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सोमवार, 6 मार्च 2023

एंटीबॉयोटिक्स से कहीं ज़्यादा भरोसा है मुलैठी पर..

अगर मैं दंत चिकित्सक न होता तो पंजाबी लोकगीत गायक तो बन ही जाता ..नहीं तो किसी म्यूज़ियम का क्यूरेटर हो जाता...कुछ भी कर लेता...बहुत काम हैं जिस तरफ़ भी बंदा अपने मन को लगा ले....मुझे पुरानी एंटीक, विंटेज चीज़ों में खास रूचि है ....सौ साल पुरानी कोई किताब हो, अस्सी साल पुराने मैगज़ीन हों....मैं एंटीक शाप्स में और ऑनलाइन इन को ढूंढता रहता हूं ...ये मेरे लिए सिर्फ़ आइट्म ही नहीं होती, दरअसल ये अपने वक्त के किस्से ब्यां करती हैं और मुझे लिखने के लिए मजबूर करती हैं ...मेरे लिए ये चीज़ें नहीं है, मेरे लिए ये सब लिखने के प्राप्स हैं....जैसे नाचने वालों को प्राप्स लगते हैं, मुझे ये सब प्राप्स लगते हैं लिखने के लिए ....

खैर, बात यूं है कि कुछ दिन पहले यहां मुंबई की एक एंटीक शाप में मुझे एक डिब्बी दिखी ...क्या है न, अब ऐसी चीज़ों को देखने से ही एक अंदाज़ा सा हो जाता है कि ये ५० साल पुरानी होगी, यह सौ साल पुरानी वगैरह वगैरह ....खैर, इन दुकानदारों को भी पता रहता है कि जो कलैक्टर इस तरह की दो कौड़ी की चीज़ को ढूंढ़ते हैं, और खरीदते हैं ...उन से कैसे पैसे निकलवाने हैं....चलिए, वे अपनी जगह ठीक हैं....मेरे लिए वह चीज़ अनमोल है जिसे मैंने आज तक कभी नहीं देखा, और आने वाले समय में भी देखने की कोई गुंजाइश नहीं है ... 

चलिए, मैंने वह डिब्बी खरीद ली ...दाम बताऊंगा तो बेवकूफ़ी लगेगी ...खैर, मुझे लेनी थी सो ले ली....देखिए आप भी इसे ....



इस लिंक पर जा कर यह भी देखिए यह अस्सी साल पुरानी डिब्बी इ-बे पर ३४ यू एस डॉलर में बिक रही है ...यह रहा लिंक ....

आपने भी पढ़ लिया होगा कि इस में मैंथोल और मुलैठी का रस (एक्सेट्रेक्ट) आता था ...और यह गले में खिच खिच के काम आती थीं ..इंगलैंड की किसी कंपनी से बन कर आती थीं हिंदोस्तान में ....मुझे याद आ रहा है प्राइमरी क्लास के एक मास्टर ने एक बार हमें बताया था कि अंग्रेज़ों के राज में सूईं भी इंगलैंड से आती थीं और यहां बिकती थीं....यह भी देखिए कि मुलैठी जैसी चीज़ को भी किस तरह से पैक-वैक कर के इंगलैंड से लाकर यहां बेचा जाता था ....ऐसे और भी कुछ प्रोड्क्ट्स - कुछ आम दवाईयों के बारे में भी किसी और दिन बताऊंगा ....

मुझे यह डिब्बी देख कर बहुत ज़्यादा हैरानी हुई थी ....क्योंकि मेरी उम्र ६० साल है और जहां तक याद है बचपन से ही हमें मुलैठी पर ही भरोसा रहा ...गले में खिच खिच होती, दर्द वर्द होता, खांसी जुकाम होता ...तो हमें मुलैठी ही चबाने के लिेये दी जाती ....उन दिनों दांतों में भी अच्छी ताकत थी ...न नुकुर करते करते उसे चबा ही लेते और झटपट आराम भी मिल जाता ....कभी एंटीबॉयोटिक इस्तेमाल करने का कुछ झंझट ही न था...नमक वाले पानी से गरारे करो, मुलैठी चबाओ, बेसन का पतला सीरा, गुड़ वाली सौंठ खाओ....और मस्त रहो .....यही थी अपनी खांसी-जुकाम, गले में खिच खिच की दवाईयां ....वैसे तो अभी तक भी यही हैं...लेकिन अब कभी कभी एंटीबॉयोटिक लेने की नौबत भी आ जाती है ...लेकिन फिर भी भरोसा अभी भी मुलैठी पर पूरा है ...

कुछ दिन पहले मैं अपनी बड़ी बहन से मुलैठी के बारे में बात कर रहा था ...उन का गला खराब था ..मैंने कहा कि मुलैठी चबाओ...तो कहने लगी कि मिलती ही नहीं कहीं....मैंने बताया कि बाबा रामदेव की दुकानों पर मुलैठी क्वाथ मिलता है ...मुलैठी को लगभग चूरा कर के ....(shredded licorice) ....मुझे भी यह दिक्कत कईं बार आई है...लेकिन बहन बता रही थीं कि उन के पास मुलैठी का चूरण है वह उसे चाय या पता नहीं गर्म पानी में डाल कर पी लेती हैं....उन को भी राहत मिल जाती है ... अच्छी बात है, हमारे अपने अपने ज़िंदगी के तजुर्बे हैं, जिसे जिस चीज़ से राहत मिले, मां भी ८०-८५ की उम्र तक ये सब चीज़ें ही इस्तेमाल करती थीं ....और पुरानी चीज़ों की भी अच्छी अहमियत तो थी ही, ऐसे ही थोड़े न फिरंगी मुलैठी के रस को इस पैकिंग में इंगलैंड से लाकर बेचते रहे .....८० साल पहले ....यह डिब्बी तो ८० साल पुरानी है ....क्या पता यह धंधा कितना पुराना होगा...

मुलैठी को खरीदना अब मुश्किल हो गया है ....किसी पुरानी दुकान के पुराने बनिये से मिल भी जाती है कभी तो उस में अकसर घुन सा लगा होता है ...उसे चूसने की इच्छा नहीं होती....खैर, बाबा रामदेव की दुकानों पर जो मुलैठी क्वाथ मिलता है वह भी बढ़िया है ..दस पंद्रह बरस पहले १५ रूपये में मिलता था....अब भी ४० रूपये में मिल जाता है ...लेकिन है यह चीज़ बहुत बढ़िया ....

मुलैठी क्वॉथ ..

मुलैठी क्वाथ ऐसा दिखता है ....एक चम्मच मुंह में डाल कर चबाते रहिए...कुछ मिनट ..तुंरत राहत महसूस होती है ...


अभी दो तीन महीने पहले मुझे एक लिट-फेस्ट में उषा उत्थुप के प्रोग्राम में जाने का मौका मिला ....उन्हें सुन कर बहुत अच्छा लगा ..इतनी लाइवली हैं...अपनी यादें सुना रही थीं कि किस तरह से उन्हें एड्वटाईज़िंग में पहला मौका मिला ...उन्हें विक्स की गोली के लिए कोई जिंगल लिखना था...कुछ समझ में नहीं आ रहा था ....लास्ट मिनट पर उन की कही लाइन ने जैसे हिंदोस्तान की खिच खिच दूर भगा दी ..........गले में खिच खिच, गले में खिच खिच .....क्या करो....विक्स की गोली लो, खिच खिच दूर करो....मैं इस के बारे में अपने किसी पुराने ब्लॉग में लिख भी चुका हूं ....लेकिन इस वक्त मुझे लिखते लिखते फिर लगा कि खिच खिच पर कोई फिल्मी गीत कैसे नहीं है .....बस, ऐसे ही सोच रहा था तो पता नहीं कहां से खिच खिच से तो नहीं हिचकी वाले फिल्मी गीत की याद आ गई ...यह लिखना बंद कर के पहले तो उसे सुना.....यह मेरे कालेज के दौर का गाना है, बहुत पंसद है ....इस की मेरे पास कैसेट भी थी, बहुत सुना करता था ....लेटे लेटे, आंखें मूंद कर 😂😎😉....हा हा हा हा हा हा हा.....वे दिन भी क्या दिन थे...!! आज सुबह जब मैं जगा, तेरी कसम ऐसा लगा ....कि तूने मुझे याद किया है .....हिच हिच हिचकी लगी ...हिचकी...


कुछ आज की भी बात कर ली जाए.....कल दोपहर मेरे गले में अचानक बहुत ज़्यादा इरिटेशन शुरू हो गई ....खांसी भी ...खिच खिच भी ...मैंने मुलैठी ढूंढी और जैसे ही उसे चबाया, आराम आने लगा .....और कल से वही कर रहा हूं....इस से तुरंत राहत मिलती है ...लेकिन मैं यह सब लिख किस के लिए रहा हूं ....कौन सुनता है किसी की आज ....लेकिन जिन पर लिखने की जिम्मेवारी है, उन का फ़र्ज़ होता है सब कुछ सच सच दर्ज करते जाना ......इस से ज़्यादा कुछ नहीं .....वैसे भी लेखकों का काम है मुनादी करना ....

बात वही है पिछले कुछ दिनों से मुझे कुछ खास विषयों पर लिखना था ..बस, वह ऐसे ही टलता रहा, आज ऐसे ही मुलैठी की यादों ने इन को पहले समेटने के लिए मजबूर कर दिया....मैं अपने किसी मरीज़ को मुलैठी के बारे में बताता हूं तो उसे समझ नहीं आती कि मैं क्या कह रहा हूं......अगर मीठी लकड़ी कहता हूं तो कुछ को समझ में आ जाता है ....


शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

पैकेजिंग, मार्केटिंग पर ही हम फ़िदा हुए पड़े हैं..

कल रात आलू के परांठे खाने की इच्छा हुई तो दो बहुत ही मशहूर दुकानों से ये मंगवाए गए ..क्योंकि एक दुकानदार दही के साथ देता है और दूसरा चने के साथ ...लेकिन इतने बेकार, कच्चे-पक्के परांठे मैंने ज़िंदगी में कभी नहीं खाए...( कल रात इन्हें जैसे तैसे खा लिया क्योंकि मुझे पता है ये बहुत महंगी जगह से मंगवाए गये थे 😂-) दो तीन बार जब मैंने बाहर खाने की कोशिश की तो काट छांट के ही खाए होंगे ..लेकिन वह भी परेशान हो हो कर ..क्योंकि पता नहीं हमें हमारी मां (सब की मां खाने-पिलाने में एक जैसी होती हैं) ने बचपन से इतना बढ़िया खिलाया सब कुछ ...अंगीठी और स्टोव वाले दौर में भी ...पसीने से तरबतर होते हुए भी ....और बीच बीच में कभी कभी बड़ी बहन ने भी ऐसा खाना खिला दिया है कि उस स्तर तक हमारी श्रीमति जी ही पहुंच पाती हैं अकसर ....मां तो एक एक परांठे को पूरा वक्त लगा कर ..दबा दबा कर ऐसा अच्छे से सेंक कर देती कि रूह खुश हो जाती ...पता नहीं इतना सब्र कहां से ले आती थी ...मां कहीं भी जाती दो दिन से ज़्यादा न टिकती ...कल ही मेरी बहन फोन पर याद कर रही थी कि बिल्ले, बीजी मेरे पास यहां अगर आ भी जाते तो दो दिन ही सही से टिकते, फिर वही रट लगाने लगते कि विनोद, मेरी वापिसी की सीट करवा दे ..मेरा मन उदास हो रहा है ...😎😂 साथ में हंस भी रही थी यह बात सुनाते सुनाते ....

चलिए, मांएं तो ऐसी ही होती हैं...कुलदीप मानक का यह गीत पंजाब का सुपर-डुपर गीत है भाईयो....इसे सुनने से मन हल्का हो जाता है ..आंखे भी भीग जाएं तो भीग जाने दो....कभी कभी आंखों की इस तरह की सफ़ाई भी ठीक होती है ...इसे सुनने समझने के लिए आप को पंजाबी भाषा का ज्ञान होना कतई ज़रूरी नहीं है, वह इतने दिल से गा रहे हैं कि आप सब कुछ समझ जाएंगे...

हां, तो आलू के जिन परांठों का मैंने ज़िक्र किया जिन को मैंने खाया ...उन को खाने के बाद मुझे डर ही लगा रहा कि कहीं गैस की वजह से मेरा सिर ही न दुखने लग जाए ...मैं इस बीमारी से बड़ा डरता हूं ...लेकिन, नहीं, भगवान की कृपा रही ...रात में दो-तीन बार उठना पड़ा लेकिन वह तो मच्छरों की वजह से ...लेकिन जिस तरह से उन परांठों की, दही और चने की पैकिंग थी ...उस के क्या कहने...पैकिंग देखते ही किसी बंदे के पेट में चूहे जॉगिंग करने लगें ....खैर, मैंने तो बता दिया कि मैं तो कईं बार किसी हाटेल में आलू के परांठे आने पर उस का एक निवाला चखने पर भी उसे छोड़ देता हूं ..नहीं खाया जाता, क्योंकि मां ऩे और अमृतसर ने इतना बढि़या खिला दिया है कि अब श्रीमति जी और कभी कभी मिलने पर बड़ी बहन के परांठे ही मन भाते हैं...ईश्वर इन्हें सलामत रखे ...इतनी मेहनत करती हैं खाना बनाने में कि खाने वाले को शर्म आने लगे ...सच में 😂....जब कुछ समय के लिए मैं अमृतसर होस्टल में रहा तो भी हमारा एक पहाड़ी मेस मैनेजर बहुत बढ़िया आलू के परांठे बनवाता था ...कोई सिरदर्दी नहीं कि यह यहां से कच्चा है, यह वहां से अधपका है ...चलिए, परांठों को यहां छोड़े ....आगे चलते हैं...बस, ऐसे ही आज कल तो ऊंची दुकान, फीका पकवान वाली बात मालूम पड़ती है ...

सुबह सुबह चाय के साथ ही इसे खा-फुट लिया है, बाद में डिप्रेशन होने लगती है ...

आज लेट उठा ..चाय पीते वक्त पास ही एक अमूल का कोकोनट कुकीज़ का पैकेट दिख गया ... सुबह चाय के साथ दो बिस्कुट ही लेता हूं ... इस से ज़्यादा कहां इच्छा ही होती है ...लेकिन यह कैसी पैकिंग थी इस बिस्कुट के पैकेट की ...खोलते ही इस का तो पूरा ही लंगार ही खुल गया ...अब क्या करे कोई ....कितनी बार क्या, अनगिनत बार होता है खास कर जब कभी टैव्लिंग कर रहे होते हैं कि कुछ खाने-पीने की चीज़ खरीद लेते हैं , और उसे खोलते ही वह ऐसे खुलती है कि फिर लगता है कि इस को खत्म कर के ही सांस लें....कहां इसे संभालते फिरेंगे ...आज जो कोकोनुट कुकीज़ का पैकेट खोला तो न चाहते हुए भी वे 6-7 बिस्कुट जबरदस्ती चाय में डुबो डुबो कर हड़प लिए ....लेकिन बाद में मन खराब तो होता ही है कि मैं अपनी सेहत के साथ क्यों यह सब खिलवाड़ कर रहा हूं ...इस चक्कर में कि बिस्कुट का पैकेट खुल गया है, इसे संभालना मुश्किल है, कहीं भी रखो, नमी पकड़ लेते हैं ...चलो, पेट में ही डाल कर इस नमी वाली टेंशन से तो फारिग हो लें....

कंपनी सफल रही, अपनी पैकेजिंग की वजह से ...यह तो एक अदद उदाहरण थी ...दिन भर में अनेकों मिसालें दिख जाएंगी हम को ...मैं कईं बार हंसता यह याद कर के कि बचपन में कालगेट कैसे एक लोहे की ट्यूब में आती थी और उस के साथ एक लोहे की चाबी सी भी आती थी ..जो उस के एक तरफ़ लगा कर सलीके से ट्यूब निकालते थे ...वह चाबी कभी इस्तेमाल की तो नहीं..लेकिन हां, जब ट्यूब खत्म होने की कगार पर होती तो उस के एक सिरे को उस चाबी की मदद से मरोड़ना पड़ता था, और कईं बार तो उस पर पत्थर मार पर भी टूयब निकालना याद है ..क्योंकि तब आज जैसा व्यवस्था और सुविधा नहीं थी कि राशन चाहे रोज़ मंगवाओ, चाहे दिन में चार बार मंगवाओ...अभी कही ंसे सर्फ आ रहा है, कहीं से चाय पत्ती ....पहले तो महीने की शुरुआत में घर में जो राशन आता था ...उस का मतलब सारा महीना उसी से काम चलाना होता था ...क्योंकि उस के अलावा राशन का कुछ अलग से बजट न होता था ..ऐसे में 29 या तीस तारीख को कालगेट खत्म होने पर या तो नमक-तेल इस्तेमाल करो....या फिर वही पत्थर उठा कर, पेस्ट को ईंट पर रख कर ...निकाल तो अगर थोड़ी बहुत निकलती है तो ..और बाद में शायद घर के सामने से जो पतीसे वाला निकलता था वह उस टूटी-मुड़ी हुई टूयब को लेकर कुछ पतीसा भी दे देता था ...मैंने यह सब आपबीती - आपबीती भी नहीं, लगभग सब लोगों का हाल तो यही था, लेकिन कुछ लोग मुंह नहीं खोलते, चलिए, नहीं खोलते तो न खोलें, उन की चुप्पी उन्हें मुबारक.....लेकिन आज की टुथपेस्टों की पैकेजिंग देखिए....बस उन से ब्लू-टुथ से ही पेस्ट निकलने की कमी है...वरना उन को हाथ लगाते ही पेस्ट जैसे अपने आप बाहर निकलने लगती है और ऊपर से इन पेस्टों का नोज़ल इतना बड़ा करते जा रहे हैं कि कंपनी चाहती है कि कमबख्तो, छोड़ो अब इस की जान निकालोगे ...जल्दी जल्दी टूयब भी नईं ले लिया करो...तुम लोगों ने कौन सा अब बाज़ार जा कर किराने की दुकान पर इंतज़ार करना है, मैसेज करना है और सामान हाजिर हो जाएगा...

पेस्ट ही क्यों, बॉथरूम में पडी 15-20 शीशीयों की तरफ़ नज़र दौडाता हूं तो हर तरफ़ मार्केटिंग के जलवे दिखाई देते हैं, हमारे वक्त में गुसलखानों में एक देसी, एक अंग्रज़ी और सरसों के तेल की एक कुप्पी और झांवा होता था, पैर रगड़ने के लिए...लेकिन अब तो समझ में ही नहीं आता...हर तरफ तरह के वॉश, कंडीशनर, शैंपू...कईं बार लगता है कि हम भी वक्त से पहले ही इस संसार में आ गए...आज के दौर में आते तो बात ही कुछ और होती ..हम लोगों ने तो लाइफब्वाउ और रेक्सोना के आगे कभी कुछ सोचा ही न था...सीकरी की वजह से कभी घर में टाटा का शैंपू आ भी जाता तो पड़ोसियों तक को खबर होती कि इन के यहां तो शैंपू इस्तेमाल होता है ...हां, तो बात लंबी खिंच गई ....बात यही है कि ये गुसलखाने में अनेकों चीज़े धरी पड़ी होती हैं इन की पैकेजिंग भी ऐसी होती हैं कि इन्हें जल्द से जल्द खत्म करो ...और आगे बढ़ो और हर रोज़ कुछ नया ले कर आओ ...और इन गुसलखानों की शोभा बढाओ....वैसलीन तक जो कि हमें उंगली टेढ़ी कर के निकालनी पड़ती थी, वह भी लोशन की शक्ल में आने लगी है ...दो बूंद चाहिए होती है और लेकिन बोतल को दबाते ही चम्मच भर बाहर आ जाती है ....उस वक्त माथा पीटने की इच्छा होती है कि अब इस का करें तो क्या करें, टोस्ट पर लगा लें क्या ....😎

हर तरफ मार्केटिंग का बोलबाला है ...पैकेजिंग पर जो़र है ...इतना ज़्यादा कि खामखां की शोशेबाजी में सब रमे हुए हैं ...लेकिन कोई फायदा नहीं इन चोंचलों का ....Keep it short and sweet, stupid ...वाली बात अकसर याद आ जाती है .... दवाईयों के मामले में भी इतनी गंदगी है और मैं पिछले 20 साल से .(.जब से यह जैनरिक और ब्रांडे़ड की नौटंकी शुरू हुुई है) ..मैंने इन विषयों पर खूब लिखा ..लेकिन मुझे आज तक यह समझ नहीं आई कि कैमिस्ट की दुकान पर जो हमें दवाई बिक रही है ..वह ब्रेंडेड है या जैनरिक ..क्योंकि इन दोनों में ज़मीन आसमान का फर्क है ...कुछ दवाईयों पर दाम अगर लिखा है 100 रूपये है तो वह अपने किसी खास को 17 रूपये की दे देगा ...और गरीब मज़दूर उसी दवाई को पूरे 100 रुपये में लेकर जाएगा....इन दवाईयों में भी बहुत गोरखधंधा है ...इतना बडा धंधा है कि लिखते हुए भी डर लगता है क्योंकि यह इतना बड़ा माफिया है कि इन के लिए किसी भी ज़्यादा बोलने वाले का मुंह हमेशा के लिए बंद करना कोई बड़ी बात नहीं है ....ठीक है, सरकार ने जन औषधि केन्द्र खोल रखे हैं...लेकिन वहां तक अकसर ज़रूरतमंद पहुंच ही नहीं पाते ...एक तो अनपढ़ता इतनी है, ऊपर से दूसरे तरह के दबाव.....जिन के बारे में आप मुझ से बेहतर जानते हैं....ऐसे ही अनजान बनने का नाटक मत करिए....मैं काफ़ी कुछ चेहरों से भांप लेता हूं .. 😎... बंद चिट्ठी में लिखी बात पढ़ लेता हूं ...ओह, मैं भी सुबह सुबह कैसी कैसी ढींग मारने लग गया ...इसलिए अभी इसी वक्त यह पोस्ट बंद करने का वक्त है ... 

दुनिया से जाने वाले ...जाने चले जाते हैं कहां ...स्मिता पाटिल एक बेहतरीन अदाकारा, नेक इंसान...इन के चले जाने का हमें बहुत दुःख हुआ था ...इन की स्मृति को सादर नमन ....कुछ लोग हर तरफ़ से तारीफ़ें ही बटोरते हैं, स्मिता पाटिल भी ऐसी ही थीं...

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

मेडीकल पोस्ट शेयर करने से पहले ...

सुबह से शाम हो जाती है ...वाट्सएप पर हर तरह का ज्ञान हम तक पहुंचता रहता है ...सच झूठ का कुछ पता नहीं चलता, दंगे- फसाद शुरू हो जाते हैं इन के चक्कर में .. इसी तरह से लोगों में नफ़रत फैलाने का एजेंडा लिए हुए भी लोग कुछ न कुछ पोस्ट करते रहते हैं...और कुछ का तो सारा दिन काम ही यही होता है...

मेरा तो सीधा सादा फंडा है कि जिस बात की विश्वसनीयता में मुझे संदेह लगता है ...उसे आगे कभी भी शेयर नहीं करता ..तरह तरह के इलाज के विज्ञापन, दवाईयों के विज्ञान, चमत्कारी इलाज ...पता नहीं क्या क्या दिखता रहता है ...

किसी भी बात को अगर हम आगे शेयर करते हैं तो उस पर एक तरह से हमारी स्वीकृति का भी ठप्पा लग जाता है ....
मेरे पास तो रोज़ाना ऐसी बहुत सी पोस्टें आती हैं....लेकिन मैं आगे शेयर करना तो दूर, इसे भिजवाने वाले को इस की विश्वसनीयता जांचने का जिम्मा भी सौंप देता हूं..


आज भी अभी शाम में एक जिम्मेवार चिकित्सा कर्मी से एक वीडियो मिला कि दिल्ली के किसी अस्पताल के एक डाक्टर ने आप्रेशन से किसी की आंतड़ियों से नूडल्स निकाले हैं ..लिखा था कि ये हमारे शरीर में पचते नहीं हैं... इसलिए ये आंतड़ी में फंस गये ...

बात कुछ पच नहीं रही थी ...मैंने  उस वीडियो को डाक्टर्ज़ साथियों के ग्रुप में शेयर किया ... वहां भी आज दोपहर में थोड़ा सा माहौल गर्माया हुआ है ...होता है, कभी कभी हर ग्रुप में होता है ... मैंने एक्सपर्ट्स से रिक्वेस्ट करी कि वे बताएं कि क्या यह सच हो सकता है ... उसे ग्रुप पर शेयर किए हुए एक घंटा हो चुका है ...और एक्सपर्ट से एक जवाब मिला है ...कि यह नूडल्स तो नहीं लग रहे, ऐसा लग रहा है कि ये आंतडियों में इक्ट्ठा हो चुके कीड़ों का गुच्छा है ....यह विचार अनुभवी रेडियोलॉजिस्ट के हैं ...ज़ाहिर सी बात है उन का इस तरह के पेट के अंदरूनी मसलों के बारे में काफ़ी अनुभव होता है ..

बात यहां यह नहीं है कि नूडल्स खराब होते हैं या ठीक ... ये हम सब जानते हैं कि नूडल्स एक तरह का जंक -फूड तो है ही और दूसरे जंक-फूड की तरह इस के प्रभाव भी वैसे ही होते हैं ..लेकिन इस तरह की वीडियो सोशल मीडिया पर ठेल कर यह बताना कि नूडल्स वैसे के वैसे आंतडी़ तक पहुंच गये ...यह बात असंभव लगती है ....नूडल्सज़ ने मुंह से आंतड़ी तक का रास्ता तय भी कर लिया और उस के आकार पर कुछ असर ही नहीं पड़ा ... पेट का एसिड (ग्रेसटिक एसिड) भी उस का कुछ नहीं बिगाड़ पाया !!

वही एजेंडे वाली बात है ...क्या पता किसी अस्पताल की मशहूरी के लिए, या किसी चिकित्सक को प्रमोट करने के लिए या नूडल्स कंपनी से कोई पुराना हिसाब चुकता करने के लिए इस तरह की वीडियो वॉयरल कर दी होगी ... you see anything is possible now-a-days.

पारंपरिक मीडिया इस तरफ़ इतना ध्यान नहीं देता ...वह भी क्या करे, उसे अपनी TRP की चिंता है ...उऩ में से कुछ ने अपने सेठ के एजेंडे को भी देखना है ....इस तरह की खबरों की खबर लेने की उन्हें कहां फुर्सत है....

लेकिन इस तरह के वीडियो लोगों में बिना वजह डर फैलाते हैं ... अफवाहों को बढ़ावा देते हैं ....बेकार में यह सब देखने में लोग अपना समय नष्ट करते हैं...और क्या!

बात वही है कि ज्ञान की निरंतर वर्षा हो रही है ....लेकिन ज्यादातर मामलों में सच-झूठ का कुछ पता नहीं चलता...बस बेकार में हम हर बात के एक्सपर्ट बने फिरते हैं... चाहे हम लोग उस बात की एबीसी भी न जानते हों ...

ध्यान से रहिए.....पढ़े-लिखे होने का मतलब यह भी है कि हर ज्ञान की विज्ञान की कसौटी पर परखें ....और फिर ही उस को आगे शेयर करने के बारे में विचार करें...

चलिए, इस बात पर यहीं पर ही मिट्टी डालते हैं....बात करते हैं...पैडमैन की ....एक बेहतरीन फिल्म ....मैंने तो देख ली दो तीन दिन पहले ...आप ने देखी कि नहीं....अगर नहीं देखी तो इस वीकएंड पर देख आईए...it has a strong message!

गुरुवार, 11 मई 2017

पेड़ हैं तो हम हैं...फिर भी!

पसंद अपनी अपनी ...बेबी को बेस पसंद है, किसी को पशुओं के चारे में मुंह मारना पसंद है, किसी को स्कूली बच्चों को रोज़ाना मिलने वाले मिड-डे मील के चोगे में चोंच मारना पसंद है, जैसे इस सब से पेट न भरा है...कुछ पानी के टैंकरों के घपले के चुल्लू भर पानी में डूब मरते हैं, किसी को स्टैंट से मोटी कमीशन पसंद है और किसी को इस जहां से रुख्सत होने से पहले मरीज़ों की दवाईयों के फर्जीवाडे़ से पैसा जमा करना पसंद है ...कोई किसी का पेट काट कर जेब भर लेना चाहता है और कोई पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से कर माल कमा लेना चाहता है, किसी को वृक्षारोपण मुहिम के दौरान पेड़ों की संख्या में हज़ारों की हेराफेरी पसंद है .. इस लिस्ट को अाप चाहें जितना लंबा करते जाएं, यह खत्म होने वाली नहीं है...

पेड़ों से ध्यान आया ..एक तरफ़ तो पेड़ों को काटने वाला माफ़िया है ...और दूसरी तरफ़ पेड़ों से बेइंतहा मुहब्बत करने वाले फरिश्ते हैं..आज मैं अमर अजाला में एक ऐसी ही रिपोर्ट पढ़ रहा था ..पौधों की पूजा होती है और प्रसाद में बांटते हैं बीज..

अच्छा लगा यह सब पढ़ कर कि किस तरह से चंद्रभूषण तिवारी जी पेड़ों की सेवा करने की मुहिम चलाए हुए हैं...

बकौल तिवारी जी ...
"मेरा जन्म देवरिया के एक गांव में साधारण परिवार में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा की पढ़ाई के लिए किताब-कापियों की जरूरत मेैं बाज़ार में नीम की निबौरी बेचकर पूरी करता था। अ से अमरूद और आ से आम की पढ़ाई मुझे पेड़ों के कल्पना-लोक में ले जाती थी. आम की गुठली से निकले पौधे और उनके फल देने की प्रक्रिया मुझे बचपन से ही रोमांचित करती थी।  
..... मैंने लखनऊ में बच्चों के लिए छह स्कूल खोले हैं। मैं गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देता हूं। हर घर में दान लेने के बदले वहां एक वृक्ष लगाकर रिश्ता जोड़ने की मुहिम शुरू की, जिसकी वजह से आज लोग मुझे 'पेड़ वाले बाबा' के नाम से पुकारते हैं।मैं स्कूलों में जा-जाकर गरीब बच्चों की शिक्षा देने के बदले में उनसे दस पौधे लगाने का वायदा लेता हूं।  
मैं इस मिशन में जब भी किसी शहर में जाता हूं, तो वहां के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के मस्तिष्क में भी पौधा लगा कर आता हूं। मैं वहां बच्चों को अपने सगे-संबंधियों को पौधे लगाने की अपील करते हुए चिट्ठी लिखने के लिए प्रेरित भी करता हूं। 
चूंकि धार्मिक मान्यताओं का असर समाज में व्यापक रूप से फैला है, इसलिए मैंने अपने पर्यावरण प्रेम को इसी से जोड़ा। मैं प्रति वर्ष अपने गृहजनपद के गांव में जाकर दुर्गा मंदिर में पौधों का भंडारा भी करता हूं। इस भंडारे के बाद में लोगों को प्रसाद के रूप में पौधे बांटता हूं। इसके साथ मैं हरा-हरि व्रत कथा के नए प्रयोग पर भी काम कर रहा हूं। इस कथा में पौधों की पूजा करके बीज को प्रसाद की तरह बांटता हूं.."
दुनिया भी टिकी हुई है इसी वजह से कि किसी की फितरत अगर पेड़ काटने जलाने की है तो और बहुतेरों का स्वभाव पेड़ों से मुहब्बत करने वाला है...पिछले दिनों पृथ्वी दिवस के अवसर पर अखबार ने उस लोगों को फोटो छापने की स्कीम चाहिए जो उन्हें किसी पेड़ के साथ अपनी शेल्फी भिजवा देंगे...

मुझे भी पेड़ों के साथ खड़े हो कर फोटो खिंचवाने का बेहद शौक है ... दिल की बात करूं तो मैं ऐसे ही टाइम-पास के लिए बहुत से विषयों पर कलम घिसाता तो रहता हूं ....लेकिन मेरा मन प्रकृति के नज़ारों की आलौकिकता के बारे में ही लिखने को करता है बस...मुझे यह सब मैडीकल-फैडीकल में लिखना पसंद नहीं है ... क्योंकि ३० सालों से इस सब से जुड़े होने के कारण कभी कभी कुछ मैं भी आंखों देखी बातें दर्ज कर देता हूं..

इस कायनात का हर पेड़ मुझे चकित कर देता है .. मैं पेड़ों को देख कर अचंभित हुए बिना नहीं रह पाता.. कितना पुराना होगा यह पेड़, कब और किसने लगाया होगा...यह बीते ज़माने की अच्छाईयों-बुराईयों का गवाह रहा होगा .. कितना सहनशील है यह पेड़, कितना परोपकारी और सहज है ... पत्थर मारने वाले को भी फल ही देता है!! बस मुझे ये सब बातें ही रोमांचित करती हैं , और कुछ नहीं....एक पेड़ के दो पत्ते भी एक जैसे नहीं है ..ऐसे में हम लोग कैसे छोटी छोटी बातों पर लोगों की तुलना करने पर उतारू हो जाते हैं !!



एक बाज़ार से मैं अकसर निकलता हूं और इस इतने बडे़ पेड़ को देखता हूं ...कईं बार सोचा कि इस का फोटो खींचूंगा ..लेेकिन झिझकता रहा ..कल बाज़ार में सन्नाटा था, एक ७५-८० साल का बुज़ुर्ग बाहर खड़ा था .. मैंने पूछा कि यह कब का है, तो कहने लगे कि यह तो हमें भी नहीं पता...हमारे पिता जी को भी नहीं पता था, उन से भी पीछे ज़माने वाले ही जानते होंगे ... आप देखिए किस तरह से इन की एक दुकान इस पेड़ के पीछे पहुंच चुकी है ...लेकिन इन्होंने कैसे इस पेड़ को आंच नहीं आने दी.. ऐसे लोग उन लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं जिन्हें तो बस किसी न किसी बहाने पेड़ों को काटने-छांटने का बहाना चाहिए होता है ..वैसे आप लोगों का उन के बारे में क्या ख्याल है जो जाड़े के दिनों में पेड़ों की छंटाई इसलिए करवा देते हैं ताकि आंगन तक धूप पहुंचने का रास्ता साफ़ हो सके... (मैंने तो क्या कहना है, हमारे घर में भी यह सब होता रहा है....यही नहीं, कहीं भी दीवार के पास पीपल आदि का नन्हा-मुन्ना पेड़ देखते ही उसे सजाए मौत की सजा सुनाने और काटने-कटवाने के गवाह हम भी हैं...ताकि वर्षो बाद उस की जड़े नींव में घुस कर हमारे ताजमहल को हिला न दें!!)

मिट्टी गारे के ऐेसे थडे़ पेड़ों की ठंडक को चार चांद लगा देते हों जैसे ..

एक बात और ...हम अकसर देखते हैं कि पेड़ों के आस पास लोग कंक्रीट के प्लेटफार्म से बना देते हैं... ऐसे लगता है जैसे पेड़ों का गला दबा दिया हो किसी ने ...लेकिन इस तरह के मिट्टी के प्लेटफार्म जैसा कि मैं अपनी सोसायटी में देखता हूं या किसी गांव में देखता हूं...बहुत बढ़िया है .. अगर प्लेटफार्म बनाना भी है तो तो थोड़ा हट कर बनाया जा सकता है जैसा कि आप इस पेड़ के आसपास देख रहे हैं..चालीस-पचास लोगों को ठंड़क देता यह बट-वृक्ष.. मुझे ऐसे पेड़ बेहद रोमांचित करते हैं... खामखां मेरा दाखिला बीडीएस में हो गया....मैं नहीं करना चाहता था यह कोर्स....बस, पिता जी के सहकर्मी ने उन्हें बताया कि यह कोर्स करने से नौकरी मिल जाती है ...और मुझे बीडीएस क्लास में बिठा दिया गया... मेरा मन तो बॉटनी (वनस्पति विज्ञान) पढ़ने में ही था .. लेकिन ... जैसे तैसे मन लगा ही लिया ...पहले एक डेढ़ साल तो किताबों को हाथ लगाने का मन ही नहीं किया...लेकिन जब रुचि बनी, मैडल मिलने शुरू हो गये, यूनिवर्सिटी में टॉप करने का तुक्का लग गया तो फिर ध्यान उधर ही लगा लिया...और नौकरी ..एक नहीं, कम से कम दस मिल गईं एक साथ... इंंडियन ऑयल, रेलवे, एचएमटी, सीआरपीएफ, आर्मी, ईएसआईसी, टीचिंग वगैरह, स्टेट मैडीकल सर्विस में...लेकिन बात वही समझदार कौवे वाली ही हुई मेरे साथ भी!!

मैं भी किधर से किधर निकल गया, यही मेरी समस्या है ....बातें बहुत सारी हैं कहने सुनने को ...


कल दोपहर अमौसी एयरपोर्ट के बाहर इस पेड़ के नीचे एक घंटे बैठ कर मैं पढ़ता रहा .. बहुत अच्छा लगा ..

हमारी सोसायटी में एक ब्रिगेडियर साहब अपने घर के सामने पेड़ कर एक इस तरह का संदेश लिख कर रोज़ लगा देते हैं..सुबह टहलने वाले बड़े चाव से उस संदेश को पढ़ते हैं....कल का संदेश यह था .. आप भी पढ़िए.. यह पढ़ कर एक बार फिर यही लगा कि हम लोग अपने ही देश को कितना कम जानते हैं! 



परसों ड्यूटी पर आते हुए इस पेड़ को देखा .. लोग आज कल कहीं भी आग लगा देते हैं... झाड़ियों में किसी ने आग लगाई होगी...उस चक्कर में यह निर्दोष भी पिट गया .. बुरा लगा यह देख कर ..


रास्तों की सारी रौनक पेड़ों से ही जुड़ी हुई है ं...सुनसान रास्ते जिस पर पेड़ नहीं होते, कितने डरावने दिखते हैं...और होते भी हैं...जलती-भुनती दोपहरी में दूर से एक पेड़ जब दिख जाता है तो कितना सुकून मिलता है ...यह हम सब अनुभव करते हैं...अपने साईकिल से लेकर मोटर वाहन तक को किसी छायादार पेड़ के नीचे ही रखना चाहते हैं...

तलाशते हैं ऐसे छायादार पेड़ों को ..काश, हम इन को लगाने में और इन की परवरिश में भी इतनी ही रूचि ले पाएं!


 और यह रहा मेरा आज का सुप्रभात संदेश आप सब के लिए...आप का आज कल से बेहतर हो..
ईश्वर ने आप को  बिना कारण प्रसन्न रहने की सभी वजहें पहले ही से दे रखी हैं!!

आज की यह गीत भी कुछ मिलता जुलता संदेश ही दे रहा है ....मधुबन खुशबू देता है ...सागर सावन देता है ..जीना उस का जीना है, जो औरों को जीवन देता है .. 




शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

सुनो रे भाई...ध्यान से सुनो!

आज मेरे पास एक ५६ वर्ष का एक मरीज़ आया था दांत की किसी तकलीफ़ के लिए... साथ में उस की बीवी थी जिसने मुझे शुरू में ही बता दिया कि इनको बिल्कुल भी सुनता नहीं है ..

बात करने पर पता चला कि पहले तो ठीक ठाक सुनता था लेकिन एक साल से जब से टीबी की डाट्स की दवाईयां चल रही हैं, इन को सुनना धीरे धीरे कम होने लगा ..और फिर पूरी तरह से ही सुनना बंद हो गया..

टीबी के इलाज के  लिए दी जाने वाली कुछ दवाईयों का यह साइड-इफैक्ट होता है कि श्रवण-शक्ति खत्म हो जाती है ... मैंने शायद ऐसा कोई मरीज़ पहली बार देखा था आज...वही बात है कि जिस के साथ कोई घटना घट जाती है उस की तो ज़िंदगी ही बदल जाती है ..

बीवी उस की बड़ी हिम्मत वाली लग रही थी, मैंने पूछा कि क्या कहते हैं विशेषज्ञ ..बताने लगीं कि कोई कुछ कहता है, कोई कुछ ..कोई कहता है कि सुनने लगेंगे ..कोई कहता है नहीं..

मैंने उसी समय नेट पर चैक किया तो पाया कि इन दवाईयों से जो श्रवण-शक्ति का ह्रास होता है वह स्थायी होता है ...मुझे दुःख हुआ...लेकिन मैंने उस महिला को यह नहीं बताया ...कोई आस लगाये बैठा है तो उसे कैसे यह सब बता दिया जाए।
नेट पर तो लिखा था कि जब इस तरह की दवाईयां चल रही हों और सुनने में थोड़ी सी भी दिक्कत होने लगे तो अपने चिकित्सक से तुरंत संपर्क करें, और बहुत बार उन की कुछ दवाईयां बदल दी जाती हैं...

छोटे बच्चों में ऐसा कईं बार देखा जाता है कि जब बचपन में उन्हें बहुत सी दवाईयां दी जाती हैं ..उन में से कुछ ऐसी होती हैं जिन की वजह से उन में बहरेपन की शिकायत हो जाती है...इसलिए शिक्षित लोग इस के बारे में थोड़ा सचेत रहने लगे हैं...

हमारे पड़ोस की एक बुज़ुर्ग महिला को एक दिन सुबह अचानक सुनना बंद हो गया ...पता तब चला जब वह सुबह उठी और उन्होंने अपने बेटे से कोई बात की ...उसने जवाब दिया तो वह कहने लगीं कि क्या बात है इतना धीमा क्यों बोल रहा है...बेटे ने कहा कि ऐसा तो नहीं है, मैं तो ठीक ही बोल रहा हूं....अगले दो मिनट में यह पता चल गया कि उस अम्मा को सुनाई नहीं दे रहा बिल्कुल ..एक कान से तो पहले ही सुनाई नहीं देता था ..छेद की वजह से ...लेकिन दूसरे कान से अचानक इस तरह से सुनना बंद हो जाना चिंता का कारण तो था ही ..

हमारा पड़ोसी अपनी अम्मा को ईएनटी विशेषज्ञ के पास ले गया ..वहां पर आडियोमिट्री जांच हुई ...पता चला कि श्रवण-शक्ति न के बराबर ही है ...

हां, बीच में एक बात बतानी तो भूल ही गया कि जब उस महिला को सुनाई देना बंद हुआ तो वह इतना घबरा गई कि उसे लगने लगा कि उस के गले में ही उस की आवाज़ दब रही है और बाहर आ ही नहीं रही है....लेेकिन ऐसा नहीं था, घर के दूसरे लोग उन की बातें सुन रहे थे ...लेकिन अब यह बात उन तक कैसे पहुंचाई जाए....उन के बेटे ने झट से एक कागज़ पर लिखा कि आप चिंता मत करिए, सब ठीक हो जाएगा....आप की आवाज़ हमें अच्छे से आ रही है, और हम अपनी बात आपसे लिख कर कर लेंगे .. तब कहीं जा कर उस अम्मा की जान में जान आई...

उस दिन शाम को अम्मा का बेटा जब मेरे साथ बात कर रहा था तो यही बात कह रहा था कि आदमी के लिए पढ़ा लिखा होना भी कितना ज़रूरी है ..यही शेयर करने लगा कि शुक्र है कि अम्मा पढ़ना-लिखना जानती है ...वरना उस तक इतनी बात भी हम लोग कैसे पहुंचा पाते कि उस की आवाज़ गले में दबी हुई नहीं है, हम अच्छे से सब कुछ सुन रहे हैं ...

मुझे भी याद आया उस समय हम लोग अपने ननिहाल में गये हुए थे ...ऐसे ही किसी बुजुर्ग औरत के साथ हुआ होगा ... अब वह पढ़ना लिखना जानती नहीं थी, उस तक घर वाले लोग कैसे अपनी बात पहुंचा पाते .......बात बहुत लंबी है....उस में ज़्यादा नहीं घुसेंगे .....बस, इतना ही बताना चाहूंगा कि धीरे धीरे उस महिला को गली-मोहल्ले वाले पागल ही समझने लग पड़े ....

हां, तो हमारी इस पड़ोसिन की दवाईयां चलीं....विशेषज्ञ ने पूछा कि मधुमेह रोग तो नहीं है.......इन की जांच दो साल पहले ही हुई थी तब तो नहीं थी, लेकिन इस बार जब जांच करवाई गई तो उसमें मधुमेह रोग होेेने की पुष्टि हुई ..उस की भी दवाई शुरू हो गई... और कान के लिए भी कुछ दवाईयां एक महीने तक चलीं....उम्मीद तो कोई नहीं थी कि श्रवण-शक्ति लौट आएगी, विशेषज्ञों को भी नहीं थी कोई खास उम्मीद ..लेकिन ईश्वरीय अनुकंपा.....उन की श्रवण-शक्ति उन के गुज़ारे लायक वापिस लौट आई है ...अब यह एक रहस्य ही रहेगा कि यह कैसे हुआ अचानक, मधुमेह की वजह से हुआ या उम्र की वजह से हुआ जैसा की विशेषज्ञ लोगों ने उन्हें बताया था.....लेकिन चलिए ... जो भी है ... बहुत अच्छा हुआ...दो चार दिन जब यह प्राबलम उन्हें हुई तो उन के घर से ज़ोर ज़ोर से भजनों की आवाज़ आती थी ...बहुत ही तेज़...क्योंकि वे स्वयं तो सुन नहीं पा रही थीं..

मेरे एक साथी डाक्टर हैं जिन की २५ साल की बेटी हर समय कान में एयरफोन लगाए रखती थी और सारा दिन मोबाईल फोन पर बातें....हो गया उस के भी एक कान का कबाड़ा ...थोड़ा बहुत ठीक तो हो गया है ..लेकिन एक कान में जो गड़बड़ी हुई है वह स्थायी है ...अब वे एयरफोन का इस्तेमाल ही नहीं करती ........अच्छा करती हैं!

यह एक तरह की सिरदर्दी हो गई है समाज में कि लोग हर समय कान में एयरफोन घुसाए रखते हैंं.... कान तो खराब हो ही रहे हैं...और कितनी बार आप भी पेपर में देखते होंगे कि कितने बड़े बड़े हादसे ...यहां तक कि कईं युवक इसी शौक की वजह से ट्रेन से कट गये क्योंकि ट्रेन की आवाज सुनाई ही नहीं दी ...

कल मैं सड़क के किनारे यह लखनऊ में एक जगह खड़ा था...मैंने देखा कि एक मशहूर बिरयानी की दुकान में पांच सात लोग काम कर रहे थे और सभी ने कानों में एयरफोन ठूंस रखे थे ...गड़बड़ तो है ही ... यह सब कानों की तकलीफ़ों को निमंत्रण देने वाली बातें हैं....और अकसर ये सब बड़ी तेज़ आवाज़ में म्यूजिक सुनते हैं...

रेडियो-टीवी तो मैं भी बहुत तेज़ सुनता था...और वॉक-मैन के ज़माने में टहलते वक्त ऊंची आवाज़ में बॉलीवुड गीतों को सुनना मेरी आदत थी ...फिर मुझे भी ऐसा लगने लगा कि मुझे ऊंचा सुनने लगा है...कोई पांच सात साल पहले की बात है .. उन्हीं दिनों मैंने एक लेख पढ़ा नेट पर और फिर मैंने उस पर लिखा भी ...उसमें यही बताया गया था कि किस तरह से ये एम-पी थ्री प्लेयर्ज़ हमें कानों की तकलीफ़ें दे रहे हैं.. पता नहीं उस दिन के बाद कभी इच्छा ही नहीं हुई एयरफोन्स का इस्तेमाल करने की .. अब कभी कभी लेपटाप पर पांच दस मिनट के लिए किसी पसंदीदा गीत को सुनने के लिए हैड-फोन लगा लेता हूं ...लेकिन वह भी बहुत कम ...

इतनी सारी बातें करने का मकसद?.....हम कुदरत की सभी नेमतों को बिल्कुल टेकन-फॉर-ग्रांटेड ले लेते हैं ...सब कुछ ठीक चल रहा है तो बहुत बढ़िया बात है ..जब कभी कुछ गड़बड़ हो जाती है तो नानी और नानी का पड़ोस याद आ जाता है ..इसलिए जो चेतावनी इन एयरफोन्स के बारे में और मोबाईल फोन पर लंबे लंबे समय तक बातें न करने की हिदायत दी जाती है ....उस के बारे में भी ध्यान दिया जाना चाहिए....क्या है ना, हम कह ही सकते हैं.....

मैं अभी बैठा यह सोच रहा था कि हमें ईश्वर ने आंखें, नाक, मुंह जैसे अनमोल अंग दिए हैं ... अच्छा बोलने, सुनने और देखने के लिेए.....लेकिन हम इतने ठंडे कैसे पड़ गये कि हमारे सामने कोई किसी की जान ले ले..हम देख रहे हैं ...लेकिन कोई भी हिल-जुल ही न हो ....आज दोपहर जब से मैंने टीवी पर जींद के एक मर्डर की तस्वीरें देखी हैं ना, मुझे बहुत बुरा लगा है ....


इतने सारे लोगों के सामने मर्डर हो गया सरेआम....किसी ने बीच बचाव करने की कोशिश भी नहीं की .......और सब से दुःखद बात यह कि इस मर्डर के दौरान सामने ही गोल-गप्पे बेचने वाला दुकानदार अपने गोल-गप्पे में पानी भरता रहा ....Shocking!

आने वाले समय की सूचक होती हैं इस तरह की घटनाएं.....थोड़ी कल्पना कीजिए कि अगर एक आदमी के साथ इस तरह की दरिंदगी हो सकती है और लोग देेखते रह गये .....ऐसे में महिलाएं के साथ इन रास्तों के बीच क्या नहीं हो सकता! .....
Bloody we all are hypocrites....

पाश ठीक ही कहता है ......

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
ना होना तड़प का
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना......

    "सबसे खतरनाक वो आँखें होती है
जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है.."



गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

पान मसाला छोड़ने के १५ साल बाद भी...

मुझे हमेशा से यह जिज्ञासा रही है कि पानमसाला छोड़ने के कितने अरसे के बाद मुंह के अंदरूनी चमड़ी की लचक लौट आती होगी ... लेकिन कभी किसी मरीज़ का इतने लंबे समय तक फॉलो-अप हो नहीं पाया कि इस का कुछ पुख्ता प्रमाण मिल पाता .. कारण कुछ भी हो सकते हैं...हम लोगों का ट्रांसफर हो जाता है, मरीज़ कब लौट कर आएंगे या नहीं, कोई भरोसा नहीं.. लेकिन मुझे यह जिज्ञासा तो हमेशा ही से रही..

आज से ९-१० साल पहले मैंने इसी ब्लॉग पर पोस्ट लिखी थी .. अब यह मुंह न खुल पाने का क्या लफड़ा है!  जब कभी भी मैं अपने ब्लॉग के स्टैटेस्टिक्स देखता हूं तो पता चलता है कि इसे इतने वर्षों से लोग निरंतर पढ़ रहे हैं ...रोज़ लगभग २०० पाठक इस पोस्ट पर आते है ं....किसी के कहने-कहलवाने से नहीं, बल्कि गूगल सर्च से वे इस पोस्ट तक पहुंचते हैं...सब कुछ पता चल जाता है .. मुझे लगता है कि मैंने वह पोस्ट इतनी अच्छी लिखी भी नहीं, तब मैं ब्लॉगिंग में नया नया था, जो सच लगा, लिख दिया था बस..

उस पोस्ट को पढ़ने के बाद मुझे लोग इस के इलाज के लिए ईमेल भेजते हैं... कि इलाज बताओ... मैं उन को सब से बड़ा इलाज तो यही बताता हूं कि आज ही से इस लत से छुटकारा पा लो....इस काम में उन्हें अपनी मदद खुद ही करनी पड़ेगी...कोई किसी की कोई लत नहीं छुड़वा सकता .. और कब मुंह की हालत बिल्कुल दुरुस्त हो जायेगी, इस के बारे में बिल्कुल कुछ नहीं कहा जा सकता...





यह सारी भूमिका लिखनी ज़रूरी इसलिए थी क्योंकि कल मेरे पास एक ६१ साल की महिला आई थीं...अपने दांतों का इलाज करवाने के लिए....कोई परेशानी थी इस महिला को दांतों में...

मैं जब इस महिला के मुंह का परीक्षण कर रहा था तो मुझे मुंह के हालात कुछ ऐसे लगे जैसे कि यह पानमसाला खाती हों....ये लक्षण क्या हैं, इस के बारे में मैं बीसियों लेख इसी ब्लॉग पर लिख चुका हूं, अगर ज़रूरत हो तो सर्च कर लीजिए इसी ब्ल़ॉग को, मैं तो इन दस सालों में गुटखे-पान मसाले की विनाशलीला की ऐसी गाथाएं लिख चुका हूं कि एक ग्रंथ तैयार हो सकता है ...पर अब मैं यह सब लिख लिख कर पक चुका हूं...कोई सुनता है नहीं...और अगर सुनता भी है तो तब जब चिड़िया खेत को चुग कर उड़ चुकी होती है ....तब क्या फायदा!

चलिए, उस ६१ वर्षीय महिला की बात ही करते हैं.....इस महिला ने पानमसाला आज से १५ वर्ष पहले छोड़ दिया था....और जो इन्होंने मुझे बताया वह यह कि इन्होंने खाया भी कुछ महीने ही ... मैंने पूछा कि अचानक ४५ साल की उम्र में पानमसाला खाने की क्या सूझी? ...बताने लगीं कि इन के पति ये सब पानमसाला-गुटखा खूब खाते थे .. इसीलिए इन्होंने उन का छुड़वाने के लिए खुद भी शुरू कर लिया कि शायद पति को इसी बात से ही पानमसाले से नफ़रत हो जाए....लेकिन कुछ ही महीने खाने के बाद इन के मुंह में घाव हो गये...खूब उपचार करवाया ...और पानमसाला का त्याग किया, तब कहीं जाकर इन्हें इस तकलीफ़ से मुक्ति मिली ..

मैंने ये जो तस्वीरें इस पोस्ट में लगाई हैं ये सभी इन के मुहं की है ं....पानमसाला छोड़ने के १५ साल बाद अाज भी इन के मुंह में ओरल-सबम्यूक्सफाईब्रोसिस (मुंह के कैंसर की पूर्वावस्था --oral pre-cancerous condition) के सभी लक्षण दिख रहे हैं....इन के मुंह के अंदर गालों की चमड़ी एकदम सख्त है . और पीछे भी देखिए तालू के पिछले हिस्से में कैसे एक सफेद सा रिंग बना हुआ है ...(Blanched out appearance of oral mucosa) ...

मैंने पूछा कि आपने १५ साल पहले जब पानमसाला छोड़ा तो क्या मुहं खुलना कम हो गया था ...कहने लगी, नहीं,ऐसी तो कोई बात नहीं थी.... लेकिन जब मैंने पूछा कि तब आप पानी के बताशे खा लेती थीं, तब इन्होंने याद आया कि हां, हां, इसी से तो तकलीफ़ का पता चला था कि मैं पानी के बताशे जैसे ही खाने लगती, वे मुंह के अंदर ठीक से जा नहीं पाते थे और टूट जाते थे ....

लेकिन अब यह कहती है ं कि अब मैं पानी के बताशे ठीक से खा लेती हूं....वैसे भी आप देख सकते हैं कि ये दो उंगली से थोड़ा ज्यादा ही मुंह इन का खुलने लगा है ...मुंह के अंदर घाव भी अब नहीं होते ...



लेकिन ये कुछ अपनी जुबान के काले रंग और गालों के अंदरूनी हिस्से के अजीब से रंग के कारण चिंतित थीं....उन्हें बता दिया कि इस के बारे में घबराने की ज़रूरत नहीं ...यह बहुत बार हार्मोन्स की वजह से या शरीर में किसी तत्व की कमी की वजह से या कुछ दवाईयों के अधिक प्रयोग की वजह से भी हो जाता है ...इस के बारे में ज़्यादा न सोचें, जीवनशैली ठीक रहें, संतुलित आहार लें...

यह पोस्ट मैं कल ही से लिखना चाह रहा था, लेकिन इतनी गर्मी है कि इच्छा नहीं हो रही थी....इस बात को लिखना बेहद ज़रूरी था क्योंकि मेेरे मोबाइल में तो सैंकड़ों तस्वीरें पड़ी रहती हैं ...लेकिन दो दिन बाद मैं मरीज़ को भूल जाता हूं...इसलिए लिख नहीं पाता....यह तो ताज़ा ताज़ा वार्तालाप था, इसलिए लिख दिया...

लिखने का मकसद केवल इतना है कि पान-मसाले से होने वाले नुकसान का सब से उत्तम इलाज यही है कि इस लत को लात मार दीजिए आज ही ......और उसी दिन से आप को इस के फायदे महसूस होने लगेंगे ...मुंह के घाव आदि भरने लगेंगे ... लेकिन इस महिला के केस से इतना हमेशा याद रखिएगा कि सब कुछ एकदम से कुछ ही दिनों में अच्छा हो जायेगा, इस की उम्मीद भी मत करिए.....इतना तो है कि आप मुंह के कैंसर से बच जाएंगे.....लेकिन मुंह कितना खुल पायेगा, कितना नहीं, यह तो आप के दंत चिकित्सक ही आप के मुंह का परीक्षण कर के बता सकते हैं...

सीधी सीधी बात कहूं तो यह है गुटखे-पान मसाला खाने वाला कभी न कभी किसी बीमारी की चपेट में आ ही जाता है ... कह रहा हूं तो मान लो और इस खतरनाक खेल से तौबा कर लो ... मोटरसाईकिल में पैट्रोल डलवाते हुए मुंह में पानमसाला उंडेलने वाले लौंडों के लिए एक मरदाना टशन होता होगा ....लेकिन जब हम लोग किसी को मुंह के कैंसर की खबर सुनाते हैं या पहली बार संदेह की ही बात करते हैं  तो उस बंदे की हालत देखी नहीं जाती .. मैं तो आए दिन मुंह के कैंसर के नये मरीज़ देखता हूं और किस तरह से वे उस समय कहते हैं कि हम गाड़ी से नहीं, प्लेन सी आज ही टाटा अस्पताल चले जाएंगे ....लेकिन वे भी कौन सा जादू की छड़ी लेकर बैठे हुए हैं...

आज के लिए इतना ही ....अगर यह पढ़ कर अभी तक आप पानमसाला-गुटखे छोड़ने की योजना ही बना रहे हैं तो God bless you.....Panmasala-Gutkha is a killer...Quit this habit now ....मैं तो इसे भी आत्महत्या ही मानता हूं..
बच के रहिए, बचे रहिए....


रविवार, 16 अप्रैल 2017

क्या कोलेस्ट्रोल का कुछ लफड़ा है ही नहीं ?

हमारी सोसायटी में दो माली आते हैं ..जुडवां भाई हैं दोनों...साठ-पैंसठ साल के ऊपर के होंगे ...पतली-कद-काठी ...सारा दिन किसी न किसी घर के बेल-बूटों की मिट्टी के साथ मिट्टी हुए देखता हूं...आज शाम मैं बुक फेयर से लौट रहा था तो मैंने इन में से एक को देखा ...मैंने स्कूटर रोक लिया ...इन्हें मैं आते जाते माली जी, राम राम ज़रूर कहता हूं...मुस्कुरा कर जवाब देते हैं.. मैं रूका तो ये भी रूक गये...मैंने कहा ...यार, आप मेहनत बहुत करते हो...बताने लगे कि सुबह नौ बजे आते हैं और शाम पांच छःबजे लौटते हैं ...सारा दिन मैं इन दोनों भाईयों को अपने काम में मस्त देखता हूं...और शाम को ये ज़्यादा चुस्त-दुरूस्त दिखते हैं....लेकिन हम पढ़े-लिखे लोगों ने भी अपनी बेवकूफ़ी का परिचय तो देना ही होता है ..क्योंकि मैंने इन से यह पूछा...यार, आप थकते नहीं?....एक दो मिनट बातें हुई, हाथ मिला कर उन से छुट्टी ली .. (रोटी ये लोग साथ लेकर आते हैं, दोपहर में इन्हें कभी कभी खाते हुए देखता हूं..) 

बचपन में हमारे घर के पीछे एक बहुत बड़ा बागीचा था.. जिसमें तरह की सब्जियां, फल-फूल बीजने और उन की देखभाल करने के लिए (कभी सुबह, कभी शाम) जो नेकपुरूष आते थे उन्हें हम बाबा जी कहते थे....सारे घर के लिए ही वे बाबा जी थे...बड़ी सब्जियां उन्होंने खिलाईं,  उन के पास जाकर बैठ जाता मैं बहुत बार....इसी वजह से फूल-पौधों के प्रति प्यार भी पैदा होता चला गया...  एक तरह से घर के सदस्य जैसे थे ...सुबह जब नाश्ता बनता तो सब से पहले दो परांठे, आम का आचार और चाय का गिलास उन के पास लेकर जाने की ड्यूटी मेरी ही थी...हम लोग भी यही सब कुछ खाते थे .. 

कभी परांठे-वरांठे खाने में सोचना नहीं पड़ना था... कुछ लाइफ-स्टाईल ही ऐसा था, अब बाबा जैसे लोग या हमारी सोसायटी के माली जैसे लोग घी के परांठे खा भी लेंगे तो इन का क्या कर लेगा घी...इतनी मेहनत- मशक्कत...और हम लोग भी तब पैदल टहलते थे, उछल-कूद करते थे, साईकिल भी चलाते थे ..जंक बिल्कुल खाते ही नहीं थे, होता भी कहां था इतना सब कुछ उन दिनों.. बिल्कुल नाक की सीध पर चलने वाली सीधी सादी ज़िंदगी थी .. 

अभी अभी मेरी एक सहपाठिन का वाट्सएप पर मैसेज आया ...वाशिंगटन पोस्ट की एक न्यूज़ स्टोरी का लिंक था ...जिसमें लिखा गया था कि अब अमेरिकी संस्थाएं कोलेस्ट्रोल वाली चेतावनी हटाने के बारे में फैसला लेने ही वाली है ..

पंजाबी की एक कहावत है ... कि फलां फलां को तो जैेसे किसे ने उल्लू की रत पिला दी हुई है ....उल्लू की रत पिए हुए बंदे की हरकत यह होती है कि वह हर किसी की हां में हां मिलाते फिरता है .. (वैसे मुझे यह नहीं पता कि यह रत होती क्या है, बस कहावत है!!) 


मुझे यह सोचना बड़ा अजीब लगता है कि अमेरिका जो कहेगा हमें वही मानना होता है ...वह कहता है कि यह खराब है तो हम उसे मान लेते हैं, फिर वह कहता है कि इसे कम करो ये दवाईयां खा के तो हम दनादन दवाईयां गटकने लगते हैं... फिर यही कहता कि इन कोलेस्ट्रोल कम करने वाली दवाईयों के कुछ दुष्परिणाम भी हैं तो हम उन दवाईयों को हिचकिचाते हुए बंद कर देते हैं....फिर अचानक एक दिन ऐसी खबर मिलती है ... कि ये कोलेस्ट्रोल तो खराब है ही नहीं..

तब कभी आंवले की तासीर की तरह अपने बड़े-बुज़ुर्गों की बरसों से मिल रही नसीहत याद आती है कि सब कुछ खाओ करो ...और परिश्रम किया करो .. लेकिन हम उन की बात को लगभग हमेशा यह सोच कर नकार देते हैं कि नहीं, यार, इन्हें क्या पता साईंस का ...इन की मानेंगे तो थुलथुले हो जाएंगे.....(जो कि हम वैसे भी हो चुके हैं!!) 

इस में कोई संदेह नहीं है कि सेहत के जुड़ा कोई भी मुद्दा हो .. मार्कीट शक्तियां इतनी पॉवरफुल हैं कि हम बात की तह तक पहुंच ही नहीं पाते .. 

हां, तो जो वाशिंगटन पोस्ट का लिंक मेरी सहपाठी ने भेजा ..वह दो साल पुराना है ... लिखते लिखते मेरे जैसे लोगों को लाइनों के बीच भी पढ़ने की आदत हो जाती है .. (reading in between lines!) ...वैसे वह लेख बहुत बढ़िया है ... उस में ज्ञानवर्धक जानकारी भी है ..

सहपाठी ने यह ताकीद भी की थी कि इस विषय पर रिसर्च कर के ब्लॉग पर लिखना ...सब से पहले ..warning about cholesterol... को लिख कर ही गूगल सर्च किया तो ये रिजल्ट सामने आए.. 

American thinker का जनवरी २०१७ का यह ब्लॉग भी दिख गया .. आप इसे भी देख सकते हैं..Feds preparing to drop warning on Cholesterol 

यह खबर पढ़ने के बाद मुझे इच्छा हुई कि पिछले साल जो मैंने अपनी लिपिड प्रोफाईल करवाई थी, उसे ही देख लूं...कोलेस्ट्रोल तो 201mg% है और ट्राईग्लेसराईड का स्तर 274 है..जो कि सामान्य से लगभग दोगुना है

यह जो कोलेस्ट्रोल वाली चेतावनी को हटाने वाली बात है ...इस में कोई बात अलग नहीं लगती .....आज भी जो लोग मेहनतकश हैं (उदाहरण ऊपर आपने पढ़ीं) , उन्हें जब मक्खन-मलाई मिल जाती है तो उन्हें सोचना नहीं पड़ता ....और मेरे जैसों को आज भी सचेत रहने की ज़रूरत है ...Moderation is the key ...Balance is the keyword! ...हम लोग मेहनत करते नहीं, शरीर से काम लेते नहीं...खाने की इस तरह की खबरें ढूंढ-ढूंढ कर निकाल लेते हैं....सेलीब्रेट करते हैं कि चलिए, अब तो पाव-भाजी में मक्खन उंडेलने का लाईसेंस मिल गया .. और मैंने भी अपनी सहपाठिन को यही जवाब दिया कि ब्लॉग तो करूंगा ही .....लेकिन आज से ही दाल में एक चम्मच देशी घी उंडेलना शुरू कर रहा हूं....

मैंने यह बात कह तो दी .....लेकिन दिल है कि मानता नहीं.....मुझे नहीं लगता कि मैं अब फिर से बिना रोक टोक के मक्खन-देशी घी खाने लगूंगा ......अब आदत ही नहीं रही ...अंडा़ वैसे बचपन से ही नहीं खाया..जब मैंने अंडा खाना शुरु किया तो मुझे दो चार बार उल्टी हो गई ....बस, तब से अंडा कभी खाया ही नहीं... कोई और कारण नहीं, बस उस की smell नहीं सही जाती..

अच्छा फिर, यही विराम लगाते हैं.. ..एक गीत सुन लेते हैं..कल मैंने लखनऊ में एक कार्यक्रम में सुना था, बहुत दिनों बाद ....अच्छा लगता है बहुत यह गीत .......


अद्यतन किया ..9.45pm (१६.४.१७)....

 इस लेख पर एक टिप्पणी मित्र सतीश सक्सेना जी की आई है ...जिसमें इन्होंने एक लिंक दिया है ...अमेरिकी  नेशनल लाईब्रेरी ऑफ मैडीसन का जिस में इस तरह की एक रिपोर्ट का पोस्टमार्टम किया गया है जिसने कहा है कि दिल की बीमारी और कोलेस्ट्रोल का कोई संबंध नहीं ..

अमेरिकी नेशनल लाईब्रेरी ऑफ मैडीसन की रिपोर्ट का लिंक यह रहा ..जिसे पढ़ना भी ज़रूरी है ताकि हमारे आंखे अच्छे से खुली रहें .. Study says there is no link between cholesterol and heart disease. 

सतीश सक्सेना जी के बारे में बताते चलें कि इन का जीवन भी बडा़ प्रेरणामयी है ..इन्होंने ६१ साल की उम्र में जॉगिंग करना शुरू किया और अब ये दो तीन साल में ही मेराथान रनर हैं...

शनिवार, 21 मई 2016

संस्मरण -- कैप्सूल भरने का लघु-उद्योग

उस साथी के पिता एक नीम हकीम थे...कभी वह हमें अपने साथ बाज़ार चलने को कहता तो हम देखते कि वह किसी दुकानदार को बीस-तीस रूपये देता और वह उसे एक पन्नी में पहले से भरे हुए १००० खाली कैप्सूल थमा देता...हम भी उन दिनों बेवजह बातों का load नहीं लिया करते थे।

फिर जब हम दोस्त लोग उस के घर कभी जाते तो उन के परिवार के दो तीन लोग कैप्सूल भरते दिखते...बिल्कुल बीड़ी उद्योग की तरह .....क्या भरते?..कुछ खास नहीं, मीठा सोड़ा (बेकिंग पावडर) और पिसी हुई चीनी...अभी भी वह दृश्य आंखों के सामने दिख रहा है...जमीन पर बैठे उस के पिता जी और वह ...एक अखबार के टुकड़े पर खाली कैप्सूल रखे हुए और दूसरे पर शक्कर और मीठे सोडे की ढेरी...दे दना दन ..लोगों को सेहतमंद करने का जुगाड़ किया जा रहा होता।

और साथ साथ उस के पिता जी मुस्कुराते रहते... उन के सभी मरीज़ पास के गांवों से आते और दस बीस दिन की दवाईयां लेकर चले जाते ..

फ्लैशबेक से वर्तमान का रूख करें?...

कल एक मेडीकल रिप्रेजेंटेटिव आया ..किसी दवाई के बारे में बता रहा था तो उस ने उस का कवर खोला...कैप्सूल निकाला....और कैप्सूल में से तीन छोटी छोटी गोलियां निकलीं...तस्वीर यहां लगा रहा हूं...उस ने फिर से बताना शुरू किया कि एक गोली तो तुरंत असर कर देगी...दूसरी गोली लंबे समय तक बारह घंटे तक असर करती रहेगी..(sustained release) और तीसरी गोली जो आंतों में पहुंच कर अपना असर कर पाएगी...(enteric coated)..
एम आर ने कैप्सूल खोला तो ये तीन गोलियां बीच में से निकलीं..
इस ब्लॉग पर मैंने पिछले कुछ वर्षों में इस विषय पर कुछ लेख लिखे हैं कि हमारी दवाईयां हमें टेबलेट के रूप में, कैप्सूल या इंजेक्शन के रूप में, जुबान के नीचे रखने वाली टेबलेट के रूप में, किसी इंहेलर के द्वारा दी जाने वाली भी हो सकती है ...यह सब वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर होता है कि कुछ दवाईयां हमारे पेट में जाकर अपना असर शुरू करने वाली होनी चाहिएं...और कुछ आंतों में ..सब कुछ साईंस है... ph का मसला है सब ... किस जगह पर कितना अमल है, कितना क्षार है, दवाई का क्या मिजाज है ...यह सब गहन मैडीकल रिसर्च के विषय हुआ करते हैं।

साथी के नीम हकीम पिता जी की बात कर ली, कल भूले भटके आए एक एम आर की बात कर ली...यह तो बस किस्सागोई जैसा लग सकता है ...दोनों बातें बिल्कुल सच हैं...लेकिन इन के माध्यम से दो बातें मैं अपने मरीज़ों से कहता रहता हूं..

पहली बात तो यह कि कभी भी खुले में मिलने वाली कोई भी दवाई न लिया करें....इस के बहुत से नुकसान हैं...आप को पता ही नहीं आप खा क्या रहे हैं, और किसी रिएक्शन की सिचुएशन में पता ही नहीं चलेगा कि कौन सी दवाई खाने से ऐसा हो गया...अकसर खुले में बिकने वाली दवाईयां सस्ती और घटिया किस्म की होती हैं, बड़ी बड़ी कंपनियों की दवाईयां जांच करने पर मानकों पर खरी नहीं उतर पातीं और खुले में बिकने वाली दवाई पर तो बिल्कुल भी भरोसा किया ही नहीं जा सकता....वैसे भी नीम हकीम खतराए जान....मैं अपने मरीज़ों को इस तरह की  खुली दवाईयों के बारे में इतना सचेत कर देता हूं कि वे उसे मेरे डस्टबिन में ही फैंक जाते हैं...वैसे भी खुले बिकने वाले कैप्सूल में क्या क्या भरा जा रहा होगा, कौन जाने, फुर्सत ही किसे है!

दूसरी बात यह है कि कईं बार कुछ लोग ऐसे भी दिखे कि किसी टेबलेट को पीस का मुंह में रख लेते हैं...दांत का दर्द तो इस से ठीक नहीं होता, मुंह में एक बड़ा सा ज़ख्म ज़रूर बन जाता है ..इस से भी बचना ज़रूरी है....

और कुछ ऐसे भी लोग दिखे जिन्होंने बताया कि कैप्सूल को खोल कर वे दवाई पानी के साथ ले लेते हैं...ऐसा भी गलत है...दवाई को कैप्सूल में डाल कर आप तक पहुंचाना कोई फैशन स्टाईल नहीं है ....यह उस दवाई को कार्य-क्षमता को बनाए रखने के लिए किया जाता है ...

जाते जाते ध्यान आ रहा है कुछ िदन पहले टाइम्स आफ इंडिया के पहले पन्ने पर कुछ इस तरह की कंट्रोवर्सी दिखी कि कैप्सूल का कवर जो वस्तु से बनता है ...वह जिलेटिन (gelatin) है...यह नॉन-वैज है...अब इस को भी वैज बनाने पर कुछ चल रहा है....मुझे उस समय भी यह एक शगूफा दी लगा था, और अभी भी यही लग रहा है ...उस दिन के बाद कभी यह कहीं भी मीडिया में नहीं दिखा....

आज वाट्सएप के कारण मेरी १९७३ के दिनों के अपने स्कूल से साथियों से बात हुई है ..मैं बहुत खुश हूं...इसलिए स्कूल के एक दौर की याद साझी करनी पड़ेगी...१९७५ के दिनों में शोले फिल्म आई...साईंस के मास्टर साहब..श्री ओ पी कैले जी ..working of call bell ...समझा रहे थे...फिर रटने के लिए कह रहे थे...और क्लास के पास ही किसी घर में लगे किसी लाउड-स्पीकर से शोले फिल्म का यह गीत बज रहा था...मेरा ध्यान उधर ज़्यादा था....मास्टर लोग सब कुछ ताड़ तो लेते ही हैं..मुझे बाहर बुलाकर एक करारा सा कंटाप जड़ दिया....उन का हाथ भी धर्मेन्द्र के हाथ जैसा ही भारी था...लेिकन फिर भी मुझे सारी आठवीं में call bell की प्रणाली समझ नहीं आई...शायद मैंने समझने की कोशिश भी नहीं की, मन ही नहीं लगता था इन बोरिंग सी बातों में....आगे 9th क्लास से ढंग से साईंस को पढ़ना शुरू किया तो इस मोटी बुद्धि को कुछ कुछ पल्ले पड़ने लगा... बहरहाल, वह गीत तो सुिनए जिस ने मेरे गाल को बिना वजह लाल करवा दिया....



मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

डॉयबीटीज़ की दवा अब हफ्ते में एक बार....बस?


आज बाद दोपहर उत्तर रेलवे डिवीजिनल अस्पताल, लखनऊ में एक क्लीनिक मीटिंग के दौरान डॉयबीटीज़ रोग के लिए उपलब्ध नईं दवाईयों के बारे में चर्चा हुई...चीफ़  फ़िज़िशियन डा अमरेन्द्र कुमार द्वारा इस विषय पर एक वार्त्ता  प्रस्तुत की गई...यह प्रोग्राम सभी मैडीकल ऑफीसर्ज़ के लिए रखा गया था..इस तरह की क्लीनिकल मीटिंग यहां नियमित होती रहती हैं।

डा अमरेन्द्र ने इस बीमारी के चौकाने वाले आंकड़े रखते हुए इस के लिए उपलब्ध विभिन्न दवाईयों के बारे में चिकित्सकों की जानकारी को रिफ्रेश किया..

कुछ नईं दवाईयों के इतिहास के बारे में बताते हुए यह बताया गया कि २००५ में किस तरह से अफ्रीकी छिपकली की लार से कुछ एन्ज़ाईम्स अलग कर, बहुत सी जटिल रासायनिक प्रकियाओं के बाद एक तरह की दवाई ब्लड-शूगर के लिए तैयार की जाने लगी... उस के बाद इसी तरह की दवाई को मानव से प्राप्त किया जाने लगा..

लेकिन अब यह ड्यूलाग्यूटाईड (Dulagutide) के रूप में उपलब्ध है ..यूरोपियन मार्कीट में २०१५ से यह उपलब्ध है..अमेरिका में यह दवाई २०१४ से उपलब्ध है और अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन से एप्रूवड है।

इस तरह की दवाईयां -इन से थोड़ा मिलती जुलती पहले ही से उपलब्ध तो हैं...लेिकन इन्हें इंजेक्शन के रूप में हर रोज़ लेना पड़ता है...जब कि ड्यूलाग्यूटाईड का एक इंजेक्शन हफ्ते में एक बार ही लेना पड़ता है। 



ड्यूलाग्यूटाईड साल्ट ने किस तरह से शूगर रोगियों के लिए दवा लेना आसान कर दिया है ...इंसुलिन दो बार, तीन या चार बार तक भी लेनी पड़ती है ..लेकिन Dulagutide का एक इंजेक्शन एक सप्ताह तक अपना काम करता रहता है। यह इंजेक्शन ०.७५ मिलीग्राम और १.५ मिलीग्राम के सिंगल-यूज़ इस्तेमाल होने वाले पेन के रूप में आता है...इस इंजेक्शन को लेने का खाने के समय से कोई संबंध नहीं है...यानि के इसी कोई खाने से पहले लगाए या बाद में कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

यह जो नईं दवाई है यह शूगर के रोगी का वज़न कम करने के लिए भी बहुत उपयोगी है ...अपने आप में यह वज़न कम करने की कोई दवाई नहीं है ...इस से अभिप्रायः यह है कि अगर कोई चाहे कि इसे वज़न कम करने के लिए लिया जाने लगे, ऐसा नहीं है...इस का वज़न कम करने वाला एक्शन इसलिए है कि यह मस्तिष्क के Satiety Centre पर काम करती है ...अब इसे कैसे समझाया जाए...अच्छा, आप यह जान लें कि जब हम खाते हैं तो कुछ समय बाद मस्तिष्क में एक भूख को कंट्रोल करने वाला केन्द्र एक संकेत भेजता है कि और नहीं चाहिए, बस....इस से Calorie intake कम होती है और यह दवाई लेने वालों का वज़न कम होने लगता है।

 Dulagutide से पहले Liragutide इंजेक्शन का इस्तेमाल हुआ करता था ..लेकिन इसे रोज़ाना लेना पड़ता था.. और इस के साथ साथ नये साल्ट की निम्नलिखित विशेषताएं बताई जा रही हैं..
  • इस से HbA1C के स्तर में बेहतर कमी आती है ...इस टेस्ट को ग्लाईकोसेटेड हीमोग्लोबिन कहते हैं..
  • जैसा कि ऊपर चर्चा की गई कि इस से वज़न भी घटता है..
  • मधुमेह की इस दवाई से ब्लड-प्रेशर भी घटता है..
  • इस दवाई का हृदय की मांसपेशियों पर एक सुरक्षात्मक प्रभाव बताया जा रहा है..
  • हाईपोग्लाईसिमिया नामक तकलीफ़ ड्यूलाग्यूटाईड ले रहे मरीज़ों में ओरल ड्रग्स (OHD--oral hypoglycemic drugs) एवं इंसुलिन ले रहे मरीज़ों के मुकाबले बहुत ही कम होती है ..और मधुमेह के जिन मरीज़ों को जिन दवाईयों के साथ हाईपोग्लाईसिमिया हुआ है ये वे ही जानते हैं कि यह कितनी परेशान करने वाली अवस्था है ...जिसमें अचानक रक्त में शर्करा का स्तर बहुत कम होने से मरीज़ की हातल बहुत पतली हो जाती है। 
इस दवाई को एक इंजेक्शन के रूप में दिया जाता है ...कहने को ही इंजेक्शन है ..यह एक तरह से पेन ही है..और इस में Painless technology का इस्तेमाल होता है और मरीज़ को बिल्कुल भी तकलीफ़ नहीं होती.. और एक बार इस्तेमाल करने के बाद इसे डिस्पोज़ ऑफ कर दिया जाता है .. इस की वीडियो आप इस लिंक पर देख सकते हैं..

साईड इफेक्ट्स ...

साईड इफेक्ट्स हो सकते हैं किसी किसी को .. लेिकन वे कुछ भयंकर किस्म के नहीं है..बस, यही मितली, उल्टी, पेट में दर्द, अपचन आदि हो सकते हैं इस को लेने के बाद शुरूआती हफ्तों में.. मरीज़ को इस के बारे में आगाह कर दिया जाना ज़रूरी है .. दो तीन हफ्तों के इस्तेमाल के बाद इस तरह के इफेक्ट्स कम होने लगते हैं।

एक बात इस के बारे में ध्यान देने योग्य यह भी है कि कोशिश करें कि भर पेट खाना खाने के तुरंत बाद इसे न ले लें, थोड़ा कम खाना खाएं...३० मिनट तक इंतज़ार कर लें, सेटाईटी सेंटर को थोड़ा काम कर लेने दें, फिर थोड़ा खा लें... वही बात कि एक दम ठूंस कर पेट भरने के तुरंत बाद इसे न लें...ताकि मतली, उल्टी जैसी तकलीफ़ से बचा जा सके।

 शूगर के रोगियों में माईक्रोएल्ब्यूमनयूरिया होने के चांस भी यह दवाई कम करती है...माईक्रोएल्ब्यूमनयूरिया को गुर्दे की तकलीफ़ का शुरूआती संकेत माना जाता है।

जब इस दवा को लेना शुरू किया जाता है ...सप्ताह में एक बार इंजेक्शन के रूप में...तो दो हफ्ते में इस का असर होना शुरू हो जाता है .. रेगुलर ब्लड-शूगर मानीटरिंग तो इस केस में भी ज़रूरी है।

शूगर के कौन से रोगी इसे ले सकते हैं...

हर शूगर के मरीज़ के लिए इस तरह की दवाईयां नहीं है..मधुमेह दो तरह का होता है ..एक तो जो बचपन या युवावस्था में ही हो जाता है और दूसरा है जो बड़ी उम्र में तीस-चालीस साल की उम्र में या इस के बाद होता है ..पहले वाली को टाईप वन और दूसरे वाली को टाइप टू कहते हैं... इस दवाई को टाइप टू के मरीज़ ही ले सकते हैं ..वे भी निम्नलिखित क्राईटीरिया पूरा होने पर ...
  • ऐसे मरीज़ जो दो, तीन या चार ओरल ड्रग्स एवं इंसुलिन भी शूगर के कंट्रोल के लिए इस्तेमाल करते हैं लेिकन फिर भी इन का ब्लड-शूगर स्तर कंट्रोल नहीं हो रहा, इन में इस तरह की दवाई फिजिशियन शुरू कर सकते हैं...या तो अकेले या फिर किसी अन्य दवाई के साथ मिला कर ..जैसा भी वे मरीज़ की भलाई के लिए उचित समझते हैं। 
  • जो मरीज़ स्थूल काया वाले हैं और विभिन्न दवाईयों के बावजूद जिन का ग्लाईकोसेटेड हिमोग्लोबिन 8-9 से ऊपर ही रहता है ..

एक बार विशेष यह भी है कि इस दवाई को ज़रूरत पड़ने पर अन्य दवाईयों के साथ भी दिया जा सकता है।

इस की कीमत क्या है..

हफ्ते में इस्तेमाल होने वाले एक पेन की कीमत लगभग दो से अढ़ाई हज़ार है ...इस का मतलब इस को इस्तेमाल करने का खर्च महीने भर के लिए दस हज़ार के पास बैठता है ... यह पेन-टेक्नोलाजी वाला इंजेक्शन बहुत ही कम पीड़ादायक है, वह तो है ही, इस के साथ विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि चूंकि यह दवा नई नई लांच हुई है इसलिए थोड़ा महंगी तो है लेकिन जिस तरह से मधुमेह की वजह से उत्पन्न होने वाले अन्य रोगों से यह दवा बचा कर रखती है, दिल की सुरक्षा, ब्लड-प्रेशर का बेहतर कंट्रोल, गुर्दे का बचाव करती है ...उस हिसाब से उन तकलीफ़ों पर होने वाले खर्च से भी एक तरह से बचा लेती है..

जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है इसे टाइप १ डायबीटीज़ में नहीं दिया जा सकता .. और न ही इसे डायबीटिक किटोएसीडोसिस में ही दिया जा सकता है।

इस के बारे में एक बार और याद आ गई कि अगर आप इसे आप एक हफ्ते के बाद दो तीन दिन तक लेना भूल भी जाते हैं तो भी कोई बात नहीं....कोई बात नहीं का मतलब यह नहीं कि ऐसा करने के लिए हमेशा के लिए क्लीन चिट मिल गई है ..ऐसा नहीं है, बहुत बार इस की वजह से इसे फिर से रि-शेड्यूल भी करना पड़ सकता है ..

Disclaimer.. . It is just a medical communication, please consult your physician for taking any health-related decision.

1970 के दशक में पहली बार सुना था कि डॉयबीटीज़ नाम का भी कोई रोग होता है..यह फिल्म यही है ज़िंदगी देखने के बाद...इस फिल्म में संजीव कुमार को डॉयबीटीज़ हो जाती है..

गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

दमे के ५०प्रतिशत रोगियों को दमा होता ही नहीं है...

Times of India 7.4.16 (Click to read) 
अभी आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर देख कर चिंता हुई..इस अखबार में किसी खबर का पहले पन्ने पर छपना और और वह भी फोल्ड के ऊपर वाले हिस्से में इस के महत्व को दर्शाता है।

पहले तो शीर्षक देख कर कुछ ऐसा लगा जैसे कोई उपभोक्ता संरक्षण कानून से संबंधित कुछ खुलासा होगा...

पूरी खबर पढ़ी तो समझ में आया कि किस तरह से प्राईमरी हेल्थ सेट-अप में दमे की बीमारी का सटीक निदान किए बिना ही एन्हेलेर एवं अन्य स्टीरायड दवाईयां शुरू कर दी जाती हैं।

एक सात साल के बालक के बारे में लिखा था कि वह चंड़ीगढ़ में पिछले तीन वर्ष तक दमा की स्टीरायड जैसी दवाईयां लेता रहा....बाद में पता चला कि उसे दमा (अस्थमा) तो था ही नहीं, उस की सांस की नली में एक मूंगफली का दाना अटका पड़ा था।

इस अहम् रिपोर्ट में यह बताया गया है कि लगभग ५० प्रतिशत दमा के मरीज़ों में जिन की दवाईयां चल रही होती हैं उन में दमा होता ही नहीं है.. एक तरह का ओव्हरडॉयग्नोसिस कह लें या जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है कि वास्तविक कारण होता है ..किसी तरह की वॉयरल इंफेक्शन, एलर्जी या कोई ट्यूमर...

मुझे लगता है कि इसे पढ़ कर लोग वॉयरल इंफैक्शन, एलर्जी के कारणों को नहीं देखेंगे, बस किसी ट्यूमर की चिंता ही करने लगेंगे...लेकिन सांस की तकलीफ़ के लिए यह बहुत रेयर कारण होता होगा...अब विशेषज्ञों ने लिखा है तो होगा ही।

पिछले कुछ वर्षों से बिना दमे की बीमारी की पुष्टि के इंहेलर्स का इस्तेमाल न करने की सलाह तो दी ही जा रही है...लेकिन अनुभवी लोगों की सुनता कौन है!..शक्तिशाली मार्कीट शक्तियों का जाल बिछा हुआ है...और फिर कुछ छोटी जगहों पर कम अनुभव वाले चिकित्सक जो प्राईमरी यूनिटों पर काम करते हैं...शायद जाने अनजाने वे भी ये सब लिखने लगते हैं...जल्दबाजी में ही। एक बड़ा मुद्दा यह भी है कि इन इन्हेलर्स का इस्तेमाल करना तक बहुत से मरीज़ों को नहीं आता...बेकार में बहुत सी दवाई बेकार हो जाती है।

लेकिन इस के लिए ये क्वालीफाईड चिकित्सक ही नहीं, बहुत से नीम हकीम, झोला छाप डाक्टर ... कोई भी इन्हेलर्स के इस्तेमाल की सलाह दे देता है .. और एक बार शुरू हो जाए तो फिर वर्षों बस वही दवा चलती रहती है.. यही नहीं, मरीज़ खुद भी कैमिस्ट से खरीद लेते हैं ...एक तो आजकर नेट से आधी-अधूरी अधकचरी जानकारी लोगों के लिए आफत बनी हुई है... प्रेग्नेंसी टेंट तक खुद घर पर कर लेते हैं तो क्या मैडीकल तकलीफ़ों का भी पता खुद ही कर लेंगे...असंभव...A little knowledge is a dangerous thing!... और यहां भी यही बात है।


इस तरह से दमे के इलाज के लिए इंहेलर्स का ही अंधाधुंध इस्तेमाल नहीं हो रहा... सब से भयंकर तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों का गलत इस्तेमाल हो रहा है...छोटी मोटी वॉयरल और अपने आप ठीक हो जाने वाली तकलीफ़ों के लिए भी लोग अपने आप ही कैमिस्ट से कुछ भी स्ट्रांग सा ऐंटिबॉयोटिक उठा लाते हैं....जिस तरह से देश में तंबाकू का इस्तेमाल करना नामुमकिन है, मुझे लगता है कि दवाईयों का irrational use और इन का misuse रोक पाना भी बहुत टेढ़ी खीर है...शायद लोगों की जागरूकता के बाद कुछ हो पाए...

अब हम सब लोगों को कम से यह तो याद रखना चाहिए कि हर सांस की तकलीफ़ दमा (अस्थमा) नहीं होती, किसी विशेष तरह की दवाई खाने के लिए या सूंघने के लिए जिद्द न करिए....अनुभवी डाक्टरों को सब कुछ पता रहते हैं...वे एक मिनट में ही आप की सेहत की जन्मपत्री जान लेते हैं..


वैसे भी प्रदूषण इतना ज़्यादा है हर तरफ़ ...यह भी सांस की तकलीफ़ों एवं एलर्जी की जड़ हो सकता है....इस तरफ़ भी पेरेन्ट्स को देखना चाहिए... बहुत ज़रूरी है यह भी ..हो सके तो बच्चों में हेल्थी जीवन शैली के बीज रोपने की शुरूआत बचपन से ही करिए....संतुलित पौष्टिक आहार, दैनिक शारीरिक परिश्रम, जंक फूड से दूरी... और जितना जल्दी हो सके कि योग एवं प्राणायाम् करने की शुरूआत की जाए...


लिखना का या किसी को प्रवचन देने का एक फायदा तो है, और कुछ हो न हो, अपने आप को वही बातें बार बार सुनानी पड़ती हैं तो असर हो ही जाता है ...धीरे धीरे... जैसा कि मुझे कुछ दिनों से थोड़ा थकावट सी महसूस होने लगी है...शाम के समय...और सोच रहा हूं ..आज से मैं प्राणायाम् किया करूंगा....मैंने इस का पूरा प्रशिक्षण लिया हुआ है...लेकिन आलस की बीमारी का क्या करूं... काश कोई इलाज होता इसका भी! कुछ न कुछ असर तो होता ही है, मैंने पिछले दिनों सुबह उठ कर पानी पीने की बात खूब शेयर करी... अब मैं भी अकसर उठते ही पानी पीता हूं...वैसे आज नहीं पिया...


हो गई बातें खूब..सुबह सुबह...सांसों की बातें हुईं तो ध्यान आ गया ...

चलती है लहरा के पवन के सांस सभी की चलती रहे....जी हां, सब का स्वास्थ्य अच्छा हो, सब मस्त रहें, व्यस्त रहें, खुश रहें......यही कामना करते हुए इस गीत में डूब जाइए... one of my favourites again!!...😎😎😎


रविवार, 3 अप्रैल 2016

बड़ी बड़ी खुशियां हैं छोटी छोटी बातों में...

कल जब मैं अस्पताल से घर लौटने के लिए अपने रूम के बाहर बरामदे में था तो वह बुज़ुर्ग महिला मिल गईं...जी हां, ७५ के आस पास ज़रूर होंगी...प्रेम, वात्सल्य, करूणा, अनुकंपा की मूर्त जैसी ...वह मेरे साथ पहले अपने पति के साथ कईं बार आई हुई हैं...उन से भी चला नहीं जाता...कठिनाई से ही चल कर जैसे-तैसे अस्पताल में हर महीने अपनी दवाईयों को लेने आते हैं..

जैसा कि मैंने कहा कि यह बुज़ुर्ग मां बोलने में इतनी कोमल हैं कि मैं ब्यां नहीं सक सकता...इतने ठहराव से अपनी बात कहती हैं...कल भी जब हम दोनों ने एक दूसरे का अभिवादन किया तो बड़े ही आराम से कह दिया इन्होंने....आज काम नहीं करोगे क्या?

मैंने पूछा ..बताईए तो काम क्या है! कहने लगीं कि दांत काले काले से हो रहे हैं, अगर ठीक हो जाते तो अच्छा था..वहीं खड़े खड़े ही उन्होंने अपने आगे के दांत दिखाने चाहे। मैं समझ गया...लेिकन मुझे अचानक ध्यान आया कि जब यह अपने पति के साथ उन के इलाज के लिए आया करती थीं तो भी मैंने इन्हें इस कालेपन को दूर करने के लिए कहा था...तब तो यह थोड़ा झिझक कह लीजिए या कुछ ....ऐसे ही टाल गई थीं ...इतना कहते हुए.."अब इस उम्र में!"

मैंने अपने असिस्टैंट को आवाज़ दी ...खोलो यार रूम। इस तरह के मरीज़ों का अस्पताल तक पहुंचना ही एक दुर्गम काम होता है, ऐसा मैं सोचता हूं और अपने आसपास भी लोगों को इस के बारे में सेंसीटाइज़ करने की कोशिश करता हूं। 

हम लोग अंदर आ ही रहे थे कि मेरे मुंह से एक गलत कहावत निकल गई ...मैंने अपने असिस्टेंट से कहा ...सामान लगाओ, मशीन चालू करो... आज न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी...वह इतनी सचेत थीं कि अपने नर्म अंदाज़ में कहने लगीं कि दांत उखाड़ोगे क्या! मैंने सोचा ..कहावत का इन्होंने यह मतलब ले लिया... नहीं, नहीं, कुछ नहीं,  बस इन्हें चमका देंगे...तब कहीं जा कर उन्हंें कहीं इत्मीनान हुआ...

दरअसल मैं कहना तो चाह रहा था कि इस कालिख वाले कांटे को अभी दूर किए देते हैं..लेकिन कहां बांस और बांसुरी ... चलिए, कोई बात नहीं, पांच दस मिनट में यह मां अपने चमकते दांत देख कर खुश हो गईं... 

इन्हें ब्रुश-पेस्ट के सही इस्तेमाल के बारे में तो मैं पहले ही बता चुका था...जाते जाते कहने लगीं कि मैं तो अभी भी इस कालिख को नहीं उतरवाती, लेिकन नाती-पोतों ने कुछ बार टोक दिया कि दादी, यह क्या, आप हंसती हो तो ....अच्छा नहीं लगता...बस, यही बात इन्हें छू गई। 

एक बार इन्हें फिर से बुलाया है पॉलिशिंग के लिए... लेकिन इन्हें खुश देख कर मैं और मेरा असिस्टेंट भी बहुत खुश हुआ...पांच दस मिनट भी नहीं लगे होंगे...आज कल यह काम बिना किसी दर्द, परेशानी के अल्ट्रासानिक स्केलर से सहज ही हो जाता है .. काम पूरा होने के बाद मैंने इन्हें कहा आप चाहें तो आइने में देख लीजिए.....बड़े झिझकते हुए फिर कहने लगीं.....नहीं, ऐसा भी क्या......!!!!

कईं बार कुछ ऐसी बातें घट जाती हैं जो यही सिखाती हैं कि हम लोगों की बड़ी बड़ी खुशियां कितनी छोटी छोटी बातों में पड़ी-धरी रहती हैं। 


यह तो एक डाक्टर और लेखक की बातें....अब कुछ बातें शुद्ध डाक्टरी की ...जिस तरह की तकलीफ़ इन्हें हैं, इन्हें तो केवल दांतों की अच्छे से सफाई न करने की वजह से यह थी, लेकिन अधिकतर पान, गुटखा खाने वाले में तो यह सब बहुत ही आम समस्या है ...लेिकन उन के केस में मैं इसे एक उपाय की तरह इस्तेमाल करता हूं कि पहले गुटखा, पान छोड़ो फिर इन दांतों को चमकवाओ...वरना, कुछ दिनों में तो फिर से यह सब कुछ इक्ट्ठा हो जायेगा... कुछ की समझ में बात आ जाती है और वे प्रेरित भी हो जाते हैं..गुटखे, पान, तंबाकू को हमेशा के लिए छोड़ने के लिए....क्या करें, लत छुड़वाने के लिए कईं जुगाड़ करने पड़ते हैं....बस, ये कंपनियां ही थोड़े न अपने हथकंड़ों से लोगों को इस लत का शिकार बनाती रहेंगी...

हां, एक बात और ...कईं बार इस तरह के टारटर की वजह से शायद किसी को इस के सिवा कोई तकलीफ नही हो सकती कि देखने में बुरा लगता है ..लेिकन फिर भी लोगबाग इस की परवाह कम ही करते हैं...लेिकन इस तरह के टॉरटर की वजह से मसूड़ों एवं उस के नीचे की हड़्ड़ी की परेशानी निरंतर बढ़ती ही रहती है ....इसे अच्छे से ठीक करवाने के बाद, बेकार की आदतों से निजात पा कर, अच्छे से रोज़ाना ब्रुश से दांतों की और जीभ की सफाई करने के अलावा कोई इस का क्विक-फिक्स उपाय है ही नहीं, न ही कभी होगा....कुछ भी खाने के बाद कुल्ला कर लिया करें तुरंत ..

लेकिन कईं बार कुल्ला नहीं हो पाता....कल दोपहर मैंने भी कहां किया!.....केसरबाग सर्कल की तरफ़ जाना था, उस की कचौड़ी देख कर रहा नहीं गया...दिल और दिमाग में जंग भी हुई कि मत खा, लेकिन दिल जीत गया और खा ली कचौड़ी ...खाने से ठीक पहले, एक पेपर बेचने वाला कहीं से सामने आया ..बड़े आहिस्ता से कहने लगा, पूड़ी दिलवाओगे, मैंने कहा ..हां, हां, आओ यार, खाओ.....उसे क्या पता कि यह तो वैसे भी हमारी फैमली का प्रण है ...बच्चों का भी, और मुझे यह बहुत अच्छा लगता है...बरसों पुराना वायदा अपने आप से कि  जब बाज़ार में कोई भी कुछ भी खाने के लिए मांगेगा... परवाह नहीं उस समय हम क्या खा रहे हैं... तुरंत उस के पेट की आग शांत करना ही उस समय का सब से बड़ा धर्म है ...और उस समय चाहे बंदा एक हो या चार पांच दस हों, कभी टालना नहीं होता....क्या फर्क पड़ता है, मांगना बहुत मुश्किल होता है, पता नहीं उस समय कोई कितना मजबूर होता है ....यह लिखना बहुत ही हल्का लग रहा है ...फिर भी जानबूझ कर लिख रहा हूं, अगर सब कुछ दर्ज कर देने से किसी दूसरे का भला हो जाता है ...जिन लोगों ने अमृतसर के गोल्डन टेंपल -- दरबार साहब अमृतसर में लंगर छका है, वे मेरी बात समझते हैं..

मेरी तो कईं बार वहीं टिक जाने की इच्छा होती है ...पिछले दिनों मेरा असिस्टेंट पहली बार गोल्डन टेंपल के दर्शन कर के आया है, जब वह वहां के लंगर की बातें मुझ से साझी कर रहा था तो भावुक हो रहा था...इतनी सेवा, इतनी करूणा, इतना भव्य आयोजन......मैंने उसे गुरूनानक देव जी के सच्चे सौदे वाले एफ.डी की बात सुनाई. ..

किधर की बात कहां निकल जाती है ...अगर एग्ज़ाम होता तो मुझे पता चलता, हैडिंग कुछ और था, पोस्ट एक बुज़ुर्ग मां की खुशियां के बारे में और जाते जाते हरिमंदिर साहब गुरूद्वारा की याद निकल आई...लेकिन ब्लाग लिखने का यही तो मजा है, मन हल्का करने के लिए कुछ भी लिख लिया करते हैं..अपने बारे में ही बहुत सी बातें.... पहली डॉयरियां लिखनी पड़ती थीं, छुपा छुपा के रखनी पड़ती थीं, अब सब कुछ ओपन....ट्रांसपेरेंट एकदम। 

मंगलवार, 29 मार्च 2016

अगर आप पानमसाला, गुटखा, बीड़ी, सिगरेट, सुरती, पान इस्तेमाल करते हैं..

मैं इधर उधर के विषयों के बारे में कुछ भी लिख कर टाइमपास करता रहूं लेकिन एक विषय जिस पर मेरा ध्यान सारा दिन टिका रहता है वह यही है कि किस तरह से लोगों के मन में तंबाकू के विभिन्न प्रोडक्ट्स के प्रति जागरूकता पैदा की जा सके।

शायद ही कोई दिन ऐसा निकलता हो जब मैं एक या दो ऐसे मरीज़ों को नही देखता जिन में तंबाकू की वजह से मुंह में होने वाली किसी भयंकर बीमारी का अंदेशा न होता हो। 

अभी ध्यान आया कि कुछ इस तरह का लिखूं कि अगर आप कुछ भी खाने-चबाने के शौकीन हैं, पानमसाला, गुटखा, सुरती, पान, बीड़ी, सिगरेट ...तंबाकू वाले मंजन ...कुछ भी तो आप को किस हालात में किसी क्वालीफाईड दंत चिकित्सक से अपना मुंह दिखवा लेना चाहिए...

मुंह में घाव जो १५ दिन में नहीं भर रहा हो

ठीक है, यह कहा जाता है ..लेिकन मैंने देखा है कि लोगों के मन में इस से डर ज़्यादा बैठा हुआ है ..बहुत से मुंह के घाव जिन्हें मरीज़ समझता है कि कुछ नहीं है, ऐसे ही है, वे सब से खतरनाक किस्म के हो सकते हैं और जिन्हें मरीज समझता है कि ये भयंकर हैं, वे चंद दिनों में अपने आप ठीक होने वाले हो सकते हैं।

तो इस का समाधान यही है कि कोई अनुभवी एवं क्वालीफाइड दंत चिकित्सक ही आप का मुंह देख कर आप के मुंह के घाव के प्रकार का पता लगा सकता है ..क्योंकि वह सारा दिन मुंह के अंदर ही झांकता है, छोटे से छोटे बदलाव भी वह देख लेता है और आप को समुचित इलाज के लिए प्रेरित करता है।


अगर बीड़ी सिगरेट पीने वाले में मुंह के अंदर होठों के कोनों के पास जख्म हैं तो तुरंत डैंटिस्ट को दिखाईए... एक बात यहां बताना ज़रूरी है कि बीड़ी सिगरेट से मुंह के अलग हिस्से प्रभावित होते हैं ..और अन्य तंबाकू उत्पादों जैसे कि गुटखा, पान मसाला से अन्य हिस्से प्रभावित होते हैं।
सिगरेट बीड़ी पीने वालों में इसी तरह के घाव से शुरूआत होती है ..

 दांतों का अपने आप हिलना

अब यह एक बहुत ही आम समस्या है ..बहुत से लोगों के दांत अपने आप हिलते हैं, बेशक पायरिया आदि की वजह से ही होता है यह अधिकतर या वृद्धावस्था में कईं बार जबड़े की हड्डी की पकड़ ढीली पड़ने की वजह से भी यह होता है ..लेकिन कईं बार अपने आप ही किसी एक तरफ़ के दांतों का हिलना, और इतना हिलना कि अपने आप ही उखड़ जाना...यह एक खतरनाक सिग्नल है ...इसे पढ़ कर घबराने की ज़रूरत नहीं ...क्योंिक मरीज़ों में ऐसा देखते हैं इसलिए लिख रहा हूं...जितने मरीज़ हम लोग ओपीडी में देखते हैं दांत हिलने से परेशान...शायद एक प्रतिशत मरीज़ों में ही यह दांतों का अपने आप हिलना मुंह के कैंसर की वजह से होता है...लेिकन यह कोई फिक्स नहीं है...अकसर मसूड़ों आदि का कैंसर जब जबड़े की तरफ़ बढ़ जाता है तो इस तरह की जटिलता पैदा होती है।

अचानक पानी के बताशे खाने में दिक्कत हो ...

अगर आप पानमसाला गुटखा लेते हैं और आप को कभी यह लगे कि मैं तो पानी के बताशे भी ठीक से नहीं खा पा रहा हूं ..इस का मतलब यही है कि आप के मुंह की चमड़ी की लचक कम हो रही है या हो चुकी है ...उसी दिन से पानमसाले-गुटखे को त्याग कर डैंटिस्ट से अपने मुंह की निरीक्षण करवाएं।

मुंह पूरा न खुल पाना यह एक बहुत आम समस्या होने लगी है ...मैंने बीसियों लेख इसी ब्लॉग पर इसी समस्या को लेकर लिखे हैं... लेिकन होता यह गुटखा, पानमसाला, सुपारी की वजह से ही है ...कुछ अन्य कारण भी हैं जिन में मुंह कुछ दिनों के लिए कम खुलता है....जैसे किसी दांत में इंफेक्शन, कईं बार दांतों के इलाज के लिए मुंह में जो टीका लगता है उस की वजह से भी कुछ दिन मुहं पुरा खोलने में दिक्कत आ जाती है, कईं बार कुछ दिनों के लिए अकल की जाड़ हड्डी के अंदर दबी हुई या आधी-अधूरी निकली हुई भी परेशान किए रहती है ...लेकिन यह सब कुछ िदनों के लिए ही होता है ...डैंटिस्ट को देखते ही सही कारण समझ में आ जाता है।

इसे भी ज़रूर पढ़िएगा...मुंह न खोल पाना- एक आम समस्या: ऐसे भी और वैसे भी ..(इस लिंक पर क्लिक करिए)

मुंह के किसी घाव से खून आना, कोई मस्सा होना मुंह में..सूजन होना जो दवाईयों से न जा रही हो, ये सब इतनी नान-स्पेसेफिक से इश्यू हैं कि लोगों के मन में बिना वजह डर पैदा हो जाता है जब कि ये सब मुंह के कैंसर के अलावा ही अधिकतर देखा जाता है...कैंसर तो चुपचाप अपना काम करता रहता है ..इसीलिए ज़रूरी नहीं कि इस तरह के लक्षण हों तो तभी आप डैंटिस्ट से मिलें ...और अगर ये लक्षण नहीं हैं तो आप को डेंटिस्ट से नियमित परीक्षण करवाने की ज़रूरत ही नहीं है, ऐसा बिल्कुल नहीं है, सलाह यही है कि हर छः महीने के बाद दंत चिकित्सक से मिल लिया करें...अगर आप ये सब चीज़ें नहीं भी इस्तेमाल करते तो भी दांतों की कैविटी, पायरिया आदि की रोकथाम के लिए या उन्हें प्रारंभिक अवस्था में पकड़ने के लिए भी यह रेगुलर विज़िट जरूरी होती है।

अब कितना लिखें यार इस विषय पर ...पिछले पंद्रह सालों से लिखे ही जा रहा हूं ...निरंतर ...लेिकन पता नहीं ऐसा क्या है, इस ज़हर में कि लोग छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे ....यह कब किसे अपनी चपेट में ले लेगा, कोई नहीं जानता..आप के हाथ में बस इतना है कि इन उत्पादों से दूर रहिए, और दंत चिकित्सक से रेगुलर चैक-अप करवाते रहिए। बोर हो गये हैं यार लिखते लिखते इस विषय पर ....लेिकन बोर होने से बात बनने वाली नहीं है ...

मैं जब भी किसी मुंह के कैंसर के मरीज़ को देखता हूं पहली बार तो मुझे सब से मुश्किल बात यही लगती है कि यार, इसे बताएं कैसे ...क्योंकि बायोप्सी आदि तो बाद में होती ही है, अधिकतर केसों में पता चल ही जाता है ...यह बड़ा फील होता है कि वह तो ऐसे हल्के फुल्के अंदाज़ में दांत मसूड़े की किसी तकलीफ़ के लिए दवाई लेने आया और मुझे इसे कुछ और बताना पड़ेगा...

समय के साथ उस को इस के बारे में बताने का तरीका भी आने लगता है...पहली बार में कितना कहना है, कितना नहीं, उसे सदमा भी नहीं लगना चाहिए, लेकिन वह हमारी बात को इतना हल्के में भी न ले कि फिर दिखाने ही न आए...सभी बातों का संतुलन रखते हुए मुझे हर ऐसे मरीज़ के साथ पंद्रह मिनट अलग से बिताने ही होते हैं...जिस में मैं पहली ही विज़िट में उस का मनोबल इतना बढ़ा देता हूं कि वह पूरे इलाज के तैयार हो जाए और उसी दिन से ही पान, तंबाकू-वाकू को हमेशा के लिए थूक दे..

बचपन में मास्साब कहानियां सुनाते थे तो बाद में उस से मिलने वाली शिक्षा का भी ज़िक्र होता था... लालच बुरी बला है, एकता में बल है, याद है ना आप सब को ...बस, मेरी इतना आग्रह है कि मेरी ऊपर लिखी बातों को पढ़ कर समझें या न समझें, याद रखें या न रखें, लेिकन इन उत्पादों से हमेशा दूर रहें....यह आग का खेल है...खेल उन सिनेस्टारों के लिए है जिन्होंने कभी इन चीज़ों को इस्तेमाल नहीं किया होता लेिकन करोड़ों रूपये के लालच में युवाओं का बेड़ागर्क करने में भी नहीं चूकते ....और ये हीरो आज के युवाओं के रोल-माडल हैं!.... अफसोस...