शनिवार, 10 सितंबर 2016

तिनके का सहारा...

अगर इस पोस्ट को पढ़ने वाले डाकखाने, बैंक, बिजली बोर्ड के दफ्तर या किसी की सरकारी कार्यालय में स्वयं जाते हैं तो वे मेरी बातों से अच्छे से रिलेट कर पाएंगे ..वरना जो सभी कामों के लिए अपने चपरासियों पर आश्रित हैं, वे कृपया इसे पढ़ने में अपना समय व्यर्थ न गवाएं...

बैंक से बात याद आई...कुछ साल पहले हमारे एक सीनियर ने हमें एक बार अच्छे से समझा दिया कि लोग अपने जिस चपरासी को अकसर अपनी बैंक का पास-बुक थमा देते हैं ...जाओ एंट्री करवा आओ, पैसे निकलवा लाओ...ऐसे लोग ही आप के लिए सब से बड़े विजिलेंस इंस्पैक्टर होते हैं ...उन दिनों पैसे भी ये चपरासी लोग ही निकलवा कर लाया करते थे...एटीएम चले नहीं थे...उन्होंने बताया कि आप की हर ट्रांजेक्शन पर हर एंट्री पर उन की नज़र होती है..

यार, बात तो डा मिट्टू साहब की मन को छू गई..और पल्ले बांध के गांठ बांध ली...

बैंक में अपना काम है तो ज़ाहिर सी बात है कि खुद ही जाना पड़ेगा... लेकिन बहुत बार कापी प्रिंट करने वाला बाबू नहीं होता, वह होता है तो प्रिंटर बीमार होता है , दोनों अपनी जगह पर तने हुए हैं तो नेटवर्क गायब होता है ...बेशक सिरदर्दी तो हो गई है ...लेेकिन कुछ तकलीफ़े सहने के लिए ही होती हैं..आप अपने पास ही खड़े ८० साल के बेबस बुज़ुर्ग को पसीना पोंछते देखते हैं तो आप को भी बिना किसी चूं-चपड़ के चुपचाप खड़े रहने की एक वजह मिलती है....मुझे आप का तो पता नहीं, लेकिन मेरे साथ ऐसा ही होता है...

डाकखाने में गये तो स्पीड पोस्ट खत उस समय बुक किया जाएगा या नहीं...वही समस्याएं अभी तो दूसरा काम फंसा हुआ है, प्रिंटर में दिक्कत, नेटवर्क लोचा, मुझे कईं बार यह अहसास होने लगता है जैसे कोई जुर्म तो नहीं कर दिया यहा आकर.....और यह सब बहुत बार होने लगा है ....

हर दफ्तर से संबंधित मेरे पास बहुत से तजुर्बे हैं ...क्योंकि मैं हर काम खुद करने में विश्वास रखता हूं ...वरना आदतें इतनी ज्यादा खराब हो जाती हैं ..देखते हैं हम कुछ सेवानिवृत्त लोगों को ...कि उन की ८० प्रतिशत तकलीफ़ें तो पुराने अच्छे दिनों को याद करने में ही गर्क हो जाती हैं..ये बातें हमें हमारे पिता जी ने ही बचपन में अच्छे से समझा दी थीं कि हमेशा अपना काम खुद करने की आदते डालो....वरना बाद में रिटायर दरोगा कि तरह परेशान होना पड़ेगा...

सही बात है ..रिटायरमैंट के बाद अकसर कौन किसी को पहचानता है ...अकसर ..लेकिन कुछ अच्छे लोगों को मिलने के लिए लोग तब भी आतुर रहते हैं ..कुछ तो हमेशा के लिए फिर कभी नज़र ही नहीं आते ..गधे की सींग की तरह....बात सोचने वाली यह है कि हम किसी से दिन में बीसियों बार सेल्यूट एक्सपैक्ट ही क्यों करें, कर रहें न सब अपनी अपनी ड्यूटी ....सफाई सेवक अपनी बेहतरीन सेवाएं दे रहा है, हमारे कमरों को टनाटन रखता है, मैं लोगों के दांतों को टनाटन रखता हूं ...वह एक दिन नहीं दिखेगा तो काम नहीं चलेगा...दांतों का तो लोग जो हाल कर रहे हैं, हम सब जानते ही हैं..

ओह माई गॉड , यह मैं किधर निकल गया....

हां, तो मुझे कुछ इस तरह के विचार आ रहे थे सुबह थे...बलराज साहनी साहब का एक लेख देख रहा था ..वे एक बार लाहौर गये अपने एक मित्र के निमंत्रण पर...वह उन्हें लाहौर स्टेशन रिसीव करने आए...साहनी साहब लिखते हैं कि उन की वजह से मेरी कोई भी सिरदर्दी कस्टम चैकिंग, और भी सामान खुलवा कर देखने की प्रक्रिया कुछ भी नहीं हुई...बस, दो मिनट में हम लोग फ्री हो गये ..और यही नहीं, उन दोनों को वहां के अफ़सरों ने चाय भी पिलाई ... लेकिन मजे की बात, साहनी साहब इस से खुश नहीं थे, वे लिखते हैं कि मैं तो लाहौर के एक एक प्लेटफार्म पर घूमना चाह रहा था....मैं उन की बात से इत्तेफाक रखता हूं क्योंकि अगर मैं अमृतसर जाऊं तो मैं भी वहां के प्लेटफार्मों पर भी बहुत सा समय बिताना चाहूंगा...

हां, तो पहचान की बात हो गई कि किस तरह से पहचान की वजह से हमारे काम आसान हो जाते हैं...

नोयडा में मेरा एक बैंक खाता है ... वहां से मुझे नया एटीएम कार्ड लेना हो, नई पासबुक इश्यू करवानी हो, या और भी कुछ काम हो तो मैं अपने एक मित्र को ज़रूर साथ ले लेता हूं ..क्योंकि उस की वहां पर अच्छी पहचान है, सारा स्टॉफ उस का सम्मान करता है, मुझे वहां कौन पहचाने, काम भी पांच मिनट से पहले हो जाता है और चाय की सेवा भी ...(जिस की मुझे बिल्कुल भी इच्छा नहीं होती..) -वैसे तो अपने अपने घटिया -बढ़िया जैसे भी हों, फंडें हैं...मेरा यह है कि कामकाज की जगह में आने वालों का चाय पानी नाश्ता खिलाना पिलाना या पूछना ही ठीक नही ंहै..हां, पानी तक ठीक है, वरना उस फार्मेलिटी के चक्कर में पब्लिक परेशान हो जाती है ....मैंने हमेशा से इसे फॉलो किया है ...अस्पताल में बैठे हैं यार, किसी रेस्टरां में तो नहीं, इतने ही संबंध प्रगाढ़ करने की फिक्र है तो बंदे को घर में बुला कर उस की टहल-सेवा कीजिए...यह मेरा अपना दकियानूसी नज़रिया हो सकता है, लेकिन मैं इसे कभी बदलने वाला नहीं...कभी किसी के लिए साल में शायद एक बार यह काम करना पड़ता है तो मुझे बड़ी तकलीफ होती है, सब से बड़ी तो यह कि जब तक चाय आ न जाए, कुछ और काम किया ही नहीं जा सकता, फिजूल की बातें करते जाइए और सुनते जाइए... सीधी सीधी बात है, अगर हम ने किसी का काम वह कर दिया जो वह करवाने आया है तो  इसी में चाय, छाछ, मट्ठा, मिठाई सब कुछ आ जाता है ...वरना हमें भी मीठी गोलियों को स्टॉक भरपूर रखना पड़ता है ..

हां, मैं बैंक की बात कर रहा था कि दूसरे शहर में मैं वहां भी किसी सहारे के नहीं जाना चाहता ..सिर्फ़ इसलिए कि मुझे वहां चंद घंटे ही ठहरना होता है और पता नहीं बड़े बाबू का मूड कैसा हो, कैसा न हो..अगर अगली तारीख पड़ गई तो बड़ी दिक्कत हो जायेगी....

अब ज़रा पुलिस स्टेशन की बात कर लें... हमारे गृह-नगर में हमारे घर में चोरी हो गई कुछ साल पहले ...चोर सब कुछ ले गये ...क्या करें, वहां कोई रहता नहीं है, ताला लगा हुआ था..अब नौकरी करें या उसे संभालें...बहरहाल, मुझे यह तो पूरी उम्मीद थी कि कुछ भी वापिस मिलने वाला तो है नहीं, लेेकिन फार्मेलिटी के तौर पर रपट तो लिखवानी ही पड़ेगी...मैं पहली बात किसी थाने में गया था...उसने मेरी रपट नहीं लिखी... बस, एक सादे कागज़ पर मेरी तरफ़ से एक चिट्ठी लिखवा के रख ली...मुझे भी पता था कि इस को होना-हवाना कुछ नहीं है...अगले दिन आया वह दबंग दरोगा ...चोरी हुए सामान में दो-तीन तोले सोना और लगभग दो हज़ार की रकम भी शामिल हुई देख ...बड़ी लापरवाही से कहने लगा...आज कल सोना कौन घर में रखता है और पैसा भी कौन ऐसे रखता है ...लोग १००-२०० रूपया झट से एटीएम से ही निकलवाते हैं ..यह २००७ की बात है ...मैं तो सब समझ ही रहा था, वह वहां से दफ़ा हुआ तो मैंने शुक्र किया ... शायद रपट इसलिए नहीं लिखी गई क्योंकि मेरे साथ कोई रसूख वाला आदमी नहीं था...

अस्पतालों में ही देख लीजिए...वहां पर काम करने वाला कोई भी कर्मचारी जब अपने किसी परिचित मरीज़ के साथ डाक्टर के पास जाता है तो उस मरीज़ में एक आत्मविश्वास पैदा हो जाता है ...जब मेरे जैसे लोगों का खून बहुत गर्म होने की वजह से उछाले मारता है तो हम लोग उस दिन तो नहीं, अगले दिन उस मरीज़ को इतना ज़रूर कह दिया करते कि फलां फलां को साथ लाने की क्या ज़रूरत थी, क्या मेैं वैसे तु्म्हें न देखता, उसी के साथ लाने पर ही क्या देखता.... फिर धीरे धीरे समय बीतता गया, मैं भी आप सब की तरह अपने प्रोफेशन में घिसता चला गया...घिसते घिसते कुछ बातें समझ में आने लगीं....कि अगर मैं किसी अनजान जगह पर जाता हूं तो किसी पहचान को ढूंढता हूं ...छोटी से छोटी, बड़ी से बड़ी, काम बन पाए या न , वह अलग बात है.....लेकिन मैं ढूंढता तो हूं ही ... इसलिए अब यह हालत है कि कोई मरीज़ अगर किसी हमारे कर्मचारी को साथ लेकर आता है तो मरीज़ के सम्मान के साथ साथ मैं उस साथ आए हुए बंदे को भी अच्छे से एक्नालेज करता हूं... अगर कोई यूनियन नेता साथ होता है तो उसे भी आराम से मंत्री जी, प्रधान जी, कामरेड जी... इतना कहने में मेरा कुछ नहीं जाता, मरीज़ को अपने साथ चलने वाले बंदे के मार्फ़त मेरे में विश्वास हो जाता होगा....अब यह कितना हो पाता है या नहीं, पता नहीं, कभी इस के आगे जाने की कोशिश नहीं की, न ही फुर्सत थी कभी ....

लेकिन तिनके के सहारे वाली बात तो है एकदम पक्की ...अब जो है सो है... मुझे तिनके से यह बात याद आ गई...



अपनी मातृ-भाषा में लिखना बातें करने जैसा



आज से १५-१६ वर्ष पहले एक नवलेखक शिविर में एक उस्ताद जी ने हम लोगों को समझाया था कि अपनी मातृ-भाषा में भी ज़रूर लिखा करो ...

उन की बात कुछ कुछ समझ में आई..कुछ कुछ न आई..और शायद न ही समझने की कोशिश की ...बस, एक ही खुमारी चढ़ी हुई कि बस, हिंदी में ही लिखना है...

ठीक है, हिंदी में लिखना ठीक है, अपनी राष्ट्रभाषा है ....

लेकिन जिस तरह से हम लोग अपने आप को अपनी मातृ-भाषा (mother tongue) में एक्सप्रेस कर सकते हैं वह किसी दूसरी भाषा में हो ही नहीं सकता...

मैं इंगलिश ठीक ठाक लिख लेता हूं...हिंदी भी ठीक ठाक ही है ..(no bragging intended!) ... और इस के पीछे कम से कम बीस वर्ष की लिखने-पढ़ने की साधना है ...जिस के बारे में मैं अकसर लिखता रहता हूं..

लेकिन इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी जितना खुलापन मैं पंजाबी लिखते पढ़ते हुए महसूस करता हूं वह हिंदी लिखते हुए नहीं कर पाता हूं ...अंग्रेज़ी की तो बात ही क्या करें...और यह स्वभाविक भी है ...

मैं अकसर शेयर करता हूं कि मातृ-भाषा में लिखना, बात करना अपनी मां से बात करने जैसा है...जिस तरह से हम लोग जितनी बेतकल्लुफ़ी से अपनी मां से बात कर लेते हैं, उतना हम किसी दूसरे से शायद ही खुल पाते हों ..कुछ सोचना नहीं पड़ता, शायद बोलने से पहले तोलना भी नहीं पड़ता...क्योंकि शब्द अपने आप झड़ते हैं...

मैंने भी पंजाबी भाषा (गुरमुखी स्क्रिप्ट) में कुछ वर्ष लिखा ..जब तक हम लोग फिरोज़पुर में थे ...पंजाबी अखबारों में लेख भेजता था ..वे छपते भी थे..लेकिन बाद में वह लिखना छूट गया...लेकिन कभी कभी पंजाबी भाषा में कुछ भी पढ़ ज़रूर लेता हूं ..विशेषकर पंजाब शिक्षा शिक्षा बोर्ड द्वारा प्रकाशित पाठ्य-पुस्तकें ...इन में से कुछ तो मैंने कुछ साल पहले खरीदी थीं, जो नहीं हैं उस के लिए अपने एक सहपाठी मित्र को जो अमृतसर में अब शिक्षा विभाग में वरिष्ठ अधिकारी हैं, उन्हें भिजवाने के लिए कहा हुआ है..

आज सुबह मैंने एक ऐसी ही किताब उठाई ....अक्खी डिठ्ठी दुनिया...(हिंदी में इसे कहेंगे ..आंखों देखी दुनिया..) यह पंजाब की ११ वीं कक्षा की पाठ्य-पुस्तक है...इस में बड़े बड़े साहित्यकारों के लेख हैं...जैसा उन्होंने दुनिया को देखा ..

मैंने इस में बलराज साहनी जी का एक लेख पढ़ा... रज्जी-पुज्जी मिट्टी ...अब मैं आप को इस का मतलब समझाऊं...अच्छा, जब हम लोग अच्छे से खा पी लेते हैं ..तो एक संतुष्टि का अनुभव करते हैं न, उसे कहते हैं कि हम रज्ज-पुज्ज गये हैं...बलराज साहब ने इस बात को मिट्टी के साथ जोड़ा है ...


उन्होंने यह लेख पंजाबी में लिखा है ..पहले वे इंगलिश में लिखते थे, फिर हिंदी में लिखने लगे ..फिर कहीं जा कर पंजाबी की बारी है ...लेकिन इस लेख के बारे में मैं यह कहना चाहूंगा कि यह इतना बढ़िया लेख है कि मेरे पास इस की प्रशंसा करने के लिए शब्द ही नहीं हैं...मैं कोशिश करूंगा कि इस का हिंदी अनुवाद कहीं से ढूंढूं ..अगर नहीं भी मिला तो भी मैं इस का अनुवाद कर के आप से शेयर करूंगा...

इसमें साहनी साहब ने अपनी लाहौर यात्रा का वर्णन लिखा हुआ है ...बेहतरीन लिखा है ...इतनी ईमानदारी से लिखा कि क्या कहूं...

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

मंजे उठने पर इतना बवाल क्यों भई !


अभी कुछ दिन पहले राहुल गांधी की खाट पे चर्चा कार्यक्रम के बाद लोग लगभग २००० मंजे अपने साथ लेकर चले गये...कल देखा अखबार में ..परसों सोशल मीडिया पर भी यह बात छाई रही ...लेकिन मेरे विचार में यह कोई मुद्दा ही नहीं...

इतनी इतनी रईस ये सब राजनीतिक पार्टियां हैं, अगर २००० मंजे लोग अपने साथ एक सोविनर की तरह अपने साथ ले भी गये तो इन पार्टियों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। एक बात पब्लिक इशारा तो करे कि वोट भी उसका जिस का मंजा ...तो लाइन लग जायेगी मंजे देने वालों की ...

कुछ लोगों के कमैंट्स इस मुद्दे पर कल दिखे...
खाट ले जाने वाले चोर और माल्या डिफॉल्टर यह सही नहीं: राहुल
कांग्रेस उपाध्यक्ष ने कहा कि खाट ले जाने वालों को चोर और विजय माल्या को डिफॉल्टर कहा जा रहा है। यह सही नहीं है। 

बदलना होगा इस परसेप्शन को
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की खाट पंचायत का हवाला देते हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा, यदि सपा के कार्यक्रम में इस तरह की घटना होती तो खबर छपती कि समाजवादी गुंडों ने खाट लूट लीं। मगर, कांग्रेस के कार्यक्रम में ऐसा हुआ तो कहीं नहीं छपा कि कांग्रेसी गुंडों ने खाट लूट ली। अखिलेश ने कहा, यह परसेप्शन ठीक करने की जरूरत है।  

सिंचाई मंत्री यूपी सरकार शिवपाल ने कहा ... राहुल गांधी खाट पर बैठने की नौटंकी कर रहे हैं।  

खाट पर चर्चा तो मैं भी अभी करूंगा ..लेकिन नौटंकी वाली बात पर याद आया कि नौटंकी तो सारे ही कर रहे हैं लेकिन बड़े लोगों की नौटंकी किसी की समझ में आती नहीं, जब आती है तब तक देर हो चुकी होती है ...आम आदमी की नौटंकी से याद आया कि कल रात में यहां लखनऊ में हमारे घर के पास एक राम डोर मेला लगा हुआ था...बड़ी भीड़ थी...और अव्यवस्थित वाली भीड़...मैं भी चंद मिनट उस तरफ़ गया...जगह जगह नौटंकी भी चल रही थी... जिस में १५-२० वर्ष की छोटी छोटी बच्चियां अजीब तरीके से डांस कर रही थीं...मुझे यह अजीब सा लगा ...लेकिन एक बात है कि वे लोग नौटंकी के नाम पर नौटंकी कर रहे थे...लेकिन बड़े लोगों का कुछ पता नहीं चलता कि कौन नौटंकी कर रहा है, कौन नहीं...समय ही यह राज़ खोलता है! आज शाम को इस रामडोर मेले पर भी एक रिपोर्ट लिखूंगा....
लखनऊ के बंगला बाज़ार में कल शाम राम डोर मेले का एक दृश्य 
बहरहाल, खटिया चोरी होने की बात करते हैं ...इतना बवाल तो तब भी नहीं हुआ था जब २० -२५ साल पहले गोबिंदा और करीना ने जाड़े के मौसम में अपनी खटिया सरकाने वाला गीत गाया था..मुझे तो वह गीत सुन कर ही ऐसा लगता था जैसे कि भूचाल आ गया हो...

खटिया को हम लोग पंजाब में मंजा कहते हैं और इस तरह के मंजे जैसे पब्लिक ने उठा रखे हैं इन्हें नवारी मंजे कहते है ं...मुझे व्यक्तिगत तौर इन पर आराम करना बहुत पसंद है ...बचपन में हम लोग इन्हीं मंजों पर ही गर्मी के दिनों में आँगन में सोया करते..घमौरियां होती तो और भी बढ़िया...मैं नीचे बिछौना भी न बिछाता बहुत बार ...क्योंकि हिलने ढुलने से खारिश ठीक होने का सुख भी मिल जाया करता...हर आंगन में एक लाइन मेें ये मंजे तरतीब से लगे होते ...और एक लकड़ी के स्टूल पर एक टेबल फेन चल रहा होता ... बढ़िया नींद, उमदा सपने, सुबह उठने पर अंग अंग में ताज़गी का अहसास....

फिर १९८० के दशक में वे फोल्डिंग वाले मंजे आ गये ... किसी किसी घर में होते थे ...लोग उसे खोलने के लिए साथ में किसी की मदद लिया करते ...वरना वह उछल कर मुंह की तरफ़ आ सकता था ..मैंने १९८४ में नई नई डिग्री ली थी ...एक दिन अचानक एक कंपांऊडर जो हमें सूईंयां घोंपा करता था...वह अपनी बीवी को ले कर आया कि लोहे वाला मंजा खोलते समय मुंह पर लगा और होंठ से खून निकल रहा है ...और दांत आगे वाला हिल गया है ....पहली बात मुझे अहसास हुआ कि मैं भी किसी के काम आ सकता हूं....फर्स्ट एड दी, समझाया कि इस दांत को रेस्ट चाहिए कुछ दिन, इस से कुछ भी काटना नहीं, दो एक दवाई लिख दी.। तो ऐसा आतंक था इन लोहे के पलंगों का ....लोग खोलते समय बड़ा सचेत रहा करते थे!
 कितना लिखें....इन मंजों पर ...हमारा क्या है, हमें तो और कुछ आता नहीं, लिखते ही चले जाएंगे....

बंद करता हूं इस मंजा पुराण को यहीं पर .... मंजे से याद आया ..हम लोग एक बार दादर के प्रीतम हाटेल पर खाना खाने गये बंबई में...वहां पर बीसियों मंजे बिछे हुए... और वेटर भी तंबे वाले ....बर्तन भी पेंडू...और दाल भी धीमे आंच पर तैयार हुई ....सब कुछ पंजाब के गांव जैसा या एक पेंडू ढाबे जैसा......पहली बार उस दिन बंबई में किसी ढाबे में खाना खाने का मज़ा आया...

बस, यही बंद कर रहा हूं ... अभी पुरानी ऐल्बमें देखीं कि कोई मंजे वाली फोटो तो देखूं....बहुत सी थीं, लेकिन अब एल्बम बीच बीच में खाली हो चुकी हैं...पहले हम लोग एक एक फोटो को अच्छे से सहेज कर रखते थे, अब तो एक दिन पहले वाली शेल्फी भी अगले ही दिन फोन में जगह कम होने की वजह से डिलीट कर दिया करते हैं.... we have become foolishly practical!

तुझे सूरज कहूं या चंदा ...


तोंदू तोतला बनने से पहले वाले मास्टरी के दिन १९९० के आसपास ...बेकार में मैंने लाइन बदल ली.. 
साईकिल भ्रमण २००० के आसपास...फिरोज़ुपर पंजाब 

२५ साल पहले की मधुर यादें...
२०००२-०३ के दिन थे..इसे भी शिमला पहुंचते ही कुछ ऐसी हवा लगी कि इसके तेवर ही बदल गये... 
जाते जाते यह विचार आ रहा है कि जिस तरह से ऊपर मंजों की लूट-घसोट दिख रही है, मुझे मेरे बचपन की बात याद आ गई जब दशहरे का मेला तभी सफल माना जाता था जब रावण के जलने के बाद उस के पिंजर की कोई जली-सड़ी एक छोटी सी लकड़ी हाथ में लग जाती थी जिसे लोग घर ले जाया करते थे...अगर तो वे इसे बुराई पर अच्छाई के लिए एक रिमांइडर या सोविनर या प्रतीक की तरह ले कर जाते हैं तो बात समझ में आती है ...वरना तो सब बेवकूफियां हम भी करते ही रहे हैं...अब रावण के पिंजर की एक लकड़ी या एक सस्ता सा नवारी मंजा ...क्या फर्क पड़ता है, जिसे ज़रूरत थी ले गये....मिट्टी पाओ यारो ते एह वधिया जिहा पंजाबी गीत सुनो ..जिस तो बिना पंजाब दा कोई वी लेडीज़ संगीत पूरा नहीं हुंदा ...मेरी मंजी थल्ले कौन, भाबी दीवा जगा..... इसे सुनिए ज़रूर, बहुत बढ़िया है .....



गुरुवार, 8 सितंबर 2016

तंग शूज़ का राज़


कल रात मैं एससी सुपरफॉस्ट एक्सप्रेस जिसे राजधानी भी कहते हैं ...इस से नई दिल्ली से लखनऊ आ रहा था ..यह गाड़ी ११.३० बजे रात को नई दिल्ली से छूटती है और सुबह ७.३० बजे लखनऊ स्टेशन पर पहुंच जाती है ..

एसी फर्स्ट का माहौल मुझे बड़ा फीका-सा ही होता है ... सब लोग एक दम सीरियस से, और कॉरीडोर में चपरासियों, मातहतों, और सिक्योरिटी वालों का तांता....किसी के कुछ विशेष इंट्रेक्शन का ज़्यादा स्कोप नहीं होता और अगर सामने वाला बंदा मेरे जैसा संकोची स्वभाव का हो तो हो गया इंट्रेक्शन...मेरे तो मरीज़ ही हैं जो मेरे से मन की बातें उगलवा लेते हैं और अपनी बातें भी खुल कर लेते हैं...वरना तो मेरे संकोची स्वभाव का किसी को मेरे चिट्ठों से शायद ही गुमान हो पाता हो!

हां, जैसे ही मैं फर्स्ट एसी के उस केबिन में गया ...नीचे वाली सीट पर बैडिंग पहले से ही सलीके से बिछी हुई थी ...अन्य दो यात्री अपने अपने फोन पर लगे हुए थे...एक साहब फोन पर आखिरी समय में एसी फर्स्ट में सीट मिल जाने की खुशी ब्यां कर रहे थे ....मेरी ऊपर वाली बर्थ पर थे यह ...खुश थे कि टिकट तो कंपनी ही करवा देती है ...कल लखनऊ ..फिर वहां से इलाहाबाद और क्या पता अगले दिन कलकत्ता जाने का फरमान मिल जाए...

खैर मैंने ऊपर लिखा है न कि इस फर्स्ट एसी श्रेणी में किसी का किसी से कोई इंट्रेक्शन तो होता नहीं ..लेकिन जितने जितने हमारे फोन आते जाते हैं...हम न चाहते हुए भी अपना परिचय देते रहते हैं...ऐसा हम सब के साथ होता है, यह कोई नई बात नहीं..

ठीक है केबिन के दरवाजे को चिटकनी लगाई और हम लोग सो गये....सुबह साढ़े छः बजे मैं उठ गया...मैं वॉश रूम में जाने लगा ..जुराबे तो मैंने पहन ही रखी थीं, मैंने अपनी सीट के नीचे रखे शूज़ डाले ...कुछ ज्यादा ही टाइट लगे ...मुझे महसूस हुआ कि यह क्या बात हुई ...शूज़ टाइट कैसे हो गये! वैसे वॉश-रूम से लौटने तक मैंने इस के बारे में कुछ ज़्यादा मैंने अपने तंग शूज़ के बारे में सोचा नहीं...

वॉश-रूम से लौटा तो १३९ नंबर से ट्रेन को स्पॉट किया ..पता चला कि आठ मिनट की देरी से चल रही है ... मैं सोचा कि अब क्या फिर से लेटने का झंझट करना ...बाहर का नज़ारा देखते है ं....मैंने नीचे वाली सीट ऊपर उठा दी ताकि बैठने में आसानी हो जाए...और मैं बाहर ताकने लगा ...कुछ समय बाद मलीहाबाद, फिर काकोरी, और फिर आलमनगर ....गाड़ी आलमनगर स्टेशन पर ३०-४० मिनट खडी हो गई...

एक परेशानी आज कल एसी के डिब्बों में एसी टू और एसी फर्स्ट में यह हो गई है कि नीचे की सीट वाला कोई भी बंदा उसे ऊपर उठाता नहीं ..सारा दिन बिस्तर फैला कर रखते हैं और इसलिए पसरे रहते हैं ताकि ऊपर वाला बंदा कहीं किनारे में न आकर बैठ जाए...हम उस दौर के पुराने लोग हैं जब लोग सुबह सात बजे नीचे वाली सीट को ऊपर उठा देते थे ताकि ऊपर वाला बदकिस्मत बंदा भी कुछ इधर-उधर-बाहर-अंदर झांक तो ले बेचारा....उसने भी टिकट खरीदी है!

हां लगभग साते सात बजे ऊपर वाला भला-मानस भी नीचे उतर आया तो तैयार हो के बैठ गया..मेरे साथ ही नीचे वाली सीट पर ....मैं एक पंजाबी लेखक कुलवंत सिंह विर्क साहिब की कहानी-किस्सों की किताब पढ़ रहा था लेकिन बीच बीच में मेरा मन अपने कसे हुए शूज़ को बिना देखे उसके कारण टटोलने में लगा रहा ...

अपने शूज़ पहनते ही मेरी समस्या हल हो गई ..
किसी बंदे के शूज़ का इस तरह से अचानक तंग होना मैडिकल दृष्टि से ठीक नहीं होता...इस का मतलब होता है कि पांव में सूजन आई ....और सुबह उठते वक्त ही अगर पांव में सूजन है तो और भी चिंता की बात होती है ...कईं बार किसी किसी बंदे के पांव थोड़ा सूज जाते हैं सारा दिन खड़े रहने की वजह से ...या अन्य कारणों की वजह से ..जिस की सामान्य चिकित्सक उचित जांच भी करते हैं ...लेेकिन मुझे यही लग रहा था कि मेरे शूज़ अचानक तंग कैसे हो गये...इतने कसे हुए!

 फिर मेरी दिमाग की फिर्की घूमने लगी कि अभी तो मैंने तीन चार दिन से ही एक दवाई लेनी शुरू की है ...कहीं इस का कोई साइड-इफेक्ट तो नहीं कि शरीर में फ्लूयड-रिटेंशन होने लगा है ...सोचा, कोई बात नहीं, विशेषज्ञ से बात करेंगे...

इसी उधेड़बुन में था और गाड़ी रूकी ही हुई थी कि मेरे सहयात्री के ये शब्द मेरे कानों में पड़े ..."भाई साहब, कहीं आप के और मेरे शूज़ बदली तो नहीं हो गये"

लीजिए, मेरी समस्या का हल मिल गया...मैंने उन की पीठ पर गर्मजोशी से हाथ मारा ..और कहा कि मैं, सुबह से इस बात का कारण जानने की कोशिश कर रहा था कि मेरे शूज़ अचानक इतने टाइट कैसे हो गये. उन्होंने ठहाका लगाते हुए बताया कि वे अपनी जगह परेशान थे कि रात रात में ही ऐसा क्या हो गया कि शूज़  इतने लूज़ हो गये....इतना कहना था और जब हमने नीचे अपने जूतों की तरफ़ देखा तो हमारे केबिन में खूब ठहाके लगे .... हम दोनों के शूज़ बिल्कुल एक जैसे थे ...उस भद्रपुरूष की यह विनम्रता थी (वे इलाहाबाद से थे) कि कहने लगे कि मेरे तो बिल्कुल सस्ते से शूज़ हैं.. मैंने कहा ...नहीं, यार, मेरे भी कौन से जापानी हैं! मैंने उस बंदे को अपने जूते डाले देखा तो इतने लूज़ कि मुझे हैरानी हुई कि यह बंदा यह पहन कर वॉश-रूम भी कैसे हो कर आया होगा!

फिर तो बातें होती रहीं...मैंने कहा कि मुझे शूज़ इतने तंग लग रहे थे कि मेरे से तो पहने ही नहीं जाते ...वह बताने लगे कि इतने खुले शूज़ के साथ तो मेरे से तो चलना दूभर था ...मुझे तो स्टेशन पर उतर कर पहले जूते की दुकान ढूंढनी पड़ती....एक बात फिर से माहौल ठहाकामय हो गया...

८.३० के करीब लखनऊ चारबाग स्टेशन पर हम पहुंच गये ...और अपने अपने गन्तव्य स्थान की तरफ़ प्रस्थान किया....एक सबक फिर मिल गया आज कि संवाद से हर बात का हल हो सकता है ...बोल चाल बंद नहीं करनी चाहिेए...वरना, अकसर इन गाड़ियों में ऐसा ही होता है कि हम लोग बिन बात किए जैसे अपने कैबिन में घुसते हैं, उसी तरह कोरे ही बिना किसी संवाद के अपना स्टेशन आने पर ट्रेन से बाहर आ जाते हैं...

आज से चालीस साल पहले कथा-कीर्तन पर भी चप्पलें अदला-बदली हो जाया करती थीं अकसर ... लेकिन वह कोई इश्यू नहीं होता था क्योंकि लगभग सभी की सभी तीन रूपये वाली कैंची चप्पलें घिसी पिटी हालत में हुआ करती थीं...अगर अपनी नहीं मिली तो लोग तुरंत दूसरी पहन कर पतली गली पकड़ लिया करते ...बस, इतना सा ध्यान कर लेते थे कि उस की पहले से मुरम्मत न हुई हो ... हा हा हा हा हा ...कितने सीधे थे लोग भी पहले!

मैं बाहर आते समय यही सोच रहा था कि हम लोग जब ज़रूरत से ज़्यादा पढ़ लेते हैं तो अपने ऊपर इतना आत्मविश्वास करने लगते हैं ...ओवर-कॉंफिडैंस की हद तक ...कि we start taking everything for granted! ... मेरी प्रोफेसर बहन एक बार हमारी मां को स्टेशन पर छोड़ने आई तो फिरोजपुर की गाड़ी की जगह चेन्नई की गाड़ी में लगभग रवाना करने ही वाली थीं कि जीजा जी ने बचा लिया......कल मैं दिल्ली मैट्रो में उलट दिशा में वैशाली की बजाए द्वारका की तरफ़ छः स्टेशन चला गया...फिर से पलट कर आया...

वही पंजाबी बेबे की बात ही ठीक है ..एक बस में बैठ गईं पोटली के साथ....कंडैक्टर को बोल दिया कि पुत्तरा मानां वाला पिंड आवे तो दस देवीं....कंडैक्टर ने कहा कि जी, बीबी जी, दस दिआंगे ...लेकिन बेबे को चैन नहीं पड़ रहा था...बार बार दस मिनट में एक बार पूछ ही लेती ...कंडैक्टर कहता ...बेबे, किहा न ...तुसीं चिंता न करो...दस दिआंगे ते तुहानूं मानावालां पिंड पहुंचन ते ...लेकिन इस चक्कर में हुआ यह कि मानांवाला पिंड निकल ही गया..बस दस किलोमीटर आगे आ गई तो कंडेक्टर को बेबे पर दया आई और उसने ड्राईवर को बताया कि बेबे तो यार बार बार याद दिला रही थी, बहुत माड़ा हो गया..हम आगे निकल आए...यार, मेरी बेनती है ..बस पिच्छे ले ले......जी हां, वही हुआ....वे लोग वापिस मानांवाला पिंड दे स्टॉप ते आ गये और बेबे को कहा ....आ गया जी बीबी जी मानांवाल उतर जाओ........बेबे ने कहा ..हाय वे, मैं तो जाना अमृतसर ऐ....मुंडे ने तो बस पक्केयां कीता सी कि मानावालां पिंड पहुंचन ते अपनी दवाई खा लिओ ज़रूर.....

हां, जूतों पर यह पोस्ट लिखते लिखते मुझे एक बेहतरीन फिल्म बम बम बोले का ध्यान आ गया...कुछ साल पहले देखी थी, नाम नहीं याद आ रहा था ... छोटे बेटे से पूछा कि वह कौन सी फिल्म थी जिस में एक छोटी सी प्यारी सी बच्ची के शूज़ फटे होते हैं और उसे नये शूज़ लेने का बड़ा चाव होता था, उसने तुरंत नाम बता दिया ..कि शायद बम बम बोले ही होगी...जी हां, वही फिल्म थी, यू-ट्यूब पर भी है, देखिए अगर पहले नहीं देखी ..एक ट्रेलर के रूप में इस का एक छोटा सा गीत यहां एम्बेड कर रहा हूं ...





सोमवार, 5 सितंबर 2016

टीचर जी, मेरे बच्चे को यह सब जरूर सिखाना


आज कल मैं इस ब्लॉग पर चिट्ठी-पत्री की ही बातें कर रहा हूं...

कुछ चिट्ठीयां ऐसी भी होती थीं जिन्हें हम लोग सहेज कर रख लिया करते थे ..बार बार पढ़ने के लिए...


इस बात का ध्यान मुझे कल आया जब मुझे ध्यान आया कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ने एक चिट्ठी अपने बेटे के स्कूल प्रिंसीपल को लिखी थी। लिंकन ने इसमें वे तमाम बातें लिखी थीं, जो वह जिंदगी में बेटे को सिखाना और समझाना चाहते थे...

चलिए, आज अध्यापक दिवस के अवसर पर उस चिट्ठी को ही फिर से पढ़ लेते हैं...ऊबने का तो प्रश्न ही नहीं....

सम्माननीय महोदय,  
मैं जानता हूं  कि इस दुनिया में सारे लोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं। यह बात मेरे बेटे को भी सीखना होगी। पर मैं चाहता हूं कि आप उसे यह बताएं कि हर बुरे आदमी के पास भी अच्छा दिल होता है। हर स्वार्थी नेता के अंदर अच्छा लीडर बनने की क्षमता होती है। मैं चाहता हूं कि आप उसे सिखाएं कि हर दुश्मन के अंदर एक दोस्त बनने की संभावना भी होती है।  
ये बातें सीखने में उसे समय लगेगा, मैं जानता हूं। पर आप उसे सिखाइए कि मेहनत से कमाया १ रुपया, सड़क पर मिलने वाले ५ रुपये के नोट से ज़्यादा कीमती होता है।  
आप उसे बताइएगा कि दूसरों से जलन की भावना अपने मन में ना लाए। साथ ही यह भी कि खुलकर हंसते हुए भी शालीनता बरतना कितना जरूरी है। मुझे उम्मीद है कि आप उसे बता पाएंगे कि दूसरों को धमकाना और डराना कोई अच्छी बात नहीं है. यह काम करने से उसे दूर रहना चाहिए।  
आप उसे किताबें पढ़ने के लिए तो कहना ही, पर साथ में उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को, धूप में हरे-भरे मैदानों में खिले-फूलों पर मंडराती तितलियों को निहारने की याद भी दिलाते रहना। मैं समझता हूं कि ये बातें उसके लिए ज्यादा काम की हैं।  
मैं मानता हूं कि स्कूल के दिनों में ही उसे यह बात भी सीखना होगी कि नकल करके पास होने से फेल होना अच्छा है। किसी बात पर चाहे दूसरे उसे गलत कहें, पर अपनी सच्ची बात पर कायम रहने का हुनर उसमें होना चाहिए। दयालु लोगों के साथ नम्रता से पेश आना चाहिए। दूसरों की सारी बातें सुनने के बाद उसमें से काम की चीजों का चुनाव उसे इन्हीं दिनों में सीखना होगा।  
आप उसे बताना मल भूलना कि उदासी को किस तरह से खुशी में बदला जा सकता है। और उसे यह भी बताना कि जब कभी रोने का मन करे तो रोने में शर्म बिल्कुल महसूस न करे। मेरा सोचना है कि उसे खुद पर विश्वास होना चाहिए और दूसरों पर भी। तभी तो वह एक अच्छा इंसान बन पाएगा।  
ये बातें बड़ी हैं और लंबी भी। पर आप इनमें से जितना भी उसे बता पाएं, उतना उसके लिए अच्छा होगा। फिर अभी मेरा बेटा बहुत छोटा है और बहुत प्यारा भी।  
आपका
अब्राहम लिंकन 
चिट्ठीयां हमारे पेरेन्ट्स ने भी लिखीं हमारे टीचर्ज़ को और हम ने भी लिखीं अपने बच्चों के अध्यापकों को ...कुछ याद आ रहा है। पहले आज सुबह की सैर की कुछ तस्वीरें ....

अद्भुत प्रकृति का वरदान 
प्रकृति के रहस्य की बंद पोटली ..
अगले पेड़ में यह अद्भुत पिटारा खुला मिला ..
डीएवी स्कूल अमृतसर के दिनों की बात है ..छठी कक्षा में था ...गणित विशेषकर बीजगणित समझ नहीं आ रहा था...कुछ दिन बीत गए...एक दिन घर आ कर मैं रोने लगा ...अपने पिता जी को कारण बताया...उन्होंने उर्दू में एक चिट्ठी लिखी और मुझे उसे मास्टर जी को देने को कहा...उस दिन से ही मास्टर साहब ने मुझे ट्यूशन के लिए रोकना शुरू कर दिया...कुछ ही दिनों में मुझे सब कुछ समझ में आने लगा...कुछ महीने के लिए वह ट्यूशन चलती रही ...लेकिन एक बात मैंने जो आज से ४० साल पहले सीखी कि मेरे पिता जी हर महीने मेरी ट्यूशन की फीस एक सफेद लिफ़ाफे में मुझे देते थे मास्टर साहब को देने के लिए....मुझे यह बहुत अच्छा लगता था ...वरना खुले में उन्हें २५ रूपये महीना थमाना ऐसे लगता जैसे वह दुकानदार हैं और मैं ग्राहक ...छोटी छोटी बातें हमें छू जाती हैं कईं बार ...और मैंने भी इस प्रैक्टिस को अपने बच्चों की ट्यूशन में भी बरकरार रखा ...हर बार मासिक फीस आदर सहित एक सफेद लिफ़ाफे में रख कर ही भिजवाई....

लेकिन कुछ कुछ मस्ती भी की बच्चों के साथ...मेरी जिन बेवकूफियों पर वे आज भी ठहाका लगाते हैं कि देखो, बापू ने इंगलिश वाले क्लास टीचर को क्या लिख दिया था ...

तो हुआ यूं कि बड़ा बेटा सातवीं आठवीं कक्षा में था, फिरोज़ुपर पंजाब की बात है ...इंगलिश पढ़ाने वाले टीचर संधू साहब उस के क्लास टीचर भी थे....मुझे उसदिन क्या मजाक सूझा....बेटे ने होमवर्क नहीं किया था...और संधू साहब चांटे वांटे लगा दिया करते थे ...स्कूल जाने से पहले मुझे कहता है कि कुछ लिख दो पापा, बचा लो...मैंने कहा ..लाओ, यार, डायरी लाओ....लेकिन हिंदी में लिखूंगा...हंसने लगा ...कहने लगा ...चाहे, कैसे भी लिखो, लिख दो बस।

मैंने उस में लिख दिया.....
"महोदय, तबीयत ठीक न होने की वजह से बच्चा गृह-कार्य करने में असमर्थ रहा। कृपा क्षमा कीजिए।"

 उस दिन स्कूल से आया तो बहुत खुश...बच गया था पिटने से ...सारा घटनाक्रम सुना रहा था कि पापा, होमवर्क चैक करते समय मैंने आप का लिखा नोट संधू साहब के आगे कर दिया....जिसे पढ़ कर संधू साहब भी हंस पड़े और मुझे कहने लगा ...चल, सीट पर जा !

 पुरानी बातें हो गईं, नईं बात यह है कि जब कभी मैं शिक्षा मंत्री बन जाऊंगा चॉक एंड डस्टर जैसी फिल्में शिक्षक दिवस पर सभी स्कूलों में इस दिन दिखाए जाने का आदेश दिया करूंगा....बेहतरीन फिल्में...शिक्षकों की व्यक्तिगत पीड़ा और उन की दैनिक चुनौतियों को ब्यां करती इस तरह की फिल्में इन महान् अध्यापकों के प्रति हमारी सुप्त या उनींदी संवेदनाओं को झकझोड़ने का काम करती हैं निःसंदेह ....छोड़िए, शिक्षकों पर और प्रवचनबाजी सुनने और झाड़ने को अब यहीं छोडि़ेए...अगर अभी तक इस फिल्म को नही ं देखा तो आज कम से कम यही शुभ काम कर लीजिए..




रविवार, 4 सितंबर 2016

बैरंग ख़तों की दास्तां

आज मैं आप के साथ अपने बैरंग ख़तों की दास्तां शेयर करूंगा...मैंने लिखा था कल कि ख़तों के ज़माने की अपने पास बहुत सी यादें हैं...कल जब मेरी मां एक ऐसे ही लेख को बांच रही थीं तो मुझे अचानक हंसते हुए कहने लगी कि तुम तो सुवर्षा को भी कितने बैरंग ख़त लिखा करते थे...मुझे भी याद आ गया ...

एक दो बातें पहले स्पष्ट करने लायक हैं, एक तो सुलेख लिखना और दूसरा बैरंग ख़त...सुलेख लिखने से मतलब यह होता था कि हमें हिंदी, पंजाबी और इंगलिश पढ़ाने वाले टीचर ५५ दिन चलने वाली छुट्टियों के लिए एक काम होम-वर्क के अलावा यह भी थमा दिया करते थे कि हर रोज़ कापी में एक पेज़ सुलेख का लिखना है ...सुलेख का मतलब साफ़ साफ़ सुंदर लिखना अधिकतर हिंदी पंजाबी में इसे कलम से लिखना होता और इंगलिश वाले सुलेख के लिए निब लगे होल्डर का इस्तेमाल करना होता!

दूसरी बात, स्पष्ट यह करना चाहता हूं कि पंजाबी भाषी अधिकतर लोगों की हिंदी भाषा ठीक ठाक ही है ...बचपन से हम सुनते आ रहे हैं ..बरंग खत..लेकिन इस पोस्ट को लिखने से पहले मैंने सोचा कि कालिका प्रसाद के हिंदी कोष से देख तो लूं कि सही शब्द आखिर है क्या!.... बरंग तो कोई शब्द था ही नहीं, बेरंग भी देखा, वह भी नहीं दिखा ...फिर एक बार लगा कि यह उर्दू का शब्द ही होगा, उर्दू हिंदी शब्दकोष में देखता हूं...उस से पहले बैरंग शब्द मिल गया ...बैरंग का मतलब यह लिखा हुआ है ...चिट्ठी, पारसल आदि जिसका महसूल भेजनेवाले ने न चुकाया हो .. महसूल का मतलब यहां पर है जिस पर डाक-टिकट  विकट न लगाया गया हो...एक दूसरा अर्थ भी लिखा है इस में ...बिना काम हुए विफल लौटना....आपने भी सुना ही होगा कई ॆबार लोग बाग इस्तेमाल करते हैं इसे कि वह गया तो था फलां काम के लिए लेकिन उसे बैरंग लौटना पड़ा...

चलिए, हो गई व्याकरण की अच्छी अच्छी बातें ..लेकिन बोझिल सी ... अभी किस्से को हल्का किये देते हैं...तो जनाब हुआ यह कि हम उस समय पांचवी छठी कक्षा में रहे होंगे....सुलेख वुलेख ज़ोरों शोरों से चल रहा था ...खुराफ़़ात हुई कि अब इस से इंप्रेस किसे करें....सब से पहले शिकार के रूप में अपनी मौसी सुवर्षा का ध्यान आया ... खतो-किताबत का रिवाज़ बहुत बढ़िया था उन दिनों में ...लेकिन कौन जाए डाकखाने में पोस्टकार्ड लाए...फिर लौट कर पेटी में डालने जाए...मुझे पता नहीं किस ने मुझे यह रास्ता बताया या मेरी खुद की ही खुराफ़ात रही होगी कि मैंने कापी के एक पन्ने पर मौसी के नाम चिट्ठी लिखी .....जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं...



उसे इस तरह से फोल्ड किया ...
फिर से फोल्ड किया और तैयार हो गया पूरा खत...




अब कापी से एक पेज और फाड़ा और उस में इस खत को रख कर एक मुकम्मल लिफ़ाफा तैयार कर लिया...


सभी रिश्तेदारों के अते-पते-ठिकाने उस जमाने में घर के बच्चे बच्चे को याद हुआ करते थे...मुझे अभी भी बीसियों याद हैं...तो उस पर अपने मौसा जी का नाम पता लिखा और आते जाते गिरा दिया उस लाल डाकपेटी में ....


अरे यह क्या, कुछ ही दिनों में मौसी का जवाब आया कि प्रवीण का खत मिला .. बस, अपना हौंसला बुलंदी पर ....इतना आसान है यह सब, हम अपनी कापी के पन्ने पर कुछ भी लिखें, और वह मौसी के घर पहुंच जाता है ...बस, उस के बाद तो मैंने जैसे इन बैरंग ख़तों की झड़ी लगा दी...जब मन करना, मौसी को ऐसा ही बैरंग ख़त लिख कर पोस्ट-बॉक्स में फैंक आना....यह अच्छा खेल मिल गया था मुझे....

उस मौसी को ही टारगेट बनाया गया क्योंकि वह हमारी पढ़ाई लिखाई के बारे में अकसर पूछती रहती थीं, नंदन, चंदामामा आदि प्रतिकायें देखने के लिए भी कहा करती थीं...यही सोचा कि चलो इन्हें ही इंप्रेस करते हैं....वैसे एक आध बार नानी को भी कम टिकट जैसा कोई बैरंग खत चला गया होगा, लेकिन उन की परेशानियों का ध्यान आते ही कभी उन से इस तरह से तफरीह करने की इच्छा भी नहीं हुई।

हां, किस्सा अभी बाकी है ...इत्मीनान कीजिए...

उन दिनों डाक लिफाफा पच्चीस पैसे का होता था ...अब जिस तरह से मैं बैरंग ख़त भिजवाता था, उस पर मौसी को डाकटिकट का डबल भुगतान करना होता था ...याने के ५० पास...कुछ बार ऐसा ही चलता रहा, कुछ महीनों बाद जब मिले तो मौसी ने मज़ाक मज़ाक में समझाया .... तब तक मेरा शौक भी पूरा हो चुका था ....

लेकिन अब ध्यान यह ज़रूर आता है कि शायद उन दिनों डाकविभाग की कमाई के दो ही साधन थे ...एक तो इस तरह की बैरंग चिट्ठीयों से कमाई और दूसरा घर में रखे रेडियो की लाईसेंस फीस भी डाकखाने में हर साल कुछ पांच दस रूपये जमा करवानी पड़ती थी ...और उस की बाकायदा एक कापी भी बनी हुई थी ...

हां, बैरंग चिट्ठीयां सिर्फ इसी तरह से ही न जाया करतीं....दरअसल उन दिनों सत्तर अस्सी के दशक में इन ख़तों के दाम कभी कभी पांच दस पैसे बढ़ जाया करते थे ... फिर अगर पुराने लिफाफे पर बड़ी हुई दर के बराबर की पांच पैसे की टिकट नहीं लगाई और उसे ऐसे ही पोस्ट-बॉक्स में ठेल दिया तो भी उस चिट्ठी पाने वाले को उस का दोगुना भुगतान करना पड़ता था..थे कि नहीं कड़े कानून!

आज कल जिस तरह से डाकिये ने स्पीड-पोस्ट की चिट्ठीयों की डिलीवरी की लिस्ट पकड़ी होती है उन दिनों वह बैरंग चिट्ठीयों को एक अलग पैकेट और वसूली जाने वाली रकम (जो हमेशा एक रूपये से कम ही हुआ करती थी...) की लिस्ट थामे रहता था ...एक तरह से आप समझ लीजिए कि आपने बैरंग चिट्ठी न डाल दी बल्कि एक रजिस्टरी ही करवा दी हो ...क्योंकि डाकिये की जान तभी छूटती थी जब वह छुट्टे पैसे लेकर पोस्टआफिस में जमा करवा देता था...

बैरंग चिट्ठीयां आती थीं हमारे यहां भी ...हर घर में आती थीं कभी न कभी..लेकिन कमबख्त उस समय बिल्कलु मातम सा छा जाता  था ...हमारी एक पड़ोसन तो कईं बार बच्चों से कहलवा देती ... "असीं नहीं लैनी चिट्ठी, लै जा अपने नाल ही ...जा जा के कह दे डाकिये नूं." (हमें नहीं लेनी चिट्ठी, डाकिये को कह दो जा कर कि ले जाए अपने साथ ही वापिस उस बैरंग चिट्ठी को !)

 लेकिन इस तरह के दृश्य कम ही दिखते थे ..लोग मन ममोस कर, कोसते हुए कैेसे भी उस बैरंग चिट्ठी को डाकिये को भुगतान कर के ले ही लिया करते थे.......वरना डाकिया इस का बुरा मान जाता था और साफ़ धमकी भी दे जाया करता था कि आगे से भी चिट्ठीयां तो आप की और भी आयेंगी ही। संदेश साफ होता था ..अब कौन उस ज़माने के डाकिये से पंगा लेता!

 मुझे कईं बार यह भी ध्यान आता है कि घरों में चिट्ठीयो ंका स्टाक करने की भी कोई प्रथा भी थी नहीं...हर बार ज़रूरत पड़ने पर ही दो पोस्टकार्ड और एक अंतरदेशीय लिफाफा लाया जाता था, कईं बार उस के लिए भी दो चक्कर लग जाया करते थे ...कि खतों का स्टॉक खत्म हो गया है ....

पोस्ट-ऑफिस से खत लाना, लिखना और वापिस उसे लाल डिब्बे के हवाले कर के आना एक पूरी प्रक्रिया थी ...लेकिन फिर भी अच्छे दिन थे...आप का क्या ख्याल है?

अभी भी बहुत बार डाकखाने में कंप्यूटर चल नहीं रहे होते जब स्पीड-पोस्ट करवाने जाते हैं, कभी नेटवर्क नहीं होता, कभी किसी और काम में बाबू व्यस्त होता है तो झुंझला के मना कर देता है .....इसलिए अभी बैरंग ख़तों की इतनी पुरानी यादें ताज़ा करने के बाद मुझे एक आइडिया आया है जिसे मैं आप से शेयर नहीं करना चाहता....

अहम् पर तो चर्बी और भी ज़्यादा जमी होती है...

जी हां, चर्बी सिर्फ़ शरीर पर ही जमा नहीं होती ...मैं ऐसा समझता हूं कि इस की कईं मोटी परतें तो हमारे अहम् पर भी जमा होती हैं...

सुबह शाम कैसे हम लोग शरीर वाली चर्बी को कम करने के लिए टहलने निकल जाते हैं..पता नहीं वह भी कितनी कम होती है या नहीं ..जब तक हम लोग अपनी खाने-पीने की आदतें नहीं सुधार लेते ... लेकिन अहम् वाली चर्बी का फिर भी कुछ हो नहीं पाता सामान्य दिनचर्या के दौरान...

चलिए मैं क्यों हम हम की रट लगा रहा हूं...शायद इसलिए कि भीड़ के लिए लिखना सुरक्षित लगता है...जी हां, अकसर ऐसा होता है कि हम लोग सामने वाले को कुछ नहीं समझते ...हमें हमारे रुतबे, पैसे और कभी कभी सेहत का घुमान तो होता ही है ..कुर्सी का भी ...जितनी बडी़ कुर्सी उतना ही हम उड़ते रहते हैं...अधिकतर ...किसी से सीधे मुंह बात न करना, पहले सामने वाले का उस की वेश-भूषा, उस के रहन सहन, उस की बोलचाल, स्टेट्स का आंकलन करना ...फिर उसी हिसाब-किताब से उस के साथ बात करना ...कितना कठिन काम है न यह!

आज मुझे बाग में टहलते हुए इस बात का ध्यान आया कि हम लोग बाग में शारीरिक रूप से सेहतमंद होने तो आते हैं लेकिन अगर ध्यान से प्रकृति की विशालता, उस की अद्भुत रचनाओं को निहारें तो हमारा अहम् जो हमारे सिर पर चढ़ा रहता है, वह भी अपने आप थोड़ा बहुत तो घुल ही जाता है ... निःसंदेह...

आज के प्रातःकाल के भ्रमण की कुछ तस्वीरें यहां लगा रहा हूं ...हरेक कारण है इन में जिन से हमें अपनी तुच्छता का अहसास होता है ...आधा घंटा इन बागों में टहलने के बाद जब बाहर आते हैं तो उस हल्केपन में हमारी "मैं"भी हल्की तो पड़ ही जाती है
...

लेेकिन इतनी खुराक एक दिन के लिए ठीक है ..अगले दिन के लिए फिर से प्रकृति का सान्निध्य ज़रूरी होता है ..





इस पोस्ट के लिए मुझे इतने फिल्मी गीत ध्यान में आ रहे हैं कि यह दूरदर्शन पर रविवार की सुबह दिखाई जाने वाली रंगोली ही न लगने लगे ..



इस फोटो की बाईं तरफ दिखने वाली तितली की फोटो खींचने के लिए मुझे बड़ा धैर्य रखना पड़ा....मुझे तो यह गीत याद आ गया...

  आज वनस्थली पार्क में योग कक्षा की पहली वर्षगांठ मनाई जा रही थी..पांच मिनट वहां भी बैठने का सुअवसर मिला....  
मनाली के पास २००७ में ...वे भी क्या दिन थे! अभी ढूंढ कुछ और रहा था तो यह दिख गई... 

मीडिया डीटॉक्सिफिकेशन भी कभी कभी होनी ही चाहिए...


कुछ दिन पहले यह मैसेज कहीं से घूमता-फिरता मेरे तक पहुंचा और मुझे मीडिया डीटॉक्सीफिकेशन का ध्यान आया...बच्चे जब छोटे थे और टीवी के सामने से उठने का नाम नहीं लेते थे तो हम ने इन्हें टीवी से दूर रखने के लिए मीडिया के इस विष को कम करने के लिए एक लकड़ी की छोटी सी डिब्बी ली...जिस में एक छोटा सा ताला लग जाता था....और उस में एक इस तरह की झिर्री रखवा ली जिस से टीवी के प्लग को अंदर उस में रख दें तो वह अपने आप बिना ताला खोले बाहर नहीं निकल पाता था...

कितनी खतरनाक जुगाड़बाजी है न....हमें भी हर रोज टीवी के प्लग को उस के अंदर डाल कर ताला लगाते हुए बहुत हंसी आती थी...और बच्चों को हम से ज़्यादा हम की बेवकूफी पर आती थी...कुछ ज़्यादा चल नहीं पाया यह जुगाड़...बड़ा बोरिंग काम था पहले ताला लगाओ, फिर उसे खोलो ....कभी चाभी न मिले तो और आफ़त..

लेकिन उस दौर में यह डीटॉक्सीफिकेेशन ज़रूरी जान पड़ती थी जैसे कि आज कल अखबार न आने पर हो रहा है ...
कल मैंने लिखा था कि पिछले तीन दिन से अखबार नहीं आ रही ... आज चौथा दिन है...आज तो मैं बाज़ार भी घूम आया कि पता करूं कहीं से तो मिल जाए यह अखबार....लेेकिन कहीं नहीं मिली...लखनऊ भी विचित्र शहर है इस मामले में कि पिछले चार दिन से शहर में अखबार ही नहीं आ रहे...

शायद यंगस्टर्ज़ को इस से कुछ खास फ़र्क नहीं पड़ता...हम जैसे अधकचरे बड़ऊ लोगों को अधिक फर्क पड़ता है क्योंकि तकनीक होते हुए भी हमें ट्रेडीशन में ज़्यादा लुत्फ मिलता है ....कल ई-पेपर खोला भी ...लेकिन मन ही नहीं करता ..अगले ही पल उसे बंद कर दिया...वही अखबार के पन्नों को तोड़-मरोड़ना, उन पर कलम घिसना, उन से कुछ काट-छांट लेना, किसी खबर की फोटू खींचना...ये सब खेल तो हम अखबार से ही कर सकते हैं...

बहरहाल, उन अखबार वाले हाकर्ज़ के साथ पूरी सहानुभूति और समर्थन जताते हुए मैं यह कहना चाहूंगा कि अखबार न आने से अच्छा भी लग रहा है ...सुबह इतना खाली समय होता है ...कुछ भी आलतू-फालतू पढ़ने का झंझट नहीं ...पहले एक दो दिन तो ऐसे लगा कि पता नहीं कहां गई सारी खबरें लेकिन अब महसूस भी नहीं होता...चाहे अगले दस पंद्रह दिन न आएं अखबारें...
अखबारों की कमाई के बारे में मैं जानता हूं कि इन्हें विज्ञापनों आदि से इतनी कमाई होती है कि ये चाहें तो अखबारें मुफ्त भी लोगों को बांटी जा सकती हैं...लेकिन वही बात है जो चीज़ मुफ्त मिलती है, उसे लोग गंभीरता से नहीं लेते ...रास्ते में मिलने वाले पेम्फलेट को लोग चंद कदमों पर गिरा देते हैं और दो तीन रूपये में लोकल बस में खरीदे अकबर-बीरबल के चुटकुले सहेज कर रखते हैं... 

हां, तो मैं कहना यही चाहता हूं कि इस भौतिकवाद की अंधाधुंध दौड़ में हम हर जगह अच्छे से हज़ामत करवा लेते हैं...हाटेल, रेस्टरां, सर्विस स्टेशन....शापिंग माल ....३९० की दाल मक्खनी की प्लेट लेना भी मंजूर है ...लेकिन इन छोटे छोटे काम धंधे वालों की कोई खोज-खबर नहीं करता....उन्हें फिर अपने हक के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं तो इसमें बुराई ही क्या है! 

अखबार इतने दिनों से नहीं आ रहे ....इतने दबावों के बावजूद भी ये मेहतनकश लोग डटे हुए हैं....मुझे भी लगता है कि इन की जो भी वाजिब मांगें हैं वे मान ही लेनी चाहिए...पता नहीं फिर कभी यह हड़ताल इतनी लंबी चल पाए या नहीं...देखिएगा... 

वैसे मैं थोड़ा अपनी अखबार पढ़ने की आदत के बारे में भी बता दूं....बहुत पढ़ी अखबारें...पहले हम लोग पांच छः अखबारें लेते थे...हिंदी-पंजाबी-इंगलिश....कुछ पढ़ते थे कुछ बिना खोले रद्दी में रख देते थे ...उन दिनों मैं मॉस-कम्यूनिकेशन भी पढ़ रहा था ...मेरा प्रोजेक्ट भी कुछ ऐसा ही था ...कंटेंट एनेलेसिस के ऊपर ... बहरहाल, अब कुछ वर्षों से थोड़ी शांति है ...लेेकिन अभी भी मैं अखबार तो सुबह ही ३०-४० मिनट मेें जितनी देख पाऊं, उतनी ही पढ़ पाता हूं....कुछ कॉलम मुझे पढ़ने होते हैं, कुछ लेखों की कटिंग रखनी होती है ...लेकिन कुछ नहीं कर पाता सारा दिन ....जैसे ही अखबार लेकर दोपहर में या देर रात में लेटता हूं, तुरंत नींद आ जाती है...
हां, तो इस तरह से मुझे थोड़ा ध्यान तो रहता है कि मैंने अभी ये ये लेख देखने हैं, इन की कटिंग रखनी है...लेकिन इतने में बाहर देखते हैं कि अखबारों का अंबार लग जाता है ....जैसे कि आज भी लगा हुआ था...लेकिन तभी हमारे रद्दीवाले कबाड़ी महाशय पूतन जी प्रकट हुए कुछ समय पहले....सब कुछ उन के सुपुर्द हो गया......जब भी रद्दीवाला सब कुछ समेट कर ले जाता है तो मुझे इतनी खुशी होती है कि मैं ब्यां नहीं कर पाता ...इसलिए... कि अब कुछ भी पिछली अखबारों में से ढूंढने-पढ़ने-कांटने-छांटने की कोई फिक्र नहीं .... it means everything has been read and understood well! 

तो सच में आज कल हम लोगों का मीडिया डीटॉक्सीफिकेशन दौर चल रहा है ....न तो हम लोग टीवी पर खबरें देखते हैं, न ही नेट पर और अखबारों का हाल तो मैंने ऊपर बता ही दिया है ..बस, अब तो रेडियो का ही एक सहारा है ....कल वह भी कुछ खबरें सुनाने लगा ...पहले ही खबर कि मोदी जी  फिलिंपिन्स गये हुए हैं...बस, उसी समय बत्ती गुल हो गई ....और मैं लंबी तान कर सो गया...उठा तो फौजी भाईयों का प्रोग्राम चल रहा था ... संयोगवश गीत भी यही बज रहा था... 

शनिवार, 3 सितंबर 2016

संदेशे तो तब भी आते ही थे...

अकसर मुझे ध्यान आता है हम लोग जब ननिहाल जाया करते थे तो वहां दीवार में बनी एक कांच की अलमारी के दो हैंडलों पर दो लोहे की तारें टंगी दिखी करती थीं..एक में पुराने से पुराने ख़त और दूसरी तार में पुराने से पुराने बिजली पानी के बिल पिरोये रहते थे..

उस समय तो हमें कहां इन सब के बारे में सोचने की फुर्सत ही हुआ करती थी...अब मैं सोचता हूं तो बहुत हंसी आती है कि कोई खतों वाली एक तार उठा ले तो सारे खानदान की हिस्ट्री-ज्योग्राफी समझ में आ जाए..चाहे तो नोट्स तैयार कर ले... एक बात और भी है न, तब छुपाने के लिए कुछ होता भी नहीं था, सब को सब कुछ पता रहता था...यह छुपने-छुपाने की बीमारियां इस नये दौर की देन है।

लोग अभी भी उन पोस्टकार्ड के दिनों को याद करते थे...मुझे याद है जब हम लोग पोस्ट-कार्ड या लिफाफा डाक-पेटी के सुपुर्द करने जाया करते तो हमारे मन में एक बात घर चुकी थी कि खत अंदर गिरने की आवाज़ आनी चाहिए...आवाज़ आ जाती थी तो हमें इत्मीनान हो जाता था, वरना यही लगता था कहीं उस डिब्बे में ही अटक तो नहीं गया होगा....oh my God! Good old innocent days!

  अभी यह पोस्ट कार्ड लिखते मुझे जवाबी पोस्टकार्ड का ध्यान आ गया ...इन का इस्तेमाल उन हार्डकोर बंधुओं के लिए कईं बार लोग किया करते थे जो खतों का जवाब नहीं देते थे..जवाबी खत इसी तरह से डाकिया थमा देता था ..और जवाबी पोस्टकार्ड पर अकसर खत भिजवाने का पता तक भी लिखा रहता था... आज बहुत कुछ याद आया इसी बहाने...

उन दिनों में सब कुछ विश्वास पर ही चलता था...चिट्ठी डाली है तो मतलब पहुंच ही जायेगी ... डाकिये पर पूरा भरोसा, पूरा डाक विभाग पर पूरा अकीदा, चिट्ठी जिसे भेजी है उस पर भी एक दम पक्का यकीन कि चिट्ठी मिलते ही वह जवाब भिजवा ही देगा... मुझे तो कोई चुस्त-चालाकी के किस्से याद नहीं कि किसी ने किसी की चिट्ठी दबा ली हो और मिलने पर गिला किया हो कि आप की चिट्ठी नहीं मिली..हर घर में चंद लोग ऐसे होते थे जिन की आदतों से सब वाकिफ़ हुआ करते थे...बहरहाल, सब कुछ ठीक ठाक चलता रहता था....शादी ब्याह के कार्ड, रस्म-क्रिया, मुंडन, सगाई ...सब खबरें खत से ही मिलती थीं..

शादी ब्याह से याद आया कि अब तो लोग शादी ब्याह के कार्ड भी स्पीड-पोस्ट से भिजवाते हैं अकसर, वरना कूरियर से ...पहले तो शायद दो तीन रूपये का डाक-टिकट लगा कर बुक-पोस्ट कर दिया जाता था और पहुंच भी जाया करता था...कुछ अरसा पहले की बात है कि मैं एक जगह पर स्पीड पोस्ट करवाने गया ... वहां पर दो पुलिस वाले किसी शादी ब्याह के कार्ड स्पीड पोस्ट करवा रहे थे ...३०-४० तो ज़रूर होंगे ...शायद एक हज़ार से भी ज़्यादा खर्च भी आया था ... किसी पुलिस वाले के बच्चे की शादी के कार्ड थे...

जितनी लंबी लाइनें आज कल स्पीड-पोस्ट के लिए होती हैं, उस से तो यही लगता है कि लोग अब चिट्ठी-पत्री पर भरोसा ही नहीं करते ....यहां तक की रजिस्टरी भी लोग कम ही करवाते हैं...बस, स्पीड-पोस्ट ही चलती है अधिकतर। ठीक है नौकरी के लिए आवेदन करने वाले स्पीड-पोस्ट करवाते हैं, बात समझ में आती है ...आजकल इतनी धांधलियां हो रही हैं भर्ती प्रक्रिया में ...ऐसे में कुछ तो सालिड प्रूफ चाहिए....हम लोग आज से २५-३० वर्ष पूर्व रजिस्टरी करवाया करते थे...हां, क्या आप को पता है कि अब रजिस्टरी लिफाफे नहीं मिलते डाकखानों से, सादे लिफाफे या ५ रूपये वाले डाक-लिफाफे में ही पत्र डाल कर रजिस्टरी करवाई जाती है ...

हमारे जमाने में बड़े-बुज़ुर्ग घर में घुसते ही यह पूछा करते थे कि कोई चिट्ठी आई?....सच में ये ५ पैसे के हाथ से लिखे पोस्टकार्ड और १५ वाले अंतर्देशीय लिफाफे घरों का माहौल खुशनुमा बना दिया करते थे..उन्हें परिवार का हर सदस्य पढ़ता...और फिर उसे संभाल कर रख दिया जाता ...अब वाला चक्कर बड़ा मुश्किल है हर पांच पांच मिनट पर वाट्सएप स्टेटस चैक करना और अपडेट करना ...

चिट्ठी-पत्री के बारे में संस्मरण का पिटारा है मेरे पास, सोच रहा हूं बाकी की बातें अगली कड़ियों में करूंगा..

बहुत लंबे अरसे के बाद आज टीवी पर म्यूजिक इंडिया चैनल पर यह गीत बज रहा है ...सुनेंगे...खुशी की वो रात आ गई...(फिल्म- धरती कहे पुकार के)...







आज फिर अखबार नहीं!

यह अच्छा लफड़ा है, आज फिर अखबार नहीं...

परसों अखबार नहीं आई..हम लोगों ने सोचा हॉकर से मिस हो गई होगी...

कल नहीं आई तो चिंता हुई कि अपना हॉकर प्रजापति ठीक तो होगा...कुछ दिन पहले उस की तबीयत खराब थी..

फोन किया कल...स्विच ऑफ मिला...दो तीन बार करने के बाद जब बात हुई और पूछा कि तबीयत ठीक है, तो पता चला कि उस की तबीयत तो ठीक है, लेकिन अखबार वालों की हड़ताल चल रही है..

मैंने कहा...अच्छा, कोई बात नहीं...

मैं ठीक से समझा नहीं था उस की बात, सोचा कि ड्यूटी पर जाते समय किसी चौराहे से पकड़ लूंगा अखबार ...लेकिन नहीं, वहीं भी अखबार नहीं पहुंची थी...

खबरों का कुछ पता ही नहीं चल रहा आजकल...अखबार का तो यह हाल है ...मुझे यह भी याद नहीं कि टीवी पर खबरिया चैनल को लगाए कितने दिन हो गये हैं...ऐसे ही पता नहीं क्या हो चला है टीवी पर खबरें क्या कुछ भी देखने की इच्छा ही नहीं होती..बस, लगता है रेडियो सारा दिन चलता रहे!

बंबई में जब मैं २०-२२ साल पहले एक सिद्ध समाधि योग का १४-१५ दिन का प्रोग्राम कर रहा था तो एक शर्त थी वहां कि आप लोगों ने अखबार नहीं देखनी जब तक यहां आना है ...हम लोगों ने बात मान ली थी...कभी ऐसा नहीं लगा कि कुछ छूट गया हो..

हमें बताया गया था कि अखबारें सुबह सुबह आप पढ़ते हैं तो सारी निगेटिविटी जबरदस्ती अपने अंदर ठूंस लेते हैं...लेकिन जैसे हम लोग हैं, कुछ दिन तक यह बात मान लीं, लेकिन फिर वापिस अखबार देखना चालू हो गया...

अखबारें इतना बड़ा विलेन भी नहीं हैं, यह हमारे ऊपर है हम उस से क्या ग्रहण करना चाहते हैं...सब तरह का कंटेंट तो बिखरा पड़ा रहता है ...सच में आज के इंसान की आंखें हैं यह अखबार....हम एक तरह से घर बैठे बैठे विश्व-दर्शन कर लिया करते हैं इस के जरिये...

टीवी के खबरिया चैनलों से मुझे आपत्ति है ...जिस तरह से उचक उचक के ऊंची आवाज़ में वे लोग खबरें पढ़ते हैं, सनसनी परोसते हैं....मैं नहीं सहन कर पाता....तुरंत मेरा सिर फटने लगता है ...इसलिए आज कल मुझे टीवी पर खबरें देखना बिल्कुल नहीं भाता....शायद कभी लगी होती हैं तो पांच दस मिनट देख लेता हूं ...वरना यह नहीं कि कभी खबरें देखने के लिए टीवी लगाया हो ....

अखबारों की अलग बात है ...चाहे उन का भी स्वरुप कितना भी बदल गया है ....लेकिन फिर भी आज भी भारत जैसे प्रजातंत्र में जनता में राय तैयार कराने का वे एक जबरदस्त काम तो कर ही रही है... (opinion makers!)

दो दिन से अखबारें नहीं आ रही थीं,कल रात गूगल किया तो पता चला  .... No newspaper in Lucknow for second day


अखबारें हम लोग अपने अपने घरों में मंगवाते हैं, सारा दिन पढ़ते हैं...लेकिन मुझे वह नज़ारा बहुत अच्छा लगता है जब किसी चाय की गुमटी के आसपास, किसी नाई के ठीये के नजदीक चार पांच जीर्ण अवस्था में पड़े लकड़ी के हिलते-डुलते बेंचों और पत्थरों पर टिके आठ-दस लोग एक अखबार को एक साथ चबा रहे होते हैं....एक एक चुटकुला शेयर होता है, सिने-तारिकों की फोटो पर तंज कसे जाते हैं...कार्टून पर एक साथ सब हंसते हैं...गंभीर खबर पर चर्चा करते हैं ....लेकिन वोट किसे देंगे यह राज़ हमेशा अपने मन में छिपाए रखते हैं...इसे कहते हैं असली "चाय पे चर्चा" न कि वह वाली  फेशुनेबल चाय चर्चा जिसे आप सोच रहे हैं!! इन जगहों पर मुझे प्रजातंत्र के साक्षात् दर्शन करने को मिलते हैं!

 छठी-सातवीं कक्षा में जब मैं समाचार-पत्र पर निबंध तैयार रहा होता था तो मेरे पिता जी मुझे ये पंक्तियां कहीं भी उस में फिट करने की ताकीद किया करते थे... और मैं इसे मान लिया करता था...ये लाइनें थीं...

खींचों न कमानो को न तलवार निकालो 
जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो...

अभी इस पोस्ट का पब्लिश बटन दबाते हैं इन अखबारों के पेज थ्री पर छाए लोगों की असली ज़िंदगी का ध्यान आ गया....पेज-थ्री फिल्म का वह गीत यू-ट्यूब पर मिल गया...आप भी सुनिए... फिल्म ठीक थी, यू-ट्यूब पर पड़ी है, अगर नहीं देखी तो देखिएगा कभी ... फिलहाल तो यही सुनिए...कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे !


हां, हाकर्स की हड़ताल के बारे में मेरा अोपिनियन यही है कि उन की मांगे तो मान ही ली जानी चाहिए...महंगाई बहुत है, कुछ भी हो, हर मेहनतकश को इतना तो मिले कि वह सम्मानपूर्वक अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके ..इन के पास तो कोई घोटाले कर के घर में करोड़ों रूपये छिपाने का भी कोई स्कोप नहीं है। The society should be liberal and sensitive to the aspirations of these hawkers too! What do you think? 




शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

गुड मार्निंग ..लखनऊ !


लखनऊ की तहजीब की छींटे-फौहारें सुबह-सवेरे से ही इस के वासियों पर पड़नी शुरू हो जाती हैं...

समय की आंधी से जो खबरदार नहीं हैं..
वे और कुछ भी हों, समझदार नहीं हैं! 

ये शब्द आज सुबह टहलते हुए एक मित्र-मंडली की सजी महफिल से सुनने को मिले...कहने का अंदाज़ इतना दिलकश ..पहली लाइन को इतनी बार इतने बढ़िया अंदाज़ में पेश किया गया कि दूसरी लाइन सुनने तक सांसे रुकी रहीं....यही है लखनऊ वालों को निराला अंदाज़...

हां, सुबह टहलने से बात शुरू करते हैं....दरअसल हम लोग सुबह टहलने के मामले में बड़े आलसी टाइप के हैं...आज उमस है, आज लेट हो गया, धूप चढ़ गई है ...बस, ऐसे ही टाल देते हैं...


आज सुबह उठा तो वही मेरी पुरानी तकलीफ़ सिर भारी....ए.सी में सोना मेरी मजबूरी है, मुझे बहुत नफ़रत है ए.सी से ...क्योंकि सोने से पहले तो अच्छा लगता है, उस के बिना शायद नींद ही नहीं आए....लेकिन सुबह उठते ही सिर भारी हुआ होता है ...
जब तक ३०-४० मिनट टहल के न आया जाए, और वापिस लौटने के बाद १०-१५ मिनट शांति से न बैठा जाए तबीयत ठीक नहीं होती...

आज टहलने का मन हो ही गया...थोड़ी हवा भी चल रही थी, मौसम भी खुशगवार ही था...

पार्क के बाहर यह होम-ट्यूशन की इश्तिहार देखा...इस तरह के विज्ञापन जो अखबार में भी छपते हैं, वे मुझे बड़े अजीब से लगते हैं...एक बात का इतमीनान तो होता ही है कि चलिए, इसी चक्कर में कुछ बेरोज़गारों को काम-धंधा मिल जाता है...
लेकिन मेरी सोच यह है कि कुछ भी हो प्यासे का ही कुएं पर जाना ठीक होता है ....मुझे तो यह भी लग रहा है ...जैसा मैं समझता हूं कि जो बच्चे घर में ही ट्यूशन पढ़ते हैं वे पढ़ाई में ज्यादा आगे चल नहीं पाते..कारण कुछ भी हों ...लेकिन पास वास बस हो जाते होंगे ...लेकिन मुझे नहीं लगता कुछ विशेष हासिल कर पाते होंगे...

बच्चों के अगर हाथ-पांव चलते हैं तो उन्हें गुरूजनों के पास भिजवा कर ही विद्या दान ग्रहण करना चाहिए....उस स्थान की एक अलग ही आलौकिक ऊर्जा होती है...घर में तो बच्चा यही समझता है कि जैसे उस का रईस बाप ही सर की रोटी का इंतज़ाम कर रहा है ...हम लोग घर आए गुरूजनों से अति-शिष्ट व्यवहार करते हैं ...यह हमारे संस्कार की बात है या शायद इसमें भी हमारा स्वार्थ ही होता है लेकिन इस से गुरू-शिष्य के पारंपरिक संबंध पैदा नहीं हो पाते....मैं तो पूरे विश्वास के साथ ऐसा सोचता हूं...

हम ने भी बेटे के लिए एक हिंदी टीचर की व्यवस्था करी थी बंबई में १९९० के दशक में ...कुछ महीनों के लिए..उसने बेटे को हिंदी का शब्द-बोध करवाया...अच्छा अभ्यास भी करवाया...चूंकि यह उस के खेलने का समय होता था ..इसलिए उस के हाव-भाव से ऐसे लगता था जैसे उस टीचर का आना उस के लिए बोझ होता था..हमें यह देख कर बहुत असुविधा होती थी..चलिए, जैसे तैसे टाइम पास हो गया..

शुक्र है ईश्वर का कि हम लोगों का कितना भी बैंक बेलेंस हो, लेकिन कुछ चीज़ें हम खरीद नहीं सकते ...जैसे उस्ताद की कृपा-दृष्टि....इसके लिए समर्पण चाहिए....

मैं भी सुबह सुबह क्या प्रवचन झाड़ने लगा! 

प्रवचन से ध्यान आया ..बाग में यह भाई साहब कुछ परचे बांट रहे थे ..११ सितंबर को एक प्रोग्राम है...जितनी आत्मीयता से  ये टहलने वालों से आग्रह कर रहे थे, मन को छू गई यह बात और मैंने सोचा कि मैं भी अपने ब्लॉग के माध्यम से इस का प्रचार करूंगा ... पढ़िए, अगर आप भी आना चाहें तो ज़रूर पधारिए.... अता,पता,ठिकाना सब लिखा है इस परचे में....



टहलते हुए मेरी नज़र एक चबूतरे पर पड़ी तो मैंने देखा कि बीस के करीब पुरूष एक गोलाकार आकृति की व्यवस्था बना कर बैठे हुए हैं...ठहाके लगा रहे हैं...हर बंदा कुछ न कुछ सुना रहा था ....कोई चुटकुला, कविता, किस्सा.....एक शेयर तो मैंने ऊपर लिख दिया है ....एक बात और भी वहां दो  मिनट बैठने पर सुनने को मिली ....
"कोई आप को बेवकूफ कहे तो यह नाराज़ होने की बात नहीं है, बुरा मनाने की भी बात नहीं है, धैर्य खोने की भी बात नहीं है, रिएक्ट करने की भी बात नहीं है, परेशान भी होने की बात नहीं है, लड़ाई-झगड़े पर उतारू होने की भी बात नहीं है......
बस, एक कुर्सी पर आराम से टेक लगा कर बैठिए.....अपने गाल पर हाथ रखिए.....और सोचिए ....कि इसे आखिर पता कैसे चला.. !"
कहने का अंदाज़ उस बंदे का बिल्कुल लखनऊवा किस्सागोई वाला ....खूब ठहाके लगे इस बात पर ....

आगे चले तो देखा कि चार पांच पुरूष अकबर बीरबल का कोई किस्सा मरदमशुमारी पर कह रहे थे ..वह मैं सुन नहीं पाया ...यह लखनऊ की किस्सागोई की बड़ी उमदा रवायत है ...मैं यहां एफएम पर रेडियो जॉकी की बातें भी सुनता हूं तो ऐसे लगता है कि बढ़िया किस्से सुन रहा हूं....


मुझे अभी यह ध्यान आ रहा था कि इस तरह के बाग-बगीचों में ये जो लोगों को इस तरह की गोष्ठियां होती हैं ...मित्र -मंडलियों की ..यही असली गोष्ठियां हैं, वरना धर्म के ठेकेदार या दूसरे ठेकेदार लोग जो भोली भाली जनता को अच्छे दिनों के सपने बेच कर तितर बितर हो जाते हैं ... कुछ सालों के बाद फिर से लौटने के लिए....

अच्छा तो दोस्तो...आप का दिन बहुत खुशगवार हो... मस्त रहिए, व्यस्त रहिए.... take care! मुझे भी अभी अपने काम-धंधे पर निकलना है ... 

जाते जाते इस सपने के सौदागर की बातें भी सुनते जाइए.... क्या मालूम आप के मतलब की भी कोई चीज़ इस के पास हो ...

  

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

कहानी ... पहचान की चमक

"आप को शरीर में और कोई कष्ट तो नहीं?"..डाक्टर ने रामदीन से पूछा...

"नहीं, डाक्साब, और कुछ नहीं, बस यह खांसी जुकाम से ही परेशान हूं...कुछ अरसा पहले हम का बताये रहिन कि हम का शूगर है...लेकिन तब से हम ने बराबर परहेज करना शुरू कर दिया और सुबह शाम दो बार आधा आधा चम्मच अजवाईन, मेथी और काली जीरी का पावडर ले लेता हूं...ठीक रहता हूं"


"कभी आपने रक्त की जांच भी करवाई ...कितना अरसा पहले करवाई थी..."

"पर साल ...शायद...उस से भी पहले ...ही करवाये रहे..."

"नहीं, आप को ठीक भी लगे तो भी..परहेज भी करिए, और यह देसी पावडर भी खाते रहिए, इस का कोई नुकसान नहीं है, लेकिन इस के साथ साथ रक्त की जांच भी दो तीन महीने में एक बार तो शूगर के लिए करवा ही लिया कीजिए..."

"ठीक है, करवा लेंगे..."

इतना कहते कहते रामदीन ने अपने बैग से उस देशी पावडर को अपने बैग से निकाल लिया और हथेली पर थोड़ा उंडेल कर उसे दिखाते हुए उस के घटकों की मात्रा के बारे में बताने लगे....

डाक्साब ने कुछ सुना..कुछ अनसुना...उन का ध्यान तो कमरे के बाहर लगी मरीज़ों की भीड़ की आवाज़ों भी तरफ़ था...

"वैसे आप इस डिबिया को साथ ही लेकर चलते हैं" ...डाक्टर ने उत्सुकतावश पूछ ही लिया...

"हमारा कोउना ठिकाना नहीं, आज यहां, कल वहां...इसलिए इस डिबिया को, दांत कूचने के लिए ब्रुश-मंजन, एक जोड़ा कपड़े इस बैग में धरे रखता हूं...दरअसल डाक्दर बाबू, मैं एक वृद्ध आश्रम चलाता हूं और इस एनजीओ को रजिस्टर करवाया हुआ है..."

"आप वृद्ध आश्रम चलाते हैं, कहां, कितने लोग रहते हैं वहां?" ....डाक्टर ने तो जैसे प्रश्नो की झड़ी लगा डाली ...

रामदीन ने बताया ....." रिटायरमैंटी के बाद मैंने ८० हज़ार रूपये बिसवा के हिसाब से अढ़ाई बिसवा जमीन गांव में खरीद ली ..बाराबंकी के पास ही है ...चहारदीवारी करवा दी...बस, अपने हाथ से तीन चार हज़ार खर्च हो जाता है ...वहां पर दो लोग रखे हुए हैं जो अपनी सेवा के लिए पैसा नहीं लेते...

कहीं पर भी कोई बूढ़ा बुज़ुर्ग मिल जाता है ..अच्छे माथे वाला ...या कोई उलझन में बूढ़ा दिख जाता है मारा मारा फिरता तो उसे हम लोग उस आश्रम में ले आते हैं...वहां एक दो दिन रखते हैं...उस के घर फोन करते हैं कि आप का पिता हम लोगों के यहां हैं, ले जाइए...दो दिन के बाद पुलिसिया कार्रवाई करवा देंगे...."

"पुलिसिया कार्रवाई ?"... डाक्टर ने पूछा

"हां, हां, सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाया है कि बुजुर्गों को बच्चे ऐसा ठोकरें खाने के लिए नहीं छोड़ सकते, वरना कार्रवाई होगी और १० हज़ार रूपये का मासिक खर्चा-पानी देना होगा..."

"बस, इतना सुनते ही वे आकर बाप को लिवा ले जाते हैं...और हम लोग उस के परिवार वालों से एक एफीडेविट भी ले लेते हैं...यह कहते रामदीन के चेहरे पर खुशी साफ़ दिख रही थी."

"रामदीन, आप तो बहुत अच्छे काम का बीडा़ उठाए हो....बहुत अच्छे.."- यह कहते हुए डाक्टर ने उसे शाबाशी दी...

"साब, यह काम करने का मुझे ध्यान अपने बूढ़े बाप की हालत से आया...मेरा बाप मेरे भाई के पास रहता था, सारी ज़मीन जायदाद उस से लिखवा कर, उसे घर में ही बंद कर दिया...तिल तिल मरने के लिए....कईं महीने बीत गए...इस दौरान मैं जब भी बापू से मिलने जाऊं..हर बार यही जवाब मिले ...कि बापू तो वहां गये हैं....अब उधर गये हैं....एक बार मुझे शक हुआ...मैंने एक बंद कमरे को देखा तो भाई से पूछा कि यह बंद क्यों हैं.....कमरा खोला ...तो देखा मेरा बाप बुरी हालत में अंदर दुबका पड़ा था, मुझे देखते ही उसने मुझे अपनी कमज़ोर बांहों में कस लिया....मेरा मुंह चूमा....मैंने पूछा ..बाबा, कुछ खाओगे, ..कहने लगा ..हां, बेटा, बर्फी खाऊंगा..... मैंने तुरंत किसी बच्चे को बाज़ार भिजवा कर बर्फी मंगवाई....डाक्साब, बापू ने बर्फी का एक टुकड़ा खाया, पानी का एक गिलास पिया और वहीं मेरी बांहों में ही लुढ़क गया......चल बसा बेचारा, जैसे मेरी ही बाट जोह रहा था.......बहुत से बुज़ुर्गों को इसी तरह से तिल तिल मरने पर मजबूर किया जाता है ...पहले उन से सब कुछ हथिया लिया जाता है ...बस, फिर ठोकर मार दी जाती है.."

 "उस दिन से मैंने यह सोच लिया कि अब यही काम करूंगा ...बुज़ुर्गों के लिए कुछ करूंगा....और मैं इस काम में लग गया....चलता फिरता रहता हूं...ठहरने खाने की कोई चिंता नहीं, कहीं भी जैसा भी रहने खाने को मिल जाता है....मैं खुश हूं..परिवार है, बच्चे हैं, अपना गुज़ारा कर लेते हैं... बीवी से मेरी पटड़ी सारी उम्र नहीं खाई. उस की सोच अलग है, वह सोचती है कि कैसे किसी से कुछ मिल जाए...मैं सोचता हूं कैसे किसी को हम कुछ दे सकें...बस, ऐसे ही है ..."


डाक्टर ने उस के पारिवारिक जीवन में झांकना मुनासिब न समझते हुए विषयांतर किया...."अच्छा, आप को इस एनजीओ चलाने के लिए कहीं से पैसा मिलता है...जैसे कोई सरकारी सहायता आदि?"

"नहीं, नहीं, बिल्कुल कोई पैसा नहीं मिलता ....हम सब लोग मिल कर इंतजाम कर लेते हैं...जिन बुज़ुर्गों को हम अपने यहां लाते हैं...उन्हें एक दो दिन का खाना हमारे सेवक अपने घर से ही खिला देते हैं...वह कोई दिक्कत नहीं है..."

पढ़े-लिखे शहरी लोग तो हर बात में नफ़ा-नुकसान का हिसाब लगा कर ही कुछ करते हैं.....डाक्टर साहब के दिल की बात उन की जुबां पर आ ही गई...."रामदीन, इस एनजीओ से आप को फिर मिलता क्या है?"

"डाक्साब, इलाके मेंं मेरी पूछ है....मेरा एन जी ओ रजिस्टर्ड है, किसी सिपाही दारोगा की इतनी हिम्मत नहीं कि मुझ से ऊंची आवाज में बात करे या मुझे छू भी सके....न ही कोई हम लोगों पर यह इल्जाम ही लगा सकता है कि हम ने किसी बुज़ुर्ग को किडनेप कर के अपने आश्रम में रखा है... एक पहचान है इस की वजह से मेरी " -अपने वृद्ध-आश्रम का विज़िटिंग कार्ड डाक्टर को दिखाते हुए रामदीन एक सांस में ही इतना सब कह गया...

डाक्टर ने उस कार्ड पर रामदीन अध्यक्ष लिखा देखा....फिर से रामदीन की तरफ़ देखा तो उसे रामदीन की आंखों में एक अजीब सी चमक दिखी .........पहचान की चमक!

स्मार्ट फोन ने हमें कितना स्मार्ट बना दिया...

स्मार्ट वार्ट कुछ नहीं बना दिया...हम लोग कुछ मामलों में पहले से ज्यादा बेवकूफ से हो गये हैं...

हर समय अपनों की कुशलता जानने के चक्कर में अपनी और दूसरों की नाक में दम कर रखा है हमने...

पहले का ज़माना याद आता है तो हैरानगी भी होती है ...१९७० के दशक के शुरूआत की बातें याद आती हैं तो यकीन नहीं होता कि आप कुछ दिन शहर के बाहर गये हैं और वहां पहुंचने का या अपनी कुशल-क्षेमता घर पहुंचाने का एक ही जरिया होता है खत...पोस्ट कार्ड या अंतरदेशीय लिफाफा...वह दूसरे वाला पीला एन्वेल्प तो फिजूलखर्ची समझा जाता है...

कईं बार तो लोग कईं कईं दिन खत की इंतज़ार किया करते कि इतने दिन हो गये अभी तक कोई पहुंचने की खबर नहीं आई...
अब तो हम लोग मिनट मिनट की खबर चाहते हैं...खुद भी परेशान होते हैं और दूसरों को भी परेशान कर मारते हैं....और अगर किसी का फोन कुछ समय के लिए स्विच-ऑफ मिला तो ज़मीन-आसमान एक कर देते हैं...सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्मों पर उस बंदे की एक्टिविटी चैक कर मारते हैं...ऐसे ही हैं न हम लोग! 


हर तरफ़ फार्मेलेटी करना सीख गये हैं....ऐसे ही दुनिया भर के लोगों को सुबह से शाम मैसेज करते रहना ...कोई एक्नालेज करे या न करे, बस हम एक्टिव दिखना चाहते हैं..

लेकिन कभी नोटिस करिएगा कि इस सब के चक्कर में हमारा संवाद उन अपनों से बिखर गया है जिन के पास स्मार्ट फोन नहीं है ...हमें सब से ज्यादा दुःख आज तब होता है जब पता चलता है कि अपने फलां फलां बंदे के पास स्मार्ट फोन नहीं है ...और उस से भी ज़्यादा शायद तब जब हमें पता चलता है कि वह न तो वाट्सएप इस्तेमाल करता है और न ही वह फेसबुकिया है....

लेकिन मेरी इस के बारे में सोच अलग है ...मुझे यह स्मार्ट-फोन आफ़त लगते हैं...ठीक है फायदे तो हैं ही लेकिन ओवरयूज़ से सिर जकड़ा जाता है बहुत बार ... हर समय इसे हाथ में पकड़े रखना एक मुसीबत जान पड़ती है ... 

मुझे बड़ी खुशी होती है जब मेरे किसी मरीज़ को कोई फोन आता है और वह अपने थैले के किसी कोने से बाबा आदम के ज़माने का रबड़-बैंड की मदद से जुड़ा हुआ फोन निकालता है ...पूरे जोर से बटन दबा कर कॉल को रिसीव करता है और इत्मीनान से उसे फिर उसी थैले के सुपुर्द कर देता है ....मेरे विचार में वह बंदा अकलमंद है ....फोन का जो काम है ...फोन करना और सुनना ...वह काम ही वह उस से लेता है ...और किसी तरह की कोई सिरदर्दी नहीं पालता। 

मेरे पास सरकारी फोन है, इसे हर समय रखना मेरी मजबूरी है ....मैं पहले भी शेयर कर चुका हूं कि जब इस फोन को रखना मेरी मजबूरी न होगा तो मैं भी एक दो चार रूपये का बेसिक फोन खरीद लूंगा..

हां, तो मैं बात कर रहा था कि आधुनिकता (?) की दौड़ में वे रिश्तेदार कुछ पीछे छूटते दिखते हैं जिन के पास स्मार्ट-फोन नहीं है ...जिन के पास है भी उन के साथ भी हम सब लोग कितना जुड़ पाते हैं यह भी एक आत्मचिंतन का विषय तो है ही ....लेकिन अभी तो उन अपनों की बाते ंकरें जिन के पास यह सुविधा नही ंहैं....

मुझे अकसर ध्यान आता है कि हम लोग पोस्टकार्ड के दौर के प्राडक्ट हैं...हम कैसे अचानक इतने बदल जाते हैं....प्रधानमंत्री के एक टीचर उन्हें ९० साल की उम्र में हाथ से चिट्ठी लिख कर भेजते हैं...और पीएम उसे पाकर खुश हो जाते हैं...

हम लोगों ने चिट्ठियां लिखनी लगभग बंद ही कर दीं ....विभिन्न कारणों की वजह से ... क्यों न हम वापिस खतो-किताबत भी कर लिया करें....अगर अपनों के पास सोशल मीडिया नहीं भी है तो क्या फर्क पड़ता है, बेसिक फोन पर एसएमएस की सुविधा तो हरेक फोन पर है....हम क्यों उन अपनों के साथ एसएमएस के ज़रिये से ही क्यों जुड़े नहीं रह सकते! उन सब को भी कभी कभी अच्छी सकारात्मक बातें भिजवा दिया कीजिए...वाट्सएप पर ज्ञान की वर्षा तो निरंतर होती ही रहती है ...बस वहां से कापी करिए और एसएमएस कर दीजिए..

आज मैं यह प्रश्न आप सब के लिए छोड़ कर अपनी बात को यहीं विराम दे रहा हूं ...सोचिएगा....मैंने तो सोच लिया है...फैसला कर लिया है ...