बुधवार, 22 अप्रैल 2020

बातें कोरोना की ....1

कोरोना के बारे में इतना कुछ सोशल मीडिया में आ चुका है कि अब तो डाक्टर भी सोच रहे होंगे कि हमारे कहने लायक रहा ही क्या...

हक़ीक़त है कि बहुत कुछ दिखा इस टॉपिक के ऊपर -- हर तरफ़ से ..और क़िस्म की बातें ...बहुत सी बातें गुमराह करने वाली-- दिक्कत यह है कि जो इन बातों को सोशल मीडिया पर शेयर कर रहा है उसे भी इस बात का इल्म नहीं होता कि वह क्या शेयर कर रहा है, पर उसे किसी ने वह जानकारी भेजी और उस ने आगे सरका दी...

मैं भी ज़्यादा बातें नहीं करना चाहता --- इस पोस्ट में तो दो चार बातें ही करूंगा .. क्योंकि बहुत सी बातें तो हम लोग पहले ही से जानते हैं...

यह जो सोशल-डिस्टेंसिंग वाली बात है ना, यह गंभीरता से लेने वाली बात है ...बहुत दुःख हुआ उस दिन जिस दिन घर ही में थाली बजाने को कहा गया था और दुनिया बाज़ारों में ढोल-नगाड़े लेकर पहुंच गई.. इस से लॉक-डाउन का मक़सद ख़त्म हो जाता है ..

यह बात हम सब लोग कोरोना के बारेे में अच्छे से याद रख लें कि लॉक-डाउन के दौरान हम लोग कोरोना से जंग नहीं लड़ रहे हैं, हम इस से छिप रहे हैं ...इस का मतलब यह है कि लॉक-डाउन तो ज़रूरी है ही ...लेकिन जब लॉक-डाउन खुलेगा तो वह भी हमारे सब के इम्तिहान की घड़ी होगी...सरकारें जितना कर सकती हैं कर ही रही हैं, हम लोगों की भी ज़िम्मेदारी है -

इस बात तो नोट करें कि कोरोना अभी कहीं जाने वाला नहीं -- कब तक? - जब तक इस का कोई टीका तैयार नहीं हो जाता या लोगों में एक सामूहिक इम्यूनिटी पैदा नहीं हो जाती है ...इसे इंगलिश में हर्ड-इम्यूनिटी भी कह देते हैं ...इस बीमारी का टीका कब बनेगा..कोई कह रहा है एक साल लग सकता है, कोई डेढ़ साल कह रहा है ...सभी मेडीकल विशेषज्ञ इस काम में जुटे हुए हैं ...जी हां, एक तरीका तो वह है कि जब लोगों को इस का टीका लग जाएगा तो उन में इस बीमारी से लड़ने की शक्ति पैदा हो जाती है .. बिल्कुल वैसे ही जैसे बहुत सी दूसरी बीमारियों के लिए टीके लगते हैं और लोग उन बीमारीयों से बचे रहते हैं....यह तो एक तरीका है, दूसरा तरीका है ...अगर सारी जनसंख्या का कुछ प्रतिशत (मुझे नहीं प्रतिशत कितना है ..कुछ कह रहे हैं 60 फ़ीसद, कुछ कह रहे हैं 90 फ़ीसद, लेकिन इतनी गहराई में आप भी न जाएं) इस बीमारी से संक्रमित हो जायेगा ...चाहे उन में इस बीमारी का ज़्यादा जटिल रूप देखने को नहीं भी मिलेगा (और 80-85 प्रतिशत केसों में ऐसा ही होगा) या ऐसा भी हो सकता है कि उन में से बहुत से लोगों में कुछ लक्षण ही न हों ...चाहें किसी में लक्षण हों, चाहे थोड़े-बहुत लक्षण हों अथवा बीमारी की जटिल व्याधियों के लिए उसे अस्पताल में रहना पड़ा हो ....बात सीधी सीधी इतनी सी है कि जो भी हो लेकिन इन सब लोगों में इस बीमारी से लड़ने के लिए (इम्यूनिटी) एंटीबॉडी बन चुके हैं...यह एक तरह का हथियार होता है जो किसी बीमारी से हमारी रक्षा करता है ..

अब एक बात और अच्छे से सुनिए ...बहुत सी बीमारीयां तो ऐसी ही होती हैं जैसे हैपेटाइटिस बी ...टेटनस, काली खांसी आदि कि एक बार शरीर में इन से बचाव का टीका लग गया तो यह हमें उसे बीमारी से सुरक्षा प्रदान करता है ... हां, यह होता है कि कईं बार डाक्टर के मशविरे के मुताबिक बूस्टर डोज़ लगवानी होती है ..

लेकिन मसला कोरोना में यह भी बताया जा रहा है कि कुछ केसों में यह दोबारा भी हो रहा है ....इसलिए किसी किस्म की ढिलाई की गुंजाइश नहीं है ......कोई ऐसा न समझे कि एक बार कोरोना हो गया तो फिर से नहीं होगा...इसलिए वह तो जैसे मरज़ी घूमे ...बिना मास्क लगाए और बिना सोशल-डिस्टेंसिग का ख़्याल रखे। नहीं, ऐसा मुनासिब नही है क्योंकि इस के फिर से होने के भी कुछ केस सामने आए हैं....मेडीकल वैज्ञानिकों को यह लग रहा है कि जिन लोगों में एक बार कोरोना होने के बाद दूसरी बार हुआ ...उन में यह वॉयरस के बदले हुए रूप (वॉयरस म्यूटेट होने से) की वजह से हो रहा है ....ये सब बातें अभी ज़्यादा खोज की स्टेज पर ही हैं, इसलिए बस इसे भी थोड़ा ख़्याल में रख लीजिए।


एक बात का ख्याल रखना और भी ज़रूरी है कि हो सकता है कि जिस इंसान को कोरोना इंफेक्शन तो है लेकिन लक्षण कुछ नहीं हैं....लेकिन क़ाबिले-गौर बात यह है कि यह शख्स भी वॉयरस संक्रमण आगे फैलाने में सक्षम है और संक्रमण होने से अगले 35 दिन तक ....चाहे ख़ुद इस में लक्षण नहीं हैं.....इसलिए यह जो बात है न कि हम लोग मुंह पर गमछा रख लेते हैं या महिलाएं कहती हैं कि हम फल-सब्जी लेने जाते हैं तो मुंह पर दुपट्टा रख लेते हैं ....नहीं, यह गलत है ...चेहरे पर घर पर बना हुआ फेस-मास्क तो लगाना ही होगा...हमेशा याद रखिए...

लेखक अपनी ड्यूटी पर 

बाकी की बातें कल करेंगे .... लेकिन इतना ज़रूर ख़्यार रखिए कि घर में बने फेस-मास्क ज़रूर पहन लिया करें ... यह बहुत ज़रूरी है...यह जंग लंबी चलने वाली है ........इसलिए लॉक-डाउन के दिनों के बाद भी हमें एहतियात बरतनी होंगी ...मेडिकल विशेषज्ञों का मानना है लॉक-डाउन खुलने के बाद कोरोना के केसों में बहुत इज़ाफ़ा होगा ....यह जो दो-तीन महीने का समय सरकारी सेहत विभाग को मिला है इस में बहुत सी तैयारियां की जा चुकी हैं और अभी भी की जा रही हैं ताकि अचानक बहुत से केसों के आ जाने से चिकित्सा तंत्र कैसे उन्हें संभाल पाने में सक्षम रहे..


कल सुबह मैं आप से रोग-प्रतिरोधक शक्ति बढा़ने के बारे में विस्तार से बात करूंगा ...अच्छा, आज यहीं बंद करते हैं ....मस्त रहिए, स्वस्थ रहिए....हिंदु-मुस्लिम वाले मुद्दों में न उलझिए....कुछ हाथ नहीं लगेगा...हम सब एक हैं...बेचारे सब परेशान हैं...सब के लिए दुआ करिए...बड़ी ताक़त है दुआ में ...




शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

आने वाला पल जाने वाला है ...

आने वाला पल जाने वाला है ... अभी बिग-एफ.एम पर यह गीत बज रहा था तो मुझे याद आ गया कि इसने तो मुझे एक इनाम भी दिलाया था अभी हाल ही में ... एक कांफ्रेस में गया था ...वहां पर एक गेम चल रही थी ...गाने की शुरूआती धुन वे बजाते थे और धुन बजाते ही जितनी जल्दी हो सके आप अपना हाथ खड़ा करेंगे ...बस, इस की धुन शुरू हुई और दो-तीन सैकेंड में मैंने पहचान लिया - फिर मुझे वह अपनी बेसुरी आवाज़ में उसे गाना भी था... और इनाम भी मिला...खुशी इतनी हुई जितनी पांचवी कक्षा में योग्यता छात्रवृत्ति की लिस्ट में आने पर हुई थी....

फिल्मी गाने भी क्या चीज़ हैं...मैं तो इन्हें सुनते ही इन्हें लिखने वालों के बारे में सोचने लगता हूं कि कैसे उन्होंने ये सब लिख दिया... अद्भुत ...मुझे साठ-सत्तर के अधिकतर गाने बहुत भाते हैं...इन के लिरिक्स, म्यूज़िक और परदे पर इन पर अभिनय करने वाले .. वाह ..वाह ...वाह!

सोचता हूं बहुत बार कि बचपन में जवानी में हम गीतों को उन के खिलंड़रेपन के लिए पसंद करते थे ...फिर धीरे धीरे जैसे जैसे उम्र बढ़ती है तो उन के बोल भी दिमाग में कहीं दस्तक देने लगते हैं... और 50-60 की उम्र के आसपास जब ज़िंदगी के तज़ुर्बों वाले एयर-फोन्स के साथ उन्हें सुनते हैं ...फ़ुर्सत में ---तो लिखने वालों के हाथ चूम लेने की हसरत होती है ... लेकिन वे दरवेश अब कहां ...वे तो अपना काम कर के वो गए ..वो गए....कुछ के बारे में बहुत कुछ जानने का मौका मिलता है .. फिर भी कम ही लगता है ... मसलन, कुछ अरसे से उस महान गीतकार आनंद बक्शी के बेटे राकेश बक्शी से उन के बारे में सुनता रहता हूं ....बहुत अच्छा लगता है ...और उन के गीतों की रचना के बारे में मज़ेदार बातें पता चलती हैं..।

महान गीतकार नीरज जी को भी लखनऊ में बहुत बार मिलने का मौका मिला .. उन का लिखा हुआ एक एक गीत भी मन को छू जाता है ..बेमिसाल गीत लिख दिए उन्होंने भी ..और सभी गीतकारों के बारे में पढ़ना मुझे बहुत भाता है ..

किस किस का नाम लूं ....सभी गीतकारों ने हमें ऐसे तोहफ़े दिेए हैं कि उन की तारीफ़ करने के लिए अल्फ़ाज़ भी तो चाहिए...वे कहां से लाऊं!!

अच्छा एक बात और शेयर करूं ...मैं उर्दू सीख रहा था ...ज़माने के हिसाब से मैं थोड़ा डफर तो हूं ही ...चलिए, कोई बात नहीं ...लेकिन उर्दू पढ़ने-लिखने की तमन्ना बहुत थी ...कुछ महीने बीत गए लेकिन वाक्यों की बनावट-बुनावट पल्ले ही न पड़ रही थी ...ऐसे में क्या हुआ कि लखनऊ की सड़कों की ख़ाक छानते हुए (मैंने यह काम बहुत किया है..) मुझे कहीं से मुझे उर्दू में लिखी फुटपाथ से वे 5-10 रूपये में बिकने वाली किताबें मिल गईं ...किशोर कुमार के गीत, मो.रफ़ी के गीत ... बस, फिर क्या था, वे सब मेरे पसंदीदा गीत तो थे ही ...मैंने उर्दू में लिखी इबारत को समझने-पढ़ने के लिए उन किताबों को खोल कर यू-ट्यूब पर वे गीत सुनने शुरू कर दिए ... बस, फिर क्या था, मुझे उर्दू के अल्फ़ाज़ की बनावट की पहचान होने लगी ... मैं आज सोचता हूं तो मुझे हंसी भी आती है कि कईं बार जुगाड़ भी कैसे काम कर जाते हैं..

चलिए, वह गीत तो सुन लें जिसे मैंने शायद कॉलेज में पांव रखते ही गोलमाल फिल्म में देखा था ......फिल्म भी हम लोगों ने स्कूल-कॉलेज के ज़माने में शायद ही कोई छोडी़ हो, 40 साल पुराना यह वह दौर था जब मेरी प्यारी मौसी को यह गलतफ़हमी हो गई कि उस के भांजे की शक्ल अमोल पालेकर से कितनी मिलती है और वह सब को यह बताती फिरती थीं (शुरू ही से हम ऐसे तोंदू-तोतले थोड़े न थे..) 😂

अब इच्छा नहीं होती मल्टीप्लेक्स में जाकर देखने की .....अब तो कईँ बार हो चुका है कि मैं इंटरवल से पहले ही सो जाता हूं क्योंकि वह से भाग कर बाहर आने की सर्वसम्मति नहीं बन पाती ...आजकल तो जब भी फिल्म देख कर आते हैं, अकसर एक तरह से निश्चय करते ही हाल से निकलते हैं कि बस, अब नहीं आया करेंगे !!

यकीं रखिए, यह कोरोना वाला मौजूदा पल भी जल्दी चला जाएगा ...लेकिन इस के लिए आप लोग घर में बैठे रहिए...मिनट मिनट की यह ख़बर ढूंढने के चक्कर में कि यह महामारी किस चरण में हैं, आप अपने चरणों को अपने घर ही में रोके रखिए...बड़ी मेहरबानी होगी ..

यह रहा उस गीत का यू-ट्यूब लिंक
https://youtu.be/AFRAFHtU-PE

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

"छपाक" देख ली आज रिलीज़ होते ही ...

मुझे तो इस फिल्म का नाम भी चार पांच दिन पहले ही पता चला ....लखनऊ टाइम्स में दीपिका, रणवीर को लखनऊ के शीरोज़ में देखा ...शीरोज़ को चलाने वालीं एसिड-अटैक पीड़ित युवतियों के साथ...

उस दिन ही पता चला कि छपाक नाम से कोई मूवी रिलीज़ होने वाली है ... दीपिका ने उसमें काम किया है...

गुज़रे दौर में फिल्मों केे बारे में कम से कम कुछ हफ्ते पहले तो पता चल ही जाया करता था ... जगह जगह पर पोस्टर लग जाया करते थे .. हम लोग स्कूल-कालेज आते वक्त उन्हें निहारते और जैसे तैसे उन की एडवांस-बुकिंग का जुगाड़ करने के बारे में सोचने लगते ...

लेकिन वक्त ज़्यादा ही बदल गया देखते ही देखते ...फिल्म का पहला दिन -- और सारे हाल में 20-30 लोग ही होंगे ... अजीब लगता है ...लेकिन आज कल फिल्में चलती भी तो पांच सात दिन ही हैं...बस वीकएंड की भीड़ ही बिजनेस करवा जाती है ...

फिल्म बहुत अच्छी है ...एक एसिड अटैक पीड़ित युवती मालती के संघर्ष की कहानी है ....दीपिका ने तो अपना किरदार बखूबी निभाया ही है ...

लखनऊ के शीरोज़ में मैं दो कार्यक्रमों में शिरकत कर चुका हूं ..एक तो मेरे एक मित्र की किताब का बुक-लांच था और दूसरा लखनऊ कथा-कथन का कार्यक्रम था...अच्छी जगह है ...रेस्टरां भी है वहां ...फिल्म तो आप लोग देखिए ही और जब भी मौका मिले शीरोज़ भी हो आया करिए...सुकून से बैठने की सही जगह है ..

शीरोज़ का मतलब ? - जैसे युवकों को हीरो (हीरोज़) कहते हैं....ऐसी बहादुर बेटियों को शीरोज़ कहने की एक पहल है ...

मालती की कहानी हमारी संवेदनाओं को झंकृत करती है बेशक ..उस ने इतनी लंबी लड़ाई लड़ी कसूरवार को सज़ा दिलवाने के लिए और फिर एसिड की बिक्री पर रोक लगवाने के लिए ... लेकिन दुःख इस बात का भी हुआ फिल्म के बाद जब आंकडे़ दिखाए गये कि एसिड-अटैक रुके नहीं हैं...चल ही रहे हैं जैसे कि एसिड की बिक्री भी नहीं रुकी ...कोई भी एसिड खरीद सकता है ... यह जान कर दिल बहुत दुःखी हुआ...

मुझे याद आ रहा है कुछ बरस पहले जब कोर्ट का फैसला आया था एसिड की बिक्री पर रोक लगने के बारे में तो सब लोग बहुत खुश थे ...लेकिन इस तरह के नियम लागू करने कितने मुश्किल हैं, कितने आसान ... ये तो जानकार ही बता सकते हैं...स्टेक-होल्डर ...मेरे जैसा बंदा इस के बारे में क्या बताए जो फ़क़त एक बार 30 साल पहले जब बाजा़र से घरेलू साफ़-सफ़ाई के लिए एसिड लेने गया था तो दुकानदार ने एक रजिस्टर में नाम पता लिखवा कर और मुझे ऊपर से नीचे तक देख कर ही वह बोतल दी थी!!

फिल्म के एंड में आंकड़े कुछ इस तरह के दिखाए गये  कि 2017 में भी एसिड-अटैक तो शायद 250 के करीब हुए और हाल ही में 2019 में दिल्ली में एक एसिड-अटैक की शिकार युवती को तो अपनी जान भी गंवानी पड़ी ...

यह भी मैं क्या लिख गया...जान गंवानी पड़ी ...एसिड-अटैक की शिकार जिन बेटियों की जान नहीं भी जाती उन का जीना कैसे दूभर हो जाता है ... मैंने भी यह फिल्म देख कर ही जाना ...हर किसी की बांह पकड़ने वाला भी तो नहीं होता ...अपने बलबूते पर महंगे इलाज, सर्जरी, प्लास्टिक सर्जरी करवाना कहां लोगों के बस में होता है ...

दस दिन में निर्भया कांड के दोषियों को सजा-ए-मौत हो जायेगी ...एसिड अटैक के मुजरिम कमबख़्तों को भी ऐसी ही कड़ी सजा मिलनी चाहिए ... होगा!  यह भी होगा, ऐसी उम्मीद कर सकते हैं.... हमें अपनी न्याय-प्रणाली से पूरी उम्मीद है ....

गुटखे पर भी तो प्रतिबंध है ...मुझे इस के बारे में लिखते-समझाते 30-35 बरस बीत गये ... लेकिन लोगों ने इस का भी तोड़ निकाल लिया है ...अब पान मसाले के पैकेट के साथ ही लोग पिसी-हुई तंबाकू का एक पाउच भी ले लेते हैं ...उन दोनों को मिला कर गुटखा तैयार हो जाता है ...लेकिन गुटखा खाने वाले तो अपनी ही जान लेते हैं ........जब कि एसिड अटैक करने वाले तो प्रतिबंध के बावजूद दूसरे की जान लेने पर उतारू होते हैं...

यही सोच रहा हूं कि देश की समस्याएं बेहद जटिल हैं ... यहां पर कहीं भी दो गुणा दो चार नहीं है !! हर इंसान मजबूर है ..ऊपर से लेकर नीचे तक ...अब यह मत पूछिए, ऐसा क्यों ! 

मेघना गुलजार का शुक्रिया कि किसी ने ऐसी पीडि़त युवतियों की दास्तां लोगों तक पहुंचाई तो ....इस तरह की फिल्मों को टैक्स तो माफ होना चाहिए ..