंग अगर 140mg% तक आती है तो यह टैस्ट नार्मल माना जाता है , लेकिन 140 से 199 mg% की वैल्यू प्री-डायबिटिज़ की अवस्था की तरफ़ इशारा करती है, इसे इंपेयरड ग्लूकोज़ टालरैंस कहा जाता है --- और इस की वैल्यू अगर 200मिलीग्राम से ऊपर हो तो यह डायबिटिज़ ही होती है।

अब बहुत ही अहम् बात यह है कि अगर किसी को प्री-डायबिटिज़ का पता चला है तो यह एक तरह से एक चेतावनी है कि संभल जाइये-----क्योंकि इस अवस्था में तो परहेज़ करने से, लाइफ-स्टाइल में परिवर्तन करने से, और शारीरिक परिश्रम करने से बहुत ही परेशानियों से बचा जा सकता है, यह भी संभव है कि ये सब सावधानियां ले लेने से यह प्री-डायबिटीज़ अवस्था कभी भी डायबिटिज़ की तरफ़ बढ़े ही नहीं और शायद इन सब सावधानियों को वजह से डायबिटीज़ की डिवेलपमैंट लंबे अरसे के लिये टल ही जाये ---और इसी तरह डायबिटीज़ रोग की जटिलताओं ( complications) से भी लंबे समय के लिये बचा जा सकता है।

आशा है कि प्री-डायबिटिज़ का फंडा आप समझ गये होंगे और आगे से इसे कोई थ्यूरैटिकल कंसैप्ट ही नहीं समझेंगे।

रविवार, 9 नवंबर 2008

मेरा इक सपना है ...

मेरी हिंदी कोई अच्छी नहीं है, मुझे यह पता है इसलिये मैं बहुत ही धुरंधर हिंदी में लिखी हुई कुछ पोस्टें समझ ही नहीं पाता हूं –केवल बोलचाल वाली हिंदी ही लिख पाता हूं, लेकिन फिर भी एक सपना मन में ज़रूर संजो कर रखा है कि ये जो मैं सेहत संबंधी पोस्टें लिखता हूं ना इन की एक किताब बने और खूब बिके।

मुझे उस महान कवि का नाम भी नहीं याद है और उस की कही हुई पूरी लाइनें भी याद नहीं हैं....एक रचना उस कवि की आठवीं कक्षा में पढ़ी थी –पुष्प की अभिलाषा, जिस में पुष्प ने ख्वाहिश जाहिर की थी कि उस की चाह केवल इतनी है कि उसे उस पथ पर गिरा दिया जाये जिस रास्ते से होकर देश पर अपनी जान लुटाने वाले वीर सिपाही रणभूमि की तरफ़ जा रहे हों।

मैं ना तो अपनी किसी पुस्तक को किसी अवार्ड के लिये और न ही किसी पुरस्कार के लिये भेजना चाहता हूं- मुझे चिढ़ है , क्योंकि मेरा व्यक्तिगत विचार है कि किसी इनाम को लेने के लिये लिखा तो क्या लिखा। यह तो एक तरह का प्रायोजित लेखन हो गया। लेखन मेरी समझ में वही है जिस को लिखे बिना आप रह ही न सकें।

अच्छा तो मैं जिस पुस्तक की बात कर रहा हूं वह केवल पांच-दस रूपये में लोगों तक पहुंचनी चाहिये----सस्ते से रीसाइकल्ड पेपर पर छपनी चाहिये और यह बस-स्टैंडों पर, बसों के अंदर चुटकलों वाली किताबों के साथ ही बिकनी चाहिये----यह फुटपाथों पर भी मिलनी चाहिये----हां, हां, उन्हीं फुटपाथों पर जिन पर मस्तराम के नावल भी बिकते हों--- यह केवल इन जगहों पर ही बिकनी चाहिये क्योंकि अधिकांश लोग बुक-स्टाल से खरीदने से या किसी पुस्तक के बारे में पूछने से झिझकते हैं कि पता नहीं कितनी महंगी हो।

मेरी ही नहीं ---मैं सोच रहा हूं कि सभी हिंदी ब्लोगरों की सभी पोस्टों सीधे उन के दिल से निकल कर दुनिया के सामने आ रही हैं। हम चिट्ठाकार लोग किसी दिन अगर किसी मुद्दे के बारे में बहुत शिद्दत से सोच रहे होते हैं तो हम जो भी मन में आता है लिख कर हल्का हो लेते हैं। लेकिन शत-प्रतिशत सच्चाई।

अब मैंने सोचना शुरू किया है कि मैंने जितनी भी सेहत के विषय पर पोस्टें लिखी हैं अब समय आ गया है कि उन्हें एक बिल्कुल सस्ती सी, फुटपाथ-छाप किताब के रूप में एक आम आदमी के लिये ले कर आऊं---इतनी सस्ती होनी चाहिये कि कोई मज़दूर और कोई रिक्शा-चालक भी इसे खरीदने में ना हिचकिचाये।

मुझे इस किताब से कोई कमाई करने की कतई अपेक्षा नहीं है और न ही कोई इनाम की चाह है। बस मकसद केवल इतना है कि साधारण से सेहत के संदेश आम आदमी तक पहुंच जाने चाहिये।

क्या कोई ऐसी संस्था है जो इस तरह के प्रकाशन में मदद कर सकती है, वैसे मैं अपने खर्च पर भी इसे छपवा कर इसे नो-प्राफिट-नो-लास पर उपलब्ध करवा सकता हूं , लेकिन मुझे इस का कुछ अनुभव नहीं है।

आज विचार आ रहा था कि इतनी सच्चाई से ये पोस्टें लिखी हुईं हैं और हर एक पोस्ट पर जो डेढ़-दो घंटे की मेहनत की है वह तभी सार्थक होगी जब ये सब खुले दिल से कही बातें आम आदमी तक भी तो पहुंचे ---जिसे न तो कंप्यूटर के बारे में ही पता है , न ही इंटरनेट का कुछ ज्ञान है लेकिन मुझे लगता है कि मेरे लेखन को पढ़ने का सब से उपयुक्त पात्र वही है।

तो, मैं क्या करूंगा---मैं यह देखूंगा कि मेरा यह सपना साकार हो---और मैं इसे साकार कर के ही रहूंगा और यह भी देखूंगा कि ये किताबें लगभग लागत-दाम (cost-price) पर ही आम आदमी तक पहुंचे क्योंकि दिल से निकली बात का कहां कोई दाम लिया जाता है। उस की तासीर कायम रखने के लिये उसे वैसे ही परोसा जाना ज़रूरी होता है।

आप सब की तरह, दोस्तो, मेरी भी ये पोस्टों सच्चाई से इतनी लबा-लब भरी हुई हैं कि कईं बार यकीन नहीं होता कि आखिर ये लिखी कैसे गईं। लेकिन लिखी कहां गईं ----बस, पता ही नहीं चला कि कब अपने आप मन की बातें निकल पर पोस्टों पर आ गईं। कईं बार तो अपनी पोस्टों में ही हमें इतनी सच्चाई की मिठास इतनी ज़्यादा लगती है कि हम ही इन्हें चख नहीं पाते ---कहने का भाव यह है कि कईं पोस्टें में इतना खुलापन आ जाताहै, इतनी सच्चाई , इतनी साफ़गोई कि समझ ही नहीं आता कि यह सब इतने खुलेपन से कैसे पब्लिक डोमैन में हम नें डाल दिया।

दोस्तों, आप सब की पोस्टों की तासीर भी बहुत गर्म है। तो यह समय है कि इसे गर्मा-गर्म ही आम आदमी को भी परोसा जाये।

मैं भी बहुत समय से इस के बारे में सोच रहा हूं और इस के बारे में ज़रूर कुछ करूंगा। अगर आप के पास भी कुछ सुझाव हों तो बतलाईयेगा, वरना अपना तो फंडा सीधा है कि अगर मस्तराम के नावल खरीदने वाले लोग मौजूद हैं तो अगर 5 या 10-12 रूपये में बिकने वाली किताब लोगों से सेहत की बातें करना चाह रही है तो वह भी बिक कर रहेगी। बाकी प्रभु इच्छा ।

और इस किताब को पढ़ कर अगर कोई बीड़ी पीने से पहले, दारू का पैग उंडेलने से पहले, जंक-फूड खाने से पहले, रैड-लाइट एरिया में जाने से पहले, कैज़ुएल सैक्स से पहले ----थोड़ा सा इस पाकेट-बुक की तरफ़ ध्यान कर लेगा तो मेरे प्रयास सफल हो जायेंगे।

और एक बात और भी है कि जहां से भी इस का प्रकाशन करवाऊंगा इस किताब का कोई भी अधिकार सुरक्षित कभी नहीं रखूंगा ----बिल्कुल कॉपी-लैफ्टेड----जितनी मरजी कापी कोई भी मारे और मुझे किसी तरह का क्रेडेट देने की भी कोई बिल्कुल ज़रूरत है ही नहीं । ठीक है, जो मन में आया , जो ठीक समझा लिख दिया ----उस में अपना आखिर बड़प्पन काहे का ?

शनिवार, 8 नवंबर 2008

बहुत ही ज़्यादा आम है मसूड़ों से खून आना

मसूड़ों से खून निकलना एक बहुत ही आम समस्या है और कोई जो भी मरीज़ इस समस्या से परेशान होता है उस की उम्र जितनी कम होती है मेरा प्रायरटी उसे एक-दम फिट करने की उतनी ही ज़्यादा बढ़ जाती है क्योंकि मसूड़ों की सूजन की जितनी प्रारंभिक अवस्था में रोक दिया जाये उतना ही बढ़िया होता है।

वैसे तो मसूड़ों से खून आने के बीसियों कारण हैं लेकिन सब से अहम् एवं सब से महत्वपूर्ण कारण है –दांतों एवं मसूड़ों पर गंदगी जमा होने की वजह से मसूड़ों पर सूजन आ जाना जिस की वजह से मरीज़ के मसूड़ों से थोड़ा सा टच करने पर ही खून आने लगता है।

अकसर ऐसे मरीज़ आ कर कहते हैं कि जैसे ही वे ब्रुश करते हैं मसूड़ों से खून आने लगता है। कईं बार तो लोग इसी चक्कर में ब्रुश करना ही छोड़ देते हैं और अंगुली से दांत साफ़ करने की कोशिश में अपने रोग को और बढ़ावा देते रहते हैं।

यह जो मैंने शुरू शुरू में लिखा कि जितनी मरीज़ की उम्र कम होती है मेरी उसे ठीक करने की उतनी ही ज़्यादा प्राथमिकता होती है। ऐसा इसलिये है क्योंकि प्रारंभिक अवस्था में यह मसूड़ों की सूजन पूरी तरह से रिवर्सिबल होती है अर्थात् इलाज करने से यह पूरी तरह से ठीक हो जाती है और अगर ब्रुश को ठीक ढंग से करना शुरू कर दिया जाये तो भविष्य में भी यह दोबारा होती नहीं ,लेकिन डैंटिस्ट के पास हर छःमहीने में एक बार तो चैक-अप करवा ही लेना चाहिये।

बच्चे इस समस्या के साथ कि उन्हें मसूड़ों से खून आता है काफी कम मेरे पास अभी तक आये हैं –कभी कभार कुछ दिनों के बाद एक –दो बच्चे आ ही जाते हैं और ये बच्चे अकसर 13-14 साल के ही होते हैं।

अगली उम्र है – कालेज के छात्र-छात्रायें----ये 19-20 की अवस्था है , बच्चे अपनी शकल-सूरत की तरफ़ कुछ ज़्यादा ही कांशियस से हो जाते हैं ( वैसे मैं भी कहां भूला ही अपने इन दिनों को जब बीसियों बार आइना देखा करता था और उतनी ही बार बालों में हाथ फेर कर .....!! ) ---और मसूड़ों से खून आये या नहीं , अगर उन्हें गंदगी सी जमा दिखती है, जिसे टारटर कहते हैं, तो वो डैंटिस्ट के पास क्लीनिंग के लिये आ ही जाते हैं.------उन के दांतों की स्केलिंग एवं पालिशिंग कर दी जाती है और ब्रुश करने का सही ढंग उन्हें सिखा दिया जाता है ताकि वे भविष्य में ऐसी किसी परेशानी से बचे रह सकें।

अगली स्टेज है अकसर शादी से पहले आने वालों की ---अर्थात् उन की समस्या है कि एक तो उन के मसूड़ों से खून आता है और दूसरा मुंह से बदबू आती है । इन सब का ट्रीटमैंट करना भी एक अच्छी खासी प्रायरटी ही होती है।

अगली स्टेज है शादी के बाद आने वालों की ----कुछ नवविवाहित जोड़े जब डैंटिस्ट के पास जाते हैं तो अधिकांश की एक ही समस्या होती है कि मुंह से बदबू आती है ----चैक अप करने के बाद वही समस्या निकलती है कि मसूड़ों की सूजन और दांतों एवं मसूड़ों पर जमा गंदगी। एक –दो सीटिंग्ज़ में ही पूरा इलाज हो जाता है और आगे के लिये इस तरह की प्राबल्म न हो, इस के संकेत भी दे दिये जाते हैं।

अगली बात करते हैं ---गर्भावस्था की ---इस स्टेज में बहुत ही महिलाओं को मसूड़ों से खून आने लगता है लेकिन वे समझती हैं कि सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा , इसलिये वे डैंटिस्ट के पास जाती नहीं हैं और बिना वजह अपने दांतों एवं मसूड़ों की तकलीफ़ को बढ़ावा दे डालती हैं।

बस ऐसे ही बहुत से लोग अकसर बिना किसी इलाज के चलते रहते हैं----इलाज कुछ नहीं, ऊपर से गुटखा, पान, तंबाकू-खैनी अपना कहर बरपाती रहती है ----वे लोग खुशनसीब होते हैं जो कि मसूड़ों की बीमारी को प्रारंभिक अवस्था में ही पकड़ लेते हैं क्योंकि अकसर मैंने देखा है कि जो लोग डैंटिस्ट के पास चालीस-पैंतालीस या यूं कह लूं कि चालीस के आस-पास की उम्र में जाते हैं उन में यह रोग बढ़ चुका होता है ----मसूड़ों की सूजन अंदर जबड़े की हड्डी तक पहुंच ही चुकी होती है, मसूड़ों से पीप आने लगती है, दांत हिलने लगते हैं , दांत अपनी जगह से हिल जाते हैं, चबाने में दिक्कत आने लगती है, ठंडा-गर्म बहुत ज़्यादा लगने लगता है ----अकसर इस अवस्था में इलाज बहुत लंबा चलता है---मसूड़ों की सर्जरी भी करनी पड़ती है।

और इतना लंबा ट्रीटमैंट मैंने देखा है या तो 99 प्रतिशत (इच्छा तो हो रही है कि 99.9 प्रतिशत ही लिखूं)—अफोर्ड ही नहीं कर पाते –कारण कुछ भी हो- वे इस इलाज के लिये तैयार ही नहीं हो पाते और दूसरा कारण यह है कि इस इलाज के जो खास स्पैशलिस्ट होते हैं उन की संख्या भी बहुत कम है। वैसे तो सामान्य डैंटिस्ट भी इस तरह का इलाज करने में सक्षम होते हैं लेकिन पता नहीं मैंने देखा है कि मरीज़ ही तैयार नहीं होते ----बस, दांतों एवं मसूड़ों पर जमी हुई गंदगी को साफ कर दिया जाता है और शायद इस से मरीज़ के दांतों की उम्र थोड़ी बढ़ जाती होगी ----लेकिन जब तक इस तरह के पायरिया के मरीज़ों की नीचे से मसूड़ों के अंदर से पूरी तरह क्लीनिंग नहीं होती है, पूरा इलाज हो नहीं पाता ।

बस, बहुत से लोगों में यूं ही चलता रहता है, धीरे धीरे दांतों का उखड़वाने के लिये नंबर लगता है- एक के बाद एक ---और बाद में नकली डैंचर लगवा लिया जाता है।

यह पोस्ट लिखने का केवल एक ही उद्देश्य है कि हमें मसूड़ों से खून निकलने को कभी भी लाइटली नहीं लेना चाहिये और तुरंत इस का इलाज करवा लेना चाहिये ।और यकीन मानिये, दांतों की स्केलिंग से दांत न ही कमज़ोर पड़ते हैं, न ही हिलते हैं और न और कोई और नुकसान ही होता है-----केवल इस से फायदे ही फायदे होते हैं। इसलिये अभी भी समय है कि हम इन पुरातन भ्रांतियों से ऊपर उठ कर समय रहते अपना उचित इलाज करवा लिया करें ।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

क्या हाई-ब्लड-प्रैशर, शूगर एवं हार्ट-पेशेन्ट्स का दांत उखड़वाने का डर मुनासिब है ?--भाग दो.

इस से पहली कड़ी में बातें हुईं थी हाई-ब्लड एवं शूगर के मरीज़ों के दांत उखड़वाने के डर के बारे में। आज देखते हैं कि हार्ट पेशेन्ट्स क्यों डरते हैं दांत उखड़वाने से ---क्या इस में कोई जोखिम इन्वाल्व है ?

सब से पहले तो यह बताना चाह रहा हूं कि हार्ट के पेशेन्ट्स अलग अलग तरह के होते हैं अर्थात् हार्ट की तकलीफ़ों की अलग अलग किस्में होती हैं और इन में डैंटिस्ट अलग अलग तरह की सावधानियां बरतते हैं।

सब से पहले तो हार्ट-पेशेन्ट्स को दिये जाने वाले टीके की बात करते हैं--- दांत उखड़वाने से पहले दिल के मरीज़ों को जो लिग्नोकेन( lignocaine) लोकल-अनसथैटिक का टीका दिया जाता है ---सुन्न करने के लिये—वह प्लेन टीका होता है –जिस में एडरिनेलीन( Adrenaline) नहीं होती। एडरिनेलीन रक्त की नाड़ियों में संकुचन पैदा करती है, और मरीज़ में पैल्पीटेशन( palpitations) पैदा कर सकती है इसलिये हार्ट पेशेन्ट्स में ऐसे इंजैक्शन को इस्तेमाल किया जाता है जिस में यह नहीं होती।

दूसरी बात यह है कि कुछ हार्ट पेशेन्ट्स रक्त को पतले रखने के लिये एस्पिरिन की टेबलेट लगातार ले रहे होते हैं--- ये सब बातें या तो मरीज़ हमें स्वयं ही बतला देते हैं वरना हमें खुद पूछनी होती हैं। अब ऐसे मरीज़ों को यह बहुत डर लगता है कि खून पतले करने वाली एस्पिरिन की वजह से दांत उखड़वाने के बाद तो उन का रक्त तो जमेगा ही नहीं।

अकसर ये लोग एस्पिरिन की आधी गोली ही ले रहे होते हैं ----तो मरीज़ का ब्लीडिंग टाइम एवं क्लाटिंग टाइम ( bleeding time and clotting time) --- अर्थात् मरीज़ का रक्त एक नीडल से प्रिक करने के बाद कितने समय में बंद होता है और फिर कितने समय में उस जगह पर ब्लड-क्लाट ( blood-clot) बन जाता है ---इस के लिये एक बहुत ही साधारण सा ब्लड-टैस्ट है जिसे करवा लिया जाता है। और मेरा अनुभव यह रहा है कि ऐसे मरीज़ों में लगभग हमेशा( पता नहीं मैंने लगभग क्यों लिखा है, क्योंकि मैंने तो हमेशा ही इसे लिमट्स में ही देखा है) ....ही इसे लिमट्स में ही पाया है।

वैसे कुछ इस तरह की सिफारिशें भी हैं कि सर्जरी से पहले मरीज़ की एस्पिरिन कुछ दो-चार दिनों के लिये बंद कर दी जाये। लेकिन वह मेजर-सर्जरी की बात होगी –मैंने दांत उखाड़ने के लिये कभी भी इस की ज़रूरत नहीं समझी क्योंकि एस्पिरिन लेने वाले मरीज़ों में भी मैंने दांत उखड़वाने के बाद रक्त बंद होने या उस का क्लॉट बनने में कोई विघ्न पड़ता देखा नहीं है। जो मरीज़ मुझे स्वयं ही इस के बारे में पूछता है कि क्या उसे एस्पिरिन दो-तीन दिन के बंद करनी होगी या वह कहता है कि उस के फिजिशियन ने उसे ऐसा करने को कहा है तो मैं उसे ज़रूर इसे कुछ दिनों के लिये बंद करने की सलाह दे देता हूं----ताकि वह संतुष्ट रहे ---लेकिन जहां तक मैंने देखा है ऐसे मरीज़ों में भी कोई तकलीफ़ होती मुझे तो दिखी नहीं।

कुछ क्ल्यूज़ (clues) हम लोग एस्पिरिन लेने वाले मरीज़ों से ऐसे भी ले लेते हैं कि अगर कहीं कोई कट-वट लग जाता है या शेव करते वक्त मुंह पर कट लग जाता है तो क्या रक्त नार्मल तरीके से आसानी से बंद हो जाता है ---इस का जवाब हमेशा ही हां में मिलता है।

लेकिन एक हार्ट प्राब्लम होती है जिस में मरीज़ रक्त पतला रखने के लिये ओरल-एंटीकोएगुलेंट्स (oral anticoagulants) ले रहा होता है जैसे कि टेबलेट एटिट्रोम (Tablet Acitrom) --- जो मरीज़ ये टेबलेट ले रहे होते हैं उन में बहुत ही एहतियात की ज़रूरत होती है—वैसे तो जो मरीज़ ये टेबलेट ले रहे होते हैं वे स्वयं ही बता देते हैं कि रक्त पतला करने के लिये वे इसे अपने फिजिशियन की सलाह से ले रहे हैं लेकिन कुछ केसों में मैंने देखा है कि कईं बार कुछ कम पढ़े-लिखे लोगों को इस का पता ही नहीं होता और वे किसी डैंटिस्ट के पास पहुंच जाते हैं। और डैंटिस्ट को इस दवाई का पता केवल तब ही चल सकता है अगर वह मरीज़ की फिजिशियन वाली प्रैसक्रिपशन देखता है। इसलिये हार्ट पेशेन्ट्स के साथ थोड़ी पेशेन्स की ज़रूरत रहती है---जल्दबाजी की गुंजाइश नहीं होती। और कुछ नहीं तो अगर मरीज़ को हम कह दें कि जो दवाईयां आप अपनी हार्ट-प्राब्लम के लिये ले रहे हैं उन्हें एक बार मुझे दिखा दें। ऐसा करने से भी पता चल जाता है कि मरीज़ का क्या क्या चल रहा है।

हां, तो अगर हार्ट पेशेन्ट टेबलेट एसीट्रोम ले रहा है और दांत उखड़वाने के लिये हमारे पास आया है तो उस का एक विशेष तरह का टैस्ट करवाया जाता है ---प्रोथ्रोंबिन टैस्ट – prothrombin time एवं आईएनआर ( INR – International normalized ratio) – और इस टैस्ट के लिये अथवा टैस्ट के बाद मरीज़ को उस के फिजिशियन अथवा कार्डियोलॉजिस्ट के पास रेफर करना ही होता है ---उस की स्वीकृति के लिये कि क्या इस मरीज़ को डैंटल एक्सट्रेक्शन के लिये लिया जा सकता है---और फिर आगे सारा काम उस की सलाह से ही चलता है।

ओरल –एंटीकोएग्यूलैंट्स ले रहे मरीज़ों का यह टैस्ट तो वैसे भी फिजिशियन समय समय पर करवाते रहते हैं –यह देखने के लिये सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है ---उन्हें यह भी आगाह किया होता है कि अगर आप के पेशाब में आप को रक्त दिखे या मसूड़ों से अपने आप ही रक्त बहने लगे तो तुरंत फिजिशियन से मिलें----वह फिर इन दवाईयों की डोज़ को एडजस्ट करता है। वैसे तो टेबलेट एसीट्रोम जैसी दवाईयां ले रहे मरीज़ों के लिये सलाह यही होती है कि उन्हें अपना दांत किसी बहुत अनुभवी डैंटिस्ट के पास जा कर ही उखड़वाना चाहिये ---- इस से भी बेहतर यह होगा कि किसी टीचिंग हास्पीटल में जाकर ही यह काम करवाया जाये ---वहां पर सारे स्पैशलिस्ट मौजूद होते हैं और सारी बातों का वे बखूबी ध्यान कर लेते हैं।

तो हम ने यह देखा कि डैंटिस्ट के पास जा कर अपनी सारी मैडीकल हिस्ट्री बताने वाली बात कितनी ज़रूरी है। एक और हार्ट की तकलीफ़ होती है ----रयूमैटिक हार्ट डिसीज़ ( Rheumatic heart disease ---इसे आम तौर पर मैडीकल भाषा में शॉट में RHD) भी कह दिया जाता है ----इस के साथ वैलवुलर हार्ट डिसीज़ होती है ---( valvular heart disease) अर्थात् मरीज़ के हार्ट के वाल्वज़ में कुछ तकलीफ़ होती है ---ऐसे मरीज़ों में भी दांत निकलवाने से पहले एक ऐंटीबायोटिक हमें कुछ समय पहले देना होता है --- ताकि एक खतरनाक सी तकलीफ़ –सब-एक्यूट बैकटीरियल एंडोकार्डाईटिस – Sub-acute bacterial endocarditis—SABE से मरीज़ का बचाव हो सके।

वैसे तो बातें ये सब बहुत बड़ी बड़ी लगती हैं----शायद थोड़ा खौफ़ भी पैदा करती होंगी ---लेकिन मेरी बात सुनिये की यह सब जितना कंप्लीकेट्ड लिखने में लगता है , उतना वास्तव में है नहीं। बस, बात केवल इतनी सी है कि बिल्कुल मस्ती से अपने डैंटिस्ट के पास जायें----इस से उसे भी अपना काम करने में बहुत आसानी होती है---मैं कईं बार मरीज़ों को कहता हूं कि डरे हुये मरीज़ का काम करते हुये तो हाथ ही नहीं चलता, वो बात अलग है कि यह सब कहां मरीज़ के भी हाथ में होता है। इसलिये हमें अगर कभी कभार लगता है कि मरीज़ बहुत ही टेंशन करने वाली प्रवृत्ति वाला है तो हमें उसे कभी-कभार बहुत रेयरली कोई टैबलेट भी देनी होती है। लेकिन जैसा कि मैं अकसर बार बार कहता रहता हूं कि मरीज़ का अपने डैंटिस्ट पर विश्वास और डैंटिस्ट द्वारा कहे गये चंद प्यार एवं सहानुभूति भरे शब्द किसी जादू से कम काम नहीं करते ----शायद इन्हें(विभिन्न कारणों की वजह से) काफी बार ट्राई ही नहीं किया जाता और टेबलेट पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा किया जाता है।

चंद शब्द उन मरीज़ों के बारे में जिन को हाल ही में हार्ट-अटैक हुआ हो ---ऐसे मरीज़ों में सामान्यतयः डेढ़-महीने तक दांत उखाड़ा नहीं जाता, लेकिन वह दूसरी तरह का नॉन-इनवेज़िव डैंटल ट्रीटमैंट करवा सकते हैं ---दांतों की तकलीफ़ के लिये दवाईयों से ही काम चला सकते हैं ---वैसे आम तौर पर देखा गया है कि हार्ट-अटैक के डेढ़-दो महीने बीत जाने से पहले वो डैंटिस्ट के पास दांत उखड़वाने आते भी नहीं हैं----- मेरे पास भी अभी तक शायद दो-चार केस ही ऐसे आये होंगे जिन का टाइम-पास हमें खाने वाली दवाईयां या दांतों एवं मसूड़ों पर लगाने वाली दवाईयां देकर ही किया था।

लगता है कि अब बस करूं ---बहुत ही महत्वपूर्ण तो सारी बातें लगता है हो ही गई हैं इस विषय के बारे में , कोई और बाद में याद आई तो फिर कर लेंगे। हां, अगर आप का कोई प्रश्न हो तो आप का प्रश्न पूछने हेतु स्वागत है।
।।शुभकामनायें।।

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

क्या हाई- ब्लड-प्रैशर, शूगर और हार्ट पेशेंट्स का दांत उखड़वाने का डर मुनासिब है ?....भाग 1

आज सुबह सुबह मेरा पहला -दूसरा मरीज़ ही वह था जिस के मुंह के ऊपर सूजन आई हुई थी –दांत की सड़न की वजह से – और मेरे कुछ भी पूछने से पहले ही उस ने कहना शुरू कर दिया कि कल बस गलती से उड़द की दाल खा ली और यह बखेड़ा खड़ा हो गया है। मैंने उसे समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है, आप कुछ भी खायें --- इस का उड़द-वड़द से कोई संबंध नहीं है।

वैसे अब मैं लिखते लिखते सोच रहा हूं कि हमें हमारे कालेजों में ये सब बातें पढ़ाई नहीं गईं, इसलिये हम तुरंत ही इन सब बातों को सिरे से नकार देते हैं, लेकिन कहीं इस में क्या कोई सच्चाई है, यह जानने की मेरी भी बहुत उत्सुकता है ---लेकिन मेरा अनुभव तो यही कहता है कि ऐसा कोई संबंध है नहीं।

ऐसी बहुत सी बातें हैं जो कि लोगों के मन में घर कर गई हैं और जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के मन में लगता है ट्रांसफर होती रहती हैं। ऐसी ही है एक जबरदस्त भ्रांति जिस ने लाखों लोगों को उलझा कर रखा हुआ है ---वह यह है कि बहुत से लोग यही समझते हैं कि हाई ब्लड-प्रैशर वाले मरीज का या हार्ट के मरीज़ के लिये दांत उखड़वाना बेहद जोखिम वाला काम है-----लोग सोच सकते हैं कि ऐसा करने से कुछ भी हो सकता है, हो सकता है कि रक्त के बंद न होने से बंदे की जान ही ना चली जाये, बहुत से लोग ऐसा सोचते हैं और बिना वजह अपने इलाज को स्थगित करते रहते हैं।

और जहां तक शूगर के मरीजों की बात है, क्या कहूं----- किसी सड़े-गले दांत को उखड़वाने की बात करते ही, कह देते हैं कि मुझे तो शूगर है, मैं कैसे दांत उखवड़ा सकता हूं। फिर कहते हैं कि अगर मैंने दांत उखड़वा लिया तो मेरा तो जख्म ही नहीं भरेगा। लेकिन मुझे कईं बार लगता है कि इस तरह की भ्रांतियां फैलाने में नीम-हकीम, झोला-छाप डैंटिस्टों का बहुत बड़ा रोल है ----बस कुछ भी कह कर मरीज़ को इतना डरा देते हैं कि वह दांत उखड़वाने के नाम से ही कांपने लगता है।

मुझे प्रोफैशन में 25 साल हो गये हैं, साल में लगभग दो हज़ार के करीब दांत उखाड़ने का स्कोर है, तो अनुमान है कि चालीस पचास हज़ार दांत तो अब तक उखाड़ ही चुका हूं। और इस पचास हज़ार के स्कोर में सब तरह की बीमारियों से जूझ रहे लोग शामिल रहे हैं----हाई ब्लड प्रैशर, शूगर, कैंसर, हार्ट प्राब्लम, और भी सब तरह की शारीरिक बीमारियां ----यह सब लिखना इस लिये ज़रूरी लग रहा है कि पाठकों को मेरी बात पर विश्वास करने में आसानी हो---उन्हें यह ना लगे कि मैं कोई किताबी बात कर रहा हूं। इसलिये इसे लिखने को आप कृपया अन्यथा न लें। तो, मेरा क्या अनुभव रहा ----मेरा अनुभव यह है कि मरीज़ से अच्छे से बात करना और सारी बात को बहुत ही प्रेम से समझाना इस कायनात की सब से बड़ी दवा है।

मैंने आज तक ऐसा शूगर का एक मरीज़ भी ऐसा नहीं देखा जिस ने दांत उखड़वाया हो और जिस का जख्म भरा हो-----यकीन कर लो, दोस्तो, बिलकुल सच लिख रहा हूं। वास्तव में इस में मेरा रती भर भी बड़प्पन नहीं है, कुदरत ही अपने आप में इतनी ग्रेट है कि थोड़ी सी सावधानियों के साथ सब कुछ अपने आप दुरुस्त कर देती है----ऐसे ही तो नहीं ना उसे हम लोग इसे मदर नेचर कहते फिरते।

थोड़ी बातें शूगर के मरीज़ के बारे में और करनी होगीं--- निसंदेह किसी भी शूगर के मरीज़ को अपना कोई भी सड़ा-गला दांत जिस में पस पड़ी है या किसी अन्य कारण की वजह से डैंटिस्ट ने जिसे उखड़वाने की सलाह दी हुई है, उसे उखड़वा कर छुट्टी करनी चाहिये।

अगर शूगर कंट्रोल में है तो ठीक है , वरना कईं कईं दिन तक शूगर के कंट्रोल होने की प्रतीक्षा करना कि जब शूगर बिलकुल नार्मल हो जायेगी तो देखेंगे ----तब तक ऐंटिबायोटिक दवाईयां और पेन-किल्लर्ज़ लेते रहने से क्या फायदा ---उन के अपने ढ़ेरों साईड-इफैक्ट्स हैं। इसलिये मैंने तो कभी शूगर के मरीज़ों को पोस्ट-पोन शूगर की वजह से नहीं किया -----कुछ केसों में दो-तीन दिन पहले ऐंटीबायोटिक दवाईयां शुरू करनी होती हैं,( बहुत कम केसों में) ---और मरीज़ को कहा जाता है कि आप अपने रूटीन के हिसाब से सुबह नाश्ता करें, उस के बाद अपनी शूगर की दवाई या इंजैक्शन ले कर डैंटल क्लिनिक में जायें-----वह सुबह वाला टाइम इन मरीज़ों के लिये बहुत श्रेष्ट होता है। न ही मरीज़ को कुछ पता चलता है और न ही डाक्टर को..........everything happens so smoothly and thereafter healing of the wound is also so uneventful. बस, मुंह में मौजूद जख्म को साफ-सुथरा रखने के लिये बहुत साधारण सी सावधानियां उसे बता दी जाती हैं। इसलिये मैंने तो कभी भी किसी भी शूगर के मरीज़ को यह आभास होने ही नहीं दिया कि शूगर का रोग कोई ऐसा हौआ है जिस में दांत उखाड़ने का मतलब है कि मुसीबतें मोल लेना------दरअसल देखा जाये तो ऐसा है भी कुछ नहीं। लेकिन शूगर के मरीज़ का दांत उखाड़ने से पहले उस की ब्लड-रिपोर्ट और अन्य टैस्ट और उस की जनरल हैल्थ जरूर देख ज़रूर लेता हूं - जो मुझे लगभग हमेशा ही हरी झंडी दिखाती है। Thank God !!

अब आते हैं ----हाई ब्लड-प्रैशर की तरफ़ ----सब से बड़ा डर लोगों को लगता है कि दांत उखवाड़ने के बाद खून बंद नहीं होगा। इस के बारे में यह ध्यान रखिये कि वैसे तो अकसर मरीज़ों को अपने ब्लड-प्रैशर के बारे में पता ही होता है लेकिन अगर किसी को पता नहीं है तो उस का चैक करवा लिया जाता है और अगर हाई-ब्लड-प्रैशर एसटैबलिश्ड हो जाता है तो फिजिशियन की सलाह अनुसार उस का ब्लड-प्रैशर कंट्रोल होने पर दांत बिना किसी परेशानी के निकाल दिया जाता है और यह पूरी तरह से सुरक्षित प्रोसिज़र है। कंट्रोल का मतलब दांत उखड़वाने के लिये तो यहां यहीं लें कि हो सकता है ब्लड-प्रैशर नार्मल रेंज से थोड़ा ज़्यादा ही हो, लेकिन मैंने तो अपनी प्रैक्टिस में इन मरीजों को भी बिलकुल बिना किसी तकलीफ़ के दांत उखड़वाने के बाद बिलकुल ठीक होते देखा है।

यहां मुझे हाई-ब्लड-प्रैशर के दो-तीन मरीज़ों के साथ दांत उखाड़ते समय अपने अनुभव याद आ रहे हैं----लेकिन उन्हें अगली पोस्ट में डालता हूं क्योंकि यह पोस्ट 1000शब्दों को पार कर चुकी है। और हार्ट के मरीज़ों की बात अगली पोस्ट में ही करेंगे।

बहुत बहुत शुभकामनायें। मैडीकल साईंस कईं बार अनसरटन भी हो सकती है --इसलिये आशीर्वाद दें कि ऐसे ही बिना किसी तरह की कंप्लीकेशन के मरीज़ो की सेवा में लगा रहूं और उन के विश्वास पर हमेशा खरा उतरता रहूं।