शनिवार, 21 नवंबर 2015

परिंदों को खुले में उड़ान भरने का अधिकार है क्या?

इस प्रश्न के बारे में कुछ बताने से पहले मैं एक गीत लगा देता हूं...बहुत ही खूबसूरत गीत..परिंदों की आज़ादी का जश्न मनाने वाला गीत.....पंछी, नदियां, पवन के झोंके..कोई सरहद न इन्हें रोके..याद आया कुछ?



वैसे भी हम सब की ज़िंदगी में परिंदे कभी न कभी तो रहे ही हैं...स्कूल के दिन याद हैं जब हम लोग पक्षियों के चहचहाने के बारे में कविताएं गुनगुनाते थे... गर्मी के दिनों में सुबह सुबह उठते तो पक्षियों की बहुत सी आवाज़ें सुनने को मिलतीं...आंगन में अकसर बहुत से पक्षी रोज़ाना आते...कभी कभी बिल्कुल नये से पक्षी दिखते..जिन्हें पहले नहीं देखा होता था...कितना मज़ा आता था ना तब। 

एक तो वैसे ही पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों पर आफत आई हुई है ...ऊपर से यह जो बचे खुचे पक्षियों के ऊपर पक्षी-प्रेम नाम के बहाने तरह तरह के अत्याचार हो रहे हैं...ये देख-सुन-पढ़ कर बहुत बुरा लगता है। 

हम तरह तरह के विभिन्न पशु-पक्षियों पर अत्याचार किए जा रहे हैं.. मैंने पिछले दिनों ये तस्वीरें खींची थी ...मुझे बहुत बुरा लगा था..लगा क्या, रोज़ाना लगता है, जिस तरह से हम पक्षियों को ट्रीट करते हैं।

आज मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया में जब एक खबर देखी तो पहली बार तो मुझे कुछ ज़्यादा समझ में नहीं आया...फिर से अच्छे से पढ़ा तो पता चला कि मामला है क्या!

खबर यही है कि अब सुप्रीम कोर्ट यह फैसला करेगी कि क्या परिंदों को परवाज़ का अधिकार है या फिर उन्हें पिंजरों में कैद कर के रखा जा सकता है!
( Please click on this pic to read clearly)..ToI. 21Nov' 2015
मैंने पहली बार यह जाना कि परिंदों पर किस तरह से अत्याचार हो रहे हैं... इन के पंख काट दिये जाते हैं, पंख काटने के बाद उन पर सेलो-टेप लगा दी जाती है..और फिर उन की टांगों पर अंगुठियां डाल दी जाती हैं...कुछ अरसा पहले बहुत से ऐसे पंक्षी जब्त किए गये थे...गुजरात हाई कोर्ट ने निर्णय दिया है कि पक्षियों को पिंजरों में बंद करना उन के स्वतंत्र रहने के अधिकार का हनन है। 

लेिकन कुछ "पेट लवर्ज़ (Pet lovers)" संगठनों ने सुप्रीम में यह केस कर दिया है कि गुजरात हाई कोर्ट का यह फैसला गैर-कानूनी है...इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट का एक बेंच यह फैसला करेगा कि क्या गुजरात कोर्ट का फैसला सही है या नहीं कि परिंदों को आसमां में आज़ाद हो कर उड़ान भरने का अधिकार है!

मुझे सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर पूरा भरोसा है और यही कामना है कि फैसला पक्षियों की बिंदास उड़ान के हक में हो.....हम लोग इन परिंदों से,  इन के ऊपर बने शेयरों से ही इतनी इंस्पीरेशन लेते रहते हैं... 

सपने वही सच होते हैं जिन में जान होती है...
पंखों से कुछ नहीं होता, हौंसलों की उड़ान होती है!

और जहां तक पंक्षियों के साथ निःस्वार्थ प्रेम की बात है ...वह हम लोग अकसर अपने आस पास देखते ही रहते हैं ..जब लोगों को चौराहों पर इन नन्ही जानों को दाना डालते देखते हैं... कभी कभी व्हाट्सएप पर देखते हैं कि कैसे लोग घायल परिंदों की मरहम-पट्टी करते हैं......और मैं अपने सामने वाले घर के बाहर यह नज़ारा देखता हूं......इस से सुंदर भला इन नन्हें परिंदों की मेजबानी करने का और क्या तरीका हो सकता है!......यह तस्वीर मैंने आज बाद दोपहर खींची...

वैसे मेरी बीवी भी इन नन्हे परिंदों पर बहुत फिदा हैं....बालकनी में इन के आने का बहाना तैयार कर के रखती हैं रोज़ और फिर जब कोई भी मेहमान चंद लम्हों के लिए आता है तो मुझे बताते हुए खुश हो जाती हैं.....मैं अपना कैमरा पकड़ कर तस्वीर खींचने लगता हूं किचन के अंदर से ही तो ये मेहमान फुर्र से उड़ जाते हैं......कभी कभी मेरे कैमरे में कैद हो जाते हैं......जैसा कल यह वाला परिंदा हो गया था...

काश ! इन परिंदों की आसमां में बिंदास, ऊंची उड़ाने हमेशा कायम रहें....

कुछ बातें कानून नहीं बदल सकता,  उस के लिए हमारे मन बदलने होंगे...बस यही उम्मीद बची है कि हमारी सोच बदल जाए..बस, हम लोग ढोंग करना छोड़ दें .......पक्षी प्रेमी होने के नाम पर इन को पिंजरों में ठेल दिया, यह क्या बात हुई.....हम इन्हें आज़ाद कर दें ताकि ये फिर अपनी इच्छा से हमारे पास रोज़ चंद लम्हों के लिए बार बार आएं...हम से बात करने ...हमारा हाल चाल लेने, अपना हाल चाल देने.....मुझे व्हाट्सएप पर पिछले दिनों चलने वाला एक कार्टून याद आ गया.....सूरज उदय हो चुका है..और एक बंदा अपने बिस्तर पर लेटा हुआ है अपने कमरे में...उस की चद्दर पर दस बीस परिंदे उस का हाल चाल पूछने आये हैं..और कह रहे हैं....... दोस्त, क्या हाल है?..सब ठीक तो है ना, आज हम ने तुम्हें पार्क में टहलते नहीं देखा तो चिंता हुई, इसलिए हाल चाल पूछने आ गए!........सच मे ऐसे ही होते हैं ये नन्हे जीव, कभी इन से बतिया कर के देखिए तो! 

अभी पोस्ट का पब्लिश बटन दबाने लगा तो बचपन में सैंकड़ों-हज़ारों बार जलंधर रेडियो स्टेशन से सुना हुआ मन जीते जग जीत पंजाबी फिल्म का यह गीत ध्यान में आ गया... जदों जदों बनेरे बोले कां........इस में मुटियार अपने मन के उद्गार प्रगट कर रही है कि जब जब भी आंगन में कौवा आ कर बोलता है तो मुझे तेरे आने की आस बंध जाती है... सुंदर गीत है, पंजाबी नहीं भी समझ में आती तो भी सुनिएगा....

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

डाक्टर, आप की बात टेप ही कर लेता हूं!

इस से पहले की मैं आप को एक वाकया सुनाऊं, मैं आप को उस परिवेश से रू-ब-रू करवाना चाहूंगा जिस में हम पले-बढ़े और जिस में डाक्टर और मरीज कैसे हुआ करते थे!

स्कूल कालेज के दिनों तक हमारा वास्ता इस तरह के सरकारी डाक्टरों से पड़ा जो अपने मरीज़ों की तरफ़ देखे बिना कुछ न कुछ लिख दिया करते थे...बात करना और चेक करना तो दूर, वे पूरी तकलीफ़ सुने बिना अस्पताल में मौजूद दो चार तरह की दवाईयों में से दो का नुस्खा लिख कर थमा देते थे, वे हमें वहीं से मिल जाती थीं...हम घर आकर एक दो खुराक खा लेते थे... बाकी दवाईयां फैंक दिया करते थे, डाक्टरी की बेरूखी की वजह से दवाई खाने की इच्छा ही कहां हुआ करती थी! 

एक दो दिन में तकलीफ़ ठीक हो गई तो ठीक, वरना हमारे पिता जी किसी कैमिस्ट से दो चार खुराकें लाते और वे हमें लग भी जाया करती थी, नहीं तो माता जी के साथ अमृतसर के एक नामचीन डाक्टर कपूर के पास जाना होता था...वह भी बातें कम करते थे लेकिन काम में एक्सपर्ट थे... मुझे अच्छे से याद है मरीज़ सभी डरे-सहमे-सिमटे उन की क्लिनिक की बेंचों पर बैठे रहते थे. बातें ज़्यादा नहीं करते थे, अपना काम जानते थे, लेकिन बंदा चिड़चिड़ा सा था थोड़ा, एक से दूसरी बात पूछने पर भड़क जाता था, आज से चालीस साल पहले वाला ज़माना सीधे साधे लोगों का था, कहने का मतलब यही कि सब तरह के डाक्टर बस जैसे तैसे चल जाया करते थे। 

और जहां तक डाक्टर के पास जाकर ज़्यादा बात करने की बात है, तौबा भई तौबा ...यह हम ने कभी बचपन में देखा ही नहीं, हमारे मां-बाप से ही एक से दूसरी बात डाक्टरों के साथ नहीं होती थी तो हम ने ही क्या करनी थी! बस, दब्बू गूंगे से बन कर बैठे रहते थे।

आज के दौर में जिस तरह से छोटे बच्चे भी आत्मविश्वास से बात करते हैं ...अधिकतर ...उस समय लगता है कि हां, ज़माना बदल चुका है बहुत.... लेकिन कईं बार जब हद पार हो जाती है तो थोड़ा अजीब सा लगता है, मैंने यह नहीं कहा गलत लगता है, यही कहा कि कुछ अलग सा लगता है जैसा कि मैं आप को एक असल वाकया सुनाने लगा हूं।

उस दिन वह अधिकारी मेरे पास आया था... सेकेंड ओपिनियन के लिए...उस की पत्नी का कहीं से इलाज चल रहा था, उसे सेकेंड ओपिनियन चाहिए था। बता रहा था कि घर दूर है, इसलिए बीवी को साथ नहीं ला सकता था। 

जब मुझे उस से बात करते पांच मिनट हो गये तो...उसने कहा कि डाक्टर, अच्छा होगा अगर मैं आप की बात टेप कर लूं..(उसने यही शब्द टेप ही बोला था).....मुझे अजीब नहीं, बहुत ही अजीब लगा था, शायद अटपटा भी ...क्योंकि इस तरह की बातें सुनने की शायद आदत नहीं है ...यह मेरे साथ पहली बात हुआ।

मैंने तुरंत उसे हल्के अंदाज़ में कहा ...नहीं, नहीं, उस की कोई ज़रूरत नहीं है, आप की पत्नी जब आएंगी तो मैं ये सब बातें दोबारा फिर से बता दूंगा.... लेकिन उसने मेरी बात सुनी-अनसुनी कर दी ... और तब तक वह स्मार्ट अधिकारी अपने से भी स्मार्ट फोन पर उंगली चलाने लगा और रिकार्ड का बटन दबा कर फोनवा जेब में रख कर मेरे सामने बैठ गया.......मैंने अगले १५-२० मिनट उस से बात की....लेिकन मुझे बीच बीच में थोड़ा सा अजीब ज़रूर लगता रहा।

अब आप सोच रहेंगे कि मैंने उसे इजाजत ही क्यों दी कि वह मेरा इतना लंबा वार्तालाप रिकार्ड कर ले, उस का जवाब एक तो यह है कि मैं तो इजाजत तभी देता अगर वह मांगता, लेिकन यह तो एक तरह की जबरजस्ती ही समझें......और दूसरी बात जो मेरे ज़हन में उस समय कौंध रही थी वह यही थी कि इसने तो पूछ कर बात रिकार्ड की है, अगर मेरे चेंबर के बाहर ही से यह मोबाइल फोन ऑन कर के अंदर आ जाता तो मैं क्या कर लेता, मुझे क्या पता चल पाता!

और एक ध्यान यह भी आया कि वैसे भी दिन में पता नहीं कितने लोग क्या क्या रिकार्ड कर ले जाते होंगे, हर हाथ में एक स्मार्ट फोन होता है, रिश्तेदार इलाज करवा रहे होते हैं और साथ आने वाला हमारे सामने वाली कुर्सी पर बैठ कर स्मार्ट फोन के साथ लगा रहता है...यही सब सोच कर लगा कि इस अधिकारी को सख्ती से मना ना ही करना मुनासिब है।

वैसे भी आज कल रिकार्डिंग डिवाइस कुछ ज़्यादा ही दिखने लगे हैं....स्टिंग आप्रेशन स्टाईल के ...दो दिन पहले मैं लेपटाप के लिए एक केबल खरीदने गया  था, वहां पर सब तरह के खुफिया कैमरे जो हम लोग टीवी के विज्ञापनों में ही देखते हैं, वे सब बिक रहे थे...खुफिया कैमरे से लैस पेन भी...लेिकन मैंने उन्हें देखने का भी कष्ट नहीं किया......जब ये सब घटिया हरकतें करनी ही नहीं कभी तो इन के चक्कर में पड़ना ही क्यों!

मैंने कभी भी किसी की फोन की बातचीत भी रिकार्ड नहीं की है......मैंने अपने किसी भी फोन में यह फीचर ढूंढने तक की ज़हमत नहीं उठाई...क्योंकि किसी के साथ इस से बड़ा विश्वासघात क्या होगा कि आप बिना उस की जानकारी के उस की बातचीत रिकार्ड कर लें, फिर उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करें.....मैं जिस परिवेश में पला-बढ़ा हूं और जो हमें घर-बाहर से सिखलाई मिली है ,उस के मुताबिक इसे पीठ में छुरा (back stabbing)घोंपना कहते हैं... इसे बहुत गलत समझा जाता है....जब किसी ऐसे आदमी के बारे में पता चल जाता है तो उस की साख ज़ीरो हो जाती है....कोई उस से सलाम-दुआ तक नहीं करना चाहता। आदमी की करेडिबिलिटी बहुत बड़ी पूंजी है, मैं ऐसा समझता हूं....इसलिए किसी के साथ भी विश्वासघात बहुत महंगा पड़ता है। 

कईं साल पहले की बात है ...आठ दस साल पहले की...हमें एक बंदे का पता चला जो सब की बातें रिकार्ड कर लिया करता था ..फिर उसे अपने स्वार्थ के लिए यूज़ भी किया करता था....मुझे याद है कि जिस दिन मुझे यह पता चला... उस दिन से ही मैं उस के साथ फोन पर बात करने से ही कतराने लगा... यहां तक कि वह जब कहीं मिल भी जाता तो यही लगता कि जेब में रखे अपने फोन से ये सारी बातें रिकार्ड कर रहा होगा......और ज़ाहिर सी बात है कि कुछ समय बाद उस के साथ वार्तालाप का स्टाईल कुछ इस तरह का हो गया कि जैसे वह हर बात रिकार्ड कर रहा है... यह कहूं कि उस के बाद उस के साथ बात करने में मज़ा ही नहीं आया...लेिकन अब समय इस तरह से बदला है कि अब यह टेंशन बिल्कुल भी नहीं रही, अब तो ये सब बातें इतनी आम हो गई हैं कि यह इश्यू ही नहीं रहा.....करो, यार, करो रिकार्ड ...और कर लो जहां चाहते हो इसे इस्तेमाल ...लेिकन फिर भी उस दिन जब उस अधिकारी ने मुझे कह कर मेरी बात रिकार्ड की तो मुझे अटपटा सा लगा.......सोचने की बात है कि आखिर मुझे ऐसा लगा क्यों ? कभी फुर्सत में अपने आप से फिर पूछूंगा। मेरे पास भी छिपाने के िलए कुछ भी तो नहीं था!

उस अधिकारी के पास अपनी पत्नी के एक्स-रे की सी.डी थी...जिसे उसने अपने लैपटाप में लगा लिया ...और फिर मेरे से वार्तालाप शुरू किया....सेकेंड ओपिनियन तो क्या, बीच बीच में मुझे उस के प्रश्नों से लग रहा था जैसे वह मेरा वाईवा (viva voce) ले रहा हो.. a sort of structured interview...और मेरे चेंबर से बाहर निकलने से पहले उसने मेरे को दूसरे विशेषज्ञ की प्रिसक्रिप्शन भी दिखाई और पूरी तरह से आश्वस्त हो गया कि जो इलाज चल रहा है वह बिल्कुल दुरूस्त है। 

डाक्टर मरीज के संबंध भी बड़े नाज़ुक और अजीब होते हैं, there are many layers to it...जहां तक हो सके इसे जटिल न बनाया जाए, ऐसा मैं सोचता हूं....सोचता ही नहीं हूं...इसे व्यवहार में भी लाता हूं.....मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता कि मैं किसी विशेषज्ञ को यह पाऊं कि मैं उस की बात को रिकार्ड करना चाहता हूं। 


यह वाकया मेरे साथ उस दिन पहली बार हुआ... लेिकन इस ने मुझे एक सबक सिखा दिया....मैं खुलेपन की बात तो बहुत करता हूं लेिकन मैं इतना भी नहीं खुल पाया हूं कि इस तरह के कोई पहले बता के सारा वार्तालाप रिकार्ड कर के ले जाए.... (बिना बताए चाहे वीडियो बना ले जाए.......हा हा हा हा हा हा हा ....है ना विडंबना...लेिकन जो है, सो है , मैं महानता का ढोंग भी करने से नफ़रत करता हूं!) .... यही सोचा है कि अगली बात जब कोई इस तरह से किसी वार्तालाप को रिकार्ड करने की बात करेगा तो उसे साफ़ साफ़ मना ही कर दूंगा.....मुझे यही ठीक लगता है....विशेषकर जब मरीज साथ आया नहीं है , उस का रिकार्ड दिखा नहीं रहे हो ...बस एक्स-रे दिखा कर ही मुकम्मल रिकार्डिंग कर लेना चाहते हो।

कोई बात नहीं, रिकार्डिंग तो हो गई , लेकिन ना चाहते हुए भी मैंने अपने मन में उस बंदे के बारे में एक ओपिनियन कायम कर लिया(इस काम में तो हम सब एक्सपर्ट हैं ही!!) ...अब जो है सो है! ...I can't help it!

अच्छा, अब चित्रहार की बारी है.....कोई गीत समझ में ही नहीं आ रहा.....चलिए, बचपन के िदनों का एक सुपरहिट गीत ही लगा देते हैं...अभी याद आ रहा है... बड़े दिनों बाद ध्यान में आया है.. अच्छा लगता है!

बुधवार, 18 नवंबर 2015

बॉयोलॉजिक घड़ी का भी ध्यान रखना ज़रूरी

लखनऊ में एक जेल रोड है...मेरा उधर से निकलना अकसर होता है...आगे चल कर यह वीआईपी रोड़ के साथ मिल जाती है...इस जेल रोड़ पर सुबह ६-७ बजे के बाद से ही सारा दिन यातायात की आवाजाही खूब रहती है...मैं शाम के समय विशेषकर जब इस रोड़ पर किसी को टहलते देखता हूं तो मुझे रूक कर उसे कुछ कहने की इच्छा होती है..लेिकन विभिन्न कारणों की वजह से ऐसा कर नहीं पाता हूं..बस, कुछ महीने पहले एक नवयुवक जो जॉगिंग कर रहा था इस रोड़ पर उसे मैंने रूक कर ज़रूर कहा था कि इस तरह के ट्रैफिक में इस तरह की ऐरोबिक कसरत का फायदा कम और नुकसान ज़्यादा हो सकता है..शाम के समय प्रदूषण भी खूब बढ़ जाता है। बात उस की समझ में आ गई थी, मुझे ऐसा लगा था।

इसी रोड़ पर सुबह ६-७ बजे जब लोग टहलते हैं तो कोई चिंता की बात नहीं है, उस समय वातावरण ठीक ही होता है। लेकिन शाम के समय केवल जॉगिंग करना ही नहीं, आधा-एक घंटा टहलना भी ऐसी रोड़ पर सेहत के लिए अच्छा नहीं हो सकता।

लिखते लिखते ध्यान आ गया...आज कल के जिम कल्चर के दिनों में...मैंने जो नोटिस किया है ...लोग कुछ इस तरह से सोचने लग गये हैं कि जिस समय टाइम मिले या जो स्लॉट जिम का खाली हो, उसी समय जा कर वर्क-आउट कर आएंगे...विभिन्न कारणों की वजह से महिलाओं में तो मैंने विशेष देखा है कि सुबह नाश्ते के बाद जिम या लंच से पहले जिम या दोपहर में जिम हो कर आ जाती हैं। मुझे लगता है कि यह भी बॉयोलॉजिक क्लाक की कहीं न कहीं अनदेखी है...ईश्वर ने हमारे शरीर में एक बेहद सुंदर, नैसर्गिक घड़ी फिट कर रखी है कि हर काम करने का एक टाइम लगभग फिक्स कर दिया गया है--खाने का समय, काम करने का, टहलने का, सोने का, पढ़ने का ...कुछ भी। अगर हम उस के अनुसार चलते हैं तो फायदे में रहते हैं, वरना अपने मेटाबॉलिज़्म को गड़बड़ा देते हैं।

यह जो मैंने वक्त बेवक्त जिम जाने की बात करी है, इस से यह तो ज़रूर होगा कि चर्बी पिघल जाए...ज़रूर वजन कम हो जाता होगा... (अब जब भी मैं यह शब्द "होगा"  इस्तेमाल करता हूं तो मुझे फिल्म आंखो-देखी याद आ जाती है...



बड़ी मजेदार फिल्म है, देखिएगा...मैंने तो तीन चार बार देख ली, मुझे बहुत पसंद आई) ...लेिकन जब हम लोग सुबह टहलने निकलते हैं, योगाभ्यास, प्राणायाम् करते है, कुछ भी व्यायाम आदि करते हैं....प्रकृति के सान्निध्य की वजह से ..सेहतमंद रहने की हमारी कोशिशों में चार चांद तो लग ही जाते हैं...उन से होने वाले लाभ कईं गुणा बढ़ जाते हैं....प्रदूषण ना के बराबर होता है, एक बात....दूसरी बातें, जैसे प्रातःकाल की अनुपम छटा, उदय होता सूरज, पक्षियों का चहचहाना....सब कुछ कितना आनंद देने वाला होता है...यह नैसर्गिक अनुकम्पा हमें दिन की शुरूआत अच्छे से करने में बेहद मदद करती हैं...

इसे अच्छे से पढ़ने के लिए इस पर क्लिक करिए....और इस बात को गांठ बांध लीजिए
ये सब बातें आज आप से करने की इच्छा सुबह से हो रही थी...आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में एक खबर पढ़ी कि चिकित्सा विशेषज्ञों ने लोगों को सचेत किया है कि शाम के समय टहलना सेहत के लिए खराब है...यह बात उन्होंने विशेषकर सांस के रोगियों के लिए कही है.....आप इस खबर को नीचे दी गई तस्वीर पर क्लिक कर के अच्छे से पढ़ सकते हैं... देखिएगा... बाकी, बातें तो ऊपर आप से साझा कर ही ली हैं।

लेकिन जाते जाते मन हो रहा है कि कुछ ऐसी बातें तो ज़रूर यहां दर्ज कर ही दूं जिस के द्वारा हम लोग अपनी बॉयोलाजिक घड़ी को खराब करने में और अपनी मैटाबॉलिज्म को पटरी से उतारने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते ..
  • रात को देर से सोना, सुबह देर से उठना, नींद का पूरा न होना...
  • सुबह नाश्ता नहीं करना
  • दोपहर को खाना टाल देना, जंक-फूड से काम चला लेना ..बार बार चाय पीते रहना 
  • रात को बहुत लेट खाना और भारी खाना, और खाते ही बिस्तर पकड़ लेना
बस, इस पोस्ट के माध्यम से इतना ही संदेश पहुंचाना चाहता था कि टहलना ही काफी नहीं है, उस का समय और जिस वातावरण में टहला जा रहा है, वह भी कहीं ज़्यादा अहम् है...हां, शाम के समय ही अगर आप को समय मिलता है टहलने का तो किसी पार्क आदि में चले जाइए जहां पर हरियाली रहती है और अकसर वहां पर प्रदूषण का इतना प्रभाव नहीं रहता.....और जहां तक रात के समय खाने के बाद टहलने की बात है, उस समय तो बस बिल्कुल धीरे धीरे १०-१५ मिनट टहलकदमी ही की जा सकती है...

टहलने, घूमने, व्यायाम करने की बातें चलती हैं तो फिर जागर्ज़ पार्क फिल्म का ध्यान आ ही जाता है, क्या आपने वह फिल्म देखी है, अगर नहीं तो देखिएगा...यू-ट्यूब पर पड़ी है... 




खुरदरे मंजन कोई जादू तो नहीं कर देते ?


१९८० के दशक में जब हम लोग डेंटिस्ट्री पढ़ रहे थे तो यही सोचते थे कि खुरदरे मंजनों की समस्या इतनी व्यापक नहीं है, लेकिन नहीं...खुरदरे मंजन भयंकर क्षति पहुंचा रहे हैं।

मैंने शीर्षक में लिखा है कि खुरदुरे मंजनों का जादू....बिल्कुल ठीक लग रहा है मुझे यह लिखना...क्योंकि जब हम लोग किसी के ऐसे दांत देख कर उस को खुरदुरे चालू किस्म के मंजन त्यागने के लिए कहते हैं तो कुछ लोग हमारी बात मानने की बजाए उसी मंजन की तारीफ़ें करनी शुरू कर देते हैं...यही कहते हैं कि पहले तो समस्याएं बहुत थीं दांतों और मसूड़ों की ..लेकिन जब से फलां फलां मंजन रगड़ना शुरू किया है, आराम मिल गया....और यह भी कहते हैं कि दांतों के घिस जाने से भी उन्हें पहले तो कोई दिक्कत नहीं थी अब ही यह सूजन-दर्द हो गया है।

चलिए अपनी बात को एक मरीज़ का उदाहरण लेकर समझाने की कोशिश करते हैं...जिस बंदे की आप यह तस्वीर देख रहे हैं ये मेरे पास आज आए थे...दांतों की बरबादी और साथ में सूजन तो आप देख ही रहे हैं। इस बंदे ने बताया कि वह वही पेस्ट-मंजन इस्तेमाल करता है ...जो देश में बहुत प्रचलित है...यह पिछले बीस-तीस वर्ष से उसे ही कर रहे हैं...(मंजन-पेस्ट का नाम लिखना नहीं चाहता, चाहता तो हूं.....लेकिन हिम्मत नहीं है, कहीं कोई कंपनी वाला मुझे मरवा ही न दे!!..कुछ भी हो सकता है....मैं समझता हूं इस बात को .....हा हा हा हा हा ह ाहाहा हा हा ..)

 खुरदरे मंजन किस तरह से दांतों को नष्ट कर देते हैं...आज जो मरीज मेरे पास आया उस के दांत
(ऊपर वाली पोस्ट भी इसी मरीज़ की ही है, फ्लेश के साथ) 
इस तरह के मुंह की तस्वीर हमें दिन में कईं बार देखने को मिलती है....हर रोज़ बार बार ऐसे मरीज़ों को समझाना-बुझाना पड़ता है कि इस तरह के खुरदरे पेस्ट-मंजन में गेरू मिट्टी भी मिली रहती है..कुछ में तंबाकू भी मिला रहता है...इन के मुंह के अंदर ब्रुश से इस्तेमाल करने से या अंगुली से घिसने से दांत घिसने शुरू हो जाते हैं....थोड़ा थोड़ा ठंडा गर्म लगने लगता है...लेिकन फिर भी लोग इसे इस्तेमाल करना नहीं छोड़ते ....लगे रहते हैं...नतीजा यही होता है जो इस मरीज में हुआ ...दांत इतना घिस जाता है कि उस की नस नंगी हो जाती है...और फिर उस की जड़ के नीचे फोड़ा (abscess) बन जाता है... अब ऐसा नहीं है कि इस तरह की तकलीफ कोई जानलेवा तकलीफ़ है, नहीं, ऐसा नहीं है।

इस फोड़े की वजह से मुंह के अंदर और बाहर की सूजन तो दो चार दिन में दवाईयां लेने से ठीक हो जाती है...अस्थायी रूप से ही लेकिन ......स्थायी उपचार के लिए इन दांतों की आरसीटी (रूट-क्नॉल ट्रीटमेंट) करवाना पड़ता है... और फिर उन के ऊपर कैप लगवाने होते हैं....यानि इन का इलाज खूब झँझट वाला काम ...मरीज के लिए इसलिए कि उसे खूब खर्च करना पड़ता है ...बार बार डेंटिस्ट के यहां जा कर चक्कर लगाने का झंझट....सरकारी अस्पतलालों में अकसर इस तरह के कैप आदि की सुविधाएं होती नहीं .... बहुत से मरीज़ बाहर से करवाना नहीं चाहते, करवा नहीं पाते ....कुछ भी समझ लीजिए...

मैं कईं बार जब इस तरह के खुरदरे मंजनों और पेस्टों का त्याग करने की सलाह देता हूं और इस की जगह बढ़िया गुणवत्ता वाली कोई भी पेस्ट आदि का इस्तेमाल करने के लिए कहता हूं कि मुझे कईं बार लगता है कि मरीज सोच रहा है कि मैं किसी ऐसी ही टुथपेस्ट कंपनी के उत्पाद प्रोमोट करना चाह रहा हूं.......नहीं, ऐसी बात बिल्कुल नहीं है, न ही मेरे से यह धंधा हो पाएगा और ईश्वर की कृपा से मुझे न ही इस की ज़रूरत है...इन कंपनियों से कभी कोई तोहफ़ा, हवाई-यात्रा या किसी तरह के चारे की न तो कभी पेशकश हुई और न ही मेरे से यह हो पाता...अब ध्यान आ रहा है कि हम जैसे लिखने वालों को कौन चारा डालेगा!.....अभी ध्यान आया कि कुछ साल पहले इन पेस्टों के ऊपर कुछ लिखा था...अब मुझे ठीक से याद नहीं है कि क्या लिखा था, यहां पर लिंक लगा दूंगा....कईं बार कह चुका हूं कि हलवाई अपनी मिठाई नहीं खाता, मैं भी अपने लेख वापिस पढ़ने से गुरेज करता हूं....मुझे अजीब सा लगता है !

बात ज़्यादा लंबी खिंच रही है...इसलिए यहां विराम लगाता हूं...बस इसी बात के साथ कि कभी भी किसी भी चालू कंपनी के देसी मंजनों वंजनों पेस्टों के चक्कर में पड़ें नहीं.... मुझे इन में उपलब्ध दालचीनी, लौंग, काली मिर्च...और भी पता नहीं कितनी कितनी सुंदर चीज़ें जिन के बारे में आप पैकिंग के ऊपर पढ़ते हैं, बढ़िया चीज़ें हैं, लेिकन यह जो लाल मिट्टी (गेरू मिट्टी) और तंबाकू जैसे हानिकारक तत्व हैं, ये सब गुड़-गोबर कर देते हैं....दांतों को इन का खुरदुरापन बर्बाद कर देता है। इसलिए इन से दूरी बना कर रखिए... मैं भी एक अच्छी कंपनी की पेस्ट खरीद कर ही करता हूं...हमें कोई सेंपल वेंपल भी नहीं आते...न ही मैं इन की तरफ़ ध्यान करता हूं।

गूगल-प्ललस से मुझे पता चलता रहता है कि इस ब्लॉग के पाठक दो लाख से ऊपर हैं.....तो क्या मैं यह अनुरोध कर सकता हूं कि मुझे कोई उपाय सुझाएं कि मैं इस तरह की काम की बातें छोटी छोटी किताबों में लिख कर आठ-दस-पंद्रह रूपये में प्रकाशित करवा के बिकवा सकूं.....नहीं, फ्री में मैं बांटना नहीं चाहता हूं, उस की कोई कद्र नहीं होती, दस-पंद्रह रूपये खर्च कर खरीदी हुई किसी पुस्तक को हम सहेज कर रखते हैं...उसे कभी कभी देखने की तमन्ना भी रहती है।

अपने मुंह मिट्ठू बनना सीखा नहीं है, बिल्कुल बेकार सी बात लगती है, लेिकन सच तो सच है ही ....और यह सच यह है कि यह जो मैंने इस लेख में लिखा है ...इसे इतनी मजबूती से लिखने के पीछे मेरी ३५ साल की तपस्या शामिल है....बात को मानना या ना मानना आप का अधिकार-क्षेत्र है, जिस तरह से इस तरह के विषयों पर लिखना मेरा अधिकार है...या फ़र्ज़ है....फर्ज़ शब्द ज़्यादा अच्छा लग रहा है यहां।

इसीलिए कह रहा हूं कि अगर सस्ते कागज पर सस्ती सस्ती किताबें छपवाने के बारे में कुछ जानते हैं तो मुझे बतलाइएगा ....मैं अपना ईमेल भी यहां दे रहा हूं...          drparveenchopra@gmail.com     क्योंकि मैं कम से कम २०-२५ इस तरह की किताबें छपवाने के ख्याली पुलाव बरसों से बना रहा हूं...मुझे बड़े बड़े प्रकाशकों से किताबें छपवा कर उन्हें चार पांच सौ रूपये में बिकवाने में कोई रूचि नहीं है, पांच सौ हज़ार कापियां बेच कर....कोई बड़ा सा ईनाम लेने का भी कोई इरादा नहीं है ..(फिल्म उसे वापिस करने का भी झंझट....) ...मुझे तो खुशी इसी बात से होगी कि जब एक आम आदमी सड़क से गुजरता हुआ किसी फुटपाथ से पानमसाले-गुटखे की बजाए पांच-दस रूपये में ऐसी पुस्तक खरीदेगा, उस में कही बात को लेकर उस का मन उद्वेलित होगा....वह इन सब बातों को याद रखेगा....चाहे बिल्कुल थोड़ा थोड़ा..., मुझे अपना नाम याद करवाने की भी चाह बिल्कुल नहीं है...

किताबों की दुकानें खंगाल मारी हैं, इन विषयों पर आम आदमी की भाषा में उस के ही स्तर पर उतर कर उतनी सहजता से बात करने वाली किताबें छपती ही नहीं!.........शायद इस मार्कीट ही नहीं है, इसलिए!

अच्छा, बातें हुईं फुटपाथ की, आम आदमी की, पांच दस रूपये में बिकने वाली किताबों की ......तो फिर आज के चित्रहार का गीत भी कोई फुटपाथ छाप ही हो जाए.....बेहतरीन बोल, बेहतरीन संगीत...बेहतरीन अदाकारी ...जितेन्द्र और रीनाराय की ......न जाने हम सड़क के लोगों से ये महलों वाले क्यों जलते हैं!


Jane Ham Sadak Ke Logon Se-Aasha (1980) by MrBilal2009



शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

जिस का काम उसी को साजे...

मुझे यह कहावत अच्छी लगती है...जीवन का सार इस में जैसे भर दिया गया हो।

आज जब मैं बाग में टहलने जाने लगा तो देखा कि वहां पर पतंजलि योग शिक्षा की तरफ़ से जो कक्षा लगाई जाती है, वह बंद होने का समय था. शिक्षक महोदय एक अधेड़ उम्र की महिला को बड़ी आत्मीयता से कह रहे थे कि आप कल भी आईएगा....अच्छा लगा मुझे यह सुन कर...महिला उन्हें आगे से कुछ कह तो रही थीं कि ये (पति) और बिटिया तो लंबी तान कर सोये रहते हैं..। आचार्य जी फिर आगे से कुछ कह तो रहे थे..."यहां पर तो आने से ही ..."...आगे वाली बात मेरे कानों में नहीं पड़ी...मैं आगे बढ़ चुका था।

सुबह टहलते हुए मैं बाबा रामदेव के बारे में ही सोचता रहा...मैं यही सोचता रहा कि बाबा की लोकप्रियता के किस दौर के हम गवाह रह चुके हैं...सुबह सुबह उठ कर लोग पांच बजे बाबा के साथ योग करने लग जाते ...लेकिन मुझे मेरे आलस्य ने ही घेरे रखा ...मैं नहीं कर सका....कुछ कुछ बातें खाने पीने की अच्छे से उनकी मानने लग गया।

बाबा अच्छा इंसान है.....सारे विश्व में योग का डंका बजा दिया....लोगों को सुबह सुबह उठने पर मजबूर कर दिया...आंवला जूस, आंवला कैंडी....बहुत कुछ खिला-पिला दिया....धन्यवाद. मुझे याद आता है शायद १५ साल से पहले के वे दिन जब लोग दोनों हाथों के नाखुन आपस में रगड़ने लगे थे ताकि सिर के बाल काले रह पाएं....

बाबा ने निःसंदेह बढ़िया काम किया है ....ऐसे ही तो कोई किसी प्रांत का ब्रांड अम्बेसेडर नहीं बन जाता...लेकिन मुझे लगता है कि हम लोगों को इस बात से सबक लेना चाहिए कि जिस का जो काम हो उसे वही करना चाहिए, उसे उसी पर केंद्रित रहना चाहिए...हम दूसरे काम में घुसने की कोशिश करते हैं तो शायद यह मुनासिब नहीं होता।

होता यह था कि सुबह सुबह रोज़ाना पांच बजे लोगों को योग की खुराक के साथ बाबा की काले धन से जुड़ी मन लुभावन बातें, किस्से, घोषणाएं सुनने की भी लत लग चुकी थी...मुझे ऐसा लगता है....बढ़िया चल रहे प्राणायाम के बीचों बीच काले धन के अरबों के आंकड़े सुन कर एक आम हिंदोस्तानी का दिल फिर से तेज़ गति से धड़कने लगता था...लेिकन इसे यह सब सुनने में मज़ा आने लगा था..उन्हें योग के साथ मसाला चाय जितना मज़ा ये मसालेदार, चुटीली बातें भी देने लगीं....वे एक फेंटेसी में जीन लगे जैसे कि कालाधन विदेशी बैंकों से निकल कर सीधे उन के बचत खाते में आ जाएगा... हां, वह बड़ा करेंसी नोट बंद किए जाने की बात मुझे बहुत अच्छी लगती थी, लेकिन क्या कुछ हुआ!

व्यक्तिगत तौर पर यह हमेशा से यही लगता था कि इतनी सुंदर योग की कक्षा में अचानक यह भ्रष्टाचार, काले धन आदि की बातें! ...बाबा रामदेव ऐसा करते थे तो कोई औचित्य भी होगा इस में, मेरी समझ में नहीं आया...मैं दुनियादारी सीख ही नहीं पाया ...मेरे एक प्रोफैसर ने भी मुझे एक बार यही कहा था प्रवीण, worldly-wise होना भी जरूरी है!

बस, यही राजनीति की बातें ही बाबा की योग की बढ़िया चल रही कक्षाओं में अजीब सी लगने लगी...फिर वह रामलीला वाला किस्सा हो गया.....और बस, फिर तो जो हुआ सब जानते हैं। बाबा को किन परिस्थितियों में आत्म-रक्षा के लिए कैसे वहां से जाना पड़ा, उसके बारे में चर्चा नहीं करते, लेकिन इस बात ने बाबा की छवि को बहुत हानि पहुंचाई....आप का क्या ख्याल है?... और एक बात, एक बार बाबा की कपिल सिब्बल आदि मंत्रियों के साथ मीटिंग के बाद भी कुछ लफड़ा हुआ था...

सीधी सीधी बात कि राजनीति करना हरेक की बस की बात नहीं है...मैं जब कभी चुनावी दंगल में लोगों को भाषण करते देखता हूं तो अकसर हंस देता हूं और आसपास बैठे बंदों से शेयर करता हूं कि क्या ऐसा हम लोग कर सकते हैं......मेरे तो सिर ही डेढ़ मिनट में ही दुःखने लग जाए, और मैं कह दूं वहीं ...ठीक है, यार, तुम जीते मैं हारा!

ईश्वर ने संसार में हर बंदे को एक विशेष काम के लिए भेजा हुआ है...कोई बातें बढ़िया करता है, कोई प्रवचन, कोई किस्सागोई अच्छी करता है, कोई रंगकर्मी बढ़िया है तो कोई पेन्टर उमदा, कोई गाने लिखता है, कोई गाता अच्छा है, कोई खाना अच्छा बनाता है.....आदि आदि ..लेकिन हम मिक्स-अप नहीं कर सकते....

बस, यही था आज का विचार...आज सुबह टहलते हुए लखनऊ एफएम सुन रहा था ..जमशेद प्रोग्राम पेश कर रहे थे ...बीच बीच में गाने भी बजा रहे थे ...अजीब अजीब से गाने....सिग्नल ..प्यार का सिग्नल ...प्यार का सिग्नल....यह भी कोई गीत हुआ...गीत तो जो बढ़िया बनने थे...लिखे जाने थे और गाये जाने थे वे गाये जा चुके हैं...



 जाते जाते एक बात का ध्यान आ गया...योग और राजनीति का अगर संबंध नहीं है तो आध्यात्म और राजनीति का भी नहीं है, लोग अपनी समझ के साथ कभी कभी इन्हें भी मिलाने की कोशिश कर लेते हैं....भोली भाली जनता समझ नहीं पाती...लेकिन यह बात बिल्कुल गलत है....चुनाव दंगल के दिनों में बहुत बार कुछ प्रत्याशी या उन के परिजन विभिन्न् सत्संगों में जाकर भक्तों का आशीर्वाद लेने पहुंच जाते हैं....और बड़े सूक्ष्म ढंग से भक्तों तक संदेश पहुंचा दिया जाता है.....मुझे यह बिल्कुल अजीब लगता है ..जो भक्त वैसे ही अपने को चरण-धूल समझते हैं, उन के सीधेपन या vulnerability कहूं, इस का भी फायदा लिया जाता है या लेने की कोशिश तो की ही जाती है....बस, यह लिखने की इच्छा हुई सो लिख दिया.....जैसे पेप्सी पीने वाला वह युवक आज कल कह रहा है दिन में बीसियों बार.......पैप्सी थी यार, पी गया.............मैंने भी जो देखा, जो फील किया....ब्यां कर दिया!

हां, वापिस बाबा रामदेव पर लौटते हैं.....मुझे बाबा के बनाए मंजन और पेस्ट पर आपत्ति है....उस के साथ सब ठीक नहीं है ..इस के बारे में जानने के िलए आप को मेरी यह ब्लॉग पोस्ट देखनी होगी.......आज बाबा रामदेव की बात करते हैं..

अच्छा, यार, बाकी फिर कभी ...ड्यूटी पे पहुंचने का समय हो गया है...




बुधवार, 11 नवंबर 2015

फूलों की भी अच्छी आफ़त हो जाती है

एक दिन नहीं, दो दिन नहीं...हमेशा ही ...कोई भी मौका हो...खुशी, गमी, कोई धार्मिक, सामाजिक या आध्यात्मिक पर्व..हर जगह खूब फूल इस्तेमाल हुए होते हैं। मुझे यह देख कर अजीब सा लगता है..

फूल की जगह ही पेड़ पर है, रंग बिरंगे फूल पत्ते आने जाने वाले के मन को खुश कर देते हैं...करते हैं ना?...फिर इन्हें तोड़ने से क्या हासिल...

मैं अकसर सत्संग में एक भजन सुनता हूं जिस के शुरूआती बोल कुछ इस तरह से हैं....

क्या भेंट करूं तुम्हें भगवन..
हर चीज़ तुम्हारी है!

किसी का स्वागत समारोह हो, श्रद्धांजलि हो....कुछ भी कभी भी ....बस, ढ़ेरों फूल तो चाहिए ही होते हैं...कुछ लोग खरीद लेते हैं, वरना लोग इधर उधर से तोड़ कर काम चला लेते हैं...कभी इन लोगों ने ध्यान ही नहीं किया कि रंग बिरंगे चमकदार फूल आने जाने वालों को कितना सुकून देते हैं, किस तरह से उन की उदासी को भगा देते हैं..लेिकन इतना सोचने की फुर्सत ही किसे है..


शायद ये मेरे व्यक्तिगत विचार हों लेकिन जिस जगह पर जिस किसी पर्व पर फूलों की बरबादी होते देखता हूं, मुझे बड़ा खराब लगता है, उधर मन टिकता ही नहीं। आज भी दोपहर में देखा कि जगह जगह पर बच्चे इक्ट्ठे हो कर फूल-पत्ते धड़ाधड़ तोड़े जा रहे थे....

फूलों के जीवन-चक्र के बारे में भी सोचते हैं तो बड़ी प्रेरणा मिलती है....इतनी सहनशीलता, इतना परोपकार....हर तरफ़ खुशियां ही बिखेरनी हैं...कांटों से घिरे होते हुए भी...

एक शेयर का ध्यान आ रहा है, कुछ दिन पहले मैंने अपनी नोटबुक में लिखा था...मुझे इसे बार बार पढ़ना बहुत भाता है...

 "गुंचे तेरे अंजाम पे जी हिलता है
बस एक तबस्सुम के लिए खिलता है
गुंचे ने कहा कि इस जहां में बाबा 
ये एक तबस्सुम भी किसे मिलता है?"
--जोश मलीहाबादी 

मुझे हिंदी की कविता समझने में बड़ी दिक्कत है...बिल्कुल समझ ही नहीं आती...१०-१२ साल कोशिश की कि हिंदी या पंजाबी में कविता कह भी पाऊं...लेकिन बिल्कुल ज़ीरो.....अब समझ में आ गया कि यह मेरे से नहीं हो पायेगा...यहां बहुत से कवि सम्मेलनों में भी गया...लेकिन कुछ पल्ले नहीं पड़ा बल्कि सिर दुखा के वापिस लौट आया...लेकिन अपने स्कूल के गुरू जी की पढ़ाई वह कविता अभी भी अच्छे से याद है.... माखनलाल चतुर्वेदी जी की वह सुंदर कविता है ...

चाह नहीं, मैं सुरबाला के 
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध

प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं सम्राटों के शव पर

हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक!
जिस प्यार से स्कूल के गुरू जी ने इस के शब्दार्थ एवं भावार्थ समझाए थे...वे दिल में उतर कर रह गये...

चलते चलते सोच रहा हूं कि अपने बड़े भाई का पसंदीदा गीत ही लगा दूं....उन्होंने यह अपने कालेज के दिनों में एक फेयरवेल में गाया था...यह बात १९७२-७३ के आस पास की है...