दोस्तो, यह कोई मिलावटी, सिंथेटिक या किसी ऐसे वैसे दूध की बात नहीं हो रही...पीजीआई मैडीकल संस्थान के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन किया है जिस के परिणाम में यह पता चला है कि तीन चौथाई हिंदोस्तानी दूध पचा ही नहीं पाते।
यह खबर आज टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर प्रकाशित हुई है। इस तरह की खबरें पहले भी आती रही हैं लेकिन अकसर उन पर तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता जब तक कि कोई विश्वसनीय संस्थान इस तरह की बात की पुष्टि न करे।
बीस बरस हो गये एक लेख पढ़ा था...किसी पेपर में ...मानव के पांच ऐसे दुश्मन हैं जो सफेद हैं... Sugar, milk, rice, maida, salt -- चीनी, दूध, चावल, मैदा, और नमक। यहां यह बताना चाहूंगा कि यहां पर जिस चावल की बात हो रही थी वह पॉलिश्ड एवं एकदम चमकदार चावल है जो हम खाते हैं...बिना पॉिलश वाला हल्के से भूरे रंग के चावल (brown rice) इस श्रेणी में नहीं आते हैें, वे सेहत के लिए बहुत लाभदायक होते हैं।
हां, तो दोस्तो, बीस साल पहले भी यह चर्चा चली थी कि दूध पचाने के लिए केवल शिशु के पास एन्ज़ाईम होता है ...बड़ों के पास ऐसा कुछ होता नहीं, इसलिए दूध नहीं पचता नहीं। पचता नहीं से आप यह मतलब भी निकाल सकते हैं कि दूध उन के शरीर को लगता नहीं।
चलिए, आज वाली न्यूज़ रिपोर्ट की भी कुछ बातें कर लेते हैं...दूध न पचा पाने की बात इस लिए होती है क्योंकि इसे पचाने के लिए हमारी आंतड़ियों में लेक्टेज़ नामक ऐन्ज़ाइम की कमी है....इसी ऐन्ज़ाइम की वजह से ही लेक्टोज़ दो छोटे हिस्सों में बंट पाता है जिन्हें ग्लूकोज़ एवं ग्लेक्टोज़ कहते हैं...जो बड़ी आसानी से हमारी रक्त प्रणाली में प्रवेश कर जाते हेैं।
दूध को पचाने की शक्ति बढ़ती उम्र के साथ घटती जली जाती है...और आदमी के तीसरे दशक तक पहुंचते पहुंचते यह तकलीफ़ पेट की बीमारियों जैसे कि बार बार टॉयलेट जाना और खट्टी डकारें आना..ऐसा लगना जैसे मुंह के रास्ते पेट में पड़ा हुआ खाया पिया बाहर आना चाह रहा है..
लेक्टोज़ इन्टालरेंस तो है ...भारतीयों में अन्य नसलों की बजाए समस्या बहुत बड़ी है... और एक बात कि यह जो हम लोगों ने जैसे अब निरंतर तनाव में रहना शुरू कर दिया है...और हमारी जंक-फूड से मोहब्बत इस समस्या को और भी जटिल किए जा रही है।
दूध न पचाने वालों की जब स्टडी हुई तो पाया गया कि दक्षिणी भारतीय मूल के लोगों में तो यह समस्या ८२ प्रतिशत तक है जब कि उत्तर भारतीयों में ६६प्रतिशत...
सब से अहम् बात यह है कि इस लेक्टोज़ इन्टालरेंस की वजह से शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाती है, हड्डियों कमज़ोर हो जाती हैं...और कुछ कुछ लोगों में जिन में विटामिन डी की भी कमी रहती है उन में तो हड्डी की तकलीफ़ और भी बढ़ जाती है।
इन तकलीफ़ों पर लगाम लग सकती है अगर हम लोग कैल्शियम एवं विटामिन डी सप्लीमेंट्स लेना शुरू करें। पीजीआई मैडीकल संस्थान के वैज्ञानिक भी यही बात करते हैं कि जिन लोगों को दूध नहीं पचता, वे इसे लेना तो बंद कर देते हैं लेिकन वे यह नहीं समझते कि इस के लिए उन्हें किसी अन्य पूरक की ज़रूरत तो है हीं........हिंदी में पूरक कुछ ज़्यादा ही कठिन सा लगता है न, तो इन्हें सप्लीमेंट्स कह देते हैं।
कृपया इस पोस्ट को पढ़ते ही कहीं आप भी किसी मॉल-वॉल में सप्लीमेंट्स ढूंढने न निकल पड़िए, कृपया इत्मीनान करिए....इन वैज्ञानिकों से ही पूछते हैं कि कौन से सप्लीमेंट्स हैं जिन की यह सिफारिश करते हैं ...इस बात का ध्यान करते हुए कि भारत में बहुत सी जनसंख्या शाकाहारी ही है। अभी इन्हें मेल भेजता हूं......जो जवाब आयेगा आप से साझा करूंगा।
Source : Three out of four Indians have no milk tolerance
मैं अगर अपनी पोस्ट के नीचे कोई गीत नहीं लगाऊं तो मेरे दोस्त खफ़ा हो जाते हैं...मैं अकसर कहता हूं कि सब कुछ यू-ट्यूब पर पड़ा तो हैं, फिर मुझे सुनना पड़ता है कि वे पोस्ट के बाद मेरी पसंद का गीत सुनने के आदि हो चुके हैं.....ओह माई गॉड, अच्छा तो इस की भी लत लग जाती है... सुबह का समय है, दातुन का ध्यान आ रहा है...
यह खबर आज टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर प्रकाशित हुई है। इस तरह की खबरें पहले भी आती रही हैं लेकिन अकसर उन पर तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता जब तक कि कोई विश्वसनीय संस्थान इस तरह की बात की पुष्टि न करे।
बीस बरस हो गये एक लेख पढ़ा था...किसी पेपर में ...मानव के पांच ऐसे दुश्मन हैं जो सफेद हैं... Sugar, milk, rice, maida, salt -- चीनी, दूध, चावल, मैदा, और नमक। यहां यह बताना चाहूंगा कि यहां पर जिस चावल की बात हो रही थी वह पॉलिश्ड एवं एकदम चमकदार चावल है जो हम खाते हैं...बिना पॉिलश वाला हल्के से भूरे रंग के चावल (brown rice) इस श्रेणी में नहीं आते हैें, वे सेहत के लिए बहुत लाभदायक होते हैं।
हां, तो दोस्तो, बीस साल पहले भी यह चर्चा चली थी कि दूध पचाने के लिए केवल शिशु के पास एन्ज़ाईम होता है ...बड़ों के पास ऐसा कुछ होता नहीं, इसलिए दूध नहीं पचता नहीं। पचता नहीं से आप यह मतलब भी निकाल सकते हैं कि दूध उन के शरीर को लगता नहीं।
चलिए, आज वाली न्यूज़ रिपोर्ट की भी कुछ बातें कर लेते हैं...दूध न पचा पाने की बात इस लिए होती है क्योंकि इसे पचाने के लिए हमारी आंतड़ियों में लेक्टेज़ नामक ऐन्ज़ाइम की कमी है....इसी ऐन्ज़ाइम की वजह से ही लेक्टोज़ दो छोटे हिस्सों में बंट पाता है जिन्हें ग्लूकोज़ एवं ग्लेक्टोज़ कहते हैं...जो बड़ी आसानी से हमारी रक्त प्रणाली में प्रवेश कर जाते हेैं।
दूध को पचाने की शक्ति बढ़ती उम्र के साथ घटती जली जाती है...और आदमी के तीसरे दशक तक पहुंचते पहुंचते यह तकलीफ़ पेट की बीमारियों जैसे कि बार बार टॉयलेट जाना और खट्टी डकारें आना..ऐसा लगना जैसे मुंह के रास्ते पेट में पड़ा हुआ खाया पिया बाहर आना चाह रहा है..
लेक्टोज़ इन्टालरेंस तो है ...भारतीयों में अन्य नसलों की बजाए समस्या बहुत बड़ी है... और एक बात कि यह जो हम लोगों ने जैसे अब निरंतर तनाव में रहना शुरू कर दिया है...और हमारी जंक-फूड से मोहब्बत इस समस्या को और भी जटिल किए जा रही है।
दूध न पचाने वालों की जब स्टडी हुई तो पाया गया कि दक्षिणी भारतीय मूल के लोगों में तो यह समस्या ८२ प्रतिशत तक है जब कि उत्तर भारतीयों में ६६प्रतिशत...
सब से अहम् बात यह है कि इस लेक्टोज़ इन्टालरेंस की वजह से शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाती है, हड्डियों कमज़ोर हो जाती हैं...और कुछ कुछ लोगों में जिन में विटामिन डी की भी कमी रहती है उन में तो हड्डी की तकलीफ़ और भी बढ़ जाती है।
इन तकलीफ़ों पर लगाम लग सकती है अगर हम लोग कैल्शियम एवं विटामिन डी सप्लीमेंट्स लेना शुरू करें। पीजीआई मैडीकल संस्थान के वैज्ञानिक भी यही बात करते हैं कि जिन लोगों को दूध नहीं पचता, वे इसे लेना तो बंद कर देते हैं लेिकन वे यह नहीं समझते कि इस के लिए उन्हें किसी अन्य पूरक की ज़रूरत तो है हीं........हिंदी में पूरक कुछ ज़्यादा ही कठिन सा लगता है न, तो इन्हें सप्लीमेंट्स कह देते हैं।
कृपया इस पोस्ट को पढ़ते ही कहीं आप भी किसी मॉल-वॉल में सप्लीमेंट्स ढूंढने न निकल पड़िए, कृपया इत्मीनान करिए....इन वैज्ञानिकों से ही पूछते हैं कि कौन से सप्लीमेंट्स हैं जिन की यह सिफारिश करते हैं ...इस बात का ध्यान करते हुए कि भारत में बहुत सी जनसंख्या शाकाहारी ही है। अभी इन्हें मेल भेजता हूं......जो जवाब आयेगा आप से साझा करूंगा।
Source : Three out of four Indians have no milk tolerance
मैं अगर अपनी पोस्ट के नीचे कोई गीत नहीं लगाऊं तो मेरे दोस्त खफ़ा हो जाते हैं...मैं अकसर कहता हूं कि सब कुछ यू-ट्यूब पर पड़ा तो हैं, फिर मुझे सुनना पड़ता है कि वे पोस्ट के बाद मेरी पसंद का गीत सुनने के आदि हो चुके हैं.....ओह माई गॉड, अच्छा तो इस की भी लत लग जाती है... सुबह का समय है, दातुन का ध्यान आ रहा है...