मुंबई के महालक्ष्मी लोकल स्टेशन से ऊपर आकर इधर-उधर थोड़ा नज़रें दौडाएं तो फ़ौरन महसूस हो जाता है कि इस के आस पास सारा फ़लक ही कितना बदल चुका है...हर तरफ़ गगनचुंबी इमारतें जो बीस साल पहले न थीं...हर तरफ़ आकाश निर्बाध दिख जाया करता था..लेकिन आकाश ही क्यों, कुछ तो ज़मीन भी बदल गई - स्टेशन से थोड़ी ही दूरी पर पास ही जो महालक्ष्मी प्रिंटिंग प्रैस हुआ करती थी, अब उस की जगह एक खंडहर है ...मैं ेएक साल पहले साईकिल चलाता हुआ एक दिन सुबह उधर निकल गया था...मुझे नहीं पता अब वह ढह गई या वैसे ही पड़ी है...
मुंबई में रहते हुए कुछ साल बीत गये होंगे जब 1995 या उस के एक दो साल बाद यह मालूम हुआ कि रेस-कोर्स में घोड़े ही नहीं दौड़ते, लोग सुबह-शाम टहलते भी हैं...बॉम्बे सेंट्रल में जहां रहते थे वहां से 12 वें माले से रेस-कोर्स की हरियाली नज़र आती
थी...बारिश के दिनों में उधर देखना ही कितना सुखद हुआ करता था...
मुंबई वासियों के कभी न हार मानने के इसी जज़्बे पर मैं फ़िदा हूं....जीवन चलने का नाम...घुटनों की ऐसी की तैसी...चलेंगे कैसे नहीं 😄😎! |
एक बार जब पता चला कि रेस-कोर्स में सुबह टहलने भी जाया जा सकता है...तो मैं कईं बार सुबह सुबह या कभी शाम के वक्त उधर निकल जाया करता। ज़्यादातर तो स्कूटर पर ही चला जाता, कभी कभी ट्रेन तक महालक्ष्मी और वहां से पैदल चल कर रेस-कोर्स तक जाने में 10 मिनट लगते थे..वहां जाकर कर दो चक्कर लगाता ...शायद पौने दो किलोमीटर का वॉकिंग ट्रैक है ...अच्छा तो लगता ही है जब हम सुबह -सवेरे इन हरी भरी जगहों पर जा पहुंचते हैं...एक तो क़ुदरत की अनुपम छटा, ठंड़ी ठंडी हवा के झोंके ...और उस वक्त मेरा नया नया खरीदा हुआ सोनी का वॉकमैन ...
उन्हीं दिनों हाजी हली के सामने हीरा-पन्ना कम्पलेक्स से 1500 सौ रूपये में सोनी का एक वॉकमैन खरीदा था....जब भी मैं इधर टहलने आता -सुबह या शाम कभी भी ...तो यह मेरा बढ़िया साथी हुआ करता था...उसे मैं वेस्ट-पाउच पर दो कैसटों के साथ टांग लेता और टहलते हुए दिल तो पागल है (गाना सुनने के लिए इस लिंक पर क्लिक करिए), दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे, और एक फिल्म थी अब ध्य़ान में नहीं.....लेकिन यह जो दिल तो पागल है वाली कैसेट थी न, इस की तो ए और बी साइड को बदल बदल कर सैंकड़ों बार उस के गाने सुन कर भी दिल न भरता था...
सैंकड़ों बच्चों को एक साथ फुटबाल खेलते देख कर अच्छा लगा.... |
इन बाज़ों के दिल में क्या चल रहा है, मैं यह समझ नहीं पाया.... |
सोचा मैं एक सेल्फी ही ले लूं... |
अभी कुछ दिन पहले भी एक दिन रविवार की सुबह उसी रेस-कोर्स में लगभग बीस बरसों बाद जाने का मौका मिला ... वहां तो ऐसे लग रहा था जैसे मेला लगा हुआ हो कोई...बहुत से लोग आए हुए थे...हां, मुझे याद आया जब मैं 1990 के दशक की बात करता हूं तो तब मोबाइल फोन भी न थे, शायद किसी किसी के पास पेजर वेजर दिखने लगे थे। मुझे याद है उन दिनों एक्ट्रेस नादिरा, बिंदु और सतीश शाह अकसर वहां पर सुबह या सवेरे टहलते दिखते थे...नादिरा और बिंदु तो साथ में आती थीं और हमेशा गुफ़्तगू में मशगूल दिखतीं ...हंसती-मुस्कुराती हुई। कुछ दिन पहले जब हम वहां थे तो एम्एच्ओर राइडर्स क्लब में कंगना रानौत घुड़सवारी करती दिख गई ..देख कर अच्छा लगा कि कुछ लोगों पर अपने शौक पूरे कर लेने की धुन अच्छी सवार होती है ....अभी सीख रही है घुड़सवारी...उसी वक्त मेरा ख़्याल उस वॉयरल वीडियो की तरफ़ गया जिसमें वह एक डम्मी-घोड़े पर सरपट भागी जा रही है....लेकिन उसने लगता है कि ठान लिया कि अब तो मैं झांसी की रानी की तरह घोड़े पर सरपट भाग कर ही दम लूंगी....बहुत अच्छे, ऐसा ही जज़्बा दरकार है कुछ भी करने के लिए।
रेस-कोर्स में एक वाकिंग टैक है जो सुबह चार घंटे और शाम को शायद तीन घंटे तक खुला रहता है ...शाम को शायद चार से सात बजे तक और सुबह पांच से नौ बजे तक ....इसे ऑनलाइन चैक कर लीजिए ..वहां पर भी बोर्ड लगा हुआ है। मुझे अभी लिखते हुए ख़्याल आ रहा है कि अभी तो लंबे समय से रेसिंग बंद है ...लेकिन बीस साल पहले जिन दिनों में मैं वहां जाता था, कईं दिनों वाकिंग ट्रैक के साथ वाले ट्रैक में जॉकी घोड़ों पर रेस की तैयारी करते भी दिखते थे...एक दम दुबले-पतले से लड़के घोड़ों पर चढ़े हुए और हवा से बातें करते हुए....पंजाबीयों में तो सेहत की निशानियां यह तो रही ही हैं...गालों और पेट का बाहर निकला हुआ होना...मैंने एक बार ऐसे ही जॉकीयों का ज़िक़ करते हुए यही दुबले-पतले लफ़्ज़ का इस्तेमाल कर दिया ...जिस के सामने कहा था, उसने मुझे इतना ही कहा कि तुम्हें उन के फिटनेस लेवल का कुछ इल्म है कि वे अपनी फिटनैस के लिए और अपने वज़न को एक किलो भी इधर-उधर न होने दोने के लिए क्या क्या करते हैं...ये जॉकी करोड़पति भी हैं जिन की फिटनेस के ऊपर रेस के घोड़ों की जीत हार मुन्हसिर होती है...
लिखते लिखते कल वाट्सएप पर हासिल हुई इस वीडियो का ख्याल आ गया...
मैं तो अब महालक्ष्मी रेस-कोर्स से काफ़ी दूर रहता हूं और टहलने के लिए वहां जाना मेरे लिए संभव नहीं है, लेकिन जो दोस्त पास ही में रहते हैं ...उन्हें वहां जाने का मशविरा ज़रूर दे सकता हूं...शायद जाते भी हों, लेकिन यहां वाट्सएप के आंकड़ों के आगे बात ही कहां हो पाती है किसी से। सुबह शाम टहलने के लिए अच्छी जगह तो है ही ....जिस दिन मैं वहां गया मुझे वहां टहलते हुए बड़ी बड़ी गगनचुंबी इमारतें देख कर यही लग रहा था जैसे मैं न्यू-यार्क के किसी नेबरहुड में हूं ...सूरज देवता उदय हो रहे थे तो जब हमें उस उदय हो रहे सूरज की सतरंगी, अनुपनम छटा के अच्छे से दीदार न हो पा रहे थे तो एक बार तो लगा कि ये स्काईस्क्रेपर जैसे यहां टहलने आए लोगों के हिस्से का सूरज भी हड़प लेने की फ़िराक में हों...लेकिन वो अपनी बॉलकनी में चाय की चुस्कीयां लेते सोचते होंगे कि हमें हमारे हिस्से की हरी-भरी जमीन, समंदर तो मयस्सर हुआ ...
वहां टहलते हुए भी वाट्सएप ने पीछा न छोड़ा ... एक इश्तिहार दिख गया...उस का मतलब क्या है, बेटे ने बता तो दिया लेकिन मुझे उस फीचर में कुछ ज़्यादा दिलचस्पी लगी नहीं...क्या एक बार और क्या अनेक बार ....जब कहीं पर कोई फोटो शेयर कर ही दी तो वह आप के हाथ से तो गई ...कोई उसी वक्त स्क्रीन-शॉट ले ले या दूसरे कैमरे से फोटो खींच ले और आप बिला वजह ख़ुशफ़हमी में रहिए कि हमारा तो यह फीचर एक्टिव है....
खैर चलते चलते निगाह चली गई ...उन स्पैक्टेटर गैलरियों की तरफ़ जो रेस के दौरान खूचाखच भरी होती हैं...जिन बोर्डों पर रेस के नतीज़ें दिखा करते थे उन के भी चीथड़े उड़ चुके हैं...हां, उन गैललियों के पास ही लंबी लंबी लाइनों में बाज़ बैठे दिख रहे थे ...रेस कोर्स की तरह शायद वे भी रेसिंग शुरू होने का इंतज़ार कर रहे हों....लेकिन नहीं, रेस कोर्स तो अपने मालदार शौकीनों का इंतज़ार करे तो बात पल्ले पड़ती है लेकिन ये बाज़ किस फ़िराक में हैं, यह समझ में नहीं आया....चलो, यार, समझ में नहीं आया तो दफ़ा करो, दुनिया भर की चीज़ें सोचने समझने का ठेका हम ने ही थोड़े न ले रखा है, कुछ तो दूसरों के लिए भी छोड़ दिया जाए....
एक शायर कह रहे हैं....कुछ अल्फ़ाज़ में मैने गड़बड़ कर दी है शायद, लेकिन खूबसूरत बात जो उस शायर ने कह दी है कि थोड़ी सी नादानी भी रह जाए तो अच्छा ही होता है ....दूसरों के लिए भी, अपनी सेहत के लिए भी...😄
दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है...
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला...
वहां से लौटते हुए नज़र पड़ गई कुछ घास काटने वालों पर ....गोरखपुर से हैं, यहां पास ही में रहते हैं...ठेकेदार के बंदे हैं....शाम तक घास के जितने गट्ठे काटेंगे, उस के मुताबिक ही पेमेंट होगी, एक गट्ठे में 2-3 किलो घास रहती होगी...जिस के दो रूपये साठ पैसे मिलते हैं...कोई सौ काटे,दो सौ काटे ...उसी के हिसाब से पेमेंट...ठेकेदार के अपने ट्रक-ट्रालियां हैं जिन पर लाद कर यह घास गाय-भैंसों के लिए तबेलों तक पहुंच जाती है ...उन्हें यह अच्छा नहीं लग रहा था कि इस चारे को बिना काटे ही डाल देते हैं सेठ लोग अपने पशुओं को ..कह रहे थे कि वे भी क्या करें, 100-150 पशु पाले होते हैं उन लोगों ने भी ....मैने पूछा कि दोपहर के खाने का क्या करते हैं, बताने लगे सब कुछ साथ ही लाए हैं...पांच किलो की एक प्लास्टिक की बोतल भी सब ने अलग अलग पास ही रखी हुई थी...और खाना भी ...देर शाम तक काम करते रहेंगे...नवंबर के आखिर तक रेसें शुरु हो जाएंगी शायद ..
मुझे किसी ने बताया था कि इतने बड़े घास में सांप भी होते हैं ..उन्होंने कहा कि होते तो हैं हमें कुछ नहीं कहते, हम उन्हें कुछ नहीं कहते ...वे हमें दिखाई देते हैं, लेकिन तुरंत दूर कहीं निकल जाते हैं...उन्होंने यह भी बताया कि उन्हें कुदरत सांप के पास होने का अलार्म दे देती है ...वह कैसे....आकाश में उड़ रहे पंछियों की तरफ़ इशारा कर के बताने लगे कि ये पंछी आते जाते रहते हैं, मस्त-मलंग उड़ते हैं लेकिन अगर ये कभी कहीं ठहर जाएं और ऊंची ऊंची आवाज़ें निकालने लगें तो इस का मतलब इन्होंने किसी ऐसे प्राणी को देख लिया है .....बस, हम उस वक्त सचेत हो जाते हैं...
उन से बातें करते वक्त मैं यही सोच रहा था कि कुदरत के भी कैसे कानून-कायदे हैं......ज़रूरत है तो बस क़ुदरत के कायदों को थोड़ा बहुत पढ़ने की ....इन कायदों के साथ मिल-जुल कर रहने की ....वाट्सएप पर बहुत से मैसेज आते रहते हैं....मुझे भी एक ऐसा ही मैसेज याद आ गया और मैंने उन्हें हंसते हंसते कह दिया कि यार, यहां तो पब्लिक अपना खाना हज़्म करने के लिए परेशान है सो आई है...और आप लोग इतनी खुली फ़िज़ाओं में सारा दिन रहते हो, अपना काम करते हो, ख़ुश रहते हो...वे सब मेरी इस बात पर ख़ूब हंसे और मैं उन के इन ठहाकों की मीठी खनखनाहट को अपने साथ लेकर बाहर आ गया, क्योंकि अब धूप भी हो चुकी थी... !