सोमवार, 27 जून 2011

आम के आम .... रोगों के दाम !

यह तो लगभग अब सारी जनता जानती है कि फलों को पकाने के लिये तरह तरह के हानिकारक मसालों का इस्तेमाल होता है....लेकिन हरेक यही सोच कर आम चूसने में लगा है कि क्या फर्क पड़ता है, सारी दुनिया के साथ ही है, जो सब का होगा, अपना भी हो जाएगा, कौन अब इन मसालों-वालों के पचड़े में पड़े।

कुछ समय तक मेरी भी सोच कुछ ऐसी ही हुआ करती थी ...पिछले आठ-दस वर्षों से ही सुनते आ रहे हैं कि फलों को जल्दी पकाने के लिये कैल्शीयम कार्बाइड (calcium carbide) नामक साल्ट इस्तेमाल किया जाता है। और कईं बार आप सब ने भी नोटिस तो किया ही होगा कि फलों पर राख जैसे पावडर के कुछ अंश दिखते हैं, यही यह कैल्शीयम कार्बाइड होता है।

कुछ साल पहले जब यह मसालों वालों का पता चला तो कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने फलों की धुलाई अच्छे से करनी शुरू कर दी ....तीन-चार साल हो गये हैं मेरे पास इस मौसम में कुछ मरीज़ ऐसे आने लगे जिन के मुंह में अजीब सी सूजन, छाले, घाव .....जिन का कारण ढूंढना मेरे लिये मुश्किल हो रहा था.... बिल्कुल कैमीकल से जलने जैसी स्थिति (chemical burn) ....और लगभग सभी केसों में आम चूसने की बात का पता चलता। मैं अपने मरीज़ों को तो आम के छिलके को मुंह लगाने से मना करता ही रहा हूं ....और मैंने भी दो-तीन साल से चम्मच से ही आम खाना शुरू कर दिया। लेकिन अब चार-पांच दिन से आम खाने की इच्छा नहीं हो रही --- कारण अभी बताऊंगा।

लगभग एक सप्ताह पहले की बात है ... इंगलिश की अखबार में --- The Hindu/ The Times of India में एक खबर दिखी की दिल्ली शासन ने आम को पकाने के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले कैल्शीयम कार्बाइड पर प्रतिबंध लगा दिया है। प्रिंट मीडिया अपनी भूमिका बखूबी निभा रहा है ---बार बार अहम् बातें दोहरा कर हमें चेता रहा है। वह खबर ही ऐसी थी कि पढ़ कर बहुत अजीब सा लगा कि अगर देश की राजधानी में बिक रहे फलों के साथ यह सब हो रहा है तो हमारे शहर में कौन सा रत्नागिरी से फार्म-फ्रैश आम बिक रहे हैं।

पिछले कुछ दिनों से फलों को नकली ढंग से पकाने के तरीकों के लिये गूगल-सर्च कर रहा था। फिर calcium carbide लिख कर गूगल किया --- आप भी करिये- ज़्यादातर परिणाम अपने देश के ही पाएंगे की फलां जगह पर इस पर बैन हो गया है, फलां पर इस से पकाये इतने टन फलों को नष्ट कर दिया गया है। वैसे तो मैंने भारत की सरकारी संस्थाओं Indian Council of Medical Research एवं Health and family welfare ministry की वेबसाइट पर इस विषय के बारे में जानकारी ढूंढनी चाही लेकिन कुछ नहीं मिला।

जो जानकारी मुझे नेट पर मिली, उस में जितनी इस समय मुझे याद है, वह मैं आप सब से सांझी करना चाहता हूं। हां, तो जिस कैमीकल—कैल्शीयम कार्बाइड से पकाये आम या अन्य फल हम इतनी बेफिक्री से इस्तेमाल किये जा रहे हैं--- वह एक भयंकर कैमीकल है जिसे वैल्डिंग के वक्त इस्तेमाल किया जाता है। और बहुत सी जगहों पर इस को फलों को पकाने के लिये इस्तेमाल किये जाने पर प्रतिबंध है।

अगर आपने कभी देखा हो तो फलों के विक्रेता इस कैमीकल की पुड़िया फलों के बक्सों में रख देते हैं। यह कैमीकल सस्ते में मिल जाता है –50-60रूपये किलो में आसानी से इसे हासिल किया जा सकता है और एक किलो 50-60 किलो आम पकाने के लिये काफी होता है, ऐसा भी मैंने नेट पर ही पिछले दिनों पढ़ा है।

कैल्शीयम कार्बाइड जब नमी (जो कि कच्चे फलों में तो होती ही है) के संपर्क में आता है तो इथीलीन गैस (Ethylene gas) निकलती है, जो फलों को पकाने का काम करती है। और इस क्रिया के दौरान आरसैनिक एवं फॉसफोरस जैसे कैमीकल भी निकलते हैं जो कि हमारे शरीर के प्रमुख अंगों पर बहुत बुरा प्रभाव डालते हैं। यहां तक की गुरदे फेल, कैंसर, पेट के अल्सर, सिरदर्द, दस्त आदि तक के खतरे गिनाये गये हैं।

मुझे यही लगता है कि कोई मीटर तो लगा नहीं हुआ हमारे शरीर में यह दर्शाता रहे कि इस ने इतने आम खाये हैं और इतना आरसैनिक या फॉसफोरस इस के शरीर में प्रवेश कर चुका है ....या कोई ऐसा मीटर जो यह बता सके कि इस ने गलत विधि से तैयार किये गये इतने फल खाए इसलिये इस के गुर्दे बैठ गये हैं......डाक्टर लोग भी क्या सकें....उन को भी निश्चिता से कहां चल पाता है कि कैंसर का, गुर्दे फेल होने का या अन्य तरह तरह के भयंकर रोगों की किसी व्यक्ति में जड़ आखिर है कहां ?

बस इसी अज्ञानता की वजह से इस तरह का गोरख-धंधा करने वाले का काम चलता रहता है। किसी जगह पर शायद मैंने यह भी पढ़ा है कि Prevention of Food Adulteration Act (PFA Act) के अंतर्गत भी कैल्शीयम कार्बाइड के इस्तेमाल पर पाबंदी है लेकिन फिर भी हो क्या रहा है, हम चैनलों पर देखते हैं, प्रिंट मीडिया में पढ़ते रहते हैं। पता नहीं क्यों इस तरह का धंधा करने वालों को आम आदमी की सेहत के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ करने में ज़रा भी तरस नहीं आता !

मैं कहीं यह पढ़ रहा था कि प्राकृतिक ढंग से तैयार हुये आम  तो जून के अंत से पहले  मार्कीट में आ ही नहीं सकते ..लेकिन इतने बढ़िया कलर के रंगों वाले आम  मई में इन कैमीकल्स की कृपा से ही आने लगते हैं। और एक जगह पढ़ा कि जो आम बिल्कुल एक जैसे पके, बढ़िया कलर के चमकते हुये दिखें वे तो शर्तिया तौर पर इस मसाले से ही पकाये होते हैं। अकसर आपने नोटिस किया होगा कि बाहर से कुछ आम इतने खूबसूरत और अंदर से सड़ा निकलता है या तो स्वाद बिलकुल बकबका सा मिलता है।नेट पर सर्च करने पर आप पाएंगे कि इस तरह से पके आमों की निशानियां भी बताई गई हैं।

स्वाद बकबका निकले या एक-दो आम खराब निकलें बात उस की भी नहीं है, असली मुद्दा है कि हम इन फलों के नाम पर किस तरह से हानिकारक तत्व अपने अंदर इक्ट्ठा किये जा रहे हैं..... और पपीता, केले आदि को भी इन्हीं ढंगों से पकाने की बातें पढ़ने को मिलीं। एक जगह यह भी पढ़ा कि कैल्शीयम कार्बाइड का घोल तैयार किया जाता है और किसी जगह पर यह दिखा कि फलों में इस का इंजैक्शन तक लगाया जाता है – लेकिन इस बात की कोई पुष्टि हुई नहीं .... न ही यह बात मुझे ही हजम हुई .... अब पता नहीं वास्तविकता क्या है, वैसे अगर इस तरह की कैमीकल की पुड़िया के जुगाड़ से ही फल-विक्रेताओं का काम चल रहा है तो वे क्यों इन टीकों-वीकों के चक्कर में पड़ते होंगे। लेकिन इन के गोदामों में क्या क्या चल रहा है, ये तो यही जानें या मीडिया वाले ही हम तक पहुंचा सकते हैं।

जो भी हो, इतना तो तय है कि इस कैमीकल के इस्तेमाल से आरसैनिक एवं फॉसफोरस जैसे हानिकारक पदार्ध निकलते हैं....अब कोई यह समझे की हमने फल धो लिये, छिलके को मुंह नहीं लगाया, काट के चम्मच से खाया .....इस से क्या फल के अंदर जो इन कैमीकल्स से प्रभाव हुआ वह खत्म हो जाएगा, आप को भी लगता है ना कि यह नहीं हो सकता, कुछ न कुछ तत्व तो अंदर धंसे रह ही जाते होंगे।

केला का ध्यान आ रहा है, आज से बीस-तीस साल पहले प्राकृतिक तौर पर पके हुये केले का स्वाद, उस की मिठास ही अलग हुआ करती थी ...और आज केला छील लेने पर जब उसे चखा जाता है तो लगता है कोई गलती कर दी, उसे फैंकने की इच्छा होती है लेकिन उस का रेट ध्यान में आते ही जैसे तैसे निगल लिया जाता है।

अभी अभी एक मित्र ने लिखा कि आखिर करें क्या, जो मिल रहा है बाज़ार में वही तो खाएंगे......मुझे लगता है कि अब हालात इतने खराब हो गये हैं कि या तो पब्लिक फल व्यापारियों पर दबाव बनाए, सरकार दबाव बनाए, पीएफए एक्ट (Prevention of Food Adulteration Act ) के अंतर्गत कड़ी कार्यवाही हो ताकि हम तक सही वस्तुएं पहुंचे।

लेकिन दिल्ली दूर ही लगती है अभी तो....इसलिये मैंने तो पिछले चार पांच दिनों से आम खाना बंद कर दिया है, फिलहाल तो मुझे यही करना आसान लगा , वैसे भी पता नहीं पहले से कितने कैमीकल खा चुके हैं.........पता नहीं कितने दिन आमों से दूर रह पाऊंगा लेकिन अभी तो बंद ही हैं, लेकिन आप  मेरे लिखे ऊपर मत जाइये, स्वयं calcium carbide लिख कर गूगल करिये, फिर सोच विचार कर कोई निर्णय लीजिए।

शनिवार, 25 जून 2011

अस्पतालों के वेटिंग एरिया का वातावरण

अस्पतालों के वेटिंग एरिया की तरफ़ शायद इतना ध्यान दिया नहीं जाता। मैंने अपने एक लेख में लिखा था कि अकसर अस्पतालों में आप्रेशन के द्वारा निकाली गई रसौलीयां या ट्यूमर आदि का प्रदर्शन वेटिंग एरिया में किया जाता है।

एक बार एक महिला रोग विशेषज्ञ के यहां बहुत से कांच के मर्तबान देख कर बहुत अचंभा हुआ ---और इनमें सब तरह के स्पैसीमैंस भरे हुये थे.... हम स्वयं से अनुमान लगा सकते हैं कि वहां जाने वाला एक मरीज़ इन सब को देख कर कितनी सहजता अनुभव कर पाता होगा।

आज से 15-20 साल पहले मुझे लगता था कि हैल्थ-ऐजुकेशन के लिये अस्पतालों के वेटिंग एरिया एक अच्छा स्थान है। लेकिन अब मेरी यह राय बदलने लगी है।

एक अस्पताल में देखा – एक विदेशी परिवेश में एक महिला की तस्वीर लगी हुई थी और साथ में मीनूपाज़ के ऊपर बहुत लंबा चौडा लिखा हुआ था –बिलकुल छोटा छोटा प्रिंट और भारी भरकम अंग्रेज़ी –अब कौन पढ़े इस सब को नज़र का चश्मा गढ़ा के। मैंने तो कभी इन पोस्टरों को किसी को पढ़ते देखा नहीं।

और भी कईं तरह के पोस्टर लगे थे ...सब के सब अंग्रेज़ी में.. एक तो ओसटियोपोरोसिस का पोस्टर ज़रूर हर जगह लगा दिखता है ---कि सब लोग इसके लिये ज़ूरूर अपनी जांच करवाएं। और साथ में एक बड़ा सा पोस्टर की हृदय की नाड़ीयों का बहाव कैसे रूकता है और कैसे हार्ट अटैक होता है। सब कुछ इतनी जटिल अंग्रेज़ी भाषा में दिखता है कि पहले तो कोई इन सब को पढ़ने के लिये उठे ही नहीं और और अगर उठ भी जाए तो दो मिनट में सिर दुखने लगे।

एक बात और भी है कि इन विज्ञापनों के पीछे मार्कीट शक्तियों का भी बहुत हाथ रहता है। अकसर इन पोस्टरों पर तरह तरह की दवाईयों अथवा सप्लीमैंट्स के विज्ञापन भी छपे रहते हैं। ओवरआल कुछ मज़ा सा नहीं आता यह सब देख कर।

हां, कईं जगह पर टीवी पर वही घिसी पिटी हिंदी मसाला मूवी ऊंची आवाज़ में लगी होती हैं..... वेटिंग रूम में इंतज़ार करने वालों की दशा एक सी कहां होती है ---किसी के मरीज़ के हालत की बिगड़ रही होती है, किसी की ठीक हो रही होती है, किसी के परिजन को डाक्टर ने जवाब दे दिया है .....ऐसे में कहां किसी को गोबिंदा या जलेबीबाई का नृत्य भाएगा।

मेरे विचार में अकसर जो थोड़ी बहुत जानकारी हम लोग जनता तक पहुंचाना चाहते हैं वह या तो हिंदी भाषी में होनी चाहिये ----बिल्कुल हल्की भाषा में – और क्षेत्रीय भाषा का भी सहारा लिया जा सकता है। बड़े शहरों में इस के साथ साथ अंग्रेज़ी का सहारा भी लिया जा सकता है। इस के अलावा कुछ भी केवल डराने का काम करता है।

मैंने अपने एक पुराने लेख में लिखा था कि बंबई के एक चिकित्सक के यहां मैंने एक बार यह पोस्टर देखा था ...
Seek the will of God
Nothing More
Nothing less
Nothing else


इस तरह के पोस्टर देख कर अच्छा लगता है। और अगर इन जगहों पर सुंदर पोस्टर लगाये जा सकें जो सहजता कायम रखने में मदद करें। ध्यान आ रहा है नन्हे मुन्ने बच्चों के हंसते-किलकारियां मारते हुये पोस्टरों का – एक पोस्टर और भी दिखता है कि जिन में एक नंग-धडंग शिशु ने अपने मुंह पर अंगुली रखी हुई है, साथ में लिखा है ...silence. और तरह तरह की प्राकृतिक दृश्यों को वेटिंग रूम में लगाया जा सकता है –बर्फ से ढके पर्वत, झरने, घने जंगल, समुंद्र का नज़ारा------कितने नज़ारे हैं इस संसार में....इन सब से इंतज़ार करने वाले लोगों का ध्यान बंटता है ....वे थोडा रिलैक्स कर पाते हैं।

और देवी देवताओं की तस्वीरें --- मुझे इस में थोड़ी आपत्ति है--- 36 करोड़ देवी देवताओं को मानने वाले इस देश में किस किस को दीवारों पर सजाएंगे, जिस किसी के भी इष्ट-देव उस प्रतीक्षालय में लगे नहीं दिखेंगे, वह बेचारा यूं ही किसी अनिष्ट की संभावना से परेशान होता रहेगा। इस संसार में सभी डाक्टरों का कोई धर्म नहीं होता, यह बहुत सुखद बात है.....उस के मरीज़ केवल एक मरीज़ है .....लेकिन यह उस के वेटिंग रूम में दिखना भी चाहिये। हम जिस धर्म को, धर्म-गुरू, साधु-संत-फकीर, देवी देवता को मानते हैं, यह हमारा पर्सनल मामला है.................इस का प्रदर्शन कहां ज़रूरी है। अथवा हमें अपने ऊपर धार्मिक का लेबल चिपका कर क्या हासिल हो जाएगा।

मैं एक चिकित्सक को जानता हूं उस ने अपनी सभी अंगलियों में तरह तरह की अंगुठियां, नग आदि पहने हुये हैं......हम लोग कईं बार उस के बारे में सोच कर बहुत हंसते हैं ...और तो और देवी देवताओं की अनेकों अनेकों तस्वीरें भी उस ने अपने कमरे में टांग रखी हैं ...लेकिन फिर भी ............चलिये, इस बात को इधर ही छोड़ते हैं।

डाक्टर अगर स्वयं ही इस तरह की अंध-श्रद्धा में विश्वास रखता दिखाई देगा तो जादू, टोनो, तांत्रिकों, झाड़-फूंक, भूत-प्रेतों जैसे अंधविश्वासों से जकड़े हुये आम आदमी का क्या होगा......कुछ चीज़ें हमें जान बूझ कर इस आम आदमी के हितों को ध्यान में रख कर करनी होती हैं और कुछ इन्हीं कारणों से नहीं करनी होतीं......ताकि लोगों तक संदेश ठीक पहुंचे।

सोमवार, 9 मई 2011

गुप्त रोगों के लिये नेट पर बिकने वाली दवाईयां

बचपन में स्कूल आते जाते देखा करते थे कि दीवारों पर अजीबो-गरीब विज्ञापन लिखे रहते थे....गुप्त-रोगों का शर्तिया इलाज, गुप्त रोग जड़ से खत्म, बचपन की गल्तियों की वजह से खोई ताकत हासिल करने के लिये आज ही मिलें, और फिर कुछ अरसे बाद समाचार-पत्रों में विज्ञापन दिखने शुरू हो गये इन ताकत के बादशाहों के जो ताकत बेचने का व्यापार करते हैं।

इस में तो कोई शक नहीं कि ये सब नीम हकीम भोली भाली कम पढ़-लिखी जनता को कईं दशकों से बेवकूफ बनाए जा रहे हैं....बात केवल बेवकूफ बनाए जाने तक ही सीमित रहती तो बात थी लेकिन ये लालची इंसान जिन का मैडीकल साईंस से कुछ भी लेना देना नहीं है, ये आज के युवाओं को गुमराह किये जा रहे हैं, अपनी सेहत के बारे में बिना वजह तरह तरह के भ्रमों में उलझे युवाओं को भ्रमजाल की दलदल में धकेल रहे हैं...... और इन का धंधा दिनप्रतिदिन बढ़ता जा रहा है ...अब इन नीमहकीमों ने बड़े बड़े शहरों में होटलों के कमरे किराये पर ले रखे हैं जहां पर जाकर ये किसी निश्चित दिन मरीज़ों को देखते हैं।

यह जो कुछ भी ऊपर लिखा है, इस से आप सब पाठक भली भांति परिचित हैं, है कि नहीं ? ठीक है, आप यह सब पहले ही से जानते हैं और अकसर जब हम यह सब देखते, पढ़ते, सुनते हैं तो यही सोचते हैं कि अनपढ़ किस्म के लोग ही इन तरह के नीमहकीमों के शिकार होते होंगें.....लेकिन ऐसा नहीं है।

हर जगह की, हर दौर की अपनी अलग तरह की समस्याएं हैं..... अमेरिकी साइट है –फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (Food and Drug Administration) ..कल जब मैं उस साइट को देख रहा था तो अचानक मेरी नज़र एक आर्टिकल पर रूक गई। एफडीआई द्वारा इस लेख के द्वारा लोगों को कुछ पंद्रह तरह के ऐसे उत्पादों के बारे में चेतावनी दी गई है जो गल्त क्लेम करती हैं कि वे यौन-संक्रमित रोगों (sexually-transmitted diseases –STDs--- हिंदोस्तानी भाषा में कहें तो गुप्त रोग) से बचाव करती हैं एवं इन का इलाज करने में सक्षम हैं। इस के साथ ही एक विशेषज्ञ का साक्षात्कार भी था।

आम जनता को चेतावनी दी गई है कि ऐसी कोई भी दवाई नहीं बनी जिसे कोई व्यक्ति अपने आप ही किसी दवाई से दुकान से खरीद ले (over-the-counter pills) अथवा इंटरनेट से खरीद ले और यौन-संक्रमित से बचा रह सके और इन रोगों का इलाज भी अपने आप कर सके। ये जिन दवाईयों अथवा फूड-सप्लीमैंट्स के बारे में यह चेतावनी जारी की गई है, उन के बारे में भी यही कहा गया है कि इन दवाईयों के किसी भी दावे को एफडीआई द्वारा जांचा नहीं गया है।

यौन-संक्रमित रोग होने की हालत में किसी सुशिक्षित विशेषज्ञ से परामर्श लेना ही होगा और अकसर उस की सलाह अनुसार दवा लेने से सब कुछ ठीक ठाक हो जाता है लेकिन ये देसी ठग या इंटरनेट पर बैठे ठग बीमारी को ठीक होना तो दूर उस को और बढ़ाने से नहीं चूकते, साथ ही साथ चूंकि दवाई खाने वाले को लगता है कि वह तो अब दवाई खा ही रहा है (चाहे इलाज से इस तरह की दवाईयों को कोई लेना देना नहीं होता) इसलिये इस तरह की यौन-संक्रमित रोग उसके सैक्सुयल पार्टनर में भी फैल जाते हैं।

आज की युवा पीढ़ी पढ़ी लिखी है, सब कुछ जानती है, अपने शरीर के बारे में सचेत हैं लेकिन इंटरनेट पर बैठे ठग भी बड़े शातिर किस्म के हैं, इन्हें हर आयुवर्ग की कमज़ोरियों को अच्छे से जानते हैं ....अकसर नेट पर कुछ प्रॉप-अप विज्ञापन आते रहते हैं –दो दिन पहले ही कुछ ऐसा विज्ञापन दिखा कि आप अपने घर की प्राइवेसी से ही पर्सनल वस्तुएं जैसे की कंडोम आदि आर्डर कर सकते हैं ताकि आप को मार्कीट में जाकर कोई झिझक महसूस न हो। चलिए, यह तो एक अलग बात थी लेकिन अगर तरह तरह की बीमारियों के लिये (शायद इन में से बहुत सी काल्पनिक ही हों) स्वयं ही नेट पर दवाई खरीदने का ट्रेंड चल पड़ेगा तो इंटरनेट ठगों की तो बांछें खिल जाएंगी ........ध्यान रहे कि इन के जाल में कभी न फंसा जाए क्योंकि आज हरेक को प्राईव्हेसी चाहिए और यह बात ये इंटरनेट ठग अच्छी तरह से जानते हैं।

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