शनिवार, 15 अप्रैल 2017

गन्ने का रस - जब अज्ञानता भी अच्छी थी!

एक इंगिलश की कहावत है ...Ignorance is bliss! ... अनुवाद इस का शायद यही होगा ... अनाडी़पन भी अच्छा होता है! गन्ने के रस के बारे में बात बाद में करते हैं, पहले मेडलाइन प्लस पर उपलब्ध मैडीकल खबरों की खबर ले ली जाए...शायद सैंकड़ों लेखों के आइडिया मुझे इन खबरों से आया करते थे ...फिर एक दिन विचार आया..कि नहीं, क्या करना इतना मैडीकल ज्ञान लोगों की सीधी सादी ज़िंदगी में ठूंस कर ...अपने अपने हिस्से का ज्ञान सब जुटा ही लेते हैं कैसे भी...इसलिए मुझे इस तरह के भारी भरकम ज्ञान से एक तरह से चिढ़ ही हो गई...

आज मुझे ध्यान आया कि चलिए देखते हैं क्या खबरें कह रही हैं सेहत के बारे में ....पूरी लिस्ट देख ली, कुछ भी तो नहीं लगा जिसे आप से शेयर किया जा सके या जिस पर कोई टिप्पणी की जा सके ... यह रहा वैसे इस का लिंक ...मैडलाइन प्लस ... इस के बारे में इतना बताते चलें कि यह अमेरिकी नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मैडीसन की साइट है जहां पर विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध रहती है .....

लेकिन वही बात है इतना भारी भरकम ज्ञान ढोने से क्या हासिल ....हमारे तो मुद्दे हैं, दूषित पानी से कब राहत मिलेगी, मच्छरों का आतंक कब कम होगा, और गन्ने का रस पिएं या ना पिएं !!

कल सुबह मैंने एक लेख ठेला था फलों के रस का सच हम जानते तो हैं, लेकिन ...

उस लेख पर एक कमैंट मुझे आया वाट्सएप पर जिस में मित्र ने लिखा कि ये फलों का जूस बेचने वाले भी कईं तरह के शोषण का शिकार होते हैं...इन्हें भी कुछ पुलिसवालों को मुफ़्त में जूस पिलाना पड़ता है और चूंकि ये लोग अपना धंधा खुले में तो कर नहीं सकते, ऐसे में इन्हें फंसाने का डर दिखा कर भी कुछ लोग इन से पैसे ऐंठ लेते हैं.. इसलिए ये लोग मुनाफ़ाखोरी के चक्कर में फिर जूस में मिलावट करना शुरू कर देते हैं...

लेकिन बात वही है कि अगर जूस वालों का शोषण हो रहा है तो वे कैसे पब्लिक की सेहत के साथ खिलवाड़ करना शुरू कर सकते हैं! बीमार लोग अगर ऐसे जूस को पिएंगे तो वे और बीमार तो होंगे ही ..जब कि सेहतमंद लोग ही इसे पीकर बीमार हो जाते हैं .. इतने भयंकर कलर्ज़-़़कैमीकल्ज़ एक बार शरीर में गये तो ये लिवर और गुर्दे के सुपुर्द हो गए...अब ये इन अंगों में तबाही मचा के रख देते हैं....इन अंगों की कार्यप्रणाली को तो नुकसान पहुंचाते ही हैं, कैंसर जैसे रोगों का कारण भी बनते हैं...

एक मित्र ने इलाहाबाद की एक जगह का नाम लिखा ...कि वहां पर १० रूपये का मौसम्मी का जूस मिलता है लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि  यह कैसे इतने में बेच लेते हैं...लेकिन मौसम्मियों में इस तरह के मीठे पानी आदि के टीके लगाने वाली बात से कुछ समझ में आया तो है ...लेकिन उन को यह संशय अभी भी है कि इतनी सारी मौसम्मियों को टीका लगाना भी तो बड़ा मुश्किल काम है! ......अखिलेश जी एक बैंकर हैं जिन्होंने यह लिखा है .. अखिलेश जी, यह कोई मुश्किल काम नहीं है...कौन सा डाक्टरी ताम-झाम के साथ टीके लगने हैं...जो पानी हाथ में आया, जो सूईं मिली....ठेल दिया टीका...आप ने पिछली पोस्ट की वीडियो में देखा ही यह सब कुछ कैसे हो रहा था।

वैसे मैं भी इस तरह के संशय से गुज़र चुका हूं...आज से २५-२६ साल पहले हम लोग जब बंबई रहने के लिए गये तो मैं देखा करता कि लोकल स्टेशनों के बाहर बड़े बडे़ टबों में संतरे का जूस ३-३, ५-५ रूपये में बिक रहा होता .. देखने में वह जूस ओरिजनल जूस जैसा ही दिखता ... लेकिन पिया कभी नहीं मैंने ...ग्राहकों को भ्रमित करने के लिए उन्होंने उसी टब पर रखी लकड़ी पर बीस तीस निचोड़े हुए संतरे भी रखे होते थे ... लेकिन जितना जूस उस टब में होता...वह एक संतरों से भरे हुए एक टैंपो का ही लगता!

बहरहाल, गड़बड़झाला तो है सब जगह ... यह आप के ऊपर है कि आप किसे चुन रहे हैं... हां, गन्ने के रस की बात हो रही थी कि वह ही सब से बढ़िया है....बेशक, बढ़िया तो है ...लेेकिन डाक्टर लोग जैसे ही गर्मी आती है, गन्ने का रस बिकने लगता है तो सचेत करने लग जाते हैं कि अब पीलिया के केस भी बहुत आने लगे हैं...बच के रहिए...

गन्ने का रस मुझे बेहद पसंद है ....जब गन्ने के रस के गिलास में उस रस के अलावा कुछ नहीं दिखता था, तब इस रस का खूब लुत्फ़ उठाया... तीन चार गिलास एक साथ पीना आम बात थी ... अदरक, नींबू, बर्फ़ डाल कर ... रस निकालने वाली मशीन में गन्ने के रस साथ उस के पतीले में जाने वाले मशीन के तेल को भी देख कर भी नज़रअंदाज़ कर देते थे ...कि छोड़ यार, सब पी रहे हैं ना, कुछ नहीं होगा..। बर्फ़ के बारे में सोचते थे ही नहीं....गन्नों की साफ़ सफ़ाई का कुछ पता नहीं था..

४० साल पहले की बात करें तो एक जगह से स्कूल से लौटते समय गन्ने का रस पीते थे .. जहां पर एक बैल को (कोल्हू वाले बैल की तरह) जूस निकालने के लिए गोलाकार में घुमाया जाता था .. दूर से दिखता था कि गन्ने के रस के साथ कितना मशीन का तेल उस बाल्टी में जा रहा है .....लेकिन वही बात है ... अनाडी़पन में सब कुछ चलता है..आगे पीछे कुछ नहीं दिखता..

१९८० में पीलिया हो गया, किसी डाक्टर से परामर्श नहीं, कोई टेस्ट नहीं, कोई उपचार नहीं ...बस, पड़ोसियों के कहने पर रोटी छुड़वा दी गई और रोज़ाना पांच सात गिलास गन्ने के रस के पीने को मिलने गये .....

फिर लोगों में जागरूकता आने लगी .. गर्मी के दिनों में गन्ने का रस बेचने पर प्रतिबंध लगने लगा ...सरकारी फरमान जारी होने लगे ... लोग खूब धूप बत्ती लगा के मक्खियो ंको दूर रखने लगे .. लेकिन मुझे बंबई में गन्ने का रस पीने में कभी भी झिझक नहीं होती ...वे लोग गन्ने को धोते हैं ...पोंछते , साफ़ करते हैं .. और ध्यान करते हैं कि मक्खियां आसपास बिल्कुल नहीं हों...अधिकतर बंबई में ऐसे ही बिकता है गन्ने का रस ... कुछ साल पहले मैंने हैदराबाद में भी इतनी साफ सफाई से ही गन्ने का रस तैयार होता और बिकता देखा...कईं जगहों पर तो गन्नों का छिलका भी पहले उतार लिया जाता है और इन को रखा भी सलीके से जाता है ...बहुत अच्छा लगता है यह सब देख कर ...

जैसे ही गर्मियां आती हैं और गन्ने का रस बिकता दिखता है तो मैं डाक्टरी के अधकचरे ज्ञान को बड़ा कोसता हूं...सच में यह अधकचरे से भी कम ही है ...बस इतना है कि इन छोटी छोटी खुशियों से दूर रखता है ... मुझे अपने स्कूल-कालेज के दिनों की तरह तीन चार गिलास गन्ने का रस पीने की तमन्ना तो बहुत होती है .....लेकिन मैं पी नहीं पाता .... डर लगता है जिन खराब हालात में यह सब काम हो रहा होता है ...

यह एक ऐसा मुद्दा है जिस में कोई किसी को सलाह नहीं दे सकता ...और जहां तक सलाह की बात है ..लोग गुटखे-पान मसाले को थूकने की सलाह तो मानते नहीं है, फिर गन्ने का रस पीना किसी के कहने पर भला क्यों छोड़ने लगे!

गन्ने के रस में कोई बुराई नहीं है ज़ाहिर सी बात है ... लेकिन मशीन की साफ़ सफ़ाई, बर्फ़ की क्वालिटी, आस पास की साफ़ सफ़ाई ... ये सब बातें देख कर आप को स्वयं ही यह निर्णय लेना होता है कि आप यहां से रस पिएंगे या नहीं, मैं तो ऐसा ही करता हूं ....किसी दुकान पर रूक कर बिना जूस पिए आगे बढ़ने से मैं झिझकता नहीं (चाहे मैं वैसे परले दर्जे का संकोची प्रवृत्ति का हूं) .....आखिर यह हमारी सेहत का मामला है !

फैसला आप के भी अपने हाथ में ही है ... कि गन्ने का रस पिएंगे और कहां से पिएंगे? लेकिन पता नहीं मुझे कैसे बैठे बैठे यह गीत ध्यान में आ गया ... हा हा ह हा हा हा हा ...आप भी सुनिए...गोरों की न कालों की, दुनिया है दिलदारों की ...


शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

खतो- किताब़त - तब और अब

मुझे याद है कि हमारे घर के आस पास तीन चार घरों में मेरा स्कूल से लौटने का इंतज़ार हुआ करता था...उन घरों में रहने वाले अपने हमउम्र साथियों के साथ खेलने-कूदने के लिए भी और उन के यहां आई चिट्ठी को पढ़ने के लिए भी .. दो बार चिट्ठी पढ़वाई जाती थी ..

और  फिर शाम को मेरे को उस का जवाब लिखने के लिए बुक कर लिया जाता था...

ये सब छठी-सातवीं-आठवीं कक्षा की बातें हैं...मेरे लिए इतनी ही गुदगुगी काफी थी शायद कि इतनी लाइमलाईट मिल रही है ..जब मैं उन का खत लिखने जाता हूं तो मेरे को आराम से बैठने के लिए कुर्सी दी जाती है ...और बाकी सब चारपाईयों पर बैठ कर अपनी अपनी बात मेरे तक पहुंचाने लगते...

अच्छा, मोहल्ले में चिट्ठे लिखने में डिमांड मेरी ही ज़्यादा थी .. इस का कारण था कि मैं कभी भी इस काम में जल्दबाजी नहीं करता था, कभी नहीं...कि किसी ने बुलाया है और इस का जैसा तैसा खत लिख कर पीछा छुडा़ना है..कभी ऐसा करना तो क्या, ध्यान भी नहीं आया, इत्मीनान से बैठ कर लिखता था...

आप किसी के घर की दो चार चिट्ठीयां पढ़ लो और इतनी ही चिट्ठीयों का जवाब लिख दो तो आप को उस घर की थोड़ी बहुत जन्मपत्री समझ आने लगती है ...लेकिन उस समय में बालमन को इन सब से क्या लेना देना, बस इतना हो जाता था कि मुझे उन के सगे संबंधियों के नाम-पते और किस को नमस्कार और किस को प्यार-दुलार भेजना है ...यब सब याद हो जाता था...क्योंकि हिंदोस्तानी चिट्ठीयाें में भूमिका और उपसंहार में तो यह सब ही ठूंसना होता है ...

हां, एक बात और ...मुझे कैसे पता चलता था कि मैं यह चिट्ठाकारी का काम अच्छे से कर रहा हूं कि नहीं...यह भी एक राज़ की बात है ..

मेरी नानी जो अंबाला रहती थीं..वह भी हमें पोस्टकार्ड भिजवाती थीं लेकिन पड़ोस के बच्चों के लिखवा कर ... उन खत़ों को पढ़ कर मुझे झट से समझ आ जाता था कि इन्हें पढ़ कर कुछ मज़ा आया नहीं...ख़त को थोड़ा चटपटा भी हो बनाना चाहिए...पहली तो बात है जैसी भी आप की लिखावट है, उसी से ही अगर हम इत्मीनान से लिखें तो खुशख़त तो बन ही जाएगा..लेकिन अगर घसीटे मारने की ही ठान ली है तो कोई किसी का क्या कर लेगा!

और हां, इन खतों को पढ़ कर मेरी मां भी अकसर कहती उस लड़की का नाम लेकर कि यह पता नहीं कैसे लिखती है... और जब नानी से मिलना होता तो पता चलता कि उन्हें उन चंद लाइनें लिखवाने के लिए भी कितनी खुशामद करनी पड़ती ..

तो ये सब बातें मेरी समझ में छठी सातवीं कक्षा से ही आने लगी कि कोई अगर यह काम कहे तो अपने सब काम छोड़ कर पहले उस का यह काम निपटा आना चाहिए...क्योंकि यह भी एक तरह की एमरजैंसी ही हुआ करती थी ... और जिन के खत़ मेैं लिखा करता उन के रिश्तेदारों की भी मिलने-जुलने पर उन से यही फरमाईश हुआ करती कि जिस ने वह वाला ख़त भेजा था, उसी से ही लिखवाया करो ...


अभी मुझे कुछ ध्यान आया ...मैंने अपने इसी ब्लॉग पर कुछ ढूंढना था...गूगल सर्च किया ...वह कुछ तो नहीं मिला जो मैं ढूंढ रहा था लेकिन दादी की याद मिल गई एक पोस्ट कार्ड पर लिखी हुई ..अभी आप से साझा किए दे रहे हैं.. और अपनी एक फोटू भी दिख गई ...गूगल पर पड़ी हुई...ऐसे ही नहीं कहते कि इंटरनेट पर जो कुछ भी करते हैं, सब जमा हो रहा है ....net footprints के बारे में सचेत रहने की ज़रूरत है .. आज कल तो कईं जॉब्स के लिए वे ये सब भी पहले देखते हैं..



खत कैसे इत्मीनान से लिखा जाता है इस की ट्रेनिंग मुझे अपने माता पिता से भी मिली ..विशेषकर पिता जी से ...वह सच में बहुत ही बढ़िया इंगिलश और उर्दू में ख़त लिखा करते थे...और किसी का भी खत आए, उस का जवाब उन्होंने अच्छे से देना ही होता था ... और बहुत साफ़ लिखते थे ...

मैं अकसर यही सोचता हूं कि चिट्ठी वह होती है जो दिल को दिल से जोड़ने का काम करती है ...यह छोटा मोटा काम तब नहीं होता जब यह काम आप किसी के लिए यह कर रहे होते हो, यह आप पर है कि आप उसे नीरस बना दें और आप चाहें तो उस में ऐसे रंग भर दें कि ठिकाने पर पहुंच कर वह कागज़ का टुकड़ा सारे माहौल को खुशगवार बना दे.....दुनिया में सब जादू शब्दों का ही है, बोले हुए, लिखे हुए और जो कभी न कहते हुए भी आंखें कह गई ....उन शब्दों का भी ... ये जो तीसरी क्षेणी वाला संप्रेष्ण है इस की अहमियत को हम कम आंक लेते हैं ...लेकिन ऐसा है नहीं...

कौन सी चिट्ठी ऐसी होती है जो अपना प्रभाव छोड़ देती है ...उस को कैसे लिखना चाहिए...इस का एक नमूना मुझे छठी सातवीं कक्षा में लिखने का मौका मिला....मेरेे पिता जी का एक अफसर लोगों को बहुत तंग किया करता था ..मुझे एक दिन पिता जी ने कहा कि हिंदी में एक चिट्ठी लिखो....मुझे याद है मैं वही छठी-सातवीं कक्षा में था, वे बोलते गये, मैं लिखता गया...तीन चारे बडे़ पन्ने भर गये ....बीच बीच में पिता जी कुछ संशोधन करने को कह देते ...ऐसे में मैंने वह चिट्ठी फिर से साफ़-साफ़ लिख कर तैयार कर दी ...अब फोटोस्टैट वैट तो होती नहीं थी उन दिनों... मैंने दो तीन कापियां भी बना दीं उन के कहने पर, जहां तक मुझे अब याद है ...और उस चिट्ठी का असर भी हुआ.....मुझे यह भी पता चला...

उस चिट्ठी के बहाने मुझे कईं नईं शब्द सीखने का मौका भी मिला....एक शब्द जिसे मैं आज भी याद करता हूं तो हंसने लगता हूं ...उस चिट्ठी में पिता जी ने उस अधिकारी द्वारा गुलछर्रे उड़ाने की बातें भी लिखवाई थीं...अब मुझे लग रहा है कि मैंने ज़रूर गुलछर्रे को गुलछरे ही लिखा होगा ...

बस, बात को बंद करता हूं यहीं ...खत लिखते रहना चाहिए...आदत बनी रहती है ...यह बहुत जरूरी है ...पहले हमें साधारण डाक पर भरोसा होता था ....अब धीरे धीरे वह खत्म होता जा रहा है ...बड़ी बहन ने जयपुर से एक साधारण चिट्ठी भेजी है कुछ कागज़ भेजे हैं...तीन चार बार पूछ चुकी हैं पिछले पांच सात दिनों में ...लेकिन अभी तक यहां लखनऊ में नहीं पहुंची ....कल तो कहने ही लगीं...साधारण डाक का यही पचड़ा होता है! ..... लेकिन हम सब लोग उसी साधारण पोस्ट-कार्ड- अंतर्देेशीय ख़त को लिखते-पढ़ते मानवीय संवेदनाओं को समझने की कोशिश करते करते ही बड़े हुए हैं.....

वैसे अब हम लोग अपने नाते-रिश्तेदारों को खत लिखते ही कहां है, ये सोशल मीडिया पर ही दो चार शब्द लिख कर हॉय-हैलो हो जाता है, मिठाई भी वाट्सएप पर आ जाती है, शगुन भी, और होली के रंग और दीवाली के पटाखे भी सब कुछ इसी पर आ जाता है ...परिभाषाएं बदल गई हैं बहुत सी ......काश, हम पुरानी परिभाषाओं को भी कभी कभी याद रखा करें... उन में ज़मीन की सौंधी खुशबू है ....आज के नये मीडिया से यह सब गायब है .. यकीन नहीं होता? ...चलिए, फिर राजेश खन्ना साहब को सुनते हैं.....


निदा फाज़ली साब के वे अल्फ़ाज याद आ गये ... 
सीधा सादा डाकिया जादू करे महान् 
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान 

मनाली में खींची यह फोटो भी आज गूगल सर्च से ही मिली ... 



इस ब्लॉगिंग को चिट्ठाकारी भी कहते हैं....ब्लॉगिंग तो फिरंगी शब्द है .. और मैं तो बहुत बार मज़ाक में कहता हूं कि मुझे इस तरह का ही काम पसंद है जहां पर मुझे लोगों के लिए सभी तरह की चिट्ठीयां लिखने का काम मिले ... फ्री में ....पास एक दान-पत्र रख दिया जाए....जिस की जो श्रद्धा हो उस में डाल जाए, नहीं तो कोई बात नहीं.. (जो दे उस का भी भला, जो न दे उस का भी भला...) इस दान-पात्र वाली बात पर मेरे दोस्त बड़े ठहाके लगाते हैं ....मुझे लगता है कि ज़िंदगी के किसी न किसी पढ़ाव पर यह काम भी कर के ही रहूंगा ... आमीन!

गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

वैसाखी मुबारक

आज कल त्यौहारों का पता भी टीवी या अखबार से ही पता चलता है कईं बार .. हमें छुट्टी भी नहीं है आज...

वैसाखी की मुबारक....आज वैसाखी वाले दिन सुबह सुबह बस कुछ पंजाबी गीत जो ध्यान में आए ... वे देखे और यहां शेयर कर रहा हूं...लिख कुछ नहीं रहा ..








बस जी हमारी वैसाखी तो मन गई....बस, शाम को जलेबियां खाने की कसर है.....

यह भी आराम है, पंजाब से बाहर लखनऊ में बैठ कर वैसाखी का जश्न भी यू-ट्यूब पर ही हो जाता है ...