शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

कैंसर की आखिरी स्टेज में है तो क्या है, उस का नायक तो वह ही है !


जी हां, अगर वह कैंसर की आखिरी स्टेज या बहुत ही ज्यादा फैल चुकी टीबी रोग से या गुर्दै फेल होने की टर्मिनल स्टेज से भी ग्रस्त है तो भी एक हिंदोस्तानी नारी का नायक तो उस का पति ही है...मेरी इस बात से तो आप शत-प्रतिशत सहमत हैं ना।

तो चलिए मैं सीधे अपनी बात पर आता हूं...मैं पिछले कईं दिनों से इस के बारे में बहुत ज़्यादा सोच विचार कर रहा हूं कि आखिर कुछ डाक्टरों का इतना ज़्यादा नाम हो जाता है और कुछ डाक्टर लोग अपने फील्ड में बहुत ज़्यादा महारत हासिल किएहुए होते भी इतने पापुलर नहीं हो पाते यानि कि मरीज़ों की नज़र में उन की इमेज इतनी ज़्यादा अच्छी नहीं होती।

तो, मुझे तो सब से महत्त्वपूर्ण बात यही दिखी कि डाक्टर की कम्यूनिकेश्नस स्किल्स एवं इंटरपर्सनल स्किल्स बहुत ही ज़्यादा अच्छी होनी चाहिए...इस मे ज़रासी भी कम्प्रोमाइज़ करने की गुंजाइश नहीं है।

जब कोई मरीज़ डाक्टर के पास जाता है तो वह ही नहीं उस के साथ आने वाले उस के रिश्तेदार डाक्टर की बात का एक एक शब्द बेहद ध्यान से सुन रहे होते हैं, वे उस के शब्द के साथ साथ उस के चेहरे के भाव एवं उस की बॉडी-लैंग्वेज़ को भी पढ़ने की पूरी कोशिश करते रहते हैं। वैसे देखा जाए तो यह सब है भी तो कितना स्वाभाविक ही ....क्या हम ऐसा नहीं करते ?....करते हैं भई बिलकुल करते हैं, इस में आखिर बुराई क्या है।

जिस बात पर मैं विचार कर रहा था वह यही है कि जब कभी भी कोई डाक्टर किसी भी मरीज़ के साथ पूरे सम्मानपूर्वक ढंग से बात नहीं करता तो वह उस मरीज़ की नज़रों में तो शायद इतना न गिर जाता होगा जितना उस मरीज़ के साथ आए उस के अभिभावकों की नज़र में बहुत ही ज़्यादा ही गिर जाता है। एक उदाहरण लेते हैं ..अब बीमारी पर तो किसी का कोई बस है नहीं....अब अगर किसी को बहुत ही कोई भयानक रोग है तो अगर किसी डाक्टर ने उस के बीवी के सामने उसे पूरा सम्मान न दिया या यहां तक कि तुम ही कह दिया तो उस महिला को बहुत ही ज़्यादा चोट पहुंचती है, मेरे ख्याल में वह स्वयं बहुत अपमानित महसूस करती है....बंदा चाहे बीमार है तो क्या है, बीमारी का क्या है , उस का नायक तो वही है , उसे किसी दूसरे की अच्छी सेहत से क्या लेना देना, उस की सारी ज़िंदगी तो भई उस बंदे की सेहत की धुरी के इर्द-गिर्द ही घूमती है

यह सब मैं पता नहीं क्यों लिख रहा हूं...बस यूं ही लिखना चाह रहा हूं । इस में कोई थ्यूरी इनवाल्व नहीं है, पिछले पच्चीस सालों से मरीज़ों के एवं उन के अभिभावकों के चेहरों को पढ़ रहा हूं, जो इन से पढ़ा बस वही लिखना चाह रहा हूं।

अब बच्चा वैसे अपने पिता की कोई बात माने या ना माने लेकिन वो किसी डाक्टर द्वारा अपने पिता को तुम कहे जाने से नाराज़ हो उठता है , किसी ह्स्पताल के कर्मचारी के द्वारा उस के पिता की शान में कहे कुछ शब्द जो उसे पसंद नहीं होते, इस से वह भड़क उठता है, कईं बार अपना आपा खो बैठता है...दोस्तो, बात वही है ...किसी डाक्टर के लिए तो शायद वह कोई अन्य मरीज़ ही होगा, लेकिन उस के बेटे के लिए तो वह संसार है, जब उस के पिता को आई.सी.यू में रखा गया है तो उस के दिमाग में बचपन के वे सब सीन घूम रहे होते हैं जब उस के पिता ने उसे अंधेरे का सामना करना सिखाया था, जब उसे उस का पिता कंधे पर चढ़ा कर सारा मेला घुमा लाता था, जब उन की उंगली पकड़ कर उस ने चलना सीखा था, जब साइकिल सीखने के दिनों में बार बार गिरने पर भी उस के पिता ने उसे कभी भी निरूत्त्साहित नहीं होने दिया था। ऐसे हालात में कैसे वह किसी तरह की गुस्ताखी बर्दाश्त कर सकता है। चाहे उस का पिता एँड-स्टेज किडनी फेल्यर से आईसीयू में पड़ा हुया है लेकिन उस बच्चे के लिए तो उस का पिता ही है ...मॉय डैड..स्ट्रांगैस्ट , ये तो केवल कुछ उदाहरण हैं लेकिन इन बातों को हम कितनी ही ऐसी सिचुएशन्स में अप्लाई कर सकते हैं।

अब मैं देखता हूं कि किस तरह से बहुत बहुत बुज़ुर्ग अपनी वयोवृद्ध बीवियों को उन के छाती के कैंसर अथवा बच्चेदानी के कैंसर के इलाज के लिए बेचारे बावले से हुए फिरते हैं....निःसंदेह यह देख कर यही लगता है कि शायद दिस हैपन्स आन्ली इन इंडिया....जहां पति पत्नी का रिश्ता सचमुच आज भी एक रूहानी रिश्ता है....सैक्स वैक्स से बहुत ही ज़्यादा ऊपर की बात जो शायद वैस्टर्न वर्ल्ड की भी अब समझ मेंथोड़ी-थोड़ी आ रही हैं।

बस ,बात अपनी यही खत्म करता हूं कि डाक्टर की डिग्रीयों के साथ साथ उस की बोलचाल का ढंग भी बहुत ही बढ़िया होना बेहद लाज़मी है, क्यों कि उसे बेहद अन्य फैक्टर्ज़ का भी ध्यान रखना होगा, नहीं तो लोग क्लीनिक से बाहरनिकल कर इलाज की बात करने से पहले कईं बार यह बात करनी भी नहीं भूलते...यार, डाक्टर है तो लायक लेकिन पता नहीं इतना बदतमीज़ क्यों है।

वो टैटू तो जब आयेगा, तब देखेंगे....लेकिन अभी तो....



वो टैटू तो जब आयेगा,तब देखेंगे लेकिन हमें आज ज़रूरत है मौज़ूदा टैटू बनवाने की मशीनों से बचने की।
आज समाचार-पत्रों में यह खबर दिखी है कि टैटू गुदवाने का जो चलन फैशन और स्टाइल के नाम पर ही शुरू हुआ था, अब यह जल्दी ही बीमारियों से बचाव का जरिया भी बन जाएगा। जर्मनी के शोधकर्त्ताओं ने इस बात का पता लगाया है कि टैटू गुदवाने की प्रक्रिया शरीर में दवा के प्रवेश की सबसे असरदार विधा है। खासकर डीएनए वाले टीकों के मामले में यह विधा इंट्रा मस्कुलर इंजेक्शन से कहीं बेहतर है। रिपोर्ट के अनुसार फ्लू से लेकर कैंसर जैसी बीमारियों के इलाज में भी टैटू के जरिए बेहतर टीकाकरण हो सकता है।
विशेष टिप्पणी----- मैडीकल साईंस भी बहुत जल्द आगे बढ़ रही है...दिन प्रतिदिन नये नये अनुसंधान हो रहे हैं। अभी मैं दो दिन पहले ही एक रिपोर्ट पढ़ रहा था कि अब इंजैक्शन बिना सूईं के लगाने की तैयारी हो रही है। तो आज यह पढ़ लिया कि अब टैटू के जरिये भी दवाई शरीर में पहुंचाई जाएगी। यह तो आप समझ ही गये होंगे कि यहां पर उन टैटुओं की बात नहीं हो रही जो बच्चे एवं बड़े आज कल शौंक के तौर पर अपने शरीर के विभिन्न हिस्सों में चिपका लेते हैं और जो बाद में नहाने-धोने से साफ भी हो जाते हैं। लेकिन यहां बात हो रही है उस विधि की जिस का एक बिल्कुल देशी तरीका आप ने भी मेरी तरह किसी गांव के मेले में देखा होगा।
एक ज़मीन पर बैठा हुया टैटूवाला किस तरह एक बैटरी से चल रही मशीन द्वारा बीसियों लोगों के टैटू बनाता जाता है...साथ में कोई स्याही भी इस्तेमाल करता है......किसी तरह की कोई साफ़-सफाई का कोई ध्यान नहीं....न ही ऐसे हालात में यह संभव ही हो सकता है, अब कैसे वह डिस्पोज़ेबल मशीन इस्तेमाल करे अथवा कहां जा कर उस मशीन को एक बार इस्तेमाल करने के बाद किटाणु-रहित ( स्टैरीलाइज़) करे...यह संभव ही नहीं है। ऐसे टैटू हमारे परिवार में किसी बड़े-बुज़ुर्ग के हाथ पर अथवा बाजू पर दिख ही जाते हैं। लेकिन यह टैटू गुदवाना बेहद खतरनाक है......मुझे नहीं पता कि पहले यह सब कैसे चलता था......था क्या, आज भी यह सब धड़ल्ले से चल रहा है और हैपेटाइटिस बी एवं एचआईव्ही इंफैक्शन्स को फैलाने में खूब योगदान कर रहा होगा। लोग अज्ञानतावश बहुत खुशी खुशी अपनी मन पसंद आकृतियां अपने शरीर पर इस टैटू के द्वारा गुदवाते रहते हैं। लेकिन इस प्रकार के टैटू गुदवाने से हमेशा परहेज़ करना निहायत ज़रूरी है।
यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि कि जिस टैटू की इस रिपोर्ट में बात कही गई है, उस की क्या प्रक्रिया होती है। लेकिन मेरी हमेशा यही चिंता रहती है कि जहां कहां भी यह सूईंयां –वूईंयां इस्तेमाल होती हों वहां पर पूरी एहतियात बरती जा पायेगी या नहीं.....यह बहुत बड़ा मुद्दा है, बड़े सेंटरों एवं हस्पतालों की तो मैं बात नहीं कर रहा, लेकिन गांवों में भोले-भाले लोगों को नीम-हकीम किस तरह एक ही सूईं से टीके लगा लगा कर बीमार करते रहते हैं ..यह सब आप से भी कहां छिपा है। पंजाब में भटिंडा के पास एक गांव में एक झोला-छाप डाक्टर पकड़ा गया था जो सारे गांव को एक ही नीडल से इंजैक्शन लगाया करता था ....इस का खतरनाक परिणाम यह निकला सारे का सारा गांव ही हैपेटाइटिस बी की चपेट में आ गया।
बात कहां से शुरू हुई थी, कहां पहुंच गई। लेकिन कोई कुछ भी कहे...जब भी इंजैक्शन लगवाएं यह तो शत-प्रतिशत सुनिश्चित करें कि नईं डिस्पोज़ेबल सूंईं ही इस्तेमाल की जा रही है। मैं तो मरीज़ों को इतना भी कहता हूं कि कहीं लैब में अपना ब्लड-सैंपल भी देने जाते हो तो यह सुनिश्चित किया करो कि डिस्पोज़ेबल सूईं को आप के सामने ही खोला गया है.......क्या है न, कईं जगह थोड़ा एक्स्ट्रा-काशियश ही होना अच्छा है, ऐसे ही बाद में व्यर्थ की चिंता करने से तो अच्छा ही है न कि पहले ही थोड़ी एहतियात बरत लें। सो, हमेशा इन बातों का ध्यान रखिएगा।

1 comments:

Gyandutt Pandey said...
आप सही हैँ डाक्टर साहब। अगर सम्भव हो तो गुदना गुदाने पर प्रतिबन्ध होना चाहिये। या कम से कम व्यापक प्रचार तो होना ही चाहिये इससे सम्भावित नुक्सान पर।

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

और मैं बन गया एफएम रेडियो का ब्रांड-अम्बैसेडर.....


ज़िंदगी एक टू-इन-वन के सहारे विविध भारती के प्रोग्राम सुन कर बढ़िया चल रही थी कि लगभग डेढ़ दशक पहले , जहां तक मुझे याद ही कहीं जून 1993 के आसपास मुझे पता चला कि बाज़ार में एक एफएम रेडियो सैट आ गया है ---कुछ ज़्यादा तो इस के बारे में पता था नहीं सिवाए इस बात के कि इस पर सब बहुत ही क्लियर सुनता है यानि कि साऊंड क्वालिटि बेहतरीन होती है। रिसेप्शन बेहद उत्तम किस्म का होता है।

बस फिर क्या था, रेडियो दीवाने इस को खरीदने में कहां पीछे रहने वाले थे। सो, किसी तरह एक अदद एफएम रेडियो को ढूंढता हुया मैं बम्बई की ग्रांट रोड (लेमिंगटन रोड) पर पहुंच गया। दो-तीन दुकानों से पूछने के बाद आखिर एक दुकान में यह मिल गया--- उसी दिन शायद तेरह-सौ रूपये का फिलिप्स का एक वर्ल्ड-रिसीवर खरीद लाया। वैसे वर्ल्ड-रिसीवर से मुझे कुछ खास लेना देना तो था नहीं--- मुझे तो बस दुकानदार का इतना कहना ही काफी था कि इस में एफएम रेडियो भी कैच होगा और अच्छी क्वालिटि की आवाज़ सुनने को मिलेगी।

दुकानदार ने तीन बड़े सैल डाल कर एफएम की क्वालिटि चैक भी करवा दी थी....क्योंकि उस समय शाम थी, और एफएम प्रसारण दिन में सुबह, दोपहर एवं शाम केवल निर्धारित समय सारणी के अनुसार ही होता था। यकीन मानिए, मैंने भी उस वर्ल्ड-रिसीवर पर विविध भारती एवं एफएम के इलावा कुछ नहीं सुना।

मुझे अभी भी अच्छी तरह से याद है कि उस इलैक्ट्रोनिक्स की दुकान वाले को मुझे एफएम की अच्छी क्वालिटि का नमूना दिखाने के लिए दुकान से बाहर फुटपाथ पर आना पड़ा था और साथ में वह यह भी कह रहा था कि यहां पर ट्रैफिक की वजह से थोड़ी सी अभी डिस्टर्बैंस है, आप की बिल्डिंग से तो सब कुछ एकदम क्रिस्टिल क्लीयर ही सुनेगा। एक बात इस की और भी तो बहुत विशेष थी कि यह बिजली के साथ सैलों से भी चलने वाला सैट था। वैसे, इसे बिजली से चलाने के लिए एक अलग से अडैप्टर भी लगभग 150रूपये में खरीदना पड़ा था।

इस वर्ल्ड रिसीवर पर अब मुझे एफएम के कार्यक्रमों के समेत सभी प्रोग्राम सुनने बहुत रास आ रहे थे। इसे मैंने अपनी ड्यूटी पर रख छोड़ा था और अकसर मेरे वेटिंग-रूम में यह बजता रहता था। जहां तक मुझे याद है इस पर शुरू शुरू में times..fm के कार्यक्रम जो दोपहर एक बजे शुरू हो जाते थे( वो बहुत ही बढ़िया सी सिग्नेचर ट्यून के साथ) और फिर शायद दो-अढ़ाई घंटे तक चलते थे, मुझे बेहद पसंद थे। इस में एक प्रोग्राम होता था ..नॉको के सौजन्य से, जिस में एड्स कंट्रोल के बारे में जनता को जानकारी उपलब्ध करवाई जाती थी और उस प्रोग्राम में बहुत बढिया किस्म के फिल्मी गीत भी सुनाए जाते थे। कुछ दिन पहले ही मैं राष्ट्रीय एड्स कंट्रोल संगठन की अध्यक्षा को एक पत्र लिख रहा था तो मैंने इस देश में इस रेडियो प्रोग्राम की भूमिका का बहुत अच्छे से उल्लेख किया था।

मुझे तो बस इस एफएम सुनने का चस्का कुछ इस कदर लगा कि कुछ दिनों बाद ही हमें लोनावला जाना था, मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैं एफएम सुनने की खातिर उस शाम को ए.सी कंपार्टमैंट से बाहर ही खड़ा रहा था जिस की वजह से मैं अपने उस वर्ल्ड-रिसीवर पर एफएम के सुरीले प्रोग्राम का मज़ा ले रहा था। लेकिन यह क्या, जैसे ही गाड़ी कल्याण से थोड़ा आगे चली, उस की रिसैप्शन में गड़बड़ी शुरू और देखते ही देखते चंद मिनटों में मेरे कईं बार उसे उल्टा-सीधा करने के बावजूद कुछ भी सुनाई देना बंद हो गया। हां, हां, तब याद आया कि अभी एफएम कार्यक्रमों की रेंज बम्बई से 50-60 किलोमीटर तक ही है। सो, मन ममोस कर एसी कंपार्टमैंट के अंदर आना ही पड़ा। मैं भी कितना अनाड़ी था कि एक वर्ल्ड-रिसीवर खरीद कर यही समझ बैठा कि शायद कोई सैटेलाइट ही खरीद लिया है....!!

इस वर्ल्ड-रिसीवर पर तो मैं इस कद्र फिदा था कि जब कभी दिल्ली की तरफ जाने का प्रोग्राम बनता तो भी मैं इसे अपने साथ ही रखता...क्योंकि इस की रेंज दिल्ली से 60-70 किलोमीटर तक सुन रखी थी, इसलिए घर बैठ कर भी इस के प्रोग्राम सुनने का आनंद आता था। मुझे याद है कि कईं बार बिजली का साथ भी नहीं होता था, लेकिन इस ने कभी धोखा नहीं दिया......अब इतनी अच्छी सी क्लियर आवाज़ में जब दोपहर को 2-3 घंटे बढ़िया गाने बज रहे होते थे तो कज़िन वगैरह जरूर इस के बारे में पूछते थे.......आप को यह नहीं लगता कि एक तरह से मैं एफएम का एक सैल्फ-स्टाइल्ड ब्रांड-अम्बैसेडर ही बन चुका था। और हां, एक बात यह तो बतानी भूल ही गया कि उस वर्ल्ड-रिसीवर के साथ एक बड़ा सा एंटीना भी था, जिसे अकसर मुझे किसी लोहे की वस्तु से टच करवा कर रखना होता था, ताकि रिसैप्शन एकदम परफैक्ट हो।

इस के बाद की एफएम की यादों की बारात में फिर कभी शामिल होते हैं।

सोमवार, 4 फ़रवरी 2008

संडे हो या मंडे--रोज़ खाओ अंडे.....लेकिन इसे पढ़ने के बाद !


मुझे पता है कि आप ने वह संडे हो या मंडे- रोज़ खाओ अंडे वाला विज्ञापन बहुत बार देखा है, लेकिन आज कल चूंकि देश के कुछ हिस्सों में बर्ड-फ्लू के नाम से थोड़े भयभीत से हैं, इसलिए कुछ बातों की तरफ ध्यान देना बहुत ज़रूरी है।

· विशेषज्ञों ने कच्चे एवं हॉफ-ब्वायलड ( raw and soft boiled eggs) अंडो से परहेज़ करने की सलाह दी है। जिन अंड़ों को उच्च तापमान पर पकाया नहीं जाता, उन के खाने से बर्ड-फ्लू के जीवाणु के इलावा टॉयफाड एवं अन्य जीवाणुओं से होने वाली बीमारियों का खतरा मंडराता रहता है।

· बर्ड-फ्लू से बचने के लिए केवल पूरी तरह उबले अंडों (full boiled eggs) का ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

· दूध में कच्चे अंडे डाल कर नहीं पीना चाहिए । आधे उबले अंडों ( half- boiled eggs) एवं ऐसे अंडे जिन का योक- अर्थात् वही पीला भाग- तरल सी अवस्था में बह रहा हो ( runny yolk) ,इन का भी सेवन नहीं करना चाहिए।

· जो लोग बाहर खाते हैं उन्हें भी इस बात को सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि अंडे से बनी सभी पकवानों को उच्च तापमान पर ही तैयार किया गया है। सामान्यतः एक हॉफ-ब्वायलड अंडे को तैयार होने में तीन मिनट, मीडियम ब्वायलड को पांच मिनट और फुल-ब्वायलड अंडे को तैयार होने में दस मिनट का समय लगता है।

· विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है कि केक खाना सुरक्षित है ...चूंकि उस में अंडा पड़ा होता है, लेकिन केक की बेकिंग के लिए 200डिग्री सैल्सियस का तापमान चाहिए होता है, जिस के परिणामस्वरूप अंडे में मौजूद बैक्टीरिया एवं अन्य जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। यह ध्यान रहे कि हॉफ-ब्वायलड अंडे आम तौर पर रशियन सलाद जैसी प्रैपरेशन्स में डलते हैं।

· एक बात जो बहुत ही ज़रूरी है लेकिन कभी कोई इस तरफ कम ही ध्यान देता है ..वह यह है कि अंडों को इस्तेमाल करने से पहले धो लेना निहायत ही ज़रूरी है क्योंकि जीवाणु केवल अंडे के शैल ( shell of egg) के अंदर ही नहीं होते, ये शैल के बाहर भी मौजूद हो सकते हैं। और एक बात और भी इतनी ही ज़रूरी है कि कच्चे अंडों को हाथ लगाने के बाद भी हाथ धोना ज़रूरी है।

So, take care !!

संडे हो या मंडे--रोज़ खाओ अंडे.....लेकिन इसे पढ़ने के बाद !



मुझे पता है कि आप ने वह संडे हो या मंडे- रोज़ खाओ अंडे वाला विज्ञापन बहुत बार देखा है, लेकिन आज कल चूंकि देश के कुछ हिस्सों में बर्ड-फ्लू के नाम से थोड़े भयभीत से हैं, इसलिए कुछ बातों की तरफ ध्यान देना बहुत ज़रूरी है।

· विशेषज्ञों ने कच्चे एवं हॉफ-ब्वायलड ( raw and soft boiled eggs) अंडो से परहेज़ करने की सलाह दी है। जिन अंड़ों को उच्च तापमान पर पकाया नहीं जाता, उन के खाने से बर्ड-फ्लू के जीवाणु के इलावा टॉयफाड एवं अन्य जीवाणुओं से होने वाली बीमारियों का खतरा मंडराता रहता है।

· बर्ड-फ्लू से बचने के लिए केवल पूरी तरह उबले अंडों (full boiled eggs) का ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

· दूध में कच्चे अंडे डाल कर नहीं पीना चाहिए । आधे उबले अंडों ( half- boiled eggs) एवं ऐसे अंडे जिन का योक- अर्थात् वही पीला भाग- तरल सी अवस्था में बह रहा हो ( runny yolk) ,इन का भी सेवन नहीं करना चाहिए।

· जो लोग बाहर खाते हैं उन्हें भी इस बात को सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि अंडे से बनी सभी पकवानों को उच्च तापमान पर ही तैयार किया गया है। सामान्यतः एक हॉफ-ब्वायलड अंडे को तैयार होने में तीन मिनट, मीडियम ब्वायलड को पांच मिनट और फुल-ब्वायलड अंडे को तैयार होने में दस मिनट का समय लगता है।

· विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है कि केक खाना सुरक्षित है ...चूंकि उस में अंडा पड़ा होता है, लेकिन केक की बेकिंग के लिए 200डिग्री सैल्सियस का तापमान चाहिए होता है, जिस के परिणामस्वरूप अंडे में मौजूद बैक्टीरिया एवं अन्य जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। यह ध्यान रहे कि हॉफ-ब्वायलड अंडे आम तौर पर रशियन सलाद जैसी प्रैपरेशन्स में डलते हैं।

· एक बात जो बहुत ही ज़रूरी है लेकिन कभी कोई इस तरफ कम ही ध्यान देता है ..वह यह है कि अंडों को इस्तेमाल करने से पहले धो लेना निहायत ही ज़रूरी है क्योंकि जीवाणु केवल अंडे के शैल ( shell of egg) के अंदर ही नहीं होते, ये शैल के बाहर भी मौजूद हो सकते हैं। और एक बात और भी इतनी ही ज़रूरी है कि कच्चे अंडों को हाथ लगाने के बाद भी हाथ धोना ज़रूरी है।

So, take care !!

2 comments:

Gyandutt Pandey said...

डाक्टर साहब, मैं तो अण्डा नहीं खाता पर पोस्ट में निहित खाद्य सामग्री को उच्च ताप पर जीवाणु रहित करना समझ में आया।
कुछ लोग बर्ड फ्लू के कारण सस्ते चिकन का इस आधार पर अधिक सेवन कर रहे हैं कि उसे कस कर कूकर में कुक कर लेते हैं। कितना उचित है उनका यह करना?

Dr.Parveen Chopra said...

लेकिन यह जानकारी तो केवल अंडो तक ही सीमित है। सस्ते चिकन से तो मेरी समझ से बच कर रहने में ही समझदारी है।

पंक्षियों के फ्लू से आखिर हम क्यों हैं इतने आतंकित ?


बर्ड-फ्लू अर्थात् पक्षियों का फ्लू आज कल काफी चर्चा में है। लेकिन जन मानस को इस रोग के बारे में कुछ ढंग की जानकारी नहीं है। चलिए सब से पहले शुरू यहां ही से करते हैं कि बर्ड-फ्लू को चिकित्सा भाषा में एवियन इनफ्लूऐंज़ा कहते हैं। दूसरी बात यह है कि जब हम पक्षियों की बात करते हैं तो इस में मुर्गे, मुर्गियां, बत्तखें इत्यादि भी शामिल हैं।

एवियन इनफ्लूऐंज़ा पक्षियों में इनफ्लूऐँज़ा वॉयरस की ए श्रेणी के द्वारा होने वाली एक इंफैक्शन (छूत) की बीमारी है। इस बीमारी को सर्वप्रथम 100वर्ष पूर्व इटली में पाया गया था, लेकिन यह महामारी के रूप में तो कहीं भी फूट सकती है।

एवियन इनफ्लूऐंज़ा किसी भी पक्षी को अपना शिकार बना सकती है। यह इंफैक्शन होने से पक्षियों में विविध रोग-लक्षण पैदा हो सकते हैं जो कि एक मामूली बीमारी से लेकर एक अत्यन्त संक्रामक जानलेवा रोग का रूप ले सकता है, तथा यह महामारी का रूप धारण कर लेती है। अत्यन्त उग्र एवियन इनफ्लूऐंज़ा में पक्षी अचानक ही बहुत बीमार हो जाते हैं और शीघ्र ही मर जाते हैं, शत-प्रतिशत केसों में यह जानलेवा सिद्ध हो सकती है।

सामान्य तौर पर एवियन इनफ्लूऐँजा वॉयरस पक्षियों एवं सूअरों के अतिरिक्त अन्य किसी प्राणी में बीमारी पैदा नहीं करते। सबसे पहले 1977 में हांग-कांग में इस वॉयरस ने मनुष्यों को अपनी चपेट में लिया। वैज्ञानिक जांच ने बताया है कि मनुष्यों में यह बीमारी बर्ड-फ्लू से ग्रस्त जीवित मुर्गे-मुर्गियों के नज़दीकी संपर्क के कारण हुई। जिन 18व्यक्तियों का यह बीमारी हुई उन में से 6की मौत हो गई। इस के परिणाम स्वरूप हांग-कांग के सारे मुर्गे-मुर्गियों का , जो उस समय लगभग 15 लाख के करीब थे, सफाया कर दिया गया। उस के बाद सन 1999 में फिर हांग-कांग में तथा सन 2003 में यह हांग-कांग एवं नैदरलैंड में फैली।

अकसर मरीज हम से पूछते हैं कि इस बीमारी के रहते कुछ अरसा पहले चीन में 14000 बत्तखों को क्यों मार दिया गया ?—उस का कारण यही है कि जंगली बत्तखों में एवियन इनफ्लूऐँज़ा वायरसों का प्राकृतिक भंडार होते हुए भी, उन में इस बीमारी से इंफैक्शन होने की संभावना बहुत कम होती है। मुरगी-खाने के जीवों – मुर्गों, मुर्गियों, पीरू( अमेरिकी गीध) में इस उग्र रूप वाले घातक एवियन इनफ्लूऐंज़ा का रोग होने की आशंका बनी रहती है। इन मुर्गे, मुर्गियों का जंगली बत्तखों से सीधा संपर्क एवं अप्रत्यक्ष संपर्क महामारी का कारण बनता है। जिंदा पंक्षियों की मार्कीट भी इस महामारी को फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

जब कभी इस रोग के केस दिखने शुरू होते हैं तो विभिन्न देशों में दूसरे देशों से मुर्गों के आयात पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया जाता है।

कुछ देश दूसरे देशों से आने वाले चिकन का निरीक्षण करते तो हैं लिकन विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस बात का हमें विशेष रूप से ध्यान रखना होगा जिस के अनुसार जिन पक्षियों ( मुर्गे, मुर्गियों इत्यादि) में यह इंफैक्शन होती है और वे बच जाते हैं, वे कम से कम दस दिन तक मुंह से एवं मल द्वारा वॉयरस फैलाते रहते हैं, जिस से ज़िंदा मुर्गे-मुर्गियों के बाज़ारों में तथा प्रवासी पंक्षियों में यह बीमारी बड़ी आसानी से फैल सकती है।

एक बात और हमें समझनी जरूरी है कि इस बीमारी से संबद्ध जो वॉयरस होते हैं वे बड़ी शीघ्र गति से बदलते रहते हैं और इन विषाणुओं में एक और विशेषता यह रहती है कि आम तौर पर पक्षियों में एवियन इनफ्लूऐँज़ा पैदा करने वाले वॉयरस तथा मनुष्यों में इनफ्लूऐँज़ा फैलाने वाले वॉयरस कुछ इस तरह से मिल जाते हैं जिस से फिर कुछ ऐसे वॉयरस विकसित होते हैं जिन के अभी टीके का भी विकास नहीं हुया होता और यह रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलना शुरू हो जाता है, जिस से कि एक बहुत ही विषम स्थिति पैदा हो जाती है।

आप भी यही सोच रहे होंगे कि इस तरह का मेल-मिलाप संभव कहां है ?--- यह संभव है उन मनुष्यों में जो कि घरेलू मुर्गी एवं मुर्गों के नज़दीक रहते हैं और सूअर भी इस मिलाप को संभव बनाते हैं। सूअर दोनों तरह की ही अर्थात् मनुष्य एवं पक्षियों को बीमारी फैलाने वाली वॉयरसों से ही ग्रस्त होने के कारण उन वॉयरसों को मिलाने एवं नए उग्र वॉयरस उत्पन्न करने का काम भी करते हैं , जिन का अभी कोई टीका भी नहीं आया होता।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों को सचेत किया है कि वे जब ऐसे क्षेत्रों में जायें जहां के मुर्गे, मुर्गियों में यह महामारी फैली हुई है , तो वे ज़िंदा पशुओं की मार्कीट एवं मुरगी –खानों के संपर्क में बिल्कुल न आएं। ऐसे पक्षियों की ड्रापिंग्स ( मल, बीट) भी इस बीमारी की वॉयरसों से लैस होती हैं।

एक महत्त्वपूर्ण यह भी है कि एवियन इनफ्लूऐंज़ा वॉयरस ताप से नष्ट हो जाती है। अतः उपभोक्ताओं को अच्छी तरह से सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि पोल्ट्री से प्राप्त खाने की चीज़ों ( अंडे आदि भी) को अच्छी तरह से पकाया गया है।