शनिवार, 26 जनवरी 2019

विटामिन 'डी' की कमी को दूर करना - कितना आसान, कितना मुश्किल!

उस दिन भी सुबह पार्क में टहलते हुए मज़ा आ गया...उस पार्क में ओपन-एयर जिम वाले उपकरण नये नये लगे थे ...बहुत अच्छा लगा..

यह मंज़र अच्छा इसलिए भी लगा क्योंकि वहां उस समय बड़े-बुज़ुर्ग पूरे मज़े कर रहे थे...६०-७० साल की महिलाएं...७०-८० बरस वाले पुरूष ..सब उन नईं मशीनों को टेस्ट करने में लगे हुए थे...और सब के चेहरों पर इतनी ख़ुशी कि जो भी उन्हें देखता वह भी ख़ुश हो जाता.. सब के खिले हुए चेहरे देख कर अपना भी मन खिल गया...

मुझे उन उपकरणों के नाम नहीं आते ...एक ऐसा था जिस पर लेट कर नीचे जाना होता था, फिर पीछे से उठ कर आगे होता था...एक ५०साल के करीब दिखने वाले शख़्स को अपने पप्पा की चिंता हो रही थी कि क्यों ये सब कर रहे हैं...वह उन्हें कह रहा था कि इस से चक्कर भी आ जाता है कभी कभी ..लेकिन पप्पा ने भी एक न सुनी,  वे अपनी क्षमता अनुसार उस मशीन पर आगे-पीछे हो कर ही उठे ..अच्छा लगा... हम लोग भी कितने फिल्मी हैं एक दम, उस समय मुन्ना भाई एमबीबीएस याद आ गया...
जीने के लिए ख़ुशी कितनी ज़रूरी है, इस का पाठ तो मुन्ना भाई एमबीबीएस ने भी अच्छा पढ़ाया था...

एक और मशीन थी जिस पर चार महिलाएं चढ़ी हुई थीं और ट्विस्ट कर रही थीं...और आने जाने वाली अपनी सखियों को भी न्यौता दे रही थीं...बहुत अच्छा...

यह सब सुबह सवेरे वाली गुनगुनी गुलाबी धुप में चल रहा था .... मैं भी टहल कर एक बेंच पर बैठ गया...पास ही किसी का अखबार पड़ा हुआ था ...जिस की पहली ख़बर ही यह थी कि विटामिन डी को दवाईओं में न ढूंढे...बिल्कुल सही बात लिखी थी...मैंने उस की फोटो खींची और उस लेख को यहां पेस्ट कर रहा हूं..आप भी पढ़ लीजिए...


मुझे भी बहुत से मरीज़ों की याद आ गई ...जो हर हफ़्ते दूध में डाल कर वह विटामिन डी वाला पाउच तो पी लेते हैं...लेकिन जब उन से सुबह थोडा़ टहलने की, थोड़ा धूप सेंकने की बात की जाती है तो वह बात को यह कह कर टाल देते हैं कि सुबह सुबह टाइम नहीं होता ...करेंगे, करेंगे...बस ऐसे ही टाल जाते हैं।

विटामिन डी लेने के लिए सुबह की धूप सब से ज़्यादा मुफ़ीद होती है... और क़ुदरत के कानून भी ऐसे हैं कि उस समय टहलने से विटामिन डी ही नहीं मिलता, बहुत से और फ़ायदे भी तो मिलते हैं...क्या क्या गिनाएं! ...क्या यही कम है कि हम जिस दिन गुनगुनी धूप में टहल कर आते हैं कितना फ्रेश और ख़ुश महसूस करते हैं !

विटामिन डी खाने से भी मिलता है ...दूध और दूध के प्रोड्क्ट्स में, कईं तरह की मछली में, अंडे में ....लेकिन बहुत से लोग न मछली खाते हैं और न ही अंडा ही लेते हैं....और दूध तो जैसा बाज़ार में मिल रहा है, वही तो लेना पड़ेगा....ऐसे में क़ुदरती तरीके से भी विटामिन डी को हासिल करना बहुत ज़रूरी है...ध्यान रखिए...केवल उस दूध में डाल कर विटामिन डी वाले सैशे को ले लेने पर कोई कैसे भरोसा कर सकता है ....लेकिन कभी उसे लेना भी पड़ता है जब विटामिन डी की कमी ख़तरनाक स्तर तक कम हो जाती है ....लेकिन यह सब डाक्टर की सलाह ही से होता है।

विटामिन डी भी गजब चीज़ है...कमी को दूर रखना इतना अासान भी और इतना मुश्किल भी ...मुश्किल उन लोगों के लिए जो घरों से बाहर धूप में बिल्कुल भी नहीं निकलते और निकलने से पहले सन-स्क्रीन लोशन लगा लेते हैं...

विटामिन डी का शरीर में होना क्यों ज़रूरी है ...यह बहुत बड़ा टॉपिक है ...बस, अगर इतना ही याद रखें कि हमारे शरीर में कैल्शियम को जज़्ब होने के लिए भी विटामिन डी की ज़रूरत होती है ...वरना, कोई कितनी भी कैल्शियम से लैस ख़ुराक खा ले, वह शरीर में ढंग से जज़्ब ही नहीं होगा...और शरीर में कैल्शियम की कमी, विटामिन डी की कमी ....एक तरह से आफ़त....हड़्डियों की कमज़ोरी, बार बार हड्डी टूटने का रिस्क, यहां तक की हृदय रोग होने की भी आशंका....मानव शरीर में सब कुछ एक दूसरे के साथ जुड़ा हुआ है ....और अगर शरीर में एक भी चीज़ की कमी होती है तो वह बहुत से अंगों और उन की कार्य-प्रणाली को प्रभावित करती है ...

लिखते लिखते मुझे याद आ रहा है कि विटामिन डी को सनशाइन-विटामिन भी कहते हैं...क्योंकि जैसे ही हम लोग सूरज की रोशनी में थोडा़ नहा लेते हैं ...हमारा मूड भी चकाचक हो जाता है ...कुछ ठंडे मुल्कों में जहां कईं कईं दिन सूरज के दर्शन नहीं होते, वहां पर लोग अकसर उन दिनों अवसाद (डिप्रेशन) का शिकार हो जाते हैं.....क्या कहते हैं, जी हां, इसे विंटर-ब्लूयज़ कहते हैं ...और डिप्रेशन को भगाने के लिए उन्हें तरह तरह की दवाईयां लेनी पड़ती हैं जिन के अपने फ़ायदे-नुकसान तो होते ही हैं.....

मैं भी क्या अवसाद-वाद की बातें ले कर बैठ गया...हम तो ख़ुश रहने और दूसरों को ख़ुश रखने की बातें कर रहे थे ...ऊपर आपने अख़बार की कटिंग में विटामिन वाली ख़बर के नीचे यह भी लिखा हुआ पढ़ लिया होगा कि किस तरह से गुनगुनी धूप से फूल भी मुस्कराने लगते हैं....अगर फूल ऐसा कर सकते हैं तो हमें कौन रोक रहा है!!

जाते जाते एक गीत सुन लेते हैं ... धीरे धीरे सुबह हुई, जाग उठी ज़िंदगी ...इसे मैं आज सुबह अपने पसंदीदा विविध भारती पर सुन रहा था...मुझे इस के लिरिक्स और इस का म्यूज़िक बहुत पसंद है...

शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

सुबह टहलने वाले इस शख़्स के जज़्बे को सलाम

मैं अच्छे से जानता हूं कि सुबह का वक़्त अपने लिए ही होता है ... खु़द के साथ रहने के लिए, क़ुदरत के साथ रहने के लिए...रोज़ाना टहलने के लिए भी ...लेकिन पिछले कुछ हफ़्तों से मेरा टहलना छूटा हुआ था ...कुछ नहीं, बस बहानेबाजी, आज देर से उठा हूं तो टाइम नहीं है, आज जल्दी उठ गया हूं तो कैसे जाऊं...अभी तो कुहासा है ... कभी ठंड बड़ी है तो कभी कुछ लिखना है ...लेकिन ये सब कोरे बहाने हैं मुझे पता है ... मुझे सुबह जल्दी उठ कर टहलना बहुत भाता है ... क़ुदरत का वह रूप बस उस वक्त ही दिखता है, हमारी चार्जिंग भी उसी वक़्त ही हो सकती है ...जैसे ही इंसान पूरी तरह से जाग जाता है ...फिर तो वह क़ुदरत से ख़िलवाड़ शुरू कर देता है ...

पिछले कुछ दिनों से पता नहीं क्यो, बुढ़ापे के एक और लक्षण ने घेर रखा है ...रात तीन बजे के करीब जाग आ जाती है ...हिज्जे लगा लगा कर उर्दू की कोई क़िताब पढ़ने की कोशिश करते करते १-२ घंटे बीत जाते हैं, फिर सो जाता हूं ...फिर उठने में देर हो जाती है ...ऐसे में टहलना नहीं हो पाता।

जितने वक्त भी घर होते हैं, सर्दी की वजह से घर के दरवाज़े खिड़कियां बंद ही रहते हैं... ऐसे में माहौल बड़ा डिप्रेसिंग सा बन जाता है ... अगर सुबह टहलने भी न निकलें तो सारा दिन अजीब सी सुस्ती घेरे रखती है ...

आज भी एक ऐसी ही सुबह थी ... लेकिन आज ठान लिया कि टहलने तो जाना ही है ..और कुछ काम हो चाहे न हो...देखा जायेगा। मैंने बेटे को कहा कि चलो, चलते हैं..वह भी उठ गया।

घर के पास ही एक पार्क में टहल रहे थे तो एक बुज़ुर्ग दिखे ...एक तो मुझे यह बुज़ुर्ग लफ़्ज भी अब अजीब लगने लगा है ...मैं भी ५५ पार कर चुका हूं ...मैं भी तो छोटा-मोटा बुज़ुर्ग ही तो हूं... किसी को बुज़ुर्ग कहना मुझे ऐसा लगता है जैसे अपने आप को ऐसे दिखाना कि अभी तो मैं जवान हूं!!


ख़ैर, इस बुज़ुर्ग के बारे में मैंने कुछ महीने पहले भी लिखा था जब इन्हें पहली बार देखा था, आज भी जब इन को देखा तो मुझे बड़ी खुशी हुई...मैंने बेटे से कहा, यार, इस बुज़ुर्ग को इस तरह साक्षत टहलते देखना, क्या इस से भी बड़ी कोई प्रेरणा या इंस्पिरेशन हो सकती है...उसने भी हामी भरी। अगर यह शख़्श इस हालत में टहल सकता है तो लिहाफ़ में दुबके पडे़ वे तमाम लोग क्यों नहीं!!


एक तो होता है टहलना एक होता है दस हज़ार कदम चलने का कोटा पूरा करना ..एप पर देख कर ... चलिए, उम्र दराज़ होने की वजह से आहिस्ता तो चल ही रहे थे लेकिन वह इस का लुत्फ़ उठा रहे थे .. सुबह सुबह इन के दर्शन कर के, इन का जज़्बा देख कर रुह खुश हो गई ...इन के साथ शेल्फ़ी लेने की इच्छा हुई, लेकिन वह भी ग़ुस्ताखी हो जाती ...लेकिन एक ख़्याल यह आया कि शहरों में जिन पांच दस लोगों की तस्वीरें-मूर्तियां टंगी रहती हैं, सिर्फ़ वे ही तो हमारे प्रेरणा-स्रोत नहीं होते, ऐसे आमजन भी तो हमें अपनी जीवन-शैली से, अपने जज़्बे से सिखा ही रहे होते हैं...अगर मेरे हाथ में हो तो मैं तो इस तरह के लोगों की तस्वीरें पार्क के गेट पर लगवा दूं कि देखिए, अगर कोहरे के दिनों में यह टहलने निकल सकते हैं तो आप क्यों नहीं!! ईश्वर इन्हें शतायु प्रदान करे और ये स्वस्थ रहें, यही कामना है।

 कईं बार मैं अपनी कॉलोनी में कुछ लोगों के बारे में लिखता हूं जो वॉकर की मदद से टहलते दिखते हैं ...उन का जज़्बा भी क़ाबिले-तारीफ़ तो होता ही है ....और मैं यह भी देखता हूं कि उन की हालत में निरंतर सुधार ही होता है ...यहां तक कि बहुत से लोगों को कुछ हफ़्तों-महीनों बाद बिना वॉकर के चलते भी देखता हूं। अच्छा लगता है ..

कुछ भी कहें वाट्सएप कॉलेज भी है कमाल की चीज़, उस दिन जनाब मिलखा सिंह जी की एक वीडियो किसी ने भेजी, इतने प्यार से इतने अपनेपन से वह शरीर को हिलाने-ढुलाने की बात कह रहे थे कि ऐसे लगा कि मेरा ही कोई बुज़ुर्ग कुछ समझ रहा है...उन की बात मन को ऐसी छुई कि इस वीडियो को वाट्सएप पर कहीं गुम होने के डर से ख़ुद के यू-ट्यूब चैनल पर ही अपलोड कर लिया ... ताकि बार-बार इन की इस बात को सुन सकूं और आगे दूसरों तक भी पहुंचा सकूं। लीजिए, आप भी इन से सीख लीजिए...


ब्लॉग तो यह ११ साल पुराना है ...पहले सैंकड़ों लेखों में बीमारियों के बारे में लिख लिख कर इतना ऊब गया कि फिर लगा कि बेकार है यह सब कुछ लिखना ...लोग सब कुछ गूगल चच्चा से पूछ लेते हैं, बेकार में दिमाग़ पर बोझ नहीं डालना चाहिए, हां, अगर कुछ कहना है, कुछ लिखना ही है तो ज़िंदगी की बात की जाए, ज़िंदादिली की बात की जाए...अगर कोई मंज़र दिल को छू गया तो उसे शेयर किया जाए...ताकि पढ़ने वाले भी लुत्फ़ उठाएं और शायद थोड़ी इंस्पिरेशन लें या कम से कम उस के बारे में सोचें तो ....

एक बात जाते जाते और कह दूं...आज की पीढ़ी समझती है कि सब कुछ पिज़ा-बर्गर की तरह की तरह फॉस्ट हो सकता है ..जब चाहो हीरो की तरह सिक्स-एब्स बना लो, चब चाहो जिम जा कर हीरोइन की तरह ज़ीरो-फ़िगर ह़ासिल कर ली जाए....लेकिन ऐसा हो नहीं सकता, अगर होता भी है तो वह लंब समय तक बना नहीं रह सकता ...और इन लोगों के तो पर्सनल-ट्रेनर होते हैं, आम लोग देख-सुन कर ही कुछ भी सप्लीमेंट खाना शुरू कर लेते हैं.. ..लंबी बात को छोटी यह कह कर किया जा सकता है कि किसी भी शख्स की जब तक बॉडी-क्लॉक सही नहीं है, जब तक वह समय पर खाता-पीता और सोता नहीं, कुछ नहीं हो सकता.....बीस, तीस, चालीस लाख के पैकेज के लिए नई पीढ़ी अपनी सेहत को दांव पर लगा रही है, लेकिन सच्चाई यही है कि  दुनिया का सब से बड़ा रईस भी कोई बन जाए, सब बेकार है ...अगर हमें बॉडी-क्लॉक ही नहीं सेट कर पा रहे...

शायद मेरा व्यक्तिगत विचार हो लेकिन है तो पक्का ...सुबह का टहलना, क़ुदरत के साथ वक़्त बिताना ...जिन में आस पास के मनाज़िर --पेढ़, पौधे, पंक्षी सब शामिल होते हैं....यह किसी के भी शरीर को चार्ज तो कर ही देता है उस की रुह को ख़ुराक भी मुहैय्या करवा देता है .......मेरी समझ यही कहती है कि अगर कैलेरीज़ को जलाना ही मक़सद हो तो ए.सी जिम में यह काम हो सकता है, इस के आगे कुछ नहीं!! मैं मानता हूं कि मेरी यह सोच ग़लत भी तो हो सकती है!






मंगलवार, 1 जनवरी 2019

नये साल की दुआ....साहिब नज़र रखना

२००७ से यह ब्लॉग लिखना शुरू किया था...वे दिन भी क्या दिन थे..लगभग रोज़ाना कुछ न कुछ इस ब्लॉग पर छाप दिया करता था...फिर पता नहीं यह क्या फेसबुक और बाद में यह व्हाट्सएप पर कुछ कुछ लिखते-पढ़ते रहने से शायद फुर्सत ही नहीं मिलती थी...शायद ग्यारह-बारह सौ पोस्ट हैं इस ब्लॉग पर ....लेकिन अभी देखा कि २०१८ में मैंने इस ब्लॉग पर केवल १८ बार लिखा...

इसलिए अब मन बनाया है कि निरंतर कुछ न कुछ जिसे लिख कर मन हल्का हो जाए, उसे लिखते रहना चाहिए...मुझे ऐसा लगता है। बाकी, रही बात नये साल के रेज़ोल्यूशन-वूशन की ...यह सब बड़े लोगों की बड़ी बातें हैं, मेरी समझ में कभी नहीं आतीं....रेज़ोल्यूशन भी ऐसे की पहले ढ़िंढोरा पीटा जाए ...फिर कुछ किया जाए या न किया जाए...लेकिन पब्लिसिटि ज़रूरी है....नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता हूं...रेज़ोल्यूशन अपने लिए होते हैं....मन में रखने के लिए ...और शायद (!!) अपने आस पास के चुनिंदा लोगों के लिए ...बाकी, किसी को किसी से क्या मतलब, मुझे नहीं लगता कि किसी को कुछ फ़र्क भी पड़ता है ...
मेरे भी रेज़ोल्यूशन मेरे मन में ही हैं...सब को पता होता है ..कहां ख़ामियां हैं, उन्हें कैसे दूर करना है!!

हां, एक बात और ....मुझे यह ख़ास दिनों में लोगों को चुन चुन कर बधाई संदेश देना बहुत खलता है ....मैं ऐसा नहीं करता बिल्कुल, लेकिन जिस का मुझे आ जाए उसे जवाब तो देना ही होता है ...वरना ठीक नहीं लगता ...बधाई संदेश बोरिंग लगता है यह भी कोई बात हुई! नहीं, मुझे लगता है कि अगर सारी क़ायनात के लिए ही एक साथ दुआ मांग ली जाए तो काफ़ी है ना...क्या बार बार दूसरों को डिस्टर्ब करना .... नानी भी कहती थीं, फिर मां भी समझाया करती थीं कि सरबत का भला मांगने में ही समझदारी है ...बस, वही बातें मन के किसी कोने में बैठ गईं...

एक फिल्मी गीत मैं यहां एम्बैड करूंगा ...भूतनाथ फिल्म का है ...साहिब नज़र रखना, मौला खबर रखना ....यह गीत मेरे दिल के बहुत पास है ...मुझे ऐसा लगता है कि इस से बढ़ कर और क्या प्रार्थना होगी...लिखने वाले को, गाने वाले को और म्यूज़िक देने वाले को मेरा सलाम ...

और एक बात मुझे अब पता चली है अपने बारे में कि मैं उन मायनों में बिल्कुल भी धार्मिक नहीं हूं जिस में अपने धर्म का दिखावा करना ज़रूरी होता है ... मुझे इस बात से भी बहुत चिढ़ है ...मैं भी ऐसा ही मानता हूं कि धर्म एक बिल्कुल व्यक्तिगत मामला है ..है कि नहीं!

चलिए, इस पोस्ट को यहीं बंद करता हूं अपने हिसाब से एक बहुत उम्दा प्रेयर के साथ ....