स्कूल के दिनों में मेरे लिए लाइब्रेरी पीरियड का बहुत महत्व था...मुझे लाइब्रेरी में हिंदी और अंग्रेज़ी के समाचार पत्रों से पांच छः खबरों के शीर्षक एक कागज़ पर नोट करने होते थे...इस बात की मुझे पूरी आज़ादी थी कि मैं किस खबर के शीर्षक को लिखूं, किसे रहने दूं..याद नहीं कि कभी किसी भी टीचर में कोई भी हस्ताक्षेप किया हो। फिर उन खबरों को स्कूल के ब्लैक-बोर्ड पर जो स्कूल के कंपाउंड में था...उन पर गीले चॉक के साथ लिखना होता था...इस सारे काम में आधा घंटा लग जाता था...लेकिन अच्छा लगता था...अच्छा नहीं, बहुत ही अच्छा लगता था, एक खास तरह की फीलिंग हुआ करती थी कि यार, अपने लिखे को रिसैस में इतने सारे लड़के आते जाते पढ़ रहे हैं.. यह छठी-सातवीं-आठवीं कक्षा की बातें हैं... उस के बाद मेरा प्रमोशन हो गया ...मैं स्कूल की पत्रिका अरूण का छात्र संपादक नियुक्त कर दिया गया।
कुछ दिन पहले अपने स्कूल के एक साथी से बात हो रही थी ..रमन बब्बर का मुझे एक व्हाट्सएप ग्रुप से पता चला ..लगभग ३५ वर्षों के बाद .. उसने भी सब से पहले वही ब्लैक-बोर्ड पर खबरें लिखने वाली बात को याद दिलाया।
मैं कल सोच रहा था कि अब स्कूल के उन दिनों को बीते हुए भी चालीस वर्ष होने वाले हैं, लेिकन कभी कभी ध्यान कुछ वैसा ही करने का हो जाता है.. कईं बार... वैसे आपने भी नोटिस किया होगा कि हर दिन कुछ खबरें हम ऐसी देख-सुन और पढ़ लेते हैं जो हमारे मन को उद्वेलित करती हैं..हम उन्हें आगे शेयर करना चाहते हैं.. उन पर रिएक्ट करना चाहते हैं ...उन के बारे में अपने विचारों से दूसरों को रू-ब-रू करवाना चाहते हैं ...हां, वे विचार अच्छे, बुरे, नैतिक, अनैतिक, वाजिब-गैर वाजिब कुछ भी हो सकते हैं, लेिकन परवाह नहीं क्योंकि वे विचार अपने व्यक्तिगत हैं...
दरअसल गांव-कसबों की चौपालों पर यही कुछ तो हुआ करता था... यही ओपिनियन मेकिंग के अड्डे हुआ करते थे.. जाने अनजाने में ... सब लोग कुछ न कुछ --पढ़े, गुढ़े और अनपढ़े ---सब कुछ न कुछ सीख पा लिया करते थे...जहां पर एक अदद अखबार को बीसियों लोगों द्वारा पूरी तरह से चबा लिया जाता है शाम तक .. लेिकन अब अपनी बात आगे भेजने को मेरे जैसे pseudo-intellactuals के पास ब्लॉगिंग के अलावा कोई माध्यम है नहीं ... शायद और कुछ सीखने की कोशिश की भी नहीं।
बहरहाल जो भी अच्छा लगा, बुरा लगा दिन भर की खबरों में ...सोच रहा हूं कभी कभी इस का तप्सरा भी पेश कर दिया जाना चाहिए... एक बार लिख देने से छुट्टी हो जाया करेगी, वरना वही खबरें दिन भर उद्वेलित किए रहती हैं। चलिए, आज ही से शुरूआत किए देते हैं..
कल पेपर से पता चला कि दूध भी पॉलीथिन पैक में नहीं मिलेगा... आज से यहां यू पी में पॉलीथिन पर प्रतिबंध लग रहा है... मुझे यह खबर बड़ी सुखद लगी ..कम से कम अब हम लोग अपने थैलों को लेकर तो चला करेंगे...प्लास्टिक ने तो जैसे हम लोगों की ज़िंदगी में ज़हर घोल दिया है... यह खबर मैंने पढ़ी तो मुझे यह जान कर दुःख हुआ कि इस का विरोध करने वाले अभी से डट गये हैं... पूछ रहे हैं, पानी के पाउच भी तो बंद होने चाहिए.....अरे भाई, सरकार कुछ बढ़िया काम कर रही है, शुरूआत तो होने दो यारो, वे पाउच भी बंद हो जाएंगे... लेकिन कहीं से शुरूआत तो करनी होगी... इस के लिए प्रदेश सरकार को बहुत बहुत बधाईयां ...
कल के ही अखबार में एक यह भी व्यंग्य दिख गया...लिखने वाली स्याही, फेंकने वाली स्याही ... आप भी पढ़िए... मैं राजनीतिक बात कभी नहीं करता ... कुछ अनुभव नहीं है, न ही हो तो ठीक हो....लेिकन जिस तरह से एक महिला ने केजरीवाल पर स्याही फैंकी, मुझे उस औरत की यह हरकत बेहद बेहूदा लगी ....कोई परेशानी है, कोई कष्ट है तो प्रजातांत्रिक तरीकों से उसे बताएं.... कलम का इस्तेमाल करिए....यह तो कोई बात न हुई कि किसी के ऊपर स्याही गिरा दी.....बेवकूफ़ाना हरकतें..इन का प्रजातंत्र में कोई स्थान नहीं है।
एक और खबर जो मैं शेयर करना चाहता हूं वह यह है कि अब यू पी की जेलों में कैदियों को छोला भटूरा और दूध भी मिलेगा...मुझे लगता है कि जेलों और वहां के खाने के बारे में जो हम लोगों के मन में एक तस्वीर है वह अधिकतर हिंदी मसाला फिल्मों की बनाई हुई है जिस में अमिताभ बच्चन किसी जेल अपनी एल्यूमीनियम की प्लेट में मोटे चावल और दाल डलवाने पहुंचता है तो किसी १० नंबरी से उस का पंगा हो जाता है और उसे कहना पड़ता है कि जहां हम खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है... फिर वह खतरनाक कैदी उस एल्यूमीनियम की प्लेट को दोहरा कर के अपनी शक्ति का परिचय देता है ... बस, आगे तो आप जानते ही हैं कि फिर कैसे अपना हिंदी फिल्म का हीरो उसी प्लेट से उस के सिर पर वार कर के उसे सबक सिखा देता है.. और जिस तरह का खाना कैदियों को उन की कोठरियों में पहुंचाया जाता है, उसे देख कर प्रेमरोग की बालविधवा पद्मिनी कोल्हापुर की खाने की प्लेट का ध्यान आ जाता है...
लेकिन कल पता चला कि अब यह स्थिति इतनी निराशाजनक नहीं है... तिहाड़ जेल में परोसे जा रहे व्यंजनों की तर्ज पर अब सूबे की जेलों में भी भोजन मिलेगा। बूंदी, दूध-जलेबी और छोले-भटूरे भी खाने को मिलेंगे, उबला अंडा भी मिलेगा..
मुझे यह खबर पढ़ कर बहुत खुशी हुई... लेकिन एक बार लगा कि शायद यह ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि अब बहुत बड़े बड़े नामचीन लोग भी तो जेलों में बंद हैं.....वैसे जो भी हो, बहाना कोई भी हो, सभी बंदियों का इस में फायदा है...वैसे भी ह्यूमन राईट्स का मामला है यह ....सजाएं चलती रहेंगी ...लेकिन अगर थोड़ा खाना ठीक ठाक हो, पौष्टिक हो तो बहुत ही अच्छा है....बहुत अच्छा कदम है यह।
इतना तो मैं अच्छे से जानता हूं कि अब लखनऊ में सुबह-शाम के वक्त कहीं जाना सेहत के लिए बहुत खराब है, लेिकन पर्यावरण की स्थिति इतनी दयनीय है, वह मैंने इस खबर से जाना... इस का असर यह हुआ कि कल मैंने जब शाम छःबजे एक युवक को जेल रोड पर जॉगिंग करते देखा तो मैंने रुक कर उसे समझाया कि भाई, इस समय इतनी बिज़ी रोड़ पर इस व्यायाम से फायदा तो होगा नहीं, बल्कि नुकसान हो जायेगा...दो मिनट बात की, समय और जगह का सही इंतिख़ाब करने की उसे मुफ्त में नसीहत बांट दी .....बंदा पढ़ा लिखा था, समझ गया तुरंत।
के सी त्यागी नाम के एक नेता हैं, मुझे इन के बारे में बस इत्ता पता है कि ये रवीश कुमार के प्राइम टाइम में या अन्य टीवी के प्रोग्रामों में अपनी बात बड़े अच्छे ढंग से रखते हैं... एकदम सटीक... जब मैं जीएम क्राप्स पर इन के इस लेख को पढ़ रहा था तो मुझे अचानक ध्यान आ गया कि आज कल बहुत सी सब्जियां तो बाज़ार में एक ही आकार की, एक ही साइज़ की बिल्कुल ऐसे बिक रही होती हैं..जैसे खेत में नहीं, किसी फैक्ट्री में तैयार हुई हों...कल चारबाग पुल से गुज़रते हुए मैंने जब भीमकाय पपीते देखे ...लगभग तरबूज जैसे-- तो पहले तो मुझे हंसी आई ...फिर चिंता हुई कि अब पता नहीं ये पपीते कौन सा मुसीबतों का पहाड़ लेकर आएंगे......वे सामान्य तो हो नहीं सकते, इतने जम्बो साइज़ के पपीते देखे तो पहले भी हैं दो तीन बार.....लेकिन सोचने वाली बात है कि अगर ये जम्बो साइज़ के पपीते पेड़ों पर ही उगते हों तो सच में पेड़ की जान ही ले लें! मुझे लगता है कि पेड़ों से तो इन्हें समय पर ही उतार लिया जाता होगा....बाकी की कारीगिरी नीचे ही होती होगी..अगर हो सके तो इस तरह के सुपर-डुपर पपीतों से परहेज़ ही करिएगा।
लेिकन त्यागी जी की बातें बहुत बढ़िया लगी इस लेख में ...जैसे उन्होंने गागर में सागर भर दिया हो ...अच्छे से यह समझा दिया पाठकों को कि जी एम फसलें (genetically modified crops) का कितना बड़ा नुकसान है, सेहत पर भी और पर्यावरण को भी।
कल लखनऊ में एक चौराहे पर यह पोस्टर दिख गया... सस्ते मूल्य के सैनेटरी नेपकिन का उपयोग बढ़ाने के लिए उत्पादन वृद्धि पर जोर दिया जा रहा है ..यह अच्छी पहल है क्योंकि इस तरह के उत्पादों का सस्ता एवं सुगमता से न मिल पाना बीमारियां पैदा करने में जिम्मेदार तो है ही ..बहुत ही छात्राएं स्कूल जाना ही इन सब के न उपलब्ध होने की वजह से छोड़ देती हैं....यह काम बहुत सराहनीय शुरू किया गया है।
डिंपल यादव की यह पहल काबिले-तारीफ़ है..
इसी बात पर एक सुंदर से वीडियो का ध्यान आ गया...