मंगलवार, 1 अगस्त 2017

तरजीह

लखनऊ का दुर्गापुरी मैट्रो स्टेशन एरिया ..यह चार बाग रेलवे स्टेशन से महज एक किलोमीटर की दूरी पर होगा ..आलम बाग से चारबाग, हज़रतगंज रोड पर जाने वाली सड़क पर यह मैट्रो स्टेशन है ....इस स्टेशन के पास ही मुख्य रोड़ से अंदर जा रही सड़क की नुक्कड़ पर एक एटीएम है ...

कल मैं जैसे ही स्कूटर रोक कर एटीएम के अंदर जाने लगा तो उस एटीएम से चंद कदम दूर कुछ लोग जमा हुए दिखे...मैं भी वहां चला गया...

एक ५०-५५ साल का व्यक्ति बदहवास सा पड़ा हुआ था ...नीचे वाले होंठ के अंदर से खून बह रहा था ....उस के पास बैठे एक सज्जन के हाथ में रूमाल था, मेरे कहने पर उसने वह रूमाल उस चोटिल बंदे के होंठ पर रख दिया...खून तो दो तीन मिनट में बंद होना ही था ...

चोट लगा वह बंदा कुछ ठीक नहीं लग रहा था, बीच बीच में होंठ पर रखे रूमाल को देख रहा था ...और एक दो बार उठने की उसने कोशिश भी करी लेकिन लड़खड़ा सा गया... मैंने भी और वहां मौजूद लोगों ने भी उसे यही ताकीद की कि आप कुछ समय लेटे रहिए...

इतने में उस भीड़ में से ही किसी ने बताया कि कोई गाड़ी वाला टक्कर मार कर गया है ...एक शख्स ने धीमे से गाड़ी का नंबर भी बताया लेकिन किसी ने उस की बात की तरफ़ गौर ही नहीं किया...

मैंने पूछा कि गाड़ी वाला रुका नहीं, तो किसी ने कहा कि वह क्यों रूकेगा, आफ़त मोल लेने के लिए?  मैं चुप ।

इतने में उस ज़ख्मी व्यक्ति ने अपने जेब से कुछ कागज़ निकाले ...और उठने की कोशिश की उसने लेकिन उठ नहीं पाया...बदहवास था, मुझे ऐसा लगा जैसे किसी सगे-संबंधी को फोन करने के लिए कहेगा...लेकिन मैंने भी और दो तीन लोगों ने उसे यही कहा कि आप चंद मिनट लेटे रहिए....

पास ही उस का मोटरसाईकिल गिरा पड़ा था और एक हेल्मेट व बैग भी वहां पड़ा हुआ था ...

एक दो मिनट में ही वह उठ खड़ा हुआ...मन खुश हुआ कि चलो ठीक तो लग रहा है ... जब मैंने उसे फिर से कुछ समय लेटे रहने के लिए कहा तो उसने कहा कि उस का तो ट्रेन का आरक्षण है, उसे बदरीनाथ जाना है ...मुझे यह नहीं पता था कि वह किसी गाड़ी का बात कर रहा था, अपने गृह-नगर की बदरीनाथ धाम की .. लेकिन इस के बारे में उस से कुछ पूछा ही नहीं...बस, मैंने इतना कहा कि यह मुंह कटे-फटे की चिंता मत करिए, जल्द ही ठीक हो जायेगा सब कुछ...

उस व्यक्ति की ट्रेन पर जाने की बात सुन कर एक युवक बोल पड़ा ....ट्रेन तो फिर भी आयेगी। मैंने भी उस बात में हामी भर दी।

इतने में किसी ने पानी की बोतल उस व्यक्ति के मुंह के सामने कर दी ...कुल्ला करने के लिए ....मैंने समझाया कि बार बार कुल्ला मत करिए, थोड़ा पानी पी लीजिए...

भीड़ में से ही किसी ने कह दिया कि पानी मत पीना अभी....मुझे अजीब सा लगा, मैंने कहा कि मैं डाक्टर हूं ...इन्हें पानी पीने दीजिए...यह सुनने पर उसने पानी पिया...

तब तक वह उठ चुका था जैसे तैसे ....फिर उस की निगाह गई अपने मोटरसाईकिल पर ... शायद स्टार्ट करना चाह रहा था .....लेकिन आगे के पहिये के ऊपर लगा हुआ रिम टेढा़ हो चुका था ... कोई बात नहीं, एक युवक को अपने पैर से ज़ोर लगा कर उस रिम को सीधा करते देखा ..

मैं लिखते हुए यही सोच रहा था भीड़-तंत्र भी कभी समझ नहीं आ सकता ...उग्र भीड़ किसी राहगीर को अगर मौत के घाट उतारने की सज़ा दे देती है तो चंद मिनट में उसे निपटा भी देती है (अफसोस) और जब यही भीड़ किसी की विपदा में उस का हाथ थामने उमड़ पड़ती है तो बार बार यही लगता है कि इस भीड़ की प्रकृति तो यही है, आवारा भीड़ ज़रूर किसी के उकसावे में ही मार-धाड़ चीड़-फाड़ करती है ....

हां, तो उस के मोटरसाईकिल के अगले रिम को दुरूस्त होते देख मैं भी एटीेएम की तरफ़ लौट आया....भीड़ नहीं थी वहां बिल्कुल, मैं दो मिनट से भी पहले बाहर आया तो हादसे वाली जगह की तरफ़ देखा तो वह सुनसान पड़ी थी....कोई भी नहीं था वहां, मोटरसाईकिल भी नहीं ....

एटीएम के  बाहर खड़े गार्ड को मैंने ऐसे ही कहा कि बच गया बंदा, बहुत अच्छा हो गया....उसने बताया -- साब, यह इतनी तेज़  रफ्तार से इस अंदर वाली रोड़ से आ रहा था और गाड़ी के साथ इस की टक्कर इतनी भीषण थी कि यह हेल्मेट की वजह से बच गया, वरना इस का बचना ही मुश्किल था ....

जैसा कि अकसर होता है जब किसी को पता चलता है कि कोई डाक्टर है ...गार्ड ने भी पूछा- क्या आप डाक्टर हैं?
मेरे हां कहने पर उसने अपने पेट की तकलीफ़ बताई, मैंने दवाई लिखी और बरसात के मौसम में एहतियात बरतने की बात कही और वहां से अपने गंतव्य की तरफ़ आ गया...

सारा रास्ता में यही सोचता रहा था कि कैसे उस अनजान आदमी की तरजीह बदलती गईं.....पहले तो कुछ पल जान के ही लाले पड़े रहे,  फिर होंठ की चोट पर ध्यान आ गया ...कुछ राहत मिलते ही, इसी दौरान किसी सगे-संबंधी से बात करने की भी बात मन में आ गई...लेकिन बात की नहीं, थोड़ा सा संभलते ही आरक्षित रेल टिकट वाली गाड़ी छूटने की चिंता ने घेर लिया...और उठ खड़े होते ही अपनी मोटरसाईकिल की हालत की चिंता हो गई...

तरजीह की बात करें तो यही लगा कि हम सब की प्राथमिकताएं ऐसे ही पल पल बदलती रहती हैं...उस अनजान आदमी का व्यवहार भी बिल्कुल स्वभाविक था..उस की परिस्थिति में कोई भी होता तो यह सब कुछ ही करता...इसी तरह के निर्णय लेता .... ध्यान आ रहा है कि ढिठाई (ढीठपन) कह लें या हठ कह लें या एक आम आदमी की मज़बूरी, इस में फ़र्क कैसे पता चलता है...वैसे यह कभी भी न पल्ले पड़ने वाली बात है...चलो छोड़ो, आप भी इस चक्कर में मत पड़िए। 




चलिए, आज मेरी पसंद का एक गीत सुनते हैं...कितनी बड़ी सीख है इसमें भी, अगर हम किसी की बात सुनने की परवाह करते हों ...

रविवार, 30 जुलाई 2017

सरसों का तेल - हमारे दुःख सुख का सच्चा साथी

सुबह एक जगह खटमल का ज़िक्र हुआ...हमारे एक वाट्सएप ग्रुप पर ...बस फिर क्या था, सरसों का तेल ऐसे याद आया कि अभी तक उस से जुड़ी सभी यादें उमड़ पड़ी हैं...

बचपन के दिन भी क्या दीवानेपन के, बेपरवाह दिन हुआ करते हैं...

मुझे याद है कि खटमल जब भी लड़ते तो हमें तुरंत सरसों का तेल लगाने को दिया जाता ..बस, चंद ही लम्हों में हम अपना दुःख भूल जाते ..

दरअसल खटमल के काटने से चमड़ी जो थोड़ी सी उभर जाती है उसे धफ्फड़ कहते हैं... (पंजाबी में) ...इलाज तो मैंने बता ही दिया है ...धफ्फड़ ही नहीं, अगर मच्छर भी रात में काट रहे हैं, परेशान हो कर उठ बैठे हैं तो भी तेल की वह प्लास्टिक वाली शीशी ही काम आती थी...बडा़ सुकून मिल जाता था ...

अगर तितैया काट गया ... तो भी कटी हुई जगह पर लोहा रगड़ने के बाद तेल ही लगाना होता था ....

अब क्या क्या गिनाएं....झिझक भी होती है ... लेकिन मैं दूसरे लेखकों को पढ़ने के बाद थोड़ी हिम्मत करने लगा हूं ...बिंदास बात कहने लगा हूं ...सरसों के तेल की उपयोगिता चमूने लड़ने से लेकर कान और दांत में तेज़ दर्द में भी होती थी ...चमूने वाली परेशानी का मैं ज़्यााद वर्णऩ करने में असमर्थ हूं...जो भुक्तभोगी हैं वे सब जानते हैं....और कान में सरसों का तेल डालने से पहले उसे अंगीठी पर गर्म करते समय उस में लहसुन के दो टुकडे़ ज़रूर डाल दिये जाते थे ... कईं सालों बाद पता चला कि कान नाक के डाक्टर कहते हैं कि कान में कभी भी सरसों का तेल नहीं डालना चाहिए...लेकिन हमारे दोनों कानों में जब तक एक आध चम्मच तेल नहीं पहुंचता था, हमारी खारिश ही जाने का नाम न लेती थी ...

चलिए, पुरानी बातें को भी कितना याद करें....ऐसे ही कभी उमड़-घुमड़ आती हैं... बस, कहावत फिर वही याद आ जाती है कि अज्ञानता एक वरदान है .....यह कहावत बड़ी गहरी है, इसे सब लोग अपने अपने नज़रिये से पढ़ते हैं..

हां, जब हमें लासें पड़ जाती थीं....लासें (यह लाशें नहीं है, नोट करिए) ठेठ पंजाबी का शब्द है, इस का मतलब जब उमस आदि का मौसम हो ज़्यादा पसीना आता है तो हमारी साइडें लग जाती हैं...मतलब यह की हमारी जांघों के अंदरूनी हिस्सों में खारिश, लाली ...बस यह सब होने लगता है ...कईं दिन तक परेशानी का सबब...हमारे बचपन के दिनों में ये कैंडिड -इचगार्ड आदि कुछ भी नहीं था....क्या पता होता भी होगा, हमारी ही पहुंच से दूर होगा......चलिए, जो भी हो, हमें तो इस का सीधा इलाज समझाया गया था...कि रात को स्नान करने के बाद, सरसों का तेल चुपड़ लिया जाए, और सब से खुला पायजामा पहन कर सो जाया जाए......सच्ची यार, अगली सुबह ऐसे लगता था जैसे कुछ हुआ ही न हो। हैरान होता हूं कि पिछले दौर के लोग भी बहुत जुगाड़ू थे ..

कोई किसी को चोट लग जाए, कोई किसी को अंदरूनी चोट हो....हर एक के मुंह पर सब से पहले सरसों का तेल ही आता था....फर्स्ट एड कह ले ंया मरीज़ का ध्यान बंटाने के लिए या प्लेसिबो इफेक्ट कह लें.....कुछ भी कह लेते हैं क्योंकि अब कुछ कहने लिखने की और शायद उन बातों की थोड़ी खिल्ली भी उड़ाने की थोड़ी औकात हो गई है ......लेकिन याद है अच्छी तरह से जब केवल और केवल एक सरसों के तेल का ही सहारा हुआ करता था...

सिर पर भी रोज़ यह तेल चुपड़ा जाता था ...और कईं हफ्तों बाद इस से अपनी मालिश भी खुद करनी होती थी ...विशेषकर रविवार के दिन धूप में बैठ कर ..नहाने से पहले ....सिर पर कईं बार मां या बहन चंपी कर दिया करते थे..

बहुत से मरीज़ आते हैं जो कहते हैं कि हम लोग दांतों और मसूड़ों पर कड़ुवा तेल (यहां यू.पी मे इसे कड़ुवा तेल कहते हैं...कड़वा कहते हैं या कड़ुवा ...लेकिन उनके बोलने पर मुझे कड़ुवा ही सुनता है)..लगाते हैं, मालिश करते हैं मसूड़ों की उस से, बस उसी की वजह से दांत कायम हैं..

शरीर में कहीं भी शुष्कता लगे ...पंजाबी में कहते हैं खुश्की, तो भी यही तेल झस (लगा) दिया जाता था...और हां, सर्दियों में अकसर उन दिनों हमारे पैरों की अंगुलियां लाल हो जाती थीं, सूज जाती थीं...तब हमें गर्म पानी में सरसों का तेल और नमक डाल कर एक बड़े से पतीले में दिया जाता था...हम उस में पांच दस मिनट पांव रखे रहते, तोलिये से सुखा कर और जुराबें डाल कर सो जाते ...और सुबह एक दम चकाचक ....सब कुछ ठीक हुआ होता था...

मैं अपने दोस्तो ं से शेयर कर रहा था कि हमारे दिनो ं में तो भाई सरसों के तेल का संजीवनी बूटी जैसा मान सम्मान था... समय बदलता है तो लोगों की आदतें भी बदलने लगती हैं...स्वभाविक है ....वरना हमारे दिनों में तो फर्स्ट एड ही बस यह थी ... सरसों का तेल, मीठा सोड़ा (बेकिंग सोड़ा) पानी के साथ अगर कभी अफारा हो जाए... और सिरदर्द होने पर टूंडे (excuse me, हम उसे ऐसे ही बुलाते थे) की दुकान से एक सैरीडोन, पेट दर्द होने पर अजवाईन- नमक की पानी के साथ फक्की, और मां के दांतदर्द के समय बाज़ार से नसवार (powdered tabacco) लाना और पापा के दांत के दर्द के इलाज के लिए बाहर आंगन से गर्मा-गर्म ईंट के एक टुकड़े को उन्हें लाकर देना....सेंकने के लिए...

हां, सरसों के तेल की कुछ बातें और याद आ गईं... घर में कोई ताला नहीं खुल रहा, कोई कील-पेंच जाम हो गया तो वही सुपरहिट फार्मूला ....हिदायत दी जाती ऊपर से ...डाल दो इस ताले (जंदरे) में तेल और पड़ा रहने दो ....अपने आप रवां हो जायेगा....और पता नहीं फिर होता था कि नहीं, लेकिन जब कभी उस जंदरे को रिपेयर करने के लिए बाज़ार लेकर जाया जाता तो ताले वाले की फटकार ज़रूर सुनने को मिलती कि आप लोग तालों में सरसों का तेल क्यों डाल देते हो? मत किया करो यह कारस्तानी, खराब कर देता है यह ताले को।

ध्यान आ रहा है कि घर में छोटी सी एक पीतल की या कांसे की (कांसे को पंजाबी में कैं कहते हैं क्या, मुझे पता नहीं) कटोरी तेल के साथ हर समय तैयार ही रहती थी ....याद आ गया लिखते लिखते कि कभी साईकिल भारी चल रहा होता था तो साईकिल की चेन को भी इसी सरसों के तेल की चंद बूंदों का टॉनिक पिला दिया जाता था ... हा हा हा हा हा ....साईकिल की गरारी भी रवा हो जाती थी ........हा हा हा हा हा हा ... और वह हल्का चलने लगता था बिना ज़्यादा शोर शराबे के।

और हां, जब यह सरसों का तेल चोट, खरोंच या चमूनों-वूनों पर लगता था और चीखें निकलती थीं और कोई न कोई यह कह कर ढाढस भी बंधा देता था ....इस का मतलब खरा (शुद्ध) है, इसलिए लगेगा तो...लेकिन देखना आराम भी तुरत-फुरत आ जायेगा... हां भई हां, और होता भी ऐसा ही था .....  As I always say......Good Old Days!



गुरुवार, 29 जून 2017

किस भाषा में लिखें?

मुझे १५ साल पहले एक नवलेखक शिविर में एक विद्वान की यह बात सुनने का मौका मिला था ..कि हमें अपनी मातृ-भाषा में भी ज़रूर लिखना चाहिए....सोचा उस समय इस के बारे में लेकिन कभी इस बात को गंभीरता से लिया नहीं शायद..

वहां से लौटने के बाद मैं अखबारों के लिए लेख लिखता रहा ...अधिकतर हिंदी में और यदा कदा पंजाबी में....इस के पीछे मेरी यही सोच थी कि पंजाबी अखबारों की रीडरशिप कम है...

२००७ से केवल ब्लॉगिंग कर रहा हूं....अधिकतर हिंदी में ...१० साल हो गये ...१५०० के करीब लेख हो गये...इसी दौरान २०१० के आसपास इंगलिश में भी ब्लॉगिंग शुरू की ...यही कोई तीन चार साल तक की ( चार सौ के करीब लेख) ... अभी भी कभी कभी कोई टैक्नीकल बात कहनी हो तो इंगलिश में ही लिखता हूं...उस के बहुत से कारण हैं...अभी उस में नहीं जाते। 
हिंदी और पंजाबी वाली बात तक ही अपनी बात को सीमित रखता हूं...एक है राष्ट्र भाषा और दूसरी मातृ-भाषा...दोनों का अपना अपना महत्व है..

कल मैं टीवी में प्रधानमंत्री मोदी का नीदरलैंड के हैग में हिंदुवंशियों के समूह में दिये गये भाषण को सुन रहा था...सही बात कही कि कुछ लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि उन के बच्चों को भारतीय भाषाएं आती ही नहीं हैं.. ऐसे में १५० साल पहले गये सुरीनाम जा बसे भारतीयों ने तीन चार पीढ़ियों के बाद भी जैसे अपने देश का सभ्यता, संस्कृति को संजो कर रखा है, उस की मोदी तारीफ़ कर रहे थे...

कुछ सप्ताह पहले एक बुक-फेयर में मुझे बलराज साहनी साहब की एक छोटी सी किताब मिल गई थी ...साहित्यकारों के नाम संदेश...उसमें भी यही संदेश था कि हमें अपनी मातृ-भाषा में भी ज़रूर लिखना चाहिए... अच्छा लगा था उस किताब के शुरूआती आठ दस पेज़ पढ़ कर ..अभी पूरी नहीं पढ़ी लेकिन बात पल्ले पड़ गई।

इस में कोई शक नहीं कि बहुत से लोग बच्चों को अपनी मातृ-भाषा में बात करते समय टोकते हैं...इस के बारे में क्या लिखूं, इस के बारे में हम सब लोग अच्छे से जानते हैं कि पंजाबी जैसी भाषायें धीरे धीरे लोग आज की युवा पीढ़ी कम बोलती है...मुझे यह बड़ा अजीब लगता है ...ऐसा नहीं होता कि आप १५-२० साल की उम्र में बच्चों को कहना शुरू करें कि भई, पंजाबी में बात किया करो...और वे ऐसा कर पायेंगे....मुश्किल काम होता उन के लिए भी।

यह तो है बोलने वाली बात ...लिखने की तो बात ही क्या करें!

ज़्यादा बात को खींचने की बजाए, मैं सीधा बात पर आता हूं कि मुझे लगता है कि मैंने पंजाबी में बहुत कम लिखा ...शायद इस का एक कारण यह था कि जब मैं हाथ से लिख कर अखबार में लिख कर भेजता था तो ठीक था, लेेकिन जब से मैंने कंप्यूटर पर काम करना शुरू किया तो मैंने नोटिस किया कि पंजाबी के कुछ शब्द मेरे से लिखे नहीं जा रहे थे क्योंकि मेरे को बिंदी-टिप्पी-अध्धक कंप्यूटर में इस्तेमाल करने मुश्किल लग रहे थे.....बस, ऐसे में धीरे धीरे पंजाबी लिखना कम से कम ब्लॉगिंग में छूट गया....लेकिन मुझे इस का बहुत मलाल है...

जो हमारी मातृभाषा होती है उस में हम सोचते हैं....और अगर उसी में लिखते-पढ़ते हैं तो यह सब बहुत नेचुरल होता है ... जद्दो-जहद नहीं करनी पड़ती।

सही में अगर मौलिकता की, सर्जनात्मकता की बात करें तो वह मातृ-भाषा में लिखते समय स्वतः आयेगी...और अगर अच्छा लिखा होगा तो उसका अपने आप बीसियों भाषाओं में अनुवाद भी हो जायेगा... लिखते समय कभी इस सिरदर्दी की चिंता मत करिए, यह दूसरों के लिए छोड़ दीजिए..बस, आप तो अपनी कह के मुक्त हो जाइए....

हिंदी में लिख तो लेता हूं ...कईं बार शब्दों की वजह से अटक जाता हूं... अपनी बात कहने के लिए वह शब्द नहीं मिल पाता जो मेरे मन के भाव प्रकट कर सके..और अगर मैं जबरदस्ती वहां कोई शब्द हिंदी का फिट कर भी देता हूं तो वह बात बनती नहीं.
मुझे शुरू शुरू में यही लगता था कि हिंदी बड़ी शुद्ध लिखनी चाहिए.. लेकिन ऐसा शायद हो नहीं पाता...हम वही हिंदी लिख पाते हैं जो हमें आती है ...हम वही शब्द इस्तेमाल कर सकते हैं जिन के इस्तेमाल के बारे में हमें पता है ...ऐसे ही धक्के से कुछ शब्द इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं तो फिर गड़बड़ हो जाती है....

मैं अकसर देखता हूं कि हिंदी लेखकों की कहानियां या हिंदी का कोई भी साहित्य पढ़़ते समय मैं कईं शब्दों पर अटक जाता हूं....फिर अनुमान लगाने लगता हूं...यह कहना आसान है कि उसी समय शब्दकोष देख लेना चाहिए, ऐसा नहीं हो पाता मेरे साथ..बस, इसी चक्कर में कुछ ही पन्ने पढ़ कर वह किताब अलमारी में वापिस सरका दी जाती है ...

लेकिन अगर मैं उन लेखकों की हिंदी कहानियां पढ़ता हूं जिन की मातृ-भाषा पंजाबी है तो मैं उन्हें बेहतर तरीके से पढ़ पाता हूं...कुछ शब्दों पर अटकता हूं क्योंकि लेखक जिस भी परिवेश में पले-बढ़े हैं, कुछ शब्द वहां से भी साथ जुड़ ही जाते हैं...लेकिन फिर भी ऐसे लेखकों को पढ़ कर मेरी कमज़ोर हिंदी की हीन-भावना समाप्त होती दिखती है क्योंकि मुझे लगता है कि यह तो मेरी हिंदी से मिलती-जुलती हिंदी ही है ...

कुछ हिंदी के लेखकों को पढ़ता हूं तो ज़्यादा समझ ही नहीं पाता...भारी भरकम शब्द ....मुझे कईं बार लगता है कि ये भारी भरकम शब्द कहीं जानबूझ तो इस्तेमाल नहीं किया जाते होंगे...अपनी अच्छी हिंदी को दिखाने के लिए...लेकिन जो भी हो इस से पढ़ने समझने में मुश्किल होती है ....इसी चक्कर में मैं हिंदी की कविताएं तो बिल्कुल भी समझ ही नहीं पाता....वही समझ में आईं जो स्कूल में मास्टरों ने डंडे के ज़ोर पर समझा दी, बाकी सब गोल।

तकनीकी शब्दावलियों को देखता हूं तो डर जाता हूं ...इतने भारी भरकम शब्द ...कोई कैसे इन शब्दों को समझेगा...इसीलिए हम लोग अपनी मातृ-भाषा में तो दूर अपनी राष्ट्र-भाषा में तकनीकी विषयों को पढ़ा नहीं पा रहे हैं.....और जो देश ऐसा कर रहे हैं वे तारीफ़ के काबिल हैं..

मैं भाषा विज्ञानी नहीं हूं ..जो समझा हूं वही लिखने की कोशिश कर रहा हूं....हां, कठिन शब्दों से याद आया कि लेखक के परिवेश का और उसने किस दौर में लेखन किया, इन सब बातों का भी असर तो साहित्य पर पड़ता ही है ..मैं कल मुंशी प्रेमचंद की कुछ कहानियां पढ़ रहा था ...कुछ शब्द मेरे सिर के ऊपर से ही निकले जा रहे थे।

ऐसा भी नहीं है कि हिंदी में ही यह समस्या है ...अकसर ऐसा भी होता है कि पंजाबी में भी किसी लेखक को पढ़ते हुए कुछ शब्दों पर अटक जाता हूं लेकिन वहां पर वह फ्लो खंडित नहीं होता क्योंकि वहां पर मैं आराम से कयास लगा लेता हूं...
अब ये सब बातें लिख कर ऊबने लगा हूं....लेकिन एक मशविरा तो है कि हमें अपनी मातृ-भाषा में लिखना-पढ़ना हमेशा जारी रखना चाहिए....हम सोशल मीडिया पर आडियो मैसेज तो दूर टैक्स्ट मैसेज भी मातृ-भाषा में नहीं करते ....बात भी मातृ-भाषा में नहीं करते ...और बात करते हुए भी अपने स्कूल कालेज के साथियों को भी "जी..जी " मिमियाने लगते हैं....मुझे इस से बड़ी नफ़रत है .....अगर हम स्कूल कालेज के दौर के ही अपने साथियों को व्हीआईपी ट्रीटमैंट देने लगते हैं तो इसके कईं मतलब हैं...उन के बारे में आप स्वयं सोचिए.......लेेकिन मुझे किसी भी स्कूल कालेज वाले दौर के साथी को जी लगा कर बुलाना बड़ा अजीब लगता है और मैं ऐसा अकसर नही ंकरता ....जहां मुझ से ऐसी एक्सपैक्टेशन भी होती है ...मैं वहां से गोल ही हो जाता हूं..

अपनी मातृ-भाषा में लिखने-पढ़ने का मजा ही कुछ और है ...जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है कि वहां पर भी कुछ शब्दों में मैं अटक जाता हूं....इस का कारण वही है कि उस लेखक का अपने समय का परिवेश अलग होता है ....कल मैं डा महिन्द्र सिंह रंधावा की आपबीती पढ़ रहा था ..किसी पंजाबी की किसी स्कूल की किताब में प्रकाशित हुई है....पढ़ कर ऐसा लगा कि मैं उन से बातचीत कर रहा हूं...मेरे विचार में यह एक महान् लेखन के लक्षण हैं....और उन्होंने लिखा भी इतनी बेबाकी से था ....डा रंधावा साहब के बारे में अगर आपने नहीं सुना तो यह आप के सामान्य ज्ञान पर ही प्रश्न चिंह लगाती है ....यह देश की एक महान हस्ती हुई हैं ...विकिपीडिया पर इन के बारे में यहां जानिए... डा महेन्द्र सिंह रंधावा 

डा रंधावा साहब की पंजाबी भाषा में लिखी उस आपबीती से चंद पंक्तियां हिंदी में अनुवाद कर के लिख रहा हूं..
 'जून १९३० में मैंने एमएससी आनर्जड बॉटनी पहली श्रेणी में पास की। अब गांव आने के बाद यह सूझ ही नहीं रहा था कि कौन सा काम किया जाए जिस से कि गुज़ारा हो पाए। खेती बाड़ी में बड़ी डिप्रेशन थी और गेहूं डेढ़ रूपये में चालीस किलो के भाव से बिक रही थी।शहरों के लोग तो खुश थे कि गेहूं सस्ती है लेकिन किसानों का बहुत बुरा हाल था। तंग आ कर खेती-बाड़ी में उनका रूझान कम हो रहा था क्योंकि उन्हें उन की मेहनत का सिला नहीं मिल रहा था। फ़ालतू अन्न लोग पशुओं और कुत्तों को खिला रहे थे। गांवों के कुत्ते रोटियां खा खा के तगड़े होते जा रहे थे और दिन-दिहाड़े लोगों पर हमला कर देते थे। इस डिप्रेशन का बाकी काम-धंधों पर भी बड़ा बुरा असर पड़ा और कहीं कोई नौकरी नज़र नहीं आ रही थी।'
लेख बंद करते समय बस यही कहना है कि हिंदी भी पढ़िए, इंगलिश भी पढ़िए...लिखिए....इस के आधार पर विश्व मार्कीट में अपनी विशिष्टता दिखाईए.....लेकिन अपनी मातृ-भाषा को नज़र-अंदाज़ मत करिए....यह मैं किसी भी कट्टरवाद से प्रेरित हो कर नहीं कह रहा ..वह मेरा विषय कभी था ही नहीं और ना ही होगा....लेकिन मातृ-भाषा के अधिक उपयोग से हम अपनी बात को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर पाते हैं....हमें मन की बातें कहने के लिए शब्द ढूंढने नहीं पड़ते ...मैंने भी सोचा है कि अब पहले से अधिक पंजाबी साहित्य और पंजाबी साहित्यकारों को तवज्जो दूंगा...सोशल मीडिया पर भी मैं पंजाबी जानने वाले अपने साथियों और परिवार के सदस्यों के साथ पंजाबी लिख कर ही बात कहना पसंद करता हूं...पंजाबी गुरमुखी लिपि में लिखी हुई..

बात तो लंबी हो गई पता नहीं अपनी बात ठीक से कह पाया हूं कि नहीं......शायद थोड़ी बहुत तो हो ही गई बात ....और एक बात कि अपनी मातृ-भाषा में लिटरेचर पढ़ने की शुरूआत ऐसे करें कि स्कूल की पंजाबी की पाठ्य-पुस्तकें पढ़ते रहा करें...नेट पर भी पीडीएफ फोर्मेट पर पड़ी हुई हैं.....लेेकिन मेरी तरह इन्हें स्लीपिंग पिल की तरह मत इस्तेमाल करिए...थोड़ा समय रोज़ाना ऐसे साहित्य के साथ बिताइए.....यकीन मानिए यह हमारी मानिसक सेहत के लिए भी बहुत फायदेमंद है...

एक छोटी सा बात जाते जाते कि हम लिखते इसलिए हैं कि जो कोई भी पढ़े उसे समझ में आ जाए...फिर अपनी बात किसी भी भाषा में इतनी घुमावदार ढंग से क्यों कही जाए...बस, इतना सा ध्यान रहे ...और लिखते समय भी यही ध्यान रखा जाए कि पढ़ने वाला कहीं भी अटके नही...हम क्यों नहीं बातचीत वाली भाषा में लिख पाते! लिखने वाले सोचिएगा...मातृ-भाषा की बात ही अलग होती है...उसे सुप्त मत होने दीजिए....जहां तक हो सके। फैशन के लिए कभी कभी एक दो जुमल मातृ-भाषा में बोल कर इसे उपहास का माध्यम न बनाएं, दिक्कत हमें और आने वाली पीढ़ियों को ही होगी।