गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

लखनऊ के रेल इंजन कारखाने में आयोजित हुआ मल्टी-स्पैशलिटी हैल्थ चैक-अप कैंप


भारतीय रेल केवल अपने रोलिंग-स्टॉक (रेल इंजन और गाड़ियों के डिब्बे जो रेल पटड़ी पर सरपट भागते हैं) की अच्छी सेहत की ही चिंता नहीं करती ...इसे रेल परिवार के 14 लाख सदस्यों की सेहत की भी पूरी चिंता रहती है ... क्योंकि यही वे लोग हैं जिन के भरोसे हम सब लोग कंबल ओढ़ कर लंबी तान कर रात को सो जाते हैं .... एक एक रेलकर्मी की भूमिका अगर आप जान लेंगें तो उस को नमन करने लगेंगे।

रेलवे के चिकित्सा विभाग का लक्ष्य रहता है कि हर कर्मचारी की एक साल में एक बार तो पूरी जांच हो ही जाए. इस के अलावा वह अनिवार्य जांच तो होती ही है जो रेल के चालकों, गार्डों और सैंकड़ों तरह के कर्मचारीयों की एक निश्चित अवधि के बाद होती है ...जिस में पास होने पर ही वे लोग गाड़ी के परिचालन से संबंधी कोई काम कर सकते हैं ...ऐसे में कुछ श्रेणीयां ऐसी भी हैं जिन के लिए इतनी गहन जांच अनिवार्य नहीं है ...इसलिए रेलवे वर्ष में विभिन्न कार्यालयों, रेल के कारखानों, रेल की उत्पादन इकाईयों, बड़े-छोटे स्टेशनों पर, रेलवे की कालोनियों, स्कूलों, सैंकड़ों अस्पतालों एवं स्वास्थ्य इकाईयों में हैल्थ-चैक-अप कैंप आयोजित करती ही रहती है ....जिस में हमेशा रेल कर्मी और उन के परिवारीजन बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं.




आज भी यहां लखनऊ मंडल के चिकित्सा विभाग की मुख्य चिकित्सा अधीक्षक, डा वी.एम.सिन्हा  की प्रेरणा से एवं उन के मार्गदर्शन में लखनऊ के चारबाग में रेलवे लोकोमोटिव वर्कशाप में एक मल्टी-स्पैशलिटी हैल्थ चैक-अप कैंप का आयोजन किया गया --आप को इस कारखाने के बारे में बताते चलें कि यह भारतीय रेल का एक अहम् इंजन कारखाना है जहां पर रेल के इंजनों का पूरा इलाज होता है ..और यहां से टनाटन डिक्लेयर होने के बाद ही ये रेल की लाइनों पर सरपट दौड़ते हैं...



सेहत के मामले में हम सब एक जैसे ही हैं ---चाहे डाक्टर हो या फिर आम आदमी --- बस, जब तक चलता है चलाते रहते हैं ...लेकिन इस मानसिकता से रोगों को बढ़ावा मिलता है ...इसलिेए जब ऐसे कारखानों में इस तरह के शिविर लगते हैं तो कर्मियों का उत्साह देखने लायक होता है ... वरना हम आलस्य करते हैं ...कभी कभी डरते भी हैं, झिझकते भी हैं कि पता नहीं डाक्टर लोग कौन सी बीमारी निकाल दें ....लेकिन जब ऐसी जगह पर कैंप लगते हैं तो कर्मचारी एक दूसरे की देखा देखी और खेल-खेल में अपनी सभी जांच करवाने के लिए प्रेरित हो जाते हैं ....



आज भी यह जो कैंप था इस में फिज़िशियन, आरथोपैडिक, डैंटल, ईएनटी, नेत्र रोग एवं महिला रोग विशेषज्ञ मौजूद थे - इस में डेढ़ सौ से ऊपर कर्मचारीयों की जांच हुई ...कुछ हाई-ब्लड शूगर और कुछ उच्च रक्तचाप के नये केस सामने आये ---इसी तरह से दूसरे विशेषज्ञों का भी यही अनुभव रहा. दांतों और मुंह के रोगों के बारे में तो कहूं तो एक भी कर्मचारी ऐसा नहीं था जिसे कोई न कोई दंत रोग न हो ...उन सब का उचित मार्गदर्शन किया गया कि उन्हें पास ही स्थित रेल के अस्पताल में आकर उचित इलाज करवाना चाहिए।

इस तरह के कैंप के कईं फायदें हैं ---जिन लोगों को अपने रोगों के बारे में पता होता है उन्हें अपनी बीमारी से संबंधित डाक्टर से मिल कर तसल्ली हो जाती है ... उन के लिए ज़रूरी हिदायतों को समय समय पर उन्हें याद दिलाना भी ज़रूरी होता है ... यह ख़बर भी लेनी ज़रूरी होती है कि वे नियमित दवाईयां ले भी रहे हैं या नहीं, बदपरहेज़ी तो नहीं कर रहे ... और नियमित जांच करवा भी रहे हैं या नहीं.... दूसरे लोग वे होते हैं जिन्हें कैंप वाले दिन ही किसी नईं बीमारी का पता चलता है ... और यह देखिए  कि अगर इस तरह के कैंप नियमित लगते रहते हैं तो अकसर किसी भी बीमारी को प्रारंभिक अवस्था में ही पकड़ा जा सकता है...



अच्छा एक कैटेगरी और भी है थोड़ी अलग सी --ये वो लोग हैं जो सोचते हैं कि तंबाकू, सिगरेट पीते बरसों बीत गये ... ड्रिंक करते भी कईं साल हो गये --अब पता नहीं शरीर में कितने पंगे हो चुके होंगे, अब इन व्यसनों को छोड़ कर क्या हो जाएगा ...इसलिए इन में एक झिझक, डर होता है ...लेकिन जब जांच करवाने पर चिकित्सक इन के कंधे पर मुस्कुराते हुए कहता है कि अभी भी हालत ऐसी गंभीर नहीं है, आज ही से यह सब छोड़ दीजिए.... इस का फ़ायदा आज ही से होना शुरू हो जायेगा ..  मैंने अनुभव किया है कि ऐसे लोगों को भी ये सब व्यसन छोड़ने की बहुत बड़ी प्रेरणा मिलती है ..

नियमित जांच के फायदे ही फायदे हैं ... क्योंकि बहुत सी चीज़ें चिकित्सक की अनुभवी आंखें ही पकड़ पाती हैं...और एक बात, कईं बार आदमी छोटी मोटी तकलीफ़ों को नज़रअंदाज़ इसलिए कर देता है कि यह अपने आप ठीक हो जायेगी ...लेकिन चिकित्सक जब देखता है तो उसे वे किसी जटिल बीमारी के लक्षण लगते हैं ...और दूसरी तरफ़ कोई इंसान बिना वजह किसी तकलीफ़ की वजह से इसलिए खौफ़ज़दा रहता है कि पता नहीं यह कितनी बड़ी बीमारी हो ...लेकिन चिकित्सक जब उसे देखता है तो चंद दिनों की दवाई से ही वह निरोगी हो जाता है .... तो बात तो वही हुई ....जिस का काम उसी को साजे ....अपनी सेहत से संबंधित फ़ैसले ज़्यादा गूगल-वूगल के हवाले नहीं करने चाहिए....सीधे डाक्टर से बात करने से ही आप को चैन आ सकता है....

एक बात और कि कैंप में सभी पैरा मैडीकल कर्मियों ने भी बड़ा सराहनीय कार्य किया ---होता तो टीम-वर्क ही है ...सभी की ब्लड-शूगर जांच की गई, उन का बीएमआई इंडेक्स निकाल कर उन्हें इस के बारे में सचेत किया गया।

बातें और और भी बहुत ही लिखने वाली हैं ...लेकिन कोई कितना लिखे ....वैसे भी यह तो करने वाला काम है कि आप अपने चिकित्सक से पास जाकर नियमित जांच करवाते रहा करिए...और विशेषकर जब कभी ऐसे चैक-अप कैंप लगें तो इन का भरपूर फायदा लिया करें ....जिन चिकित्सकों तक आप को पहुंचने में अस्पताल में घंटों लग जाते हैं .......वे इक्ट्ठा हो कर आप के पास ही पहुंचे होते हैं ....अगर कोई इस मौके का भी फायदा न उठा पाए तो कोई उसे क्या कहे!!

पोस्ट को बंद मैं एक फिल्मी गीत से ही करना चाहता हूं क्योंकि इतनी भारी भरकम बोझिल बातों की काट भी अपने हिंदी फिल्मी गीत ही होते हैं ....मैं ऐसा मानता हूं ...तो आज कौन सा गीत लगा दें ....अच्छा, रेल इंजन कारखाने की बात चल रही है और उन महान इंसानों की सेहत की बात हो रही है जो अपनी मेहनत और लगन से इन इंजनों को सेहतमंद रखते हैं ... इसलिए विधाता फिल्म का रेल के इंजन में फिल्माया गया मेरा पसंदीदा गीत ही सुनते हैं... मेरे पास जो पुराने ज़माने के ड्राईवर आते हैं उन्हें मैं कभी जब पूछता हूं कि ड्राईवर साहब, विधाता तो देखी होगी आपने !! .....जिन्होंने देख रखी है वे हंस देते हैं और जिन्होंने अभी नहीं देखी होती वे कह देते हैं ...ज़रूर देखेंगे, डाक्टर साहब 😄


गुरुवार, 14 नवंबर 2019

विश्व मधुमेह दिवस पर उत्तर रेलवे मंडल चिकित्सालय लखनऊ में आयोजित हुआ जागरूकता कार्यक्रम


आज 14 नवंबर को विश्व मधुमेह दिवस के अवसर पर उत्तर रेलवे मंडल चिकित्सालय लखनऊ में समस्त स्टॉफ एवं मरीज़ों के लिए इस रोग से संबंधित जागरूकता बढ़ाने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया जिस की अध्यक्षता मुख्य चिकित्सा अधीक्षिका डा विश्वमोहिनी सिन्हा ने की और डा अमरेन्द्र कुमार एवं डा संदीप कुमार ने इस रोग से संबंधित बहुत सी जानकारी साझा करी।


डा संदीप कुमार, फ़िज़िशयन

डा संदीप कुमार ने इस रोग की उत्पति के बारे में, इस के इतिहास के बारे में और इस के इलाज में इस्तेमाल होने वाली इंसुलिन दवाई के विकास के बारे में बताया ... और डा अमरेन्द्र ने भी इस रोग के लक्षणों, बचाव एवं उपचार के बारे में बहुत अच्छे से आम बोलचाल की भाषा में बताया जिस से सभी लाभान्वित हुए।

एक बात हम सोच लेते हैं कि आज के युग में ऐसे जागरूकता कार्यक्रमों का औचित्य क्या है, सब कुछ तो सोशल मीडिया पर हमें मिलता ही रहता है ... लेकिन जो जानकारी हमें सोशल मीडिया पर हासिल हो रही है उस की विश्वसनीयता के बारे में आप सब जानते ही हैं ....किस तरह से वे कुछ भी चमत्कारी इलाज को प्रोत्साहन देने लगते हैं ...आप ने भी तो कईं बार देखा होगा कि फलां फलां बीज पीस कर इतने दिन खा लीजिए, बस पुरानी से पुरानी डायबीटीज़ हमेशा के लिए ख़त्म....वास्तविकता यह है कि इन सब टोटकों से कुछ नहीं होता....बस, नीम हकीमों और झोलाछाप डाक्टर अपना उल्लू सीधा करते हैं और मरीज़ की हालत बद से बदतर हो जाती है ...इस लिए इस तरह के जागरूकता कार्यक्रमों की बहुत ज़रूरत होती है ...जहां पर ऐसे वरिष्ठ चिकित्सक जिन का बीसियों सालों का तजुर्बा रहता है ऐसे मरीज़ों के इलाज का ...जब वे एक घंटे के लिए अपने अनुभव साझा कर रहे होते हैं तो उन की हर बात को ध्यान से सुन कर गांठ बांध की ज़रूरत होती है।

डा अमरेन्द्र कुमार, चीफ़ फ़िज़िशियन 

इस जागरूकता कार्यक्रम में बहुत कुछ सुनने-समझने का मौका मिला ...उन सब को इस ब्लॉग पर समेटना संभव नहीं है ..लेकिन कुछ बहुत अहम् बिंदुओं की बात करते हैं जिन पर विशेष ज़ोर दिया गया ...

पंद्रह दिन में मधुमेह ख़त्म
अकसर इस तरह की बातें आपने सुनी होंगी कि फलां फलां बंदे को मधुमेह था, उसने पंद्रह दिन कोई देशी दवाई खाई - पता उसे भी नहीं होता कि उसने दवाई के नाम पर क्या खाया, लेकिन फिर उस की शूगर की बीमारी सदा के लिए ख़त्म हो गई। यह सब निराधार बाते हैं ...ऐसा कुछ नहीं होता ...यह असंभव है ... यह भोली भाली जनता को अपने जान में फांसने के तरीके हैं, और कुछ नहीं ...जहां पर इस तरह की बातें सुनें, उन का खंड़न करें और उन्हें प्रशिक्षित चिकित्सक से ही संपर्क करने को कहें।

अंग्रेज़ी दवाई एक बार ली तो सारी उम्र लेनी पड़ेगी
अकसर लोग को यह भी कहते हैं कि शूगर के इलाज के लिए अंग्रेज़ी दवाई एक बार लेनी शुरू कर दी तो फिर सारी उम्र लेनी पड़ेगी ...इसलिए कुछ लोग देशी टोटकों और नीम हकीमों के चक्कर में पड़ कर अपनी सेहत बिगाड़ लेते हैं। इन सब से कुछ नहीं होता, ऐसी कोई दवाई अभी तक नहीं बनी है जो इस रोग को जड़ से ख़त्म कर दे, लेकिन, हां, समुचित प्रशिक्षित चिकित्सक की देखरेख में होने वाले इलाज से इस रोग को कंट्रोल ज़रूर किया जा सकता है और इस के लिए मरीज़ को अपनी जीवनशैली को भी सुधारना होगा ....चाहे वे खाने पीने की आदते हैं या शारीरिक परिश्रम करने की आदतें हों।

                                             
शूगर का लेवल 500 से 200 आ गया तो चलता है
अकसर हम लोग देखते सुनते हैं कि जिन मरीज़ों का शूगर का स्तर पहले बहुत बड़ा हो जैसे की 400, 500 (मि.ग्रा %) और इलाज करने के बाद जब वह दो-ढ़ाई सौ तक आ जाए तो उन्हें लगता है कि इतना तो चलता है, कहां 500 थी पहले और अब तो नीचे आ ही गई है . ..ऐसे में वे अपनी दवाई की लापरवाही करने लगते हैं , बदपरहेजी होने लगती है ...लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि नहीं, 200 भी ज़्यादा है ....शूगर के इतने स्तर से भी इस रोग के टारगेट अंगों पर होने वाले बुरे असर निरंतर होते रहते हैं .... इस का मतलब यह है कि लक्ष्य पूरे कंट्रोल का होना चाहिए - जैसा कि इस कार्यक्रम में भी बताया गया।

इंसुलिन का टीका लगवाना तो झंझट है 
लोगों में यह भ्रांति घर कर चुकी है कि शूगर के रोग के इलाज के लिए पहले तो खाने वाली गोलियों से काम चलाया जायेगा लेकिन अगर वे काम नहीं करेंगी तो ही इंसुलिन का टीका लेना होगा ...ऐसा नहीं है, ये सब फ़ैसले प्रशिक्षित चिकित्सक ने करने होते हैं ...यह काम उन का है, उन पर छोड़िए... हो सकता है कि मधुमेह के इलाज की शुरूआत ही इंसुलिन से हो और हो सकता है कि इसे बाद में इस्तेमाल किए जाने वाले विकल्प की तरह इस्तेमाल किया जाए। और एक बात यह कि अब तो इंसुलिन की दवाई के लिए लगने वाले टीके पेन की शेप में आने लगे हैं जिन को लगाते समय पता ही नहीं लगता।

रेलवे अस्पताल लखनऊ में सभी दवाईयां उपलब्ध
डा अमरेन्द्र ने कहा कि लोगों के मन में एक भ्रांति यह भी घर कर चुकी है कि सरकारी अस्पतालों में इस रोग की दवाईयां पता नहीं कैसी मिलती हों, कैसी न मिलती हों...लेकिन ऐसी बात नहीं है, उत्तर रेलवे के अस्पताल में वे सभी दवाईयां जो आज विश्व भर में इस रोग के लिए इस्तेमाल हो रही हैं, उपलब्ध है, श्रेष्ठ गुणवत्ता की हैं और पूर्णतयः कारगर हैं।

नियमित जांच जरूरी है 
मधमेह की नियमित जांच के साथ साथ तीन महीने के अंतराल पर गलाईकोसेटिड हीमोग्लोबिन टेस्ट करवाना चाहिए ... हर छः महीने पर ईसीजी और हर साल इको-टेस्ट होना चाहिए, छःमहीने के बाद अपनी आंखों की जांच करवानी चाहिए, और गुर्दे की कार्य-प्रणाली की जांच हेतु भी ब्लड-यूरिया एवं सिरम क्रिएटिनिन जैसी जांचें करवानी ज़रूरी हैं। अपने पैरों की नियमित जांच करते रहें, आरामदेय जूता पहनें और नाखुन काटते वक्त ध्यान दें कि ज्यादा गहरे न काट दें...

डा अमरेन्द्र ने अपने व्यक्तव्य में इस बात पर जो़र दिया कि शूगर के रोगी का इलाज करना केवल डाक्टर के हाथ ही में नहीं होता ... उस के लिए पैरामैडीकल स्टॉफ, रोगी के परिवारीजन और उसे स्वयं इस में एक सक्रिय भूमिका निभाने की ज़रूरत है ....इस रोग की तरह लेकर मायूस न हुआ जाए ..बस, इस के लिए सहज रूप में अपनी जीवनशैली में बदलाव किए जाएं, दवाई को समय पर लिया जाए और समय समय पर विभिन्न जांचें करवाई जाएं।

मधुमेह नामक इस महामारी की व्यापकता का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जितने मरीज़ों को यह तकलीफ़ है, उतने ही लोगों को यह पता नहीं है कि उन्हें यह रोग नहीं है,..कहने का भाव यह है कि दो में से एक मरीज़ को ही पता है कि उसे यह रोग है। इसलिए इस तरह के जागरूकता कार्यक्रमों को नियमित आयोजित किया जाना नितांत ज़रूरी है ...और वैसे भी रेलवे में थोड़े थोड़े अंतराल के बाद चिकित्सा शिविर लगते रहते हैं जिस में लोगों की ब्लड-शूगर जांच भी की जाती है।

जागरूकता कार्यक्रम के समापन सत्र में मुख्य चिकित्सा अधीक्षिका डा. विश्व मोहिनी सिन्हा ने भी इंसुलिन की उत्पति के बारे में और इस के बारे में व्याप्त भ्रांतियों की तरफ़ इशारा किया.... उन्होंने कहा कि मीठा खाना मना है .......लेकिन मीठा बोलना बहुत ज़रूरी है ...उन्होंने सभी चिकित्साकर्मियों को प्रेरित किया कि वे अपने बोलचाल का लहज़ा नरम रखें, मृदुभाषी बनें जिस से की मरीज़ों का मनोबल बढ़े।


मुख्य चिकित्सा अधि. डा विश्व मोहिनी सिन्हा -समापन-सत्र के दौरान 

मैं वैसे अपने ब्लॉग में इतनी भारी भरकम बातें कम ही करता हूं ...आज मौका था, ऐसा करना ज़रूरी था.... चलिए, माहौल को थोड़ा हल्का करते हैं ...कुछ दिन पहले मैं एक पंजाबी विरासती मेले में था वहां पर मुझे मेरे गृह-नगर अमृतसर से आईं गुरमीत बावा और उन की बेटियों को सुनने का मौका मिला .... लो जी सुनते हैं उन के द्वारा पेश की गईं पंजाबी बोलियां .... गुरमीत बावा अब 75 साल की हैं, 53 साल से पंजाबी लोकगीत गा रही हैं ....और 50 साल से मैं इन्हें सुन रहा हूं, और इन की गायकी का मुरीद हूं ....बचपन में रेडियो पर, फिर टीवी पर ...उस के बाद जहां भी इन का कार्यक्रम होता, वहीं पहुंच जाता ....आप भी सुनिए....



शुक्रवार, 10 मई 2019

दादी, तुम अच्छी नहीं दिखती !

अभी खाली बैठे बैठे रेडियो सुनते हुए मन में ख़्याल आया कि हम लोग सब कुछ किताबों से और स्कूल से ही नहीं सीखते, बहुत कुछ हमें हमारे पेरेन्ट्स बिना कुछ कहे सिखा के चले जाते हैं...जैसा हम उन का बर्ताव दूसरे लोगों के साथ देखते हैं, हम भी कहीं न कहीं उसी सांचे में ढलने लगते हैं, आप का क्या ख़्याल है...हमने अपने पेरेन्ट्स को हमेशा देखा कि उन का व्यवहार हर एक इंसान से एक जैसा होता था...घर में काम करने वाले लोगों से लेकर, रिक्शा वाले के साथ, सब्जी वाले के साथ ....हम ने बचपन में ही बड़े ही अच्छे से सीख लिया कि जात-पात, धर्म, चमड़ी के रंग या पढ़ाई लिखाई के आधार पर किसी से अपना बर्ताव नहीं बदलना होता... सब बराबर हैं...और यह सीखने का ज़िंदगी में बहुत फ़ायदा हुआ ...ज़िंदगी आसान सी लगने लगी ... किसी को भी बुलाते वक्त 'जी' लगाने से कौन सा जान निकल जाती है...

हमारे बच्चे भी जब हरेक के साथ बेहद इज़्ज़त से पेश आते हैं तो रूह ख़ुश हो जाती है बॉय-गाड....

सच में बात कितनी सही है कि जिस चीज़ पर हम लोगों का अख्तियार ही नहीं है, उस के आधार पर किसी तरह का भेद-भाव या दुर्भावना पाल लेना कितनी बड़ी बेवकूफी है ...है कि नहीं..

बीजी जब कभी अपनी ठोढी पर उग रहे बाल चिमटी से साफ कर रही होती तो हमें कहा करतीं कि एक बार ट्रेन में एक औरत पर उगे हुए चेहरे के बाल देख कर उन्हें बड़ी क्रीच सी महसूस हुई (क्रीच का मतलब होता है कि मन ख़राब होना)...बस, कुछ समय के बाद उन की ठोढी पर भी बाल उगने लगे...मां को बहुत मलाल रहा कि उस के मन में यह भावना आई क्यों....हम जानते हैं कि हारमोन्ज़ की वजह से यह सब किसी भी महिला में हो सकता है ...बस, एक बात शेयर करनी थी बीजी की ...

आज मेरे पास एक दंपति आए ...पुरूष 80 के ऊपर हैं और महिला दो चार साल कम (महिला को फुलबहरी है, चेहरे पर भी) ...मरीज़ महिला थीं...दोनों बड़े ख़ुश-मिज़ाज हैं...हंसते हंसते बात करते हैं...और हम लोग पंजाबी में ही बात करते हैं...मुझे उन का मेडीकल-आइडेंटिटी कार्ड का नंबर देखना था...मैंने जैसे ही उसे खोला ...और उस महिला की तस्वीर देखी ...यही कोई दो-चार साल पहले की तस्वीर होगी ...बड़े सलीके से सफेद बाल बंधे हुए ..मैं भी कहां अपने आप को रोक पाता हूं...जो मन में होता है, उसे बोल कर ही दम लेता हूं....मैंने उन्हें ऐसे ही कह दिया कि आप की फोटो बहुत अच्छी आई है ...आप तो किसी स्कूल की प्रिंसीपल लग रही हैं....मेरी यह बात सुन कर वे दोनों हंसने लगे और पास खड़े दो-तीन मरीज़ और ठहाके लगाने लगे ..

ठहाके जैसे ही बंद हुए ...उस बुज़ुर्ग महिला की एक बात से माहौल थोड़ा गंभीर हो गया...उन्होंने कहा - " डाक्टर साहब, मेरा पोता तो मुझे कहता है कि आप अच्छी नहीं दिखती हो..।" मैंने पूछा...क्यों, ऐसा क्यों कहता है वह। उन्होंने बताया कि बस, इसी की वजह से (अपनी फुलबहरी की तरफ़ इशारा किया)....मैंने तुरंत कहा कि ऐसा कुछ नहीं है, हमें तो आप किसी स्कूल की हैड-मिस्ट्रेस लगती हैं...यह सुन कर माहौल फिर से हल्का-फुल्का हो गया..

हर बात का रुख बदलना भी तो हमारे हाथ में ही होता है ...जिधर चाहे मोड़ कर मूड ख़ुशनुमा कर लेना चाहिए ...

वह औरत तो चली गई लेकिन मुझे अफसोस इस बात का बड़ा रहा कि उस पोते की परवरिश करने में इस दादी ने भी कुछ तो किया ही होगा, कितनी रातें जागी होगी, दुःख सुख में उस का साथ निभाया होगा ...लेकिन बड़ा होेने पर अगर पोते ने दादी को यही तमगा देना था तो ...

फुलबहरी है तो क्या है ....अंदर उस दादी की रूह कितनी सुंदर है ...और वैसे भी वह अब भी प्रिंसीपल से कम नहीं लग रही थीं...यह तो मैं पहले ही लिख चुका हूं...

उस दंपति के जाने के एक घंटे बाद एक युवक अपनी मां को लेकर आया....यह महिला भी मेरी पुरानी मरीज़ हैं...65 साल के करीब होंगी ...आज उस महिला के दोनों हाथों पर पट्टियां बंधी हुई थीं...मैंने पूछा तो बेटे ने बताया कि एसिड गिर गया मां के हाथों पर ...मैंने पूछा - कैसे ..तो उसने बताया कि कार की बैटरी फट गई ... मैंने कहा कि कार की बैटरी के पास मां क्या कर रही थीं...उसने बताया कि वे तीन लोग...वह, उस की बहन और मां मोटरसाईकिल पर जा रहे थे ...एक रेड-लाइट पर रुके थे ...इतने में एक तेज़ आवाज़ करती हुई कार आई .. उसे रोक कर उस के मालिक ने जैसे ही उस का बोनट खोला, उस की बैटरी फट गई और एसिड पास ही खड़ी मोटरसाईकिल पर बैठे इन तीन लोगों पर पड़ गया....बेटे के तो कपड़ों पर एसिड गिरा ...कपड़े जल गये...बहन के चेहरे पर गिरा ..आंखों के आस पास...(लेकिन वह भी अब ठीक है) और मां के दोनों हाथ एसिड की चपेट में आ गये ...

मैंने भी यही कहा कि चलिए, आप लोग बच गये ....आंखें आप सब की बच गईं....वह भी यही कह रहा था ..

उन के बारे में सोच कर यही लग रहा है कि लोग अपनी सुंदरता के लिए कितने कितने जतन करते हैं...लेकिन खेल चंद लम्हों का है .... सुंदर होना, सुंदरता बढ़ाना यह सब रब्बी बातें हैं... बुटीक में हज़ारों रुपये बहा देने से भी कुछ नहीं होता ...बाहरी सुंदरता से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है रूह की सुंदरता ...और यह भी रब्बी मामला है ..

बेहद खूबसूरत चेहरों के पीछे बदसूरत रूहें दिख जाती हैं ...और सामान्य चेहरे के पीछे छुपी खूबसूरत रूह का पता उन की प्यारी मुस्कान और हंसी बता देती है अकसर ...कुछ लोगों का हंसना भी कितना डरावना सा होता है ..जैसे किसी की खिल्ली उडा़ने के लिए वह अपनी बतीसी को जेहमत दे रहे हों ...और कुछ सामान्य चेहरों की हंसी कितनी बेबाक होती है और अपने आस पास खुशियां बिखेर देती है....एक सत्संग में मैंने यह बात सुनी थी कि मौला, दुनिया में हंस वही सकता है ....या तो वह दीवाना हो ...या फिर जिसे तू हंसने की तौफ़ीक बख्शता है....

मुझे यह बात बड़ी अच्छी लगी ...

चलिए, इस पोस्ट की थीम से मेल खाता एक फिल्मी गीत सुनते हैं ...दिल को देखो, चेहरा न देखा...चेहरों ने लाखों को लूटा...मेरा एक पसंदीदा गीत ...