मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

सरदार खुशवंत सिंह जी की ऑटोग्राफ वाली किताब ...

सरदार खुशवंत सिंह जी का मैं भी एक प्रशंसक हूं...इतनी ईमानदारी से अपनी बात कह देना, लिख देना और उसी अंदाज़ में जी भी लेना हरेक के बूते की बात नहीं होती ...मैं बस सोचता ही रह गया कि कभी इन को दिल्ली जा कर मिल कर आऊंगा.. नेक इंसान बस अपनी श्रद्धांजलि लिख कर चला गया...  

एक बात आपने भी सुनी होगी कि आप जिस चीज़ को बड़ी शिद्दत से चाहते हैं उसे आप तक पहुंचाने के लिए सारी कायनात जुट जाती है ...मैं भी ऐसा ही सोचता हूं...

कल मैं पैदल चला जा रहा था...रास्ते में एक कबाड़ी की दुकान के बाहर किताबों का ढेर लगा हुआ था...मैं भी रूक कर देखने लग गया....अधिकतर किताबों के तो टाइटल ही मेरी समझ में नहीं आए...इतने अंग्रेजी से वे सब के सब...लेकिन तभी अचानक खुशवंत सिंह नाम पर नज़र पड़ गई...

 सिक्खों ने कैसी खो दी अपनी सलतनत ...

यह किताब उठाई ...पता नहीं किताब का टाइटल देखा तो मैं इस विषय में इंट्रेस्टेड नहीं था...लेकिन जैसे ही पहला पन्ना देखा तो समझ में आया कि यह तो खुशवंत सिंह की ऑटोग्राफ वाली किताब है ... अच्छा लगा...तुरंत ले ली..

रात में मैं इस किताब के पन्ने उलट रहा था ..थोड़ा ही पढ़ पाया बीच बीच में....थोड़ा सा पता चला कि महाराजा रंजीत सिंह की कितनी मुसीबतें थीं...और इतने सारे तथ्यों पर आधारित किताब ..मैं यह पढ़ कर हैरान हो रहा था कि लेखक ने इस तरह की किताब के लिए कितना अध्ययन किया होगा!

मैं इस किताब में दर्ज अब तक पढ़ी बातों को पहले नहीं जानता था....हिस्ट्री मेरी वैसे ही बेहद कमज़ोर है ...कमज़ोर तो क्या, हिस्ट्री ज्योग्रॉफी का ज्ञान शून्य के बराबर है...स्कूल में बिल्कुल नहीं पढ़े....बस विषय में पास होेने के लिए गप्पें ही मारते रहे पेपरों में ....लेकिन इस से बात कहां बनती है!

एक तो इन विषयों का ज्ञान नहीं है.....ऊपर से कुछ समय से यह बातें चल रही हैं कि अब किताबों में भी इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है .. बात है भी कुछ ऐसी ही...कुछ धर्मों के बारे में अलग अलग बातें लिखी और कही जा रही हैं...समझ में ही नहीं आता कि सच है क्या!

कल कुतुब मीनार के बारे में एक लंबी चौड़ी पोस्ट वाट्सएप योद्धाओं ने भेजी ....पोस्ट क्या पूरा लेख था...यही बताया गया था कि इसे फलां फलां ने बनाया ...कुछ दिन पहले ताजमहल के बारे में बहुत कुछ आ रहा था....फिर मंदिरों के बारे में आने लगता है ...पीछे सोमनाथ के मंदिर के बारे में आ रहा था...

मुझे इस तरह की पोस्टों से बड़ी चिढ़ है जो धार्मिक रंग में रंगी होती है .. मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह की पोस्टें एक तयशुदा एजेंडे के साथ भिजवाई जाती हैं...कौन सच लिख रहा है, कौन झूठ, वैसे ही पता नहीं चलता ....ऐसे में सोशलमीडिया पर मिले इस तरह के मैसेज का वॉयरल सच जांचने-परखने की फ़ुर्सत किसे है!

इसी लिए आज के दौर में हमें जहां भी अच्छी किताबें मिलें ....या विश्वसनीय वेबसाइटों से अपने इतिहास को जानने-समझने का कुछ तो समय निकालना ही चाहिए...

सोच रहा हूं कि खुशवंत सिंह जी की इस पुस्तक का अच्छे से अध्ययन करूंगा ... मेरे लिए यह किताब का मिलना एक खुशकिस्मती है ...क्योंकि इस किताब पर साक्षात् खुशवंत सिंह जी की कलम चली हुई है ... और एक बार ध्यान यह भी आया कि वह कैसा शख्स होगा जिसने इस तरह की किताब और वह भी खुशवंत सिंह के ऑटोग्राफ वाली किताब रद्दी में ठेल दी....बीस साल पुरानी बात हो गई है ...पता नहीं वह बंदा अभी है भी या नहीं... किसे मालूम...उस के बेटे-बहुओं-पोतों ने इसे बेकार समझ कर कबाड़ी को दे दिया हो ... जिस दौर में लोग घर के दिवंगत बड़े-बुज़ुर्गों की पुरानी तस्वीरों को घर की दीवारों पर टांगना एक लॉयबिलिटी समझते हों, ऐसे माहौल में इस तरह की किताबों की क्या बिसात!!

 और एक बात, हम लोग भी कितने शक्की हो गये हैं...मैंने गूगल किया ..खुशवंत सिंह के हस्ताक्षर ... तो बिल्कुल इसी तरह के हस्ताक्षर नेट पर पड़े दिख गये ...बिल्कुल मेल खाते हुए..


सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

मां की रसोई मां की तरह एक ही होती है!

आज कल पब्लिक को इमोशनल ब्लेकमेल किया जाता है ... शहर में कितने ही होटल-रेस्टरां जिन का नाम ..मां की रसोई ... कईं जगहों पर मैंने ढाबे देखे ...जिन का नाम था .. हांडी... पता नहीं पंजाब में किसी ने कुन्नी के बारेे में सोचा कि नहीं..

अभी मैं बताऊंगा आप को कि आज अचानक मेरे को यह मां की रसोई वाली बात कहां से ध्यान में आ गई .. जब भी इस तरह की बात ध्यान में आती है तो मैं अपने विचार लिख लेता हूं...एक मेरा प्राईव्हेट ब्लॉग है ..मेरी स्लेट ... पहले तो यह पब्लिक था..लेकिन कुछ समय पहले मैंने इसे प्राईव्हेट किया है...मुझे ऐसा करना ज़रूरी लगा..

कल मैंने बहुत दिनों बाद उस मेरी स्लेट ब्लॉग पर कुछ लिखा ...यह एक तरह से डायरी जैसा ही है ...उसमें मैं देख रहा था मेरा छःमहीने पुराना एक लेख ..दुनिया की हर मां होती है बेस्ट कुक...


और अभी ध्यान आया कि बहुत साल पहले इसी ब्लॉग पर कुछ बातें और साझा करी थीं....शुक्र है रब्बा, सांझा चुल्हा बलेया... (इस लेख को आप इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं)....मुझे पूरा ध्यान नहीं होता कि मैंने क्या लिख दिया होगा भावावेश में आकर ...लेकिन इतना इत्मीनान तो रहता ही है कि जो भी लिखा होगा सच ही लिखा होगा...झूठ-वूठ के चक्कर में मैं पड़ता ही नहीं। 

बोर्ड पर लिखा है कि खाना केवल कोयलों पर ही पकाया जाता है .. 
हां, तो भूमिका काफ़ी लंबी हो चली है .. अपनी बात शुरू करता हूं...तो दोस्तो हुआ यह कि आज बंबई में मुझे एक जगह एक रेस्टरां दिख गया जिस के बोर्ड पर लिखा हुआ था कि यहां पर सारा खाना केवल कोयले पर तैयार किया जाता है ...सोचिए, आप भी इस बारे में ..कि कोयला भी कैसी चीज़ हो गई ...गांव-खेड़ों में तो सरकार कोयले वाले चूल्हों से निजात दिला रही है ... और यहां मैट्रो शहरों के पॉश इलाकों में कोयले की आंच पर बने खाने की विशेष तौर पर मार्केटिंग की जा रही है ...

 खाने वाने का तो बाहर ऐसा है कि खाने पीने की कुछ जगहें ही होती हैं जो हमारे स्वाद और जेब के अनुसार हुआ करती हैं...कहने को तो पांच सितारा होटल भी हैं...लेकिन कम कहां उधर जाते हैं! 

कारण कुछ भी रहे हों...उनके बारे में सोचने की भी ज़रूरत है ...पहले जिस तरह का विश्वास हम लोगों को अपने बचपन में घर के आस पास के ढाबे पर हुआ करता था, उतना अब बडे़ बड़े रेस्टरां पर भी नहीं होता...मुझे तो अपने बारे में पता है ...मुझे नहीं होता है ... 

और बात रही .इमोशनल ब्लेकमेल की ..मां की रसोई, झाई की रसोई ......सीधी पक्की बात यह है कि मां की तरह ही मां की रसोई भी एक ही हुआ करती है ....इस लेख को पढ़ रहे दोस्त दो मिनट का ब्रेक लें....टीवी देखते हुए भी कितने ब्रेक लेते ही हैं आप ...एक ब्रेक मेरे कहने पर भी लीजिए....अपनी मां की रसोई को याद कीजिए....बचपन से लेकर आगे तक....आप मेरे से इत्तेफाक रखेंगे कि जब तक मैं की बाजू में रोटी बेलने की ताकत बची रही ..इस मां की रसोई ने ताउम्र निष्काम सेवा ही की ... सेवा शब्द भी इस समय कितना छोटा सा, कितना अदना सा लग रहा है ...कोई छुट्टी नहीं, कोई ब्रेक नहीं, कोई रेस्ट भी नहीं....कईं बार शब्द भी धोखा दे जाते हैं ऐन वक्त पर ...इस बात को यही छोड़ रहा हूं क्योंकि यह बात कहने की नहीं है, हमारे अनुभव की है ... 
पंजाबी सुपर-डुपर हिट गीत...कुलदीप मानक साहिब....मां हुंदी ए मां ओ दुनिया वालेओ....

पुष्पेश पंत एक बड़ा लेखक है .. खाने पीने के ऊपर उसने बहुत सी किताबें लिखी हैं... उसे सुन कर और पढ़ कर बहुत अच्छा लगता है ...एक बार मैंने उसे यह कहते सुना कि यह जो आटा गूंथने की मशीनें आ गई हैं..बेकार है....याद दिला रहा था कि कैसे आप की मां आटे को इत्मीनान से गूंथती रहती थी .. चूंकि वह पहलवान नहीं होती थीं...धीरे धीरे थोड़ा थोड़ा ज़ोर लगा कर गूंथती रहती थी .. और ऐसे गूंथे हुए आटे के गुण कितने अलग हो जाते हैं....उस की चर्चा कर रहा था....

हां, तो मां की रसोई की बात पर लौटते हैं... एक समय वह मां की रसोई होती है ...फिर धीरे धीरे कुछ कारणों की वजह से मां की पकड़ अपनी ही रसोई पर ढीली पड़नी शुरू हो जाती है ...कारण लिखने वाले नहीं होते, समझने वाले होते हैं, पढ़ने वाले कौन सा विलायत में रहते हैं....सब कुछ अनुभव करते हैं (बस घेसले बने हुए हैं!!) ....इस ढीली पकड़ के रहते भी वह कभी कभी हमें हमारे बचपन के दिनों के जा़यकों को फिर से चखा ही देती हैं ...होता है ना ऐसा ही ..


अभी मैंने एक रेस्टरां यह देखा .. तवा ... और एक बात, मुझे कुछ शहरों के लोगों की पेड़ों के साथ मुहब्बत देख कर बहुत अच्छा लगता है ....ये पेड़ भी हम लोगों की सामूहिक मांएं ही हैं....जो हमें ताउम्र बस देते ही देते हैंं....साफ-स्वच्छ हवा...छाया....खाना...फल-फूल....रूह को ठंडक....सब कुछ पेड़ों ही से तो आ रहा है ... क्या ख्याल है?




शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

पंथी को छाया नहीं...

 मुझे याद है जब पांचवी छठी जमात में हम लोग स्कूल पैदल आया जाया करते थे तो रास्ते में एक आर्मी वालों की कालोनी पड़ती थी...उन बंगलों और बाहर सड़क के बीच एक कंटीली तार भी लगी हुई थी ..लेेकिन कुछ घरों के बाहर बोर्ड लगे हुए थे ...कुत्तों से सावधान..Beware of Dogs!

इस तरह के बोर्ड देख कर बड़ा अजीब सा लगता था .. कुछ ज़्यादा समझ तो थी नहीं ..लेकिन उस कंटीली तार के बावजूद भी जब हम लोग पैदल उन घरों के सामने से गुज़रते थे तो कुछ डर तो रहता ही था कि पता नहीं कैसे कुत्ते होंगे ...अगर इस तरह की चेतावनी लिखी हुई है ... और क्या होगा अगर वे कंटीली बाड़ में से भाग कर बाहर आ जायेंगे!

कुछ दुकानों के बाहर भी देखा कि रात में फुटपाथ पर इस तरह से लोहे के नुकीले कीलों की एक व्यवस्था कर देते हैं जिससे कि कोई वहां सोना तो दूर उधर से गुज़रने की भी हिम्मत न कर पाए...

लेकिन गांवों में, कसबों में जहां बडे़ बड़े पेड़ लगे होते हैं उन के आसपास लोगों ने छोटे मोटे प्लेटफार्म ज़रूर बनाए होते हैं ताकि लोग वहां बैठें, थोड़ा सुस्ता लें....कईं जगहों पर तो हम देखते हैं कि वहां गप-शप के अड़्डे बन जाते हैं...साथ में ही एक दो चाय की गुमटी अकसर होती है...एक नाई, एक मोची, एक कोई समोसे-जलेबी वाला...और पास ही दो चार खस्ता हालत में बैंच पड़े होते हैं...अखबार के आठ पन्ने कम से कम १० लोगों के हाथ में होते हैं....

ऐसा लगता है छोटे शहरों कस्बों में जैसे बड़े बडे़ भीमकाय पेढ़ राहगीरों को न्यौता दे रहे हों कि आओ, हमारी छांव में थोड़ा अाराम करो, कुछ हमारी सुनो और अपना हाल भी सुनाओ.....

लेकिन यह मैंने क्या देखा बंबई के एक बेहद पॉश एरिया में ...जहां पर रहने वाले बाशिंदे वैसे तो अधिकतर पेज-थ्री पर दिखते हैं ...लेकिन यहां के पेड़ों के ठीक नीचे और आसपास कुछ इस तरह के दृश्य नज़र आए कि आप के साथ शेयर करने की इच्छा हुई ....









देखिए...अगर आप पेडो़ं के नीचे फिक्स किए गये नोकदार पत्थरों की तरफ़ ध्यान ने दें तो सब कुछ कितना सुहाना और खुशगवार दिखाई पड़ता है यहां.....



ध्यान मुझे यह भी आ रहा है कि देश के कुछ लोग गर्मी के दिनों में घरों के बाहर ठंड़े पानी का प्रबंध कर देते हैं ...और कुछ नहीं तो पानी के कुछ मटके ही गीले कपड़े से ढक कर रख देते हैं ... ताकि लू के थपेड़ों से बेहाल राहगीरों को कुछ राहत तो मिल पाए.......लेकिन बंबई  के इस पॉश एरिया में तो माजरा ही कुछ और दिखा....

मुझे नहीं पता कि ऐसा क्यों है इस एरिया में .... कुछ तो कारण रहा ही होगा...जिसे मैं नहीं जानता .. लेकिन फिर भी मुझे यह बहुत अजीब लगा कि हर छायादार पेड़ के नीचे और आसपास हर जगह पर नुकीले पत्थर फिक्स कर दिए जाएं ताकि कोई इन के पास फटकने की हिम्मत ही न जुटा पाए...

कबीर जी का वह दोहा याद आ गया ...
"बडा़ हुआ तो क्या हुआ...जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर "

गीत तो बहुत से याद आ रहे हैं इस समय ......लेकिन इसी लम्हे पर इस गीत का ध्यान आ गया है ...और कुछ ज़्यादा मैं इस विषय पर कुछ कहना-लिखना नहीं चाहता ....समझदार को ईशारा ही काफ़ी होता है ..