शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

पसंद नापसंद का तर्क ढूंढना अकसर बेहद मुश्किल ..

सही बात है ...कुछ भी चीज़ या इंसान हमें पसंद होता है या नापसंद होता है ...अकसर हम इस का कोई कारण भी नहीं बता पाते। मैं अकसर एक बंदे को याद कर के बहुत हंसता हूं ...मैं जहां काम करता हूं ..वहां काम करते मुझे कुछ महीने ही हुए हैं ..लेकिन एक इंसान मुझे एक ही बार ही मिला ...उस के बात करने का ढंग, उस का रंग-ढंग और उस के हाव-भाव कुछ इस तरह के थे कि अब वह मुझे कहीं भी बरामदे में दिख जाता है तो मेरी कोशिश होती है कि हम एक दूसरे से न ही भिड़ें ...क्योंकि उसे देखते ही मेरे ब्लड-प्रेशर में 20 प्वाईंट का उछाल तो ज़रूर आ जाता होगा...

मैं जब भी उस शख्स के बारे में किसी से भी बात करता हूं तो हम लोग बहुत हंसते हैं....खूब हंसी आती है ...और जिस भी जगह पर नौकरी के सिलसिले में रहे वहां एक-दो बंदे तो ऐसे मिल ही जाते हैं ....

गहराई से सोचता हूं तो समझने की कोशिश करता हूं कि ऐसा क्या होता है कुछ बंदों में कि कुछ के साथ बिना बात के भी बतियाने की इच्छा होती है और कुछ से हमेशा कन्ना कतराने की इच्छा होती है। लेकिन कुछ समझ में नहीं आता ..कोई तर्क भी इस में मदद नहीं करती दिखी ...बस, बहुत सी दूसरी चीज़ों की तरह कुछ लोग हमें पसंद आते हैं, कुछ को हम पसंद नहीं आते, कुछ हमें नापसंद होते हैं ...मुझे लगता है यह मानस की प्रवृत्ति ही होती होगी...

खैर, मुझे आज यह विचार इसलिए आया कि मैं आज जिस शहर में हूं वहां की अखबार देख रहा था ...हिंदी की अखबार ...लेकिन सारे पन्ने उलटने के बाद मुझे वह अखबार भी पसंद नहीं आई...अब यह बताना मुश्किल होगा अगर कोई मेरे से पूछे कि हां, भई, तुम्हें क्या बुरा लगा उस अखबार में .....पता नहीं यार, यह मेरे लिए कहना मुश्किल है, लेकिन मुझे वह अखबार अगली बार पढ़ने लायक लगी नहीं, और मैं उसे अगली बार कभी पढूंगा भी नहीं ...

अखबार से ख्याल आ रहा कि जैसे ही हमें पांचवी-छठी में अखबार का पता चला, हमने देखा हमारे घर में दो अखबार आते थे, चंडीगढ़ से छपने वाला इंगलिश का पेपर दा ट्रिब्यून और जलंधर से छपने वाला वीर प्रताप जो हिंदी का पेपर था ...मेरे पिता जी को हिंदी न आती थी, वह ट्रिब्यून पढ़ते थे और मेरे बड़े भाई-बहन का अंग्रेज़ी का शब्द-ज्ञान टेस्ट करते थे पेपर को पढ़ते हुए और मेरी मां हिंदी का अखबार घर के काम काज से फ़ारिग होने के बाद दोपहर में बांचा करती थी ...उस के बाद पड़ोस की कपूर आंटी और मां अपने अखबार एक्सचेंज कर लेतीं ...इस तरह वे दो अखबारें पढ़ लिया करती थीं...

अखबारों के बारे में मेरे स्ंस्मरण हैं जिन्हें सहेजने के लिए कईं लेख भी कम पड़ेंगे ...किस तरह से इंगलिश का हिंदु अखबार पढ़ने के लिए ...पूरे महीने के हिंदु अखबार किसी दूसरे शहर से मंगवाया करता था क्योंकि जिस शहर में रहता था वहां वह अखबार नहीं आता था... लेकिन आज तक इंगलिश के जिस अखबार से मैं सब से ज़्यादा मुतासिर हुआ हूं ...वह है टाइम्स ऑफ इंडिया ...और खास कर के इस का बंबई एडिशन ...खबरें आती हैं टीवी पर, रेडियो पर ...और ऑनलाइन भी लेेकिन मुझे टाइम्स ऑफ इंडिया के पन्ने उलटना ही अच्छा लगता है ...वही बात है अपनी अपनी पसंद नापसंद की ..

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक काफी-टेबल टाइप बुक ..जो शायद इन्होंने अखबार के 100 साल पूरा होने पर निकाली होगी ...वाह, क्या किताब है वह...किसी एंटीक शाप से हासिल हुई थी ...चार हज़ार मांग रहा था ..तीन हज़ार में खरीद ली थी ...क्योंकि मुझे तो वह खरीदनी ही थी ...उस का एक एक पन्ना फ्रेम करवाने की इच्छा होती है.. टाइम्स ऑफ इंडिया का सारा इतिहास-भूगोल उस में लिखा हुआ है ..कुछ किताबें आप को रोमांचित करती हैं, यह किताब वैसी ही है ...कभी इस के बारे में कोई पोस्ट लिखूंगा..

हर चीज़ के बारे में हमारी पसंद नापसंद मुख्तलिफ़ होती है, होनी भी चाहिए..फिल्में हों, फिल्मी गीत हों....ज़ुबान हो, ड्रेस हो ....कलम हो ..पेन हो ...कुछ भी हो ...सब को अपनी अपनी पसंद मुबारक ... इसीलिए इस दुनिया की विविधता भी बरकरार है ...

लता जी के अच्छे स्वास्थ्य के लिए ढेरों शुभकामनाएं .... स्वर-कोकिला की आवाज़ का जादू !!

आज बहुत दिनों बाद यह गीत दिख गया ...जिसे सुनना भी बहुत पसंद है ...😂

गुरुवार, 27 जनवरी 2022

बड़े शहरों की हदों तक ही है आज भी यह आपाधापी

सच में पता नहीं यह रेस कहां जा कर खत्म होगी, खत्म होगी भी कि नहीं ...बड़े शहरों में, मैट्रो सिटीज़ में दौड़ अंधाधुंध है ... लेकिन एक बात का मुझे आज ख्याल आ रहा था कि किसी भी शहर में आप जाइए....एक तो होता है शहर का नया रूप ...जो मुझे बेहद नीरस, अजीब सा लगता है ...हर तरफ़ मॉल, बड़े बड़े टावर, मल्टीप्लेक्स, बडे़ बड़े स्टोर....मुझे ये सब फूटी आंख नहीं सुहाते ...लेकिन मैं जैसे ही उस शहर के पुराने इलाकों की तरफ़ निकल जाता हूं तो मुझे एक इत्मीनान सा होता है ...

शहरों के पुराने इलाके हों या शहर के बाहरी इलाके...लगता है सब कुछ अभी भी ठहरा हुआ है ...अब विकास की परिभाषा हरेक की अलग है...हम कौन होते हैं किसी के लिए विकास की परिभाषा तय करने वाले ...हमारे एक ब्लॉगर मित्र हैं ...अनूप शुक्ल जी ...ऑर्डिनेंस फैक्टरी में महाप्रबंधक हैं...बहुत अच्छा लिखते हैं...मैं उन्हें 15 साल से पढ़ रहा हूं ...कुछ दिन पहले उन्होंने लिखा कि किसी भी शहर को जानने के लिए उस से दोस्ती करने के लिए उस के रास्तों को पैदल नापना बहुत अच्छी बात है, और अगर यातायात के किसी साधन का इस्तेमाल कर रहे हैं तो जितना धीमा वह साधन हो, उतना ही अच्छा. मुझे उन की यह बात बहुत अच्छी लगी ....क्योंकि हम ख़ुद भी इसी बात की हिमायत करता हूं ..

यह दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे ... बहुत खूब!👍

खम्मन-सेव ...वाह..वाह, मज़ा आ गया!


शहरों के पुराने इलाके में अभी भी ज़िंदगी दिखती है ...लोगों के पास एक दूसरे के साथ बैठने का वक्त है ...आते जाते देखते हैं कि आंगने में, यह दहलीज़ पर ही घर के दो तीन लोग बातचीत में मशगूल हैं ...कहीं पर तो अड़ोस पड़ोस के दो-तीन बुज़ुर्ग किसी झूले पर बैठे गप्पे हांके दिखते हैं...सुकून उन सब के चेहरों पर लिखा क्या, खुदा होता है ...यह हमें अच्छे से पढ़ना आता है ...पुरानी चारपाईयों पर आज भी पापड़ सूखने के लिए बिछे हुए दिखाई देते हैं ...अब हम कहां कहां की तस्वीरें खींचे...उस में पिटने का भी तो डर होता है ...उम्र देख कर अगर कोई गिरेबान न भी पकड़ेगा तो जलील तो कर ही देगा कि क्यों ये सब तस्वीरें ले रहे हो...





बच्चों के पास भी आपस में खेलने का वक्त है ...वे जैसे खुली फ़िज़ा में कुदरत के सान्निध्य में ज़िंदगी के सबक पढ़ रहे होते हैं ...शहर के पुराने इलाकों में गाय-भैंस भी दिख जाती हैं, उपले बनते भी दिखते हैं और उन को सुखाने में लगी महिलाएं भी ...उपलों के दाम आजकल हैं ..100 रूपये में 100 उपले...मुझे याद है जब बचपन में हमारी मां रोज़ तंदूर पर रोटियां लगाती थीं तो एक बोरी में भर कर कोई साईकिल पर ये उपले देकर जाता था ....2 या तीन रूपये की एक बोरी। और उस पर भी नाटक यह होता था अकसर कि उपले सूखे ही होने चाहिए...😂



क्या यार, तू भी न, जब देखो शहर ही में पड़ा रहता है..आए दिन सिरदर्द से बेज़ार, निकल वहां से अब तू भी..हो गया अब, और क्या चाहिए तुझे.... साईकिल उठा और भारत भ्रमण पर निकल जा (अपने आप से गुफ्तगू)😂

सभी शहरों के पुराने रूप मुझे तो एक जैसे ही लगते हैं....सुकून से भरे, फु़र्सत से लबरेज़, इत्मीनान, सब्र की बख्श हासिल किए हुए ...छोटी छोटी दुकानदारीयां जिन्हें देख कर मुझे बिना वजह डर सा लगता है कि इस दुकानदारी से क्या पा लेते होंगे ...बिल्कुल खामखां - बिल्कुल जैसे अंबानी-अडानी को मुझे नौकरी करते देख कर डर लगने लगे कि कैसे करता होगा यह गुज़ारा नौकरी कर के ...!!

 फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत के बावजूद एसटीडी बूट पर चूना लगाने की कोई परवाह नहीं ...

कुछ इस तरह के रिमांइडर मैं अपनी हस्तलिपि में लिख कर सहेज लेता हूं...😎

शनिवार, 22 जनवरी 2022

सार्वजनिक जगह पर कब्जा करना भी आर्ट है ...

मज़हब बड़ा संवेदनशील मुद्दा है भई इस देश में ...कोई खुल कर बात नहीं करता....डरे-सहमे से बात करते हैं ....और जब किसी धर्म के नाम पर किसी जगह पर कब्ज़ा होने की बात होती है तो वह भी बड़ा सोच विचार कर होती है ... 

एक साल हो गया होगा ...मेरे मोबाइल में फोटो भी हैं ...मैं कल्याण में टहलते हुए देखा करता था कि रेलवे के ग्रांउड के बाहर किसी एक दीवार से टिका कर किसी ने लोहे का एक फ्रेम सा रख कर, उस के सामने सरसों के तेल का दिया जला रहा था ...और उस के सामने एक बंदा चुपचाप बैठा अजीब अजीब सी हरकतें कर रहा था, हिल ढुल रहा है ...सिर हिला रहा था...बस, जो भी था अपने को कोई पहुंचा हुआ पीर-फकीर दिखाने की कोशिश कर रहा था ...पहुंचा हुआ न भी सही तो कोई नौसीखिया सा ही समझिए...जिसने नया नया इस धंधे में पांव रखा हो...


जी हां, एक धंधा ही है यह भी किसी जगह पर कब्ज़ा करना ...समझने वाले लोग समझ जाते हैं कि कब्ज़ा होने की शुरूआत कैसे होती है ..यही कोई मूर्त, कोई और पत्थर, फूल, तेल ....कमबख्त बिल्कुल तांत्रिक से लगते हैं ऐसा करने वाले ..लेकिन वे सब कुछ बड़ी प्लॉनिंग से कर रहे होते हैं...और अपनी पब्लिक को किसी भी झांसे में आते देर नहीं लगती....आस पास के लोगों में दो चार पांच औरतें जो नरम दिल होती हैं वे उस पाखंड़ी को पहले तो कभी कभी रोटी-खीर पहुंचाने लगती हैं, फिर उस के दिए में तेल...फिर कुछ नकदी ..फिर कुछ उपाय पूछने लगती हैं कि पति की दारू कैसे छुड़वाऊं, बेटे का पढ़ने में दिल लगे, उस के लिए क्या करूं, बाबा...

लिखते लिखते निर्मल बाबा याद आ रहा है ....वह भी बड़े अजीबोगरीब उपाय सुझाया करता था ...पहले जब हम लोगों टीवी देखते थे तो मैं रोटी खाते वक्त उस का प्रोग्राम मनोरंजन के लिए लगा लिया करता था. 

बहरहाल, शामलाट जगहों पर कब्ज़ा करना एक आर्ट एंड साईंस दोनों हैं ....लोगों को ऐसे ही फुद्दू से कामों में उलझाए रखना होता है और यह काम इतना लो-प्रोफाइल रख के आहिस्ता आहिस्ता करना होता है कि उस रास्ते से गुज़रने वाले पढ़े-लिखे तबके को इस की भनक भी न पड़े, वैसे भी यह तबका अपने काम से काम रखता है ...उस के पास तो पहले ही से ख़ुद की सिरदर्दीयां कम हैं कि वह इन सब बातों पर ध्यान दे....और जिस विभाग की जगह होती है, वे भी अकसर तब तक सोए रहते हैं जब तक वहां पर पक्के कमरा टाइप न बन जाए, कोई धार्मिक जगह न बन जाए ...फिर देखे कोई उस बाबे को वहां से उठाने की ...

जहां मैं रहता हूं ...वहां भी पास ही एक बुज़ुर्ग महिला ने एक धार्मिक स्थान की स्थापना कर रखी है ...उस का ठिकाना वही है.....कईं बार गुज़रते देखता हूं वहां पर धार्मिक गीत लगे होते हैं और वह अजीबो-गरीब तरीके से ताली बजा बजा कर सिर हिला रही होती है ...क्या है न इतनी मेहनत तो करनी पड़ती है लोगों को अपनी तरफ़ खीचने के लिए....या दूर रखने के लिए....अगर उस का यह दैवी रूप देख कर कोई चढ़ावा चढ़ा गया तो बढ़िया ....और अगर उस को इस हालत में देख कर कुछ लोग डर तक दूर रहते हैं उस जगह से, बच्चों को उस के पास फटकने से मना करते हैं तो भी उस के लिए तो यह भी ठीक ही है ....और रहे टांवे टांवे मेरे जैसे लोग लगभग नास्तिक से लोग ...जिन्हें न तो इस असर की बेवकूफियां अपनी पास खींच पाती हैं, न ही दूर रख पाती हैं ....उन के पास अपना हथियार है ....वे कागज़ पर लिख कर अपनी भड़ास निकाल लेते हैं....


दो चार दिन पहले भी मैंने शाम के वक्त देखा कि एक औरत ने फुटपाथ पर किसी हवन-कुंड में आग जला रखी है और वह उस से चार पांच गज़ दूर बैठ कर ज़ोर ज़ोर से तालियां मारे जा रही थी...मुझे भी यह सब सूंघते कहां देर लगती है कि यह इस फुटपाथ को हड़पने की नौटंकी की शुरुआत भर है ....लोगों के मन में डर, खौफ़, कौतूहल, रोमांच पैदा करिए और अपना मतलब साधिए.....

वैसे ही लोग अंधविश्वास का चश्मा लगाए घूमते हैं ....कितनी शर्म की बात है कि आज भी देश के कईं हिस्सों में विधवा, बुजुर्ग औरतों को बेकाबू भीड़ यह कह कर मौत के घाट उतार देती है कि यह औरत बच्चों पर जादू-टोना करती हैं, बच्चे उठा कर ले जाती है....क्या यार, एक विधवा, असहाय, बुज़ुर्ग महिला क्या बिगाड़ लेगी कमबख्तों आप लोगों का ...जीन लेने तो उसे भी चैन की ज़िंदगी ...ऐसी महिलाओं की कुछ मदद करने की बजाए सिर फिरे लोग उन के साथ बड़ी बुरी तरह से पेश आते हैं ...पत्थर मारते हैं, पत्थर मार मार कर ही मार गिराते हैं ...इसीलिए मैं किसी धर्म-वर्म के चक्कर में बिल्कुल नहीं हूं....बस, एक ही धर्म को जानता हूं जिस में हर इंसान के साथ एक इंसान की तरह बर्ताव करना सिखाया जाता है ...बिना किसी भी तरह के भेदभाव के ....

सार्वजनिक जगहों पर कब्ज़ा करने के बारे में और भी बहुत सी बातें मन में उमड़-घुमड़ रही हैं ...लेकिन इस वक्त लिखने की फुर्सत नहीं है, अभी नहा-धो कर काम पर जाना है ...लिखने का क्या है, एक बात लिखने लगो तो अल्फ़ाज़ पीछे ही पड़ जाते हैं कि हमारे बारे में भी लिक्खो, हमारे बारे में भी तो कुछ कहो ...हमें भूल गए....क्यों भई.....चलिए, आज की बात को यहीं विराम देते हैं...