बुधवार, 6 मई 2020

कोरोना को धोते धोते कहीं ...

कल बाद दोपहर मैं फल खरीदने के लिए सड़क किनारे लगी एक रेहड़ी के पास रूका. वहां पर पहले से एक दंपति फल ख़रीद रहे थे ..मैं थोड़ा दूर खड़ा हो गया...मैंने देखा कि उन्होंने तो मॉस्क के नाम पर कुछ पहना तो हुआ है ...लेकिन उस फल वाले ने अपना मुंह नहीं ढका है ..मैंने उसे कहा कि मुंह ढके रखो...उसने झट से अपने पास ही पड़े गमछे को उठाया और यह कहते हुए कि अभी तो लगाया हुआ था ...उसने वह मैला-कुचैला कपड़ा अपने मुंह पर टिका लिया ...।

पिछले कुछ दिनों में कईं बार देखा है गुटखा, पान आदि चबाते लोग अपने मुंह पर लगी काली पट्टी नुमा लगे मास्क के इलास्टिक को थोड़ा इधर-उधर करते हैं, पीक थूकते हैं और वापिस उस मास्क को मुंह पर सेट कर के मुतमईंन हो लेते हैं...मेरा एक मित्र हंसते हंसते लोटपोट हो रहा था जब वह अपने दफ़्तर का किस्सा सुना रहा था कि वहां पर अंदर जाते वक्त किसी तरह की सोशल-डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो रहा था ..एक बात ...दूसरी बात जो उसे बड़ी अजीब लगी कि हर आने वाले शख़्स का दूर से तापमान देखने वाला कर्मचारी बीच बीच में मोबाइल पर बतियाए जा रहा था ....मुंह में पता नहीं सुपारी जैसा कुछ चबाए भी जा रहा था, दूसरे हाथ से एक मंजे हुए वैज्ञानिक की तरह लोगों को तापमान मापे भी जा रहा था...और खास बात यह कि अपना मॉस्क भी ऊपर-नीचे किए जा रहा था ..और मित्र ने बताया कि अपनी और दूसरों की सुरक्षा का इतना ढुल-मुल रवैया रखते  हुए भी कोरोना-वारियर वाला चोगा उसने पूरा चढ़ाया हुआ था।

दफ़्तर के अंदर जाने वाले किसी शख़्स से वह मुलाज़िम उलझ गया कि मुझे क्या पता कि तुम पैरासिटामोल खा कर आए हो ....अब वॉटसएप ने हरेक को इतना पढ़ा लिखा तो बना ही दिया है कि सामने से वह आदमी बोला कि ये जिन लोगों को अंदर घुसने दे रहे हो, तुम्हें क्या पता कि इनमें से कितने लोग घर से पैरासिटामोल खा कर आए हैं...।दोस्त कहने लगा कि यह जो हम लोग डिस्क्रिशन पॉवर का बडा हो-हल्ला मचाए रहते हैं न - यह भी फ़क़त बड़े साब लोगों की ही नहीं होती, ये हर इंसान के पास होती है ...अब यही इंसान की सुनिए, अगर फोन पर बात करते वक्त हो गई कुछ गर्मा-गर्मी तो सारा कानून, खुन्नस अगले इंसान पर कि तुम्हें मास्क लगाना भी नहीं आता और अगर मूड है खुशनुमा तो कोई बात ही नहीं, बीच बीच में "जान पहचान वाले"  एक दो लोग अकड़ कर सीधे घुसे जाते भी दिख जाते हैं...

और उस मित्र ने बताया कि दफ़्तर के अंदर जाने से पहले पैर से आप्रेट होने वाली हाथ धोने की और टूटी जिस के साथ ली गई बीसियों शेल्फ़ीयां वॉयरल हो गईं थीं, आज उस का पैर से दबाने वाला हिस्सा चालू ही नहीं हो रहा था ...हंसते हंसते कहने लगा कि चलो यार उस का भी कोई ग़म नहीं क्योंकि उस पानी की ज़रूरत तो तभी पड़ती जब हाथ धोने वाला लिक्विड-सोप हाथ पर लगाया होता ....लेकिन उसे तसल्ली इस बात की हुई कि लिक्विड-सोप ख़त्म हो चुका है, अलबत्ता उस का डिलीवरी सिस्टम बिल्कुल काम कर रहा था ...चलिए, हाथ-धुले, नहीं धुले उस टेम्परेचर चैक करने वाले मुलाज़िम वाले नाके से भी पास हो गये ...तभी एक दूसरा मुलाज़िम दफ़्तर के अंदर घुसने वाले हर शख़्स की हथेली पर चंद बूंदे सेनेटाईज़र की रख रहा है ...

जी हां, यह आज कल दफ़्तर में या किसी अस्पताल के बाहर भी ऐसा नज़ारा देखने को मिले तो चौंकिए नहीं -- कुछ बातें दुरुस्त करने की ज़रूरत है हम जानते हैं लेेकिन बहुत सी बातें इन दफ़्तरों के बस की हैं भी नहीं और शायद हो भी नहीं सकती ...कह देना बहुत आसान है कि हर आने जाने वाले को फेस-मास्क दिया जाएगा ...सेनेटाईज़र से उस के हाथ सेनेटाईज़ किए जाएंगे ...ये सब बातें पढ़ने-सुनने और देखने में आदर्श तो लगती हैं लेकिन जब तक हर शख़्स अपनी सुरक्षा का जिम्मा ख़ुद नहीं लेगा, बहुत मुश्किल है कुछ भी कर पाना। चलिए, यह एमरजैंसी है, शायद आम आदमी को नसीहत की मुग़ली-घुट्टी पिलाने का मौका भी नहीं है, इसलिए जैसी व्यवस्था चल रही है, जो मुहैया करवाया जा रहा है उसे स्वीकार करिए और अपनी भी ज़िम्मेदारी समझिए...

बहुत से बुज़ुर्ग लोगों को भी देखता हूं - घर में तैयार हुए कपड़े के मॉस्क अच्छे से मुंह पर लगाए निकलते हैं...मंद रफ्तार से सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा ख़्याल रखते हुए अपनी खरीदारी करते हैं और आराम से अपने आशियाने के लिए पैदल या साईकिल पर इन्हें लौटते देखता हूं ...अच्छा लगता है कि ये अपना ख़्याल रखते हैं ...बाकी रही बात बाहर इन के साथ गुफ़्तगू करने वाले लोग -- हम जितने मर्जी़ जहां भर के आडंबर कर लें लेकिन कटु सत्य यह है कि हमारी आबादी का यह हिस्सा अकेला था और अकेला ही है ...ख़ैर, जो है सो है....अभी तो कोरोना को धोने की बात हो रही है, यह कहां मैं बागबान की तरफ़ निकल गया...

आगे चलते हैं ...चलते क्या हैं, पहले तो यह बता दूं कि मैंं आज मैं इत्ती सवेरे कैसे उठा बैठा हूं ....इस समय सवा चार बजे हैं, मैं तीन बजे से उठा हुआ हूं ...क्योंकि रात होते ही मच्छरों के आतंक की वजह से मैं सोने के नाम से खौफ़ खाने लग गया हूं ...लखनऊ की शायद सब से साफ़ सुथरी कालोनी में रहते हैं ...एक पत्ता भी नीचे गिरा नज़र नहीं आता ...लेकिन फिर भी मच्छर इतने हैं ...मच्छरदानी, ऑल-आउट, ऑडोमास और वह जो इंस्टैंट-मच्छर मार टिकिया आने लगी है ....ये सब एक साथ इस्तेमाल होते हैं लेकिन फिर भी हालत ऐसी है कि मैं कल बेटे को कह रहा था कि ऐसा कुछ नहीं हो सकता है कि हम लोग रात में काम करें और सुबह सोते रहें ......वह कहने लगा कि यही तो मैं कहता हूं, लेकिन जब मैं कहता हूं तो आप को ठीक नहीं लगता ...मैंने कहा कि तुम तो भाई नेट-फ्लिक्स के चक्कर में कहते हो ...

हां, मच्छर गुणगान यह इसलिए चल पडा़ कि गुज़रे दौर में यह भी किसी के रूतबे का एक इंडिकेटर हुआ करता था कि उस की कॉलोनी में कीटनाशक दवाई का छिड़काव या फॉोगिंग कितने अंतराल के बाद होती है ..पंजाबी में एक बड़ी मशहूर कहावत है कि किसी का मत्था ढमना --- इस का मतलब यह है कि किसी के लिए दिखावटी उपाय कर देना ...इसी तर्ज़ पर बरस में एक बार इस तरह का छिड़काव भी हो जाता रहा है यहां वहां ...जहां पर यह करना ज़रूरी होता है ..ज़रूरी का मतलब आप ख़ुद समझ लीजिए...यह तो थी मच्छर की बातें .....बातें तो अब करनी हैं कोरोना की .....कल मैंने अपने फ्लैट की बालकनी से देखा कालोनी में एक पानी के टैंकर जैसी गाड़ी घुसी और उस पर कुछ स्प्रे करने वाला कुछ यंत्र लगा हुआ था ...और यह सड़कों पर और कॉलोनी के पेड़ों और बेलों पर छिड़काव किए जा रहा था ...एक बार तो मुझे लगा कि.. दो महीने में एक बार इस तरह के छिड़काव से भला क्या होगा....लेकिन और कुछ होगा कि नहीं होगा ...किसी की छवि तो चमकेगी क्योंकि रात होते होते कॉलोनी वाले वाटसएप ग्रुप पर कॉलोनी के उस शख़्स का शुक्रिया अदा करने वाले का तांता लग जाता अगर कॉलोनी के सैक्रेटरी ने उस ग्रुप को वन-वे ट्रैफिक न किया होता ....क्योंकि उसमें केवल हम उस के भेजे मैसेज पढ सकते हैं ....

गुड मार्निंग, लखनऊ ....

हां, तो यह जो संभावित सोडियम-हाइपोक्लोराइट के छिड़काव की बात है ....बात अच्छी है या बुरी, मैं यह भी नहीं जानता, क्योंकि विभिन्न सार्वजनिक जगहों पर तो जब लोगों के ऊपर इस तरह का छिड़काव कुछ दिन पहले किया गया तो मीडिया में इसकी बहुत आलोचना हुई कि यह आप लोग क्या कर रहे हैं, इस तो आम लोगों को नुकसान हो रहा है ....और कॉलोनी जैसे बडे़ इलाके में इस तरह का छिड़काव ख़ुश करने का फ़क़त एक ज़रिया बेशक हो सकता है ...और कुछ नहीं ...क्या हमें लगता है कि अमेरिका के पास धन-वैभव की कमी है .....और अगर इन सब चीज़ों से कुछ ज़्यादा लाभ होने वाला होता तो क्या वह कम करता ...इसलिए अब हम लोग भी ख़ुश करने वाली मानसिकता से, या चुप करवाने वाली या मुंह बंद रखवाने वाली गुलामों वाली मानसिकता से बाहर निकलें जितनी हो सके उस से भी जल्दी तो बेहतर होगा .....हर बात का औचित्य ख़ुद ढूंढें ...यह कोई बताने नहीं आएगा ...क्योंकि अभी भी मार्कीट शक्तियां बड़ी हावी हैं ...हैरानगी तो इस बात की है कि इस कोरोना के दौर में भी ... इसलिए सच ख़ुद तलाशना होगा और जब कहीं मिल जाए तो उसे कम से कम उन लोगों के साथ तो ज़रूर बांटिए जिन के पास वाट्सएप नहीं है, और जो आसानी से आप की बात पर यकीं भी कर लेंगे क्योंकि सोशल-मीडिया से जुड़े लोगों को सचेत करने के लिए तो दुनिया भर के संदेशे हैं...वे देर-सवेर अपना सच ख़ुद ही ढूंढ लेंगे ..उन की रिसर्च अलग तरह की है ..

हम लोग अस्पताल से ड्यूटी कर के आते हैं तो यकीं मानिए ऐसे लगने लग गया है जैसे पता नहीं कहां से हो आए हैं...सीधा बाथ-रूम का रुख करते हैं ...हाथ अच्छे से धोते हैं ....मुंह धोते हैं ...फिर कपड़े बदलते हैं, उतारे हुए कपड़े बाहर बालकनी की तार पर ही छोड़ देते हैं ताकि अगर कोरोना के कीटाणु उन पर चिपके हैं तो वे मर जाएं ... फिर अपने जूते को भी बालकनी में ही छोड़ देते हैं ताकि उसे धूप-हवा लगे ...अपने मॉस्क को उतार कर एक पन्नी में रखते हैं क्योंकि चार-पांच दिन  बाद उस का नंबर आएगा ....फिर मोबाइल को सेनेटाइज़ करते हैं ....इतना सब कुछ करते करते थक जाते हैं ...प्यास लग जाती है ...झल्लाहट होती है कि कमबख़्त यह सब कब ख़त्म होगा, हम लोग कब चैन की सांस लेंगे ..और हां, फिर हाथ में जो भी कागज़, चाभी या कोई सामान जो बाहर से लेकर घर में अंदर घुसे थे...फिर शक की सूई उस पर जा टिकती है ....लेकिन जब तक दिमाग़ का दही बन चुका होता है ...और चुपचाप सोफे पर पसर जाते हैं ...

लेकिन यह क्या , जैसे ही सैनेटाईज़्ड मोबाइल को हाथ में लिया ....और वाट्रसएप देवता के दर्शन किए ...उसी वक्त ख़्याल आया कि यह सेनेटाईज़र से एक तरह की ओबसैशन के चलते अभी भी हम लोग अपनी सोच को तो सेनेटाईज़ कर ही नहीं पाए ...  वही ज़हनियत ...बस, फ़र्क़ इतना कि अब जिम खुल नहीं रहे, बाहर टहलने में भी रोका टोकी है, ऐसे में सोशल-मीडिया पर ही कोई धार्मिक पोस्ट उछाल कर वहीं पर थोडी़ दिमाग़ी कसरत ही क्यों न कर ली जाए.......कल भी यही हुआ ......अच्छे पढ़े -लिखों के ग्रुप में किसी ने एक वीडियो डाल दी ..जिसमें किसी प्राईव्हेट अस्पताल के किसी कर्मचारी ने किसी मरीज़ से पूछ लिया कि उस का मज़हब क्या है......ज़ाहिर सी बात है वह शख़्स भड़क गया ...बात वहां के प्रशासन तक पहुंची तो वीडियो में दिखाया गया कि वे कहने लगे कि ऐसी बात नहीं है कि यहां पर किसी एक धर्म के लोगों का ही इलाज होता है ....यह तो पागल है ...वह बंदा कहने लगा कि अगर पागल है तो अस्पताल में क्या कर रहा है, इसे पाग़लख़ाने में भर्ती करवाओ......

जैसे ही किसी ने यह वीडियो शेयर की .....क्या पता फेक है, असली है ....आजकल हर दूसरी वीडियो तो अगले दिन फेक साबिर हो रही है --ऐसे में किस पर यकीं करें किस पर न, यह भी एक सिरर्दी तो है, लेकिन हमारी ख़ुद की मोल ली हुई क्योंकि हम ही तो हर वक़्त सोशल मीडिया की कालिख वाली कोठरी में घुसे रहते हैं ...जहां पर अधिकतर एजैंडे पर काम चल रहा होता है .. कोई अपनी छवि चमकाने की फ़िराक में है तो कईंयों ने केवल नफ़रत फैलाने का काम अपने जिम्मे लिया होता है ...कोई सनसनी फैला रहा है तो कोई कुछ और । हां, उस अस्पताल वाली वीडियो के शेयर होते ही उस ग्रुप पर दो धडे़ बन गए ...एक बार तो मन किया कि देशप्रेमी फिल्म का अमिताभ पर फिल्माया गये उस गीत के यू-टयूब लिंक ही छोड़ दूं --नफ़रत की लाठी तोड़ो ....मेरे देश-प्रेेमियो ...

दस साल पुरानी अपनी यह फोटो देख कर सोचता हूं कि दस साल में बंदा कितना बुड्ढा दिखने लगता है 😂😂
अच्छा, दोस्तो, अब सुबह हो गई है ...आप को अपनी बालकनी से इस के दीदार करवाते हैं ......बात मेरी अभी अधूरी है- कोरोना को धोेने की बातें तो अधूरी ही रह गई हैं ...बेशक जो लोग संभावित कोविड-19 के मरीज़ों के सामने कोरोनो की आंख में आंख डाल कर डटे हुए हैं, उन सब को सफ़ाईकर्मी से लेकर सुपर-स्पैशलिस्ट तक सभी को ...मेरा दंडवत नमन ...और बाकी के लोग जो बाहर सड़कों पर प्रशासन के बार बार आगाह किए जाने के बावजूद बिना मास्क पहने या सोशल-डिस्टेंसिंग से बेपरवाह आंख-मिचौनी खेल रहे हैं ....और महंगे सेनेटाइज़र को ही संजीवनी बूटी समझने की हिमाकत कर रहे हैं, उन के लिए यही संदेश है कि इस वक्त कोरोना के इस दौर में ऐसे ही मज़हब के खेल मत खेलिए......सामने वाले हर शख़्स को कोरोना का संभावित मरीज़ शायद न भी सही , कम से कम इस ख़तरनाक वॉयरस का वाहक तो समझ ही सकते हैें ......लेकिन, इस चक्कर में किसी के भी साथ कोई भेदभाव के चक्कर में मत पड़िए, इस का मज़हब से कोई लेना देना नहीं.....बस, कुछ छोटी छोटी बातों का ख़्याल रखिए.....जिसे मेडीकल भाषा में कहते हैं यूनिवर्सल प्रिकाशंज़ (हरेक द्वारा बरतने योग्य सावधानीयां) ..

और जहां तक बात है कोरोना को धोने-धुलवाने की .......उस बात पर फिर अमिताभ की वह 40 साल पुरानी बार बार देखी फिल्म लावारिस का वह गीत याद आ गया जिस में एक जगह वह फिल्म की नायिका से पूछता है कि पैसे से तुम भला क्या क्या खरीदोगे ........लेकिन मैं अपने आप से पूछ रहा हूं कि कोरोना के चक्कर में दिन भर में क्या क्या, कब तक, किस किस चीज़ से, कितनी कितनी बार धुलते रहेंगे .......आप भी सोच तो यही रहे होंगे .....लेकिन अब सोचना बंद करिए और यह गीत सुनिए ...कालेज के उन दिनों में इस तरह के गीत हमारे दिलो-दिमाग पर छाए रहते थे .....अभी तो हैं वैसे तो .....अमिताभ ने ही अपने फ़न से दुनिया की बड़ी ख़िदमत की है ....आप गीत सुनिए .....(काश, इस वक्त मैं आप को दिखा पाता कि मेरे शरीर मच्छरों के काटने के कितने निशान हैं .....मैं अकसर घर में कहता हूं कि अगर इस तरह की कालोनी में मच्छरों की यह मार है तो बाहर क्या हाल होगा ......लेकिन बात वही है, हम लोग आइसोलेटेड नहीं रह सकते, तस्वीर में आपने कॉलोनी की सफ़ाई तो देख ली है ..लेकिन इस की बांउड्री के बाहर वही खुले नाले हैं , वहीं थोड़ी दूर गंदगी के अंबार है ......इसलिए, जब सभी को साफ़-सफ़ाई वाला माहौल मयस्सर होगा तभी हम सब मच्छरों के आंतक की चिंता किए बग़ैर चैन की नींद सो पाएंगे ....वरना यूं ही चलता रहेगा ...!!.... ठीक उसी तरह कोरोना से बचने का भी बिल्कुल सीधा सा मंत्र है कि सभी सुरक्षित रहेंगे तो हम भी सुरक्षित रहेंगे ....बिल्कुल पंजाबी की उस बेमिसाल कहावत जैसे ...कर भला, हो भला......तेरे भाने सरबत दा भला!

अच्छा जी, अपना बहुत सारा ख़्याल रखिए...कोरोना की धुलाई की बाकी बातें अगली पोस्ट में करेंगे...


गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

अमृतसर में नहीं बचा अब कोई भी पुराना सिनेमा-घर

आज स्कूल वाले ग्रुप में हम सब ने बहुत मगज़मारी की -अमृतसर के सिनेमा घरों के नाम याद करने के चक्कर में पड़े रहे...कल से मन दुःखी है, कल इरफ़ान खान चला गया...आज जब एक स्कूल के साथी ने ऋषि कपूर की रुख्सती की ख़बर बताई तो बहुत बुरा लगा ...मैंने ऐसे ही लिखा कि ऋषि कपूर की तो बहुत सी फ़िल्में हम लोगों ने इन थियेटरों में ही देखीं...मैंने कुछ थियेटरों के नाम गिनाए....अचानक मुझे एक थियेटर का नाम भूल गया जो ऊंचे पुल के नीचे हुआ करता था...बस, वहां से ऐसा सिलसिला चला - शायद डेढ़-दो घंटे --बीच बीच में ऑडियो मैसेज भी ...एक तरह की ज़ूम मीटिंग जैसा ...जितना जिस को पता था ...उसने उसी वक्त बताया ..किसी ने कुल गिनती बता दी ...किसी ने किसी टाकीज़ का रास्ता समझा दिया... और लो जी अमृतसर की 19 टाकीज़ की लिस्ट तैयार हो गई... एक आधी अधूरी लिस्ट अभी ग्रुप पर हाथ से लिख कर डाली ही थी तो बैंक मैनेजर योगेश साहब को हमारी हैंड-राइटिंग के बारे में कुछ याद आ गया तो कहने लगे कि अभी भी इतना ख़ुबसूरत लिखते हो, प्रवीण... 😀अच्छा लगा ...कमबख़्त ये सब बातें अभी भी इन्हें अच्छे से याद हैं, यह मानना पडे़गा..

अफ़सोस इस बात का हुआ कि अब इन में से एक भी टाकीज़ नहीं है अमृतसर में ...जैसा मुझे अपने स्कूल वाले गैंग से पता चला


चलिए, लिस्ट तो मैं यहां भी एक लगा ही देता हूं...क्योंकि मैं अकसर सोचता हूं कि मेरे पास फ़िल्मों, फ़िल्मी गानों, गीतकारों, रेडियो प्रोग्रामों के अलावा कुछ भी नहीं है ...ध्यान इन सब चीज़ों में भी अटका रहता था ... आते जाते रास्ते में जो भी टाकीज़ दिखती, वहां रुक कर शो के टाइम पता कर लेने ..होता चाहे उन में 15 मिनट का ही फ़र्क था, एक थियेटर से दूसरे थियेटर के शो-टाइमिंग में ...

सिटी लाइट - यह थियेटर अमृतसर के पुतलीघर एरिया में था - वहां पर हम ने बहुत सी फिल्में देखीं...आम तौर पर यह वह थियेटर था जो थोड़ा सस्ता सा समझा जाता था ... मुझे याद है मैं बहुत छोटा था, मैंने 'धर्मा' फिल्म वहां पर देखी थी...एक और बचपन की याद है ...जाडे़ के दिन थे ..मां और उन की मोहल्ले की तीन चार सहेलियां एक दिन मैटीनी शो देख कर आईं... आते आते अंधेरा पड़ चुका था... लेकिन मां बहुत खुश थी ..वे सब 'तलाश' फ़िल्म देख कर आईं थीं, मां को बहुत पसंद आई थीं यह फ़िल्म...
कुछ कुछ याद है यह थिेयेटर में तो हम लोग तभी जाने की सोचते जब जेब में पैसे होते कम और फ़िल्म देखने को मन मचल रहा होता ...जहां तक मुझे याद है वहां पर टिकट 1-2 रूपये में मिल ही जाया करती थी...ये सब 45-50 साल पहले की बातें हैं.

प्रकाश - प्रकाश टाकीज़ अमृतसर स्टेशन के बिल्कुल सामने हुआ करती थी और यहां पर तो बहुत ही फ़िल्में देखीं...'खून-पसीना', 'हेराफेरी', 'शोले', 'नटवरलाल' ....और भी पता नहीं कितनी ही लेकिन बहुत सी याद नहीं आ रही हैं...इस थियेटर में तो फ़िल्म देखना ऐसे था जैसे बाज़ार तक ही जा रहे हैं.. अब नहीं है..

एनम - यह थियेटर जहां तक मुझे याद है 1972 के आसपास तैयार हुआ था .. मेरी मौसी की नयी नयी शादी हुई थी, मौसा जी के साथ आईं, फिल्म देखने तो जाना ही था, साईकिल रिक्शा पर मैं सब से पहले सवार हो बैठा...फिल्म थी 'जुगनू'.... वाह, मज़ा आ गया ...धर्मेंद्र की फिल्म . फिर तो उस एनम में बहुत फ़िल्में देखीं...जहां तक मुझे याद है वहां टिकट खरीदना एक सिरदर्दी हुआ करती थी ..ख़ैर, अब जो बीत गया सो उसे जाने देते हैं......कुछ साल पहले मैं जब अमृतसर गया और उधर से निकला तो मैंने उस पुरानी बिल्डिंग की फोटो खींचनी चाही लेकिन मेरे फोन की बैटरी ही नहीं थी ...और एक बात, मेरी पसंदीदा फिल्म 'फ़कीरा' भी तो मैंने दीदी-जीजा जी के साथ यहीं देखी थीं, यही कोई 1976 के आस पास की बात होगी...
एक फिल्म और भी देखी थी वहां पर नवीं जमात में था ...ऋषि कपूर और रंजीता की 'लैला मजनू' --- वाह, क्या मज़ा आया था ..

आदर्श टाकीज़ - यह लारेंस रोड चौंक पर थी ...वहां पर ज़्यादा फ़िल्में देखने का मौका नहीं मिला - यही दो चार देखी होगीं...

नंदन - यह भी एक बढ़िया टाकीज़ थी ...बुहत सी फ़िल्में देखीं वहां पर भी ...लेकिन 'शान' और 'दोस्ताना' तो याद आ रही है ...'याराना' का पता नहीं कहां देखी थी..

अमृत टाकीज़ - यह कटड़ा जैमल सिहं पर थी ...आज ही इस का नाम याद दिलाया गया ..मुझे नहीं लगता कि यहां पर कोई भी फिल्म देखी हो ...पता नहीं यह बड़ी अजीब सी लगती थी टाकीज़ --इस के साथ ही मेरा टेलर मास्टर था जहां से मैं हमेशा कपड़े सिलवाया करता था...ऐसे कोई डिज़ाइनर कपडे़ नहीं होते थे...सीधी सादी पतलून कमीज़ बडे़ बड़े कॉलरों वाली उन दिनों के हीरो लोगों की नकल करने के लिए ...😀- हम भी परले दरजे के बेवकूफ़ हुआ करते थे. ..थे मतलब!!?

चित्रा टाकीज़ - यह टाकीज़ अमृतसर के हाल गेट के बाहर हुआ करती थी ...कुछ फिल्में देखीं वहां भी ..लेकिन वह भी पुराना ही थियेटर था ...एक याद है उस के साथ भी जुड़ी हुई ...एक बार मोहल्ले की छःसात औरतें और उन के बच्चे हम लोग एक साथ वहां फिल्म देखने गये थे ...'दो कलियां' ....ओ हो, दो कलियां फ़िल्म का नाम लिया और उस में नीतू सिंह (बाल कलाकार) का वह गीत याद आ गया ..बच्चे मन के सच्चे, सारे जग की आंख के तारे ....बार बार ध्यान ऋषि कपूर के परिवार की तरफ़ जा रहा है, ईश्वर उन्हें यह सदमा सहने की हिम्मत दे।यहां पर भी कभी कभी पंजाबी फिल्में लगी दिखती थीं...

अमृत टाकीज़ - इस का रास्ता समझने में मुझे आज बहुत दिक्कत हुई ...कईं साथियों के ऑडियो मैसेज आने के बाद जगह की समझ तो आ गई लेकिन यह भी लगभग यकीं हो गया कि वहां पर कोई फ़िल्म देखी ही नहीं होगी...जी हां...लेकिन नाम इस का ज़रूर सुनते थे. बाद में अपने एक साथी से पता चला कि यह तो फैमिली टाइप के लिए फिल्म-थियेटर नहीं था, मतलब तो आप समझ ही गये होंगे, आप भी कौन सा इतने अनाडी़ हैं 😉

रिजेंट - यह डीएवी कालेज के पास ही एक मशहूर सरदार लस्सी वाला हुआ करता था, उस के सामने यह रिजेंट टाकी थी ...यहां भी कम ही फ़िल्में देखीं...बहुत कम ...और कालेज से भाग कर फ़िल्में विल्में देखना हमें इस से बड़ा डर लगता था ...डर क्या, कमबख़्त पाप लगता था, सच कह रहा हूं.. इस के बारे में सोचते हुए भी डर लगता था, ऐसा नहीं था कि कोई हमारी सीआईडी कर रहा होता था, लेकिन नहीं, बस उन दिनों यही था कि कालेज आने का मतलब है अच्छे से पढ़ कर घर लौट जाना है ...😁😂

न्यू रियाल्टो - यह भी रेनोवेट हुआ था ...अच्छा हो गया हम लोगों के कालेज तक पहुंचते पहुंचते ...यह अमृतसर की हैड पोस्ट आफिस के सामने था ...और एक बात ..इस के बाहर अमृतसरी कुलचे छोले की रेहड़ी लगती थी ...वहां पर फ़िल्म देखने जाने का मतलब होता था कि पहले होगी अच्छे से पेट पूजा -फिर देख लेंगे फ़िल्म-विल्म ...वे भी क्या दिन थे, हम लोगों के पास वक़्त ही वक़्त था ...किसी किस्म की कोई जल्दी नहीं, कुलचे-छोले खाने के बाद, और उस के बाद गन्ने का रस पीने के बाद, फिर देखना कि अभी भी 30-40 मिनट हैं टिकट मिलने में ....लेकिन कोई दिक्कत नहीं, आराम से हम लोग थिेयेटर के बाहर लगी बीस तीस तस्वीरें देख देख कर ही फिल्म को पहले ही से थोडा़ बहुत समझने की फ़िराक़ में रहते ...

संगम - अमृतसर के बस अड्डे के सामने यह टाकीज़ थी ...शायद 1970-75 के आसपास नईं नईं ही बनी थी...यहां भी कुछ फिल्में देखीं...शायद 'रोटी-कपड़ा-मकान' भी यहीं देखी थी....लेकिन एक बात इस संगम टाकीज़ के बारे में यह भी बताते चलें कि यह अमृतसर के उन चंद थियेटर्ज़ में से था जहां पर पंजाबी फिल्में भी लगा करती थीं...जहां तक मुझे ध्यान है, मैंने चंद पंजाबी फिल्में ही थियेटरों में देखी होंगी...हमें उन दिनों ऐसा लगता था कि पंजाबी फ़िल्मों को तो घर में टीवी पर ही देख लेते हैं..

सूरज चंदा तारा -- यह शायद 1980 के आसपास तैयार हुआ ...हम लोग वहां जाकर बड़ी हैरानी से देखा करते थे कि एक ही इमारत में दो फिल्में एक साथ ..क्योंकि पहले तो सूरज चंदा ही था , तारा तो बाद में जुड़ा ...अच्छा लगता था वहां जाकर भी फिल्में देखना ..काफ़ी फ़िल्में देखीं वहां पर ...इस समय याद आ रहा है 1981 में अपने मामा के साथ रिक्शा में बैठ कर गया था ...कौन सी फिल्म थी ....'नसीब' ...फिल्म ऋषि कपूर की याद आ गई ...दरअसल कपूर परिवार का इतना योगदान है फिल्म इंडस्ट्री में कि इन की यादें उमड़-घुमड़ कर आती ही रहेंगी ..

पहले एक बात यह भी मज़ेदार थी कि जब रिश्तेदार आते थे तो उन्होंने एक दो फि़ल्में ज़रूर देखनी होती थीं .....और बच्चों  के मज़े हो जाते थे ...इस वक़त लिखते ही मुझे इतना मज़ा आ रहा है कि मैं ब्यां नहीं कर पा रहा हूं.. एक बात ईमानदारी से लिखूं कि यह लिखने-विखने का भी चक्कर ऐसा है कि आदमी अपनी यादों का एक अंश ही लिख पाता है ...बाकी तो उस के मन में ही बातें दबी की दबी रह जाती हैं.....लेकिन मैं ऐसा मानता हूं कि लेखक की कोशिश यही होनी चाहिए कि वह दिल खोल कर रख दे...लिखते वक्त ईमानदारी बेहद ज़रूरी है ..

 चन्दन-पैलेस(लिबर्टी), इन्द्र पैलेस, राज, निशात - ये चार टाकीज़ के नाम है जो हमारे वक्त के 1970 के आसपास (जब हम बच्चे थे) के अमृतसर के एक किनारे पर पड़ते थे ...क्या कहते थे ..गेट हकीमां के आगे....या कोई मज़ाक में कह देता कि ये थियेटर तो पाकिस्तान में हैं ....ज़्यादा लोग इधर जाते नहीं थे क्योंकि यहां पर फिल्में भी कुछ अजीब किस्म की ही लगती थीं...शायद पुरानी फ़िल्में भी हुआ करती थीं......लेेकिन अमृतसर के सिनेमा घरों में पहली फ़िल्म देखने की मेरी याद ही इन में से किसी थियेटर की है ...हम लोग वहां पर 'सास भी कभी बहू थी' का दोपहर का शो देखने गये थे ....मुझे तो वह गीत हमेशा के लिेए याद रह गया....ले लो चूड़ियां... ले लो चूडि़यां ...और दूसरा वह गीत ...ख़ाली डिब्बा ख़ाली बोतल, ख़ाली से मत नफ़रत करना ...ख़ाली सब संसार .। कालेज के दिनों में वहां पर 'डिस्को-डांसर' फ़िल्म  भी इन में से ही किसी थियेटर में ही देखना याद है ...दरअसल ये चारों टाकीज़ हैं भी बिल्कुल पास पास ही ...हैं क्या, हुआ करती थीं, अब तो वहां बने होंगे मल्टी-प्लेक्स...
लिबर्टी थियेटर के बारे में दोस्तों ने बताया कि यह चाटीविंड एरिया में था, पहले इस का नाम चंदन-पैलेस होता था, बाद में लिबर्टी थियेटर बन गया ...

गगन - यह भी 1975-76 के आस पास नया नया ही बना था ....यह अमृतसर के बटाला रोड पर था ... पहले तो जब भी दीदी जीजा जी अमृतसर आते उन के साथ फ़िल्में देखने का मुझे बड़ा शौक हुआ करता था ...उन के साथ ही 'मां', 'नूरी' जैसी फिल्में वहीं देखीं... फिर हमारा कालेज भी इस के साथ ही था, बीडीएस थर्ड ईयर में वहां पर एक बार फिल्म देखी ...पहले दिन ... 'बेताब' लगी थी उस दिन - 1982 की बात है ...

माया - जहां तक मुझे याद है यह थियेटर 1980 के आस पास तैयार हुआ था ..और यह छेहरटे में था ... थोडा़ दूर ही पड़ता था ..इसलिए बाद में शायद एक दो फ़िल्में कभी 1984-85 के बाद कभी देखी हों तो हों....याद कुछ भी नहीं है बिल्कुल ...हां, एक फ़िल्म तो देखी ही होगी ...क्या पता पोस्टर देखने ही अपने यैज़्दी पर निकल गया होऊंगा...फ़िल्म न ही देखी हो..

अशोका - जी हां, इस टॉकी का नाम नहीं याद आ रहा था, साथी मनिंदर सिंह ने बताया कि यह अशोका टाकीज़ है ...और इस की जगह के बारे में याद दिलाया ...यहां पर भी बहुत सी फ़िल्में देखीं...एक तो राज कुमार की फिल्म ही थी ..तेरे जीवन का है, कर्मों से नाता ..तू ही अपना भाग्य विधाता ... बहुत अच्छी थी फ़िल्म 'कर्मयोगी' .... यहां पर कुछ और फिल्में भी देखी थीं जैसे कि 'कस्मे-वादे' और 'गोलमाल' भी ....शायद 'विधाता' भी यहीं कहीं देखी होगी .......लेकिन उस का भी पक्का याद नहीं है..

आज के लिए इस डॉयरी को यहीं बंद कर रहा हूं ... Thanks Maninder, Vikram, Satish and Madhur for valuable inputs. Sweet remembrances of our school days.😁

ऋषि कपूर और इरफ़ान खां की रुह की शांति के लिए आइए दुआ करते हैं ....ऋषि कपूर को मैंने 7 मई 1975 को पहली बार हाटेल सन एंड सैंड मुंबई में टैनिस खेलते देखा था ..वहां पर मेरे चाचा की बेटी की शादी थी, उस शादी में राजकपूर, कृष्णा कपूर और राजेन्द्र कुमार भी शिरकत करने आए थे ....जाने कहां गये वो दिन !! राज कपूर का पैग़ाम हम सब के लिए ...देख भाई ज़रा देख के चलो ...आगे ही नहीं पीछे भी .... मां नहीं, बाप नहीं ....कुछ भी नहीं रहता है .......न तेरा है न मेरा है .........Show must go on!! अभी कल दोपहर ही मैं विविध भारती रेडियो पर ऋषि कपूर की एक पुराना इंटरव्यू सुन रहा था ...कितनी बढ़िया बातें सुना रहा था ... सुन कर बहुत अच्छा लगा था ... आज मन सच में बड़ा दुःखी है ....बंदे ने हमें 45 साल तक हंसाया, रूलाया और गुदगुदाया - हमें ही क्यों, हमारे मां-बाप को भी और हमारे बच्चों को भी!! विनम्र श्रद्धांजलि..

यारां नाल बहारां....शुक्रिया, योगेश ...इस यादों की बरात के लिए...जींदे वसदे रहो!









गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

कोरोना की बातें - 2. आख़िर यह इम्यूनिटि का चक्कर है क्या?

एक तो इस सोशल मीडिया ने लोगों का जीना दूभर कर रखा है ....सुबह सवेरे ही हरकत में आ जाते हैं वाट्सएप ज्ञानी लोग अपने अपने टोटकों के साथ कि भाई लोगों, इन चीज़ों का सेवन शुरू कर लीजिए, कोरोना आप के पास फटकेगा नहीं...कुछ तो इतने हास्यास्पद होते हैं कि क्या कहें...

चिकित्साकर्मी भी इन दिनों अपने काम में इतने मसरूफ़ हैं कि उन्हें फ़ुरसत नहीं कि सोशल मीडिया की पोस्टों का खंडन अथवा समर्थन करते फिरें ...फिर भी वक्त निकाल कर विभिन्न जन संचार माध्यमों से वे पूरी कोशिश करते रहते हैं कि जनता तक सही सटीक जानकारी पहुंचे।

किसी व्यक्ति में अगर ख़ून की कमी हो - हीमोग्लोबिन का स्तर सात-आठ ग्राम फ़ीसद हो तो मैंने बहुत बार कहते सुना है कि अनार का जूस शुरू कर दिया है परसों से ....रोज़ाना पिला रहे हैं....फिर उन्हें अच्छे से समझाना पड़ता है कि किसी भी तरह की बीमारी से बचने, टकराने का सब से बड़ा हथियार है सीधा-सादा हिंदोस्तानी खाना - और उस के साथ डाक्टर की सलाह से ली जाने वाली दवाई- अगर खाना ही उपलब्ध नहीं है या संतुलित खाना नहीं खाया जा रहा है तो फिर दिक्कतें ही दिक्कतें हैं ...एक -दो चार नहीं, अनेकों।

यह केवल खून की कमी की ही बात नहीं है ...बहुत सी तकलीफ़ों के लिए लोग अपने आप ही तरह तरह के टॉनिक लेकर इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं....दोष उन का भी नहीं है, जानकारी का अभाव है ...कईं बार जानकारी हो भी तो भी दिमाग काम करना बंद कर देता है जब हम लोग किसी अपने को तकलीफ़ में देखते हैं ...मेरी मां कैंसर की आखिरी स्टेज से जूझ रही थी ..उन दिनों अगर वह अच्छे से दिन भर में एक दो गिलास जूस के पी लेतीं ...या दो चार चम्मच खिचड़ी ही खा लेतीं तो मैं इस ख़ुशफ़हमी में मुबतिला हो जाता कि क्या पता मां की सांसें ऐसे ही चलती रहें......लेकिन अफ़सोस!!

कोई भी विपदा आन पड़े तो जैसे इंसान का दिमाग सुन्न हो जाता है .....ठीक वैसे ही कोरोना में तरह तरह के दावे कि यह ले लो, कोरोना नहीं होगा...वह ले लो कोरोना नहीं होगा...अभी याद आया कि मार्च ेेके शुरू में मैं होटल में एक कार्यक्रम में गया था ..लखनऊ की एक महान हस्ती हुई हैं...मुंशी नवल किशोर.. उन की याद में एक प्रोग्राम था ..प्रोग्राम के अंत में एक सज्जन ने छोटी छोटी शीशियां निकालीं जैसे इत्र की छोटी शीशीयां होती हैं...और उन्होंने कहा कि यह दवाई आप लोग नाक में सुबह शाम डाल लीजिए ...कोरोना पास नहीं फटक सकता। वे यूनानी चिकित्सा पद्धति से जुड़े हुए थे ...मुझे इस तरह के दावे में कोई दम नहीं दिखा ..और यह हो भी कैसे सकता है ..

मैं आज क्यों यह सब लिखने बैठ गया? - कल मैं पेट्रोल पंप पर था, पेट्रोल डालने वाला पहचानता है, पूछने लगा - डाक्टर साब, यह पैकेट पीने से क्या इस महामारी से बचा जा सकता है?, उसने जेब में से ओआरएस का पैकेट निकाल कर मुझे दिखाते हुए पूछा. कहने लगा कि आज कल खाने का तो कोई ठिकाना नहीं है, पास वाली दवाई की दुकान वाला कहता है कि रोज़ इसे पीते रहो, इस से इम्यूनिटि बढ़ जायेगी (उसने यही लफ़्ज़ बोला था) और इस महामारी से बचे रहोगे....मैंने उसे बताया कि कहीं आसपास कोई मौसमी फल या ककड़ी-खीरा-टमाटर मिल जाए तो उसे खाना बेहतर होगा ...और इस तरह की चीज़ों से कोई इम्यूनिटि-वूनिटि में इज़ाफ़ा नहीं होता..। बता रहा था कि एक पैकेट 35 रूपये का आता है, मैंने अपनी तरफ़ से तो उसे अच्छे से समझा दिया...

वैसे यह इम्यूनिटि का फंडा है क्या ..

यह इम्यूनिटि हम लोगों की जीवनशैली का टोटल है..इस में हम लोग क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे हैं और हमारी सोच कैसी है , ये सब बाते हमारी इम्यूनिटी तय करती हैें.....इसलिए इस के बारे में अच्छे से समझने की ज़रूरत है ...

एक बात तो यह है कि अगर हम लोग कहते हैं कि इम्यूनिटि हमारी जीवन शैली का कुल जमा टोटल है और अगर पहले से किसी की ज़िंदगी बेपटड़ी भी रही है तो भी उसे मायूस होने की ज़रूरत नहीं....आज ही से शुरूआत की जा सकती है ...जब जागो तभी सवेरा...

व्यसन -

एक बहुत ज़रूरी बात यह है जितने भी व्यसन हैं वे हमारी इम्यूनिटि को गिरा देते हैं...इसलिए अगर आप इन तीस चालीस दिनों में मजबूरन ही सही, अगर किसी ऐसे ही व्यसन से दूर रह पाएं हैं तो अब इसे पास न फटकने दें....यह कोई कही-सुनी बात नहीं है ..बिल्कुल पत्थर पर लकीर जैसी पक्की बात है कि विभिन्न तरह के व्यसन हमारी इम्यूनिटि को कम कर के हमें मुख़्तलिफ़ बीमारीयों की तरफ़ धकेल देते हैं.....डाक्टरों का क्या है, उन्होंने तो इशारा ही करना होता है ...बाकी हर इंसान की ज़िंदगी अपनी है ....मैं परसों किसी को कह रहा था कि सिगरेट बंद कर दो...उसने कहा कि हां, बहुत कम पीता हूं.......अब आगे हम लोगों के पास कहने को रह ही क्या जाता है ......बच्चा बच्चा जानता है कि कोरोना का अजगर सारी कायनात पर फन उठाए खड़ा है और इस बीमारी में सब से ज़्यादा असर फ़ेफ़ड़ों पर ही होता है, ऐसे में क्यों सिगरेट, बीड़ी के चक्कर में फ़ेफ़ड़ों के लिए मुसीबत मोल ली जाए....क्योंकि आज की तारीख़ में उन का सही से काम करना भी तो ज़रूरी है .. उस के लिए हम सब को प्राणायाम ज़रूर करना चाहिए...अगर अभी तक नहीं किया तो क्या हुआ, आज ही से थोड़ा थोडा़ शुरू कीजिए...कहां से सीखें? - उस का जवाब यही है कि अगर हम चाहते हैं तो कुछ भी सीख लेते हैं...और हां, अगर प्राणायाम को किसी मज़हब के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है तो इसे प्राणायाम् कहें ही न, इसे सांस की एक्सरसाइज़ कह लीजिए...(ब्रीदिंग एक्सरसाईज़). और जितना हो सके योगाभ्यास भी करें...

इम्यूनिटि का चक्कर उन सब चीज़ों से है जो हम करते हैं या नहीं करते हैं....हम लोग एक्सरसाईज़ करते हैं या नहीं, शरीर को हिलाते-ढुलाते हैं कि नहीं, सुबह की धूप में बैठते हैं या नहीं, घरों की खिड़कियां धूप और हवा के लिए खोलते भी हैं या नहीं, ये धार्मिक घृणा फैलाने वाली पोस्टों को देखते हैं या नहीं, अपने आप को संतुलित रखने के लिए मेडीटेशन (ध्यान) करते हैं या नहीं....अभी मुझे लिखते लिखते यही ख़्याल आ रहा है कि हमारी ज़िंदगी में आखिर ऐसी कौन सी चीज़ है जो हमारी इम्यूनिटि को प्रभावित नहीं करती ....सब कुछ करती है ...अभी ध्यान आया कि मैंने यह इम्यूनिटि लफ़्ज़ पहली बार अपने जीजा जी से सुना था --मैं आठवीं नवीं कक्षा में था, बार बार जुकाम हो जाता था ...बस में बैठते ही जी मितलाने लगता था ...एक बार उन्होंने कहा कि ये सब इम्यूनिटि कम होने की वजह से होता है .

हां तो दोस्तो बात इतनी है कि सादा खाइए...अब लॉक-डाउन में किसी को खाने के बारे में ज़्यादा उपदेश देना भी बहुत घटिया बात लगती है, ठीक है न जो भी जिसे मिल रहा है खा ही रहा है ....पड़ोस में रहने वाले कुछ लोगों की जान निकली रही पिछले दिनों की संतरे नहीं मिल पा रहे ....एक दिन कॉलोनी के बाहर संतरे देखे तो उन्हें बता दिया....एक बात और आप ने लॉक-डाउन के शुरूआती दिनों में बहुत सुनी होगी कि विटामिन सी लीजिेए...इस से इम्यूनिटि बढ़ जाती है ......ऐसा कुछ नहीं होता, डाक्टरों ने इस बात का खंडन किया है ....ठीक है, विटामिन सी लीजिए. ..अगर संतरे, आंवले जैसी चीज़ों के रूप में लेते हैं तो अच्छी बात है ...संतुलित आहार का हिस्सा है ....और संतुलित आहार तो इम्यूनिटि बढ़ाने में मददगार होता ही है ...

इम्यूनिटि भी एक ऐसा टॉपिक है कि अगर हम लोग इसके बारे में जान गए तो बात एक फ़िक़रे भर की है .....हमेशा अपने खाने पीने का ख़्याल रखें, एक्सरसाईज़ करें, व्यसनों से दूर रहें, प्राणायाम ज़रूर करिए, ध्यान ज़रूर करिए, सकारात्मक साहित्य देखिए एवं पढ़िए....नकारात्मक लोगों से कन्नी कतराते रहें .....प्रकृति के पास रहें ....अपनी हैसियत के मुताबिक़ खाना-पीना लेते रहें .....अगर हो सके तो सलाद, अंकुरित अनाज एवं दालें, और मौसमी फल भी ज़रूरी हैं..

इम्यूनिटि चाहे कुछ दिनों में नहीं बढ़ जाती लेकिन शुरूआत तो कभी भी कर ही सकते हैं ....तुलसी, शहद, अदरक, तरह तरह के काढ़े सब बढ़िया हैं ...करिए इन्हें ज़रूर इस्तेमाल करिए ....लेकिन ये ही केवल संजीवनी बूटी नहीं है कोरोना को मात देने के लिए ...ऊपर लिखी सभी बातों का ख़्याल रखिए ...

और क्या लिखें, अपना ख़्याल रखिए - मस्त रहिेए..

दिल की बात ...

जाते जाते मेरे दिल की बात -- यह जो ऊपर लिखा ये सब वैज्ञानिक बातें हैं ..एक दम मैडीकल तथ्यों पर आधारित ...जो मेरे बाएं तरफ़ के दिमाग ने लिखवा दीं.......लेकिन जैसा कि मैं अकसर बेटों से कहता हूं कि मेरे दिल और दिमाग में अकसर जंग छिड़ी होती है ...दिमाग कुछ कहता है -- और दिल कुछ और ....दिमाग की बात ऊपर लिख दी है ....लेकिन दिल यही कहता है कि हम कितना भी पढ़-लिख जाएं ....कितना भी ज्ञान बटोर लें .....लेकिन सब चीज़ों का कंट्रोलर तो कहीं और बैठा है .....बुल्ले शाह की ये बातें मेरा दाईं तरफ़ वाला दिमाग मुझे रह रह कर याद दिलाता रहता है ...