अभी अभी श्रीमति ने पूछा है कि संडे मतलब ...नहाने-धोने से छुट्टी....मैंने कहा ..नहीं, अभी होता हूं तैयार ...संडे के दिन वैसे मुझे बहुत बार लगता है कि तैयार हो कर करना क्या! चुपचाप बीतने दिया जाए संडे का, इतनी भी क्या जल्दी है ...
अभी ध्यान आया कि आज संडे की कुछ हाइलाईट्स ही शेयर कर दूं आज ब्लॉग पर ...
हां , तो ओ लो एक्स OLX के विज्ञापन देख कर मुझे भी लगा कि एक बार यह काम भी कर ही लिया जाए...मैंने भी एकाउंट बनाया और सोचा कि स्टडी रूम में काफी कुछ बिखरा रहता है...वहां पर कुछ लिखने-पढ़ने की तो क्या, बैठने की भी जगह नहीं होती ...एक अलमारी खरीदी जाए जिस में सारा सामान बंद कर के छुट्टी कर ली जाए...
हां तो ओ एल एक्स का ध्यान आया...यही लगा कि हम लोग चार साल से यहां लखनऊ में हैं और अभी भी लगता है कि बस कभी भी यहां से कूच कर जाएंगे...ऐसे में क्या क्या नया सामान इक्ट्ठा करते रहें...ओएलएक्स पर देखा तो एक विज्ञापन था घर के पास ही किसी एड्रेस का पांच हज़ार में गोडरेज की अलमारी दे रहे थे...(ओएलएक्स में यह अच्छी सुविधा है कि आप अपने घर से दूरी वाला फिल्टर सैट कर सकते हैं ...ऐसे में घर से पांच किलोमीटर के दायरे में आने वाले लोगों के विज्ञापन नज़र आ जाते हैं...)
फोन वोन लिए और दिए गये...अंग्रेजी में ओएलएक्स पर चैट भी हुई मुख्तसर सी ...और मैं सुबह पहुंच गया उस अलमारी को देखने ...
उस अलमारी को देखते ही मुझे यह आभास हुआ कि पिछले जमाने में जो लोग शादी ब्याह के मामलों में लकड़ी-लड़का दिखा कोई और देते थे ..और ब्याह किसी और से कर दिया करते थे....कमबख्त लोग भी अजीब किस्म के डेयरिंग थे ...होता रहा है पुराने दौर में यह सब गोलमाल ...फिर बाद में लड़ाईयां-झगड़े सब चलते थे
हां, पहले तो अलमारी गोदरेज की थी नहीं ...और उसे देखते ही लगा कि यार, यह कौन से बाबा आदम के ज़माने की अलमारी है ...पेंट इतना खराब ...बहुत ही ज़्यादा खराब ..लेकिन कमबख्त इतनी भारी ...
उस अलमारी का बंदा भी थोडा़ कंफ्यूज़ड ही लगा ...विज्ञापन में बताया था कि यह दस साल पुरानी है ...लेेकिन थी यह और भी बहुत पुरानी....वह बंदा तो जैसे अपना दुःखड़ा रोने लगा ...यह इन्होंने मुझे दहेज में दी थी ...(मैं इधर उधऱ देखने लगा कि बंदा किस को "इन्होंने" कह रहा था ..दो बुजुर्ग बस एक कमरे में गुफ्तगू में तल्लीन थे ...खैर, तभी उसे कुछ याद आया होगा कि कहने लगा कि मेरे लिए इस की बहुत इमोशनल वेल्यू है ...अब हम लोग १५ वीं मंज़िल पर रहने जा रहे हैं, इसलिए इसे डिस्पोज़ आफ करना चाह रहे हैं...
मेरे मन में उस समय अतिथि तुम कब जाओगे....में सतीश कौशिक का अजय देवगण को उस के चाचा के लिए बोला गया डायलाग याद आ गया...कुछ बहस हो गई थी एक सेट पर ...देवगण कहता है कि यह तो मेरे पिता सामान हैं....तो सतीश कौशिक गाली निकाल कर कहता है, सामान है तो इसे घर रखो ...दरअसल कौशिक उस समय भड़का हुआ था क्योंकि उस चाचा (परेश रावल) ने एक बहुत महंगी गलती कर के फिल्म का सेट ही राख करवा दिया था....
बहरहाल, वह मुझे कहने लगा कि इस में दो चाबियां लगती हैं...मेरे को उसने लगा के भी दिखाईं ...बड़ा रोमांचकारी फीचर था ...लेकिन मेरे को दो क्या एक चाभी वाले लाक में भी कोई रुचि नहीं होती ...सभी अलमारीयां वैसे ही खुली रहती हैं...होता क्या है इन में ताले लगाने वाला!!
और मेरे जैसे भुलक्कड़ के लिए तो वैसे ही दो चाभियाों वाला मामला और भी पेचीदा ...कईं बार तो मैं अपनी चाभियां भूल जाता हूं...
और हां, भारी भरकम इतनी थी यह अलमारी जिसे वह ओएलएक्स विक्रेता एक USP मानता था कि यह बड़ी मजबूत है ...मैं तो बस लोहे के पैसे ही ले रहा हूं...
बात, दरअसल पैसों की तो बिल्कुल थी ही नहीं, उस के भारीपन पर ही पेच फंस गया ....मैंने कहा कि थोड़ा साइड से देख सकता हूं, उसने कहा कि मेरे को तो रॉड पड़ी हुई है, मैं तो इतनी भारी अलमारी को हाथ नहीं लगा सकता....तब, मुझे लगा कि यार, अगर यह बंदा ही इस अलमारी से इतना परेशान है तो मुझे इस की आफ़त मोल लेने की क्या पड़ी है...
तब भी मैं पूरी तरह से कोई निर्णय ले नहीं पाया ...मैंने कहा टैंपो का पता करके फोन करता हूं..
टैंपो वाला मिला ...७०० रूपये कहने लगा ...तुरंत चलने को तैयार हो गया...मैंने वहीं सोचा कि ५००० की अलमारी, ७०० टैंपो के और ऊपर से डेढ़ दो हज़ार के पेंट करवाने के .... फायदा क्या ऐसी अलमारी का, जो पेंट के बिना सिरदर्दी बनी रहेगी ...वैसे भी वज़न इतना ज़्यादा कि मेरे बाद स्वभाविक है यह फिर किसी की इमोशनल वेल्यू बन जायेगी कि इस में अपना बापू रद्दी रखता था....लेकिन जब भी इसे शिफ्ट करने की बात आया करेगी तो मन ही मन मेरे को गालियां निकाला करेंगे..
मुझे लगा कि इसे खरीदना हर नज़रिये से बेवकूफ़ी है ...कबाड़ इक्ट्ठा करने जैसी बात है ...इसलिए उस को फोन कर दिया कि आप बेच दीजिए अपने इच्छानुसार (क्योंकि उसने कह दिया था कि बहुत से लोग इस में रूचि ले रहे हैं) ...हमारे यहां इतनी भारी अलमारी चल नहीं पायेगी......
अब अपने पुराने सामान का क्या करूंगा ..सोच रहा हूं किसी दिन मोहमाया का त्याग कर के उसे बारी बारी से नेकी की दीवार पर ही टांग आया करूंगा ....
चलिए...अगली बात ....
अगली बात यह कि कल एक फुटपाथ पर पुरानी किताबें बिक रही थीं ....मुझे एक पुरानी किताब दिख गई जिस की फोटो यहां लगा रहा हूं...
मुझे तो यह किताब लेनी ही थी, १९२० की किताब है ...बस, इसलिए ...क्योंकि मुझे इस की अंग्रेजी से कोई सरोकार नहीं ..कोशिश ज़रूर करूंगा इसे पढ़ने की ...कोई धांसू विषय तो लग ही रहा है ...लेकिन मेरा अपना, हमारे स्कूल का, हमारे टीचर्ज़ का यह दोष तो रहा कि हमें वर्ल्ड आर्ट, वर्ल्ड ड्रामा, विश्व की हिस्ट्री, जियोग्राफी, विश्व सिनेमा का कुछ भी ज्ञान नहीं दे पाए और न ही इसमें हमारी रूचि ही विकसित कर पाए...इन विषयों के बारे में कुछ भी नहीं पता....शून्य बटे सन्नाटा जैसी बात है ....बस जैसे तैसे रट-रटा के हिस्ट्री-ज्योग्राफी पास करते रहे क्योंकि एक तरह से हम लोगों को ब्रेन-वाश कर दिया जाता था उस दौर में बस मैथ, साईंस और ईंगलिश पर ज़ोर दो ...बाकी में कुछ नहीं होता, अपने आप सब पास हो जाते हैं.....लेकिन बाद में पता चलता है कि पास होना ही तो कुछ नहीं होता, हर विषय अच्छे से समझना ज़रूरी तो होता ही है ...
मैं उस दुकानदार से पूछा कि क्या दूं ?..कहने लगा ..जो आप ठीक समझें.....मैंने बीस रूपये उस तरफ़ बढाए....कहने लगा कि आप इस किताब को देख रहे हैं कितनी पुरानी है ...आप को तो इस के बारे में पता होगा (मैं उस को क्या बताता कि मुझे भी कुछ नहीं पता...सिवा इस के कि यह १९२० में छपी थी और और आज भी इस की बांईंडिंग ठीक ठाक है...)...पचास तो दे दीजिए......मैं उसे तुरंत पचास रूपये दिए और किताब लेकर आगे बढ़ गया.....
एक बात और शेयर करता हूं ....
आज बाद दोपहर ४ से ५ विविध भारती पर सावन कुमार टाक -फिल्म लेखक, निर्माता, निर्देशक के साथ एक इंटरव्यू आ रहा था ...अच्छा लगा, कुछ नईं जानकारियां मिलीं ....एक विशेष बात यह पता कि वे अपनी फिल्मों के गाने भी स्वयं ही लिखते थे ....उन के लिखे दो तीन गाने प्रोग्राम में रेडियो पर बजे ..ये सभी मेरे भी एकदम फेवरेट हैं....
अभी ध्यान आया कि आज संडे की कुछ हाइलाईट्स ही शेयर कर दूं आज ब्लॉग पर ...
हां , तो ओ लो एक्स OLX के विज्ञापन देख कर मुझे भी लगा कि एक बार यह काम भी कर ही लिया जाए...मैंने भी एकाउंट बनाया और सोचा कि स्टडी रूम में काफी कुछ बिखरा रहता है...वहां पर कुछ लिखने-पढ़ने की तो क्या, बैठने की भी जगह नहीं होती ...एक अलमारी खरीदी जाए जिस में सारा सामान बंद कर के छुट्टी कर ली जाए...
हां तो ओ एल एक्स का ध्यान आया...यही लगा कि हम लोग चार साल से यहां लखनऊ में हैं और अभी भी लगता है कि बस कभी भी यहां से कूच कर जाएंगे...ऐसे में क्या क्या नया सामान इक्ट्ठा करते रहें...ओएलएक्स पर देखा तो एक विज्ञापन था घर के पास ही किसी एड्रेस का पांच हज़ार में गोडरेज की अलमारी दे रहे थे...(ओएलएक्स में यह अच्छी सुविधा है कि आप अपने घर से दूरी वाला फिल्टर सैट कर सकते हैं ...ऐसे में घर से पांच किलोमीटर के दायरे में आने वाले लोगों के विज्ञापन नज़र आ जाते हैं...)
फोन वोन लिए और दिए गये...अंग्रेजी में ओएलएक्स पर चैट भी हुई मुख्तसर सी ...और मैं सुबह पहुंच गया उस अलमारी को देखने ...
उस अलमारी को देखते ही मुझे यह आभास हुआ कि पिछले जमाने में जो लोग शादी ब्याह के मामलों में लकड़ी-लड़का दिखा कोई और देते थे ..और ब्याह किसी और से कर दिया करते थे....कमबख्त लोग भी अजीब किस्म के डेयरिंग थे ...होता रहा है पुराने दौर में यह सब गोलमाल ...फिर बाद में लड़ाईयां-झगड़े सब चलते थे
हां, पहले तो अलमारी गोदरेज की थी नहीं ...और उसे देखते ही लगा कि यार, यह कौन से बाबा आदम के ज़माने की अलमारी है ...पेंट इतना खराब ...बहुत ही ज़्यादा खराब ..लेकिन कमबख्त इतनी भारी ...
उस अलमारी का बंदा भी थोडा़ कंफ्यूज़ड ही लगा ...विज्ञापन में बताया था कि यह दस साल पुरानी है ...लेेकिन थी यह और भी बहुत पुरानी....वह बंदा तो जैसे अपना दुःखड़ा रोने लगा ...यह इन्होंने मुझे दहेज में दी थी ...(मैं इधर उधऱ देखने लगा कि बंदा किस को "इन्होंने" कह रहा था ..दो बुजुर्ग बस एक कमरे में गुफ्तगू में तल्लीन थे ...खैर, तभी उसे कुछ याद आया होगा कि कहने लगा कि मेरे लिए इस की बहुत इमोशनल वेल्यू है ...अब हम लोग १५ वीं मंज़िल पर रहने जा रहे हैं, इसलिए इसे डिस्पोज़ आफ करना चाह रहे हैं...
मेरे मन में उस समय अतिथि तुम कब जाओगे....में सतीश कौशिक का अजय देवगण को उस के चाचा के लिए बोला गया डायलाग याद आ गया...कुछ बहस हो गई थी एक सेट पर ...देवगण कहता है कि यह तो मेरे पिता सामान हैं....तो सतीश कौशिक गाली निकाल कर कहता है, सामान है तो इसे घर रखो ...दरअसल कौशिक उस समय भड़का हुआ था क्योंकि उस चाचा (परेश रावल) ने एक बहुत महंगी गलती कर के फिल्म का सेट ही राख करवा दिया था....
देखो यार, मेरी पोस्ट चाहे आगे आप पढ़ो चाहे नहीं, लेकिन इस क्लिप को अवश्य देखिएगा...
और मेरे जैसे भुलक्कड़ के लिए तो वैसे ही दो चाभियाों वाला मामला और भी पेचीदा ...कईं बार तो मैं अपनी चाभियां भूल जाता हूं...
और हां, भारी भरकम इतनी थी यह अलमारी जिसे वह ओएलएक्स विक्रेता एक USP मानता था कि यह बड़ी मजबूत है ...मैं तो बस लोहे के पैसे ही ले रहा हूं...
बात, दरअसल पैसों की तो बिल्कुल थी ही नहीं, उस के भारीपन पर ही पेच फंस गया ....मैंने कहा कि थोड़ा साइड से देख सकता हूं, उसने कहा कि मेरे को तो रॉड पड़ी हुई है, मैं तो इतनी भारी अलमारी को हाथ नहीं लगा सकता....तब, मुझे लगा कि यार, अगर यह बंदा ही इस अलमारी से इतना परेशान है तो मुझे इस की आफ़त मोल लेने की क्या पड़ी है...
तब भी मैं पूरी तरह से कोई निर्णय ले नहीं पाया ...मैंने कहा टैंपो का पता करके फोन करता हूं..
टैंपो वाला मिला ...७०० रूपये कहने लगा ...तुरंत चलने को तैयार हो गया...मैंने वहीं सोचा कि ५००० की अलमारी, ७०० टैंपो के और ऊपर से डेढ़ दो हज़ार के पेंट करवाने के .... फायदा क्या ऐसी अलमारी का, जो पेंट के बिना सिरदर्दी बनी रहेगी ...वैसे भी वज़न इतना ज़्यादा कि मेरे बाद स्वभाविक है यह फिर किसी की इमोशनल वेल्यू बन जायेगी कि इस में अपना बापू रद्दी रखता था....लेकिन जब भी इसे शिफ्ट करने की बात आया करेगी तो मन ही मन मेरे को गालियां निकाला करेंगे..
मुझे लगा कि इसे खरीदना हर नज़रिये से बेवकूफ़ी है ...कबाड़ इक्ट्ठा करने जैसी बात है ...इसलिए उस को फोन कर दिया कि आप बेच दीजिए अपने इच्छानुसार (क्योंकि उसने कह दिया था कि बहुत से लोग इस में रूचि ले रहे हैं) ...हमारे यहां इतनी भारी अलमारी चल नहीं पायेगी......
अब अपने पुराने सामान का क्या करूंगा ..सोच रहा हूं किसी दिन मोहमाया का त्याग कर के उसे बारी बारी से नेकी की दीवार पर ही टांग आया करूंगा ....
चलिए...अगली बात ....
अगली बात यह कि कल एक फुटपाथ पर पुरानी किताबें बिक रही थीं ....मुझे एक पुरानी किताब दिख गई जिस की फोटो यहां लगा रहा हूं...
लगभग १०० वर्षो के बाद भी इस की जिल्द और बांईंडिंग सही सलामत है |
मुझे तो यह किताब लेनी ही थी, १९२० की किताब है ...बस, इसलिए ...क्योंकि मुझे इस की अंग्रेजी से कोई सरोकार नहीं ..कोशिश ज़रूर करूंगा इसे पढ़ने की ...कोई धांसू विषय तो लग ही रहा है ...लेकिन मेरा अपना, हमारे स्कूल का, हमारे टीचर्ज़ का यह दोष तो रहा कि हमें वर्ल्ड आर्ट, वर्ल्ड ड्रामा, विश्व की हिस्ट्री, जियोग्राफी, विश्व सिनेमा का कुछ भी ज्ञान नहीं दे पाए और न ही इसमें हमारी रूचि ही विकसित कर पाए...इन विषयों के बारे में कुछ भी नहीं पता....शून्य बटे सन्नाटा जैसी बात है ....बस जैसे तैसे रट-रटा के हिस्ट्री-ज्योग्राफी पास करते रहे क्योंकि एक तरह से हम लोगों को ब्रेन-वाश कर दिया जाता था उस दौर में बस मैथ, साईंस और ईंगलिश पर ज़ोर दो ...बाकी में कुछ नहीं होता, अपने आप सब पास हो जाते हैं.....लेकिन बाद में पता चलता है कि पास होना ही तो कुछ नहीं होता, हर विषय अच्छे से समझना ज़रूरी तो होता ही है ...
किस मिट्टी के लोग थे तब भी ...किताब पढ़ते थे या चबा जाते थे!! |
मैं उस दुकानदार से पूछा कि क्या दूं ?..कहने लगा ..जो आप ठीक समझें.....मैंने बीस रूपये उस तरफ़ बढाए....कहने लगा कि आप इस किताब को देख रहे हैं कितनी पुरानी है ...आप को तो इस के बारे में पता होगा (मैं उस को क्या बताता कि मुझे भी कुछ नहीं पता...सिवा इस के कि यह १९२० में छपी थी और और आज भी इस की बांईंडिंग ठीक ठाक है...)...पचास तो दे दीजिए......मैं उसे तुरंत पचास रूपये दिए और किताब लेकर आगे बढ़ गया.....
एक बात और शेयर करता हूं ....
आज बाद दोपहर ४ से ५ विविध भारती पर सावन कुमार टाक -फिल्म लेखक, निर्माता, निर्देशक के साथ एक इंटरव्यू आ रहा था ...अच्छा लगा, कुछ नईं जानकारियां मिलीं ....एक विशेष बात यह पता कि वे अपनी फिल्मों के गाने भी स्वयं ही लिखते थे ....उन के लिखे दो तीन गाने प्रोग्राम में रेडियो पर बजे ..ये सभी मेरे भी एकदम फेवरेट हैं....