रविवार, 16 दिसंबर 2007

अंग्रेज़ी अखबार के ये हैल्थ-कैप्सूल.........आखिर किस के लिए ..

अंग्रेजी का एक समाचार-पत्र जो काफी लोकप्रिय है उस में नियमित तौर पर एक छोटा-सा हैल्थ-कैप्सूल छपता है। उस में किसी भी स्वास्थ्य विषय के ऊपर एक संक्षिप्त एवं सटीक सी जानकारी दी जाती है। कई बार तो बात समझ में आ जाती है। लेकिन कईं बार यही नहीं पता चल पाता कि आखिर ये किस श्रेणी के पाठक के लिए लिखे जा रहे हैं-क्योंकि डाक्टर होते हुए भी उस में लिखी वस्तुओं( साग-सब्जियों आदि) का नाम भी मैं पहली बार ही देख रहा होता हूं। और भी रोचक बात यह है कि कई बार तो मैं उन का नाम डिक्शनरी में भी नहीं ढूंढ पाता। एक बात जो और बहुत अखरती है वह यह है कि इन हैल्थ-कैप्सूलों में हैल्थ के प्रति एक बड़ी फ्रैगमैंटिड सी एपरोच सी दी जाती है। पता नहीं मुझे कभी होलिस्टिक एपरोच की महक उस में नहीं आई- प्रोस्टेट कैंसर से बचने के लिए कुछ खाने को कहा जाता है और स्तन कैंसर से बचने को कुछ और खाने को कहा जाता है। यह तो एक उदाहरण मात्र थी। वैसे भी उस कैप्सूल में दिए गए आंकड़े विदेशी अध्यय़नों के ही होते है-- अपने देशी आंकड़े तो कभी मुझे दिखे नहीं। क्या समाचार -पत्र वाले इस तरफ ध्यान देने का कष्ट करेंगे ?

जाते जाते एक शेयर ध्यान में आ रहा है....
हीरे की शफक है तो अंधेरे में चमक,
धूप में आ के तो शीशे भी चमक जाते है।

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2007

क्या अब हमारी बुजर्ग औरतों को भी शराब पिला कर छोड़ोगे ?

क्या अब हमारे देश की बुजुर्ग औरतों को भी शराब पिलाओगे........आप भी धन्य हो
आज के ही एक अच्छे खासे प्रसिद्ध हिंदी के एक समाचार-पत्र में एक खबर दिखी. शीर्षक था...बुढ़ापे में उम्र बढ़ाती है शराब....खबर में लिखा था कि आस्ट्रेलिया में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 70 साल से ज्यादा आयु वर्ग की जो महिलाएं दिन में एक या दो बार शराब का सेवन करती हैं, वह शराब का सेवन न करने वालों की तुलना में अधिक उम्र तक जीती हैं. अच्छी खासी लंबी खबर लगी हुई थी। ऐसी खबरें पढ़ कर इन समाचार-पत्रों की दयनीय हालत का ध्यान आता है। वैसे देखा जाए तो इन के हालात तो अच्छे खासे हैं.....बस पता नहीं क्यों ये ऐसी खबरें लगा के फिज़ूल की अटैंशन बटोरना चाहते हैं। अब सिडनी की औरतें शराब पिएं तो पिएं....... इस देश की सीधी सादी औरतें के मन में काहे ऐसी बातें भर रहे हो भई। उन देशों की महिलाएं अपने स्वास्थ्य के प्रति कितनी सचेत हैं इस का बखान भी यहां कि अखबारों में किया करो भाई, वे अपने अधिकारों को लेकर कितनी सचेत हैं, यह भी लिखो, उन को कितना अच्छा आहार उपलब्ध है, यह कौन लिखेगा, वे कितनी नियमितता से अपनी छाती की जांच(मैमोग्राफी) करवाती रहती हैं ताकि वे स्तन के कैंसर से बच सके, उन देशों की औरतों को गर्भाशय के कैंसर से बचाने के लिए कौन से टीके लगाए जा रहे हैं , जिन के बारे में मेरे देश की करोड़ों-अरबों बहनों नें अभी सुना भी न होगा.......इस सब के बारे में लिखो, तुम उसे उल्टे रास्ते पर चलने के संकेत दे रहे हो। आंचल में दूध - आंख में पानी वाली इस देश की आम महिला की सेहत की बात करो....वो कैसे दिन प्रति दिन पीली पड़ती जा रही है, कैसे उस की आंखें अंदर धंसती जा रही हैं। एक डाक्टर होने के नाते मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि ऐसे बकवास सर्वेक्षण हिंदी के समाचार पत्रों में नहीं छपने चाहिए ....जी हां, एक सुधि पाठक के लिए ये बकवास ही तो हैं. जिन देशों में इन की प्रसांगिकता होगी वे जो मरजी पिलाते फिरें। लेकिन ...मेरे देश की एक अनपढ़ से अनपढ़ नारी भी इतनी समझ रखती है कि वे ऐसी बातों को सिरे से नकार दें और ऐसा अनाप-शनाप मशविरा देने वाले को एक तमाचा भी जड़ दें तो कोई बड़ी बात न होगी। इसलिए ऐसी खबरें छापने से पहले कभी भी उस की सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकारिता का भी ध्यान रखा जाए तो ही ठीक है।

ये 1.31 पैसे, 1.69पैसे का झंझट....

जब कभी भी कोई बंदा कहीं बूथ से फोन करता है तो बिल कुछ ऐसा ही आता है...1.31पैसे, 1.69पैसे.....इस से तो ग्राहक का ही उल्लू बनता है। दुकानदार अकसर वापिस पैसै लौटाता नहीं है, ऐसे में ग्राहक की स्थिति बड़ी एम्बेरिसिंग हो जातीहै और वह खिसियानी सी हंसी हंस कर दुकान से बाहर निकल जाता है। अब 1.31 पैसे के लिए 2 रूपय़ ग्राहकों से लेना तो एक संभ्रांत लूट नहीं तो और क्या है भला। दुकानदार की कमीशन तो पहले से बिल में लगी ही होती है। मैं अकसर सोचता हूं कि कंपनियां जब ये टैरिफ वगैरह फिक्स करती हैं तो उन्हें क्या इन बातों का ध्यान नहीं रखना चाहिए। बात पचास-साठ पैसे की नहीं है, जब आप इस रकम को करोड़ो से गुणा करते हैं तो पाते हैं कि आम जनता को इतने करोड़ो का चूना लगाया जा रहा है और वह भी बेहद संभ्रात ढ़ंग से। ऐसे ही कई तरह के बिल जब हम भरने जाते हैं तो उस में भी यह चिल्लर का बेङद झंझट होता है। इन बातों के बारे में आप ने भी अगर अभी तक नहीं सोचा तो जरूर सोचिए और लोगों को भी सोचने पर मजबूर कीजिए । आज के जमाने में सब काम राऊंडिंग से होता है, तो फिर इन तमाम जगहों पर चिल्लर का झंझट क्यों।
मैं दो-चार बार एक बड़ी कंपनी की सब्जियों की दुकान पर हो कर आया हूं ...दाद देनी पड़ेगी.....अगर सब्जी का वज़न 613 ग्राम है तो पैसे भी 613ग्राम के ही लगेंगे। आने वाले समय में ऐसे संस्थान जो ग्राहक का ध्यान रखेंगे पल्लवित -पुष्पित होंगे। आप का क्या ख्याल है ?