कल बाद दोपहर मैं फल खरीदने के लिए सड़क किनारे लगी एक रेहड़ी के पास रूका. वहां पर पहले से एक दंपति फल ख़रीद रहे थे ..मैं थोड़ा दूर खड़ा हो गया...मैंने देखा कि उन्होंने तो मॉस्क के नाम पर कुछ पहना तो हुआ है ...लेकिन उस फल वाले ने अपना मुंह नहीं ढका है ..मैंने उसे कहा कि मुंह ढके रखो...उसने झट से अपने पास ही पड़े गमछे को उठाया और यह कहते हुए कि अभी तो लगाया हुआ था ...उसने वह मैला-कुचैला कपड़ा अपने मुंह पर टिका लिया ...।
पिछले कुछ दिनों में कईं बार देखा है गुटखा, पान आदि चबाते लोग अपने मुंह पर लगी काली पट्टी नुमा लगे मास्क के इलास्टिक को थोड़ा इधर-उधर करते हैं, पीक थूकते हैं और वापिस उस मास्क को मुंह पर सेट कर के मुतमईंन हो लेते हैं...मेरा एक मित्र हंसते हंसते लोटपोट हो रहा था जब वह अपने दफ़्तर का किस्सा सुना रहा था कि वहां पर अंदर जाते वक्त किसी तरह की सोशल-डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो रहा था ..एक बात ...दूसरी बात जो उसे बड़ी अजीब लगी कि हर आने वाले शख़्स का दूर से तापमान देखने वाला कर्मचारी बीच बीच में मोबाइल पर बतियाए जा रहा था ....मुंह में पता नहीं सुपारी जैसा कुछ चबाए भी जा रहा था, दूसरे हाथ से एक मंजे हुए वैज्ञानिक की तरह लोगों को तापमान मापे भी जा रहा था...और खास बात यह कि अपना मॉस्क भी ऊपर-नीचे किए जा रहा था ..और मित्र ने बताया कि अपनी और दूसरों की सुरक्षा का इतना ढुल-मुल रवैया रखते हुए भी कोरोना-वारियर वाला चोगा उसने पूरा चढ़ाया हुआ था।
दफ़्तर के अंदर जाने वाले किसी शख़्स से वह मुलाज़िम उलझ गया कि मुझे क्या पता कि तुम पैरासिटामोल खा कर आए हो ....अब वॉटसएप ने हरेक को इतना पढ़ा लिखा तो बना ही दिया है कि सामने से वह आदमी बोला कि ये जिन लोगों को अंदर घुसने दे रहे हो, तुम्हें क्या पता कि इनमें से कितने लोग घर से पैरासिटामोल खा कर आए हैं...।दोस्त कहने लगा कि यह जो हम लोग डिस्क्रिशन पॉवर का बडा हो-हल्ला मचाए रहते हैं न - यह भी फ़क़त बड़े साब लोगों की ही नहीं होती, ये हर इंसान के पास होती है ...अब यही इंसान की सुनिए, अगर फोन पर बात करते वक्त हो गई कुछ गर्मा-गर्मी तो सारा कानून, खुन्नस अगले इंसान पर कि तुम्हें मास्क लगाना भी नहीं आता और अगर मूड है खुशनुमा तो कोई बात ही नहीं, बीच बीच में "जान पहचान वाले" एक दो लोग अकड़ कर सीधे घुसे जाते भी दिख जाते हैं...
और उस मित्र ने बताया कि दफ़्तर के अंदर जाने से पहले पैर से आप्रेट होने वाली हाथ धोने की और टूटी जिस के साथ ली गई बीसियों शेल्फ़ीयां वॉयरल हो गईं थीं, आज उस का पैर से दबाने वाला हिस्सा चालू ही नहीं हो रहा था ...हंसते हंसते कहने लगा कि चलो यार उस का भी कोई ग़म नहीं क्योंकि उस पानी की ज़रूरत तो तभी पड़ती जब हाथ धोने वाला लिक्विड-सोप हाथ पर लगाया होता ....लेकिन उसे तसल्ली इस बात की हुई कि लिक्विड-सोप ख़त्म हो चुका है, अलबत्ता उस का डिलीवरी सिस्टम बिल्कुल काम कर रहा था ...चलिए, हाथ-धुले, नहीं धुले उस टेम्परेचर चैक करने वाले मुलाज़िम वाले नाके से भी पास हो गये ...तभी एक दूसरा मुलाज़िम दफ़्तर के अंदर घुसने वाले हर शख़्स की हथेली पर चंद बूंदे सेनेटाईज़र की रख रहा है ...
जी हां, यह आज कल दफ़्तर में या किसी अस्पताल के बाहर भी ऐसा नज़ारा देखने को मिले तो चौंकिए नहीं -- कुछ बातें दुरुस्त करने की ज़रूरत है हम जानते हैं लेेकिन बहुत सी बातें इन दफ़्तरों के बस की हैं भी नहीं और शायद हो भी नहीं सकती ...कह देना बहुत आसान है कि हर आने जाने वाले को फेस-मास्क दिया जाएगा ...सेनेटाईज़र से उस के हाथ सेनेटाईज़ किए जाएंगे ...ये सब बातें पढ़ने-सुनने और देखने में आदर्श तो लगती हैं लेकिन जब तक हर शख़्स अपनी सुरक्षा का जिम्मा ख़ुद नहीं लेगा, बहुत मुश्किल है कुछ भी कर पाना। चलिए, यह एमरजैंसी है, शायद आम आदमी को नसीहत की मुग़ली-घुट्टी पिलाने का मौका भी नहीं है, इसलिए जैसी व्यवस्था चल रही है, जो मुहैया करवाया जा रहा है उसे स्वीकार करिए और अपनी भी ज़िम्मेदारी समझिए...
बहुत से बुज़ुर्ग लोगों को भी देखता हूं - घर में तैयार हुए कपड़े के मॉस्क अच्छे से मुंह पर लगाए निकलते हैं...मंद रफ्तार से सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा ख़्याल रखते हुए अपनी खरीदारी करते हैं और आराम से अपने आशियाने के लिए पैदल या साईकिल पर इन्हें लौटते देखता हूं ...अच्छा लगता है कि ये अपना ख़्याल रखते हैं ...बाकी रही बात बाहर इन के साथ गुफ़्तगू करने वाले लोग -- हम जितने मर्जी़ जहां भर के आडंबर कर लें लेकिन कटु सत्य यह है कि हमारी आबादी का यह हिस्सा अकेला था और अकेला ही है ...ख़ैर, जो है सो है....अभी तो कोरोना को धोने की बात हो रही है, यह कहां मैं बागबान की तरफ़ निकल गया...
आगे चलते हैं ...चलते क्या हैं, पहले तो यह बता दूं कि मैंं आज मैं इत्ती सवेरे कैसे उठा बैठा हूं ....इस समय सवा चार बजे हैं, मैं तीन बजे से उठा हुआ हूं ...क्योंकि रात होते ही मच्छरों के आतंक की वजह से मैं सोने के नाम से खौफ़ खाने लग गया हूं ...लखनऊ की शायद सब से साफ़ सुथरी कालोनी में रहते हैं ...एक पत्ता भी नीचे गिरा नज़र नहीं आता ...लेकिन फिर भी मच्छर इतने हैं ...मच्छरदानी, ऑल-आउट, ऑडोमास और वह जो इंस्टैंट-मच्छर मार टिकिया आने लगी है ....ये सब एक साथ इस्तेमाल होते हैं लेकिन फिर भी हालत ऐसी है कि मैं कल बेटे को कह रहा था कि ऐसा कुछ नहीं हो सकता है कि हम लोग रात में काम करें और सुबह सोते रहें ......वह कहने लगा कि यही तो मैं कहता हूं, लेकिन जब मैं कहता हूं तो आप को ठीक नहीं लगता ...मैंने कहा कि तुम तो भाई नेट-फ्लिक्स के चक्कर में कहते हो ...
हां, मच्छर गुणगान यह इसलिए चल पडा़ कि गुज़रे दौर में यह भी किसी के रूतबे का एक इंडिकेटर हुआ करता था कि उस की कॉलोनी में कीटनाशक दवाई का छिड़काव या फॉोगिंग कितने अंतराल के बाद होती है ..पंजाबी में एक बड़ी मशहूर कहावत है कि किसी का मत्था ढमना --- इस का मतलब यह है कि किसी के लिए दिखावटी उपाय कर देना ...इसी तर्ज़ पर बरस में एक बार इस तरह का छिड़काव भी हो जाता रहा है यहां वहां ...जहां पर यह करना ज़रूरी होता है ..ज़रूरी का मतलब आप ख़ुद समझ लीजिए...यह तो थी मच्छर की बातें .....बातें तो अब करनी हैं कोरोना की .....कल मैंने अपने फ्लैट की बालकनी से देखा कालोनी में एक पानी के टैंकर जैसी गाड़ी घुसी और उस पर कुछ स्प्रे करने वाला कुछ यंत्र लगा हुआ था ...और यह सड़कों पर और कॉलोनी के पेड़ों और बेलों पर छिड़काव किए जा रहा था ...एक बार तो मुझे लगा कि.. दो महीने में एक बार इस तरह के छिड़काव से भला क्या होगा....लेकिन और कुछ होगा कि नहीं होगा ...किसी की छवि तो चमकेगी क्योंकि रात होते होते कॉलोनी वाले वाटसएप ग्रुप पर कॉलोनी के उस शख़्स का शुक्रिया अदा करने वाले का तांता लग जाता अगर कॉलोनी के सैक्रेटरी ने उस ग्रुप को वन-वे ट्रैफिक न किया होता ....क्योंकि उसमें केवल हम उस के भेजे मैसेज पढ सकते हैं ....
हां, तो यह जो संभावित सोडियम-हाइपोक्लोराइट के छिड़काव की बात है ....बात अच्छी है या बुरी, मैं यह भी नहीं जानता, क्योंकि विभिन्न सार्वजनिक जगहों पर तो जब लोगों के ऊपर इस तरह का छिड़काव कुछ दिन पहले किया गया तो मीडिया में इसकी बहुत आलोचना हुई कि यह आप लोग क्या कर रहे हैं, इस तो आम लोगों को नुकसान हो रहा है ....और कॉलोनी जैसे बडे़ इलाके में इस तरह का छिड़काव ख़ुश करने का फ़क़त एक ज़रिया बेशक हो सकता है ...और कुछ नहीं ...क्या हमें लगता है कि अमेरिका के पास धन-वैभव की कमी है .....और अगर इन सब चीज़ों से कुछ ज़्यादा लाभ होने वाला होता तो क्या वह कम करता ...इसलिए अब हम लोग भी ख़ुश करने वाली मानसिकता से, या चुप करवाने वाली या मुंह बंद रखवाने वाली गुलामों वाली मानसिकता से बाहर निकलें जितनी हो सके उस से भी जल्दी तो बेहतर होगा .....हर बात का औचित्य ख़ुद ढूंढें ...यह कोई बताने नहीं आएगा ...क्योंकि अभी भी मार्कीट शक्तियां बड़ी हावी हैं ...हैरानगी तो इस बात की है कि इस कोरोना के दौर में भी ... इसलिए सच ख़ुद तलाशना होगा और जब कहीं मिल जाए तो उसे कम से कम उन लोगों के साथ तो ज़रूर बांटिए जिन के पास वाट्सएप नहीं है, और जो आसानी से आप की बात पर यकीं भी कर लेंगे क्योंकि सोशल-मीडिया से जुड़े लोगों को सचेत करने के लिए तो दुनिया भर के संदेशे हैं...वे देर-सवेर अपना सच ख़ुद ही ढूंढ लेंगे ..उन की रिसर्च अलग तरह की है ..
हम लोग अस्पताल से ड्यूटी कर के आते हैं तो यकीं मानिए ऐसे लगने लग गया है जैसे पता नहीं कहां से हो आए हैं...सीधा बाथ-रूम का रुख करते हैं ...हाथ अच्छे से धोते हैं ....मुंह धोते हैं ...फिर कपड़े बदलते हैं, उतारे हुए कपड़े बाहर बालकनी की तार पर ही छोड़ देते हैं ताकि अगर कोरोना के कीटाणु उन पर चिपके हैं तो वे मर जाएं ... फिर अपने जूते को भी बालकनी में ही छोड़ देते हैं ताकि उसे धूप-हवा लगे ...अपने मॉस्क को उतार कर एक पन्नी में रखते हैं क्योंकि चार-पांच दिन बाद उस का नंबर आएगा ....फिर मोबाइल को सेनेटाइज़ करते हैं ....इतना सब कुछ करते करते थक जाते हैं ...प्यास लग जाती है ...झल्लाहट होती है कि कमबख़्त यह सब कब ख़त्म होगा, हम लोग कब चैन की सांस लेंगे ..और हां, फिर हाथ में जो भी कागज़, चाभी या कोई सामान जो बाहर से लेकर घर में अंदर घुसे थे...फिर शक की सूई उस पर जा टिकती है ....लेकिन जब तक दिमाग़ का दही बन चुका होता है ...और चुपचाप सोफे पर पसर जाते हैं ...
लेकिन यह क्या , जैसे ही सैनेटाईज़्ड मोबाइल को हाथ में लिया ....और वाट्रसएप देवता के दर्शन किए ...उसी वक्त ख़्याल आया कि यह सेनेटाईज़र से एक तरह की ओबसैशन के चलते अभी भी हम लोग अपनी सोच को तो सेनेटाईज़ कर ही नहीं पाए ... वही ज़हनियत ...बस, फ़र्क़ इतना कि अब जिम खुल नहीं रहे, बाहर टहलने में भी रोका टोकी है, ऐसे में सोशल-मीडिया पर ही कोई धार्मिक पोस्ट उछाल कर वहीं पर थोडी़ दिमाग़ी कसरत ही क्यों न कर ली जाए.......कल भी यही हुआ ......अच्छे पढ़े -लिखों के ग्रुप में किसी ने एक वीडियो डाल दी ..जिसमें किसी प्राईव्हेट अस्पताल के किसी कर्मचारी ने किसी मरीज़ से पूछ लिया कि उस का मज़हब क्या है......ज़ाहिर सी बात है वह शख़्स भड़क गया ...बात वहां के प्रशासन तक पहुंची तो वीडियो में दिखाया गया कि वे कहने लगे कि ऐसी बात नहीं है कि यहां पर किसी एक धर्म के लोगों का ही इलाज होता है ....यह तो पागल है ...वह बंदा कहने लगा कि अगर पागल है तो अस्पताल में क्या कर रहा है, इसे पाग़लख़ाने में भर्ती करवाओ......
जैसे ही किसी ने यह वीडियो शेयर की .....क्या पता फेक है, असली है ....आजकल हर दूसरी वीडियो तो अगले दिन फेक साबिर हो रही है --ऐसे में किस पर यकीं करें किस पर न, यह भी एक सिरर्दी तो है, लेकिन हमारी ख़ुद की मोल ली हुई क्योंकि हम ही तो हर वक़्त सोशल मीडिया की कालिख वाली कोठरी में घुसे रहते हैं ...जहां पर अधिकतर एजैंडे पर काम चल रहा होता है .. कोई अपनी छवि चमकाने की फ़िराक में है तो कईंयों ने केवल नफ़रत फैलाने का काम अपने जिम्मे लिया होता है ...कोई सनसनी फैला रहा है तो कोई कुछ और । हां, उस अस्पताल वाली वीडियो के शेयर होते ही उस ग्रुप पर दो धडे़ बन गए ...एक बार तो मन किया कि देशप्रेमी फिल्म का अमिताभ पर फिल्माया गये उस गीत के यू-टयूब लिंक ही छोड़ दूं --नफ़रत की लाठी तोड़ो ....मेरे देश-प्रेेमियो ...
अच्छा, दोस्तो, अब सुबह हो गई है ...आप को अपनी बालकनी से इस के दीदार करवाते हैं ......बात मेरी अभी अधूरी है- कोरोना को धोेने की बातें तो अधूरी ही रह गई हैं ...बेशक जो लोग संभावित कोविड-19 के मरीज़ों के सामने कोरोनो की आंख में आंख डाल कर डटे हुए हैं, उन सब को सफ़ाईकर्मी से लेकर सुपर-स्पैशलिस्ट तक सभी को ...मेरा दंडवत नमन ...और बाकी के लोग जो बाहर सड़कों पर प्रशासन के बार बार आगाह किए जाने के बावजूद बिना मास्क पहने या सोशल-डिस्टेंसिंग से बेपरवाह आंख-मिचौनी खेल रहे हैं ....और महंगे सेनेटाइज़र को ही संजीवनी बूटी समझने की हिमाकत कर रहे हैं, उन के लिए यही संदेश है कि इस वक्त कोरोना के इस दौर में ऐसे ही मज़हब के खेल मत खेलिए......सामने वाले हर शख़्स को कोरोना का संभावित मरीज़ शायद न भी सही , कम से कम इस ख़तरनाक वॉयरस का वाहक तो समझ ही सकते हैें ......लेकिन, इस चक्कर में किसी के भी साथ कोई भेदभाव के चक्कर में मत पड़िए, इस का मज़हब से कोई लेना देना नहीं.....बस, कुछ छोटी छोटी बातों का ख़्याल रखिए.....जिसे मेडीकल भाषा में कहते हैं यूनिवर्सल प्रिकाशंज़ (हरेक द्वारा बरतने योग्य सावधानीयां) ..
और जहां तक बात है कोरोना को धोने-धुलवाने की .......उस बात पर फिर अमिताभ की वह 40 साल पुरानी बार बार देखी फिल्म लावारिस का वह गीत याद आ गया जिस में एक जगह वह फिल्म की नायिका से पूछता है कि पैसे से तुम भला क्या क्या खरीदोगे ........लेकिन मैं अपने आप से पूछ रहा हूं कि कोरोना के चक्कर में दिन भर में क्या क्या, कब तक, किस किस चीज़ से, कितनी कितनी बार धुलते रहेंगे .......आप भी सोच तो यही रहे होंगे .....लेकिन अब सोचना बंद करिए और यह गीत सुनिए ...कालेज के उन दिनों में इस तरह के गीत हमारे दिलो-दिमाग पर छाए रहते थे .....अभी तो हैं वैसे तो .....अमिताभ ने ही अपने फ़न से दुनिया की बड़ी ख़िदमत की है ....आप गीत सुनिए .....(काश, इस वक्त मैं आप को दिखा पाता कि मेरे शरीर मच्छरों के काटने के कितने निशान हैं .....मैं अकसर घर में कहता हूं कि अगर इस तरह की कालोनी में मच्छरों की यह मार है तो बाहर क्या हाल होगा ......लेकिन बात वही है, हम लोग आइसोलेटेड नहीं रह सकते, तस्वीर में आपने कॉलोनी की सफ़ाई तो देख ली है ..लेकिन इस की बांउड्री के बाहर वही खुले नाले हैं , वहीं थोड़ी दूर गंदगी के अंबार है ......इसलिए, जब सभी को साफ़-सफ़ाई वाला माहौल मयस्सर होगा तभी हम सब मच्छरों के आंतक की चिंता किए बग़ैर चैन की नींद सो पाएंगे ....वरना यूं ही चलता रहेगा ...!!.... ठीक उसी तरह कोरोना से बचने का भी बिल्कुल सीधा सा मंत्र है कि सभी सुरक्षित रहेंगे तो हम भी सुरक्षित रहेंगे ....बिल्कुल पंजाबी की उस बेमिसाल कहावत जैसे ...कर भला, हो भला......तेरे भाने सरबत दा भला!
अच्छा जी, अपना बहुत सारा ख़्याल रखिए...कोरोना की धुलाई की बाकी बातें अगली पोस्ट में करेंगे...
पिछले कुछ दिनों में कईं बार देखा है गुटखा, पान आदि चबाते लोग अपने मुंह पर लगी काली पट्टी नुमा लगे मास्क के इलास्टिक को थोड़ा इधर-उधर करते हैं, पीक थूकते हैं और वापिस उस मास्क को मुंह पर सेट कर के मुतमईंन हो लेते हैं...मेरा एक मित्र हंसते हंसते लोटपोट हो रहा था जब वह अपने दफ़्तर का किस्सा सुना रहा था कि वहां पर अंदर जाते वक्त किसी तरह की सोशल-डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो रहा था ..एक बात ...दूसरी बात जो उसे बड़ी अजीब लगी कि हर आने वाले शख़्स का दूर से तापमान देखने वाला कर्मचारी बीच बीच में मोबाइल पर बतियाए जा रहा था ....मुंह में पता नहीं सुपारी जैसा कुछ चबाए भी जा रहा था, दूसरे हाथ से एक मंजे हुए वैज्ञानिक की तरह लोगों को तापमान मापे भी जा रहा था...और खास बात यह कि अपना मॉस्क भी ऊपर-नीचे किए जा रहा था ..और मित्र ने बताया कि अपनी और दूसरों की सुरक्षा का इतना ढुल-मुल रवैया रखते हुए भी कोरोना-वारियर वाला चोगा उसने पूरा चढ़ाया हुआ था।
दफ़्तर के अंदर जाने वाले किसी शख़्स से वह मुलाज़िम उलझ गया कि मुझे क्या पता कि तुम पैरासिटामोल खा कर आए हो ....अब वॉटसएप ने हरेक को इतना पढ़ा लिखा तो बना ही दिया है कि सामने से वह आदमी बोला कि ये जिन लोगों को अंदर घुसने दे रहे हो, तुम्हें क्या पता कि इनमें से कितने लोग घर से पैरासिटामोल खा कर आए हैं...।दोस्त कहने लगा कि यह जो हम लोग डिस्क्रिशन पॉवर का बडा हो-हल्ला मचाए रहते हैं न - यह भी फ़क़त बड़े साब लोगों की ही नहीं होती, ये हर इंसान के पास होती है ...अब यही इंसान की सुनिए, अगर फोन पर बात करते वक्त हो गई कुछ गर्मा-गर्मी तो सारा कानून, खुन्नस अगले इंसान पर कि तुम्हें मास्क लगाना भी नहीं आता और अगर मूड है खुशनुमा तो कोई बात ही नहीं, बीच बीच में "जान पहचान वाले" एक दो लोग अकड़ कर सीधे घुसे जाते भी दिख जाते हैं...
और उस मित्र ने बताया कि दफ़्तर के अंदर जाने से पहले पैर से आप्रेट होने वाली हाथ धोने की और टूटी जिस के साथ ली गई बीसियों शेल्फ़ीयां वॉयरल हो गईं थीं, आज उस का पैर से दबाने वाला हिस्सा चालू ही नहीं हो रहा था ...हंसते हंसते कहने लगा कि चलो यार उस का भी कोई ग़म नहीं क्योंकि उस पानी की ज़रूरत तो तभी पड़ती जब हाथ धोने वाला लिक्विड-सोप हाथ पर लगाया होता ....लेकिन उसे तसल्ली इस बात की हुई कि लिक्विड-सोप ख़त्म हो चुका है, अलबत्ता उस का डिलीवरी सिस्टम बिल्कुल काम कर रहा था ...चलिए, हाथ-धुले, नहीं धुले उस टेम्परेचर चैक करने वाले मुलाज़िम वाले नाके से भी पास हो गये ...तभी एक दूसरा मुलाज़िम दफ़्तर के अंदर घुसने वाले हर शख़्स की हथेली पर चंद बूंदे सेनेटाईज़र की रख रहा है ...
जी हां, यह आज कल दफ़्तर में या किसी अस्पताल के बाहर भी ऐसा नज़ारा देखने को मिले तो चौंकिए नहीं -- कुछ बातें दुरुस्त करने की ज़रूरत है हम जानते हैं लेेकिन बहुत सी बातें इन दफ़्तरों के बस की हैं भी नहीं और शायद हो भी नहीं सकती ...कह देना बहुत आसान है कि हर आने जाने वाले को फेस-मास्क दिया जाएगा ...सेनेटाईज़र से उस के हाथ सेनेटाईज़ किए जाएंगे ...ये सब बातें पढ़ने-सुनने और देखने में आदर्श तो लगती हैं लेकिन जब तक हर शख़्स अपनी सुरक्षा का जिम्मा ख़ुद नहीं लेगा, बहुत मुश्किल है कुछ भी कर पाना। चलिए, यह एमरजैंसी है, शायद आम आदमी को नसीहत की मुग़ली-घुट्टी पिलाने का मौका भी नहीं है, इसलिए जैसी व्यवस्था चल रही है, जो मुहैया करवाया जा रहा है उसे स्वीकार करिए और अपनी भी ज़िम्मेदारी समझिए...
बहुत से बुज़ुर्ग लोगों को भी देखता हूं - घर में तैयार हुए कपड़े के मॉस्क अच्छे से मुंह पर लगाए निकलते हैं...मंद रफ्तार से सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा ख़्याल रखते हुए अपनी खरीदारी करते हैं और आराम से अपने आशियाने के लिए पैदल या साईकिल पर इन्हें लौटते देखता हूं ...अच्छा लगता है कि ये अपना ख़्याल रखते हैं ...बाकी रही बात बाहर इन के साथ गुफ़्तगू करने वाले लोग -- हम जितने मर्जी़ जहां भर के आडंबर कर लें लेकिन कटु सत्य यह है कि हमारी आबादी का यह हिस्सा अकेला था और अकेला ही है ...ख़ैर, जो है सो है....अभी तो कोरोना को धोने की बात हो रही है, यह कहां मैं बागबान की तरफ़ निकल गया...
आगे चलते हैं ...चलते क्या हैं, पहले तो यह बता दूं कि मैंं आज मैं इत्ती सवेरे कैसे उठा बैठा हूं ....इस समय सवा चार बजे हैं, मैं तीन बजे से उठा हुआ हूं ...क्योंकि रात होते ही मच्छरों के आतंक की वजह से मैं सोने के नाम से खौफ़ खाने लग गया हूं ...लखनऊ की शायद सब से साफ़ सुथरी कालोनी में रहते हैं ...एक पत्ता भी नीचे गिरा नज़र नहीं आता ...लेकिन फिर भी मच्छर इतने हैं ...मच्छरदानी, ऑल-आउट, ऑडोमास और वह जो इंस्टैंट-मच्छर मार टिकिया आने लगी है ....ये सब एक साथ इस्तेमाल होते हैं लेकिन फिर भी हालत ऐसी है कि मैं कल बेटे को कह रहा था कि ऐसा कुछ नहीं हो सकता है कि हम लोग रात में काम करें और सुबह सोते रहें ......वह कहने लगा कि यही तो मैं कहता हूं, लेकिन जब मैं कहता हूं तो आप को ठीक नहीं लगता ...मैंने कहा कि तुम तो भाई नेट-फ्लिक्स के चक्कर में कहते हो ...
हां, मच्छर गुणगान यह इसलिए चल पडा़ कि गुज़रे दौर में यह भी किसी के रूतबे का एक इंडिकेटर हुआ करता था कि उस की कॉलोनी में कीटनाशक दवाई का छिड़काव या फॉोगिंग कितने अंतराल के बाद होती है ..पंजाबी में एक बड़ी मशहूर कहावत है कि किसी का मत्था ढमना --- इस का मतलब यह है कि किसी के लिए दिखावटी उपाय कर देना ...इसी तर्ज़ पर बरस में एक बार इस तरह का छिड़काव भी हो जाता रहा है यहां वहां ...जहां पर यह करना ज़रूरी होता है ..ज़रूरी का मतलब आप ख़ुद समझ लीजिए...यह तो थी मच्छर की बातें .....बातें तो अब करनी हैं कोरोना की .....कल मैंने अपने फ्लैट की बालकनी से देखा कालोनी में एक पानी के टैंकर जैसी गाड़ी घुसी और उस पर कुछ स्प्रे करने वाला कुछ यंत्र लगा हुआ था ...और यह सड़कों पर और कॉलोनी के पेड़ों और बेलों पर छिड़काव किए जा रहा था ...एक बार तो मुझे लगा कि.. दो महीने में एक बार इस तरह के छिड़काव से भला क्या होगा....लेकिन और कुछ होगा कि नहीं होगा ...किसी की छवि तो चमकेगी क्योंकि रात होते होते कॉलोनी वाले वाटसएप ग्रुप पर कॉलोनी के उस शख़्स का शुक्रिया अदा करने वाले का तांता लग जाता अगर कॉलोनी के सैक्रेटरी ने उस ग्रुप को वन-वे ट्रैफिक न किया होता ....क्योंकि उसमें केवल हम उस के भेजे मैसेज पढ सकते हैं ....
गुड मार्निंग, लखनऊ .... |
हां, तो यह जो संभावित सोडियम-हाइपोक्लोराइट के छिड़काव की बात है ....बात अच्छी है या बुरी, मैं यह भी नहीं जानता, क्योंकि विभिन्न सार्वजनिक जगहों पर तो जब लोगों के ऊपर इस तरह का छिड़काव कुछ दिन पहले किया गया तो मीडिया में इसकी बहुत आलोचना हुई कि यह आप लोग क्या कर रहे हैं, इस तो आम लोगों को नुकसान हो रहा है ....और कॉलोनी जैसे बडे़ इलाके में इस तरह का छिड़काव ख़ुश करने का फ़क़त एक ज़रिया बेशक हो सकता है ...और कुछ नहीं ...क्या हमें लगता है कि अमेरिका के पास धन-वैभव की कमी है .....और अगर इन सब चीज़ों से कुछ ज़्यादा लाभ होने वाला होता तो क्या वह कम करता ...इसलिए अब हम लोग भी ख़ुश करने वाली मानसिकता से, या चुप करवाने वाली या मुंह बंद रखवाने वाली गुलामों वाली मानसिकता से बाहर निकलें जितनी हो सके उस से भी जल्दी तो बेहतर होगा .....हर बात का औचित्य ख़ुद ढूंढें ...यह कोई बताने नहीं आएगा ...क्योंकि अभी भी मार्कीट शक्तियां बड़ी हावी हैं ...हैरानगी तो इस बात की है कि इस कोरोना के दौर में भी ... इसलिए सच ख़ुद तलाशना होगा और जब कहीं मिल जाए तो उसे कम से कम उन लोगों के साथ तो ज़रूर बांटिए जिन के पास वाट्सएप नहीं है, और जो आसानी से आप की बात पर यकीं भी कर लेंगे क्योंकि सोशल-मीडिया से जुड़े लोगों को सचेत करने के लिए तो दुनिया भर के संदेशे हैं...वे देर-सवेर अपना सच ख़ुद ही ढूंढ लेंगे ..उन की रिसर्च अलग तरह की है ..
हम लोग अस्पताल से ड्यूटी कर के आते हैं तो यकीं मानिए ऐसे लगने लग गया है जैसे पता नहीं कहां से हो आए हैं...सीधा बाथ-रूम का रुख करते हैं ...हाथ अच्छे से धोते हैं ....मुंह धोते हैं ...फिर कपड़े बदलते हैं, उतारे हुए कपड़े बाहर बालकनी की तार पर ही छोड़ देते हैं ताकि अगर कोरोना के कीटाणु उन पर चिपके हैं तो वे मर जाएं ... फिर अपने जूते को भी बालकनी में ही छोड़ देते हैं ताकि उसे धूप-हवा लगे ...अपने मॉस्क को उतार कर एक पन्नी में रखते हैं क्योंकि चार-पांच दिन बाद उस का नंबर आएगा ....फिर मोबाइल को सेनेटाइज़ करते हैं ....इतना सब कुछ करते करते थक जाते हैं ...प्यास लग जाती है ...झल्लाहट होती है कि कमबख़्त यह सब कब ख़त्म होगा, हम लोग कब चैन की सांस लेंगे ..और हां, फिर हाथ में जो भी कागज़, चाभी या कोई सामान जो बाहर से लेकर घर में अंदर घुसे थे...फिर शक की सूई उस पर जा टिकती है ....लेकिन जब तक दिमाग़ का दही बन चुका होता है ...और चुपचाप सोफे पर पसर जाते हैं ...
लेकिन यह क्या , जैसे ही सैनेटाईज़्ड मोबाइल को हाथ में लिया ....और वाट्रसएप देवता के दर्शन किए ...उसी वक्त ख़्याल आया कि यह सेनेटाईज़र से एक तरह की ओबसैशन के चलते अभी भी हम लोग अपनी सोच को तो सेनेटाईज़ कर ही नहीं पाए ... वही ज़हनियत ...बस, फ़र्क़ इतना कि अब जिम खुल नहीं रहे, बाहर टहलने में भी रोका टोकी है, ऐसे में सोशल-मीडिया पर ही कोई धार्मिक पोस्ट उछाल कर वहीं पर थोडी़ दिमाग़ी कसरत ही क्यों न कर ली जाए.......कल भी यही हुआ ......अच्छे पढ़े -लिखों के ग्रुप में किसी ने एक वीडियो डाल दी ..जिसमें किसी प्राईव्हेट अस्पताल के किसी कर्मचारी ने किसी मरीज़ से पूछ लिया कि उस का मज़हब क्या है......ज़ाहिर सी बात है वह शख़्स भड़क गया ...बात वहां के प्रशासन तक पहुंची तो वीडियो में दिखाया गया कि वे कहने लगे कि ऐसी बात नहीं है कि यहां पर किसी एक धर्म के लोगों का ही इलाज होता है ....यह तो पागल है ...वह बंदा कहने लगा कि अगर पागल है तो अस्पताल में क्या कर रहा है, इसे पाग़लख़ाने में भर्ती करवाओ......
जैसे ही किसी ने यह वीडियो शेयर की .....क्या पता फेक है, असली है ....आजकल हर दूसरी वीडियो तो अगले दिन फेक साबिर हो रही है --ऐसे में किस पर यकीं करें किस पर न, यह भी एक सिरर्दी तो है, लेकिन हमारी ख़ुद की मोल ली हुई क्योंकि हम ही तो हर वक़्त सोशल मीडिया की कालिख वाली कोठरी में घुसे रहते हैं ...जहां पर अधिकतर एजैंडे पर काम चल रहा होता है .. कोई अपनी छवि चमकाने की फ़िराक में है तो कईंयों ने केवल नफ़रत फैलाने का काम अपने जिम्मे लिया होता है ...कोई सनसनी फैला रहा है तो कोई कुछ और । हां, उस अस्पताल वाली वीडियो के शेयर होते ही उस ग्रुप पर दो धडे़ बन गए ...एक बार तो मन किया कि देशप्रेमी फिल्म का अमिताभ पर फिल्माया गये उस गीत के यू-टयूब लिंक ही छोड़ दूं --नफ़रत की लाठी तोड़ो ....मेरे देश-प्रेेमियो ...
दस साल पुरानी अपनी यह फोटो देख कर सोचता हूं कि दस साल में बंदा कितना बुड्ढा दिखने लगता है 😂😂 |
और जहां तक बात है कोरोना को धोने-धुलवाने की .......उस बात पर फिर अमिताभ की वह 40 साल पुरानी बार बार देखी फिल्म लावारिस का वह गीत याद आ गया जिस में एक जगह वह फिल्म की नायिका से पूछता है कि पैसे से तुम भला क्या क्या खरीदोगे ........लेकिन मैं अपने आप से पूछ रहा हूं कि कोरोना के चक्कर में दिन भर में क्या क्या, कब तक, किस किस चीज़ से, कितनी कितनी बार धुलते रहेंगे .......आप भी सोच तो यही रहे होंगे .....लेकिन अब सोचना बंद करिए और यह गीत सुनिए ...कालेज के उन दिनों में इस तरह के गीत हमारे दिलो-दिमाग पर छाए रहते थे .....अभी तो हैं वैसे तो .....अमिताभ ने ही अपने फ़न से दुनिया की बड़ी ख़िदमत की है ....आप गीत सुनिए .....(काश, इस वक्त मैं आप को दिखा पाता कि मेरे शरीर मच्छरों के काटने के कितने निशान हैं .....मैं अकसर घर में कहता हूं कि अगर इस तरह की कालोनी में मच्छरों की यह मार है तो बाहर क्या हाल होगा ......लेकिन बात वही है, हम लोग आइसोलेटेड नहीं रह सकते, तस्वीर में आपने कॉलोनी की सफ़ाई तो देख ली है ..लेकिन इस की बांउड्री के बाहर वही खुले नाले हैं , वहीं थोड़ी दूर गंदगी के अंबार है ......इसलिए, जब सभी को साफ़-सफ़ाई वाला माहौल मयस्सर होगा तभी हम सब मच्छरों के आंतक की चिंता किए बग़ैर चैन की नींद सो पाएंगे ....वरना यूं ही चलता रहेगा ...!!.... ठीक उसी तरह कोरोना से बचने का भी बिल्कुल सीधा सा मंत्र है कि सभी सुरक्षित रहेंगे तो हम भी सुरक्षित रहेंगे ....बिल्कुल पंजाबी की उस बेमिसाल कहावत जैसे ...कर भला, हो भला......तेरे भाने सरबत दा भला!
अच्छा जी, अपना बहुत सारा ख़्याल रखिए...कोरोना की धुलाई की बाकी बातें अगली पोस्ट में करेंगे...