रविवार, 7 जून 2015

मैगी बॉय-बॉय-- अब सब्जियों की सोचते हैं...

आज हम लोग एक दुकान पर थे तो मैंने ऐसे ही दुकानदार से ऐसे ही पूछा कि मैगी है?...उसने कहा कि वैसे तो बंद है, हम नहीं बेचते लेकिन अगर आप को चाहिए तो मिल जाएगी। उस दुकान के वर्कर ने कहना शुरू किया कि लोगों को वहम हो गया है, अब तो अगर मैगी खाने से किसी को बुखार भी हो गया तो लोग कहेंगे कि मैगी से ही हुई है, इसलिए अब हम इसे बेचते ही नहीं। 

लेिकन एक बात तो है कि पिछले बीस-तीस सालों में लोगों की सेहत इस तरह के जंक-फूड ने बिगाड़ी है, उस का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। और जितनी चांदी इन कंपनियों ने लूटी है, उस का भी हिसाब नहीं हो सकता....याद है कुछ वर्ष पहले इसी मैगी वालों ने मैगी में दो-चार सूखी सब्जी के टुकड़े घुसा कर उसे स्वास्थ्यवर्धक खाने के रूप में पेश किया था। 

मुझे नहीं लगता कि मेरी उम्र के लोगों को मैगी पसंद आई होगी.....मैं अपनी बात करूं तो यही है कि बच्चे जब खाते थे तो मैं उन के जिद्द करने पर एक चम्मच ले लिया करता था ..लेकिन उसी से मेरी तबीयत खराब हो जाया करती थी...एसिडिटी.....मेरे को भी शायद वहम हो गया था....लेकिन मुझे कभी भी जंक फूड ..मैगी, पिज्जा, बर्गर, मोमो ...अच्छे लगे ही नहीं.

हां, तो आज जब हम लोग कॉलोनी के बाहर सब्जी ले रहे थे तो मुझे यही लग रहा था कि यह गोल्डन समय है ...जब लोगों को मैगी से नफ़रत हो रही है, ऐसे समय में बच्चों को ज़्यादा से ज़्यादा सब्जियां खिलाई जानी चाहिए। 

सब्जियों का तो ऐसा है ...मैं अकसर कहता हूं कि जो दाल-सब्जियां हम लोग बचपन में खाते हैं....हम बड़े होकर भी उन्हें भी खाते हैं...मुझे तो ऐसा लगता है कि जो चीज़ें हम लोग बचपन में नहीं खाते ...उन्हें कुछ वर्षों के बाद खाने लगेंगे ...ऐसा मुझे नहीं लगता। 

ग्वार की फलीयां 
मैं बचपन में करेला नहीं खाता था....अब भी नहीं खाता.....बहुत कोशिशों के बावजूद भी इसे नहीं खा पाता....कभी एक आधा खा लिया तो खा लिया। उसी तरह से हम लोगों को बचपन में यही समझ में आया कि ग्वार की फलियां सेहत के लिए ठीक नहीं होतीं...अमृतसर में तो इतना भी कहा जाता था आज से ३०-४० साल पहले की इसे गवार खाते हैं...लेकिन अब हमें पता है कि यह बहुत पोष्टिक है. लेकिन अब इसे चाहते हुए भी खा नहीं पाते। 

मैंने अकसर अपने इस ब्लॉग में बहुत बार लिखा है कि मुझे अकसर बाज़ार में इस तरह की सब्जियां दिख जाती हैं जिन्हें मैंने पहले खाया होना तो दूर, कभी देखा भी नहीं होता, और न ही मैं उन के नाम ही जानता हूं।

मैं यहां लखऩऊ की सब्जियों के बारे में एक बात शेयर करना चाहूंगा कि यहां पर सब्जियों की क्वालिटी बहुत बढ़िया है ...बेंगन इतने बढ़िया और मुलायम हैं कि आलू-बैंगन की सब्जी, बैंगन का भुर्ता बहुत ही बढ़िया तैयार होता है...लौकी, तोरई आदि की भी बहुत बढ़िया...यहां पर परमल की सब्जी भी बहुत चलती है..चूंकि हम लोगों ने बचपन में पंजाब में कभी इसे देखा नहीं, हमें इस का स्वाद डिवेल्प नहीं हो पाया। 

एक बात और लोबिया की फली भी यहां बहुत बढ़िया मिलती है...पहले पंजाब में यह इतनी आसानी से नहीं मिलती थी। 

आज मैंने इस सब्जी को देखा तो पूछने पर पता चला कि इस सब्जी का नाम कुल्लू है....इसे छिलने के बाद, काट कर बनाया जाता है। मैंने इसे काट कर देखा तो पता चला कि यह अंदर से कैसी होती है!

कुल्लू नामक सब्जी 


हम आदर्श बातें करने में तो खूब एक्सपर्ट हैं....लेकिन सच्चाई यह है कि बढ़ती उम्र के साथ हम लोग नईं सब्जी खाने तक का तो एक्स्पेरीमेंट कर नहीं सकते ....शायद करना ही नहीं चाहते! 

इसलिए मेरे मरीज़ जब अपने बच्चों के लिए मेरे से टॉनिक का नाम पूछते हैं तो मैं उन्हें यही कहता हूं कि इसे दाल-रोटी-साग सब्जी खाने की आदत डालिए, हर तरह की सब्जी खिलाइए ताकि इस को इऩ सब का स्वाद पता चले और आगे चल कर यह इन्हें नियमित खाता रहे..

बच्चे दालें, सब्जियां नहीं खाते....यह भी एक तरह से हमारी राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है.......मुझे डर है कि यह कहना कि हमारे बच्चे घर का खाना पसंद नहीं करते...यह भी कहीं एक स्टेट्स सिंबल ही बन जाए। 

आज अखबार में आया कि अब मेकरोनी, बर्गर आदि की क्वालिटी की भी जांच होगी........बहुत अच्छा है, होना चाहिए....इन कंपनियों ने हमारी सेहत के साथ खिलवाड़ कर कर के अपने इतने बड़े एम्पॉयर खड़े कर लिए हैं। कुछ ही कह लें इन्हें हमारी सेहत की बिल्कुल भी चिंता नहीं है. ...वरना सारे मानक विकसित देशों में तो तयशुदा सीमाओं के अंदर ही होते हैं.....सीसा हो या फिर एमएसजी हो.......लेकिन यहां पर व्यवस्था का ढुल-मुल रवैया इन को मानकों की धज्जियां उड़ाने की हिम्मत देता है। 

एक खुखबूदार बात कर लें.....खरबूजों की ...पहले अमृतसर में सफेद से खरबूजे ही ज़्यादा दिखते थे ..कुछ दिनों के लिए भूरे खरबूजे आते थे जो ज्यादा मीठे होते थे....फिर पता चला कि कुछ खरबूजे राजस्थान से आते हैं जो ज़्यादा मीठे होते हैं.....सूंघ कर लोगों को खरबूजा खरीदते देखना बड़ा हास्यास्पद तो लगता है लेकिन यह कितना प्रेक्टीकल जुगाड़ है ना! खरबूजों की भी अलग अलग शक्ल अकसर दिख जाती है....हम लोग जब फिरोजपुर में तो वहां पर बंगे बिका करते थे...ये देखने में होते खरबूजे जैसे ही थे लेकिन बिल्कुल फीके से...वहां पर रहने वाले लोगों में ये खूब पापुलर थे। 

लखनऊ में इस तरह के खरबूजे आजकल खूब बिकते हैं.
इन खरबूजों के देख कर मुझे बंबई के पेड़ें याद आते हैं..बिल्कुल वैसी ही शेप में
लखनऊ में इस तरह के खरबूजे भी आजकल दिखते हैं.....बहुत मीठे हैं....हर जगह के अपने स्वाद ...अपने अद्भुत रंग...बस, सब लोग ऐसे ही खाते-पीते-फलते-फूलते रहें....बच्चों को भी सब्जियां रास आने लगें....आमीन!!




शुक्रवार, 5 जून 2015

रंग वाली खाद्य वस्तुओं से अगर बच सकते हैं तो बच लीजिए...

डा बेदी साहब भोग लगाते हुए...
अभी अभी वाट्सएप पर एक संदेश आया अपने जिगरी दोस्त डा कुलदीप बेदी जी का लुधियाना से ...उन्होंने बताया कि वह अभी मरीज़ों से फारिग हुए हैं और अब ज़रा लड्डूओं की तरफ़ हो रहे हैं।

कितना ईमानदार मैसेज है ना......है कि नहीं, आप को लगेगा कि डाक्टर लोग भी आप ही की तरह सब कुछ खाते पीते हैं, सब के शौक एक जैसे ही होते हैं।

लेिकन मुझे जिस बात ने तुरंत प्रभावित किया ...वह यही थी कि लड्डू बिना रंग वाले थे.....ये लड्डू कहीं नहीं दिखते...पिछले दिनों मुझे कुछ डिब्बे मोतीचूर के लड्डूओं के चाहिए थे....मैंने लखनऊ की तीन चार टॉप की दुकानें छान लीं, कहीं से भी नहीं मिले...सभी जगह पर गहरे संतरी नारंगी और लाल रंग के बूंदी के लड़्डू बिक रहे थे।

लड्‍डू ही क्यों, हमें कौन सी खाने की चीज़ है जो बिना रंग के प्राकृतिक रंग में मिल पाती है...जलेबी में रंग, बर्फी में रंग....क्या क्या गिनाएं, मुझे तो हर तरफ़ रंग वाली चीज़ें ही दिखती हैं।

कल के पेपर में पढ़ रहा था कि लखनऊ की एक प्रसिद्द मिठाई की दुकान से जो नमूने लिए गये थे, उन में सिंथेटिक रंगों की भरमार थी.....

यह तो हमें अब समझ आ ही चुकी है कि ये सिंथेटिक कलर और तरह तरह के सस्ते इसेंस ये जो दुकानदार इस्तेमाल करते हैं, ये सेहत के लिए बहुत ही ज़्यादा खराब हैं..

ऐसा नहीं है कि एक बार रंग वाली जलेबी खा के कोई बीमार हो जाएगा ..लेकिन वही बात है , मैगी के पाए गये सीसे की तरह, इन चीज़ों की एक्यूमुलेटिव प्रभाव होता है....कहने से मतलब यह है कि ये कलर आदि हमारे शरीर के विभिन्न अंगों में निरंतर इक्ट्ठे होते रहते हैं ....और फिर तरह की बीमारियों के कारण बनते हैं। यह बिल्कुल वैज्ञानिक सच्चाई है।

बाहर के विकसित देशों में इस तरह के कलर्ज़ आदि के इस्तेमाल पर बहुत अच्छा नियंत्रण होता है...लेिकन यहां तो आप सब जानते ही हैं....किसी भी शहर की बड़ी से बड़ी दुकान का पकवान भी इस कद्र फीका होता है कि मैं तो यही सोच कर हैरान होता रहता हूं कि ये रोड़ के किनारे खड़े होकर बेचने वाले पब्लिक को क्या क्या छका रहे होंगे!

मुझे केवल और केवल एक ही उम्मीद है कि अगर जनता ही जागरूक हो जाए तो ही कुछ हो सकता है।

मैं अकसर जलेबी,ईमरती  बनाने वालों को पूछता हूं कि आप लोग इनमें यह रंग वंग क्यों घुसेड़ देते हो, तो वे कहते हैं कि क्या करें, बिना रंग वाली जलेबी हमारी बिकती नहीं है, लोग बिना रंग वाली जलेबी पसंद नहीं करते।

मुझे एक दो जगहों का लखऩऊ में पता चल गया है जहां पर जलेबी में रंग नहीं डाला जाता.....वहीं से अब लाते हैं।

अपनी बात कर लें....यह कोई शेखी बघारने वाला मुद्दा कतई नहीं है, अपने अनुभव बांटने वाली बस बात है कि हम लोग किसी भी इस तरह के रंग वाली किसी भी खाद्य पदार्थ का सेवन पिछले कईं वर्षों से नहीं करते.......क्योंकि हमें नहीं है भरोसा कि ये लोग हमारी सेहत के साथ खिलवाड़ नहीं करते होंगे.... हर तरफ़ सस्ते, सिंथेटिक और नुकसान पहुंचाने वाले रंगों का बोलबाला है।

आप हैरान न होइएगा ...अगर मैं आप को कहूं कि हम प्रसाद में मिली भी कोई चीज़ अगर रंगदार है तो उसे नहीं खाते....क्योंकि ज़्यादातर जगहों पर ये लड्डू, बूंदी, हलवा आदि भी गहरे लाल-पीले रंग वाली ही मिलती हैं....लेकिन हम उसे अपने पास रख लेते हैं,  खाते नहीं, कभी कभी थोड़ा सा चख लेते हैं...बस......बाकी सारे प्रसाद को मैं अकसर बहुत बार किसी जानवर को किसी पक्षी को डाल दिया करता था तो मेरे बेटे ने मुझे एक बार डांटा....पापा, जो चीज़ हमारे लिए ठीक नहीं है, वह इन के लिए भी तो ठीक नहीं हो सकती। 

मुझे उस की बात ने उस दिन शर्मदार कर दिया.....उस दिन से मुझे नहीं पता मैं इस तरह के रंग-बिरंगे प्रसाद का क्या करता हूं ...लेकिन न स्वयं खाता हूं और न ही किसी को खाने के लिए देता हूं।

हां, अपने दोस्त बेदी साहब के बिना रंग वाले लड्डूओं की तरफ़ आता हूं....ईश्वर करे इन्हें ऐसे ही खुशियां मिलती रहें, और ये लड्डूओं का भोग लगाते रहें, सेहतमंद रहें...खुशियां बांटते रहें......इस समय गाना भी वैसा ही याद आ रहा है....
अभी लगाता हूं .....लेकिन आप को भी मेरा मशविरा यही है कि प्रसाद भी अगर इस तरह के रंगों से सरोबार हुआ मिले तो मत खाया करें.....कोई पाप-वाप नहीं लगेगा.....जहां पेशी होगी, चाहे तो मेरा नाम ले दीजिएगा कि मैंने मना किया है। सजग रहे, सेहतमंद रहें.....बस इतना ही कर सकते हैं, बाकी सब कुछ तो परमपिता परमात्मा की इच्छा है....

बुधवार, 3 जून 2015

अगर आप को सुबह टहलने की प्रेरणा चाहिए...

सुबह टहलने के बहुत से फायदे तो हैं ही ...हम स्कूल के दिनों से प्रातःकाल के भ्रमण का निबंध रटते आए हैं...फिर भी कभी भी बाहर जाने का बड़ा आलस्य सा बन आता है... एक बात और भी है कि अगर हम लोग दो चार दिन नहीं जाएं तो फिर आदत भी टूट सी जाती है। काश! हम सब लोग इसे दिनचर्या का एक अभिन्न अंग ही मान कर चलें।

पहले मैं बहुत से साल अपने इसी ब्लॉग में बीमारियों के बारे में लिखता रहा ....लेिकन फिर अचानक लगने लगा कि ऐसा लिखने के क्या हासिल...वही घिसी पिटी बातें...अचानक लगने लगा कि सेहत की बातें कहते-सुनते रहना चाहिए...पता नहीं कब किसी को कहां से प्रेरणा मिल जाए।

प्रातःकाल के भ्रमण से संबंधित मैं कुछ प्रेरणात्मक प्रसंग तो पहले भी इस ब्लॉग पर शेयर कर चुका हूं...लेिकन फिर भी कभी कभी अपने आप को भी बूस्टर डोज़ देने के लिए उस पाठ को फिर से दोहराना पड़ता ही है ताकि कभी सुस्ती छाने लगे तो अपनी लिखी बात ही याद आ जाए।

आज टहलते हुए मैंने एक बहुत ही बुज़ुर्ग दादा को देखा जो लाठी की टेक से टहल रहे थे ...आप देखिए यह सड़क कितनी लंबी है लेकिन मैं इन्हें दूर से देखा ...इन का उत्साह देख कर मेरा मन इन के चरण-स्पर्श करने को हुआ...लेकिन उस की जगह मैंने जेब से मोबाइल निकाल कर झट से इस प्रेरणा-पुंज को कैमरे में बंद कर लिया...लेकिन जैसे ही मैंने मोबाइल हटाया ...इन दादा जी ने मेरे को दूर से ही ताकीद कर दी...टहलने आते हो तो इसे तो घर पर भी रख आया करो। कम से कम टहल...

आगे के शब्द मुझे सुने नहीं....मैंने इन्हें इतना तो कहा कि ठीक है...लेकिन अभी सोच रहा हूं कि उन्होंने कहा होगा कम से कम टहल तो इत्मीनान से लेने दिया करो या फिर टहल तो इत्मीनान से लिया करो........दोनों ही बातें सही हैं.

वैसे मैं इस तरह के किसी व्यक्ति की फोटो लेना पसंद नहीं करता क्योंकि मुझे लगता है कि यह उस की निजता का एक तरह का हनन है....लेकिन फिर भी कुछ लोग इस तरह की इंस्पीरेशन लिए होते हैं कि उन की फोटो तो लेनी पड़ ही जाती है...लेकिन फिर भी फोटो में मैंने इन का चेहरा थोड़ा कवर कर दिया है।

कल मेरे पास एक रिटायर्ड कर्मचारी आये थे ..७० वर्ष के हैं, पूरी तरह से तंदरूस्त....ब्लड-प्रेशर की मशीन अपने बैग में रखी हुई थी...सब कुछ है, लेकिन खुशी नहीं है...बहुत सी काल्पनिक तकलीफ़ों में उलझे हुए हैं...कोई भी नशा नहीं करते।

ठीक उन के बाद एक ६५ वर्ष का बंदा आया....मैं हैरान हो गया, ओपीडी स्लिप पर इन की उम्र देख कर ...आप भी इस तस्वीर में देख सकते हैं कि इन की उम्र पचास के आसपास की लगती है...कोई भी नशा नहीं करते, रोज़ाना टहलते हैं, योगाभ्यास करते हैं।

कल एक पोस्ट में मैंने अपने एक कर्मचारी की ९० वर्ष की मां की फोटो लगाई थी...उन की दिनचर्या बहुत सक्रिय है....इस दूसरी फोटो में देखिए कि उस उम्र में भी यह ज्ञानी जी अपने साईकिल पर पूरी मस्ती कर रहे हैं। सब कुछ हमारे मन की स्थिति पर निर्भर करता है..अगर सब कुछ नहीं भी तो बहुत कुछ तो निःसंदेह।



हां, तो मैं इंस्पीरेशन की बात कर रहा था, यह हमें कहीं से भी किसी भी वक्त मिल सकती है.....और सुबह सुबह टहलते समय तो सारी प्रकृति जैसे हमें उत्साहित करने में लगी होती है।

मैं तो बड़े बड़े पेड़ देख कर ही इतना खुश हो जाता हूं कि ब्यां नहीं कर सकता....कुछ पेड़ों पर लाल-पीले राखी के बंधन बंधे होते हैं ..वे तो समझिए बच ही गए... लेिकन कुछ बड़े बड़े पेड़ बिना इस तरह के बंधनों के भी बने होते हैं.....इतने विशाल पेड़ कि इन्हें देख कर मन खुशी से झूम उठता है।




लेकिन यह क्या अचानक एक पेड़ को इस हालत में देखा तो अचानक लगा कि इन्हें भी चमड़ी के रोग होते होंगे शायद ...लेकिन हम लोग अपने स्वार्थ के लिए इन की चमड़ी छीलते भी तो रहते हैं ..जैसा कि मुझे पास ही एक नीम के पेड़ के छिले हुए तने को देख कर आभास हुआ।


जो भी हो, दोस्तो, सुबह का समय होता मज़ेदार है.......एक दम शांत..सन्नाटा....और सन्नाटे में ही बहुत से जवाब सिमटे पड़े होते हैं....सुबह का वातावरण ...सुंदर पेड़-फूल....नैसर्गिक वातावरण....सब कुछ हमें उपलब्ध होता है...लेिकन अगर हम लोग उठ कर घर से बाहर निकलने की थोड़ी परवाह करें।






मंगलवार, 2 जून 2015

सुबह सुबह फिर से पेड़ों की बातें करें?

मैं शेल्फी खींच रहा था और ....
दो दिन पहले टाइम्स ऑफ इंडिया एवं राष्ट्रीय वनस्पति उद्यान की तरफ से आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत करने का मौका मिला...

उस कार्यक्रम में एक बाबा जी भी थे जो एक आश्रम चलाते हैं ..आंगन में लावारिस गऊएं, कुत्ते तो रखते ही हैं, साथ में बहुत से पक्षी भी वहां रोज़ाना आ जाते हैं...उन की बातें सुन कर अच्छा लगा। उन्होंने बताया कि कैसे उन के घर के बाहर सीमेंट के डिब्बे जैसे बना रखे हैं...लोगों को कहा कि आप लोग घर में इस्तेमाल होने वाली सब्जियों के छिलके आदि यहां पर फैंक जाया करें, कहने लगें कि लोग ज़्यादा मान नहीं रहे थे, फिर इन्होंने कुछ बार ऐसा कह दिया  कि जो भी ऐसा काम करते हैं उन का शनि सध जाएगा...हंसते हंसते बता रहे थे कि बात फैल गई, बाबा जी कह रहे हैं तो पक्का ऐसा ही होगा. देखते देखते लोगों ने बात मान ली और रोज़ाना उस में छिलके फैंक कर जाने लगे।

उन का बात सुन कर मुझे वही ध्यान आ रहा था ....टी वी पर कुछ वर्ष पहले एक विज्ञापन आया करता था..स्कूली बच्चे मैदान में खेल रहे होते हैं, एक बच्चा कीचड़ में गिर जाता है, बस, उस की सभी बच्चों से दोस्ती हो जाती है ...उस विज्ञापन का थीम यही था...दाग अच्छे हैं।

उसी तरह मुझे हमेशा से यही लगता है कि जो भी आस्थाएं लोगों की इस तरह की हैं कि उस से पर्यावरण को लाभ होता हो, वे सब बहुत अच्छी हैं....मैं जब भी सड़क पर चलते हुए किसी भीमकाय पेड़ पर खूब सारे नीचे पीले धागे बंधे देखता हूं तो मन खुश होता है कि चलो, यह तो बच गया.....इसे कोई न हाथ लगा पाएगा।

कल भी घूमते हुए देखा कि एक घर के बाहर बहुत बड़ा पेड़ है और उस के साथ ही चबूतरा बना दिया गया है....अच्छा लगा, एक मंदिर की शक्ल दे दी गई थी उस चबूतरे को ......ठीक है, लेकिन अगर उसे ऐसे ही खुला छोड़ा जाता तो बेहतर होता जहां पर कोई राहगीर आते जाते दो पल छाया में बैठ जाता ....

हां, एक बात और ...उस कार्यक्रम के बाद बाबा जी बता रहे थे कि आज एक यह बहुत बड़ी समस्या यह भी हो गई है कि फुटपाथों पर टाइलें लगने लगी हैं, हर तरफ, अच्छी बात है, लेकिन इस चक्कर में इन्हें बनाने वाले पेड़ों के आसपास थोड़ी सी भी जगह नहीं छोड़ते ...पेड़ के तने तक टाइलें फिक्स कर देते हैं.....बता रहे थे कि मैं जब भी इस तरह के काम होते देखता हूं तो रूक कर उस काम करने वाले ठेकेदार का नाम पूछता हूं ....बस, इतने से ही वे लोग समझ जाते हैं और पेड़ के आसपास कच्ची जगह छोड़ देते हैं......वे बता रहे थे कि हर पेड़ के आसपास लगभग एक डेढ़ फुट की जगह चाहिए, आप कह सकते हैं उसे सांस लेने के लिए....लेकिन यह जगह पानी के नीचे तक जाने के लिए चाहिए, ठीक है विशाल पेड़ नीचे ज़मीन से पानी लेते हैं लेिकन नीचे पानी के वॉटर स्तर को बरकरार रखने के लिए भी तो कुछ सोचना होगा...



कल मैंने जब देखा यहां लखनऊ के काशी राम मेमोरियल एवं ईको-गार्डन के पास कि किस तरह से पेड़ों के आस पास जगह छोड़ी हुई है तो मुझे अच्छा लगा....लेकिन पता नहीं मैं यह निर्णय नहीं ले पाया कि जिस तरह से इन पेड़ों के आस पास जगह छोड़ी गई है, वह वैज्ञानिक तौर पर भी ठीक है या बस लैंड-स्केपिंग के लिए ही यह सब किया गया है....मुझे पता नहीं क्यों लग रहा था कि यहां पर तो बरसात का पानी तो बस वही पेड़ के आस पास के केचमेंट एरिया में जा पाएगा जो ऊपर से पत्तियों और टहनियों से नीचे गिरेगा.......मुझे ऐसा लगा, अगर आप को कुछ अलग लग रहा हो तो लिखिएगा....बस इतना इत्मीनान है कि चलिए पेड़ों के आसपास उस के फैलने के लिए खाली जगह तो है।


लेकिन अभी मैं थोड़ा ही आगे गया था तो क्या देखा कि एक फुटपाथ पर छोटे छोटे से सजावटी पेड़ तो लगे हुए हैं, लेकिन आप देखिए कि पैदल चलने वाले राहगीरों के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ी गई है....आप देखिए इन तस्वीरों में आप को भी इन्हें देख कर बड़ा अजीब लगेगा.......पता नहीं किस इंजीनियर ने इस प्लॉन को बनाया और किस ने इसे स्वीकृत्त किया......देखना होगा, मुझे यही लगा कि अगर प्रदेश की राजधानी में और वह भी इतने पॉश एरिया में इस तरह की People-unfriendly landscaping हो सकती है तो बाकी जगहों की तो बात ही क्या करें....


हां, एक बात तो मैं आप से शेयर करनी भूल ही गया ...जब मैं कल सुबह साईकिल पर घूम रहा था कि मैंने रायबरेली रोड़ पर एक बहुत पॉश कालोनी देखी ...इतनी बढ़िया कॉलोनी कि उस के बीचोबीच एक झील भी थी...और जगह जगह बोर्ड लगे हुए थे ....यह झील आप की है, इस में गंदगी मत फैंकिए...लेकिन झील गायब थी, पानी तो था ही नहीं, जिस तरह से गांव के पोखर, तालाब गायब होते जा रहे हैं, उसी तरह यह झील भी बस नाम की ही झील थी......वैसे इस झील के आसपास एक पक्का फुटपाथ होने की वजह से लोग वहां सुबह टहलते हैं, यह भी बढ़िया है।

गांवों के पोखर-तालाब जिस तरह से गायब होते जा रहे हैं, पशुओं के साथ साथ मानव जाति के लिए भी बड़ी मुश्किल हो गई है...पर्यावरण को तो खराब करने में हम कोई कोर-कसर छोड़ ही नहीं रहे, पहले तालाबों में गर्मी के दिनों में गाए-भैंसे उसी में दोपहर काट लिया करती थीं. ..और उन के बहाने गांव के बच्चों का भी उन की पीठ पर खेलते हुए समय बढ़िया कट जाता था....गर्मी से निजात, खेल कूद और मस्ती .......ऑल इन वन!


अच्छा अभी मुझे भी अपनी साइकिल पर घूमने निकलना है......आप भी टहलने निकलिए......अच्छा लगता है......आप सब को सुप्रभात ....हार्दिक शुभकामनाएं....


इतनी गप्पें हांकता रहता हूं....कभी कभी तो प्रार्थना भी कर लेनी चाहिए....आज कर लें?......साहिब, नज़र रखना, मौला नज़र रखना.....बेहतरीन प्रार्थना........मुझे फिल्मी गीत से कहीं ज़्यादा यह एक भजन लगता है......एक एक शब्द पर ध्यान देते हुए इस में आप भी शामिल हो जाइए...



सोमवार, 1 जून 2015

अपनी ज़ड़ों से जुड़ने की चमक...

हमारे अस्पताल का कर्मचारी मनसा राम अपने अच्छे व्यवहार के लिए जाना जाता है..अस्पताल एक ऐसी जगह होती है जहां केवल अच्छे डाक्टर ही अस्पताल नहीं चला सकते...सारे स्टॉफ के मेलजोल से अस्पताल चला करते हैं।

मुझे लखनऊ आए दो साल से कुछ ज्यादा अरसा हुआ है...मुझे याद है जिस दिन मैं और मेरी मिसिज़ ड्यूटी ज्वाइन करने यहां आए तो मुझे लगा कि शायद यही एक बंदा है जिसे हमारे यहां आने की खुशी हुई थी...इस बंदे ने हंसते-मुस्कुराते बातचीत की...और फिर मैंने नोटिस किया पिछले दो-अढ़ाई साल में कि इस बंदे का व्यवहार हर एक के साथ बहुत ही अच्छा है। अपने साथियों एवं अन्य कर्मचारियों के साथ ही नहीं, मरीज़ों के साथ भी यह बड़ी विनम्रता से पेश आता है।

अभी कुछ दिनों से दिख नहीं रहा था..अकसर आते जाते दिन में एक बार तो मनसा राम दिख ही जाता है...पता चला कि मनसा राम छुट्टी पर है दो हफ्ते के लिए।

आज मनसा राम आया तो पता चला कि वह अपने गांव गया हुआ था जो चमोली जिले में पड़ता है....मैंने जैसे ही कुशल-क्षेम पूछा तो बड़े उत्साह से कहने लगा कि पहाड़ पर अपने गांव गया था...और बच्चों जैसे उत्साह के साथ उसने वहां अपने गांव में  खींची फोटो अपने मोबाइल से दिखानी शुरू कर दी।

मैंने कुछ फोटो अपने मोबाइल से खींच लीं....आप तक पहुंचाने के लिए...

मनसा राम आज बहुत खुश लग रहा था...वैसे तो वह हमेशा खुश ही रहता है ...लेकिन आज अपने गांव, अपनों के साथ रह कर आने की खुशी उस के चेहरे पर झलक रही थी।

डाक्टर साहब, हम लोग वहां तो परसों तक कंबल ओड़ते थे और यहां पर ४५ डिग्री पारा है, मनसा राम ने कहा...सुबह ११ बजे तक तो वहां पर हम लोग धूप सेंकने के लिए बाहर बैठे रहते थे।

मनसा राम की ९० वर्षीय माता जी
गांव को याद करते उस का चेहरा खिल उठा था...मुझे यही लग रहा था उस से बातचीत करते हुए कि अपनी जड़ों से जुड़े रहने का भी क्या जादू है.....आदमी चमक उठता है, बच्चा बन जाता है......मां को याद कर रहा था, अपनी मां के बारे में तो मनसा राम पहले भी बता चुका है, ९० साल की हैं, सेहतमंद हैं.....हमारी यही दुआ है कि वे शतायु से भी आगे तक जीएं...आप को इन की मां जी की तस्वीर यहां दिखा रहा हूं...

हां, जब वह अपने मोबाइल पर अपने घर की फोटो दिखा रहा था तो मुझे भी वह लकड़ी का घर देख कर बहुत अच्छा लगा... मैंने कहा कि मुकद्दर वाले हो, इतनी अच्छी जगह में रहते हो...बता रहा था कि इस बार वहां पर टीन की चादरें खरीदने के चक्कर में, उन्हें अपने गांव तक लाने में ...और थोड़ा खेती-बाड़ी को देखते देखते समय का पता ही नहीं चला...हल से जुताई करते की फोटो भी मनसा राम ने दिखाई।

मनसा राम खेतों में हल चलाते हुए..
मनसा राम का पैतृक घर 
मनसा राम अपने परिवार के साथ अपने गांव गया हुआ था...गांव के अड़ोस-पड़ोस के चाचा, मौसी की तस्वीरें, अपनी दादी के साथ मनसा राम की बेटी को खेलते देख कर अच्छा लगा...सब लोग कितने खुश लग रहे थे........उन को खुश देख कर मैं भी खुश हो गया।

यह मैं पता है क्यों लिख रहा हूं.....क्योंिक मैंने मनसा से वायदा किया है कि मैं इन तस्वीरों को अपने लेख में इस्तेमाल करूंगा...

इस जगह पर ये लोग बस से उतरते हैं और फिर ३ किलोमीटर पहाड़ की चढ़ाई करते हैं. 
तस्वीरें देख कर, मनसा राम से बात कर के हमेशा यही लगता है कि पापी पेट के लिए लोग कहां से कहां अपनी जड़ों से कितनी दूर आ बसते हैं.....दाने पानी का सब चक्कर है। हां, दूर की बात हुई तो यह बताना तो भूल ही गया कि यह जगह चमोली कितनी दूर है....लखनऊ से ये लोग हरिद्वार जाते हैं...ट्रेन से ...आठ दस घंटे तो लगते ही होंगे....फिर हरिद्वार से ये लोग बस पकड़ते हैं....जो आठ घंटे लेती है इन के गांव के बाहर इन्हें छोड़ने में .......जहां पर इन्हें बस छोड़ती है, यह उस जगह की तस्वीर है....यहां से ये लोग तीन किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़ते हैं....दो घंटे लगते हैं तब जाकर अपने गांव तक पहुंचते हैं....मुझे लगा कि तीन किलोमीटर चढ़ाई और दो घंटे ....तो मनसा ने साफ कर दिया कि चढ़ाई बिल्कुल सीधी है और अब हम लोगों को इतनी आदत भी नहीं रही...

वहां के गांव की खेती का एक भव्य नज़ारा
मनसा ने अपने गांव से दिखने वाले दूसरे गांवों की तस्वीरें भी दिखाईं....पास ही के एक जंगल में आग लगी हुई थी, उस की भी फोटो देखी... मनसा राम अपने गांव की और पहाड़ों पर की जाने वाली खेती की खासियत बता रहा था कि किस तरह से सीढ़ीनुमा खेतों में खेती की जाती है......

उस की बातों में उस का उत्साह, हर्ष, उमंग, और बच्चों जैसी खुशी झलक रही थी....जो एक तरह से संक्रमक भी थी....पास ही खड़ा मेरा सहायक सुरेश भी ये तस्वीरें देख कर खुश हो रहा था। अपनी जड़ों से जुड़े रहने का फख्र भी था मनसा की बातों मे।

बात इसी बात पर इस पोस्ट को संपन्न कर रहा हूं कि हम लोग अपने देश को ही कितना कम जानते हैं.....किसी साथी के मोबाइल कैमरे में बंद उस के घर-गांव की चंद तस्वीरें देख कर ही अगर हम लोग इतने खुश हो जाते हैं ...अगर हम लोग कभी इन नैसर्गिक स्थलों पर जाकर इन जगहों का हाल चाल जानने की ज़हमत उठाएं तो कैसा लगेगा! लेकिन शहर में जब हमारे पास अपने पड़ोसी का हाल जानने की फुर्सत नहीं है, तो इस तरह की यात्राओं की तो बात ही क्या करें।

जाते जाते एक बात......मैं जब भी मनसा राम को कहता हूं तो रिटायर होने के बाद गांव लौट जाना ....तो मुझे कभी मनसा राम की आवाज़ में वह दम नहीं लगा कि हां, वह वापिस वहीं लौट जाएगा.....मुझे लगता है वह वापिस लौट कर वहां नहीं जाएगा..यहीं लखनऊ में घर ले लिया है ....होती हैं , सब की पारिवारिक मजबूरियां ....वैसे यह उस का पर्सनल मामला है....हम क्यों इस में घुसने की कोशिश कर रहे हैं!

जाते जाते इतना ही कहूंगा कि मनसा राम जैसे कर्मचारी किसी भी संस्था के लिए एक asset होते हैं...God bless him and his family!



सोमवार, 25 मई 2015

बर्फी से चांदी, बिस्कुट से शूगर-फ्री, पनीर खोये से चिकनाई गायब

२४ मई २०१५ की हिन्दुस्तान में छपी यह खबर
(अच्छे से इसे पढ़ने के लिए इस फोटो पर क्लिक करिए) 
सोचने वाली बात यह है कि अगर इस दौर में भी हम यही सोच रहे हैं कि मिठाईयों पर चांदी के शुद्ध वर्क लगा कर बेचा जाता होगा, एल्यूमीनियम तो क्या, अगर उस से सस्ता और घटिया वर्क कहीं से मिलता हो तो ये जो हमारी सेहत के साथ खिलवाड़ करने वाले हैं, ये उसी को ही इस्तेमाल किया करें।

याद आ रहा है हम लोगों ने पिछले पंद्रह बरसों से एक निर्णय लिया हुआ है कि हम कोई भी मिठाई --चाहे कितनी भी बड़ी दुकान की क्यों न हो, जिस पर वर्क लगा होता है, उसे नहीं खरीदते.....कारण यही है जो ऊपर कल हिन्दुस्तान अखबार की न्यूज़-रिपोर्ट में दिया गया है। कौन सा दुकानदार कहता है कि उसने चांदी का वर्क नहीं लगाया, लेकिन जब चैकिंग होती है तो रिपोर्ट आने पर लोगों के होश उड़ जाते हैं...उडें भी क्यों नहीं, लेकिन डर सिर्फ़ दो तीन दिन ही रहता है....कम के कम दुकानों पर वर्क लगी मिठाईयों की बिक्री तो यही कहती है।

एक बात और, हम लोगों ने कभी भी पिछले १५ वर्षों से वर्क वाली कोई मिठाई-वाई खरीदी भी नहीं और न ही इस तरह की चीज़ किसी को गिफ्ट ही करी। यहां तक कि हम ब्याह-शादी-पार्टी में भी इस तरह की चीज़ का सेवन नहीं करते।

लेकिन एक बात और है, अगर कोई हमें इस तरह की वर्क लगी मिठाई दे जाता है तो हम लोग चाकू से उस के ऊपर वाली सतह अच्छे से उतार कर इस्तेमाल कर लेते हैं।

जिस तरह से हम लोगों ने यह चांदी के वर्क और नकली रंग के इस्तेमाल के शौक पाल रखे हैं, हम लोग अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी बार बार मारे जा रहे हैं। ये चांदी के वर्क, ये सोने की भस्में......यार, हम लोग कौन सा पुराने राजा-महाराजाओं के वंशज हैं, अकसर उन के बहुत से शौक ऐसे वैसे हुआ करते थे, ऐसा सुनते हैं.....इसलिए उन्हें ये सब चीज़ें शुद्ध रूप में किसी वैद्य आदि की देखरेख में तैयार हो कर मिल जाया करती होंगी, हम सब लोग ठहरे दाल-रोटी वाले, हमें इन चीज़ों से नफरत करना सीख लेना चाहिए। वैसे भी आजकल लालच की बीमारी इतना भयंकर रूप ले चुकी है कि इन से डर कर के रहेंगे तो ही ठीक रह पाएंगे।

जानें वैसे ही इतनी सस्ती हो चुकी हैं कि देख-पढ़ कर मन हिल जाता है.....कल ही बात आपने सुनी होगा...दिल्ली के कालका जी मंदिर के पास किसी दुकान पर ९-१० बरस के दो लोंडे भीख मांगने गये...दुकानदार २३ बरस की उम्र का था...उसने एक बच्चे को चांटा दे मारा......इन हरामी के पिल्लों ने क्या किया, एक टूटी हुई बियर की बोतल से उस के गले को काट डाला....दूसरा हरामी लोंडा उस की छाती पर चढ़ गया......बस, वह युवक मर गय...क्योंकि खून ज़्यादा बह गया। मतलब अब painchoooo इन भिखारियों से भी डर के रहा जाए.....ठीक है, उसे गाली नहीं देनी चाहिए थी....लेकिन असल में क्या हुआ किसे पता! जो भी हो, ऐसे किसी का गला कैसे काटा जा सकता है....अब देखिएगा कईं कईं साल केस चलेगा....इन लोंडों के कईं शुभचिंतक खड़े हो जाएंगे...दया की गुहार लगाएंगे.......बस, तब तक बात आई-गई हो जाएगी...बस जाने वाला चला गया।

वापिस आते हैं उस मिलावट वाली खबर पर ही ..... शायद उस में लिखी बातों से हम थोड़ा भयभीत हो जाएं....वैसे उम्मीद तो कम ही है....हम कहां लिखे-विखे की परवाह करते हैं...हम लगता है कि हमारे पड़ोस वाला हलवाई तो बिलकुल ठीक है, ये लखनऊ के हलवाई होंगे ऐसे!!

खबर में यह भी लिखा है कि खुले में बिक रहे पानमसाले में तंबाकू पाई गई है जबकि तंबाकू युक्त पानमसाला बेचना प्रतिबंधित है......अब देखते हैं इन मिलावटखोरों का क्या उखड़ पाता है!

सोचने वाली बात है कि जिस देश में मैदा के नमूने में चावल का माड़ मिला हो, शुगर -फ्री बिस्कुट में चीनी मिली हो, पनीर, खोये व दही से चिकनाई गायब हो वहां पर अगर किसी गजक की पैकिंग से तारीख गायब हो तो कौन सी बड़ी बात है!

पिछले दिनों मैगी वैगी खूब चर्चा में रही है .....पढ़ कर बड़ा अजीब सा लगा कि रिपोर्ट न आने तक मैगी खाने से बचें......अरे यार, डाक्टर लोग गला फाड़ फाड़ कर इन सब चीज़ों से दूर रहने की आवाज़ देते रहते हैं ....लेकिन यहां पर रिपोर्ट आने की बात कही जा रही है....दो दिन पहले बेटा भी इसे खा रहा था, मैंने उसे भी मना किया ...कहने लगा कि यह पुरानी पैकिंग है......मैं चुप हो गया.

मुझे लगता है कि लखनऊ में खाने पीने की वस्तुओं में इतनी मिलावट इसलिए मिलती होगी ताकि ये दुकानदार सारा साल बचत कर के बड़े मंगलवार के दिन खूब भव्य भंडारे लगा पाएं...कढ़ी-चावल, चावल-छोले, खीर, पूरी-छोले, शर्बत लोगों में बांट कर पुण्य के भागी बन सकें.

हमारा काम ढिंढोरा पीटना है, पीट दिया......बाकी आप की मनमर्जियां...
अभी धर्म-कर्म की बातें चलीं तो मुझे यह गीत याद आ गया...मैं इसे ब्लॉग पर लगाने लगा तो मुझे यू-ट्यूब पर लिखी अपनी टिप्पणी दिख गई...स्क्रीन-शॉट लगा रहा हूं....
अगर इसे पढ़ना चाहें तो इस पर क्लिक करिए..



रविवार, 24 मई 2015

बस सब शब्दों का ही खेल है!

कितने शब्द, कौन सा शब्द ...और इन्हें कहने का अंदाज़ ही है बस, इन्हें ही सीखते सीखते ज़िंदगी बीत जाती है, लेकिन यह फंडा ही हम लोग समझ नहीं पाते।

अकसर हम लोग हर जगह अनाप-शनाप बोलते रहते हैं...किसी की मौत पर अफसोस करने आए कुछ लोगों को यह पता नहीं होता कि कितना चुप रहना है, कितना मुंह खोलना है, और क्या कहना है! पेज-थ्री फिल्म के एक दृश्य का ध्यान आ गया जहां पर लोग इस तरह के मौके पर अफसोस के अलावा सब कुछ डिस्कस करते दिखते हैं...अफेयर्स, बिजनेस आदि आदि।

कम्यूनिकेशन एक बहुत बड़ा विषय है...मैंने इसे कईं वर्षों तक पढ़ा...इस के बारे में बहुत कुछ जाना....सिर्फ़ जाना...कुछ भी सीख नहीं पाया.....और जीवन में तो कुछ भी यूज़ कर ही नहीं पाया....बड़ा रोमांचक विषय है...जब इसे पढ़ने लगते हैं तो ऐसा लगने लगता है जैसे सारी ज़िंदगी ही इस विषय में सिमटी पड़ी है।

व्हाट्सएप, फेसबुक जैसे सोशल-मीडिया के यंत्रो-तंत्रों की तूती बोल रही है....हम बिना सोचे समझे कुछ भी इधर से उधर ...उधर से इधर फारवर्ड करते रहते हैं सारा दिन...बिना ज़्यादा सोच विचार किए......सारा दिन हम लोग ऐसा ही कुछ किये जाते हैं ना....

लेकिन सही शब्द सही मौके पर जब दिखते हैं या कहे जाते हैं तो उन की तासीर ही अलग होती है....जादू सा असर कर सकते हैं ये शब्द...

वैसे बहुत बार तो कुछ रिश्तों में शब्दों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती....आंखें ही बहुत कुछ ब्यां कर जाती हैं....

लेकिन कईं बार कुछ कहना भी पड़ता है.....हम लोग चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़े हैं, देखते हैं किसी बीमार के कंधे पर हाथ रख कर जब ये चंद शब्द कहे जाते हैं ...टेंशन मत लो, सब ठीक हो जाएगा!..... तो उसके चेहरे की चमक देखते बनती है...

जब किसी बीमार को आप कोई Get Well note भेजते हैं तो उसे कितना अच्छा लगता होगा! ...शब्दों के साथ साथ मौका और उस की टाइमिंग भी बहुत अहम् होती है।


आज मुझे यह विचार सुबह आया जब मैंने जे ई ई एडवांस के एक परीक्षा केन्द्र पर एक बात लिखी देखी....बात देखने में बहुत छोटी सी थी ..लेकिन मौका और इस का टाईमिंग अति उत्तम था...Everyday holds the opportunity of miracles!

देखिएगा बात कितनी सुंदर है... और सैंकड़ों बच्चे और उन के गार्जिएन्स ने जब उन शब्दों को पढ़ा होगा तो उन्हें कितना अच्छा लगा होगा। मुझे भी बहुत अच्छा लगा...


इस तरह के एग्ज़ाम देने आए स्टूडेंट्स और उन के अभिभावकों पर उस समय कितना दबाव होता है...यह हम सब समझ सकते हैं...वैसे उस समय बहुत से और भी मुद्दे दिमागों में ऊधम मचा रहे होते हैं...लेकिन ये सरकार की नितियां हैं.....बहुत बड़े मुद्दे हैं...इतनी टेंशन नहीं लेने का .......बस उस बात पर ही ध्यान देने का .......हर दिन चमत्कार हो सकते हैं। रिजल्ट कब आएगा, कैसा आएगा...कौन आईआईटी में दाखिला ले पाएगा....कौन रह जाएगा...रिजर्व कैटेगरी का कट-अफ कितना गिरेगा,.......मैंने कहा ना ये बहुत बड़े मुद्दे हैं.....लेकिन ऊपर लिखे चंद करिश्माई शब्दों ने तो सभी को एक बार तो गुदगुदाया दिया।

उस मुश्किल घड़ी में मुझे यकीन है जो भी इस वाक्य को पढ़ रहा होगा, उस का हौसला कुछ तो बुलंद हो ही जाता होगा....क्योंकि हर एक पढ़ने वाले को लगता होगा कि यह उस के लिए ही लिखा है।

अकसर हम लोग देखते हैं कि एक ही बात अलग अलग लोग कहते हैं ..लेकिन उन के कहने का ढंग -अंदाज़ इस कद्र अलग होता है कि एक तो लड़ाई झगड़े का कारण बन जाता है और दूसरी की बात खुशी खुशी स्वीकार कर ली जाती है। सच बताऊं यह कम्यूनिकेशन एक बेहद रोमांचक विषय है....बिल्कुल प्रेक्टीकल ......यह मेरा कसूर है कि मैं इस के बारे में बहुत कुछ जान तो पाया लेकिन इसे जीवन में उतार नहीं पाया।

पंजाबी में एक बड़ी पुरातन कहावत है ... जुबान ही है जेहड़ी राज करवा दिंदी है ते एहो ही है जिहड़ी छित्तर पवा दिंदी है......(जुबान ऐसी है जो राज भी करवा सकती है और जूते भी पड़वा सकती है!!) ... शत प्रतिशत सच।
अकसर हम लोग समझा करते थे कि बातचीत करने के ढंग का किसी बंदे की पढ़ाई-लिखाई से कोई संबंध है....लेकिन ऐसा नहीं है.....ऐसा मैंने अनुभव किया है।

कितनी बार हम लोग सुनते हैं कि बहुत बार कही गई बात के शब्दों की वजह से नहीं होती, उस के कहने के अंदाज़ और बात कहने की टोन की वजह से बड़े बड़े बखेड़े हो जाते हैं।

हमें कम्यूनिकेशन में शब्दों का इस्तेमाल सोच समझ के करना चाहिए...आज दोपहर में मैं आलइंडिया रेडियो का रेनबो चैनल सुन रहा था ..कोई गौतम कौल हैं..लेखक और पुलिस अधिकारी रहे हैं.....किसी पाठक का जब खत उन्हें सुनाया गया ..२० साल की किसी लड़की ने खत लिखा था रेडियो कार्यक्रम में ..खत पढ़ने वाला लड़की की हिम्मत की दाद दे रहा था ...लेकिन कौल साहब ने उस लड़की को ताकीद की निराशात्मक (निगेटिव) quote कहना उस की उम्र में शोभा नहीं देता.....यह उम्र तो आशा की है, उमंग की है, नई ऊर्जा की है, स्फूर्ति की है......ऐसे में निराशा का, हताश होने का क्या काम......अच्छा लगा उन की यह बात सुन कर... उन्होंने कहा कि कार्यक्रम में जो गीत पहले बज रहा था, हमें उस में कही बातों पर गौर करना चाहिए......हमेशा पाज़िटिव रहना चाहिए...

जिस गीत का वह ज़िक्र कर रहे थे, उस का रिकार्ड मैं ही लगा देता हूं ...आप भी सुनिएगा...




आज मैं सरकारी भांग के ठेके पे हो ही आया...


भांग के बारे में मेरी उत्सुकता पिछले कुछ महीनों से ज़्यादा ही बढ़ गई थी...मैंने पांच छः महीने पहले लिखा भी था...
उत्सुकता कुछ तो इसलिए बढ़ गई थी क्योंकि मैं जब से लखनऊ में आया हूं मैंने कईं जगह पर भांग के सरकारी ठेके देखता हूं..

बचपन से भांग की यादें कुछ खास नहीं....बस, जिस घर में हम रहते थे उस के पीछे वीरान जगह थी...जहां पर अकसर आने जाने वाले, कूड़ा कर्कट उठाने वाले लोग कुछ जंगली पौधे के पत्तों को तोड़ते, दोनों हाथों में मसलते, फिर किसी कागज़ में डाल कर पीने लगते...हमें तब पता चल गया था कि यह भांग के पौधे हैं।

फिर कालेज में गये तो भांग के बारे में बॉटनी (वनस्पति विज्ञान) पढ़ते अच्छे से पढ़ा। फिर जब मेडीसन पढ़ने लगे तो पता चला कि यह किस तरह का नशा है।

उन्हीं दिनों की बात है कि होस्टल में रहने वाले कुछ लड़कों को होली वाले दिन धोखे से भांग के पकोड़े खिला दिए गये..उन की हालत इतनी खराब हो गई, उल्टीयां होने लगीं कि उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा....तब पता चला कि भांग बहुत खराब चीज है।

और सब से ज़्यादा तारूफ़ भांग से राजेश खन्ना और मुमताज ने तब तक करवा ही दिया था...जब वे शिवरात्रि के दिन भांग वांग पी लेते हैं....

हां, तो भांग के ठेके वाली बात पर वापिस लौटते हैं...आज मैं एक भांग के ठेके पर रूक ही गया...यह सरकारी ठेका है...मुझे सीधा उस के अंदर जाते हुए झिझक महसूस हुई तो मैंने उस के साथ वाली दुकान से उस ठेके के बारे में थोड़ा जानना चाहा...उसने बताया कि दस बीस रूपये में भांग मिल जाती है...धंधा बहुत बढ़िया है पर यह भांग दिमाग को बिल्कुल खोखला कर देती है। अगर इन ठेकों पर कोई गलत काम होता दिख जाए तो सरकार इन का लाइसेंस कैंसिल भी कर देती है...मैं मन में सोच रहा था कि यार, यह तो तुम मुझे मत बताओ...यह सब सुन कर अब हंसी आती है।
मैं वहां से जाने लगा तो इच्छा हुई कि हिम्मत कर के अंदर ही चलता हूं....

मैं अंदर गया तो देखा कि एक कारीगर जैसा दिखने वाला बंदा छोटे छोटे लड्डू से बना रहा था ..मैंने उत्सुकता से पूछा कि यह क्या है, जवाब मिला कि यह भांग है। यह जो तस्वीर आप देख रहे हैं ये भांग के गोले हैं....बीस बीस रूपये में बिकते हैं।

भांग के गोले 
अब मैं अंदर चला ही गया था तो क्या कहता कि मैं क्यों आया हूं...क्या मैं उस कारीगर के पीछे बैठा उस ठेके के मालिक को कहता कि मैं बस फोटो खींचने आया हूं....यह तो ठीक न लगता ...इसलिए मैंने बात इस तरह से शुरू की कि पंजाब में तो भांग के पकोड़े खूब बिकते हैं। पंजाब का नाम सुन कर दुकान का मालिक कहने लगा कि पंजाब में तो नशों की भरमार है।

बहरहाल, उसने मुझे पूछा कि आप उन पकोड़ों के लिए भांग लेना चाहते हैं, वह भी हमारे पास है....वहां पर पैकेटों में भांग की पत्तियां पैक की हुई थीं....उसने बताया पकोड़े इसी के बनते हैं।

अभी इतनी बात चल रही थी कि एक आदमी आया और इन भांग के गोलों के पास ही रखे कुछ चांदी के वर्क लगे छोटे छोटे भांग के गोले की तरफ़ इशारा कर के एक लेने लगा...बीस रूपये में....उसे मुनक्का कहते हैं....मैंने पूछा कि इसे मुनक्का क्यों कहते हैं...तो कारीगर और मालिक कहने लगे कि यह मीठा होता है ... इसे देशी घी से तैयार किया जाता है।

 भांग मुनक्का 
मैंने यह भी पूछा कि बाहर दुकान के बाहर एक मटका रखा हुआ है...जो भी आपसे भांग खा रहा है, बाहर पानी ज़रूर पी रहा है ..तो कारीगर ने बताया कि भांग गले में अटक जाती है...इसलिए उसे ठीक से निगलने के लिए पानी तो पीना ही पड़ता है। अभी जब मैं विकि-पीडिया पर भांग के बारे में पढ़ रहा था तो उस में लिखा है कि जो लोग इस का सेवन करने लग जाते हैं...उन का मुहं सूखने लगता है....सूखे मुंह में रखी किसी भी चीज़ को आगे सरकाने के लिए पानी तो चाहिए ही।

मुनक्के के एक खरीददार ने मुझे भी मुनक्का खाने के लिए कहा। लेकिन मुझे तो उस मुनक्के का याद आ गया जिसे मैंने हरियाणा में बिकता सुना था...मुझे आज पता चल गया कि उस मुनक्का वटी में भी यह भांग वांग ही होती होगी।

मैंने जब पूछा कि भांग को पीया कैसे जाता है तो दुकानदार ने पास ही रखे कुछ छोटे छोटे पाउचों की तरफ़ इशारा किया कि इन में भांग का पावडर है, अगर आप इन्हें सूंघ ही लें तो बस....मस्त हो जाएं।

इतने में मैंने दुकानदार से पूछा कि क्या मैं इन भांग के गोलों की फोटो खींच लूं.....उसने कहा ...हां, हां......लेकिन मुनक्का वटी की फोटो खींचते समय कैमरा बंद हो गया...कोई बात नहीं..
नेपाल में साधु न बेच पाएंगे भांग

इस के आगे मैं वहां क्या बातें करता....उसने मेरे से पूछा कि आप कहां से आए हैं......मैंने भी अपना परिचय दे दिया।
शायद आप को पता होगा कि भांग को दवाई के तौर पर भी यूज़ किया जाता है ..कुछ पश्चिमी देशों में....और यह मेडीकल यूज़ डाक्टरों की देखरेख में होता है....विशेषकर कैंसर के दर्द को कम करने के लिए इस का बहुत इस्तेमाल हो रहा है... और अभी तो हिंदोस्तान में भी चर्चा शुरू हो गई है कि भांग के मेडीकल इस्तेमाल की अनुमति दी जानी चाहिए....

अगर इसे मेडीकल इस्तेमाल के लिए यूज़ किया जाने लगेगा तो इस का सही तरीके से शुद्दिकरण होगा,....इस तरह से बिक रही भांग में (जैसा कि मैंने ऊपर बताया है) तो पता ही नहीं कौन कौन सी अशुद्धियां हैं...क्या क्या भरा पड़ा है!... लेकिन अगर मेडीकल यूज़ के लिए इसे अनुमति मिल जाती है तो फिर डाक्टरी खुराक की तरह ही इसे लिया जा सकेगा....ऐसे ही नही भांग के गोले, भांग का मुनक्का ही खरीद कर खा लिया जाए..

जो भी हो , भांग खराब तो है ही.......नशे तो सब खऱाब ही हैं......लेकिन इस में कोई शक नहीं कि अगर इस का नियंत्रित इस्तेमाल चिकित्सा के लिए किया जाए तो कैंसर जैसे जटिल रोगों से ग्रस्त रोगियों की पीड़ा का काफ़ी कम किया जा सकता है...और चिकित्सा विज्ञानिक इसी पर रिसर्च करने की ही तो अनुमति मांग रहे हैं। आप इस िलंक को देख सकते हैं...
डाक्टरों को तो भांग पर काम कर लेने दो 

दो साल पहले की बात है हम लोग अपने नेटिव प्लेस पर गये हुए थे....वहां पर हमारे मैदान को बहुत समय से खाली छोड़ा हुआ था..वहां पर भी यह भांग के पौधे निकल आए थे....उन्हें देखते ही मेरा बेटा हंसने लगा...डैड, मरीयाना, वाह ...इस की बड़ी डिमांड है...इसी का ही बिजनेस कर लेते हैं! (बाहर देशों में भांग को मरीयाना ...Marijuana कहा जाता है)...हंसते हंसते फिर कहने लगा......Woh! Marijuana cultivation!!
अगले दिन मजदूरों से उन पत्तों को कटवा कर फैंक दिया गया।

यह टॉपिक बहुत लंबा है ...लेकिन अगर आप को भांग के बारे में बहुत कुछ जानना है तो भांग के विकिपेज पर विज़िट अवश्य करिएगा......यह रहा लिंक ....Cannabis (wikipedia page)


भांग की इतनी बातें हो गईं........ना ही मैंने इसे चखा ना ही इसे आपने खाया....लेकिन फिर भी इस की सीरियस बातों की चर्चा के बाद प्रसाद के रूप में चिट-पट वाला यह कार्टून देख कर थोड़ा हंस दीजिए....आज ही हिन्दुस्तान में छपा है....इन कार्टूनिस्टों के फन को दंडवत सलाम.....किस तरह से गागर में सागर तो भर ही देते हैं.....और बिना भांग खिलाए ही हमें लोटपाट कर देते हैं......अच्छे दिनों को चंद शब्दों में इतनी सटीकता से हमारे सामने रख दिया.....आप का क्या ख्याल है?



शनिवार, 23 मई 2015

लखनऊ का 44 डिग्री पारा एक सबक याद करा गया...

कल के अखबार में पढ़ा था कि परसों लखनऊ का पारा ४३ डिग्री था...आज के पेपर में पढ़ा कि कल का पारा ४३.९ डिग्री सेल्सियस था। दोनों दिनों में चलने वाली लू का मैं भी गवाह हूं।

मेरी बीवी मुझे बार बार याद दिलाती हैं कि बाहर कहीं भी गाड़ी पर जाया करो...झुलसने वाली गर्मी में भी पता नहीं आप को स्कूटर चलाना क्यों अच्छा लगता है!

अब इस का मैं क्या जवाब दूं....वैसे भी मुझे शहर में स्कूटर से चलना बहुत अच्छा लगता है...जहां चाहा उसे खड़ा कर दिया...जितनी भी तंग जगह हो तो भी यह तो निकल ही जाता है। रही बात झुलसने वाली ...२२-२३ बरस तक साईकिल पर झुलसते रहे ..फिर पिछले २५ बरसों से स्कूटरों पर झुलस रहे हैं तो ऐसे में गर्मी में झुलसने से कोई परहेज नहीं....बस, थोड़ी सावधानी बरतनी ज़रूर चाहिए...यह समय ने सिखा दिया है।

वैसे भी अाजकल हर जगह पार्किंग की इतनी ज़्यादा सिरदर्दी है कि कहीं भी जाने का मजा कार में जाने से अधिकतर तो किरकिरा हो जाता है.....हर तरफ से हार्न ...यहां पार्किंग नहीं, वहां नहीं, इससे अच्छा है घर में बैठ कर ही तारक मेहता का उल्टा चश्मा लगा लिया जाए।

जब स्कूल जाते थे ..सातवीं कक्षा तक पैदल ही जाते थे...मां कितनी बार कहा करती थी कि सिर पर एक छोटा सा तोलिया गीला कर के रख लिया करो...स्कूल से वापिस आते हुए..नहीं तो लू लग जाती है. हम ने कभी उन की यह बात नहीं मानी...क्योंकि हमें सिर पर तोलिया गीला कर के रखने से शर्म लगती थी।

यहां तक की रूमाल भी कभी सिर पर नहीं रखा ...जिस समय हम लोग दोपहरी में घर आया करते थे...हां, एक काला चश्मा हुआ करता था घर में ....कभी कभी चार पांच मिनट के लिए उसे ज़रूर लगा लिया करते थे...उसे भी लगाने से झिझक ही होती थी....लोग क्या कहेंगे...इतना फैशन क्यों, हम लोगों को गर्मी से ज़्यादा इन कमबख्त लोगों की ज़्यादा चिंता हुआ करती थी।

दोस्तो, मुझे सब से समझदार वे लोग लगते हैं जो अपने सिर पर अंगोछा-वोछा बांध कर गर्मी के दिनों में बाहर निकलते हैं.....कईं बार देखता हूं कि किसी किसी ने एक तोलिया ही सिर पर रखा होता है.....गीला किया होता है...बहुत अच्छी बात है।

आज से १०-१५ बरस पहले हम लोग जयपुर में जाते थे तो देखा करते थे कि वहां पर युवतियां स्कूटर चलाते हुए अपनी बांहों पर एक कपड़ा चढ़ा कर रखा करती थीं और मुंह पर भी एक दुपट्टा अच्छे से लपेट कर रखा करती थीं और अपने कपड़ों के ऊपर अपने भाई की कोई कमीज़ चढ़ा लिया करती थीं......हमें शुरू शुरू में यही लगता था कि यह सब इन्हें चमड़ी को काला पड़ने से बचाने के लिए करना पड़ता होगा.....जी हां, वह बात भी ठीक है लेकिन आज के दौर में ये लू के थपेड़े ही कुछ इस तरह के हैं कि जितना इन से बचा जा सके उतना ही ठीक है।

आज कर देखते ही हैं कि बहुत से लोग अपने चेहरे को अंगोछे या पतले दुपट्टे आदि से ढंक कर ही निकलते हैं। अच्छी बात है।

मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है कि स्कूल के दिनों में या फिर साईकिल के दिनों में मैं जब भी बाहर गर्मी से आता तो मेरा सिर दुःखने लगता था...टोपी तो आज से २०-२५ बरस पहले बिकने लगी थीं.....तब तक हम लोग २५ साल तक यह यातना झेल चुके थे.....रंगीन चश्मे वश्मे भी लोग २०-२५ बरस पहले ही ज़्यादा पहनने लगे थे ..पहले तो लोग इसे शौकीनी कहा करते थे।

मुझे याद है कि १९८४-८५ के दौरान जब मैं येज्दी मोटरसाईकिल चलाता था तो उन दिनों मुझे बाटा कि एक दुकान से पावर का एक माथे पर टिकाने वाला कवर सा मिल गया था...उस से धूप से बड़ी राहत मिला करती थी....प्लास्टिक का था ...जैसा आज कल लोग किसी मैच को देखने जाते समय कार्डबोर्ड का माथे को कवर करने वाला एक जुगाड़ रख लिया करते हैं।

हां, अभी मुझे आप से कल का अपना अनुभव शेयर करना है....कल मुझे दोपहर में १०-१५ मिनट स्कूटर चला के कहीं जाना  था....मैंने थोड़ा आलस्य किया कि अब कौन हेलमेट निकाले डिक्की में से...सफेद टोपी तो पहना ही हूं...ऐसे ही हो कर आता हूं.......दोस्तो, यकीन मानिए...जितनी गर्मी उन लू के थपेड़ों से मुझे कल लगी ...मुझे यह सारी बातें जितनी मैंने ऊपर लिखी हैं अनायास याद आ गईं....और मुझे सड़क पर चलते चलते ऐसे लग रहा था जैसे कि मैं किसी तंदूर के बिल्कुल सामने बैठा हूं।

वैसे भी आज कर अधिकतर हेल्मेट चेहरे को कवर कर लेते हैं और लू का इतना पता नहीं चलता .. फिर भी थोड़ी सी जगह भी खाली हो तो उसमें से जाड़े और लू के दिनों में हालत खराब हो जाती है.....मुझे पिछले दिनों में यह भी समझ आने लगा है कि लोग हेल्मेट डाले हुए भी गले के आसपास अंगोछा क्यों लपेट लिया करते हैं.......आज से मैं भी कोशिश करूंगा कि अंगोछे को साथ लेकर और पानी से गीला कर के ही चला करूं।


हां, तो दोस्तो मेरा कल का सबक बस यही था ....कल इतनी ज़्यादा गर्मी थी और अचानक ध्यान आ गया कि आज तो गुरू अर्जुन देव जी का शहीदी दिवस है.....जगह जगह पर ठंडे-मीठे पानी की शबीलें लगी हुई थीं.....जहां तक मुझे याद है कि पहले यह दिन लगभग ५ जून के आसपास आया करता था...तो पंजाब में इस दिन अनेकों जगह पर रूह-अफजा, शर्बत, मीठे धूप के स्टाल और काले चने का लंगर बांटा जाता था.....कल भी यहां पर खूब लंगर लगा......लेकिन पता नहीं अब हम लोग वेस्टेज भी बहुत करते हैं.....बहुत ज़्यादा ......और उस से भी ज़्यादा गॉरबेज के अंबार लगा देते हैं। मुझे नहीं पता हम लोग कब सुधरेंगे....सुधरेंगे भी या यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा।

 बल्ले बाऊ तेरे....शाबाश....आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है
लेिकन यह बाऊ तो अपनी बातें सुन कर ही सुधर गया लगता है, कल वाट्सएप पर यह तस्वीर दिखी कि इसने गर्मी से और दुर्घटना से बचने का एक अनूठा जुगाड़ कर लिया है....

इतनी ज़्यादा गर्मी में मेरे विचार में पहाड़ों की ठंडी ठंडी बातें सुनते हैं.......


शुक्रवार, 22 मई 2015

अपने काम का लेखा-जोखा...

कल मैं लखनऊ की एक कॉलोनी से निकल रहा था तो मैंने एक बंदे को देखा कि वह टुथब्रुश को दातुन के अंदाज़ में कर रहा था...बस आप इतना समझ लीजिए कि वह उस ब्रुश से दातुन का काम ले रहा था...इस से मेरे मतलब यही है कि इतने ज़ोर से वह दांतों पर तो उस ब्रुश को घिस ही रहा था ..एक बात...दूसरी बात यह कि जैसे दातुन-धारी सुबह सुबह करते हैं ना कि उसे गले की सफाई के लिए इस्तेमाल कर लिया करते हैं....हां, वह यह भी कर रहा था ...जितने उस्ताह से वह अपने ब्रुश को चला रहा था, और जैसी जैसी आवाज़ें गले की सफ़ाई की निकाल रहा था, यह सुन कर यही लग रहा था कि यह तो आज कुछ न कुछ पाड़ के ही दम लेगा।

बहरहाल, मैंने कुछ कहा नहीं ...चुपचाप आगे निकल आया...कहने को मन तो बस इतना हो रहा था कि इसे फैंक कर कहीं से दातुन उठा ले भाई।


हल्की फुल्की लगी होगी बात आपको....एक बात और भी शेयर करनी है चार पांच रोज़ पहले मैंने पहली बार एक झोंपडे के बाहर लखनऊ में देखा कि यह बच्चा ब्रुश कर रहा था और जो सब से अच्छी बात लगी कि साथ ही उसने जीब-छिलनी भी बांध रखी थी.....पहले तो मैं अपने साईकिल पर आगे निकल आया...फिर लगा कि पता नहीं फिर कभी यह मंज़र दिखे कि न दिखे.....मैं मुड़ा और उस की फोटो खींच ली.....आप देख ही रहे हैं कि वह मुझे किस तरह से घूर रहा है। कोई बात नहीं .....आप तक फोटो तो पहुंच गई।

दोस्तो, जब अस्सी के दशक में मैं डैंटिस्ट्री पढ़ रहा था तो यही लगता था कि जैसे सारी दुनिया के दांत ठीक कर देंगे....फिर एमडीएस किया तो ऐसे लगा कि जैसे लोगों के दांतों की सभी तकलीफ़े दूर कर देंगे।

लेकिन हुआ कुछ भी नहीं....पिछले २५ वर्षों से निरंतर सामान्य डेंटिस्ट्री ही कर रहा हूं ...कोई बड़ा बड़ा काम नहीं किया..कोई इंप्लांट नहीं लगाया...और कोई ऐसा काबिले तारीफ़ काम नहीं किया...बस एक सरकारी नौकरी में सामान्य डेंटिस्ट्री ठीक ठाक करता रहा....लोगों को जागरूक करता रहा ...बस यही करते करते पूरे २५ साल हो गये।
पहले किसी को ब्रुश गल्त ढंग से इस्तेमाल करते देख कर दुःख होता था...अब शायद उतना नहीं होता, पहले लोगों के कुछ दांत सड़े देख कर परेशानी होती थी, अब शायद उतनी नहीं होती, पहले पायरिया लगे मसूड़े देख कर मन विचलित होता था, अब शायद नहीं होता।

और यह मैं बिल्कुल सच कह रहा हूं....आप को भी लग रहा होगा कि अब ऐसा क्या हो गया कि अब लोगों की ये परेशानियों से मैं परेशान नहीं होता। अभी मैं उस का कारण बताऊंगा।


दो दिन पहले मैं चांदनी चौंक के एक शो-रूम से बाहर निकला...रिक्शा वाले को चलने को कहा ..कहने लगा ..आप आटो कर लो....चलिए वो तो अलग बात है, लेकिन मेरा ध्यान उस के हाथ में रखी डिब्बी की तरफ़ चला गया।
मैंने पूछा कि यह क्या कर रहे हो भाई। मुझे अंदेशा तो हो गया कि यह क्या है, दोस्तो, वह अपने दांतों पर मूसा का गुल मंजन घिस रहा था.....इस मंजन में पिसा हुआ तंबाकू ठूंसा होता है...मुंह के कैंसर का एक अचूक नुस्खा।

मैंने उसे ऐसा करने से मना किया.....लेिकन मैं उस की बात सुन कर दंग रह गया....दंग क्या रह गया, मुझे शर्म महसूस हुई कि अभी तक जागरूकता की इतनी कमी है ...उसने बताया कि उस का मुंह जाम हो गया था, खुलता नहीं था, और जब से उसने गुल मंजन (तंबाकू मंजन) लगाना शुरू किया है, उसे अच्छा लगने लगा है....मुंह खुलने लगा है। मुझे यह सब सुन कर इतना दुःख हुआ कि मैं बता नहीं सकता....तब तक मैं वहां खड़े खड़े ही उस के मुंह के अंदर झांक चुका था।
उसे तंबाकू और गुटखे की वजह से मुंह मे ओरल-सबम्यूक्सफाईब्रोसिस नामक बीमारी हो चुकी थी....जिसे कैंसर की पूर्वावस्था भी कहते हैं...बहुत अफसोस हुआ ...मैंने उसे दो चार मिनट में समझाया कि इस का पूरा इलाज करवाओ और ये सब तंबाकू-वाकू के लफड़े छोड़ दो...लगता तो था कि बात मान गया है कम से कम तंबाकू न घिसने के लिए राजी हो गया लगा।

पूछने लगा कि इस का इलाज कहां से होगा....मैंने कहा कि पास ही में मोलाना आज़ाद डैंटल कालेज अस्पताल है, वहां जाकर इस का इलाज करवा लेना....मुझे पता है कितना आसान है और कितना मुश्किल है इस तरह की बीमारी का इालज करवाना....लेकिन मैंने उसे तो बताना ही था....कम से कम कहीं से शुरूआत तो हो।

कहने लगा कि वहां तो इलाज के लिए खर्च करना होगा....मैंने कहा कि नहीं, वह फ्री अस्पताल है....लेकिन मुझे पता है कि इस तरह के इलाज के लिए बार बार इसे वहां जाना होगा, दवाईयां बाहर से भी खरीदनी होंगी, वहां पर सरकारी फीस भी भरनी होगी, बार बार अपनी दिहाड़ी खराब भी करनी होगी...क्या अभी भी आप को लगता है कि वह इलाज करवाएगा...दुआ करें कि वह करवा ले, लेकिन वह चाहते हुए भी नहीं करवा पायेगा।

हम लोगों के लिए किसी को सलाह देनी बहुत आसान होती है......बहुत आसान.....बस हमने थोड़ा सा मुंह ही तो हिलाना होता है।

जिस सरकारी अस्पताल में मैं काम करता हूं वहां पर भी मेरे पास इस तरह के बहुत से मरीज़ आते हैं.....सारा खर्च उन का सरकार उठाती है, लेकिन वे फिर भी इलाज पूरा नहीं करवाते, तंबाकू-गुटखा पता नहीं छोड़ते हैं या नहीं, मेरे पास आना छोड़ देते हेैं।

यही कारण है अब खराब दांतों और मसूड़ों की बीमारियां देख कर मेरा मन नहीं पसीजता, मुझे लगता है कि हो जाएंगे ये भी ठीक हो जाएंगे, कम से कम ज़िंदा तो रहेंगे...दांत निकल भी गए तो नकली लग जाएंगे लेकिन एक बार मुंह में कैंसर का रोग हो गया तो यह ज़िंदगी में ज़हर घोल देगा.....हम अपने मरीज़ों को टाटा अस्पताल मुंबई रेफर करते हैं, आने जाने का ...वहां पर होने वाला सारा खर्च सरकार उठाती है....लेकिन अगर इस तरह के दिहाड़ी करने वालों को इस तरह का रोग घेर लेता है तो पूरा घर ही तबाह हो जाता है.......याद आ रहा कुछ महीने पहले किसी जगह पर एक सफाईकर्मी मिला था...मुंह का कैंसर था...मैंने कहा कि इलाज क्यों नहीं करवाया, कहने लगा कि दस हज़ार रूपये का खर्चा है, चलिए, वह भी कर लेते जैसे-तैसे ....लेकिन वहां डाक्टरों ने मेरे को इतना डरा दिया कि तुम्हारे मुंह को कांटना छांटना पड़ेगा तो मैं डर गया.....कि मेरा तो प्राईव्हेट काम है, लोग मेरे को देख कर मेरे से ऩफ़रत करने लगेंगे ...काम धंधे का क्या होगा.......यह उस की आपबीती थी.

अब और क्या लिखूं........अगर अभी भी लोग पान-मसाला-गुटखा, तंबाकू, ज़र्दा, खैनी, सुरती, पान का सेवन बंद करने का मन नहीं बना रहे हैं तो कोई बात नहीं, अभी हम ने भी हार नहीं मानी है। 

बुधवार, 20 मई 2015

मां ने कहा था ओ बेटा...

आज सुबह पांच बजे ही मैं साईकिल उठा कर घूमने निकल गया...आज फिर शहर के अंदर ही घूमने लगा। फिर से वही पुराना सबक याद हो गया....सुबह सुबह शहर के अंदर साईकिल पर घूमना अच्छा नहीं लगता। बाहर की खुली सड़कों पर हरियाली में ही सुबह अच्छा लगता है।

और अगर कहीं आप किसी कॉलोनी की किस तंग गली में घुस जाएं तो क्या हालत होती है, यह तो कोई अनुभव करे तो ही पता चले। मुझे भी आज सुबह मां की कुछ दिन पहले की सीख याद आ गई...मां ने कहा था कि सुबह सुबह बाहर जाते हो, हाथ में कोई छोटी मोटी छड़ी रखा करो, कुत्ते पीछे पड़ जाएं तो उन्हें दूर रखने में मदद मिलेगी।

आज जैसे ही मैं एक कालोनी की गली में घुसा, तो मुझे नहीं पता था कि यह आगे से बंद है...जैसे ही मैं साईकिल से नीचे उतरा एक आदमी से रास्ते के बारे में पूछने लगा तो लगे कुत्ते भौंकने....मैंने उस आदमी को ही कहा कि यार, ज़रा इन कुत्तों से बाहर तो पहुंचा दो.....उसने मदद कर दी ....और मैं उस गली से बाहर आ गया......और आज से यह सबक लिया कि सुबह भ्रमण करते हुए न तो किसी तंग सी सड़कों वाले शहरी एरिया में घूमना है और गलियों में तो जाने का सवाल ही नहीं...सुबह सुबह बहुत से लोग तो सोए होते हैं, ऐसे में अगर कुत्ते अगर अपनी औकात पर उतर आएं तो बंदे का क्या बना दें, सुबह के भ्रमण का सारा फितूर उतर जाए एक ही दिन में।। वैसे भी अगर गलियों वलियों में नहीं घुसा जायेगा तो हिंदोस्तान थोड़ा सा कम ही देख लेंगे ......और तो कुछ नहीं........वह भी चलेगा!

हमारी किसी अगली दावत के लिए गिलासों का इंतज़ाम चल रहा है..
आगे जाते हुए देखा कि सुबह सुबह कुछ लोग प्लास्टिक के गिलास इक्ट्ठा कर रहे थे, मैंने पूछा कि इन का क्या होगा, तो उस बंदे ने जवाब दिया कि ये दिल्ली जाएंगे, वहां ये इन्हें फिर से ढाला जाएगा.. (यानि पिघलाया जायेगा) ...और फिर गिलास बनेंगे...सच में इस प्लास्टिक ने तो हमारी ज़िंदगी में ज़हर घोल दिया है...मैं यही सोच रहा था कि हम लोग कितनी खुशी खुशी विभिन्न समारोहों में पानी इस तरह के गिलासों में पा कर इत्मीनान कर लेते हैं कि चलो, गिलास किसी का जूठा तो नहीं है, सब साफ़-सुथरा है.....लेिकन इस तरह का प्लास्टिक हमारी सेहत के साथ सच में बहुत बड़ा खिलवाड़ कर रहा है।

मैंने एक जगह देखा कि एक कबाड़ी अपने सामान के ढेर को आग लगाए बैठा था....करते हैं यह काम कबाड़ी ताकि रबड़ आदि जल जाए और शेष बची धातु को आगे बेचा जा सके। अजीब तरह का धुआं और गंध आ रही थी...उसी आग के पास ही बैठी थी उस की बीवी और उस के पास ही उस के दो छोटे छोटे बच्चे....एक बार तो मैं आगे निकल गया, फिर मेरे से रहा नहीं गया...बच्चों को इस धुएं में खेलते देख कर.....मुझे इतना तो पता है कि मेरे कहने से वह यह काम बंद नहीं करेगा ..लेकिन मैंने उसे इतना तो दो बार ज़रूर कहा कि इस तरह का काम करते वक्त मुंह पर कपड़ा बांध लिया करे और बच्चों को तो इस तरह के धुएं से बहुत दूर रखा करे, यह इन की सेहत के लिए भी बहुत खराब है। उस ने मेरी बात पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की ....लेकिन मुझे उस की आंखों की भाषा से यह पता चल गया कि वह मेरी बात समझ गया है। मेरा क्या गया, ऐसा कितनी बार होता है ...हम कुछ ऐसा वैसा होते देखते हैं ...लेकिन हमें क्या...वाली मानसिकता के रहते आगे निकल जाते हैं....ऐसा नहीं होना चाहिए, अगर आप िकसी बात को जानते हैं तो कम से कम उसे आगे पहुंचा तो दें.......बाकी निर्णय उस के हाथ में है, लेकिन हम अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह तो करें।

मुझे यहां लखनऊ की अखबारें पढ़ कर यही लगने लगा है कि यहां पर अकेली टहलने निकली महिलाओं को तो अपने घर के आस पास ही टहल लेना चाहिए...कानून व्यवस्था यहां पर बहुत खराब है...छीना-झपटी, ज़ोर-जबरदस्ती दिन दिहाड़े करने से तो लोग चूकते नहीं......इसलिए विशेषकर महिलाओं को अपनी सुरक्षा के प्रति सजग रहने की ज़रूरत है.....मैं बहुत बार लिख चुका हूं कि आज के दौर में सोना तो क्या, नकली गहने पहनना भी अपनी जान को खतरे में डालने वाली बात है।

एक महिला को देखा उसने एक नुकीली सी छोटी छड़ी पकड़ी हुई थी...अब वह छड़ी इस तरह की थी कि अगर यह छड़ी किसी आपराधिक प्रवृत्ति वाले बंदे के हाथ में आ जाए तो वह उसी से कितने लोगों को नुकसान पहुचंा दे...मैं कोई गामा पहलवान नहीं हूं जानता हूं.....लेकिन फिर भी अकेली सुनसान सड़कों पर बुज़ुर्गों को भी हाथों में मजबूत सी स्टिक्स कुत्तों से रक्षा के लिए... हाथों में थामे देखता हूं तो यही लगता है कि आदमी को वही हथियार उठाना चाहिए जिसे वह अच्छे से संभाल तो सके..

बातों से बातें तो आगे से आगे निकलती ही जाएंगी........बातों का क्या हाल, लेकिन मुझे ऐसा लगने लगा है कि सुबह शाम टहलने के लिए अपने घर के आस पास का पार्क जिस में खूब लोग आते हों, नहीं तो अपनी कॉलोनी का चक्कर लगा लेना ही सुरक्षित है। यह राय विशेषकर महिलाओं के लिए है......सुनसान रास्तों पर गहने पहन कर इन्हें टहलता देख कर तो यार हम लोग इन की दबंगाई पर हैरान हो जाते हैं। आगे जैसी इन की इच्छा.......It's their life anyway....Choice is theirs!

आज साईकिल बड़ा भारी चल रहा था...ऐसे लग रहा था जैसे रिक्शा हांक रहा हूं......शाम को मेकेनिक को दिखाते हैं...बस, आज तो ऐसे लगा कि घर में एक्सरसाईकिल चलाने की बजाए साईकिल पर बाहर घूम आए।

सबक एक दूसरे से सीख लेने चाहिए....कल शाम मैं और बेटा स्कूटर पर कहीं जा रहे थे...बिज़ी रोड़ थी....दो युवक वहां पर लंबी दौड़ लगा रहे थे ...जॉगिंग....बेटा कहने लगा कि इन्हें इधर नहीं दौड़ना चाहिए....उस की बात यही थी, एक तो ट्रैफिक की वजह से अनसेफ और दूसरा इतनी प्रदूषण में इस तरह से जॉिगंग करने का मतलब यह कि हम कईं गुणा ज़्यादा प्रदूषित हवा अंदर फेफड़ों में खींच रहे हैं......कोई सुन रहा है क्या! लेिकन हर कोई अपने अनुभव से ही सीखता है....करने देने चाहिए जितने अनुभव कोई करना चाहे. ...

नसीहतों की इतनी बातें हो गईं तो मुझे यह सुंदर गीत चाचा भतीजा फिल्म का याद आ गया....मां ने कहा था ओ बेटा, कभी दिल किसी का न तोड़ो...

शनिवार, 16 मई 2015

सन्नी लिओन, मैगी और मजिस्ट्रेट का काला चश्मा...

आप को इस पोस्ट का शीर्षक कितना ऊट-पटांग लग रहा होगा..कोई बात नहीं, मुझे भी लग रहा है..लेकिन मुझे इस से बेहतर कोई सूझा नहीं।

दरअसल स्कूल के दिनों में ही मुझे छात्र-संपादक बना दिया गया...हंसी आती है अब वे दिन याद कर के...सुबह सुबह हिंदी, पंजाबी और इंगलिश के पेपर स्कूल के समय से १५ मिनट पहले देखने होते थे और उन में से मुख्य खबरों के हैडिंग एक कागज पर लिखने होते थे......फिर उन्हें गीली चाक से बड़े बड़े ब्लैक-बोर्डों पर लिखना होता था...बहुत समय तक यह सिलसिला चलता रहा।

मुझे यह सब काम करना अच्छा लगता था...मुझे यही रोमांचक लगता था कि मेरी पसंद की खबरों को रिसेस के समय सारे छात्र पढ़ेंगे।

तो आज भी अखबार देखी तो लगा कि ये तीन खबरों के हैडिंग आप से शेयर कर के पुराने दिनों की बातें याद कर लूं।
ये तीनों खबरें आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर छपी हैं।


कहां से शुरू करें...चलिए सन्नी लिओन ने आज कल खासी धूम मचा रखी है, उसी की खबर से कर देते हैं। किसी महिला ने पुलिस में शिकायत कर दी है कि सन्नी लिओन भारत की संस्कृति को खराब कर रही है...आप स्वयं ही देख लें यह खबर....मुझे तो सब से अजीब यह लगा कि उस खबर में उस की विवादित पोर्नो साइट का यूआरएल भी दिया हुआ है, जिसे नहीं भी पता उसे भी पता चल जाए....दरअसल हमें कुछ भी पता नहीं होता कि परदे के पीछे क्या क्या चल रहा होता है।

वैसे आज कल के दौर में इस तरह के केस हास्यास्पद ही लगते हैं....किसे किसे रोक पाएंगे....सब कुछ इतना आसानी से उपलब्ध है। मुझे तो लगने लगा है कि अब लोग इस सन्नी लिओन नामक चीज को भी बख्श दें तो बेहतर होगा..कर रही है अपना काम, करने दीजिए। मैं बिल्कुल भी नसीहत देने में विश्वास नहीं रखता, लेकिन इतना ज़रूर कहना चाहता हूं कि हम जो चाहें वह देखें नेट पर .....लेकिन इतना हमेशा याद रखें कि जैसा कंटेंट दिमाग में जाएगा......आउटपुट भी शर्तिया वैसी ही होगी। यकीनन........सौ टका प्रामाणिक सच।

करो, सन्नी लिओन, तुम अपने काम पर ध्यान दो....


दूसरी खबर, छत्तीसगढ़ का कोई मजिस्ट्रेट है...उस ने बढ़िया से नीले रंग के कपड़े और रे-बैन का चश्मा लगा कर प्रधानमंत्री से हाथ मिला लिया तो उसे चेतावनी देते हुए एक चिट्ठी थमा दी गई है। सुबह जब मैंने इस खबर को देखा तो मुझे लगा कि इस में ऐसा खबर जैसा है क्या। पहन लिया यार उसे जो अच्छा लगता होगा, उसने पहन लिया....लेिकन शाम होते होते जब इस तस्वीर को तीन चार बार देखा तो कुछ अटपटा ही लगा...ठीक है, कोई ड्रेस कोड नहीं होता, लेकिन कुछ रवायतें भी तो होती हैं...अब एक अधिकारी देश के प्रधानमंत्री से इस अंदाज़ में हाथ मिलाते हुए थोड़ा अजीब सा लगा.......शायद हमने ऐसा कभी देखा नहीं ....लेकिन फिर भी जितना इस मामले को तूल दिया गया...जितना समाचारपत्रों में उछाला गया, यह बहुत ज़्यादा हो गया...ऐसी हरकतों से हम लोग सारी दुनिया के सामने उपहास का कारण बनते हैं...अब वह अफसर आकाश से तो उतरा नहीं उसी समय, उधर ही घूम रहा होगा प्रधानमंत्री के आने से पहले...उसे चुपचाप पहले ही कह िदया जाता कि भई, जा के कपड़े बदल ले, और चश्मा भी हाथ मिलाते हुए हटा लईयो। बात इत्ती सी थी.....लेकिन अखबारों ने तो ..। वैसे ड्रेस कोड तो बहुत से कर्मचारियों का भी नहीं होता, लेकिन फिर भी मौके को देख कर ही कपड़ों को सिलेक्ट किया जाता है। चलो यार इस बात पर मिट्टी डाल देते हैं, और ऊपर से उसे दुरमुट से कूट देते हैं.....मजिस्ट्रेट साब वैसे ही परेशान हो गये होंगे......बिना वजह का पंगा हो गया।

और हां, यह क्या मैगी की जांच से पता चला है कि उस में एमएसजी नामक कैमीकल पाया गया और लैड (lead) की मात्रा भी बहुत ज़्यादा पाई गई। अब यह सब कुछ किसी लैब ने जांच कर के रिपोर्ट दी है, आप इस खबर में पढ़ सकते हैं कि कंपनी कितनी हास्यास्पद सफाई दे रही है, इतनी इनोसेंट सफाई .......क्या कहें, बस इस तरह की चीज़ों से दूर ही रहें तो बेहतर है...वैसे हम पिछले कितने वर्षों से सुनते आ रहे हैं कि ऐसी चीज़ों में इस तरह के एमएसजी जैसे कैमीकल तो होते ही हैं.....कंपनी चाहे कुछ भी कहे, उन्हें अपना माल बेचना है........लेकिन फिर भी हम लोग विशेष कर बच्चे कहां सुनते हैं.......अभी दो दिन पहले एक अखबार में एक मेडीकल शोध छपा था कि जो बच्चे जंक फूड खाते हैं, उन में भोजन को पचाने वाले आंतडियों में मौजूद सेहतमंद जीवाणु बहुत कम हो जाते हैं.....जिस की वजह से वे लोग खाना भी नहीं पचा पाते। अब इस से ज़्यादा कोई क्या कहे!

मुझे लगने लगा है कि एक स्टेज के बाद ..भाषण वाषण देने के बाद.....हर किसी को उस की किस्मत पर छोड़ दिया जाना चाहिए। स्कूल के दिनों में बस हैडिंग लिखता था, आज तो बेकार की टिप्पणीयां भी लिख दीं....कोई बात नहीं..झेल लीजिए..