अभी मैं अखबार में बच्चों की परवरिश के बारे में एक बढ़िया लेख पढ़ रहा था...पढ़ने के बाद मुझे ध्यान आया कि इस कतरन को अपने एक रिश्तेदार को भेजूंगा जिस के बच्चे अभी छोटे हैं...
फिर तुरंत ध्यान आया कि मैं भी किस ज़माने में जी रहा हूं...ये सारी बातें पता नहीं सैंकड़ों बार वे सोशल मीडिया पर पढ़ कर आगे बांट चुके होंगे...लेकिन मेरे कालेज के दिनों के दौरान मेरे अंकल ने बंबई से मुझे खत में टाइम्स ऑफ इंडिया की एक कतरन भेजी थी..यह मुझे आज तीस साल भी याद है अच्छे से।
कल पंजाबी के एक साहित्यकार को पढ़ रहा था ..वे बता रहे थे कि आपस में बातें करना, अपनी कहना, दूसरे की सुनना मानव की प्रवृत्ति है .. हम गप्पबाजी करना चाहते हैं, हंसी ठट्ठा हमें अच्छा लगता है ...यही सब तो सोशल मीडिया पर भी चल रहा है.
लेकिन जो मैंने अनुभव किया है कि सोशल मीडिया के संवाद काफ़ी हद तक ऊबा देने वाले भी होते है ं..बार बार एक ही संदेश बीसियों जगह से आ जाता है ... ऐसे में बहुत बार संदेशों को पढ़ना देखना सुनना तो दूर, खोलना तक बेकार लगता है ...और एक मानसिकता हो चली है (मेरी भी) कि मैं तो सब कुछ जानता हूं, मेरा लिखा तो हर कोई पढ़े, मुझे किसी को पढ़ने की ज़रूरत नहीं है ...दना् दन् मैसेज ठेले जा रहे हैं...मुश्किल से हम लोग कितने खोल पाते होंगे, देखने-सुनने की तो बात ही ना करिए...
हमारी कालोनी मेें एक घर के आगे सुबह एक बोर्ड टंगा रहता है ...उस पर उस घर का स्वामी एक कागज़ चिपका देता है रोज़ ..किसी महांपुरूष का कोई वचन, कोई अच्छी बात, मशविरा ...आज देखा लिखा था कि अपनी जीवनशैली ठीक रखिए, सुबह पांच बजे उठना श्रेयस्कर है ...
सोशल मीडिया का तो एक पंगा यह भी है कि बहुत बार लोग कुछ भी चिपका देते हैं... इतनी काल्पनिक बातें लेकिन वे अकसर वॉयरल हो जाती हैं..मेरा तो सोशल मीडिया का फंडा यही है कि मैं उस बात के स्रोत की तरफ़ विशेष ध्यान देता हूं ...अगर यह विश्वसनीय है तो चल सकता है ..लेकिन अगर संदेह लगे तो गूगल से अवश्य जांच लीजिए...काम तो सिर दुखाऊ है ही ...किस के पास इस सब झंझट में पड़ने का समय है...इसलिए अधिकतर माल बिना देखे ही रह जाता है ...कुछ नहीं कर सकते!
सोशल मीडिया पर भी हमारी बेसब्री इस कद्र बढ़ चुकी है कि जो मैसेज, इमेज सामने नज़र आ जाए, बस उसे देख लेते हैं...लेकिन जैसे ही डाउनलोड़ वाली बात आती है ..झट से आगे खिसक लेते हैं..मैं तो अधिकतर ऐसा ही करता हूं.. मलाल भी होता है कि पता नहीं कितनी काम की बात होगी, लेकिन कुछ कर नहीं सकते!
उस दिन वाट्सएप पर एक मैसेज दो तीन ग्रुप्स में आया कि आज रविवार है ...आज छुट्टी है..आज किसी बात पर विचार करने की ज़रूरत नहीं है ..अच्छा लगा यह पढ़ कर ...आइडिया अच्छा है जैसे कुछ लोग सेहत के लिए व्रत रखते हैं..ऐसे ही मानसिक सुकून के लिए भी एक साप्ताहिक अवकाश तो होना ही चाहिए..
एक ज्ञान मैं भी बांट दूं सुबह सुबह ... खबर पढ़ी है अभी अभी पेपर में कि सारेगामा कारवां रेडियो लौटाएगा पुराना दौर .. आगे लिखा है कि सारेगामा साल १९०३ से लेकर २००० तक के फिल्मी गीतों को एक ही रेडियो में लेकर आया है ..सारेगामा कंपनी ने एक ऐसा रेडियो लॉन्च किया है जिसमें गुजरे जमाने के मशहूर गायकों और लेखकों के गाने मौजूद हैं.. पांच हज़ार नौ सौ नब्बे रूपये की कीमत के इस रेडियो को सारेगामा कारवां का नाम दिया गया है ..अभी मैंने इस का एक प्रोमो देखा .. आप भी यहां क्लिक कर के देख सकते हैं... बिना आर जे के यह एक्सपिरियंस कैसा होता होगा, मुझे भी पता नहीं !
मुझे तो यही कीमत बहुत ज़्यादा लगती है ...अगर पांच सौ रूपये में बिकता तो ज़रूर ले लेता ...अभी तो डुप्लीकेट वर्ज़न का ही इंतज़ार करना पड़ेगा... आ जायेगा देर सवेर, किस प्रोडक्ट की हम लोग नकल करने में पीछे हैं!
वैसे मैंने भी एक तरह से यह सब लिख कर ज्ञान की ओवरडोज़ का कुछ समाधान थोड़े ही ना जुटा दिया....बल्कि समस्या को और बढ़ा दिया...आज कौन किसी की सुनता है, पब्लिक सब पहले ही से जानती है, सब पक्के ज्ञानी-ध्यानी हैं...शुक्रिया, सोशल मीडिया !