कल शाम...लखनऊ अम्बेडकर चौराहा..कानपुर रोड़ |
शायद एक डेढ़ साल पहले की बात है ...मैंने एक दिन लखनऊ के जीपीओ के बाहर एक रिक्शे पर बैठे आदमी को देखा जो कुछ किताबें बीस बीस रूपये में बांट रहा था...साथ में कुछ लिख रहा था....और ऐसे ही लाउड-स्पीकर पर उस किताब के फायदे बता रहा था। यह रिक्शा लखनऊ में मुझे अकसर कुछ दिनों बाद कहीं न कहीं दिख ही जाता है।
कल जब मैंने उसी तरह की प्रचार-प्रसार देखा तो मैंने जो वीडियो बनाई उसे यहां नीचे शेयर कर रहा हूं....इस में सरकारी की विभिन्न कल्याण योजनाओं, सूचना का अधिकार, प्रताड़ित महिलाओं के लिए सूचना, ड्राईविंग लाईसेंस के लिए जानकारी, राशन कार्ड---क्या क्या लिखूं जितनी सरकारी किस्म की जानकारी एक नागरिक को चाहिए होती है, वह सब उस पतली सी बुकलेट में सरल हिंदी भाषा में उपलब्ध थी।
बेचते वक्त यह रिक्शा में बैठा शख्स इस पर कोई हेल्पलाइन नंबर भी लिख रहा था...और यह मैंने नोटिस किया...आते जाते राहगीर रूक कर पूरी तन्मयता से सब बातें सुनते हैं...कुछ किताब को खरीद भी लेते हैं।
मैंने भी पिछले साल खरीदी थी....लेकिन वही ओव्हर-कांफिडेंस का चक्र...मेरे जैसे को लगता है कि हमें तो सब पता ही है, हम तो सब पहले ही से जानते हैं...इसलिए इस तरह की किताब खरीद तो लेते हैं, लेिकन अगले दिन उस का अता पता नहीं होता, बस घर लाकर जिज्ञासा वश किताब के पन्ने एक बार पलट ज़रूर लेते हैं लेकिन फिर कुछ पता नहीं रहता.....मैंने भी जब कल घर आकर इस किताब को ढूंढना चाहा तो कहीं ना मिली..
पढ़े लिखे लोग सोचते हैं कि नेट पर सब कुछ पड़ा है, वहीं से देख लेंगे लेकिन कम पढ़े लिखे और उन लोगों के लिए जिस को इंटरनेट उपलब्ध नहीं है, इस तरह की सूचना रूपी मशाल उन के जीवन तो प्रकाशमय करती ही है, निःसंदेह...
इसे लिखते लिखते मुझे हिंदी फिल्म वेलडन अब्बा का ध्यान आ गया....किस तरह से सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर के गांव वाले अपने गांव में कुआं खुदवा के ही दम लेते हैं......आम जन तक सूचना पहुंचने का ही सारा चक्कर है...अब वे दिन लद गये कि गुप-चुप कुछ भी किया जाए और उसे चटाई के नीचे सरका दिए जाए......अब सब कुछ हम जान सकते हैं ...बस आम जन को सवाल उठाने भर की ज़रूरत है.......
आग मेरे सीने में ना सही,
तेरी सीने में ही सही,
हो जहां भी आग
लेकिन जलनी चाहिए...
लेकिन जलनी चाहिए...