जी हां, चर्बी सिर्फ़ शरीर पर ही जमा नहीं होती ...मैं ऐसा समझता हूं कि इस की कईं मोटी परतें तो हमारे अहम् पर भी जमा होती हैं...
सुबह शाम कैसे हम लोग शरीर वाली चर्बी को कम करने के लिए टहलने निकल जाते हैं..पता नहीं वह भी कितनी कम होती है या नहीं ..जब तक हम लोग अपनी खाने-पीने की आदतें नहीं सुधार लेते ... लेकिन अहम् वाली चर्बी का फिर भी कुछ हो नहीं पाता सामान्य दिनचर्या के दौरान...
चलिए मैं क्यों हम हम की रट लगा रहा हूं...शायद इसलिए कि भीड़ के लिए लिखना सुरक्षित लगता है...जी हां, अकसर ऐसा होता है कि हम लोग सामने वाले को कुछ नहीं समझते ...हमें हमारे रुतबे, पैसे और कभी कभी सेहत का घुमान तो होता ही है ..कुर्सी का भी ...जितनी बडी़ कुर्सी उतना ही हम उड़ते रहते हैं...अधिकतर ...किसी से सीधे मुंह बात न करना, पहले सामने वाले का उस की वेश-भूषा, उस के रहन सहन, उस की बोलचाल, स्टेट्स का आंकलन करना ...फिर उसी हिसाब-किताब से उस के साथ बात करना ...कितना कठिन काम है न यह!
आज मुझे बाग में टहलते हुए इस बात का ध्यान आया कि हम लोग बाग में शारीरिक रूप से सेहतमंद होने तो आते हैं लेकिन अगर ध्यान से प्रकृति की विशालता, उस की अद्भुत रचनाओं को निहारें तो हमारा अहम् जो हमारे सिर पर चढ़ा रहता है, वह भी अपने आप थोड़ा बहुत तो घुल ही जाता है ... निःसंदेह...
आज के प्रातःकाल के भ्रमण की कुछ तस्वीरें यहां लगा रहा हूं ...हरेक कारण है इन में जिन से हमें अपनी तुच्छता का अहसास होता है ...आधा घंटा इन बागों में टहलने के बाद जब बाहर आते हैं तो उस हल्केपन में हमारी "मैं"भी हल्की तो पड़ ही जाती है
...
लेेकिन इतनी खुराक एक दिन के लिए ठीक है ..अगले दिन के लिए फिर से प्रकृति का सान्निध्य ज़रूरी होता है ..
सुबह शाम कैसे हम लोग शरीर वाली चर्बी को कम करने के लिए टहलने निकल जाते हैं..पता नहीं वह भी कितनी कम होती है या नहीं ..जब तक हम लोग अपनी खाने-पीने की आदतें नहीं सुधार लेते ... लेकिन अहम् वाली चर्बी का फिर भी कुछ हो नहीं पाता सामान्य दिनचर्या के दौरान...
चलिए मैं क्यों हम हम की रट लगा रहा हूं...शायद इसलिए कि भीड़ के लिए लिखना सुरक्षित लगता है...जी हां, अकसर ऐसा होता है कि हम लोग सामने वाले को कुछ नहीं समझते ...हमें हमारे रुतबे, पैसे और कभी कभी सेहत का घुमान तो होता ही है ..कुर्सी का भी ...जितनी बडी़ कुर्सी उतना ही हम उड़ते रहते हैं...अधिकतर ...किसी से सीधे मुंह बात न करना, पहले सामने वाले का उस की वेश-भूषा, उस के रहन सहन, उस की बोलचाल, स्टेट्स का आंकलन करना ...फिर उसी हिसाब-किताब से उस के साथ बात करना ...कितना कठिन काम है न यह!
आज मुझे बाग में टहलते हुए इस बात का ध्यान आया कि हम लोग बाग में शारीरिक रूप से सेहतमंद होने तो आते हैं लेकिन अगर ध्यान से प्रकृति की विशालता, उस की अद्भुत रचनाओं को निहारें तो हमारा अहम् जो हमारे सिर पर चढ़ा रहता है, वह भी अपने आप थोड़ा बहुत तो घुल ही जाता है ... निःसंदेह...
आज के प्रातःकाल के भ्रमण की कुछ तस्वीरें यहां लगा रहा हूं ...हरेक कारण है इन में जिन से हमें अपनी तुच्छता का अहसास होता है ...आधा घंटा इन बागों में टहलने के बाद जब बाहर आते हैं तो उस हल्केपन में हमारी "मैं"भी हल्की तो पड़ ही जाती है
...
लेेकिन इतनी खुराक एक दिन के लिए ठीक है ..अगले दिन के लिए फिर से प्रकृति का सान्निध्य ज़रूरी होता है ..
इस पोस्ट के लिए मुझे इतने फिल्मी गीत ध्यान में आ रहे हैं कि यह दूरदर्शन पर रविवार की सुबह दिखाई जाने वाली रंगोली ही न लगने लगे ..
इस फोटो की बाईं तरफ दिखने वाली तितली की फोटो खींचने के लिए मुझे बड़ा धैर्य रखना पड़ा....मुझे तो यह गीत याद आ गया...
आज वनस्थली पार्क में योग कक्षा की पहली वर्षगांठ मनाई जा रही थी..पांच मिनट वहां भी बैठने का सुअवसर मिला.... |
मनाली के पास २००७ में ...वे भी क्या दिन थे! अभी ढूंढ कुछ और रहा था तो यह दिख गई... |