गुरुवार, 23 मई 2024

रीडर डाईजेस्ट भी अब बुक-स्टॉल से हो जाएगी गायब ....

विदेश में छपने वाली रीडर-डाईजेस्ट, जिस की प्रिंटिंग मई २०२४ से बंद होने की खबर है 


खैर, मैंने ऊपर लिखा जब से होश संभाला......उसी तरह से कल मेरे होश ही उड़ गए जब मैंने मेरी बड़ी बहन ( जो कि यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर रही हैं) का एक मैसेज पढ़ा कि इस महीने से रीडर डाईजेस्ट की छपाई बंद हो जाएगी...साथ में एक बड़ा दिल को छू लेने वाला वीडियो भी था....

यह आर.डी जो भारत में छपती है...

रीडर-डाईजेस्ट आज कल जो इंडिया में बिकती है उस का दाम एक सौ रूपए हो गया है ....हम लोग ५५०रूपए की दाल फ्राई ले लेंगे लेकिन इतनी महंगी रीडर-डाईजेस्ट खरीदने का मन ही कभी न हुआ...हां, मन ही न हुआ, अगर मन करता तो ले लेता, विटेंज मैगज़ीन महंगे से महंगे खरीद लेता हूं तो फिर इसे खरीदने में इतना क्या! एक तो यही लगता कि इसे खरीद कर मैं पूरा पढ़ता तो हूं नहीं ....दूसरी बात यह कि एक दो महीने के बाद वही रीडर-डाईजेस्ट आते जाते रास्तों में पुरानी किताबों की दुकानों पर इस के पुराने अंक  दस-बीस रूपए में बिक रहे होते थे ....वहां से कईं बार एक साथ कईं अंक खरीद लेता ....लेकिन उन को केवल खरीदा ही, कभी पढ़ा नहीं, बस उन के पन्ने उलट-पलट लेने तक ही बात सिमटी रही ....

लेकिन आज सुबह जैसे ही मुझे पता चला कि इस महीने से छपना बंद हो जाएगा तो पहले तो इस के बारे में गूगल से पूछा कि वह क्या कह रहा है। उसने भी इस बात की पुष्टि की ...कल शाम के वक्त मैं मुंबई वीटी स्टेशन इस मैगज़ीन का मई अंक लेने के लिए गया लेकिन वहां जा कर पता चला कि एक जो किताबों-मैगज़ीनों की शॉप भी वेटिंग-एरिया में वह बंद हो चुकी है.....अच्छा, मुझे नहीं पता था ....शायद दो तीन महीने पहले ही तो मैंने वहां से भारतीय विद्या भवन की मासिक पत्रिका नवनीत खरीदी थी ....यह वीटी से या चर्चगेट स्टेशन पर ही मिल जाती है, अगर किसी का मुकद्दर अच्छा हो तो ....नवनीत में भी बहुत अच्छे लेख होते हैं...और उस का दाम भी सिर्फ ३५-४० रूपए है....

कल शाम मैं फिर वीटी स्टेशन के बाहर पंचम पूरी वाले वाली गली में चला गए...उस के सामने ही नुक्कड़ पर एक न्यूज़-पेपर वेंडर है जिस के पास सभी पत्रिकाएं एवं सभी समाचार पत्र मिल जाते हैं.....वहां से यह रीडर-डाईजेस्ट खऱीद ली ....मुझे नहीं पता कि यह भी बंद हो रही है इसी महीने से या नहीं, लेकिन जब पेरेंट कंपनी ही बंद कर रही है इस की प्रिंटिंग तो पता नहीं भारत में छपने वाली रीडर डाईजेस्ट का क्या हश्र होने वाला है ....

ऑन-लाईन जो पत्रिकाएं पढ़ने में सहज होते होेंगे वे पढ़ लिया करेंगे शायद ...लेकिन मैं तो नहीं पढ़ जाता बहुत कुछ ऑन-लाईन ...पुरानी आदतें हैं सब कुछ हाथ में थाम कर ही पढ़ना है ....

पत्र-पत्रिकाओं की दुकानें बंद हो रही हैं.....वे भी क्या करें, लोगों में जब इन को पढ़ने की और खरीदने कीआदत ही कम हो रही है तो वे भी क्या करें, हर काम के साथ इन को बेचने वालों की रोज़ी-रोटी जुड़ी होती है.....

मुझे पुरानी ...बहुत पुरानी कुछ पत्रिकाओं की कलेक्शन करने का शौक तो है...लेकिन कभी जब इक्ट्ठी हो जाती हैं, सिर दुखने लगता है उन को देख कर तो रद्दी में चली जाती हैं....आज लग रहा है कि रीडर-डाइजेस्ट भी अगर पुरानी रखी होती हों तो अच्छा लगता....

शायद आप को यह भी पता ही होगा कि रीडर डाइजेस्ट की कंपनी इस मैगज़ीन के साथ साथ कुछ बहुत अच्छी किताबें भी निकालती रही हैं....मेरे पास भी कुछ हैं.....जैसे जब रीडर-डाईजेस्ट के ५० साल पूरे हुए तो उन्होंने एक अंक निकाला था जिस में पिछले ५० बरसों के दौरान उन में छपे बहुत पसंदीदा लेख और स्टोरियां होती थीं। वर्ल्ड-पावर के ऊपर, तरह तरह के शब्दकोष, विश्वकोष, नावल भी आर.डी की कंपनी छापा करती थीं....मैंने बहुत सी ऐसी किताबें देखी हैं, कुछ खऱीदी भी हैं, लेकिन पढ़ा इतना कुछ नहीं है, कारण मैंने ऊपर लिखा ही है ....



 

शायद १९९५ के आस पास की बात होगी .....एक बार एक साल की सब्सक्रिप्शन ली थी मैंने भी रीडर डाईजेस्ट की ...उन दिनों वे कुछ न कुछ साथ में भेजते थे ...कोई डॉयरी, कैलेंडर या कुछ ऐसा ही .....कुछ अंक मिले थे ....कुछ डाक में ही गुम हो गए थे, फिर कभी ऐसी सब्सक्रिप्शन नहीं ली.....इसीलिए कुछ महीने पहले जब मैं विश्व पुस्तक में मेले में गया तो वहां पर दो तीन हिंदी की पत्रिकाओं की वार्षिक मेंबरशिप मिल रही थी तो मुझे झिझक हुई कि फिर डाक में गुम होने का लफड़ा रहेगा ...लेकिन जब पता चला कि वे अब रजिस्टर्ड डाक के द्वारा भिजवाते हैं तो मैंने उन की सब्सक्रिपशन ले ली .....अब वे नियमित आ तो रही हैं, लेकिन पढ़ने का फुर्सत नहीं है, कभी एक आधा लेख, कहानी, निबंध देख लेता हूं....

रह रह याद आ रही है रीडर-डाईजेस्ट के दिनों की ....जब यह मैगज़ीन की ख्याति शिखर पर थी ....उसमें छपे कुछ लेख बहुत प्रेरक होते थे, सोचने पर मजबूर भी करते थे और कुछ चुटकुले भी बहुत बढ़िया होते थे, जिन की इंगलिश समझ में आ जाती थी वे खूब हंसाते भी थे .....सोच रहा हूं उस ज़माने में रीडर-डाईजेस्ट पढ़ना या अपने घर में टेबल पर रखना भी एक स्टेट्स सिंबल से कम न था ... हा हा हा ह ाह ाहा हा 😎😆

I want to share here the post that i received from my elder sister, and the video alongwith that post....

"30th April, 2024 a sad day for the book readers.. THE READERS DIGEST has been closed.  Following is that sad news along with a symbolic video presentation, which appeared with a note by the its editor in chief also  on International Book Day. Some of the images are fabulous.                                                                      

End of an era ..... as of April 30, 2024, Reader's Digest UK has ceased publishing its print edition after 86 years. The magazine's editor-in-chief, Eva Mackevic, announced on LinkedIn that the company was unable to withstand the financial pressures of the current magazine publishing landscape. The May 2024 issue was the last to be published."


आज का युवा शायद इन बातों से रिलेट न कर पाएगा कि पुराने दौर में किताबों, पत्र-पत्रिकाओं का हमारे लिए क्या मतलब होता था ...बिल्कुल आत्मीय दोस्तों के जैसे ये हमें रास्ता भी दिखाती थीं, हमारे संशय, भय भी दूर करती थीं, हमारा हाथ थामे रहती थीं....हमें हंसाती थीं, रूलाती थीं, और बहुत बार बहुत कुछ विचार करने पर मजबूर भी करती थीं....

PS.. This post is dedicated to the friend whom i met two days ago after some time and who asked smilingly.....kyon bhai tumhare blog nahin aa rahe? likhna band na kiya karo, isi bahane hum bhi kutch padh lete hain....i said just out of laziness, i dont feel like writing. He advised to stay away from laziness and start writing regularly. He is very easy going and well-read friend for the last 30 years, this is his style of inspring....i am thankful to your, dear Sharma ji....for your kind, inspiring words of wisdom -full of encouragement and Josh, as they say!!

शुक्रवार, 29 मार्च 2024

जिन दिनों हम हिंदी फिल्मी ट्रेलरों पर ही फिदा थे ....


पिछली सदी का साठ, सत्तर, अस्सी का दशक भी हिंदी फिल्मों के नज़रिए से कमाल का था ....सब कुछ बा-कमाल का था....उस दौर की फिल्मों ने देश समाज को क्या दिया....इस पर बहुत सी पोथियां लिखी जा चुकी हैं....मेैं इस बारे में कुछ भारी भरकम लिखने के मूड में नहीं हूं....हां, भारी भरकम लिखने के लिए किसी विषय का ज्ञान भी तो उसी स्तर का चाहिए, मैं ठहरा हल्की फुल्की बातें में ही खुशी तलाशने वाला ....जो लोग सीरियस थोबडे़वाले बहुत ज्ञान बांटते हैं, मुझे उन से बहुत डर लगता है ....उन को देख कर हमेशा ऐसा क्यों लगता है जैसे वो किसी मैय्यत में आए हुए हैं....

खैर, चलिए...बात करते हैं ...आज से चालीस पचास साल पहले फिल्मी ट्रेलरों की ....मुझे बहुत याद आते हैं वे दिन जब हम लोग अपने दौर में फिल्मी ट्रेलर ज़रूर देखा करते थे ....ट्रेलर से आप समझ रहे होंगे वह विज्ञापन जो हम किसी फिल्म की मशहूरी की एक क्लिप देखते हैं जब हम लोग कोई और फिल्म देखने जाते हैं....मुझे अच्छे से याद नहीं है कि इस तरह के ट्रेलर फिल्म देखते वक्त जो हम लोग सिनेमा हाल में देखते थे, ये हम लोग कब से देखने लगे थे ....बिल्कुल याद नहीं ...

लेकिन मैं जिन फिल्मी ट्रेलरों की बात आज करूंगा वे तो कुछ अलग ही मुद्दा है ....मुझे नहीं पता कि उन को ट्रेलर कह भी सकते हैं या नहीं ...लेकिन हम तो स्कूल कालेज के दिनों में उन को ट्रेलर ही कहते थे .....और बाकायदा जब कोई फिल्म देख कर आते थे तो अगले कईं दिनों तक उस फिल्म की चर्चा के साथ साथ सिनेमा हाल के बाहर-अंदर लगे उन ट्रेलरों की बातें भी यारों दोस्तों के साथ होती थीं ...

जिन ट्रेलरों की मैं बात कर रहा हूं वे फिल्मों के कुछ दृश्य की तस्वीरें हुआ करती थीं जो हाल के बाहर और अंदर किसी कांच के फ्रेम के अंदर अच्छे से लगी रहती थीं ...उन को निहारना ही बड़ा रोमांचक था ....भगवान का शुक्रिया है तब तक ये मोबाइल-वाईल न थे, इसलिए हम लोग उन को इतने अच्छे से देख कर, निहार कर जैसे अपने दिलों में सेव कर लेते थे ....😎

किसी थियेटर में फिल्म लगने से पहले .....

जैसे ही हमें स्कूल आते जाते दीवारों पर लगे पोस्टरों से पता लगता था कि फलां फलां सिनेमा हाल में फलां तारीख से कोई फिल्म लग रही है तो हम अकसर स्कूल से लौटने का अपना रूट बदल लेते थे, साईकिल उस हाल की तरफ़ मोड़ लेते कि वहां जा कर कुछ और जानकारी हासिल होगी ...शायद बड़ा पोस्टर ही लग गया हो, अगर वह लग चुका होता तो उसे अच्छे से देखते ....एक एक किरदार को पहचानते या पहचानने की कोशिश करते... 


इस के बाद हम लोग साईकिल को किसी दीवार के किनारे टिका कर थोड़ा आगे बढ़ते और सिनेमा हाल के बाहर लगे ट्रेलर देखने की कोशिश करते ....जहां तक मुझे याद है उन दिनों हाल वाले बाहर दो चार ही ट्रेलर लगा कर रखते थे ....हमारे देखने के लिए उतने ही काफी थे.....हम पांच दस मिनट उन को अच्छे से देख कर ....मन बना लेते कि यह फिल्म तो देखनी ही है .....फिर ख्याल आता कि शुरु शुरू में तो टिकट कालाबाज़ारी में तो हम ले नहीं पाएंगे ....कोई बात नहीं, थोड़े दिन बाद देख लेंगे ....इतनी भी क्या जल्दी है ....मन को समझाते हुए साईकिल पर सवार हो कर घर पहुंच जाते ....लेकिन उस फिल्म को देखने की चाहत बराबर बनी रहती और देख भी लेते देर-सवेर......जहां चाह वहां राह...

जिस दिन फिल्म देखने जाते .....उस दिन फिर उन ट्रेलरों को तीन बार निहारा जाता ....

फिल्म शुरू होने से पहले ...... जब टिकट ले कर अंदर चले जाते ...अकसर दस पंद्रह मिनट पहले तो हम उन ट्रेलरों को देखने में ही वक्त बिता देते .....ज़ाहिर सी बात है कि कुछ खास समझ न आती ....लेकिन जल्दी जल्दी में देख लेते ....फिल्म देखने का उत्साह लोगों के सिर चढ़ कर बोल रहा होता ....


 

हां, लिखते लिखते कईं बातें याद आने लगती हैं ....जैसे ही हाल का गेट खुलता ....लोग धक्का-मुक्की कर के कैसे भी अंदर जा पहुंचते और अपने मनपसंद की सीटों पर कब्जा करने की कोशिश करते ...जिन सिनेमा हालों में एसी न होता, वहां पर पंखे के नीचे वाली सीट या दीवार पर लगे पंखे के सामने वाली सीट हथियाने को होड़ सी लग जाती .....

फिल्म के इंटर्वल के वक्त ....फिल्म के इंटर्वल वाला टाईम बड़ा कीमती होता था....वॉश-रूम में जाना ज़रूरी होता था ...पिर एक दो बढ़िया से समोसे, भटूरे-छोले, पूरी-छोले, कुलचे छोले भी रगड़ने होते थे और साथ में तली हुई (फ्राई) नमकीन मूंगफली भी लेनी होती थी ....(इन में से कोई भी एक-दो चीज़ें, सारी नहीं, यार.....इतने तो जेब में पैसे ही नहीं होते थे .... 😂😂😂😂😂😂...और यह सब करने के बाद हम लोग भाग कर सिनेमा हाल के बाहर जो वेटिंग रुम वाला हाल होता था ...जहां पर बीस तीस फिल्मी ट्रेलर लगे होते थे ....अब वह फ्राई मूंगफली को चबाते चबाते उन ट्रेलरों को फिर से निहारा जाता और जो जो दृश्य इंटर्वल से पहले हो चुके होते और जो अभी नहीं फिल्म में नहीं देखे, उन का हिसाब लगा लिया जाता ....बहुत से लोग इस तरह की मगज़मारी कर रहे होते ....उन में से मैं भी एक तो होता ही था....

फिल्म खत्म होने के बाद .....इंटर्वल खत्म होने की घँटी बजते ही सब हाल में भाग जाते ...अगर कोई एक दो मिनट लेट हो जाता तो सीट पर बैठते ही यह ज़रूर पूछता कि कितना समय हो गया है ...लेकिन लोग समझदार थे सभी उन दिनों....बंदे को किसी सदमे से बचाने के लिए उस की साथ वाला सीट उस का यह कह कर ढ़ाढ़स बढ़ा देता कि अभी, अभी एक मिनट भी नहीं हुआ.....मुझे ऐसे लगता है कि उन दिनों फिल्में देखते देखते हमें पेशाब भी बहुत आता था या फिर गब्बर सिंह के कारनामे देख कर ही थोड़ा-बहुत निकल जाता होगा ....याद नहीं वह भी ठीक से ... 😎😎😎😎😎😎😂😂 

जी हां, फिल्म खत्म हो गई ....अब हाल से बाहर निकलते ही उस वेटिंग एरिया में एक बार फिर से जाना होता ...एक क्विक अवलोकन के लिए ...झट से यह आश्वस्त होने के लिए ....कि कुछ रह तो नहीं गया....अगर कोई एक दो ट्रेलर ऐसे होते जो अंदर फिल्म में नहीं दिखे होते तो लोग उस वक्त थोड़ा नाराज़ सा हो जाते कि देखो, फिल्म काटी हुई है ...यह सीन भी न था, वह भी न था .........इतने में कोई याद दिला देता कि यार, यह तो था ही, तुझे याद नहीं .....

खैर, तभी गेट कीपर की सीटी या आवाज़ आ जाती कि खाली करो भाई हाल को ......जल्दी करो .....

फिल्में भी हमारी पीड़ी की ज़िंदगी का एक बहुत ही ज्‍यादा अहम् हिस्सा रही हैं .....हमें याद है कौन सी फिल्म हमने किस के साथ किस शहर में किस के साथ देखी थी ....अभी भी वे गीत कभी गीत बजते हैं ....तो पुरानी यादें हरी भरी हो जाती हैं....मुझे तो अपने सिरदर्द का इलाज यही ठीक लगता है कि जब भी सिर भारी होता है मैं अपने दौर के गाने सुनने लगता हूं यू-टयूब पर ....या रेडियो पर विविध भारती लगा लेता हूं ....और जब हो सके तो टहलने चला जाता हूं ...बस, सिर दर्द ठीक .....कईं बार डिस्प्रिन लेनी ही पड़ती है जैसे कि आज सुबह ...वह भी एक अजीब किस्सा है ....

थोड़ा थोड़ा सिर दर्द था कल ...कुछ ऐसा ही खा लिया था ....रात में लगा कि चलो, प्राईम-वीडियो पर कोई पुरानी फिल्म लगा लेता हूं ...दीवार फिल्म लगा तो ली ...लेिकन पांच दस मिनट से ज़्यादा नहीं देखी गई....बंद कर के सो गया....थोड़ा थोड़ा सिर दर्द था ही, सुबह उठ कर डिस्प्रिन लेकर ही तबीयत कायम हुई ......कईं बार ...कईं बार क्या, बहुत बार पुरानी फिल्में देखना भी नहीं भाता .....सुपर डुपर िहट रही हैं तो रहा करें.....दिल का क्या करें, नहीं इच्छा तो नहीं इच्छा, इस के साथ कोई ज़ोर-जबरदस्ती तो नहीं....यू-ट्यूब पर भी मैं जब अपने ज़माने के गीत सुनता हूं तो वीडियो देखने में मेरी कोई खास रूचि नहीं होती....मुझे बस गाना सुनने से ही मतलब होता है ...

लेिकन कभी कोई गीत स्पैशल होता है कुछ अलग वजह से ....तो उस का वीडियो तो बार बार देखना ही होता है ....होली के दिन मैं न तो किसी को रंग लगाता हूं ... न ही किसी को डिस्टर्ब करता हूं और न ही मैं कोई डिस्टर्बैंस चाहता हूं ....बस, होली के गीत सुन कर होली मन जाता है, पुराने दिनों की होली की यादों के खेलते खेलते ही होली हो जाती है .....इस बार भी जब मैं होली के दिन यू-ट्यूब पर गीत सुन रहा था तो होली के गीत लिख कर सर्च किया तो एक गाना आ गया ...फिल्म आपबीती का ...मुझे नहीं याद कितने सालों के बाद मैंने यह गीत सुना था ...मुझे याद आ गया कि आज से कोई पचास साल पहले ....१९७६ में अपनी मां के साथ अमृतसर के एनम थिएटर में मैंने यह फिल्म देखी थी ....बस, फिर क्या था, होली के दिन से लेकर अब तक उसे कईं बार सुन चुका हूं....नीला..पीला..हरा..गुलाबी ...कच्चा पक्का रंग .... 😂😂....इस लिंक पर क्लिक कर के आप इसे सुन सकते है ं....सुनिए आपबीती का यह गीत ...

और हां, ट्रेलर भी तो आप को दिखा दिए हैं.....ये मेरी कलेक्शन से हैं....बेशकीमती कलेक्शन ...😂😂 कुछ अरसा पहले ही हासिल हुए हैं मुझे बड़ी मु्श्किल से ....मैंने भी बहुत बहुत लंबे अरसे बाद इन का दर्शन किया जब ये मुझे ऑन-लाइन मिल गए.......(वैसे मैंने यह फिल्म नहीं देखी, जहां तक मुझे याद है ..)

शनिवार, 16 मार्च 2024

मराठी नाटकों की लोकप्रियता .....

इतना तो मैं जानता था कि यहां मुंबई में मराठी नाटक देखना लोग खूब पसंद करते हैं...और मुझे इतना ही पता था कि कुछ जगहों पर जैसे की रविन्द्रालय, व्हाई बी चव्हान, वीर सावरकर भवन इत्यादि पर मराठी नाटकों का मंचन किया जाता है ...कुछ ज़्यादा मुझे इस के बारे में पता नहीं था ..

लेकिन दो चार दिन पहले एक रिटायर बंधु आए तो उन के हाथ में महाराष्ट्र टाइम्स समाचार-पत्र था.....बात जब चली कि अब रिटायर होने पर टाइम कैसे पास होता है तो उन्होंने झटपट अपना बढ़िया रुटीन बता दिया ...साथ में यह भी बताया कि मराठी नाटक देखने भी जाता हूं ...मुझे पता था कि वह भी गुज़रे दौर में मराठी रंगमंच पर काम करते रहे हैं....मैंने पूछा तो कहने लगे कि हां, उस शौक को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश में लगा हूं...

इस के साथ ही उन्होंने मेरे सामने महाराष्ट्र टाइम्स में मराठी रंगमंच के विज्ञापनों का वह पन्ना सामने रख दिया....मैं उस पन्ने पर इतने सारे विज्ञापन देख कर हैरान था....कहने लगे कि वीकएंड पर अगर आप महाराष्ट्र टाइम्स या लोकमत खरीदेंगे तो आप को पता चलेगा कि किस तरह से दो पेज़ इन मराठी नाटकों  के विज्ञापनों से भरे रहते हैं....

महाराष्ट्र टाइम्स - मुंबई ...दिनांक 16 मार्च 2024 

आज शनिवार था, रेलवे स्टेशन के अंदर घुसने से पहले उन की बात याद आ गई ...महाराष्ट्र टाइम्स की एक कापी खरीद ली...सारे पन्ने उलटे ...थोड़ा बहुत समझ में आ भी गया....क्योंकि सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ी थी ...यह भी उन का ही मराठी पेपर है ...और विशेष तौर पर मैं मराठी नाटकों वाला पन्ना देख कर सच में दंग रह गया....


उस दिन जो साथी मराठी नाटकों के संसार की बातें कर रहे थे उन्होंने कहा कि ये जितने भी नाटकों  के विज्ञापन आप देख रहे हैं ये सब हाउस फुल होते हैं.....अगर आपने कभी चलना हो तो मुझे पहले बता देना....मैंने कहा कि मैं तो म्यूज़िक कंसर्ट्स की बुकिंग बुक-मॉय-शो पर करवा लेता हूं ...यह सुविधा भी तो होगी ...कहने लगे कि है तो लेकिन पहली कुछ चार पंक्तियों की बुकिंग उस हाल में ही होती है ....उसे बुक-मॉय- शो पर नहीं किया जाता....और जिस दिन से यह शो की बुकिंग उस हाल में शुरू होनी होती है उस के बारे में अखबार से ही पता चलता है और लोग उस दिन सुबह ही उस हाल में पहुंच जाते हैं ..बुकिंग के लिए। 

मुझे उन की यह बात सुन कर अपने बचपन-जवानी के दिन याद आ गए ...जब किसी नई पिक्चर रिलीज़ होने से कुछ दिन पहले उस की एडवांस बुकिंग शुरु हो जाती थी ...और हम लोगों को अकसर उस टिकट खरीदने के लिए सिनेमा हाल के चक्कर काटने पड़ते थे ...बहुत घपलेबाजी थी तब भी ....कुछ ही टिकटें वे लोग एडवांस बुकिंग में देते थे ...नहीं तो टिकटों की काला बाज़ारी कैसे हो पाती...

खैर, अच्छा लगा कि मराठी नाटकों की लोकप्रियता के बारे में जान कर ....और लोग टिकट खर्च कर जाते हैं मराठी नाटक देखने और इतने व्यापक स्तर पर ....यह एक बहुत सुखद जानकारी थी ...वैसे तो हिंदी के भी जो नाटक होते हैं मुंबई में ...उन की भी टिकट लेनी ही होती है ....

मुंबई के बाहर मेरा अनुभव कुछ अलग रहा ....18 साल की उम्र में अमृतसर में अपने कॉलेज में ज़िंदगी का पहला नाटक देखा ..पंजाबी भाषा में .....टोबा टेक सिंह ...इस के लेखक और निर्देशक थे पंजाब के एक बहुत बड़े लेखक, नाटककार, निर्देशक ...गुरशरण सिंह जी .....उम्र के उस पड़ाव में इस नाटक ने हम सब के एहसासों को झंकृत किया ...

फिर शायद अगले तीस साल तक छुट्टी ...कहीं कोई नाटक नहीं देखा ...न ही कुछ रूचि-रूझान था इन सब में....फिर जब पचास बरस की उम्र के आस पास लखनऊ में रहने लगे तो वहां भी हिंदी नाटकों की दुनिया बहुत निराली है ....बहुत से नाट्य-गृह भी हैं...आए दिन किसी न किसी नाटक का मंचन होता ही रहता है ....नाटकों से जुड़े हुए बहुत बड़े बड़े संस्थान हैं....अधिकतर तो ये सब हिंदी भाषा में ही होते थे, और कभी कभी अवधी भाषा में भी नाटक देखने को मिल जाते थे ....

लखनऊ में जो सात-आठ साल रहे वहां पर बहुत से नाटक देखने को मिले ...नाटकों में काम करने वाले कलाकारों को देखने और उन को अलग अलग प्रोग्रामों में सुनने का मौका मिला ....वहां यह भी जाना कि मुंबई में जो लोग हिंदी फिल्मजगत में स्थापित हैं उन में से बहुत से कलाकार लखनऊ रंग मंच द्वारा ही तैयार किए गये हैं....कलाकार ही नहीं, बॉलीवुड के बहुत से लेखक भी लखनऊ द्वारा तैयार किए गए हैं.....

लखनऊ में जितने हिंदी के नाटक देखे उन के नाम याद करना मेरे लिए बहुत मुश्किल काम है ....शायद 2013 में जब नए नए लखनऊ में गए तो वहां पर असगर वज़ाहत के नाटक - जिस लाहौर नहीं वेख्या, ओ जम्मेया ही नहीं....। यह बहुत अच्छा नाटक है, आप यू-ट्यूब पर इसे देख सकते हैं। बहुत से नाटक और भी देखे ..लेकिन वहां पर टिकट नहीं लगती थी, सब कुछ मुफ्त देखने को मिलता था ...दर्शकों के लिए तो बढ़िया है लेकिन नाटकों के लिए, नाटकों की सेहत के लिए, कलाकारों के लिए तो ठीक नहीं है ....तब भी बातें चल तो रही थीं कि नाटक देखने के लिए टिकट होनी चाहिए....

लखनऊ में रहते हुए ही नादिरा बब्बर के कुछ नाटक देखने को मिले ...जो उन्होंंने लिखे भी थे, और निर्देशन भी उन का ही था....क्या बेहतरीन नाटक लिखे थे....जूही बब्बर ने भी उन में काम किया था....मैं तो हिंदी नाटकों को देख कर दंग रह जाता था कि इतने इतने लंबे  ़डॉयलाग याद करने .....और पूरी परफेक्शन के साथ उन को निभाना ...वाह वाह .....👍

रंग मंच एक अद्भुत विधा है ...मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी के साथ साथ अपनी मातृ-भाषा में नाटक पढ़ने-देखने चाहिए...बहुत कुछ होता है इन से सीखने के लिए ....हमारे अंदर तक ये अपना प्रभाव छोड़ते हैं ....शिक्षित करते हैं.....देखने चाहिएं जब भी मौका मिले ....मराठी और हिदी के बारे में तो मैं कह सकता हूं ....इंगलिश नाटकों के बारे में मुझे कुछ इतना ज्ञान नहीं है....जिन को मैं देखने गया वह मेरी समझ से ऊपर के थे, शेक्सपियर के या गेलिलियो इत्यादि.....कुछ भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा ...और जो इंगलिश के नाटक मेरी समझ में आ जाएं, उन की देखने की मेरी कभी इच्छा हुई नहीं ..वैसे ही ....टाइम्स ऑफ इंडिया में आते हैं इन के भी विज्ञापन अकसर ...लेकिन कभी नहीं गया देखना.....शायद कभी कभी हिंदी नाटक के विज्ञापन भी मुंबई की टाइम्स आफ इंडिया में आते हैं....

मैने उन सज्जन को कहा कि इसे ज़रा पकड़िए मुझे एक फोटो खींचनी है ...

यह पोस्ट किस लिए.....सिर्फ एक सलाह देने के लिए कि अगर आप नाटक देखने नहीं जाते तो जाना चाहिए ...जिस भी भाषा में आप को पसंद हो, जाइए....और हां, नाटकों की किताबें भी पढ़िए.....और हां, किताबों से याद आया.....कल ट्रेन के जिस डिब्बे में चढ़ा उस में एक सज्जन एक किताब के पन्ने उलट पलट रहे थे ...जिज्ञासा हुई ...क्योंकि यह जो प्रजाति (मैं भी उसी एन्डेंजर्ड स्पीशिस से ही हूं)  में अखबार हाथ में लेकर चढ़ती है या अपने थैले में से कोई किताब निकाल कर पढ़ने लगती है यह भी लुप्त होने की कगार पर ही है .....और जो लिखने वाले हैं उन को तो हरेक से बात करनी होती है, बर्फ तोड़ने में कोई शर्म नहीं महसूस होती उन को ....मैंने भी उनसे ऐसे ही पूछ लिया कि क्या पढ़ रहे हैं, उस सज्जन ने बताया कि गीता प्रैस गोरखपुर की उपयोगी कहानियां पढ़ रहा हूं....कहने लगे कि मैंने तो पढ़ ली है, आप ले लीजिए, पढ़िएगा.....मैंने कहा, नहीं, आप पढ़िए....मैं भी ऐसी किताबों का संचय करता रहता हूं , पढ़ता भी हूं। फिर हम की बात गीता प्रैस गोरखपुर के बारे में होने लगीं कि किस तरह से वे सस्ते दामों पर श्रेष्ठ साहित्य उपलब्ध करवा रहे हैं....बस, दो मिनट में हमारा स्टेशन आ गया....जाते जाते बता कर गए कि प्रिंसेस स्ट्रीट पर गीता प्रैस गोरखपुर की दुकान है....मैंने भी कभी किसी ज़माने में गीता प्रैस की बीसियों किताबें खरीदी थीं, याद नहीं कितनी पढ़ी, कितनी ऐसे ही यहां वहां पड़ी अल्मारियों से झांक रही होंगी कहीं पड़ी, कितनी किताबों को तो दीमाक ही चाट गईँ....कोई बात नहीं, यह सब भी साथ साथ चलता है...

हां तो बात आज मराठी नाटकों की हो रही थी ....मराठी रंग मंच ने हमें एक से एक बेहतरीन कलाकार दिए हैं ....हिंदी सिनेजगत में ..किस किस का नाम लें, किस को ऐसे कैसे भूल जाए...इसलिए नाम किसी का भी नहीं लिख रहे हैं.....बस, इतनी गुज़ारिश है कि नाटक देखा करिए, पढ़ा करिए, अन्य भाषाएं पढ़ते हैं, अपनी मातृ-भाषा में भी लिखिए, पढ़िए, बोलिए .....और अपनी मातृ-भाषा में छपने वाले किसी अखबार को भी देखना अच्छा लगता है...ज़मीन से जुड़ी बातें और आम आदमी की खबरें उस में भी भरी पड़ी होती हैं ....वैसे मुझे मराठी में हो रही बातचीत सुनने में बड़ा मज़ा आता है ....लोगों में चल रही उस बातचीत मैं नए लफ्ज़ चुनने लगता हूं ....कुछ शब्दों के अर्थ के कयास लगा लेता हूं, कुछ के अर्थ बाद में किसी से पूछ लेता हूं ....और सब से खुशी मुझे लोगों के चेहरों को देख कर होती है जब वे अपनी मातृ-भाषा में बतिया रहे होते हैं ...