शनिवार, 13 मार्च 2021

मुंबई की लोकल ट्रेन में एक सफ़र

1991 से सन 2000 तक मुंबई की लोकल ट्रेनों में खूब सफ़र किया ...ज़्यादातर तफ़रीह के लिए ही इन में घूमने निकले...अधिकतर सफ़र मुंबई सेंट्रल से गिरगांव चौपाटी (चर्नी रोड स्टेशन), या मैरीन ड्राइव और कई बार नरीमन प्वाईंट तक अकसर रात में घूमने निकल जाते थे ... मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर ही रहते थे, बिल्डिंग से नीचे उतरे और लोकल में बैठ गए..पांच सात मिनट का सफ़र और पहुंच गए...वहां टहले, हवा के साथ साथ कभी कभी गिरगांव चौपाटी के सामने मशहूर कुल्फी खाई और एक-आध घंटे में वापिस ट्रेन पकड़ कर लौट आए...ज़रा सी भी बोरियत होती तो ऐसे ही निकल जाते ..और अगर कहीं नहीं जा पाए और बच्चों का मन कहीं जाने को मचल रहा है तो बिल्डिंग से नीचे आ कर बाम्बे सेंट्रल के प्लेटफार्म नं 5 पर 10 मिनट टहल आए...और बच्चे ट्रेनें, उन पर चढ़ने-उतरने वालों को देख कर ही ख़ुश हो जाया करते थे...

रात में उस वक्त लोकल ट्रेन खाली ही होती थीं...ज़रूरी नहीं होता था कि फर्स्ट क्लास में ही जाना है ...अगर गाड़ी प्लेटफार्म पर रुकी है और सामने सैकेंड क्लास का डिब्बा है तो उसी में चढ़ जाते थे ...यह तो था रात का सफ़र। उन दस सालों में अकसर हम लोग इसी तरह की प्लॉनिंग के साथ ही निकलते थे कि उस वक्त लोकल गाड़ीयां में भीड़-भाड़ न हो ... और बहुत बार तो रविवार के दिन ही घूमने निकलते थे ...जूहू बीच, फ्लोरा फाउन्टेन जैसी जगहों के लिए ...उम्र के उस दौर में घूमने का शौक कुछ ज़्यादा ही होता है और घुटनों का दम-खम भी उस शौक से मेल खाता है ..

उस के बाद भी यदा-कदा लोकल ट्रेनों में सफ़र तो चलता ही रहा ...लेकिन कोशिश यही होती की सीट तो मिल ही जाए ...और इंसान की लालसा देखिए अगर ट्रेन में बैठने की जगह है तो भी निगाहें ट्रेन की जाने वाली दिशा की विंडो-सीट पर टिकी रहतीं...ख़ैर, मुझे तो लोकल ट्रेन में ही सफ़र करना अच्छा लगता है ...शायद इस की वजह है कि मैंने इनमें इतना सफ़र किया है लेकिन इस में धक्के नहीं खाने पड़े....कुछ कुछ याद तो आ रहा कि पीक-ऑवर के दौरान शाम को चर्चगेट से मुंबई सेंट्रल या बांद्रा के लिए विरार फास्ट-लोकल से आया तो यह सबक बढ़िया से याद हो गया कि विरार-फॉस्ट लोकल में बांद्रा उतरने वाले को क्यों नहीं चढ़ना है ...बहरहाल, दो चार बार ही भीड़ भाड़ में सफ़र करने का मौका मिला ...और मुंबई वालों के लिए यह रोज़ की बात है ...फर्स्ट क्लास में भी इतनी भीड़ कि सफ़र के दौरान यही टेंशन बनी रही कि क्या बांद्रा में उतर भी पाएंगे ... और अगर उतरने को मिलेगा तो क्या सही सलामत उतर पाएंगे क्योंकि स्टेशन पर उतरने-चढ़ने की कशमकश में जेब-तराशी, चश्मा गिर जाना, चश्मा टूट जाना, छोटी-मोटी चोट लगने जैसा कुछ भी हो सकता है ...

लिखते लिखते एक ख़्याल आ रहा है कि मुंबई वालों की यह स्पिरिट माननी पड़ेगी कि जिसने लटक कर या जैसे भी एक बार लोकल-ट्रेन पकड़ ली, उसे वे जगह देना अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हैं ..कैसे भी कुछ भी कर के उसे पैर रखने के लिए जगह दे ही देंगे...मुझे इस शहर का यह जज़्बा बहुत हैरान करता है ...जिस तरह से लोग लोकल के दरवाज़े पर टंगे रहते हैं, कोई धक्का मुक्का नहीं ...बस, तुम चढ़ गए हो न, अब शांति से टिके रहो और अपने स्टेशन का इंतज़ार करो....यह देख कर भी एक सुखद अनुभूति होती है कि हर शहर का अपना एक तेवर होता है ...कईं बार सोचता हूं कि अगर इस तरह से दिल्ली में लोगों को सफ़र करना पड़े तो रोज़ ही हर गाड़ी के नीचे दस-बीस लोग ट्रेनों के नीचे दबे कुचले पड़े होते ...वहां पर धक्का-मुक्की के बिना कुछ होता ही नहीं .., अकसर लाठी वाला ही भैंस लिवा के ले जाता है ..इसलिए सलाम मुंबई..

उस दिन मैं रात 8.50 के करीब दादर पहुंचा ...मुझे कल्याण के लिए कोई फॉस्ट लोकल पकड़नी थी ...कल्याण फॉस्ट तो मिल जाती लेकिन शायद उस में बैठने की जगह न मिलती और वैसे भी ठाणे के बाद वह हर स्टेशन पर रुकती है, इसलिए सोचा कि थोड़ा इंतज़ार करता हूं ...कोई बाहर गांव वाली ट्रेन आ जाएगी ...वक्त थोड़ा ज़्यादा लगता है तो कोई बात नहीं, लेकिन उसी में कल्याण तक चले जाऊंगा ...पर पता चला कि बाहर गांव जाने वाली ट्रेन तो अभी वी.टी स्टेशन से ही नहीं चली ...वैसे भी मैं उस में ठाणे तक ही जा सकता था क्योंकि उस के बाद उसे पनवेल की तरफ़ से आगे जाना था ...लेकिन यह भी मंजूर था अगर वह तब मिल जाती ...

तभी एक इंडीकेटर से खोपोली फॉस्ट लोकल की सूचना मिली...खोपोली वी.टी स्टेशन से लगभग ढाई घंंटे की दूरी पर है ...वीटी से क्ल्याण एक घंटा और उस के आगे खोपोली डेढ़ घंटा ...जितनी लंबी की दूरी होगी, ट्रेन में उतनी ही ज़्यादा गर्दी रहेगी (मुंबईया भाषा में भीड़ का पर्यायवाची है गर्दी )....बंबई में रहने के दौरान इस बात की चिंता मुझे अकसर रहती है कि यहां से बाहर जाने तक अपनी हिंदी सही-सलामत रहनी चाहिए ...बड़ी मुश्किल से इसे लखनऊ में सात साल बिताने के बाद कहीं जा कर थोड़ा ठीक-ठाक गुज़ारे लायक किया है ...

अच्छा, तो उस दिन मेैं दादर से रात 9.01 की खोपोली फास्ट पर चढ़ तो गया लेकिन बरसों बाद ऐसी भीड़ में सफ़र कर रहा था ...कु्र्ला से और भीड़ चढ़ी और ठाणे से भी ... जिसे कहते हैं कि गाड़ी में पैर रखने की जगह नहीं, इस का अनुभव कभी करना हो तो आप भी मेरी तरह यह एडवेंचर कर लीजिए ..सब कुछ समझ में आ जाएगा..। अभी ट्रेन शीव स्टेशन से गुज़र रही थी तो स्लो-ट्रेक पर डोंबिवली एसी लोकल दिखी ...मैंने सोचा कि चाहे वह स्लो-ट्रेन है, हर स्टेशन पर रुकेगी ....लेकिन कुर्ला या घाटकोपर उतर कर डोंबिवली तक उसी में चला जाता हूं ..लेकिन दो चार दिन से घुटने में उठे अचानक दर्द की वजह से एक और एडवेंचर न करने में ही समझदारी समझी...सफ़र के दौरान मुझे मेरे फोन और बटुए की सलामती की फ़िक्र लगी रही ... बच्चे तो समझदार होते हैं...बेटे ने आज से 8-10 साल पहले मेरे साथ एक बार बेस्ट की बस में सफर किया था...उस का 40 हज़ार का नया फोन गायब हो गया सफ़र के दौरान ...उस दिन के बाद वह बस ही में नहीं बैठा कभी और लोकल ट्रेन में भी शायद दो चार बार ही कहीं मजबूरी में गया होगा...वह भी मेरे आग्रह करने पर। 

आप जब एक-आध घंटे के लिए इतनी भीड़ में किसी फॉस्ट-लोकल में सफ़र कर रहे होते हैं तो आप को अलग ही अनुभव होता है ....भय (चोट वोट लग जाने का, खीसा कट जाने का, कोरोना की चपेट में आ जाने का), रोमांच ( वाह! क्या फर्राटेदार हवा के झोंके), अचंभा (लोग कितनी मजबूरी में यह सब रोज़ झेल पाते होंगे) आदि -इत्यादि ....अकसर जिस स्ट्रेटजिक-प्लॉनिंग के बारे में आप लोग ज़ूम मीटिंग के दौरान पढ़ते-सुनते हैं ...उस डिब्बे में हो रही स्ट्रेटजिक-प्लॉनिंग के बारे में वे ज़ूम मीटिंग वाले पाठ आप को एकदम नीरस और बेकार लगने लगेंगे...क्योंकि ट्रेन के डिब्बे में चढ़ चुके या लटक चुके शख्स के लिए सवाल जिंदा रहने का है, सही सलामत परिवार तक पहुंचने का है ...कुछ लोग उस का बेसब्री से इंतज़ार किए जा रहे हैं....जो बाहर लटक रहा है उस की कोशिश यह रहती है कि कहीं अच्छे से पैर तो जम जाए ..और जो खडे़ हुए हैं ...वे भी सब त्रस्त हैं ....कोई सोच रहा है पैर तो ठीक से रख पाऊं फर्श पर, किसी के बैग ने उस के साथ साथ औरों का जीना दूभर किया हुआ है ...(मैंने तो अपना शोल्डर-बैग अपने पैरों के नीचे रख दिया था...और एक दीवार के साथ खड़े होने की जगह मिल गई थी) ...और जो सही सलामत खड़ा हुआ है वह बैठे हुए हर इंसान के हाव-भाव एक ही नज़र से ताड़ कर यह जान लेने को बेताब है कि क्या कोई उतरने वाला भी है इन में या ये सब भी दूर के राही हैं....

अच्छा, एक बार जो इस तरह की ट्रेन में घुस गया उसे भी चैन नहीं ....हो भी तो कैसे। कुछ तो मेरे जैसे लोग इसी उधेड़-बुन में रहते हैं कि क्या अपने स्टेशन पर उतर भी पाएंगे इतनी भीड़ में ...लेकिन जैसे बंबई की लोकल ट्रेन के बारे में लोग मज़ाक करते हैं ...कि इसमें चढ़ने या उतरने के लिए आप को कुछ नहीं करना होता ...यह काम भीड़ के धक्का-मुक्का अपने आप कर देती है...मेरे पास ही एक 70-75 साल के बुज़ुर्ग थे ...वे कुर्ला से चढ़े थे और उन्हें बदलापुर जाना था ....उन्हें यही चिंता सताए जा रही थी कि ठाणे या डोंबिवली उतरने वालों के धक्कों से वे अगर नीचे उतर गए तो क्या वापिस चढ़ भी पाएंगे ... वे बार यह बात दोहराए जा रहे थे ...मैं भी कोई लोकल ट्रेनों का खिलाड़ी नहीं हूं (इन के कानून कायदों से नावाकिफ़ ही हूं ...पिछले सप्ताह के 1200 रूपये की वॉटर-बाटल जो एक दिन पहले ही ली थी ...कल्याण से चढ़ते ही ऊपर ट्रेन के रैक पर रख दी ..और दादर उतरते वक्त भूल गया...पांच मिनट बाद ख़्याल आया कि हाथ कुछ खाली खाली से लग रहे हैं....खैर, तब तक तो चिड़िया खेत चुग ही चुकी थी....) ...मैंने भी उन्हें कहा कि आप नीचे उतरिए ही नहीं ...(जैसे यह उन के अपने हाथ में हो। अगर पीछे से धक्का आएगा उतरने वाले हुजूम का तो उस वक्त अपने फ़ैसले नहीं चला करते ...अपने फ़ैसले अपने दफ़्तरो में आम आदमी के सामने ही चलते हैं) ....लेकिन उन्हें इस बात की इतनी चिंता थी कि उन की यह बात सुन सुन कर एक मुंबई वाले को कंटाला आ गया है (वह ऊब गया) वह जिस दीवार से सटा हुआ था, वहां से हट गया और कहने लगा, ...चाचा, आप इधर दीवार के साथ आ जाइए, पहले आप की समस्या का समाधान तो करें। और वह बुज़ुर्ग खुश हो गए...क्या कहते हैं उन की जान में जान आई। 

अब मुझे वह कहने लगे कि कल्याण उतरना है तो बैग को कंधे पर अच्छे से डाल लो ...मैंने उनके कहने पर पैरों में रखे बैग को उठा लिया और एक कंधे पर डाल लिया ...लेकिन उन के फिर से कहने पर कि अच्छे से लटका लो, तभी आराम से उतर पाओगे ...मैंने उन की बात मान ली ... वैसे भी मैंने पैरों के बीच रखे हुए बैग को तो उठाना ही था, क्योंकि डोंबिवली स्टेशन पर जिस तरह से भीड़ उस डिब्बे से निकली मुझे लगा कहीं मेरा बैग भी उन के पैरों की ठोकर से नीचे न पहुंच जाए...खैर, अब अगला मुद्दा था कि कल्याण स्टेशन आयेगा किस तरफ़ ...दो तीन लोगों से पूछा ...सब ने कहा कि कभी इधर, कभी उधर ....एक ने सही से कहा कि आज तक कोई यह नहीं बता पाया कि किस तरफ़ आएगा ...यह तभी पता चलता है ...मैं उस दिन एक और हक़ीक़त से रू-ब-रू हुआ ....और फिर मैंने उसे कल्याण स्टेशन के प्लेटफार्मो की जानकारी से उसे को-रिलेट भी किया ...खैर, कल्याण स्टेशन आने वाला था और जैसे ही साइड का पता चला एक शोर सा मचा....खुशकिस्मती से यह तरफ़ ही था जिस तरफ़ के दरवाज़े की तरफ़ मैं खड़ा था...मैंने उन बुज़ुर्ग को अलविदा कहा और नीचे उतर गया ....रात के 9.51 बजे थे ....पचास मिनट का यह सफ़रनामा आप तक पहुंचा दिया ...आप तक पहुंचाने से भी कहीं ज़्यादा मुझे इसे अपनी डॉयरी में दर्ज करना था ....कुछ सबक़ होते हैं जो लेने ज़रूरी होते हैं ....इसलिए। कहते हैं कि गलतियां करना तो आदमी का स्वभाव है ...लेकिन वही वही गलतियां दोहरानी मूर्खता होती है .....किसी भी शख्स का आखिर वजूद है ही क्या, वह तो फ़क्त अपने अनुभवों का एक जीता-जागता पुलिंदा है ... इसलिए हर रोज़ कुछ गलती करता है, कुछ सबक सीखता है ...बस, यह सिलसिला मिट्टी में मिल जाने तक चलता रहता है ...

जितना मैं बोल चुका हूं ....अगर लखनऊ में होता तो कोई न कोई मुझे टोक देता ...यार, इतनी ज़्यादा बक...... मत कर, अब बस भी कर। मुझे भी वह लफ़्ज बोलने-सुनने में बड़ा मज़ा आता है, लेकिन वह लिखने में झिझक रहा हूं....समझने वालों को इशारा ही काफ़ी होता है....जैसे एक इशारा यह भी है कि पहले ज़माने में राजा लोग भेष बदल कर जनता-जनार्दन के बीच जाते थे ....उन की मुश्किलें उन्हें पता चलती थीं, उन के मिज़ाज की जानकारी हासिल करते थे फर्स्ट हैंड एकदम ....तभी तो वे आदर्श राजा कहलाए जाते थे ...सीधी सीधी बात है आम नागरिक के बीच में गए बगैर आप उन के डर, खुशी, उमंग में कैसे जान पाएंगे....उन में शामिल होना तो बहुत दूर की बात हुई। 

मुंबई छत्रपति शिवाजी टर्मिनस - सितंबर 2020 का एक दिन 

अभी इस पोस्ट को बंद करते करते ख्याल आ रहा है कि लॉक-डाउन के दौरान मैंने बहुत बार लोकल-गाड़ियों में तब भी सफर किया है जब उन में मैं अकेला ही हुआ करता था ...और अब ...उफ....आगे से रात के उस वक्त में दादर से खोपोली फास्ट लोकल लेने की गल्ती नहीं दोहराऊंगा ...देखते हैं अपनी बात पर कितना टिका रह पाता हूं!

शनिवार, 2 जनवरी 2021

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से ....

कितना खूबसूरत फ़रमाया जनाब गुलज़ार साब ने ...किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से....लेकिन आज उन को उठा कर पढ़ने की फ़ुर्सत कम हो गई दिखती है।

किताबों-रसालों की बातें याद आती हैं तो बचपन के दिनों में किराये पर लाकर जो कॉमिक्स और पत्रिकाएं पढ़ी हैं वही शायद पूरी शिद्दत से पढ़ी गई हैं ...वरना अपनी खरीदी हुई या कहीं से उपहार स्वरूप मिली किताबों की हम लोग अब कहां परवाह करते हैं... कहीं किसी रैक पर पड़ी धूल चाटती रहती है...अब जो है सो है ... आज का युवा सोचता है कि जो कुछ है नेट पर है, किंडल पर है, ई-बुक्स हैं, पीडीएफ है.....सब कुछ वहां पड़ा है। लेकिन मुझे लगता है ..यह मेरे जैसे लोगों का व्यक्तिगत मत हो सकता है कि इन सब के होते हुए भी किसी भी किताब की हार्ड-कापी हाथों में लेकर पढ़ना और नेट पर किसी पत्रिका को पढ़ना बिल्कुल वैसे ही दो अलग प्लेटफार्म हैं जैसे कि बचपन में हम लोग सिनेमाघर में जा कर फिल्म देखते थे और आज ओटीटी प्लेटफ़ार्म ...नेटफ्लिक्स, अमेज़ान आदि पर जो फिल्म देखते हैं ...मैं अपने बारे में कह सकता हूं कि मेरे लिए यह ज़मीन आसमां का फ़र्क है ....अब इसमें क्या ज़मीन  और क्या आसमां, आप समझ गए होंगे। 

सोचने वाली बात यह है कि जब हम खुद की खरीदी हुई अपनी पसंद की किताबें ही नहीं पढ़ते तो दूसरों से उपहार में मिली किताबें कहां पढ़ेंगे ... मेरे पास अपनी एक छोटी सी किताबों की लाइब्रेरी है... हर किताब मेरे पसंद की ...हिंदी, इंगलिश, पंजाबी और उर्दू ज़ुबान की किताबें हैं ...एक एक किताब अपनी खरीदी हुईं...पिछले सात-आठ साल से सोच रहा हूं कि इन में दो किताबें मुझे जल्दी से जल्दी पढ़नी हैं...फणीश्वरनाथ रेणु की महान् कृति मैला आंचल जिस पर फिल्म भी बन चुकी है ...और श्रीलाल शुक्ल की बहुचर्चित किताब राग दरबारी.... लेकिन मेरे से यह नहीं हो पाया....हर बार दस-बीस पन्ने पढ़ता हूं, फिर कोई दूसरा काम निकल आता है। 

 

 मैं कईं बार बैठा यही सोचता हूं कि जो पत्रिकाएं बचपन से लेकर 28-30 साल की उम्र तक किराये पर लेकर पढ़ी जाती थीं, उन्हें पढ़ना का एक अपना अलग ही मज़ा हुआ करता था। छुटपन से ही हम ने देखा कि हमारे घर अखबार के इलावा इलस्ट्रेटिड वीकली, धर्मयुग आता था .. और कभी भी सरिता भी । और चंदामामा और नंदन मैं साईकिल पर जा कर लेकर आता था ...इसके अलावा लोटपोट, मायापुरी और फिल्मी कलियां किराये पर ही लाकर पढ़ते थे ...फिर जब कॉलेज जाने लगे तो फिल्म-फेयर और स्टॉर-डस्ट भी किराए पर मिलने लगीं .. शायद एक रूपये रोज़ का किराया होता था ...आगे चल कर स्टार-डस्ट का दैनिक किराया दो रूपये हो गया था ...और जिस लोटपोट की मैं बात कर रहा हूं वे तो हम लोग तीन चार इक्ट्ठा ही ले आते थे ...25 पैसे प्रति लोटपोट के हिसाब से उसे सुबह लाईं 4 लोटपोट का एक रूपया देना होता था अगर उन्हें आप शाम तक लौटा दें ...वरना अगले दिन लौटाने पर दो रूपये देने होते थे .. लेकिन यह एक और दो रूपये का अंतर भी तो हम लोगों को राई और पहाड़ का अंतर दिखता था ....दिखता ही नहीं था, हमारी छोटी छोटी जेब को पता भी चलता था ...इसलिए घर पर लाते ही इन्हें पढ़ने को प्राथमिकता दी जाती थी। 

जैसे जैसे लोगों की जेबें बड़ी होती गईं ....इस तरह का साहित्य पढ़ने, पढ़ाने की बातें फ़िज़ूल समझी जाने लगीं ... रसाले छपने भी कम होते गए ....पहले एक परिवार जब सफर के लिए गाड़ी में चढ़ता था तो उस के पास एक ट्रंक, होलडाल, सुराही के साथ साथ बड़े-छोेटों के लिए दो-तीन रसाले भी ज़रूर हुआ करते थे जिन्हें प्लेटफार्म ही से खरीदा जाता था...

अकसर मैंने यह नोटिस किया है कि साहित्य पढ़ने-पढ़ाने को इतनी अहमियत नहीं दी जाती ....लेकिन हमारी आंखें खोलने के लिए, हमारे बौद्धिक विकास के लिए और दिलो-दिमाग का पैराशूट खोलने के लिए साहित्य बेहद ज़रूरी है ... दुःख की बात है कि स्कूल में भी लोग साहित्य को अच्छे से नहीं पढ़ते ....बस पी.सी.एम और पी.सी.बी में स्कोर करने के चक्कर में ऐसा फंसते हैं कि कभी भी किताबों की तरफ़ रुझान पैदा हो ही नहीं पाता...

मुझे जितना भी वक्त मिलता है कुछ न कुछ पढ़ने का कोशिश तो ज़रूर करता हूं ...मेरे विचार में हम सब को अपने पास एक किताब ज़रूर रखनी चाहिए ...कहीं भी जाएं ...जहां भी दस-बीस मिनट का वक्त खाली मिले कुछ न कुछ पढ़ना चाहिए...मुझे तो मेरी पढ़ने की आदत से बहुत फायदा हुआ है ...और रोज़ाना अखबार पढ़ने से मैंने जितना सीखा है उतना तो स्कूल-कॉलेज में भी नहीं सीखा...मैं हर किसी को कहता हूं कि पढ़ने की आदत डालिए ....हम कभी भी इतने तुर्रम खां नहीं बनेंगे कि हम कहें कि हम सब कुछ जानते हैं...हमें और कुछ जानने की क्या ज़रूरत .... किताबें हमारा सच्चा साथी हैं....इस से हम लोग सफर में, या कहीं और भी बेवजह की बे-सिर पैर की गॉसिप से भी बच जाएंगे ...जिस की वजह से सर ही भारी होता है ...और कुछ नहीं .... यह जो गॉसिप है इस से किसी का आज तक भला हुआ नहीं ...न तो आप किसी का कुछ बिगाड़ सकते हैं और न ही कोई दूसरा आप का बाल भी बांका कर सकता है ...किताबों की दुनिया को खंगालिए..। 

एक बात बतानी तो भूल ही गया ... मैं अकसर आते जाते कबाड़ी की दुकान पर बहुत सी अंग्रेज़ी की किताबें - नावल इत्यादि पड़े देखता हूं ..कुछ महीने पहले मैंने खुशवंत सिंह की लिखी एक किताब और उन के आटोग्रॉफ के साथ किसी को गिफ्ट की हुई रददी में पड़ी देखी ....मुझे बड़ा दुःख हुआ...और एक बार किसी नामचीन डाक्टर द्वारा लिखी गई एक किताब एक मुख्य-मंत्री और उस की पत्नी के नाम भेंट की हुई ...डाक्टर के हस्ताक्षर के साथ, मैंने रद्दी में पड़ी देखी ...उस दिन भी बहुत अफसोस हुआ ...यह सब इस बात का आइना है कि हम लोग किताबों की कितनी क़द्र करते हैं !

एक बात तो बतानी भूल ही गया ... मैंने कुछ अरसा पहले 50-60 पुरानी एक इलस्ट्रेटेड वीकली और धर्मयुग की एक प्रति को डेढ़ हज़ार रूपये में खरीदा ... ये अब कहीं मिलती नहीं लेकिन मुझे ये किसी भी कीमत पर ज़रूरी चाहिए थीं....और मेरे पास कुछ दुर्लभ किताबों में से एक 160 साल पुरानी डिक्शनरी भी है....जिसे भी भारी कीमत पर खरीदा गया ....बस इस तरह का खर्च करते वक्त मैं यह सोच लेता हूं कि मैंने चार-पांच पिज़्जा खा लिए (जो कि मैं कभी नहीं खाता..) ...इस से इस तरह की फ़िज़ूलखर्ची का झटका थोड़ा सा कम लगता है ... इन दुर्लभ किताबों में क्या है, क्या दबा पड़ा है, ये क्या संजोए पड़ी हैंं, इस के बारे में फिर किसी दिन बात करेंगे...

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

हम सब के चेहरों से जल्दी ही मॉस्क हट जाएं....काश!

मेरी तरफ़ से मेडीकल व्यवस्था से जुड़े हर एक शख़्स के लिए आज नववर्ष की शुभ बेला पर एक ही दुआ है- ईश्वर हम सब के चेहरों से जल्दी ही मॉस्क हटा दे .... शायद नए वर्ष का यह सब से बेशकीमती तोहफ़ा होगा..

आज कल नए वर्ष की शुभकामनाएं भिजवाना बड़ा सस्ता सा काम हो गया है ...हमारे ज़माने में नहीं हुआ करता था ...उन दिनों अगर आप को किसी को नये साल की ग्रीटिंग्ज़ भिजवानी हैं तो आप को दो चार पांच दस रूपये खर्च कर के उसे नए साल का ग्रीटिंग कार्ड भिजवाना पड़ता था....बहरहाल, यह तो एक पर्सनल सा मुद्दा हुआ। मुझे याद है कुछ लोग इस काम के लिए दर्जनों कार्ड थोक-रेट पर खरीद लिया करते थे...लेकिन हम लोगों ने ऐसा कभी भी ऐसा नहीं किया- एक तो इन बेकार चीज़ों के लिए इतने पैसे ही नहीं होते थे और दूसरा, इन सब चोंचलों की निरर्थकता बचपन से ही समझ आने लगी थी। 

मुझे तब भी ये सब कार्ड-वार्ड भिजवाना बड़ा नीरस सा काम लगता था (याद नहीं अभी तक दो-चार कार्ड भी किसी को भिजवाएं हों ...और आज भी सोशल मीडिया पर एक क्लिक से 256 लोगों को बधाई संदेश भिजवाने में मैं तो बड़ा गुरेज करता हूं...ग्रीटिंग कार्ड के ज़माने में भी जब हम किसी को हाथ से लिख कर ख़त भिजवाते थे या दूसरों से ऐसे हस्तलिखित संदेश पाते थे,  उसकी तो बात ही अलग हुआ करती थी..अब सोशल मीडिया के सस्ते दौर में कौन हिसाब रखता फिरे कि किस को शुभकामनाएं भेजी, किस को मिलीं और किस ने वापिस हमें तुरंत लौटाईं भी या नहीं। मुझे इन सब पचड़ों से बेहद चिढ़ है।😁

हम लोगों ने जैसा बचपन से देखा-सुना, आज भी वैसा ही करते हैं...सुबह उठ कर समूची कायनात के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर लेते हैं...और नए साल में भी किसी को भी फोन या मैसेज करने से कहीं बेहतर मुझे यही लगता है कि दुनिया के हर शख़्स, हर परिंदे और हरेक पेड़ के लिए यह वर्ष नई उम्मीद एवं नई उमंग, खुशियां ले कर आए...परिंदे गुलेल से, जानवर कसाई से और हरे-भरे पेड़ पढ़े-लिखे लोगों की कुल्हाड़ी से बचे रहें...मेरी यही अरदास है। और सब को रहने के लिए एक ढंग की जगह मिले, खाना-पीना ठीक से खाएं, स्वस्थ रहें और इतने खुश रहें सभी कि चिंताएं उन के पास फटक न पाएं....

यह सब लिखते लिखते मुझे एक फिल्मी गीत याद आ गया....कहने को तो यह फिल्मी गीत है, लेकिन मैं इसे एक भजन मानता हूं...यह मेरे दिल के बहुत करीब है...क्योंकि ये जिन मुद्दों की बात उठा रहा है वे सब मेरे दिल के बेहद करीब हैं....इसलिए मैं अपने आप को ज़मीन पर टिकाए रखने के लिए अकसर सुनता रहता हूं और जब भी इसे सुनता हूं तो भावुक हो जाता हूं...मुझे पूरी उम्मीद है कि आप ने भी इस के लिरिक्स की एक एक पंक्ति की तरफ़ ध्यान तो दिया ही होगा...गीतकार की अद्भुत रचना। एक बार तो मुझे यह भी ख्याल आया था कि इस अरदास भरे गीत के बोल लिख कर फ्रेम करवा कर अपने आसपास टांग लेने चाहिए.. ताकि ये सब बातें याद रहें कि दुनिया में अभी भी हर किसी को बराबरी, घर, दो जून की रोटी, सामाजिक न्याय मयस्सर नहीं है और इस के लिए निरंतर काम करने की ज़रूरत है जब तक कि लाइन में खड़े आखिरी इंसान तक उस का हिस्सा सम्मान के साथ न पहुंच जाए!

आज नए वर्ष बेला पर मैं भी यही अरदास कर रहा हूं ....

 

 ओह! मैं भी नए वर्ष की पहली सुबह ही कहां से किधर जा  निकला....बात तो सीधी सादी शुभकामनाएं देने की थी ...मेडीकल व्यवस्था से जुड़े हरेक वर्कर के लिए मैं आज यह दुआ करता हूं कि हरेक के चेहरों से मॉस्क हट जाएं...बहुत मुश्किल होता है सारा दिन एन-95 चढ़ा कर अपना काम करना, मरीज़ों से बोलना-बतियाना ....कुछ घंटों के बाद ही हालत खराब होने लगती है ...सर भारी हो जाता है और तबीयत नासाज़ - और पी पी ई किट डाल कर जो लोग पूरा दिन ड्यूटी कर रहे हैं उन को भी अब इस सब से मुक्ति मिले ....जल्दी से कोरोना का नाश हो और हम सब एक बार फिर से खुली फ़िज़ाओं में खुशनुमा हवाओं का लुत्फ़ उठा पाएं...और इस के साथ ही जन साधारण को भी इन नकाबों से मुक्ति मिले ...छोटे छोटे बच्चों को भी मॉस्क लगा कर बाहर निकालने की मजबूरी देखता हूं तो मन दुःखी होता है। एक ज़माना था जब मेडीकल स्टॉफ के अलावा अगर कोई दूसरा इंसान फेसमास्क लगाए दिख जाता था तो हम समझ जाया करते थे कि यह शख़्स किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त है, इस की इम्यूनिटि डॉउन है ... कोई बड़ा लफड़ा है इस के साथ। लेकिन अब तो फेस-मॉस्क सब के लिए सरदर्दी बन चुकी है ...लेकिन जब तक कोरोना का संकट इसे लगाए रखना और ठीक से लगाए रखना हमारी सब की मजबूरी है ...

एक तो मेरे जैसे दो कौड़ी के लेखक जो लगभग सभी हिंदी फिल्में कईं कईं बार देख चुके हैं , उन के गीत आत्मसात कर चुके हैं...उन को लिखते वक्त हर सिचुएशन पर फिल्माए गीत जैसे बीच बीच में आकर कहते हैं कि हमें भी तो इतना पसंद करते हो ..बार बार सुनते हो, हमारे बारे में भी कहो ..ठीक है बाबा, ठीक है .....कहे देता हूं ...तो जनाब यह गीत है हमारे बचपन में आई फिल्म सच्चा झूठा का ....फिल्म मुझे बहुत पसंद थी और यह गीत भी .... यह भी उन सब नकाबों की बात कर रहा है जो हम सब ने ओढ़ रखे हैं....इस गीत में एक जगह यह कहा गया है ..."सब ने अपने चेहरों के आगे झूट के परदे हैं डाले ....!" लीजिए, आप भी सुनिए हमारे बचपन के दौर के मेरे इस बेहद पसंदीदा गीत को ....😀