शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

कुछ बातें सेहत की ..

मुझे आज ही पता चला कि अमेरिका में लोग जितना पैसा अपने खाने पर खर्च करते हैं, उस का 95फीसदी हिस्सा वे प्रोसैसड फूड पर खर्च करते हैं। यह जानना मेरे लिये एक शॉक से कम न था। साथ ही में यह लिखा हुआ देख कर यह हैरत न हुई कि इसी की वजह से वहां पर आज की पीढ़ी पिछली पीढ़ी से कम जीती है।

परसों अमेरिका की सरकार की शारीरिक कसरत करने के बारे में सिफारिशें देखने का मौका मिला। उन की सिफारिश है कि हर व्यक्ति को हफ्ते में अढ़ाई घंटे शारीरिक परिश्रम करना चाहिये - रोजाना आधा घंटे, हफ्ते में पांच दिन और बच्चों के लिये कहा गया है कि उन का रोज़ाना एक घंटे अच्छी तरह से खेलना-कूदना निहायत ही ज़रूरी है। इसलिये अब बच्चों को भी टीवी या कंप्यूटर से जबरदस्ती उठा कर बाहर खेलने के लिये कहना होगा।

आपने सुना है न कि कईं बार बिलकुल छोटे बच्चे की सोते सोते ही मौत हो जाती है --इसे Sudden Infant Death Syndrome कहते हैं । वैज्ञानिकों ने इस की स्टडी करने के बाद पाया है कि अगर बच्चा किसी हवादार कमरे में सोया हुया है और जिस में मौसम के अनुसार पंखा चल रहा है तो इन छोटे नन्हे-मुन्नों को काफी हद तक अकाल मृत्यु का ग्रास बनने से बचाया जा सकता है। और साथ में यह भी बताया गया है कि बिल्कुल छोटे बच्चों को पेट के बल या साइड पोज़ में नहीं सुलाना चाहिये ----उन्हें पीठ के बल सुलाना चाहिये अर्थात् उन का मुंह छत की तऱफ़ होना चाहिये ( supine position) ---और न ही उन के मुंह को ढांप कर रखना चाहिये। होता क्या है कि इस Sudden Infant Death syndrome में बच्चा पेट के बल सोया पड़ा है, कमरे में हवा पूरी है नहीं, वैटीलेशन है नहीं तो ऐसे में उस के मुंह के पास बहुत मात्रा में कार्बन-डाई-आक्साईड गैसे जमा हो जाती है और जिसे बच्चे द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगता है जो ऐसे अनहोनी का सबब बन जाती है जिस से बचा जा सकता था।

बच्चों के अनीमिया के बारे में पिछली पोस्ट मैंने लिखी थी। लेकिन क्या केवल आयरन फोलिक एसिड की गोलियां खा कर ही ठीक हो जायेगा अनीमिया ---- बच्चों में अनीमिया ठीक करने के लिये हमें उस की डि-वर्मिंग ( de-worming) भी करनी होगी ---अर्थात् उसे डाक्टरी सलाह के अनुसार पेट के कीड़े मारने की दवा भी देनी होगी। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने देखा है कि जिन बच्चों में कीड़े नहीं होते उन में वैक्टीनेशन के परिणाम दूसरे बच्चों की बजाए बेहतर होते हैं ।और यह तो हम जानते ही हैं कि पेट में कीड़े बच्चे के अनीमिया को कैसे ठीक होने देंगे !!

डि-वर्मिंग के साथ-साथ हमें बच्चे को विटामिन-ए सप्लीमैंटेशन देना भी बेहद ज़रूरी है ....बच्चों को विटामिन -ए सप्लीमैंटेशन देने का भी अपना एक शैड्यूल है । ठीक है, अगर आपने नहीं दिया तो आज ही बाल-रोग विशेषज्ञ से बात करें और उसे विटामिन-ए सप्लीमैंट्स दें। यह उस के शरीर में विटामिन ए का रिज़र्व स्टाक तैयार करने के लिये एवं उस के नार्मल विकास के लिये बेहद ज़रूरी है। देश में तो कुछ बच्चों में रतौंधी रोग ( रात में दिखाई न देना) होने का कारण ही यह विटामिन ए की घोर कमी होती है। वैसे भी बच्चे आज कल जो खा-पी रहे हैं और जो खा भी रहे हैं वह कितना शुद्ध है, कितना मिलावटी -----तो इस हालात में तो बच्चों को ये सप्लीमैंट्स देने बहुत ही ज़रूरी हैं।


अभी मैं जब कीडे़ मारने के दवा का ज़िक्र कर रहा था तो मुझे आज सुबह के पेपर में पढ़ी एक बेहद दुःखद घटना का ध्यान आ गया ....चूहे मारने की दवा तो आप को पता ही है कि कितनी आसानी से मिल जाती है । तो बंबई की एक इमारत में एक परिवार जो कि ग्राउंड फ्लोर पर रहता था वह चूहों से बेहद परेशान था। इसलिये ब्रेड पर अकसर चूहे मारने वाली दवाई लगा कर किचन में रख देते थे। एक दो पहले भी यही हुआ । लेकिन अचानक उन का प्लस दो कक्षा में पढ़ रहा बेटा बाहर से आया जिसे बहुत भूख लगी हुई थी और जिस ने तुरंत वह ब्रेड-पीस खा लिया। उसे तुरंत उल्टियां शुरू हो गईं और हस्पताल पहुंचने तक बेचारे की मौत हो गई। बेहद दुःखद समाचार।

मैंने देखा है कि अकसर लोग ऐसे काम रात को सोने से पहले करते हैं ---और घर में सब को थोड़ा पहले से बता कर रखते हैं। लेकिन लगता है कि वो जो पहले रैट-ट्रैप हुया करते थे ....वे भी ठीक ही थे ....वो बात अलग है कि चूहा अब आप की रसोई में ना रह कर चार बिल्डिंग दूर किसी दूसरे के सिर का दर्द बनेगा। लेकिन मुझे याद है कि जब हम छोटे थे तो किसी रैट-ट्रैप में पकड़े चूहे को साईकिल पर सवार हो कर किसी दूर जगह छोड़ने जाने का काम भी अच्छा खासा रोमांचक हुआ करता था। साथ में कुछ यार-दोस्त मिल कर इस काम को और भी रोमांचक बना दिया करते थे। और उस रैट-ट्रैप की यही खासियत हुआ करती थी कि उस में चूहा मरता नहीं था, केवल उस के अंदर बंद हो जाया करता था जिसे इस मौह्लले वाले उस मौहल्ले में और उस मौह्लले वाले इस मौह्लले की नाली या थोडी़ खाली पड़ी जगह में छोड़ कर बिना वजह निश्चिंत से हो लिया करते थे ....चाहे आज सोचूं तो इस निश्चिंता की कोई खास वजह तो जान पड़ती नहीं ...क्यों कि चूहों की गिनती तो उतनी की उतनी ही रही। वैसे एक बात है कि अगर गल्ती से (?) या जान-बूझ कर चूहा उस रैट-ट्रैप से रिहा कर अपने ही गली-मोह्लले के किसी घर में घुस जाता था तो लड़ने-लड़ाने की नौबत आती भी देखी है।

उस के बाद आये ऐसे रैट-ट्रैप जिस जो देखने में तो छोटे थे ....लेकिन थे बहुत नृशंस ....यानि कि चूहा उन के अंदर कैद तो हो ही जाता था और साथ में एक कील उस के शरीर में घुस जाया करता था जिस की वजह से उस की मौत हो जाया करती थी और लोग किसी तरह का चांस न लेने की मंशा से आटे की गोली के साथ रैट-प्वाईज़न तो लगा ही देते थे । और फिर उस मृत प्राणी को घर के बाहर की नाली में फैंक दिया जाता था। सोच रहा हूं कि समय के साथ साथ हम लोग भी कितने क्रूर हो गये हैं।

लेकिन जो भी हो, जब बंबई जैसा हादसा ,जैसा उस 17 साल के लड़के के साथ हुआ, कभी कभार हो जाता है तो इतना दुःख होता है कि ब्यां नहीं किया जा सकता। लेकिन ये हादसे ........पंजाब में तीन-चार पहले हुये एक हादसे की याद हरी हो गई। एक मजदूर के पांच-छः छोटे छोटे बच्चे अपनी मां के साथ मस्ती करने में मशगूल थे और वह खाना बना रही थी। इतने में उसे चंद लम्हों के लिये कमरे से बाहर जाना पड़ा ---बच्चों को मस्ती सूझी, बड़ा ट्रंक साथ ही खुला पड़ा हुया था...वे सारे के सारे --एक को छोड़ कर जो इतना छोटा था कि अंदर नहीं जा सकता था ...उस ट्रंक के अंदर घुस गये और तभी अचानक ट्रंक का दरवाजा हो गया बंद और उन के वह खुल नहीं पाया। मां अंदर आई..बच्चों को ढूंढने लगी ...लेकिन जब तक वह कुछ समझ पाई बहुत देर हो चुकी थी और सभी बच्चों का दम घुट चुका था ।

ऐसे दर्दनाक हादसे हमें चीख-चीख कर, छाती पीट पीट कर कुछ सोचने के लिये मजबूर करते हैं ।

रविवार, 5 अक्तूबर 2008

बच्चों में खून की कमी की तरफ़ ध्यान देना होगा ..


आज सुबह इंडियन कांउसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च द्वारा फरवरी 2008 में बच्चों में खून की कमी ( Workshop on Child Anaemia) के विषय पर रखी एक वर्कशाप की सिफारिशें पढ़ रहा था जो मुझे बेहद महत्त्वपूर्ण लगीं औरजिन का सार प्रस्तुत कर रहा हूं।

2005-06 में जो नैशनल फैमली हैल्थ सर्वे हुआ है उस से पता चला है कि तीन साल से कम उम्र के चार में से तीनबच्चों में खून की कमी है। और जो एक बच्चा बचा है उस में भी ऑयरन की कमी हो सकती है अलबत्ता यह होसकता है कि वह एनीमिया( खून की कमी) के रूप में प्रकट हुई हो। और जिन बच्चों में एनीमिया की समस्या हैउन तीन बच्चों में से दो बच्चों की एनीमिया की समस्या काफी विकट है। इन आंकड़ों से पता चलता है कि बच्चों मेंखून की कमी कितनी विकट एवं आम समस्या है और इस कमी की वजह से उन के शारीरिक एवं मानसिकविकास पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। यही वजह है कि बच्चों में एनीमिया की रोकथाम एवं उपचार को इतनामहत्त्व दिया जा रहा है।

वर्कशाप के शुरूआत में इस समस्या के लिये आज कल चल रही स्ट्रैट्जी पर टिप्पणी करते हुये बताया गया किआज तक सिस्टम यह है कि हर बच्चे की एनीमिया के लिये क्लीनिक जांच की जाये और जिस में खून की कमीलगे उन को 100 दिनों तक ऑयरन एवं फोलिक एसिड (IFA) की टेबलेट खिलाई जायेंऐसी एक टेबलेट में 20 मि.ग्राम एलीमैंटल ऑयरन और 100 माइक्रोग्राम फोलिक एसिड होता है। विभिन्न कारणों की वजह से इसस्ट्रैट्जी को फिर से विशेषज्ञों द्वारा जांचने की ज़रूरत महसूस हो रही थी इस वर्कशाप में जिन विशेषज्ञों ने भागलिया उन में से न्यूट्रीशन, चाइल्ड-हैल्थ, मैटरनल हैल्थ एवं पब्लिक हैल्थ की बैक-ग्राऊंड वाले लोग शामिल थे।

तो आइये इस वर्कशाप की बेहद महत्त्वपूर्ण सिफारिशों पर एक नज़र डालते हैं

ऑयरन एवं फोलिक एसिड सप्लीमैंटेशन एहतियात के तौर पर पांच साल से कम उम्र के सभी बच्चों को दी जानी चाहियें – ना कि केवल उन बच्चों को जिनमें क्लीनिक्ली अनिमिया पाया गया हो।

वर्कशाप में इस बात की भी सिफारिश की गई कि पांच साल तक के बच्चों को आयरन एवं फोलिक एसिड को एक सिरिप के रूप में दिया जाना चाहिये – जिसे 100मिलीलिटर की प्लास्टिक की बोतलों में सप्लाई किया जा सकताहै जिस के साथ एक ऐसा डिस्पैंसर हो जिस से एक बार में 1 मिलीलिटर सिरिप ही निकाला जा सके।

यह सिफारिश की गई कि जैसे ही बच्चे के छःमहीने का हो जाने के बाद जब बच्चे की माता का किसी स्वास्थ्य-कार्यकर्त्ता से संपर्क हो उस समय यह आयरन एवं फोलिक एसिड सप्लीमैंटेशन शुरू हो जानी चाहिये। खसरे केइंजैक्शन के समय ( measles) अकसर मातायें स्वास्थ्य कर्मीयों के संपर्क में आती हैं और यही समय इससप्लीमैंटेशन को शुरू करने के लिये बहुत उपयुक्त है। लेकिन एक बात का ध्यान रहे कि जिन बच्चों का जन्म केसमय वजन कम था उन में यह सप्लीमैंटेशन तो उन के दो महीने के होने पर ही शुरू कर देनी चाहियेवर्ल्ड हैल्थआर्गेनाइज़ेशन की भी यही सिफारिश है।

वर्कशाप में यह भी सिफारिश की गई कि यह जानने के लिये कि किसी बच्चे को एनीमिया है कि नहीं ताकि उस को यह सिरिप दिया जाना शुरू किया जा सके ---इस के लिये उस की स्क्रीनिंग करने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन अगर हैल्थ-वर्कर को लगता है कि किसी बच्चे को अनीमिया कुछ ज़्यादा ही है तो उसे आयरन फोलिक एसिड सिरिप देने के साथ साथ मैडीकल एडवाईज़ एवं इलाज के लिये प्राइमरी हैल्थ सैंटर भी भेजा जाये।

आयरन एवं फोलिक एसिड की सप्लीमैंटेशन छः महीने से लेकर 60 महीने के बच्चों तक सभी को दी जानी चीहियेऔर यह सप्लीमैंटेशन हर वर्ष 100 दिनों तक दी जानी चाहिये।


इस के इलावा वर्कशाप की कुछ ऐसी सिफारिशें हैं जो थोड़ी ज़्यादा ही टैक्नीकल होने की वजह से इस लेख में डालनेयोग्य नहीं हैं....ये ज्यादातर पालिसी-मेकर्स के लिये हैं जैसे कि ICDS सप्लीमैंटरी न्यूट्रीशन को ऑयरन एवं अन्यमाइक्रोन्यूट्रीएंटस से फार्टीफाई करने की बात की गई है, हमारे स्टैपल खाने ( staple foods) की भी ऑयरनफार्टीफिकेशन करने की तरफ़ इशारा किया गया है।

जब बच्चे को कोई बुखार वगैरह हो या कोई और बीमारी हो तो उन चंद दिनों के लिये इस सिरिप को उसे दियाजाये और बच्चे के तंदरूस्त होते ही उसे दोबारा शुरू कर दिया जाना चाहिये।

जिन बच्चों के पेट में कीड़े हैं, उन को उपयुक्त दवाई देने की भी बात कही गई है।

अंत में एक प्वाईंट यह भी कहा गया कि चाहे किशोरावस्था में आने वाले बड़े बच्चे चाइल्ड-एनीमिया के अंतर्गतनहीं आते, लेकिन उन का भी अनीमिया से बचाव ज़रूरी है। किशोर युवकों को भी एहतियात के तौर पर ऑयरनसप्लीमैंटेशन दी जानी चाहिये।


शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

श्रृंखला ---कैसे रहेंगे गुर्दे एक दम फिट !! ....भाग दो

हां, तो पिछली कड़ी को मैंने यह सवाल पूछ कर बंद किया था कि आप के घर में कितने मैंबर हैं और महीने में नमक की खपत कितनी है !!

दो जवाब मिले हैं....एक बंधु ने बताया है कि परिवार में छः सदस्य हैं और महीने में लगभग डेढ़ किलो नमक इस्तेमाल हो जाता है। दूसरे मित्र ने लिखा है कि घर में चार लोगों के लिये आधे किलो नमक की थैली तीन महीने चलती है।

मैं जब से भी स्कूल-कालेज में पढ़ने लगा तो मुझे यह सब आंकड़े सुन सुन कर बहुत ही ज़्यादा चिड़ सी हुआ करती थी कि यार, यह फलां विटामिन इतने मिलिग्राम----फलां एलीमैंट इतने माइक्रोग्राम और फलां इतने इंटरनैशनल यूनिट्स। मुझे हमेशा से यही लगता रहा है और अभी भी लगता है कि यार, यह तो एक ले-मैन के साथ एक अच्छा खासा मजाक ही हो गया.....अब कौन बंदा है जो अपने काम-धंधे छोड़ कर अपने संतुलित आहार के चक्कर में तरह तरह के तत्वों की नाप-तौल करता फिरे...........यह बिलकुल भी व्यावहारिक है ही नहीं !! हम लोग डाक्टर हैं ---जब हम लोग खुद कभी इस तरह के माप-तोल के चक्कर में पड़े नहीं तो किसी नान-मैडीकल बंदे से हम यह अपेक्षा भी आखिर कैसे कर सकते हैं।

आप किसी को अगर कहें कि देखो तुम केवल रोज़ाना केवल चार ग्राम नमक का सेवन ही कर सकते हो, तो उस का सिरदर्द होना लाज़मी है कि आखिर अब कैसे हिसाब रखें कि मैं चार ग्राम खा रहा हूं या दस ग्राम।

तो मैं अपनी इस श्रृंखला में गुर्दै के रोगों से बचने की बातें कर रहा हूं। गुर्दे के रोगों से बचने के लिये हमें नमक पर पूरा कंट्रोल करना ही होगा। उसी ट्रेनिंग प्रोग्राम के दौरान जब नमक की बात चल रही थी तो एक सुझाव आया कि हमें लोगों को सीधे सरल तरीके से संदेश पहुंचाना चाहिये जैसे कि चार जनों के परिवार में महीने भर की नमक की खपत केवल आधा किलोग्राम( 500ग्राम) होनी चाहिये।

अब इस मापदंड से देखा जाये तो जो दो जवाब मुझे मिले हैं उन में से पहले केस में छः जनों के परिवार में नमक की खपत 750 ग्राम से ज़्यादा होनी ही नहीं चाहिये। और दूसरे केस में नमक की खपत काफी कम है----चलिये, उस के बारे में तो हम लोग ज़्यादा कमैंट नहीं कर सकते।

मद्रास में हुई ट्रेनिंग प्रोग्राम के दौरान मैं एक महिला नैफ्रोलाजिस्ट के मुंह से यह सुन कर हैरान रह गया कि तमिलनाडू में लोग अकसर रिक्मैंडिड अलाऊंस से दस गुणा ज़्यादा तक नमक खपा जाते हैं। वैसे तमिलनाडू ही क्यों, मुझे तो लगता है कि देश के विभिन्न भागों में नमक का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होता है।

अब नमक के ज़्यादा इस्तेमाल से हमारे उच्च ब्लड-प्रैशर का बिलकुल सीधा संबंध है। और उसी को कम करने के लिये हमें डाक्टरों के चक्कर में पड़ना पड़ता है, तरह तरह के दूसरे “साल्ट” ( दवाईयां) खाने पड़ते हैं और अगर उन से भी यह ब्लड-प्रैशर कंट्रोल में न आये तो अपने गुर्दै, हृदय आदि के स्वास्थय को जोखिम में डालना पड़ता है।

एक बात का ध्यान रखियेगा कि जब यह चार लोगों के लिये आधा किलो नमक की रिक्मैंडेशन दी गई है तो इस में उस नमक को तो कंसिडर ही नहीं किया गया है जो हम घर के बाहर तरह तरह के ऊल-जलूल स्नैक्स, फास्ट-फूड्स के चक्कर में खाते रहते हैं। तो, कहने से अभिप्रायः यही है कि उस आधा किलो वाली बात को मानने में बहुत दम है।

वहां बात आचार की भी हुई कि आचार में तो नमक ठूंसा हुया होता है । लोग चाहे जितना भी कह लें कि हम तो भई इस नमक को कम करने के लिये आचार को खाने से पहले धो लेते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इस से कुछ खास फर्क पड़ता नहीं है क्योंकि नमक तो आचार में पूरी तरह से रच-बस गया होता है।

जाते जाते एक बात करनी है......अकसर हम लोग यह तो सुन लेते हैं कि इतने कार्बौ खायें, इतने प्रोटीन खायें ...इतने फलां-2 तत्व लें....लेकिन आखिर इस के बारे में बिल्कुल सही पता कहां से लगे। तो, इस के लिये इंडियन कांउस्लिंग आफ मैडीकल रिसर्च ने एक बहुत ही बढ़िया पुस्तक छापी हुई है .....Nutritive value of Indian foods….इस में सभी तरह के भारतीय खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता के बारे में चर्चा की गई है। मैंने शायद 15 साल पहले इसे ICMR, New Delhi से 30-40रूपये में खरीदा था .....इस में इडली, चपाती, वड़ा, सभी इंडियन फ्रूट्स, सभी इंडियन सब्जियों की पौष्टिकता का पूरा विश्लेषण किया गया है कि किस खाद्य में कितने प्रोटीन, कितने कार्बौहाइड्रेट्स , कितनी वसा है, कितना सोडियम है , कितना पोटाशियम है, कितना कैल्शीयम है.....वगैरह वगैरह ...........सब कुछ बहुत ही विस्तार से लिखा गया है।

वैसे एक इडली में एक सौ कैलरीज़ होती हैं। सोच रहा हूं कि किसी दिन बहुत ही प्रचलित खाद्य पदार्थों का एक टेबल उस ICMR वाली किताब से चुराकर आप तक पहुंचाऊंगा।

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

चाय में फ्लोराइड का मुद्दा भी कोई मुद्दा है !!

How much fluoride do U.S. water supplies contain ?
The majority of U.S. municipalities add fluoride ( which is toxic at high levels) to their drinking water, at rates between 0.7 and 1.2 ppm. The U.S. Centres for disease control states that this is a safe level. But what if you drink a lot of tea, which is very high in fluoride ? Do you want a double dose of fluoride ?
Food for thought.
आज का एक इंगलिश न्यूज़-पेपर अपने हैल्थ-कैप्सूल के माध्यम से अपने पाठकों को कुछ सोचने के लिये कह रहा है।
कैप्सूल का प्रश्न है – अमेरिका में सप्लाई किये जाने वाले पानी में फ्लोराइड की कितनी मात्रा रहती है ?
अमेरिका में अधिकांश म्यूनिसिपैलेटीज़ पीने वाले पानी में 0.7 से 1.2 ppm ( पार्ट्स पर मिलियन) की मात्रा में फ्लोराइड मिलाते हैं। अमेरिकी सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के अनुसार पानी में इतने फ्लोराइड की मात्रा एक सुरक्षित स्तर है। चूंकि फ्लोराइड का स्तर चाय में बहुत ज़्यादा होता है और अगर आप बहुत ज़्यादा चाय पीते हैं तो .......? क्या आप फ्लोराइड की डबल-डोज़ चाहते हैं?

यह तो थी इंगलिश अखबार में छपे हैल्थ-कैप्सूल की। अब हम अपनी सीधी सादी देहाती बात करते हैं। वो, क्या है कि लावारिस फिल्म का वह गाना तो आपने मेरी तरह सैंकड़ों बार सुन ही रखा होगा कि जिस का कोई नहीं उस का तो खुदा है यारो, मैं नहीं कहता किताबों में लिखा है यारो !! तो, इस फ्लोराइड के मामले में भी उस नीली छतड़ी वाले ने लगता है हम पर रहम ही किया है। क्योंकि देश के अधिकांश भागों में हमारे यहां पानी में फ्लोराइड की यह मात्रा प्राकृतिक तौर पर ही मौजूद है। लेकिन कुछ कुछ इलाकों में यह फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है जिस की वजह से वहां पर डैंटल फ्लोरोसिस एवं हड्डियों से संबंधित कुछ जटिलतायें उत्पन्न हो जाती हैं। रहमो-करम की बात मैं इसलिये कह रहा हूं कि कुदरत ने अपने आप ही हमारी हैल्प कर दी है क्योंकि पानी में फ्लोराइड को संयंत्रों के माध्यम से डालना एक बहुत ही महंगा काम है। यह तो भई अमीर देशों के वश की बात है........क्या कहा आपने, हम किसी से कम हैं क्या ?- ठीक है , अगर किसी रेलवे-स्टेशन अथवा बस-अड्डे पर जिस तादाद में 10रूपये वाली पानी की बोतलें लोगों को थामते देखते हैं केवल उसी समय ध्यान आने लगता है कि यार, हम तो अमीर देश वाले हैं !!
आज कल तो नहीं, लेकिन आज से बीस साल पहले देश में ऐंटी-फ्लोराइड लॉबी बड़ी स्ट्रांग थी। इसलिये टुथपेस्ट में फ्लोराइड के मुद्दे को भी बहुत उछाला जा रहा था। लेकिन अब वह सब बीते समय की बातें लगती हैं। और जहां तक टुथपेस्ट में फ्लोराइड मिलाये जाने की बात है.....यह तो अब सारे विश्व भर में यह सिद्ध हो चुका है कि दांतों की सड़न से बचने का एक बहुत ही कारगर उपाय है ---फ्लोराइडयुक्त टुथपेस्ट । मुझे याद है कि 1989 में मैं पीजीआई चंडीगढ़ में दांतों की बीमारियों की रोकथाम से संबंधित एक ट्रेनिंग प्रोग्राम अटैंड कर रहा था जिस दौरान हमें पता चला कि देश में उपलब्ध कॉलगेट का ही एक ऐसा ब्रांड है ( शायद उस का नाम था ..कालगेट कैल्सीगार्ड) जिस में फ्लोराइड मिला हुआ है। अब तो हमारे यहां टुथपेस्ट के अधिकांश ब्रांड ही ऐसे हैं जिन में फ्लोराईड मिला हुआ है।
लेकिन हमारी समस्या है कि जिन इलाकों में पानी की फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है, उन क्षेत्रों में भी हम पानी में फ्लोराइड की मात्रा कम करने के लिये कुछ ज़्यादा कर नहीं पा रहे हैं।
लेकिन एक बात नोट करने वाली है कि देश के सभी इलाकों के लिये फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट तो चाहिये ही- क्योंकि जिन इलाकों में फ्लोराइड की मात्रा पानी में अधिक होती है, वहां के लोगों के दांतों की संरचना ही कुछ इस तरह की होती है कि उन के दांतों में सड़न पैदा होने की ज़्यादा संभावना रहती है.....इसलिये उन के लिये भी फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट का नियमित प्रयोग बहुत ज़रूरी है ताकि दांत सड़न से बचे रह सकें।
अब थोड़ी बात करते हैं कि अमेरिका वाले पानी में आखिर फ्लोराइड डालते क्यों हैं....उस का कारण यह है कि फ्लोराइड एक ऐसा trace element है जो हमारे स्वास्थ्य के लिये ज़रूरी होता है। विशेषकर जब दांत जबड़े के अंदर बन रहे होते हैं तो उन की मजबूत संरचना के लिये पानी में फ्लोराइड की उपर्युक्त मात्रा होनी बहुत आवश्यक होती है। इसी प्रकार हड़्डियों के स्वास्थ्य के लिये भी फ्लोराइड का उचित मात्रा में पीने वाले पानी में मौज़ूद रहना ज़रूरी होता है।
वैसे पानी के इलावा फ्लोराइड अलग अलग लैवल में हमारे खाने में भी मौजूद रहता है...जैसे कि मछली एवं चाय। और जहां तक चाय की बात है कि चाय में फ्लोराइड की मात्रा काफी होती है, मुझे नहीं लगता कि इसे कभी भी हमारे यहां एक इश्यू के रूप में देखा जाता है और वास्तव में यह कोई इतना बड़ा इश्यू है भी नहीं जितना कि इस इंगलिश अखबार के कैप्सूल ने बताया है।
हमारे यहां तो चाय इश्यू है मेनली चीनी के लिये-----क्योंकि हम लोग जितनी मीठी चाय पीते है, उस रास्ते से हम लोग कितनी चीनी अपने शरीर में धकेल देते हैं, असल इश्यू तो यही है ।

बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

श्रृंखला ---कैसे रहेंगे गुर्दे एक दम फिट !! ....भाग एक

पिछले वीकऐंड पर मैं दो दिन के लिये चैन्नई में था....वहां पर किडनी हैल्प ट्रस्ट नाम की एक संस्था पिछले लगभग 12 वर्षों से आसपास के हज़ारों लोगों पर एक अध्ययन कर रही है, कि क्या बिल्कुल साधारण से उपायों द्वारा लोगों को गुर्दे की क्रॉनिक बीमारियों से बचाया जा सकता है। मुझे वहां एक मैडीकल- राइटर के तौर पर आमंत्रित किया गया था।

इस संस्था के संचालक हैं – डा एम के मणि जो कि देश के सुप्रसिद्ध नैफ्रोलॉजिस्ट ( गुर्दा रोग विशेषज्ञ) हैं ..डा मणि मद्रास के अपोलो हास्पीटल के नैफ्रोलॉजी विभागाध्यक्ष भी हैं.....लगभग बीस लोगों को इस ट्रेनिंग वर्कशाप में बुलाया गया था। इस अध्ययन एवं ट्रेनिंग प्रोग्राम के बारे में विस्तार से तो मैं अपनी अगली पोस्टों में लिखता रहूंगा। इस अध्ययन में इन के साथ हैं जानी-मानी ऐपियोडेमियोलॉजिस्ट, डा मंजूला दत्ता एवं श्री रवि दत्ता जो इस ट्रस्ट का प्रबंधन कार्य देखते हैं।

दो-चार बहुत ही महत्त्वपूर्ण सी बातें लिख कर यह पोस्ट तो समाप्त करूंगा।
सब से पहली बात तो यह है कि गुर्दे की क्रॉनिक बीमारियों की वजह से गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं। और एक बात है कि एक बार गुर्दे किसी क्रॉनिक बीमारी से ग्रस्त हो जायें तो या तो डॉयलैसिस रैगुलर करवाना पड़ता है ....और कुछ वर्षों के बाद तो गुर्दे के प्रत्यारोपण की ज़रूरत तो पड़ती ही है.......और हमारे देश में गुर्दे की तकलीफ़ों से जूझ रहे मरीज़ लाखों की संख्या में हैं और चंद मुट्ठी भर मरीज़ों के इलावा इतना महंगा इलाज करवाना इस देश की जनता के वश की बात है ही नहीं। यह तो एकदम तय है।

इसलिये केवल एक ही उपाय जान पड़ता है कि कैसे भी हो गुर्दे के रोगों से बच कर रहा जाये। क्या ऐसा संभव है ? – जी हां, देश के मशहूर किडनी विशेषज्ञों के अनुसार गुर्दे की क्रानिक बीमारी से बच कर रहना काफी हद तक संभव है।

गुर्दे की क्रानिक बीमारी के लगभग दस हज़ार मरीज़ों की एक स्टडी से पाया गया है कि लगभग इन में से 30 प्रतिशत केसों में डायबीटीज़ इस गुर्दे रोग का कारण होती है, अन्य 10 प्रतिशत केसों में हाई-ब्लड-प्रैशर की वजह से गुर्दे की बीमारी को देखा गया। इसी तरह से किडनी में पत्थरी की वजह से भी गुर्दे की बीमारी देखी गई है........सार के रूप में हमें वहां यही बताया गया कि गुर्दे की क्रॉनिक बीमारी के जितने भी कारण हैं उन में से लगभग 75प्रतिशत कारण ऐसे हैं जिन के बारे में हम कुछ न कुछ अवश्य कर सकते हैं ताकि गुर्दे की इस बीमारी से बचा जा सके।

कहने का भाव यह है कि अगर हम लोग मरीज के हाई-ब्लड-प्रैशर एवं उस की डायबीटीज़ को कंट्रोल में रखें तो हम गुर्दे की सेहत को काफ़ी हद तक बरकरार रख सकते हैं।

और विशेषज्ञों ने उस ट्रेनिंग प्रोग्राम ने एक बार पर बहुत ही ज़्यादा ज़ोर दिया कि चाहे कैसे भी जिस किसी भी दवा से यह संभव हो पाये- बीपी और डायबीटीज़ तो काबू में रहनी ही चाहिये। ऐसा नियंत्रण गुर्दे की सेहत के लिये बहुत ज़रूरी है।

लाइफ-स्टाईल की बात हो रही थी – बार बार उन्होंने ने यह भी कहा कि वज़न को तो कंट्रोल करना बेहद लाज़मी है ही ....इस के साथ ही साथ नमक एंव शूगर की खपत पर भी कंट्रोल करना होगा।

नमक के बारे में मुझे कुछ बातें जो वहां पर डिस्कस हुईं ध्यान में आ रही हैं। लेकिन तब तक आप एक होम-वर्क तो करिये- आप अपनी श्रीमति जी से या जो भी आप के घर में खाना बनाता है, उस से ज़रा यह पूछिये की आप के घर में एक महीने में नमक की लगभग कितनी खपत होती है। अच्छा आप यह सूचना मेरे को टिप्पणी में या ई-मेल में भेजियेगा., साथ में यह ज़रूर लिखियेगा कि परिवार में कुल सदस्य कितने हैं ....आगे की बात फिर करते हैं। वैसे ध्यान आ रहा है कि किसी ज़माने में मैंने कुछ लिखा था ...केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन!....कभी फुर्सत हो तो उसे थोड़ा देख लीजियेगा- यह रहा उस का लिंक