रविवार, 4 अगस्त 2024

लक्ष्मीकांत-प्यारे लाल का जादू ....लाइव कंसर्ट इन मुंबई

प्रवीण चोपड़ा

पंद्रह दिन पहले लक्ष्मीकांत प्यारे लाल का एक लाइव म्यूज़िक कंसर्ट था ....षणमुखानंद हाल मुबंई में…। उस प्रोग्राम में जाने की बहुत तमन्ना थी …सिर्फ़ फिल्मी गाने सुनने के लिए ही नहीं, वह तो हम एल पी का संगीत पिछले साठ सालों से निरंतर सुनते रहते हैं….वहां जाने की हसरत इसलिए ज़्यादा थी क्योंकि प्यारे लाल जी के दर्शन करने का एक मौका था…पास से …दूर से …कुछ भी …

बचपन से जब भी फिल्में देखते ….उन के पोस्टर अमृतसर के चौकों और गेटों - हाथी गेट, हाल गेट पर लगे देखते तो अधिकतर पोस्टरों पर लक्ष्मीकांत प्यारे लाल का नाम और साथ में ईस्टमैनकलर भी लिखा दिख जाता….लेकिन उस उम्र में आम खाने से मतलब होता है, गुठलियां कौन गिनता है ….बस, हम इन पोस्टरों को देख कर उस फिल्म को देखने के मंसूबे बनाने लगते ….. देखेंगे …अगर आते इतवार को टिकट मिल गई तो ….और अगर वहां जा कर टिकटें ब्लैक में बिक रही होतीं तो मन ममोस कर लौट आते, क्या करते…..छीना झपटी थोडे न करते…..और यह भी इत्मीनान होता कि अगले कईं हफ्तों तक तो फिल्म यही रहने वाली है, बाद में कभी देख लेंगे जब ब्लैकिए अपनी कमाई कर चुके होंगे …और हकीकत में ऐसा ही होता था ..कुछ हफ्तों के बाद जब आते फिल्म शुरु होने से पहले लगभग आधा एक घटा पहले, लाइन में इत्मीनान से खड़े हो जाते तो पांच रूपए वाली नीचे हाल की टिकट मिल ही जाती …अगर वह कहता कि अब तो बॉलकनी की बची है तो अगर उस वक्त इतने पैसे होते या हिम्मत पड़ती कि चलो, बॉलकनी की ही ले लेते हैं तो भी खऱीद ही लेते ….


इस बात से याद आई कि बचपन हो या जवानी ऐसा कभी नहीं होने दिया कि फिल्म देखने हाल में गए हों और पांच मिनट की भी देर हो गई हो …ऐसा मैंने अपने ब्लॉग में कईं बार लिखा है पहले भी ….क्या है न अगर हाल में पहुंचने पर अंदर लाइफ-ब्वाय का विज्ञापन ही चल रहा होता तो भी खामखां एक टेंशन सी हो जाती कि कुछ तो मिस हो गया…हमें सभी तरह के इश्तिहार देख कर भी मज़ा आता है उन दिनों …हा हा हा हा हा हा ….



लक्ष्मीकांत-प्यारे लाल म्यूज़िक कंसर्ट के बारे में लिखने में देरी हो गई….क्योंकि यह काम मुझे देर रात या सुबह सुबह या फिर इतवार के दिन ही करने को मिलता है ….बाकी, पिछले कुछ दिनों में वक्त ही नहीं मिला ….



प्रोग्राम की शुरुआत हुई इस खूबसूरत गीत से ...सत्यम् शिवम् सुन्दरम् 



बाली उम्र को सलाम ....कालेज के दिनों जितना ध्यान इस गीत की तरफ दिया, अगर अच्छे से फिजिक्स कैमिस्ट्री पढ़ लेता तो कुछ का कुछ हो चुका होता....लेकिन इस में जो यह जो कहा गया कि इस लिखावट की ज़ेरोज़बर को सलाम....इस की समझ मुझे कुछ साल पहले आई जब मैंने उर्दू पढ़ी...

वक्त ….हां, उस दिन भी हम पहुंच तो गए वक्त से पहले ही हाल में …लेकिन फिर लगा कि अभी तो शुरु होने में वक्त है, चलते हैं, हाल के सामने एक खाने की जगह - मद्रास टाकीज़- में कुछ खा पी लिया जाए….यह बहुत बढ़िया जगह का दक्षिण भारतीय व्यंजनों के लिए और चाय-काफी के लिए भी …साफ सुथरी एकदम। बस, वहां इडली सांभर के साथ काफी की चुस्की लेने में वक्त थोड़ा ज्यादा लग गया…

हसता हुआ नूरानी चेहरा

हाल में जब अंदर आए, अपनी सीट पर बैठे तो यह गीत शुरु होने वाला था ….सत्यम शिवम् सुंदरम….और देखा कि प्यारे लाल जी स्टेज पर विद्यमान हैं….ओ हो …यह मलाल रहा कि प्यारे लाल जी को स्टेज पर डैशिंग एंट्री करते तो देखा नहीं ….कालेज में फ़िज़िक्स-कैमिस्ट्री के एकदम खुश्क से लैक्चर देने के लिए लेक्चरार जितना देर से आते उतनी ही खुशी होती कि चलो, इतना तो वक्त कट गया ….हंसी मज़ाक में ….लेकिन यहां खुद की दो मिनट की देरी से भी दुःख हुआ। 


हम तो तेरे आशिक हैं सदियों पुराने....


मैंने ऊपर लिखा न कि इस तरह के प्रोग्राम में जाने का ज्यादा लालच उन महान हस्तियों के दर्शन करना होता है, उन को निहारना होता है ….और उस दिन भी यही हुआ….मुझे लगा कि मैं ही नहीं, मेरे जैसे बहुतेरे लोग प्यारे लाल को निहारने ही में लगे हुए थे ….उन का बच्चों जैसा सरलपन, उत्साह, उल्लास देखते ही बन रहा है, बस, उसे ही देखना था हमें तो ….उन के संगीत का जादू भी ऐसा कि हमारी उम्र के बराबर का वक्त बीत गया ….60 साल हो चुके हैं उन को मैदान में उतरे हुए…लेकिन अभी भी उन का जादू बरकरार है ….


छुप गए तारे नज़ारे ....ओए क्या बात हो गई....

प्यारे लाल जी बार बार स्वर्गीय लक्ष्मीकांत जी को याद कर रहे थे ,,,,उन की एक तस्वीर भी स्टेज पर विद्यमान थी….भावुक हो रहे थे प्यारे लाल जी उन का याद करते करते…


इस तरह के महान संगीत के साधकों के ऐसे प्रोग्राम इसलिए भी शानदार होते हैं क्योंकि इन में जो 30 के करीब गीत पेश किए जाते हैं …उन का चुनाव इन्होंने अपने हज़ारों गीतों में से किया होता है ….उन गीतों की लोकप्रियता को देखते हुए ….जो गीत हमेशा के लिए अमर हो चुके हों जैसे ….बहुत मुश्किल होता है इस तरह का सलेक्शन…क्योंकि इस संगीतकार जोड़ी के तो हज़ारों गीतों का पूरे का पूरा भंडार ही गजब का है ….। इस प्रोग्राम के दौरान उन के गीतों से जुड़ी कुछ कहानिायं, किस्से भी सुनने को मिले…..


हम को तुम से हो गया है प्यार क्या करे.....इस गीत में तीनों हीरोईऩ की आवाज़ लता मंगेशकर की थी ..


मॉय नेम इज़ एंथोनी गोनसाल्वज़ ….वाले गीत में यह जो नाम है …एंथोनी गोनसालव्ज़ दरअसल प्यारे लाल जी के गोवा से एक वॉयलिन गुरु थे ..उन्होंने उस का नाम ही गाने में दर्ज करवा दिया … 



प्यारे लाल जी अपनी धर्मपत्नी के साथ पधारे थे ...

प्रोग्राम के दौरान मैंने कुछ व्हीडियो बनाए जिन्हें मैंने यू-ट्यूब पर अपलोड किया …..ज़ाहिर सी बात है इस की कोई इतनी जरूरत थी नहीं क्योंकि वैसे ही इन के गीत तो हमें रटे हुए हैं….और हम दिन भर यहां वहां सुनते रहते हैं, देखते रहते हैं….लेकिन व्हीडियो इस लिए बनाए ताकि इन का उत्साह आप तक पहुंचाया जा सके, संगीत में इन की सक्रियता आप तक पहुंच सके….इन्होंने इंटर्वल से पहले सारा सैशन खड़े हो कर म्यूज़िक कंडक्ट किया …. और बाद में भी …प्रोग्राम के आखिर तक यह सिलसिला चलता रहा। वही बात है अगर हम जो काम कर रहे हैं, उस को एंज्वाय कर रहे हैं तो वह काम तो काम नहीं न लगता, वह एक खेल बन जाता …..और उन की मूवमैंट्स देख कर, उन की भाव-भंगिमाएं देख कर बिल्कुल वैसा ही लग रहा था….सिद्धी प्राप्त की होती है संगीत के ऐसे महान् साधकों ने ….


इक प्यार का नगमा है ...मौजो की रवानी है ...यह गीत प्यारे लाल जी की श्रीमती जी का और उन के घर में 40 बरसों के साथी मिट्ठू तोते का भी है .....बताया गया कि जब भी कोई यह गीत गाता है तो मिट्ठू मियां एक दम खुश हो जाते हैं ...


जब से यह यू-ट्यूब आया है ….कभी कभी कोई व्हीडियो इन के पुराने लाइव प्रोगामों की दिख जाती है जहां पर ये दोनों प्रोग्राम कंडक्ट कर रहे है, और प्यारे लाल जी वॉयलिन बजाते देखे जा सकते हैं….धुंधली सी याद है मुझे जैसे दूरदर्शन के ज़माने में भी किसी खास प्रोग्राम में कलाकारों के इस तरह के लाइव शो प्रसारित किए जाते थे ….क्या आप के पास कोई ऐसी याद है तो लिखिएगा कमैंट में नीचे….बात पूरी हो जाएगी…


प्रोग्राम की समाप्ति की तरफ बढ़ते हुए जब यह गीत पेश किया गया तो जैसे साईंबाबा के मंदिर जैसा माहौल बन गया....सभी लोग भाव-विभोर हो गए....ऐसा है इस गीत का जादू और लक्ष्मी-प्यारे के संगीत का जादू - मैंने भी यह फिल्म 1977 में चेंबूर के बसंत सिनेमा हाल में जुलाई में देखी थी ...जैसा कि उस दौर में होता था ...कम से कम अगले सात दिन तक मनमोहन देसाई के इस शाहकार के इस जादू का नशा छाया रहा था ....अभी भी कौन सा उतर गया है 😂

जैसा कि मैं अकसर इस तरह के कंसर्ट में करता हूं मैंने हर गीत के पहली लाइन गूगल-कीप पर लिख कर एक फेहरिस्त बना ली…..उन में से जो गीत रिकार्ड किए उन को आप के साथ शेयर कर रहा हूं….सब से सब सुपर हिट गीत हैं ….और इस जोड़ी के दो एक गीत यू-ट्यूब से लेकर भी यहां एम्बेड करूंगा….जो मेरे दिल के बहुत करीब हैं….वैसे तो सभी ही हैं ..लेकिन फिर भी ये दोनों गीत बार बार सुनना अच्छा लगता है ….




मेरे लिए यह दिन एक अविस्मरणीय दिन था.....मैंने सोचा कम से कम प्यारे लाल जी के साथ एक फ्रेम में ही फिट हो जाऊं...

यादों की पिटारी में सहेजने के लिए यह कार्ड ...

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

कारवां गुज़र गया ...ग़ुबार देखते रहे ..(मो. रफी की याद में)


उस दौर के गवाह हैं हम जब लोग सिनेमा देखने जाते थे तो सिनेमा के कंपाउंड में उस फिल्म के गीत या कभी कभी स्टोरी की एक छोटी सी बुकलेट भी बिका करती थी....25 पैसे की या 50 पैसे की ...लेकिन हमारे से भी पहले दौर में यह आठ-दस पैसे की भी बिका करती थीं...मुझे इसलिए यह पता है कि कईं बार किसी एंटीक शॉप में ये दिख जाती हैं....अब वही 10 पैसे वाली बुकलेट ...दरअसल बुकलेट भी नहीं,एक पेम्फलेट जैसा कागज़....अब यह 100 रूपए और कभी कभी 150 रूपए में बिकती हैं....यह खरीदने वाले कीे बेचैनी पर मुनस्सर होता है ....क्योंकि एक बार ऐसी आइटम दिख गई ....फिर कभी दिखने का चांस लगभग शून्य के बराबर होता है ...मैंने भी कुछ खरीदी हुई हैं ....

खैर, फिर अगला दौर होता था ...जब फिल्म देख ली...तो उस के बाद जब भी रेडियो पर गीत बजता और उस पन्ने को उठा लिया जाता और रेडियो पर बज रहे गीत के साथ साथ उसे भी गुनगुनाया जाता ....जब मुझे मुखड़े या पहले अंतरे तक पहुंचते ही यह पता चल जाता कि यार, अपनी आवाज़ तो बिल्कुल गधे जैसी निकल रही है....यह तो मज़ाक बन रहा है....चुपचाप उसे मन ही मन गुनगुनाने लगते ....

फिर दौर आया ....गायकों की किताबों का ...जिसमें उन के 100,150, 200 गीतों के बोल लिखे होते ....लता, रफी, मुकेश, महेंद्र कपूर के गीत ...ये किताबें इतनी पापुलर थीं कि फुटपाथ पर भी बिकती थीं...उन दिनों खरीदी किताबें कब कहां रद्दी में चली गईं, या बाढ़ की चपेट में आ गईं....पता ही नहीं चला.....40 साल बाद उन को एंटीक की दुकानों से खरीदना पड़ा ....कभी कभी उन के पन्ने अभी भी उलट लेता हूं...

गीतों की लिस्ट ....यू-ट्यूब पर बनती है, प्ले-लिस्ट और भी कईं एप्स पर .....लेकिन जो लिस्ट किसी म्यूज़िक कंसर्ट में बैठ कर वहां गाए हुए गीतों की होती है, उस का तो जवाब ही नहीं हो सकता....मैंने भी पिछले 11-12 बरसों में बहुत से म्यूज़िक कंसर्ट देखे ....सभी के सभी लखनऊ में या बंबई में .....और अकसर मैं उन गीतों की पहली लाइन गूगल कीप पर लिख लेता हूं ....उस लिस्ट का क्या करता हूं ...वह कभी बाद में बताऊंगा....और हां, यह लिस्ट-विस्ट बनाने का काम इसलिए हो पाता है क्योंकि मुझे नहीं याद कि मैं कभी किसी म्यूज़िक-कंसर्ट में लेट पहुंचा हूं ....बिल्कुल बचपन जवानी में फिल्म देखने की तरह ...वक्त से पहले ही पहुंच जाता हूं....पहले ट्रेलर देखते थे ...थियेटर के आस पास से थोड़ी पेट-पूजा कर लेते थे, फ्रेश भी हो लेते ....फिल्म के हाल में घुसने से पहले यानि एक दम टनाटन ...पेट भरा हुआ....मूत्राशय खाली हुआ ....ताकि बीच में कहीं बसंती की कोई चुलबुली बात मिस न हो जाए, और गब्बर जब अपने चमड़े की बेल्ट हवा में उड़ाते हुए दहाडे तो कहीं मूत्राशय के किवाड़ न खुल जाएं.....


परसों 31 जुलाई को रफी साहब की 44 वीं बरसी थी और इस मौके पर षणमुखानंद हाल में हाल की तरफ़ से और रफी साहब के परिवार की तरफ़ से इस प्रोग्राम में जाने का मौका मिला....शायद से पहली बार हुआ कि हम लोग वहां लगभग आधा घंटा लेट पहुंचे थे ...सच मानिए कभी कालेज में किसी लेक्चर के छूटने का इतना दुःख नहीं हुआ ....इतना क्या, बिल्कुल भी नहीं हुआ....इसलिए गीतों की लिस्ट बनाने का मन ही न हुआ...वैसे भी रफी साहब के गाए गीतों की क्या लिस्ट बनाएं....मां की लोरी के साथ साथ उन के गीत रेडियो, लाउड-स्पीकर पर बचपन ही से हमारे दुःख-सुख के साथी रहे हैं....उन के गीतों में समंदर में मेरे जैसा चार फुट गहरे स्विमिंग पूल में फुदकने वाला क्या डूबेगा....इसलिए प्रोग्राम का आनंद लेते रहे और मैंने सोचा कि जब कोई एक गीत ऐसा आएगा जब मैं वीडियो बनाने से अपने आप को रोक नहीं पाऊंगा तो बस वह एक व्हीडियो बना लूंगा ....


षणमुखानंद हाल खचाखच भरा हुआ था ....अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि मैं किसी भी प्रोग्राम के बाद इस तरह की पोस्ट लिखने क्यों बैठ जाता हूं...उस का कारण यह है कि मुझे हमेशा लगता है कि जिन हसीं पलों को मैंने उस हाल में जीया ....उस का थोड़ा सा ज़ायका ही सी दूसरे लोगों तक भी पहुंचे ....और ऐसा करने में मेहनत तो लगती है ...(अब मैं टोका-टोकी करने वालों की परवाह नहीं करता, मैं उन की छटपटाहट समझ सकता हूं....हैं इक्का दुक्का.....मेरे एक साथी ने मुझे दो तीन साल पहले सलाह दी थी कि यार, मार गोली ...दफा कर ...जो काम करने में खुशी मिलती है, लगा रह  ....लोगों का क्या है, कुछ तो लोग कहेंगे...लोगों का काम है कहना...) ...और एक कारण यह है कि खास लोग हैं जिन को मैं चिट्ठी नहीं लिख पाता हूं ....इसलिए इस तरह की पोस्टें चिट्ठी का भी काम करती हैं... और एक कारण है, बडा़ खुदगर्जी वाला कि इस से इस तरह का कंटेंट एक जगह संभला रहता है ...बाद में कभी देखने से मन खुश हो जाता है, जैसे की अभी मैं बाद में 12 बरस पहले की एक वीडियो शेयर करूंगा और बताऊंगा उस के बारे में ...) 

रफी साहब बडे़ सूफी, रब्बी, बहुत नेक इंसान थे ....उन की दरियादिली के किस्सों से यू-ट्यूब भरा पड़ा है ....बहुत ही पारिवारिक इंसान थे, थोडे़ से शर्मीले भी ....(लेकिन यह शर्मीलापन कभी उन के गीतों में तो हमें नहीं दिखा....).....और जो पंजाबी जानने वाले थे उन के साथ ठेठ पंजाबी में ही बात करते थे ....हां,पंजाबी से याद आया....उन्होंने पंजाबी गीत और पंजाबी फिल्मों के भी बहुत से गीत गाए....मुझे इस वक्त मेरे स्कूल कालेज के दिनों में आई एक फिल्म लाडली का उन का गाया एक गीत चेते आ गया.....बहुत बजा करता था यह हमारे रेडियो पर ....सानूं ज़ोरां नाल लग्गी ए प्यास गोरिए....। दो दिन पहले मैं बीबी रंजीत कौर (एक महान पंजाबी गायिका) की एक इंटरव्यू सुन रहा था जिसमें वह उन के साथ गाए हुए गीत याद कर रही थीं....वह बता रही थीं कि जब उन्होंने ऱफी साहब के साथ पंजाबी फिल्म का गीत गाने का मौका मिला तो वह सातवें आसमां पर थीं...क्योंकि वह तो खुद रफी साहब के गीतों की इतनी बड़ी फैन थी....(और मैं बीबी रंजीत कौर के गीतों का फैन जो उन्होंने मो. सदीक के साथ गाए...बहुत सुनता था...कैसेटें खरीद खरीद कर ....साईडें बदल बदल कर, कैसेट को आगे पीछे खिसका-2 कर मैंने अपने इकलौते टू-इन-वन का हैड कईं बार खराब कर लिया था...अब इतने पैसे भी नहीं होते थे कि बार बार हैड चेंज करवा लिया जाए...जैसे तैसे खुद ही उसे साफ करने का जुगाड़ करना पड़ता...कभी चल जाता, कभी मायूस होना पड़ता। हां, बीबी रंजीत कौर रफी साहब के साथ गाए हुए जिस पंजाबी फिल्म का ज़िक्र कर रही थी, वह पंजाबी फिल्म सैदां जोगन का था ....हस बल्लिए, नहीं ओ हसना...., आप भी सुनिए, हम ने तो बहुत सुना है ...अभी भी सुनते हैं। मुझे भी यह गीत बहुत पसंद है। 

रफी साहब की तो बात क्या करें, उन्होंने बहुत सी ज़ुबानोंं में गीत गाए हैं...और धार्मिक गीत भी ऐसे ऐसे गाए हैं जो कि बेहद लोकप्रिय हैं...हां, प्रोग्राम के दौरान जब वह गीत पेश किया तो सारा हाल जैसे झूमने लगा....परदा है परदा....(अमर अकबर एंथोनी)

कल भी प्रोग्राम के दौरान बीच बीच में पुराने लोग इस दरवेश मो रफी की बातें याद कर रहे थे ....एक शख्स ने बताया कि रफी साहब और माला सिन्हा पास पास ही रहते थे ...एक बिल्डिंग के फासले पर....एक बार माला सिन्हा रफी साहब के पास गईं कि चेरिटी के लिए ....एक चर्च के लिए शो करना है , आप करेंगे क्या। रफी साहब ने कहा कि क्यों नहीं। और वह चैरिटी शो जब इसी षणमुखानंद हाल में हुआ तो उन्होंने और माला सिन्हा ने 3 घंटे तक अपनी गायकी से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया.....और जब प्रोग्राम के बाद आर्गेनाईज़र रफी साहब को उन को एन्वेल्प देने लगा तो उन्होंने लेने से इंकार कर दिया यह कहते हुए कि यह तो एक भले-मकसद के लिए था ...चेरिटी थी....

यह कोई अकेला किस्सा नहीं है, रफी साहब की दरियादिली का, नेकनियती का .....अनेकों अनेक ऐसे प्रेरणादायी संस्मरण हैं लोगों के पास शेयर करने के लिए...लेकिन हमें फुर्सत ही कहां हैं किसी की सुनने की .....
 
प्रोग्राम के दौरान एक सुपर सीनियर सिटीज़न आए....उन्होंने एक बात जब शेयर की तो हाल में बैठे लोगों के रोंगटे खड़े हो गए...सभी लोग तालियां बजाने लगे...उन्होंने बताया कि रफी साहब जो 31 जुलाई 1980 को इस जहां से रुख्सत हुए....उन को सांताक्रुज़ कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया....वह बताने लगे कि उन्होंने अपने साथियों के साथ मिल कर सोचा कि जहां पर रफी साहब दफन हैं, उस जगह को थोड़ा देकोरेट किया जाए....लेकिन उन्होंने बताया कि इस्लाम मेंं इसकी इजाज़त नहीं है ...उन्होंने बड़ी नामचीन फिल्मी हस्तियों का नाम लेकर बताया कि ये सब हस्तियों को भी उसी कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया था, लेकिन उन सब की कब्रें रिप्लेस हो चुकी हैं.........लेकिन रफी साहिब की कब्र एक ऐसी वाहिद कब्र है जिसे किसी ने आज तक इन 44 बरसों में छुआ तक नहीं...इस तरह का था रफी साहब का आम लोगों से जुड़ाव ....और लोगों की उन के लिए मोहब्बत....🙏

और हां, सुपर सीनियर सिटीज़न की बात हुई तो मुझे एक दूसरे लगभग या उस के भी परे पहुंचे सुपर सीनियर सिटीज़न याद आ गए ....कल जब मो. रफी साहब का एक गीत पेश किया जा रहा है, तो वह अपने पूरी तबीयत से नाच रहे थे ...उन्हें देख कर वही बात याद आई कि उम्र का क्या है, नंबर है एक ...इंसान के अंदर का बालपन हमेशा ज़िंदा रहना चाहिए ..



प्रोग्राम के आखिर में जो गीत पेेश किया गया ....वह भी लाजवाब है ....


कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे ....इसे लिखने वाले महान गीतकार थे .गोपालदास नीरज ..आज इस पोस्ट के बहाने उन को भी याद करने का मौका मिला....आज से 10-11 साल पहले लखनऊ में उन के 90 वें जन्मदिन के मौके पर एक प्रोग्राम में शिरकत करने का मौका मिला ..उस के अगले साल भी ...वहां उन को सुनने का भी मौका मिला था....उस दिन का यह छोटा सा वीडियो भी देखिए....वह कह रहे हैं ....बम्बों और बारूद की भाषा ऐसी भाई दुनिया को ...आग लगाना याद रहा, हम आग बुझाना भूल गए....


उन के जन्मदिन वाले प्रोग्रामों में उन के लिखे हुए सुपर डुपर गीत जब पेश किए जाते तो खचाखच भरा हुआ सारा हाल झूमने लगता.....शोखियों में घोला जाए..फूलों का शबाब, देख भाई ज़रा देख के चलो, आज मदहोश हुआ जाए रे, मेघा छाए आधी रात, जब राधा ने माला जपी शाम की, लिखे जो खत तुझे ...इस तरह के अनेकों गीत उन की कलम से निकले तोहफे हैं.....अरे भाई, मैं कैसे वह गीत भूल गया...खिलते हैं गुल यहां...खिल के बिखरने को ... लिखते लिखते उंगलियां थक जाती हैं सच में, लेकिन इन लोगों ने जो खजाना हमें सौंपा है, हम तो उस को लिख ही नहीं पाते, हां, इन को जब बजता सुनते हैं तो झूमने ज़रूर लगते हैं.... 



मो रफी साहब के अनेकों गीत हैं, इस वक्त मुझे उन का गाया यह गीत याद आ रहा है .....जब से होश संभाली है, 5-6 बरस की उम्र से ...इसे पहले रेडियो पर, फिर टीवी पर, हर जगह बजते देखा....


लिखना तो अभी और भी कुछ है ....लेकिन कभी कभी लिखते लिखते भी मन ऊब सा जाता है ....चलिए, फिर, आज इतनी बातें लिख कर लिफाफा बंद करता हूं...

रविवार, 28 जुलाई 2024

लक बॉय चांस ....जुहु बीच पर ...





आज सुबह जुहू बीच पर पहुंचते ही ऐसे लगा कि वापिस ही चला जाए....फिर यही लगा कि अब इतनी दूर आए हैं तो थोड़ा वक्त बिता ही लिया जाए....हां,वापिस जाने का मन इस लिए हुआ था क्योंकि वहां पर बहुत गंदगी पसरी हुई थी....खैर, दो मिनट चलने पर पाया कि हालात इतने भी बुरे नहीं है, थोड़ा टहलना तो हो ही सकता है ...





एक बात जो मैं हमेशा कहता रहता हूं कि अगर हम लोग घर के बाहर निकलें ...खास कर पैदल चलें थोड़ा बहुत जितना हो सके ..तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि हमें कुछ ऐसा न देखने को न मिले जिसे हम पहली बार देख रहे हैं...कहीं कोई सब्जी, कोई फल, कोई नज़ारा ऐसा दिख ही जाता है जिसे हमने पहले नहीं देखा होता....आज भी अभी दो मिनट ही चला था कि देखा समंदर में कुछ आदमी एक छोटा सा जाल लेकर खड़े हैं, ऐसे लग रहा था कि कुछ तलाश रहे हैं...मछली तो हो नहीं सकती किनारे के इतनी पास...किसी बंदे से पूछा तो पता चला कि सिक्के ढूंढे जा रहे हैं....फिर भी बात समझ में आई नहीं...अब नहीं आई तो नहीं आई, क्या करें....उन के साथ आगे जा कर खड़े तो नहीं सकते कि पूरी प्रक्रिया का गहन अध्ययन हो सके....



इन स्वच्छता बंधुओं ने बताया कि जब ये सारा कुछ इक्ट्ठा कर लेते हैं तो आता है ट्रक ...



तुम ले रहे हो भाई टैक्नोलॉजी का पूरा फायदा...वीडियो कॉल से गांव में सारे कुनबे को जुहू बीच घुमा दिया....

आगे बढ़ने पर देखा कि वहां भी बहुत से लोग इसी तरह के सिक्के ढूंढने में मसरूफ़ हैं....इस फ़न का एक खिलाड़ी जो अभी मैदान में नहीं उतरा था, मैंने उस से पूछा कि क्या चल रहा है। उसने भी वही जवाब दिया.....मैंने कहा कि हां, पिछली जगह पर कोई एक तांबे का पूजा का यंत्र सा दिखा तो रहा था ....उसने कहा कि सब लक बॉय चांस है .....सिक्के तो मिलते ही हैं, कितने मिलेंगे किसी को सब किस्मत केऊपर है ...और कईं बार तो चांदी और सोने के सिक्के भी मिल जाते हैं....


हमारे लिए यही जुहू बीच हुआ करता था....हम थोड़ा बहुत ही टहलते थे ...रात में बीच पर रोशनी नहीं होती थी, इसलिए उन दिनों बीच के सुनसान इलाकों में अंधेरे की तलाश में आए लोग भी अकसर दिख जाते थे ...






कौन जाने इन में से कौन कल का सचिन होगा .....यह तो अल्ला को खबर, यह तो मौला को खबर ....


इन्होंने भी अपने काम पर पूरी रिसर्च की हुई लगती है ....सारी स्ट्रेच में दो तीन जगहों पर ही ये माल तलाश रहे थे ...



अपनी अपनी आस्था के अनुसार कुछ लोग ये सब चीज़ें समंदर मेंं फैंकते हैं....और उस बंदे ने बताया कि बारिश के मौसम में यह सब चलता रहता है ...मैंने पूछा कि सारा दिन यह खोज चलती है ....उसने कहा कि नहीं, जब तक पानी उतर नहीं जाता, तभी तक ....पानी के उतरते ही (लो-टाइड) यह खोज बंद हो जाती है ....

मेहनत कर रहे थे वे लोग ...कुछ हाथ लगना भी चाहिए.....

मुझे भी याद आ गया कि जब हम लोग अमृतसर में रहते थे तो रेल गाड़ी से कहीं भी जाना होता तो पहले तो ब्यास नदी और फिर सतलुज नदी तो पड़ते ही थे ....मैं अकसर देखता था कि लोग नदी आने से पहले ही पैसे तैयार रखते थे ट्रेन की खिड़की से नीचे गिराने के लिए ....मुझे बड़ी हैरानी होती थी.. वैसे मैंने कभी गिराए भी नहीं ....पैसे फैंकने की बजाए मैंने तो मैं वेसन के गर्मागर्म लड्डू और बढ़िया बढ़िया पूरी छोले जो इस रुट पर गाड़ी के अंदर लगातार बिकते रहते हैं ....वही खरीद कर पेट पूजा पर पूरी तवज्जो दी....फिर बाद में जब लोग अंबाला से आगे निकलते तो जमुना नदी में भी इसी तरह से पैेसे फैंकते यात्री दिखते थे ....यह तो थी बात नदियों की लेकिन मुंबई का समंदर तो फिर समंदर हुआ ... न कोई ओर न छोर ....इस लिए ये माल ढूंढने वाले अपने काम में लगे हुए दिखे ....

बीच पर फुटबाल खेल का तो मज़ा आ जाता होगा 


लॉक डाउन के दौरान मैंने भी इसी तरह की फैट-साइकिल को इसी बीच पर चला चला कर अपने बचे खुचे गोड्डे बर्बाद कर लिए थे ..

यादें बनाने में लगे हुए परिवार ...उम्र भर की यादें 



आज के सुनहरी पल.....उम्र भर की यादें 

एक महिला ध्यान मुद्रा में दिखी ....👍प्रेरणादायी चित्र

आज एक बात पहली बार देखी कि लोग अपने कुत्तों को भी समंदर में अपने साथ तारी लगवा रहे थे ....वो तो ठीक है, कुछ लोगों ने अपने शेरों जैसे दो दो-तीन तीन कुत्ते खुले छोड़े हुए थे ....अब वे होंगे अपने मालिकों के कंट्रोल में, मालकिनों के इशारे पर चलते होंगे लेकिन इस से आम पब्लिक को क्या.....जब भी वे कुत्ते किसी दूसरे के पास आते तो वह तो डर जाता ...एक दो बार तो मैं भी डर गया....आखिर किसी एक तो कहना ही पड़ा .....दिस इज़ नॉट एक डॉग पार्क....होल्ड दैम....

जुहू बीच पर भी सुबह सुबह बहुत सारे नज़ारे देखने को मिलते हैं.....साथ साथ मेरी उम्र के नौजवानों को अपने चालीस- पचास साल पुराने दिन याद आने लगते हैं.....बहुत से परिवार तो यादें बनाने में लगे हुए थे .....छोटे बच्चों के साथ तो वैसे ही माहौल हर वक्त, हर जगह खुशनुमा हो ही जाता है ...

आज से जब 35-40 साल पुरानी यादें इसी जुहू बीच की याद आती हैं तो वह फोटोग्राफर भी याद आता है जिस के पास पोलरायड कैमरा होता था जो उसी वक्त फोटो निकाल कर हमारे हाथ में दे देता था ...शायद यही कोई पचास रूपए लेता था लेकिन उम्र भर की एक याद थमा देता था ....जाओ,ऐश करो, देखते रहो, उम्र भर ....मेरे पास भी 1981 की एक ऐसी ही फोटो है, लेकिन कहीं दबी पड़ी होगी.... 

आज भी जब कुछ लोगों को इसी तरह से फोटो खिंचवाते देखा तो पुराना दौर याद आ गया.....लोग भी शेल्फी ले-लेकर थक चुके हों जैसे ...कुछ लम्हें इसी तरह से संजोने लायक होते हैं....मोबाइल का क्या है, इस में पड़ा सब कुछ लेबाइल है .....कब कहां गायब हो जाए....कुछ अता पता नहीं...

 एक दंपति शायद रील बनाने में लीन थे ....बहुत बढ़िया ...रील बनाने का यह बहुत बढ़िया वक्त है ....

जुहू बीच पर क्रिकेट का मैच भी चल रहा था और फुटबाल की प्रेक्टिस भी ....


कालेज के छात्र श्रम-दान करते हुए ....



बच्चू, तीन हज़ार मील की दूरी पहले कदम से ही शुरू होती है ....मुबारक हो तुम्हें तुम्हारे नन्हे नन्हे कदम ...


अचानक यही ख्याल आया कि जब पिछली बार यहां आना हुआ था तो सफाईयां बड़े ज़ोरों शोरों पर चल रही थीं ....ट्रक भी इक्ट्टा किया हुआ इस तरह का सामान उठाते दिखते थे...अभी इतना सोच ही था कि स्वच्छता स्टॉफ दिख गया ....मैंने पूछा कि कब तक चलता है यह काम ...उसने बताया कि शाम के सात बजे पर चलता रहता है ....और दिन के 400 रुपए पाते हैं....जितने भी सार्वजनिक स्थल हैं ...वे सभी इन स्वच्छता स्टॉफ के बलबूते पर चल रहे हैं....उन में से एक ने बताया कि ये जो प्लास्टिक आप देख रहे हैं ये गटर के रास्ते यहां पहुंच जाता है ....

इतने में चलते चलते वह जगह आ गई जिसे हम जुहू बीच समझते थे .....एक जगह जहां कार, टैक्सी या आटो जिस में हम आते थे हम बस उसी को जुहू बीच समझते थे ....वहां समंदर में जाकर भीगना...फिर पानीपूरी-भेलपूरी खाना, बर्फ का गोला खाना ....और थोड़ा इधऱ उधर टहल कर वापिस लौट आना....यही यादें हैं जब भी बंबई आते थे ....एक बार 20-21 की उम्र की भी यादें है ...वे दिन भी मानसून के ही थे ....बारिश में भीग गया था ....यह वह दौर होता है जब हम लोग कोई फिल्म भी देखते तो हमें लगता कि वहां कुमार गौरव नहीं है, यह गीत तो हम पर ही फिल्माया जा रहा है .....अकसर फिल्म देखने के बाद जब भी कोई इस तरह का गीत रेडियो पर बजता....या वेस्टन के टू-इन-वन पर टेप लगा कर सुना जाता तो बहुत बार आंखें बंद किए ही वे गीत सुने जाते ....जब उन दिनों की याद आती है तो यह भी अकसर याद आता है >>>>....आ, मुलाकातों का मौसम आ गया....


जुहू बीच से वापिस आते वक्त देखा कि दूर भी किनारे की कुछ सफाई चल रही है ...पास जा कर देखा तो कालेज के युवक दिख रहे थे ...एमिटी कालेज अंधेरी से ये युवक आए हुए थे ...शनिवार या रविवार युवक आते हैं ..सुबह के वक्त ....इस स्वच्छता अभियान से जुड़े हैं.....बताने लगे कि बीच-वारियर्स नाम का एक ग्रुप है जो यह सब अरेंज करता है ....एक बीच-वारियर भी खड़ा था...उसने बताया कि स्वच्छता के साथ साथ इस ग्रुप का यह भी मिशन है कि वेस्ट मैनेजमेंट के बारे में, वेस्ट सेग्रीगेशन के बारे में भी इन युवाओं को और लोगों को जागरूक किया जाए कि यह कचरा वह नहीं है कि इसे लोगों ने यहां गिराया है ...यह वह कचरा है जो लोगों ने बिना सेग्रीगेशन के यहां वहां फैंका और वह यहां समंदर से होते हुए यहां तक आ पहुंचा है ...

घर आकर यह भी क्लास लेती है कि मुझे क्यों नहीं ले कर गए...नाराज़ हो जाती है बड़ी जल्दी ...