मंगलवार, 9 मई 2017

ऐसे "बंगाली डाक्टर" हर जगह मिल जाएंगे...

आज सोच रहा हूं बंगाली डाक्टरों पर चंद बातें लिखूं... इन डाक्टरों से मेरा अभिप्रायः है वे डाक्टर जिन्होंने किसी तरह का प्रशिक्षण हासिल नहीं किया होता, बस जैसे तैसे अपना खोखा या गुमटी जमा लेते हैं...

मैंने तो देखा है हर शहर में ये नीम हकीम डाक्टर मिल जाते हैं और इन के चाहने वाले भी ...

अधिकतर ये अपने आप को भगंदर के इलाज का एक्सपर्ट मानते हैं.. शहर की दीवारों पर भी इन के इश्तिहार चिपके मिल जाते हैं कि एक ही टीके में पुरानी से पुरानी बवासीर और भगंदर का इलाज पाएं..

जाहिर सी बात है कि इन के किसी भी दावे में सच्चाई नहीं हो सकती .. प्रशिक्षित सर्जन जो ये काम करते हैं ... वे बीस तीस साल अपने प्रोफैशन में घिसने के बाद ही किसी मुश्किल केस को हैंडल कर पाते हैं..लेकिन ये नीम हकीम बंगाली डाक्टर किसी भी जटिल से जटिल केस की गारंटी ले लेते हैं...

हर प्रशिक्षित सर्जन को अपनी सीमाएं पता होती हैं..बहुत अच्छी बात है ...वह किसी भी मरीज़ का इलाज इस तरह से करता है कि वह किसी कारणवश पूर्णतयः ठीक न भी हो पाए तो भी वह बदतर नहीं हो जाए और सब से महत्वपूर्ण बात यह कि वह यह सुनिश्चित करता है कि सारा काम अच्छे से कीटाणुरहित औजारों से हो ताकि किसी भी तरह की भयंकर बीमारी का संप्रेषण न हो जाए... उस ने कम से कम दस साल यही कुछ सीखने की घोर तपस्या की होती है ..ऐसे ही नहीं डाक्टर बन जाते!!

लेकिन इन नीम हकीम बंगाली डाक्टरों के पास जाने पर पता ही नहीं कि वे कौन सी सूईं लगा रहे हैं...दवा के नाम पर अंदर क्या भेज रहे हैं...कौन से धागे ...कौन सी सूईंयां...सब कुछ गड़बड़झाला ....मुझे कईं मरीज़ पूछते हैं कभी तो मैं उन्हें बड़ी सख्ती से मान करता हूं कि यही कहता हूं कि अगर बवासीर ठीक हो भी गई (जो कि इन से होगी नहीं!) तो भी सौगात में वे कौन सी बीमारीयां ठेल देंगे, आप को महीनों या सालों बाद ही पता चलेगा! इस में उन का भी दोष नहीं है ...उन्हें जब खुद ही नहीं पता इन सब वैज्ञानिक सिद्धांतों का तो वे इन खतरों की कल्पना भी कैसे कर सकते हैं...

जब कोई आ कर कहता है कि मैं एक टीका लगवा कर या कुछ और इन के पास जाकर करवाने से ठीक हो गया..मुझे खुशी नहीं होती बिल्कुल ...क्योंकि जब मैं उन से पूछता हूं कि उस के बाद किसी सर्जन को दिखाया है तो जवाब मिलता है ...नहीं...इसलिए बिना प्रशिक्षित सर्जन के कोई भी कल्याण नहीं कर सकता ऐसी बीमारियों में...हां, सुना तो है कि आयुर्वैदिक पद्धति में भी बहुत कारगार इलाज है भगंदर , बवासीर जैसी बीमारियों के लिए .. लेकिन उस के बारे में ज़्यादा पता नहीं कि कहां पर होता है यह सब ...

मेरे एक निकट संबंधी ने भी करवाया यही टीकाकरण बवासीर के लिए....कुछ समय के लिए दब गई तकलीफ़, और फिर बाद में खूब जटिल आप्रेशन करवाना पड़ा और सर्जन की झिड़कियां खानी पड़ीं सो अलग...

दरअसल हमारे शरीर की आंतरिक संरचना है ही इतनी जटिल कि कैसे एक अनपढ़ बंदा जो कुछ भी नहीं जानता ... उस से खिलवाड़ कर सकता है ...और दुःख यही है कि यह सब हो रहा है....हर शहर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी की यह ड्यूटी है कि वह इस तरह के नीम हकीमों और झोलाछाप डाक्टरों पर नकेल कसें...

बेहतर होगा अगर जन मानस ही इतना जागरूक हो जाए कि बंगाली क्या, पंजाबी क्या और मारवाड़ी क्या, किसी भी नीम हकीम के चक्कर में फंसे ही नहीं ... जागो ग्राहक जागो ...हम भी नारा तो दे ही दें..

एक निकट संबंधी को भगंदर जैसी कुछ शिकायत थी... एमसीएच यूरोलॉजी को दिखा रहे थे .. क्या कहते हैं आप्रेशन के एक दिन पहले यूरोथ्रोस्कोपी हुई ...विशेषज्ञ को लगा कि इसे यूरेथर्र फिस्टूला ही मान कर आप्रेशन किया जायेगा.. फिश्चूला की जगह ही कुछ ऐसी थी ..अगले दिन सुबह आप्रेशन होने लगा तो सिविल अस्पताल के एक रिटायर्ड सर्जन भी वहां ओटी में बैठे हुए थे .. तो यूरोलॉजिस्ट ने उन्हें भी दिखा दिया केस ... उन्होंने देखते ही जांच कर के कहा कि ये भगंदर ही है .. high-end है ... और फिर उस यूरोलॉजिस्ट के कहने पर इन्होंने ही वह आप्रेशन किया ....मेरी भी इन सब के बारे में इतनी जानकारी नहीं है ...बस, यह मैंने इसलिए लिखा कि इतने इतने पढ़े-लिखे डाक्टर भी कभी कभी असमंजस में पड़ जाते हैं....कोई बात नहीं, सब के साथ होता है ...सीखते सीखते ही हम लोग पारंगत हो पाते हैं.......लेकिन इन बंगाली नीम हकीमों के पास तो जाना तो अपने पैर पर आप कुल्हाडी मारने जैसा है ..बच के रहिए, और दूसरों को भी बचाते रहिए...

हां, एक बात आज मित्र से पता चला ...उस ने इन पर अध्ययन किया ...कि ये सब बंगाल से आते हैं, बंगाली भाषा बोलते हैं.. और दुर्गा पूजा पर अपने गांव जाते है ं और लौटते समय गांव के कुछ लौंडों को साथ ले आते हैं... यह धागे से भगंदर को ठीक करने वाला काम सिखाने के लिए ...और जब इन को लगता है कि ये भी खिलाड़ी हो गये हैं तो ये आसपास के गांवों में जा बसते हैं....बंगाली डाक्टर का बोर्ड टंगवा कर भोले भाले लोगों की सेहत से खिलवाड़ करना शुरू कर देेते हैं..

मुझे आज ही यह पता चला कि इन के क्लिनिक के बाहर एक सांप भी होता है ...उम्मीद है सांप की तस्वीर ही होती होगी, यह तो मैं पूछना ही भूल गया.. लेकिन इस तरह के नीम हकीम अकसर सपेरों का काम भी कर लेते हैं ... सांप पकड़ने के लिए इन्हें बुलाया जाता है अकसर ...

बंगाली शब्द को उम्मीद है आप अन्यथा नहीं लेगें...बेहतर होगा...यह शब्द इसलिए इस्तेमाल किया है क्योंकि इन के बोर्डों पर कुछ ऐसा ही लिखा होता है ...
बंगाली डाक्टर ...पुरानी से पुरानी बवासीर, भगंदर का शर्तिया इलाज ... एक ही टीके में जड़ से खत्म !!



शनिवार, 6 मई 2017

ज्ञान की ओवरडोज़ का क्या करें?

अभी मैं अखबार में बच्चों की परवरिश के बारे में एक बढ़िया लेख पढ़ रहा था...पढ़ने के बाद मुझे ध्यान आया कि इस कतरन को अपने एक रिश्तेदार को भेजूंगा जिस के बच्चे अभी छोटे हैं...

फिर तुरंत ध्यान आया कि मैं भी किस ज़माने में जी रहा हूं...ये सारी बातें पता नहीं सैंकड़ों बार वे सोशल मीडिया पर पढ़ कर आगे बांट चुके होंगे...लेकिन मेरे कालेज के दिनों के दौरान मेरे अंकल ने बंबई से मुझे खत में टाइम्स ऑफ इंडिया की एक कतरन भेजी थी..यह मुझे आज तीस साल भी याद है अच्छे से। 

कल पंजाबी के एक साहित्यकार को पढ़ रहा था ..वे बता रहे थे कि आपस में बातें करना, अपनी कहना, दूसरे की सुनना मानव की प्रवृत्ति है .. हम गप्पबाजी करना चाहते हैं, हंसी ठट्ठा हमें अच्छा लगता है ...यही सब तो सोशल मीडिया पर भी चल रहा है. 

लेकिन जो मैंने अनुभव किया है कि सोशल मीडिया के संवाद काफ़ी हद तक ऊबा देने वाले भी होते है ं..बार बार एक ही संदेश बीसियों जगह से आ जाता है ... ऐसे में बहुत बार संदेशों को पढ़ना देखना सुनना तो दूर, खोलना तक बेकार लगता है ...और एक मानसिकता हो चली है (मेरी भी) कि मैं तो सब कुछ जानता हूं, मेरा लिखा तो हर कोई पढ़े, मुझे किसी को पढ़ने की ज़रूरत नहीं है ...दना् दन् मैसेज ठेले जा रहे हैं...मुश्किल से हम लोग कितने खोल पाते होंगे, देखने-सुनने की तो बात ही ना करिए...

हमारी कालोनी मेें एक घर के आगे सुबह एक बोर्ड टंगा रहता है ...उस पर उस घर का स्वामी एक कागज़ चिपका देता है रोज़ ..किसी महांपुरूष का कोई वचन, कोई अच्छी बात, मशविरा ...आज देखा लिखा था कि अपनी जीवनशैली ठीक रखिए, सुबह पांच बजे उठना श्रेयस्कर है ...

सोशल मीडिया का तो एक पंगा यह भी है कि बहुत बार लोग कुछ भी चिपका देते हैं... इतनी काल्पनिक बातें लेकिन वे अकसर वॉयरल हो जाती हैं..मेरा तो सोशल मीडिया का फंडा यही है कि मैं उस बात के स्रोत की तरफ़ विशेष ध्यान देता हूं ...अगर यह विश्वसनीय है तो चल सकता है ..लेकिन अगर संदेह लगे तो गूगल से अवश्य जांच लीजिए...काम तो सिर दुखाऊ है ही ...किस के पास इस सब झंझट में पड़ने का समय है...इसलिए अधिकतर माल बिना देखे ही रह जाता है ...कुछ नहीं कर सकते! 

 सोशल मीडिया पर भी हमारी बेसब्री इस कद्र बढ़ चुकी है कि जो मैसेज, इमेज सामने नज़र आ जाए, बस उसे देख लेते हैं...लेकिन जैसे ही डाउनलोड़ वाली बात आती है ..झट से आगे खिसक लेते हैं..मैं तो अधिकतर ऐसा ही करता हूं.. मलाल भी होता है कि पता नहीं कितनी काम की बात होगी, लेकिन कुछ कर नहीं सकते! 

उस दिन वाट्सएप पर एक मैसेज दो तीन ग्रुप्स में आया कि आज रविवार है ...आज छुट्टी है..आज किसी बात पर विचार करने की ज़रूरत नहीं है ..अच्छा लगा यह पढ़ कर ...आइडिया अच्छा है जैसे कुछ लोग सेहत के लिए व्रत रखते हैं..ऐसे ही मानसिक सुकून के लिए भी एक साप्ताहिक अवकाश तो होना ही चाहिए.. 

एक ज्ञान मैं भी बांट दूं सुबह सुबह ... खबर पढ़ी है अभी अभी पेपर में कि सारेगामा कारवां रेडियो लौटाएगा पुराना दौर .. आगे लिखा है कि सारेगामा साल १९०३ से लेकर २००० तक के फिल्मी गीतों को एक ही रेडियो में लेकर आया है ..सारेगामा कंपनी ने एक ऐसा रेडियो लॉन्च किया है जिसमें गुजरे जमाने के मशहूर गायकों और लेखकों के गाने मौजूद हैं.. पांच हज़ार नौ सौ नब्बे रूपये की कीमत के इस रेडियो को सारेगामा कारवां का नाम दिया गया है ..अभी मैंने इस का एक प्रोमो देखा .. आप भी यहां क्लिक कर के देख सकते हैं... बिना आर जे के यह एक्सपिरियंस कैसा होता होगा, मुझे भी पता नहीं ! 

मुझे तो यही कीमत बहुत ज़्यादा लगती है ...अगर पांच सौ रूपये में बिकता तो ज़रूर ले लेता ...अभी तो डुप्लीकेट वर्ज़न का ही इंतज़ार करना पड़ेगा... आ जायेगा देर सवेर, किस प्रोडक्ट की हम लोग नकल करने में पीछे हैं!

वैसे मैंने भी एक तरह से यह सब लिख कर ज्ञान की ओवरडोज़ का कुछ समाधान थोड़े ही ना जुटा दिया....बल्कि समस्या को और बढ़ा दिया...आज कौन किसी की सुनता है,  पब्लिक सब पहले ही से जानती है, सब पक्के ज्ञानी-ध्यानी हैं...शुक्रिया, सोशल मीडिया ! 



शुक्रवार, 5 मई 2017

अच्छा तो चलते-फिरते झोलाछाप दंदानसाज़ भी होते हैं..

दंदानसाज़ उर्दू का शब्द है ...जब मेरा डेंटिस्ट्री में दाखिला हुआ तो मेरे ताऊ जी मुझे यह कह कर बुलाया करते थे...आज अभी गूगल पर इस का अर्थ देखा .. लेकिन अकसर पुराने लोग फुटपाथों पर दांतों की दुकाने सजाए हुए लोगों के लिए ही इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं..

अकसर नीम-हकीम दंदानसाज़ आपने भी अपने शहरों में जगह जगह बैठे देखे होंगे .. फिक्स अड्डों पर ..सामने कुछ पत्थर के दांतों के जबड़े रखे हुए, कुछ दांत उखाड़ने वाले औज़ार ..और कुछ दवाईयां ...दरअसल यह हमारे देश की बदकिस्मती है कि आज भी ये लोग अपनी दुकानें चमकाने के नाम पर जनता की सेहत से खेल रहे हैं..

दांत उखाड़ना कोई बड़ी बात नहीं है ..लेेकिन जब यह काम ये नीम हकीम करते हैं तो सारी गड़बड़ ही गड़बड़ है ...एक दो रिस्क हो तो मैं गिना भी दूं...लेकिन इन खतरों की लिस्ट इतनी लंबी है कि लिखते लिखते रात बीत जाएगी... पता नहीं कितने लोगों को ये लोग लाइलाज बीमारियां भी दे डालते होंगे..

बहरहाल, मैंने भी अनेकों जगहों पर यह सब काम होते देखा है....एक खबरिया चैनल की भाषा है ..सत्ता के गलियारे ...जी हां, दिल्ली के सत्ते के गलियारों की नाक के बिल्कुल नीचे भी इने पनपते देखा ...लेकिन मुझे हमेशा यही लगता था कि ये लोग एक फिक्स जगह पर बैठ कर ही अपना धंधा करते हैं ...

आज पहली बार एक मरीज़ से पता चला कि चलते फिरते झोलाछाप दंदानसाज़ भी हुआ करते हैं..

एक मरीज़ आया...बता रहा था कि आगे का एक दांत हिल रहा था तो उसने तार लगवा ली दांतों को हिलने-ढुलने से रोकने के लिए...मुझे देखने से ही अंदाज़ा हो गया कि यह किसी नीमहकीम बंदे की ही कारस्तानी है ...उसने भी बताया कि ऐसे ही करवा लिया था चार पांच साल पहले ...ऑफिस में ही दांतों का इलाज करने के लिए एक आदमी आया करता था ...बडे़ बाबू, छोटे बाबू...सब लोग उसी से ही दांतों का इलाज करवा लिया करते थे ...मैंने भी एक दिन यह काम करवा लिया...

एक संदूकची रखे रहता था वह दंदानसाज़ और सारा काम उधर दफ्तर के अंदर ही बैठे बैठे कर के चला जाता था.. मुझे बड़ी हैरानगी हुई ... कानों की सफ़ाई वाले तो ऐसे गली-गली कूचे कूचे घूमते देखे थे ..लेकिन इन घूमते फिरते दंदानसाज़ों के बारे में आज पहली बार सुन रहा था ..

हां, दो दिन पहले मैंने आप को ऐसे ही एक नीमहकीम द्वारा लगाए गये किसी मरीज़ के फिक्स दांतों का नमूना दिखाया था... फिक्स दांतों की सिरदर्दी...  इन झोलाछाप सड़कछाप दंदानसाज़ों के काम का एक नमूना और देखते हैं..


आप देखिए किस तरह से एक दो हिलते हुए दांतों को रोकने के लिए कैसे साथ के स्वस्थ दांतों पर भी कस के तार बांध दी गई है ..मरीज़ को कुछ पता नहीं होता...उन्हें तो फौरी तौर पर लगता है कि हां, हिलते हुए दांत कसे गये हैं...बस, काफ़ी है...लेकिन इस तरह का इलाज तकलीफ़ को और भी बिगाड़ देता है ...

इस तार की वजह से और पायरिया की वजह से अब इस मरीज़ के चार दांत बुरी तरह से हिल रहे थे ...और मसूड़े भी कैसे दांतों से पीछे हट रहे हैं.. आप इस तस्वीर में देख सकते हैं..


इन दांतों के अंदर की तरफ़ देखिए कैसे एक्रिलिक नामक मैटीरियल तार के ऊपर लगा कर दांतों को रोकने का जुगाड़ किया गया है ...यह "मसाला" तो उसने तार के ऊपर बाहर की तरफ़ भी लगाया था, लेकिन वह निकल गया है ....मरीज़ मेरे पास इसीलिए आया था ..

मैंने उसे समझाया तो है कि उचित इलाज के लिए पहले तो उसे तार से निजात पानी होगी...यह सुन कर दुविधा में पड़ गया दिखता था ...मैंने कहा, दो तीन दिन सोच लो...उस के बाद ही समुचित इलाज की बात हो सकती है ..

हां, ये जो हिलते दांत होते हैं इन को फिक्स करने का क्वालीफाईड डैंटिस्ट के पास वैज्ञानिक तरीका और सलीका होता है ...जो कि पूरी तरह से सुरक्षित होता है ..वह पहले तो इस बात का पता करता है कि ये दांत हिल क्यों रहे हैं, फिर जितना संभव हो सके उस का इलाज भी किया जाता है ...

बस, आज इतनी ही बात कहनी थी कि ऐसे चलते-फिरते झोलाछाप दंदानसाज़ों से बचे रहिए...मुझे यकीन है कि इसे पढ़ने वाले कभी ना तो इन के चंगुल में फंसे होंगे और ना ही फंसेगे.....लेकिन फिर भी मैं अपनी आदत से मजबूर.......ज्ञान बांटने बैठ जाता हूं!!

इस समय मेरे रेडियो पर यह गीत बज रहा है ..आप भी सुनिए....पल्ले विच अग्ग दे अंगारे नहीं लुकदे ..