शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

किताबें झांकती हैं, बातें करती हैं..

आज यहां लखनऊ में एक और पुस्तक मेला शुरू होने जा रहा है ... कईं बार जाऊंगा वहां इन तारीखों में .. चुन चुन कर बड़े नामचीन लेखकों की कुछ पुस्तकें हम लोग वहां से खरीद भी लाएंगे लेकिन यह कोई भरोसा नहीं कि पढ़ेंगे कब!

अभी सुबह जागी नहीं है ...साढ़े चार बजे हैं..ऐसे ही ध्यान आ रहा है कि किताबों, पत्रिकाओं एवं कॉमिक्स से जुड़ी अपनी यादों पर कुछ लिखा जाए... 

बरकत अपना मित्र है, पंजाबी भाषा में लिखता है ... उस के घर में हर तरफ़ किताबें बिखरी रहती हैं..पिछली बार मिला तो बताने लगा कि उस की बीबी और बीवी को हर समय यही चिंता रहती है कि किताबें कब और कैसे सिमटेंगी....कईं बार उसे सलाह मिल चुकी है कि कार्डबोर्ड ेके डिब्बों में बंद कर के इन्हें संभाल ले, एक लिस्ट बना ले और जिस किताब से वास्ता हो, उसे बाद में पलंग से नीचे रखे डिब्बे से निकाल लिया करे ...लेकिन इस सुझाव को बरकत हमेशा सुना-अनसुना कर देता है ...ठहाके लगा कर कहने लगा कि सामने पड़ी हुई किताबों को तो छूने की फ़ुर्सत नहीं मिलती .. .अब डिब्बे से निकालने की कौन ज़हमत उठाएगा! 

बरकत ने एक दिल को छूने वाली बात यह भी कह दी कि उसे पता है अंत में कभी न कभी तो इन बेचारी किताबों का नसीब डिब्बे में बंद होना ही है ...लेकिन जब तक सामने दिखती हैं तो एक आस बंधी रहती है कि मैला आंचल, राग-दरबारी, झूठा सच, गोदान जैसी कालजयी रचनाएं हाथों तक पहुंच ही जाएंगी कभी भूले-भटके ..

 मैं उस की बात सुन रहा था .. तो गुलजार साहब की वह कविता रह रह कर मेरे मन में आ रही थी ...

किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से 

बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं क़िताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो कदरें वो सुनाती थी कि जिनके 
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंड लगते हैं वो अल्फ़ाज़
जिनपर अब कोई मानी नहीं उगते
जबां पर जो ज़ायका आता था जो सफ़ा पलटने का
अब ऊँगली क्लिक करने से बस झपकी गुजरती है
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, वो कट गया है
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे!! 
(गुलज़ार) 

दिनांक १५ अक्टूबर २०१६ 
यह पोस्ट मैंने कल सुबह ४.३० बजे लिखनी शुरू तो की ..लेकिन फिर नींद आ गई थी...सोच रहा हूं कि इस विषय पर जो कहना है एक पोस्ट के जरिये नहीं हो पाएगा...इस पर कभी फिर से लिखूंगा ..अभी तो बस सफदर हाश्मी साहब की इस बात का ध्यान आ रहा है ...

किताबें करती हैं बातें..
बीते जमानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की, कल की
एक-एक पल की
गमों की, फूलों की

बमों की, गनों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में रॉकेट का राज है
किताबों में साइंस की आवाज है
किताबों में ज्ञान की भरमार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं..
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

(सफ़दर हाश्मी)

बचपन के उन स्कूली दिनों के बाद जब चंदामामा, नंदन, लोट-पोट, मोटू-पतलू, मायापुरी को पहले से आखिरी पन्ने तक पढ़ने-देखने के बाद ही भूख लगा करती थी, याद नहीं उन दिनों के बाद कब किस किताब को पूरा पढ़ा था...शायद कभी नहीं, पाठ्य पुस्तकों तक को भी नहीं...वहां भी वही चुन चुन कर पढ़ने की हिमाकत !




शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

फेस-रीडिंग भी बना एक धंधा...


एक शॉपिंग मेले में गये हुए थे कल..  मिसिज़ एक लेडीज़ स्टॉल पर सूट-दुप्पटों में व्यस्त थीं ...मैं तो कुल जमा पांच सात मिनट में किसी दुकान पर खड़ा खड़ा ऊब जाता हूं...बाहर निकला तो पास ही एक चमकदार स्टाल की तरफ़ ध्यान चला गया...


वहां पहुंचा तो ये सब रंग बिरंगी चमकीली चीज़ें देख कर मन बहला रहा था...तभी एक ग्राहक की आवाज़ सुनाई दी...यह ग्बोल है?...दुकानदार ने तुरंत कहा - "नहीं नहीं , यह क्रिस्टल है.." 

दुकानदार ने कुछ आगे कहा तो था कि यह कौन सा क्रिस्टल है ...वह बंदा थोडा़ सकपका गया ...अब मैंने उसकी असहजता भांप कर यह कह दिया कि मैंने भी ग्लोब ही समझा था..

दुकानदार कहने लगा कि यह घर की सारी निगेटिव एनर्जी सोख लेता है ....बंदे ने उस का दाम पूछा...मुझे याद नहीं कितने का था, मेरा ध्यान कहीं और था उस समय...

ग्राहक ने पूछा कि इस से छोटा नहीं है...दुकानदार तो दुकानदार ही होते हैं...नहीं, इस से छोटे का क्या करोगे?...लोग तो इस से भी बड़े बड़े क्रिस्टल ले जाते हैं, सारे घर की निगेटिव एनर्जी को इसने सोखना होता है ...


बहरहाल, फिर उस ग्राहक का ध्यान इस पिरामिड की तरफ़ चला गया..साढ़े सात सौ रूपये का था...देख कर उसने रख दिया वापिस...और यंत्रों-तंत्रों में उलझने के लिए शायद...एक घर के बाहर लटकाने वाला कुछ अष्ट धातु का यंत्र देख  कर उसे यही लगा कि जंग तो नहीं लग जायेगा...कोई चुरा तो नहीं लेगा...बिल्कुल अपने लोगों जैसे मध्यमवर्गीय प्रश्न...लेकिन उसे दुकानदार ने अच्छे से फिर समझा दिया कि इस यंत्र को किसी कमरे के बाहर कील लगा कर फिक्स कर लीजिए...बस, और अगर इसे जंग लग गया या ७२ घंटे के अंदर कोई शुभ बात न घटित हो तो भी मुझे फोन कर देना....मैं अपने इस लड़के (वर्कर) को घर भिजवा कर इसे वापिस कर लूंगा...


मैं उन रंग बिरंगी आकृतियों में उलझा हुआ था ...बिना किसी मतलब के ...क्योंकि सत्संग में जाते हैं...हम इस सर्व-व्यापी कण कण में विद्यमान ईश्वर के अलावा किसी भी यंत्र-तंत्र पर यकीं नहीं करते ...बिल्कुल भी नहीं...इन जगहों पर जाकर सत्संग की बातें अचानक मन में घूमने लगती हैं...

मेरा ध्यान गया उस दुकानदार के विज़िटिंग कार्ड की तरफ ..उस पर लिखा हुआ था...फेस-रीडिंग एक्सपर्ट .... मुझे याद आया कालेज से दिनों से छुटकारा मिलने के बाद एक बार एक किताब के बारे में सुना था.....How to read a person like a book?....किसी आदमी को एक किताब की तरह कैसे पढ़ा जाए?.....मैंने भी खरीदी थी, लेकिन अपनी हर खरीदी किताब की तरह इस के भी दो चार पन्ने पढ़ कर किसी कोने में फैंक दिया...बड़ी अजीब सी बात लगी थी कि हम लोग किसी दूसरे को पढ़ने के लिेए इतने आतुर ही क्यों हैं, पहले अपने आप को तो पढ़ लिया जाए !

हां, फेस-रीडिंग की बात पर वापिस लौटते हैं.....मैंने जिज्ञासा वश उस दुकानदार से पूछा कि फेस-रीडिंग आप करते हैं?...उसने हां कहा तो मैंने पूछा कि इस के कुछ दाम लगते हैं...उसने बताया कि दो हज़ार रूपये...और हमारा एक ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट भी है जहां पर हम लोगों को ट्रेन करते हैं...

फेस-रीडिंग से पहले वे लोग हमारे शरीर के चक्रों की चाल को चैक करते हैं...उस के हिसाब से फिर फेस-रीडिंग की जाती है ...जैसा उसने मुझे कहा...उसने यह भी कहा कि इस से आप के चेहरे का ओजस बढ़ जायेगा...

अचानक उसने मेरे से यह पूछा कि क्या आप इन सब बातों में यकीं करते हैं ?.... मैंने प्रश्न को टालना चाहा ...उस की दुकानदारी चल रही थी... लेकिन उसने तभी पूछा कि इन चीज़ों में से आपने घर में क्या रखा हुआ है ?...  मुझे और कुछ तो ध्यान में आया नहीं , बस लॉफिंग बुद्धा का ध्यान आ गया, मैंने बता दिया ...उसे शायद इत्मीनान हो गया हो कि इस को भी  इन सब में विश्वास तो है ...


लेकिन मैंने उसे यह नहीं बताया कि यह लॉफिंग बुद्धा टीवी के सामने पड़ा हुआ है ...और जब कभी भी इस की तरफ़ ध्यान चला जाता है तो अच्छा लगता है ....इस को मस्ती वाला पोज़ देख कर ...बस, और कुछ नहीं एक्सपेक्टेशन है नहीं कि यंत्र-तंत्र कुछ कर सकते हैं...

सब कुछ अपने अंदर है ..मन जीते जग जीत....बस, हम इसे बाहर ढूंढते ढूंढते बेहाल हुए जा रहे हैं..


इतने में उस ग्राहक ने साढ़े सात में इस पिरामिड जैसी रंग बिरंगे यंत्र को खरीद लिया ...और लगा पूछने कि रखना कहां है...फिर दुकानदार शुरू हो गया कि कंपास से देख लेना ...कमरे की किसी उत्तर दिशा में इसे रख देना...७२ घंटे में यह अपना काम करना शुरू कर देगा...शुभ समाचार मिलेगा !

मैं उस दुकान से हटते हुए यही सोच रहा था कि हम लोग भी किस तरह से एक दूसरे को टोपी पहनाने लगे हैं.....उस बंदे का यह खरीदारी करते वक्त अपने एक पुराने लोकल ब्रांड के हेल्मेट को हाथ में पकडे़ रखने से मुझे यही ध्यान आया कि लोग टोपियां पहनाने के इस चक्कर में मिडिल क्लॉस लोगों को कैसे कैसे सपने बेचने लगे हैं.... God bless your all children, bring them out of darkness of ignorance to this light of divine knowledge! 


गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

जुबान कटने का उपचार

हमारे शरीर में किसी भी चोट को रिपेयर करने की बेइंतहा क्षमता होती है ..हम लोग तो हर दिन कुदरत का यह करिश्मा देखते रहते हैं...वरना अगर यह चीज़ भी पैसे से ही मिलती तो कारपोरेट अस्पतालों की तो चांदी हो जाती...जिस तरह से आज कल प्लेटलेट्स का धंधा खूब चमका हुआ है...मरीज़ों को क्या पता कि किस इलाज की ज़रूरत है, किस की नहीं है!


यह जो तस्वीर आप देख रहे हैं ...यह एक ५०-५५ वर्ष की महिला की है ...यह अस्पताल में दाखिल थी ..क्योंकि इसे दौरा पड़ गया था...और यह घर में बेहोश हो गई...बेहोशी की हालत में इसे नहीं पता कैसे इस की जुबान कट गई...बहुत खून बहने लगा ...फिर इसे अस्पताल लाया गया ...खून बंद हो गया...और यह मुझे एक या दो दिन के बाद ही दिखाने आई थी.

ये ऊपर लगी दोनों तस्वीरें उस दिन की हैं जब ये मेरे पास आई थी...बहुत डरी हुई कि पता नहीं जुबान कभी ठीक भी होगी कि नहीं...लेकिन उस दिन इसे दर्द भी बड़ा था...स्वाभाविक सी बात है कि अगर कभी खाना खाते वक्त हमारी जुबान थोड़ी सी  भी दांतों के नीचे आ जाए तो कैसे हम लोगों की चीख निकल जाती है ...और यहां पर इतना बड़ा घाव था..

इसे मैंने सब से पहले यही भरोसा दिलाया कि यह सब चार-पांच-सात दिन में एकदम दुरुस्त हो जायेगा... मेरी बातों से इसे इत्मीनान सा हो गया शायद...

ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां तो इसे पहले ही किसी दूसरे कारण से चल रही थीं...इसलिए किसी और ऐंटीबॉयोटिक की तो ज़रूरत थी नहीं, कुछ दर्द निवारक टेबलेट्स दे दी थीं...और लगाने के लिए मुंह के छालों पर लगाने वाली जो दवाईयां आती हैं...Zytee/Emergel/Dologel/Dentogel (इन में सो कोई भी एक)...उसे इस घाव पर दिन में चार पांच बार लगाने के लिए कहा गया...और साथ में बीटाडीन जैसा माउथ-गार्गल करने के लिए बता दिया था..

दो दिन बाद यह महिला फिर परसों दिखाने आई थी... बस खाने वाली दवाईयां खा रही थीं, लेकिन लगाने वाली दवाई अभी तक इसने लगानी नहीं शुरू की थी...कुल्ले बीटाडीन से कर रही थी...लेकिन फिर भी आप देख रहे हैं कि ज़ख्म ठीक हो ही रहा है ....बता भी रही थी कि अब काफ़ी आराम है ....उसे फिर से इस ज़ख्म पर दवाई लगाने की सलाह दी ...



जुबान कटने का उपचार कितना आसान है! ...आप भी यही सोच रहे होंगे ...लेकिन कड़वी जुबान से होने वाले घावों का हम लोगों के पास भी कोई उपचार है नहीं ! Mind your tongue!

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

इंस्पेक्शन वाले तेवर ...(व्यंग्य)

मुझे कईं बार वह कहानी...नहीं, नहीं, कोई व्यंग्य लेख था स्कूल की किताब में जिस में आदमियों को तीन श्रेणीयों में बांटा गया था...पहले दर्जे वाले के पास...तीन चीज़ें होनी लाज़मी हैं...चश्मा, पेन और कलाई घड़ी....ऐसे ही जिस के पास दो चीज़ें हैं, वह द्वितीय श्रेणी का और एक ही चीज़ होने पर वह बंदा तृतीय श्रेणी ....अब हमारे बाल मन ने यह कभी नहीं सोचा कि यार, अगर इन तीनों में से कुछ भी नहीं तो क्या वह बंदा ही नहीं! निर्णय आप पर छोड़ता हूं...

यह कहानी एक हिंदी के नामचीन लेखक की थी...मुझे अच्छे से याद है जब मैं यह कहानी पढ़ता था ...तो मां भी अकसर उस लेखक का नाम पढ़ कर बताया करतीं कि यह तुम्हारे नाना जी के दोस्त हैं, तुम्हारा नाना जी से कहानियां लिखते हैं उर्दू में ...फिर यह उन्हें हिंदी में लिखते हैं अपने नाम से। बड़े होते होते इस बात की पुष्टि हमें बहुत से लोगों से हो गई....पक्का यकीं तब हुआ जब नानी ने भी इस बात की पुष्टि कर दी...

पहले घर में बच्चों की किताबें सारे सदस्यों के लिए भी हुआ करती थीं...बच्चे तो भारी मन से उन्हें उठाते थे लेकिन दूसरे लोग मनोरंजन  के लिए कहानियां-कविताएं ज़रूर पढ़ते थे ..

बहरहाल, इतने सालों में यह आदमियों की श्रेणियों की बात मन में है...

फिर आदमियों की श्रेणी की बात याद तब आई जब आज से तीस पैंतीस साल पहले पंजाब का एक सर्जन जो वैसे तो सरकारी अस्पताल में काम करता था..लेकिन घर आने वाले मरीज़ों को साफ साफ पूछता था कि यात्रा टांगे में करनी है, बस में, ट्रेन में या फिर हवाईजहाज़ से ....संदेश साफ़ था..जो उस की घर में जा कर सेवा कर आते ..उन का आप्रेशन अगले ही दिन हो जाया करता था...पता नहीं कितना सच है, कितना झूठ है, बेहतर होगा आप इसे झूठ ही मान लीजिए...मेरी तरह।

लखनऊ का ऐशबाग रामलीला मैदान (आज शाम मोदी यहां आ रहे हैं) 
श्रेणीयां अभी भी दिख जाती हैं...केवल उन का रूप बदला है ... कल रात हम लोग यहां लखनऊ के ऐशबाग में रामलीला देखने गये ..इसी जगह पर आज मोदी आ रहे हैं...निःसंदेह मैंने इस तरह का भव्य रामलीला का आयोजन पहले कभी नहीं देखा था..हज़ारों की संख्या में लोग बैठ कर आनंद ले रहे थे...पंडाल में भी तीन विभाजन हो रखे थे...अति विशिष्ट, विशिष्ट और सामान्यजन .....अजीब सा लगा ...यहां पर भी श्रेणीयों का इतना चक्कर ....मुझे तो बचपन वाली रामलीला याद है ...जहां पर बहुत बड़े पंडाल में सब के लिए दरियां बिछी रहती थीं...सब को वही बैठना होता था...और हम लोग नींद लगने पर वहां पांच दस मिनट पसर भी जाया करते थे.

ऐशबाग रामलीला - निःसंदेह एक भव्य आयोजन 
वैसे जिस समय हम लोग वहां पहुंचे इन श्रेणियों में कोई फर्क लग भी नहीं रहा था... सारा पंडाल ठसाठस भरा हुआ था..मोदी तो वहां एक घंटा रूकेंगे ..हम लोग आधे घंटे में ही वापिस हो लिए..
इस रामलीला मैदान के बाहर इस तरह के बीसियों बोर्ड लग चुके हैं ..और दर्जनों तैयार हो रहे थे ..
फिर वही बीमारी ....किधर की बात किधर ले गया....बातें हो रही थीं आदमियों की श्रेणीयों की ...जिस से मैं इत्तेफ़ाक नहीं रखता बिल्कुल...कभी रखूंगा भी नहीं .... अब मेरे जैसे आदमी को पंजाब में किसी आयोजन के लिए कल जालंधर से फोन आया कि डा. साहब, आप को चीफ़ गेस्ट के तौर पर बुलाना चाहते हैं....पहले तो मेरी हंसी छूटी खूब...फिर मैंने उस मित्र को कहा कि यार, इतनी इज़्जत की आदत नहीं है, न ही कभी तमन्ना है...चुपचाप आखिरी कतार के कोने में किसी समारोह का आनंद लेना का अपना ही लुत्फ है ....खूब हंसे हम लोग...मैंने उस से माफ़ी मांग ली....फिर बेटे के साथ भी यह बात शेयर कर के बहुत मज़ा आया कि तेरे बापू को चीफ-गेस्ट के तौर पर बुलाना चाह रहे थे ..

वापिस इंस्पेक्शन वाले तेवरों पर लौटते हैं.....मेरी आदत है मैं अखबार की तस्वीरें बहुत अच्छे से देखता हूं ...और पिछले पंद्रह वर्षों के दौरान मैंने जितनी भी इंस्पेक्शन की तस्वीरें अखबारों आदि में देखी हैं उन से कुछ निष्कर्ष निकाले हैं ...
  • इंस्पेक्शन करने वाले का एक हाथ अपनी पतलून की जेब में घुसा होना ज़रूरी है ..
  • अगर इंस्पेक्शन करने वाले कोई बहुत ही बड़ा अादमी है तो उसके दोनों हाथों भी पतलून की जेब में घुसे हो सकते हैं..
  • इंस्पेक्शन करने वाले से कहीं ज़्यादा जानकारी रखने वाले लोग उस के सामने बिल्कुल स्कूली बच्चों की तरह दुबके हुए इंस्पेक्टर साहब के रफू-चक्कर होने का इंतज़ार करते हैं..
  • और हां, इंस्पेक्शन करने वाले का सिर अकसर कम से कम नब्बे डिग्री तक देखा गया है...और कुछ और रौब वाले तो इस की डिग्री को बढ़ा कर एक सौ तक कर सकते हैं.....डर लगता है उस समय इंस्पेक्शन करवाने वालों को कहीं धौन च वल न पै जावे (कहीं गर्दन में बल ही न पड़ जाएं!)
  • इंस्पेक्शन को दौरान अकसर बड़े साहिबों को कोई बीस तीस साल पुराना बंदा अचानक याद आ जाता है जो अभी भी घास ही काट रहा होता है ...उस से मिल कल कुछ साहिब लोग अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में पड़ जाते हैं....कृष्ण-सुदामा मिलन तो नहीं कहूंगा...लेकिन राजा भोज और गंगू तेली की कहानी याद आ जाती होगी ...
  • इस के अलावा भी कुछ इंडिकेटर्स हैं जिन से आप फोटो का कैप्शन पढ़े बिना यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कौन इंस्पेक्शन कर रहा है और किस की इंस्पेक्शन हो रही है ...जैसे आंखों पर काला चश्मा, सिर पर कोई टोपी-वोपी..
  • और एक बात याद आ गई जाते जाते ...एक तेवर इस तरह का भी रखना ज़रूरी है ..मेरे पी.जी टीचर की तरह कि तुम्हें कुछ भी आता जाता नहीं, इस विषय से संबंधित जितना ज्ञान है मेरे पास है ...और चाय नाश्ते के दौरान काजू-कतली की एक टुकड़ी तोड़ कर उठाने में भी कुछ अलग तेवर नज़र आना चाहिए..
बस, मैं तो इनती ही समझ पाया इन तेवरों के बारे में ...अखबारों की तस्वीरें देख देख कर...अगर आप भी इस में कुछ जोड़ना चाहें तो आप का स्वागत् है!

मेरे लिए एक इंस्पेक्शन अविस्मरणीय है....मैंने नईं नईं सर्विस ज्वाईन की थी...कुछ दिन ही हुए थे....हमारे एक उच्च अधिकारी आए थे इंस्पेक्शन पर ....एक एक बात उन्होंने मेरे से पूछी ...मुझे कहा कि तुम एमडीएस हो, बड़ा स्कोप है तुम्हारे लिए...क्या तुमने हैपेटाइटिस बी का इंजेक्शन लगवाया हुआ है?....नहीं, मैंने जवाब दिया...तो उन्होंने अपने नोट्स में यह लिखवाया कि डैंटल सर्जन को हैपेटाइटिस बी से इम्यूमाईज़ड होना चाहिए....तब नया नया ही आया था यह टीका ...1991 की बात है .. मैंने कहा कि मुझे इस की सेफ्टी के बारे में कुछ संदेह है ...तब उन्होंने मुझे यह बताया कि अब जैनेटिकली इंजिनियर्ड तकनीक से आने वाले टीक पूर्णतया सुरक्षित हैं....मैंने अगले ही दिन उस टीके की पहली खुराक लगवा ली...एक सार्थक इंस्पेक्शन की यह बात आज याद आ गई लिखते लिखते तो यहां दर्ज कर दी....और हां, एक इंस्पेक्शन और है जिस की तस्वीरें देख कर मैं बहुत खुश हो जाता हूं....जी हां, अपने मेट्रो-मेन श्रीधरन जी ....खुशकिस्मत हैं वे लोग जो इन से सुझाव पाते होंगे इंस्पेक्शन के दौरान... such a great and grounded personality....real heroes of Today's India!

वरना आज कल भी जो हो रहा है बिल्कुल ठीक है....प्रतीकों और संकेतों का ज़माना है तो सब कुछ उस के अनुसार ही तो चलेगा...

अभी गीत की बारी है ...राम चंद्र जी की बात चलती है ..रामलीला की चर्चा होती है तो मुझे कोई चौपाईयां तो याद नहीं है, बस मुझे तो यह कथा ही बार बार सुनने की इच्छा होती है ....


रविवार, 9 अक्तूबर 2016

आज का साईकिल टूर....रैली के रास्ते से


आज बहुत दिनों बाद साईकिल टूर पर निकला...पिछले दिनों उमस ही इतनी थी ....घर से निकलते ही कुछ लोग बड़े अनुशासन में सड़क के एक तरफ़ पर चलते हुए श्री काशीनाथ स्मारक की तरफ़ उन की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में रखे एक आयोजन की तरफ़ चले जा रहे थे...
बंगला बाज़ार से रैली स्थल की तरफ़ प्रस्थान करते लोग..

बिजली पासी किले का वह द्वार जो जेल रोड़ (बंगला बाज़ार) की तरफ़ खुलता है ..

खाने पीने की चीज़ों का धंधा ज़ोरों पर था..सुबह के नाश्ते का जुगाड़ 
बिजली पासी किले ग्राउंड  एक द्वार  
किला चौराहे से आगे से भी लोग आ रहे थे..शायद रमाबाई स्मारक से आ रहे होंगे 

सभी सड़कें रैली स्थल की ओर जाती दिखीं..

बिजली पासी किले स्मारक का मेन गेट ..यहां खानपान की व्यवस्था है ...पिछले दो तीन दिनों से यहां टैंट लग रहे थे..


फकड़ी पुल पर यह अपना धंधा चमकाता दिखा...गठड़ी वाले को इस की बीन रोक नहीं पाई लगता है ...

अंबेडकर चौराहा (अवध चौराहा) से श्री काशीनाथ स्मारक की तरफ़ जाते लोग ..एक ने सपेरे का खेल देखने की इच्छा ज़ाहिर की तो उस के साथियों ने उसे जो बात कही, वह यहां लिखने लायक नहीं है ...समझने वाले समझ गये, मुझे पता है ...


स्मारक स्थल के बाहर पानी के टैंकर की व्यवस्था ..

यह उस रैली स्थल का मुख्य प्रवेश-द्वार ...ज़ूम कर के देखिए... 

किताबें बिक रही थीं, फ्रूट चाट , लईया-चना, कमीज़ों की रेहड़ीयां का काम अच्छा चल रहा था..





ये ऊपर खाली सड़कें शायद इसलिए खाली हैं क्योंकि ये लोगों के आने का मुख्य रुट नहीं था..
घर में भी अकेले ..बाहर भी अकेले ....कुछ बुज़ुर्ग...
लेकिन विश्व बुज़ुर्ग दिवस तो हम लोगों ने सेलीब्रेट कर लिया है न पहले ही ...

भाई, तुम कहां?...यह मेरा सहायक सुरेश है ...इस की ड्यूटी स्टेशन पर लगी थी ...
बाहर गांव से आने वाले लोगों के एमरजैंसी इलाज वाली टीम के एक हिस्से के रूप में
स्मारक के अंदर जाने के लिए ऊंची दीवार फांदने का उत्साह भी देखने लायक था..
एक अधेड़ औरत भी इस में शामिल थी...
बंगला पुल के पास भीड़ काफी थी, लेकिन बड़ी सुव्यवस्थित और शांत ..
यह कार्यकर्ता प्रचार गीत के ऊपर थिरक कर लोगों को एंटरटेन भी कर रहा था..
 इस को देखते ही मुझे यह गीत याद आ गया...मेरी तो उधर दस मिनट रुकने की इच्छा बड़ी प्रबल थी, लेकिन मेरे सहायक ने तुरंत कह दिया ...चलिए, सर...चलते हैं!


बंगला पुल 




बंगला बाज़ार से अभी भी लोग निरंतर रैली स्थल की तरफ़ प्रस्थान कर रहे थे ..
इतना टूर लगाने के बाद मुझे यही लगा जैसे मैंने परम आदरणीय बाबासाहेब भीम राव अंबेडकर की याद में भी स्मारक रूप में स्थापित कुछ मंदिरों की परिक्रमा कर ली सुबह सुबह ...

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

इन्हें कहां घुस के मारे कोई !

1975 में शोले फिल्म आई तो गब्बर का रोल देख कर शायद बच्चे सहम गये होंगे...

लेकिन फिर इतना इत्मीनान हो जाता कि यह तो फिल्मी कहानी नहीं है, ऐसा पहले कहीं होता होगा...फिर पता चला कि ये डकैत वकैत चंबल के बीहड़ों में अभी भी होते हैं...


पहले ये ट्रेनों में डकैतियां हिंदी फिल्मों में ही दिखती थीं...

लेकिन अब तो ....

अब तो आए दिन यह ट्रेन डकैतियों की खबरें आने लगी हैं...आम सी बात लगने लगी है शायद...लोग पता नहीं अब इन खबरों का संज्ञान लेते भी हैं या नहीं या यह सोच कर इत्मीनान कर लेते हैं कि शुक्र है कि मैं या मेरा बच्चा तो उस गाड़ी में नहीं था...

नहीं, हर जान की कीमत एक जैसी है ...उस एक जान के साथ बीसियों लोगों की जानें परोक्ष-अपरोक्ष रुप में जुड़ी होती हैं...
लखनऊ से जाने वाली ट्रेन डकैती वाली खबर ने आज सुबह का सारा उत्साह काफ़ूर कर दिया...सच मानिए, दूसरी कोई भी खबर और अगला पन्ना पटलने की इच्छा ही नहीं हुई...


पता नहीं यह पागलपन कब थमेगा! 

अब तो यही लगने लगा है कि जैसे खबरिया चैनल उस दिन उछल उछल कर घोषणा कर रहे थे कि आतंकियों को उन के घर में घुस कर मारा...अब पता नहीं इन आंतरिक आतंकियों का कब नंबर लगेगा...पता नहीं कभी लगेगा भी कि नहीं ! 

उन आतंकियों का पता तो लगा लिया गया ...उन्हें ठोक भी दिया गया लेकिन इन शातिर अंदरुनी आतंकियों का तो पता नहीं चलता ... कुछ दिन पहले किसी ने यह ज्ञान बांटा था...

सरकारें अपना काम कर रही हैं...छींकें आ जाने पर या शरीर में थोड़ी हरारत महसूस होने पर लोग अब रेल के आला अधिकारियों को तुरंत ट्वीट करने लगे हैं ...और अगले स्टेशन का डाक्टर कईं बार अढ़ाई घंटे मच्छरों से जूझते हुए उस मरीज़ को देखने के लिए ट्रेन का इंतज़ार करता रहता है ....यह बिल्कुल प्रामाणिक बात है ...

लेकिन छुर्रा-चाकू घोंप कर कोई कहीं भी गाड़ी में घुस कर डकैत-लुटेरे गायब हो जाए...निःसंदेह चिंता का विषय तो है ही ...जुबान हम लोग पूरी खोल पाएं या नहीं, यह दूसरा मुद्दा है ... लेकिन इस तरह के असामाजिक तत्वों के मन में डर-खौफ का नामो-निशान ही नहीं रहा, ऐसा लगता है .......लगता ही नहीं है सिर्फ़, पक्की बात है ! 

अब इतनी पुलिस, इतनी आरपीएफ, इतने सुरक्षा दस्ते कहां से आएं......काश! जो उचक्के पकड़े जाएं, उन को सजा देने की प्रक्रिया तेज़ हाे जाए...और सज़ा सुनिश्चित हो ....तो शायद कुछ बात बने....

वरना यही प्रार्थना करिए कि आने वाली बुलेट ट्रेन में कुछ ऐसा भी प्रावधान हो कि यह डाकू-लुटेरों का भी अपने पास पता लगा के तुरंत बुलेट बरसाने लगे...ताकि यात्रियों के माल-जान की सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके...

आम आदमी कुछ कर तो सकता नहीं....बस चुपचाप इसे सुनता रहे ...बिना कुछ बोले-कहे ...





बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

रोशनाई का काम तो है ही रोशनी फैलाना...

रोशनाई का मतलब ?.... वही स्याही जो अब जगह जगह लोगों के चेहरों पर फैंकी जा रही है...

यह पागलपन ही है एक तरह से ... कुछ और न कर सके तो किसी के चेहरे पर स्याही ही फैंक दी...हिम्मत है तो इसी स्याही को पेन में उंडेल कर कुछ कमाल कीजिए...

रोशनाई का काम तो रोशनी फैलाना है बस...कम से कम सिरफिरे लोगों को इसे तो बख्श देना चाहिए...

आज भी देखी एक तस्वीर किसी नेता जी की ... स्याही गिरने की वजह से बौखलाए हुए दिख रहे थे...

यह पता नहीं स्याही का आइडिया इन खुराफ़ातियों को कहां से आ गया है ...पहले तो हालात और भी खराब थे...जिसे देखो स्टेज पर जूता फैंक दिया करता था..

दरअसल भारत जैसे प्रजातंत्र में इन चीज़ों की कोई जगह ही नहीं है...इस तरह की पागलपंथी करने वालों की अच्छी मुरम्मत होनी चाहिए...

मुझे यह लग रहा है कि कहीं इन स्याही फैंकने वालों के चक्कर में स्याही पर ही प्रतिबंध न लग जाए....जैसे और भी कईं चीज़ों पर लगा हुआ है ...अपना नाम, अता-पता लिखवाओ..आधार कार्ड की कापी लाओ..तो मिलेगी स्याही ...वरना नहीं!

आज स्याही से पुते हुए एक नेता की फोटो देखी तो अचानक से मेरे मन में बचपन में पहली कक्षा से लेकर अभी तक इस स्याही से अपने रिश्ते की बातें एक चलचित्र की भांति चलने लगीं...पांच पैसे की दवात, पांच पैसे की रोशनाई से लेकर अब चार हज़ार की कलम से चार सौ रूपये की स्याही से लिखने की ५० साल की यात्रा....मुझे लगता है कि मैं इस यात्रा के बारे में बहुत से लेख कभी लिखूंगा...बच्चे भी बडा़ मज़ाक करते हैं कि ये बापू के हथियार हैं....मुझे लगता था कि ये जो हज़ारों रूपये के पेन हैं, ये बेकार हैं....नौटंकीयां हैं बेकार की... लेकिन नहीं....एक बार इस्तेमाल करने के बाद इन की लत लग जाती है....
इसे देख कर ४० साल पुराने दिन तो याद आ ही गये होंगे आप को भी ...
यह अकसर होता ही है ..कुछ साल पहले मैं एक जूता खरीद रहा था...एक युवक एक विदेशी ब्रांड की ही डिमांड कर रहा था...शायद वह उन के पास था नहीं...मैंने ऐसे ही कह दिया कि वह नहीं तो यह भी तो ठीक ही है...लेकिन उस युवक ने मुझे इतना कहा कि सर, adidas का जूता पहनने के बाद अब मेरे से कोई जूता पहना ही नहीं जाता...अब जब मैं भी इस तरह के दूसरे ब्रांड्स के शूज़ खरीदने की हिम्मत करने लगा हूं...बच्चों के द्वारा बार बार फटकारे जाने के बाद ...अब मैं सोचता हूं कि जूते ही यही हैं। किस तरह से हमारे ओपिनियन, शायद हमारे नखरे भी ... और हमारा नज़रिया भी चीज़ों के बारे में निरंतर बदलता रहता है ......As my son often says... "Money is damn important. It buys experiences!" मुझे भी अब कुछ कुछ ऐसा ही लगने लगा है 😀 😘

चार सौ रूपये का यह शॉक जो अब मैं झेल लेता हूं खुशी खुशी ..😀
दो चार दिन पहले मेरा बेटे ने किसी जगह अपने दस्तख़त करने थे...टेबल पर मेरा पैन पड़ा था...साईन करने के बाद कहने लगा कि बापू, कमाल का पैन है ....मजा आ गया है ...साईन करते मुझे लग रहा था जैसे मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हूं...

यह बात सच है कि जब तक हम लोग किसी चीज़ का इस्तेमाल नहीं करते ...हमें अंगूर खट्टे ही लगते हैं शायद...लेकिन एक बार इन्हें इस्तेमाल करने के बाद तो फिर बस....

जब मैंने इस तरह के कीमती पेन खरीदने शुरु किए तो भी साथ में पार्कर की इंक खरीदनी भी थोड़ी महंगी ही लगती थी...छोटी सी शीशी ५० रूपये की ....बंबई में था कुछ साल पहले तो इंक देख रहा था ...कोई आठ सौ की, कोई छः सौ की ...मैंने भी हिम्मत के चार सौ रूपये की एक शीशी ले ही ली...मैं इस तरह की फिज़ूलखर्ची करते समय आज के युवाओं के बारे में सोच लेता हूं ...वे परवाह नहीं करते पैसे की तो ...हम ही क्यों करें!

लेकिन यकीन मानिए, उस चार सौ रूपये की इंक की बोतल से मुझे पता चला कि इंक इसे कहते हैं....उस का फ्लो, उस की चमक, उस की चकाचौंध.......फिर तो मुझे उस इंक की ही लत लग गई...मैं जब भी उसे खरीदता हूं सोचता हूं कि दो पिज़्जा खरीद रहा हूं... तो चार सौ रूपये की स्याही खरीदते हुए शॉक नहीं लगता...

बस, मेरे ख्याल में स्याही के बारे में इतना ही काफ़ी है अभी के लिए...बस वही विचार है कि रोशनाई से रोशनी फैलाने का ही काम कीजिए....इस के इस्तेमाल से लोगों के जीवन से अंधकार मिटाने का प्रयास कीजिए.....इस तरह की स्याही फैंकने वाला शोहदापन हमें कष्ट देता है ...

महंगे पेन और स्याही की बातों को अब बंद कर रहा हूं ...यह तस्वीर लगा कर ... डॉयरी का यह पन्ना मैंने वही बचपन वाली कलम से उसी स्याही से ही लिखा था (लखनऊ में इस कलम को सेठा कहते हैं...) ..और यह वाला पन्ना मुझे बहुत प्रिय है ....


इंक्म टैक्स वालों के पास अगर यह पोस्ट पहुंच जाए तो पहली raid वह मेरे यहां ही मार देंगें.......लेकिन उन्हें किताबों कापियों, ़डॉयरियों, और लेखन हथियारों के अलावा कुछ भी नहीं हाथ लगने वाला....हम खुद अब अपने घर को कबाड़खाना और कभी कभी म्यूज़ियम कहने लगे हैं... और सच में यह ऐसा ही है !!

रविवार, 2 अक्तूबर 2016

पंजाबियों से नफ़रत !

कोई कोई मरीज़ भी न..

मरीज़ के साथ बहस करना, उलझना...यह सब डाक्टर लोग नही करते अकसर...मुझे भी इस से बड़ी नफ़रत है ...मैं तो बहस किसी से भी नहीं करता...शुरू से ही ऐसा ही हूं...क्योंकि मेरा सिर दुःखने लगता है बहसबाजी के नाम ही से...चुप रह कर हार मान लेना या हां में हां मिला देना ठीक लगता है ...

लेकिन फिर भी कईं महीनों के बाद एक न एक मरीज़ अच्छा सिर दुःखा जाता है ... दो चार दिन पहले एक आया था...इस तरह के मरीज़ जब कभी भी दोबारा आते हैं तो उन्हें देखते ही उलझन होने लगती है ...

यह जो बंदा था, बेहद बदतमीज, अजीब सा बोलने का लहजा, ऊंची आवाज़ ....कोई बात नहीं, फिर भी सिर पर चढ़ने को उतारू...

मैं बहुत बार अपने अटैंडेंट से भी यही शेयर करता हूं कि किसी भी डाक्टर से बेेकार में उलझना हिमाकत है .. कुछ लोगों को दस मिनट  इंतज़ार करना भी दुश्वार होता है .. बात कुछ भी नहीं हुई कहने लगा मुझे सीएमएस (हमारे अस्पताल की हैड) से बात करनी होगी...मैंने कहा कर लेना..दरअसल, मैं समझता हूं कि हम एक छोटे से कमरे में बैठ कर कईं बार परेशान हो जाते हैं ...इसलिए सारे अस्पताल को, कर्मचारी संगठनों, कर्मचारियों की सारा दिन बातें सुनना और उद्योगीय शांति के नाम पर सब को साथ लेकर चलना बहुत मुश्किल काम है .....इसलिए मैं कभी नहीं चाहता कि हम लोग अपने चीफ़ को बेकार की छोटी छोटी बातों में उलझाए रखें...जो भी है, जैसे भी निर्णय खुद कर लेने चाहिए...

यह जिस मानस की मैं बात कर रहा हूं..इसे जुकाम-खांसी भी थी...और अचानक मेंरे सामने दो तीन बार ज़ोर ज़ोर से खांसा ...मुझे इसे इतना तो कहना ही पड़ा कि मुंह पर हाथ तो रख लो ....लेकिन उसने मेरी नहीं सुनी...और मुझे उसी समय लगा कि मुझे भी यह सौगात दे रहा है ... अब आज के ज़माने में एक अनपढ़ को भी पता है कि खांसते-छींकते हुए मुंह के ढक लेना होता है...ऐसे में मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि कुछ मरीज़ जानबूझ पर यह सब करते हैं...वे समझते हैं कि चिकित्सक सुपरमैन हैं....ऐसा नहीं है...इम्यूनिटी कितना बचा लेगी...अगर हमला करने वाले कीटाणु-विषाणु की संख्या ज़्यादा होगी तो कुछ नही ंहो पाता ...हम भी इन रोगों की चपेट में आ ही जाते हैं....कल से जुकाम से परेशान हूं..

हां, एक और ४० साल का व्यक्ति याद आ गया अभी अभी ... अपनी मां के इलाज के लिए आता है ...दस बारह बार आ चुका होगा...लेखक है ...बड़े बड़े सेठों और नेताओं की किताबें लिखता है ...प्रायोजित लेखन....दो दिन पहले अचानक कमरे में आया तो कहने लगा ...डाक्टर साहब, एक बात करनी है एक मिनट...मैंने कहा ..हां, हां, बोलिए.....उसने कहा कि आप पंजाबी हैं न, मैंने कहा ..हां,   फिर उसने कहा ...."डाक्टर साहब, मैं पंजाबियों से बेहद नफ़रत करता था लेकिन आप के यहां इतनी बार आने से मेरा यह इंप्रेशन हमेशा के लिए ध्वस्त हो गया है..."

मैं हैरान हुआ और पूछा कि ऐसा क्यों?.....कहने लगा कि मेरा किसी पंजाबी लड़की से प्यार हो गया था...आगे मैंने कुछ नहीं पूछा....वैसे वह ब्राह्मण परिवार से संबंध रखता है ...

मैं इसलिए खुश हो गया कि चलो, इसी बहाने पंजाबियों और पंजाबियत की सेवा ही कर दी मैंने कि उन के प्रति घृणा को मिटा दिया किसी इंसान के मन से ...हा हा हा हा हा हा ...

एक मरीज़ आता था, मुंह के छाले से ....पहले तो औरों से दवाई लेता रहा ..फिर मेरे पास आने लगा ...मुझे लगा कि इस की बायोप्सी होनी चाहिए.... मैंने उसे कहा कि बायोप्सी करते हैं.. नहीं माना, हर बार बहस...आप को मुझे दवाई देने में दिक्कत ही क्या है, आप दवाई ही नहीं देना चाहते....तीन चार पांच बार मैं उस का कहना मानता रहा....उस के बाद मैंने दवाई देने से मना कर दिया....तब उसे लगा कि बायोप्सी करवा ही लेनी चाहिए...बायोप्सी में कैंसर होने की बात पुष्ट हो गई..कैंसर रोग विशेषज्ञ के पास भेजा गया ....उसने कहा कि बहुत ही सही समय पर आ गये हो, दो तीन साल पहले की बात है ...उस की सर्जरी हो गई और वह ठीक ठाक है ...अब कहता है कि आपने बहुत अच्छा किया कि मुझे दवाई देने से जब मना किया....लेकिन उसे भी देखते ही मेरा सिर भारी हो जाता था.....बहुत बहस किया करता था...अब दो तीन महीने में आता है चैक अप के लिए और मैडीकल कालेज के डाक्टर की बात कहता है कि तुम तो अपने डाक्टर को ही दिखा लिया करो जिसने तुम्हें वक्त रहते हमारे यहां भेज दिया...

हर मरीज़...हर इंसान अलग है ... पंजाबी खराब नहीं होते....बहुत बार हम लोग ऐसे ही अपने मन में एक ओपिनियन बना लेते हैं....बेवकूफी होती है बिल्कुल ......लेकिन हम बाज कहां आते हैं! ..हर शख्स अपने आप में विलक्षण है....यह शिक्षा मुझे टाटा इंस्टीच्यूट आफ सोशल साईंसेस, बंबई  में पढ़ते हुए मिली...